Friday, January 13, 2017

 शहंशाहों ने बनवायी मुहब्बत में मज़ारे और
 गरीबो ने वहां बांधे कई धागे मुहब्बत में


ये कहना है हमारे समूह के साथी भवेश दिलशाद जी का । आज हम लोग दिलशाद साहब के चंद अशआर और ग़ज़ल पढ़ेंगे और उस पर चर्चा करते हुए अपने अपने मन की बात रखेंगे ।
दिलशाद जी का काव्य अपने समय को मुखरित करता हुआ काव्य है जो अपने कहन में  बड़ी साफगोई से अपने शब्दों को पाठक तक समीचीन तरह से प्रस्तुत करते है   । इस प्रस्तुतिकरण में कवि भाषा की बंदिशें नही स्वीकारता ,वह काव्य में एक ऐसा कहन देता है जो पाठक तक अपनी बात सरल और चुटीले अंदाज़ में सम्प्रेषित होता रहे । कही कही उनके अंदाज़ में निदा फ़ाज़ली साहब का प्रभाव भी देखा जा सकता है । जो उनकी शायरी को अद्यतम रूप देता है । क्या वाकई उनका इशारा महीन है ? ये आप लोग बताये तफसील से...
           
                    --   सुरेन
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परिचयात्मक लेख - आकांक्षा
परिचय - भवेश दिलशाद
ग़ज़ल के पर्यायवाची, दोहों सी सार्वभौमिकता, काव्य रगों में, साहित्य का मर्म और नज़्मों सा जीवन... भवेश दिलशाद की सम्पूर्ण व्याख्या।
15 बरस से ज़्यादा समय से साहित्यिक पत्रकारिता, प्रमुख हिन्दी अखबारों में सेवाएं, साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन, हिन्दी में स्नातकोत्तर और अंग्रेज़ी में स्नातक और सीखने की तत्परता अब भी...
शिवपुरी में जन्मे, भोपाल में पले-बढ़े, परिवार में बड़े बेटे, बड़े भाई का प्यार, भरोसा और साथ देने का वादा निभाते हुए आगे बढ़े...
ज़िद्दी दिल, समझौता न करता हुआ दिमाग, बहुत गहरी सोच और संतुलित समझ भवेश हैं। भवेश एक चिन्तक हैं। विश्व को देखने का उनका अपना एक दृष्टिकोण है जो शुद्ध है, पवित्र है, छलरहित है। शान्त स्वभाव के दिखने वाले भवेश अगर आपसे ज़्यादा बात कर रहे हैं तो समझ लीजिएकि आपकी सोच उनसे कहीं मिल रही है। वक़्त गुज़ारना, बिताना या व्यर्थ गंवाना उन्हें कतई पसंद नहीं आता...
शेर जब 'हो रहे' होते हैं तो उनके माथे पर एक चंचलता, आंखों में स्थिरता और खालीपन और शरीर की शिथिलता देखना एक अनुभव होता है। शेर या ग़ज़ल होने की प्रक्रिया उनके सामने बैठकर देखना एक रोमांच है। भवेश एक ऐसे पुरुष हैं जिन्होंने मेरे कार्यों को प्राथमिकता देते हुए अपने व्यवसाय में तब्दीलियां कीं, स्थान बदले, मेरी बात परिवार व समाज के सामने सम्मान व दृढ़ता के साथ रखने में संकोच नहीं किया और... मुझे खुशी है कि मैं ऐसे पुरुष के साथ ज़िन्दगी निवेश कर रही हूं।



भवेश दिलशाद के चन्द अशआर -
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ख़्वाहिशें सब ख़त्म ख़ाली दिल ख़ला हो जाएगा
सूफ़ियों से मत मिला कर बावरा हो जाएगा।
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और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।

गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
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शहंशाहों ने बनवायीं मुहब्बत में मज़ारें और
ग़रीबों ने वहां बांधे कई धागे मुहब्बत में।

