ब्रजेश कानूनगो जी की कविताएं
कविताएं
अनवरत
पतझर की विदाई के बाद
बसंत का स्वागत
बारिश के बाद बीजों का
हरी बालियों में बदल जाना
अनवरत चलता रहता है चक्र
प्रतीक्षा की थकान से निढाल
पहली किरण के उजास से
मुस्कराने लगता दुखी आदमी।
दिनमान का अंतिम पुत्र
लड़ाई के आखिरी दौर में
जब फड़फड़ाने लगता है
बारह नए दोस्त सलाम कर
नए संघर्ष का ऐलान करते हैं।
शुरुआत और समापन तो
भ्रम है हमारा
एक मुग्ध नाग नाचता है
अपनी पूंछ को मुंह मे दबाए
उस्तादों के महा प्रस्थान के बाद
साजिंदे संभाल लेते हैं सितार
झूमते रहते हैं रसिक
रवींद्र के जाने के बाद भी
जारी रहता है उनका संगीत
इतना समझ लीजिए
सुर में आया जीवन का कोई अंश
शिकार नही होता समय का
अंतिम की पूंछ पकड़
नव प्रसूत धीरे धीरे
पैरों पर खड़ा होने लगता है।
मन की रेत पर
ये जो निशान बने हैं ताजे
कोई गुजरा है अभी
रेत से होकर
इंद्रधनुष उड़ा मन के आकाश में
लहरें पीछा करती लपकीं हमारी ओर
तो दूर तक बनते गए
स्मृतियों के सुंदर फूल
लौटते जल से डब-डबाए
कदमों के निशान
जैसे आंसू खिलखिलाती आँखों में
फिर गीली होने लगी है रेत
निशानों को भरने लगा है मीठा समुद्र।
त्यागपत्र
मेड़ पर खड़ा
बरसों पुराना दोस्त
खुशियों के उत्पादन का साक्षी है
फसल की गन्ध फूटती है उसकी देह से
खेतीहर का पसीना
भिगोता रहा उसके तन को
घर से आई रोटियों की खुशबू से
उसने भी पाई है संतुष्टि
सुख में खूब खिलखिलाईं टहनियाँ
तो पीली हो गईं पत्तियां दुख में
अचंभित है आज पेड़
कि जीवन में आये कम्प से
इस कदर घबरा जाएगा पुराना साथी
कम होती आवाज धड़कनों की
सुनता रहा रात भर
छाती से लगाए
मुक्त हो जाने की सूचना देती
लहरा रही है दोस्त की निर्जीव देह
त्यागपत्र की तरह
उदास पीपल के कंधे पर।
फाँस
कोई घाव मेरे भीतर
टीसता रहता
तुम्हारे दर्द के साथ साथ
शब्द जो लगा तीर सा
घायल हुआ
कभी तुम्हारा दिल
क्षमा के स्नेह और
पश्चाताप की बूंदों से
उभर आया है आज पुराना कांटा
मिट गई है धंसी फाँस की
सारी पीड़ा।
चीख
आप चाहे जितना कहें कि
कविता बहुत लाउड हो गयी है इन दिनों
पर यह चीखने चिल्लाने का दौर है
चीखना इस समय का प्रमुख स्वर है
एक चीख फ़ैली है हमारे चारों तरफ
जैसे गाँव पर उतर आती है दोपहर की उदासी
जैसे पसरा होता है सागवान के जंगलों में सन्नाटा
संग्रहालयों और स्मारकों के भीतर की शान्ति की तरह
हर कहीं महसूस की जा सकती है चीख की उपस्थिति
अगर सुन सकें तो जरूर सुनें
चौपाल से निकलती गंवई चीख की कमजोर आवाज
सूखे पत्तों को सहलाती हुई
जंगलों से एक चीख भी बहती हुई
चली आती है हमारे कानों तक
खामोश शिल्प और कलाकृतियों को सुनने के लिए
इतिहासकार या किसी पुरावेत्ता की जरूरत नहीं है अब
बंद दरवाजों को भेदते हुई
बाहर तक चली आ रहीं हैं पत्थरों की चीखें
सड़क पर बेसुध पड़ा अकेला आदमी
एक चीख के बाद खामोशी से चीखता चला जाता है
चलती कार से उड़े दुप्पटे
और खँडहर में बिखरी रेत की आवाज बिलकुल वैसी है
जैसे किसी गर्म तंदूर से निकलती चीख
चीखते सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं
और अधिक जोर से चीखते हुए
यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है
कि कौन विजेता है इस चीखने की प्रतियोगिता में
रेफरी तक को निर्णय सुनाना पड़ रहा है लगभग चीखते हुए
चीखने चिल्लाने के कई मंच सजे हैं
कई संस्थाएं खडी हो गईं हैं
जहाँ काबिल उस्ताद और गुणी पंडित
लोगों को इस कला का अभ्यास कराते नजर आते हैं
सबको निपुण बनाने के लक्ष्य में
चीख को सबसे पहले हाथ में लिया गया है शायद
वहाँ कोई चिल्ला रहा है तो कैसा अचरज कि
यहाँ की आवाज में भी नहीं सुनाई दे रहा कोई संगीत
परेशान नहीं होना चाहिए आलोचकों को
कि कविता बहुत चीख रही है इन दिनों.
ब्रजेश कानूनगो
परिचय
ब्रजेश कानूनगो
निवास : इंदौर (मध्यप्रदेश)
जन्मतिथि : 25 सितम्बर 1957 देवास म प्र
शिक्षा : हिंदी और रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर (मास्टर डिग्री)
प्रकाशन:
व्यंग्य संग्रह - पुनः पधारें,व्यंग्य संग्रह-सूत्रों के हवाले से।
कविता पुस्तिका- धूल और धुंएँ के पर्दे में(वसुधा), कविता संग्रह- इस गणराज्य में।
कविता पुस्तिका- चिड़िया का सितार।
कविता संग्रह- - कोहरे में सुबह
छोटी बड़ी कहानियां- 'रिंगटोन' (बोधि)
बाल कथाएं- ' फूल शुभकामनाओं के।'
बाल गीत- ' चांद की सेहत'।
संप्रति: सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।
संपर्क:
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो 9893944294
ईमेल bskanungo@gmail.com
डॉ. पदमा शर्मा : प्रथम कविता अनवरत में प्रकृति की अनवरत यात्रा का वर्णन है।
बारह नए दोस्त से तात्पर्य मैं बारह घड़ी की सुइयों से लगा रही हूँ।
मन की रेत में स्मृतियों और रेत का भावसाम्य अच्छा लगा।
लौटते जल से डबडबाए कदमों के निशान अच्छी पंक्ति
त्यागपत्र
में किसान की समस्या बहुत सघनता से उपस्थित हुई है।
चीख समसामयिक विषय को प्रतिपादित कर रही है। सही है जिसकी आवाज में दम वही हमदम।
यह चीखने चिल्लाने का दौर है।
ब्रजेश जी की कविताएँ धीरे से अंतस में प्रवेश कर स्थापित हो जाती हैं और सोचने को मजबूर कर देती हैं। अलंकार स्वयं उनके काव्य में समाहित हैं। वर्तमान में जो कविता लिखी जा रही है उसमें अलंकारिकता शून्य हो रही है।
अनीता मंडा : ब्रजेश सर की कविताएँ पढ़ बहुत सहजता से पाठक पर खुलती हैं और भाव विभोर करती हैं, कुछ मुहावरे नुमा पँक्तियाँ वाह कहलवाये बिना नहीं छोड़ती। सामाजिक समस्याओं पर चिंतन है इनमें लेकिन बोझिल करने की हद तक नहीं है। भाव शिल्प चीजों का सुंदर बेलेंस कविता को यादगार बना रहा है।
मैं कविता पढ़कर आनन्द लेती हूँ, कविता पर लिखने में सहज नहीं हूँ, अतः राई भर लिखे को पहाड़ भर मानने की गुज़ारिश।
ब्रज श्रीवास्तव : पहली कविता में अनवरत को स्थापित करने के लिये अनूठे बिंब हैं,दर्शन की झलक लिये यह कविता हमें मुतमईन करती है कि हमारे पास अनवरत जीवट है.दूसरी कविता में उच्च काल्पनिकता के साथ कविता की कला नुमांया हुई है.अन्य कविताओं में भी विषय को उचित संदेश के संग गूंथा गया है.