न मन्नत मांगते हैं अब न करते हैं दुआ कोई
निकल आये हैं हम दोनों बहुत आगे मुहब्बत में।
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मंदिर नहीं मियां किसी पनघट का दो पता
सदियों के प्यासे लोग हैं भटकाओ मत हमें।

हम भूल हैं या दाग़ हैं उजले वरक़ नहीं
इतिहास की कसम तुम्हें दुहराओ मत हमें।

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कुछ ग़ज़लें
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 ग़ज़ल - 1
कभी तो सामने आ बेलिबास होकर भी
अभी तो दूर बहुत है तू पास होकर भी।

तेरे गले लगूं कब तक यूं एहतियातन मैं
लिपट जा मुझसे कभी बदहवास होकर भी।

तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समन्दर हूं प्यास होकर भी।

तमाम अहले-नज़र सिर्फ़ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखायी दिया सूरदास होकर भी।

मुझे ही छूके उठायी थी आग ने ये कसम
कि नाउमीद न होगी उदास होकर भी।



🔵 ग़ज़ल - 2
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कहां पहुंचेगा वो कहना ज़रा मुश्किल सा लगता है
मगर उसका सफ़र देखो तो खुद मंज़िल सा लगता है।

नहीं सुन पाओगे तुम भी ख़मोशी शोर में उसकी
उसे तनहाई में सुनना भरी महफ़िल सा लगता है।

बुझा भी है वो बिखरा भी कई टुकड़ों में तनहा भी
वो सूरत से किसी आशिक़ के टूटे दिल सा लगता है।

वो सपना सा है साया सा वो मुझमें मोह माया सा
वो इक दिन छूट जाना है अभी हासिल सा लगता है।

ये लगता है उस इक पल में कि मैं और तू नहीं हैं दो
वो पल जिसमें मुझे माज़ी ही मुस्तक़बिल सा लगता है।

वो बस अपनी ही कहता है किसी की कुछ नहीं सुनता
वो बहसों में कभी जाहिल कभी बुज़दिल सा लगता है।

न पंछी को दिये दाने न पौधों को दिया पानी
वो ज़िन्दा है नहीं, बाहिर से ज़िन्दादिल सा लगता है।

उसे तुम ग़ौर से देखोगे तो दिलशाद समझोगे
वो कहने को है इक शायर मगर नॉविल सा लगता है।

 ग़ज़ल - 3
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बहुत बरदाश्त कर ली है मियां ये दुनियादारी क्या
जुनूं दिल में कफ़न सिर पर सफ़र की है तयारी क्या।

कोई नमक़ीन ख़्वाहिश क्या कोई मीठी कटारी क्या
समय के कड़वे सच हैं हम किसी की हमसे यारी क्या।

यहीं पर लेनदारी देनदारी सब निबट जाये
वो जब तौले तो चकराये कि हल्का क्या है भारी क्या।

जियूं ये क़श्मक़श कब तक निभाउं ज़िंदगी कितनी
रहेगी यूं ही क़िरदारों की मुझमें जंग जारी क्या।

जवानी हुस्न शोख़ी लोच जलवे सब बहुत दिलक़श
मगर है कोई औरत इस जहां में मां से प्यारी क्या।

  ग़ज़ल - 4
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यूं तो ज़िंदगी भर हम बनते हैं संवरते हैं
कितने हैं जो आख़िर में क़ायदे से मरते हैं।

बजता रहता है भीतर एक तानपूरा सा
सुर नहीं मिलाते क्यूं इतना शोर करते हैं।

देखें तुम भी कितने हो और कितना मारोगे
देखें हम भी कितने हैं हम भी कितने मरते हैं।

आईनों से कितने और अक़्स मांगें अपने हम
आओ अब तो जैसे हैं वैसे ही उभरते हैं।

आसमान काला और इस कदर है ज़हरीला
उड़ के थोड़ा सा पंछी अपने पर कतरते हैं।

सच के हाथ क्या आया बेवफ़ाई मायूसी
न्याय कर नहीं पाये आप जज बशर्ते हैं।

 ग़ज़ल -5
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वो सुना है ज़हीन है, हां है
फिर भी वो नुक़्ताचीन है? हां है।