अवसाद और आनंद,गहनता और सहजता एवं शब्द का भव्य और भावार्थ का नव्य ब्रजेश जी की कविता की पहचान है.
शिल्पा शर्मा : बहुत सुंदर... दिल को छूती और दिलोदिमाग़ पर छाती हुई कविताएं हैं, ब्रजेश कानूनगो जी की। अनवरत में-उस्तादों के महाप्रयाण के बाद, साजिंदे संभाल लेते हैं सितार, झूमते रहते हैं रसिक, रवींद्र के जाने के बाद भी, जारी रहता है उनका संगीत... सृजन की सकारत्मकता से भर देता है मन को। मन की रेत पर- मन को तृप्त करती-सी कविता है। त्यागपत्र- हम सभी के दोस्त, अन्नदाता की त्रासद कहानी बयां कर रही है। घर से आई रोटियों की ख़ुशबू से संतुष्टि पाने के बाद अपने साथी की कम होती धड़कनों को छाती से लगाए सुनने की पीड़ा छलक रही है, इस कविता में। फांस- सच है कि क्षमा, स्नेह और पश्चाताप बड़ी से बड़ी दर्दनाक फांसों की पीड़ा हर सकते हैं, पर अमूमन लोग इनसे दूर रहकर फांसों की पीड़ा का ही जश्न मनाते रहते हैं। काश इस कविता की तरह सरल होता फांसों की पीड़ा से उबरना। चीख-हर कहीं महसूस की जा सकती है चीख की उपस्थिति, चीखते सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं, और अधिक जोर से चीखते हुए...आज का सच, जस का तस। अनवरत, त्यागपत्र और चीख कविताएं दिल मे उतर गईं।
अजय श्रीवास्तव 1- अनवरत - बढ़िया कविता आशावाद जगाती...
2 - मन की रेत पर - अच्छी कविता - भाव को पकड़ने में थोड़ा प्रयास करना पड़ा।
3- त्यागपत्र - अच्छी कविता
4- फ़ांस - वाह ,क्षमा के स्नेह और पश्चाताप की बूंदों से, उभर आया है आज पुराना कांटा,मिट गई है धंसी फांस की , सारी पीड़ा। उम्दा पंक्तियां , नायब अंदाज ...
5 - चीख - "चीखना इस समय का प्रमुख स्वर है" , " इतिहासकार या किसी पुरावेत्ता ...पत्थरों की चींखें"
बहुत अच्छे भाव
सभी कविताओं की शुरुआत बहुत ही प्रभावी है।त्यागपत्र कविता थोड़ी कम प्रभावी लगी।
ब्रजेश जी की कविताओं में जीवन दर्शन ,अनुभव की झलक दिखाई देती है। महज शब्दों का खेल या बिम्ब-प्रतिबिम्ब का आडंबर नही।यही पठनीय ,स्मरणीय बनाता है कविताओं को।
आरती तिवारी : बृजेश सर की कवितायेँ अपने समय के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं,जिनमें कहने से ज़्यादा अनकहा है, हर कविता अपने आप में विशिष्ट और पूर्ण है किंतु मुझे पहली कविता, अनवरत ने अलग से प्रभावित किया, इसमें निहित सन्देश का अर्थ अपनी क्षीण बुद्धि से लगाने के प्रयत्न में मैंने पाया, कि ये चरैवेति चरैवेति कह रही है, जीवन और समय का चक्र अनवरत चलता रहता है एक के खत्म होने से पहले दूसरा नव पल्लवित प्राण उसे गति देता रहता है।
दिनमान का अंतिम पुत्र
लड़ाई के आखिरी दौर में
जब फड़फड़ाने लगता है
बारह नये दोस्त सलाम कर
नए संघर्ष का ऐलान करते हैं,
ये खत्म होते साल का अंतिम दिन है, जिसे 12 बजते ही एक नया साल रिले के बेटन की तरह थाम आगे बढ़ जाता है, रंगमंच पर अपनी भूमिका
का निर्वाह करने के लिए, ये तो हमारा भ्रम है कि ये ख़त्म हुआ दरअसल वो एक दूसरे नये की शुरुआत होती है।
मुझे ये कविता बहुत अच्छी लगी🏵🏵 सर की कविताओं पर हम क्या कहें हम उनसे सीखते हैं। उन्हें नये संग्रह कोहरे में सुबह की हार्दिक शुभकामनाएं
मधु सक्सेना : बृजेश जी की कविताएं अपने समय पर अपनी उंगलियों से अपनी बात लिख रहे है ।घायल उंगलियों की पहचान तो है पर चीख़ सिर्फ कवि ही सुन पाता है और वही चीख़ फिर शब्दों में बिखर कर पाठक को उद्देलित करती है मानों कोई धीरे से पिन चुभा दे और चिहुंक उठे बहुत से मन ।
बृजेश जी कविता लिखते नही कहते है ।शब्दों का खेल न रचकर बात करती है कवितायें ।सामने बिठाकर धीरे से कठिन बात भी कर जाती है ।
कुछ कविताये तो इसी समूह में दिए विषय पर है ।
ये समूह लिखवा भी लेता है ।
कविताओं की कोमलता से कवि का स्वभाव भी पता चलता है तभी कह जाते है कवि मिट गई धंसी फांस की सारी पीड़ा।।।।।
कविताओं में कुछ जगह तारतम्य टूटा सा लगता है कुछ और कसावट हो तो कवितायें अपने स्वर को और मुखर करेंगी ।
बधाई बृजेश जी ..
आभार ....
सुधीर देशपांडे :आदरेय ब्रजेशजी की इन कविताओं में से कुछ कविताये लिखो कविता में पढ़ी हुई है। एक समर्थ रचनाकार के लिए किस तरह विषय सहज हो जाते उसका उदाहरण अंतर्मन, त्ययागपत्र फांस
अबीर आनंद :
अनवरत
एक मुग्ध नाग नाचता है
अपनी पूंछ को मुंह मे दबाए।
प्रकृति के कई इशारो में स्वयं को ऊर्जा देने का आख्यान भी है। आदमी का अपना संघर्ष तो है ही पर कभी-कभी पेङ-पौधों और जानवरों को देखकर लगता है जैसे वे खुद को प्रेरित करने में आदमी से भी आगे हैं। वरना, न कोई संपत्ति, न अतिशय मोह, फिर भली क्यों मयूर भी सावन का मोल समझते हैं।
मन की रेत पर
मन की रेत, आँसुओं की लहरें और स्मृति के फूल, सरल और सुंदर बिंब है। मीठा समुद्र में फिर एक सकारात्मक अपील है जो पुनः आशावादी सोच को रेखांकित करती है।
त्यागपत्र
शब्दों में एक मितव्ययता है जो आकर्षित करती है। थोङे में बहुत कुछ समेटने का प्रयास है। 'त्यागपत्र' अच्छी कविता है हालांकि शीर्षक कुछ सटीक नहीं लगा।
चीख
समसामयिक माहौल को कविता की अपील खोए बिना व्यंग्यात्मक लहजे में उतारती बहुत सुंदर कविता है। इस संकलन की पसंदीदा कविता लगी। कई वाक्य गहरे उतर गए।
पर यह चीखने चिल्लाने का दौर है
एक चीख फ़ैली है हमारे चारों तरफ...
संग्रहालयों और स्मारकों के भीतर की शान्ति की तरह...
खामोश शिल्प और कलाकृतियों को सुनने के लिए
सड़क पर बेसुध पड़ा अकेला आदमी
एक चीख के बाद खामोशी से चीखता चला जाता है
चलती कार से उड़े दुप्पटे
जैसे किसी गर्म तंदूर से निकलती चीख
प्रस्तुत कविताएं और उन पर प्रतीक्रियायें वात्सअप पर साहित्यिक समूह साहित्य की बात पर सुरेन सिंह द्वारा विमर्श हेतु लगे गई |
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