आख़िरश दिलख़राश निकली, हां
अब भी वो दिलनशीन है? हां है।

अब भी है ऐतबार ख़ुद ने? नहीं
अच्छा उस पर यक़ीन है? हां है।

पड़ गये काले गड्ढे आंख तले
अब भी लेकिन हसीन है, हां है।

आसमां तो हुआ है मटमैला
आसमानी ज़मीन है? हां है।

देखते हैं कहां-कहां तक हम
फ़न कोई दूरबीन है? हां है।

लहजा दिलशाद का है ख़ूब मगर
क्या इशारा महीन है? हां है।


        - भवेश दिलशाद

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भवेश जी से कुछ सवाल -जवाब साहित्य की बाबत अनीता  मंडा के द्वारा 


प्र०....1 अपने जीवन के प्रारंभिक संघर्ष के बारे में कुछ बताइये?

उ०.....- बात है साहित्यिक जीवन की। शायद 14 बरस की उम्र की थ्ज्ञी जब काव्य और शायरी लिखने के प्रति रुझान हुआ। पढ़ना तो बचपन से ही था क्योंकि पिताश्री भी कवि थे। तो लिखना शुरू हुआ। ग़ज़ल ने शायद तभी आकर्षित कर लिया था। शुरुआत में ग़ज़ल को लेकर कम या भ्रामक जानकारियां हाथ लगीं। उनके हिसाब से कहा। तीन-चार साल बाद आदरणीय बशीर बद्र साहब से नियमित मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ। सबसे पहले यह पता चला कि पिछले कुछ सालों में जो लिखा है वो ग़ज़ल नहीं है। फॉर्म की तकनीक सीखने के लिए बशीर साहब के पीछे तीन-चार साल लगा रहा लेकिन वो उर्दू और मैं हिंदी बैकग्राउंड से थे इसलिए बहुत सी बातें मैं समझ नहीं सका, कुछ वो समझा नहीं सके।

फिर उस्ताद मरहूम स्वामी श्यामानंद जी से पहली मुलाकात हुई। उन्होंने मेरे ग़ज़ल के सफ़र को नयी और सही दिशा दी। बशीर साहब और स्वामीजी दोनों ने जब कह दिया कि 14 बरस की उम्र से अब तक जो मैंने लिखा वो ग़ज़लें नहीं थीं, तब एक दिन उन 300 रचनाओं को जला दिया और नये जोश के साथ आगे बढ़ा। 2002 में स्वामी जी ने दिलशाद नाम अता किया और अगले 12-13 सालों में उनसे बहुत कुछ सीखा। आज भी सीख रहा हूं।

प्र०.... 2 आपकी पढाई लिखाई कहाँ तक हुई?

उ०....- एमए तक। हिंदी में। पीएचडी करना चाहता था, लगभग आधी थीसिस लिख भी चुका था, ग़ज़ल पर ही लेकिन सही समझ और व्यवहार का गाइड न मिलने और पीएचडी करवाये जाने के कुचक्र को समझते ही इसका इरादा छोड़ दिया। वैसे पढ़ना तो अब भी जारी है, बस अब किसी परीक्षा के लिए नहीं पढ़ता हूं।


प्र०....3 ग़ज़ल  से क्यों और कैसे, कब जुड़ना हुआ?
यही विधा क्यों अपनाई?
उ०....- कुछ तो पहले कह चुका हूं, कुछ ऐसा है कि ग़ज़ल ने ही मुझे अपनाया। विधा बनकर नहीं बल्कि हस्ती बनकर। रग-रग में घुल गयी। सांस-सांस में रम गयी। अन्य विधाओं में कभी-कभी कुछ कहता हूं लेकिन वो कभी सार्वजनिक नहीं किया। मेरा इश्क़, मेरी जान ग़ज़ल ही है।

प्र०,,,,4 शायरी आपके लिए क्या है?
उ०....- शायरी मेरे लिए मेरी हस्ती है, मेरा वजूद है। अगर मुझमें से शायरी निकाल दें शायद मैं कुछ नहीं बचूंगा, कोई पहचान नहीं, कोई वजूद नहीं। एक फ़नकार की हैसियत से कहूं तो शायरी मेरे लिए आवाज़ है, जिसका कोई नाम या चेहरा नहीं बस आवाज़ है, बिना मज़हब की, बिना सरहद की... ये आवाज़ मेरे लिए ज़रूरी है, और मैं मानता हूं जो मेरे लिए ज़रूरी है, वो इस क़ायनात में बहुतों के लिए ज़रूरी है।

प्र०......5 पसंदीदा साहत्यिक व्यक्ति कौन-कौन?
उ०......- ये फेहरिस्त तो बहुत बड़ी है। बहुतों ने अपने समय को अपने शब्दों में बखूबी दर्ज किया है। बहुतों ने समय की सीमाओं से परे जाकर शब्द रचे हैं, वो सभी मेरे पसंदीदा हैं। कुछ नाम लेता हूं, लेकिन जो नाम नहीं ले रहा हूं वो भी उतने ही अज़ीज़ हैं - ख़ुसरो, कबीर, सूर, मीरा, गोरख, वारिस शाह, बुल्ला, मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, फ़िराक़, फ़ैज़, साहिर, अज्ञेय, मुक्तिबोध आदि-आदि।


प्र०....6 आगे क्या करना चाहते हैं साहित्य में?
उ०....- और बेहतर और बेहतर, और ज़रूरी, और कालजयी रचना चाहता हूं। कुछ योजनाएं हैं साहित्यिक सेवाओं के लिए। देखें क्या-क्या कर पाता हूं।


प्र०,,,,,7 ग़ज़ल में नवांकुरों को कोई सन्देश आपका?
उ०.....- बुज़ुर्ग नहीं हूं इसलिए इस तरह का सवाल बहुत जल्दी है फिर भी मुझसे करीब 15 साल जवान पीढ़ी साहित्य में आ रही है इसलिए पहली बात तो यही कि पढ़ना, सीखना कभी न छोड़ें बल्कि जल्दी सीखने की सलाहियत पैदा करें। दूसरी, बाज़ार और सत्ता के पैरोकार बिल्कुल न बनें। तीसरी, अपने आप को खोजने का हुनर तराशते रहें, बस अभी इतना ही।

प्र०......8 साहित्य में ग़ज़ल स्थिति पर विचार?
उ०..- साहित्य में बहुत सी धाराओं, विचारों, खेमों के लोग है। ग़ज़ल अपनी रवानी से जगह बना रही है। हर विधा की तरह इसमें भी बहुत कुछ ऐसा आ रहा है जो नहीं आना चाहिए। बावजूद इसके, ग़ज़ल के सामने बहुत चुनौतियां हैं। कई प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाएं, पत्रिकाएं ग़ज़लों को समुचित स्थान नहीं दे रही हैं। ग़ज़ल पर बहुत से इल्ज़ाम भी लगाये जा रहे हैं और एक वर्ग विशिष्ट ग़ज़ल के व्याकरण व शिल्प को लेकर नित नूतन शिगूफ़े पैदा कर रहा है। फिर भी, कुल मिलाकर अपनी चुनौतियों से जूझते हुए ग़ज़ल बहुत कुछ महत्वपूर्ण कह रही है और उसमें हर स्तर की बात कहने का हुनर है, मेरे ख़याल से। यह भी एक पहलू है कि बड़े-बड़े मंचों से गैर साहित्यिक व्यक्तित्वों द्वारा अपने वक्तव्यों में जितनी संख्या में शेर कोट किये जाते हैं, उतने किसी और विधा के अंश नहीं। मैं ग़ज़ल की सामर्थ्य, संभावना एवं भविष्य को लेकर तनिक भी सशंकित नहीं हूं।


प्र०......9 एक सवाल कुछ अलग सा
कई लोगों का कहना है कि ग़ज़ल ने इश्क़ मुहब्बत पर बहुत वक़्त बर्बाद कियाए अतः अब इस तरह की ग़ज़ल को बीते हुए समय की मान लेना चाहिए।
दूसरा वर्ग यह कहता है कि इश्क़ मुहब्ब्त के बिना ग़ज़ल भी रूखी और अरूचिकर हो जायेगी ।  जैसे अदम गोंडवी साहब की ग़ज़ल में समकालीन समस्याओं पर खूब लिखा गयाए लेकिन 5.7 ग़ज़ल पढ़ने के बाद कहन सामग्री की पुनरावर्ती होती मालूम होती है।
आपका क्या कहना है।
क्या समकालीन सामाजिक विद्रूपताओं को लिखना और समस्याओं को आवाज देना ही साहित्य है
उ......- पहले आख़िरी पंक्तियों पर बात करते हैं। सबसे पहले तो यह मान लें सबका अपना-अपना मानना है। संभवतः सभी सही भी हो सकते हैं। मेरा ख़याल यूं है केवल विद्रूपताओं या समस्याओं को ही बयान करना साहित्य नहीं है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य समाज और सत्ता के आगे चलने वाली मशाल की तरह है। साहित्य अगर रोशनी नहीं देता, राह नहीं दिखाता तो वह समस्याओं को बयान करे या किसी और बात को, वह सजग नहीं कहा जाएगा। इसी तरह द्विवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का आईना है। बहुत बातें हुईं, संवाद-प्रतिवाद भी हुए लेकिन इस वाक्य का अर्थ भी प्रेरित करना ही है। आईना आपको अगर कुरूप चेहरा दिखाये तो आपको उसे बदलने की प्रेरणा मिलना चाहिए।

कुल मिलाकर साहित्यकार को सजग और चैतन्य रहना चाहिए। अब बात ग़ज़ल की - देखिए ऐसा कहते हैं कि दुष्यंत ने ग़ज़ल को वो आवाज़ दी जिसमें समस्या या विद्रूपता या व्यंग्य प्रधान हो गया। इससे पहले भी ऐसा हुआ। दुष्यंत के बाद उनकी लकीर पर चलने वालों की भीड़ लग गयी। अदम गोंडवी को छोड़ दें तो उस लकीर पर कोई जनप्रिय नाम सामने नहीं आता। अदम के तेवरों को भी हम कुछ अलग कह सकते हैं। केवल वही उस लकीर को बड़ा करने में सफल रहे, बाकी तो वही लकीर पीटते दिखे।

ग़ज़ल का मौज़ूं कुछ भी हो, समाज, राजनीति, समस्या या इश्क़, दर्द और दिल, वह अपने निहित सृजन, संवेदना और दृष्टि के कारण ही स्थान बना पाता है। प्यार और दर्द सर्वकालिक विषय हैं इसलिए ये मौज़ूं पुराने नहीं हो सकते लेकिन इन पर इतनी बारीक़ी से इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब शायर कुछ कह रहे हैं तो बड़ी चुनौती का काम है कि कोई नयी या नये ढंग की बात पैदा कर सकें। बहुत कुछ रिपिटेशन होने के कारण यह कहा जाता है जो आपने कहा।

शायर का कनविक्शन और शायर का फ़न ग़ज़ल को बड़े मक़ाम पर ले जा सकते हैं, फिर वो किसी भी मौज़ूं पर हो। फिर भी, यह विषय बहुत बड़ा है, इसके कई पहलू हैं, जिन पर बहुत सी बातें की जा सकती हैं। फ़िलहाल इतना ही।

बहुत शुक्रिया।


प्र०,.....10आज आपकी रचनाएँ सा की बा पटल की शोभा बढ़ा रही हैं। सा की बा के बारे में क्या विचार हैं आपके ?

उ०.......-सबसे पहले तो मम्नून हूं सा की बा का कि मुझे इस तरह नवाज़ा। तरह तरह के समूहों के बीच इस समूह की विशिष्ट पहचान व छवि है। यहां संभवतः हर सदस्य के पास कुछ ग्रहण करने का मौका है, यदि वह सुपात्र है। मुझ जैसे कमअक़्ल और कमइल्म को तो बहुत कुछ मिलता रहता है, जानने समझने को। मेरे लिए एक अच्छा पहलू यह है कि यहां रहते हुए मैं ग़ज़ल के इलावा बहुत सी विधाओं के प्रासंगिक व समकालीन रचनाकर्म से रूबरू हो पाता हूं। बहुत से सार्थक विमर्शों का लाभ ले पाता हूं। अक्सर चुप रहता हूं इसकी वजह यही है कि मैं खुद को उस विमर्श के लायक नहीं समझता। लेकिन, यकीन मानें एक पाठक है जो सब कुछ पढ़ रहा है।

कुछ दिनों पहले माया मृग जी के रचनासंसार के साथ ही उनसे हुई बातचीत मेरे लिए इस पटल से जुड़े रहने का अतिरिक्त लाभ सिद्ध हुई। कथाओं, कविताओं के साथ ही मधु जी द्वारा प्रवर्तित बहसें भी काफी सारगर्भित सिद्ध होती रही हैं। साहित्यिक ऊर्जा का लगातार संचार करने वाले इस समूह के लिए मेरी जानिब से अशेष शुभकामनाएं और दुआ यही कि यह सिलसिला चलता रहे बिना विघ्न-बाधाओं के।
धन्यवाद।                                        
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वाट्स अप समूह साहित्य की बात , जिसके संचालक श्री ब्रज श्री वास्तव जी है  . वहाँ पोस्ट हुई भवेश दिलशाद    की गजलों पर पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियायें   
         
 Anita Manda: वाह !!  वाह !!  और वाह!!
इतने उम्दा अशआर पढ़ कर जबदस्ती वाह कहना नहीं पड़ रहा, खुद ब खुद वाह कहलवा रही है शायरी। बहुत पहुँचे हुए अशआर हैं, क्या सूफ़ियाना रंग है, आत्मा का परमात्मा से बिछोह ओर मिलन की प्यास वाह क्या खूबसूरत कहा है-
मंदिर नहीं मियां किसी पनघट का दो पता
सदियों के प्यासे लोग हैं भटकाओ मत हमें।
ईश से लगन में सूफियों की सत्संग की भूमिका पर और इससे बनी मन की हालत को बयाँ करता ये शेर कहन में कितना उम्दा है, उफ़्फ़्फ़ !!
ख़्वाहिशें सब ख़त्म ख़ाली दिल ख़ला हो जाएगा
सूफ़ियों से मत मिला कर बावरा हो जाएगा।
शायर की पहुँच बहुत दूर  तक है ।
कहन का नया अंदाज ओर जमीन लिए भवेश जी की ग़ज़लें सहजता से ध्यान खिंच लेती हैं।
साहित्य में वक्रोक्ति का अहम स्थान है, कोई बात सीधी साधी उतना असर नहीं रखती जितनी वक्रोक्ति में, और गज़ल में तो यह सबसे उम्दा अलंकार है, कहन में विरोधाभास बात की खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देता है।
तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समन्दर हूं प्यास होकर भी।
तमाम अहले-नज़र सिर्फ़ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखायी दिया सूरदास होकर भी।
आह !! सूरदास होकर भी दिखाई देना, क्या बात है।
दूसरी ग़ज़ल  की बात करें तो मतला ही कितना सुंदर कहा है, ' उसका सफ़र भी मंजिल लगता है'  सही ही तो है , जो मज़ा सफ़र में है मंजिल में कहाँ ?
एक नया प्रयोग यहाँ भी क्या खूब हुआ है-
"वो कहने को है इक शायर मगर नॉविल सा लगता है।"
तीसरी ग़ज़ल के बगावती तेवरों का क्या कहना।
कबीर याद आ जाते हैं पढ़ते पढ़ते।
"जवानी हुस्न शोख़ी लोच जलवे सब बहुत दिलक़श
मगर है कोई औरत इस जहां में मां से प्यारी क्या।"
औरत का सबसे खूबसूरत रूप है माँ, और उतना ही शानदार हुआ है शेर। इस पर मैं यूं कहती हूँ-
लिखा है खूबसूरत यूँ तो औरत को बहुत सबने
मगर ये बात पहले भी किसी ने ऐसे लिक्खी क्या?
चौथी गज़ल का आगाज़ ही बहुत बड़ी बात से हुआ है, कायदे से मरना माने जीने का सलीका आना, बहुत बड़ी बात है अपने आप में।
यूं तो ज़िंदगी भर हम बनते हैं संवरते हैं
कितने हैं जो आख़िर में क़ायदे से मरते हैं।
इसी गज़ल के एक शेर में छल छद्मों से दूर कितना बड़ा सच कहा है
आओ अब तो जैसे हैं वैसे ही उभरते हैं।
देश की न्याय कानून व्यवस्था पर एक व्यंग्य खूब हुआ है इस शेर में
सच के हाथ क्या आया बेवफ़ाई मायूसी
न्याय कर नहीं पाये आप जज बशर्ते हैं।
पाँचवीं गज़ल बिलकुल अलग तरह के रदीफ़ के साथ है, इस तरह के रदीफ़ को निभाते हुए बड़ा शेर निकाल लेना कम चुनोती पूर्ण नहीं, पर कहना पड़ेगा भवेश जी इसे निभा गए, इसी ग़ज़ल के शेर से दाद देना चाहूँगी
लहजा दिलशाद का है ख़ूब मगर
क्या इशारा महीन है? हां है।

 Braj Shivastav: अनेक शेर, ऐसे हैं जिन्हें याद कर लेने का मन हो रहा है, बस यही ताकत है इन गजलों की. हमारी कामना है कि इनके मयार के मुताबिक इन्हें खूब विस्तार मिले. विजय वाते जी के पाठ में बहुत असर है, दूसरा पाठ भी दमदार है.                      

संध्या कुलकर्णी  भवेश की ग़ज़लों से शेरों से पुराना परिचय है ...इन्हें सामने बैठकर सुनने का आनंद भी इस नाचीज़ ने उठाया है इनकी ग़ज़ल की कहन का अलहदा और नया अंदाज़ है लेकिन ख़ास यूँ भी है कि ये उनकी पारंपरिक गढ़त को बरकरार रखते हैं और  दोनों भाषाओं की नाज़ुक शब्दावली का सुनियोजित प्रयोग करते हैं ।अभी एक ग़ज़ल जो पहले कभी fb पर साझा की थी और बहुत बढ़िया लगी थी पेश है ----
ना करीब आ ना तू दूर जा ,जो भी फासला है ये ठीक है
ना गुज़र हदों से ,न हद बता ,ये जो दायरा है वो ठीक है !

न तो आशना ,न ही अजनबी ,ना कोई बदन है न रूह ही ,
यही ज़िंदगी का है फलसफा ,ये जो फलसफा हैये ठीक है !

ये ज़रूरतों का ही रिश्ता है ,ये ज़रूरी रिश्ता तो है नहीं,
ये ज़रूरतें ही ज़रूरी हैं , ये जो वास्ता है ये ठीक है !

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या ,तेरी उलझनों से  मुझे है क्या ,
ये तकल्लुफ़ात से मिलने का, जो   सिलसिला है ये  ठीक है !

हम अलग अलग हुये हैं मगर , अभी कपकपाती है ये नज़र ,
अभी अपने बीच है काफी कुछ ,जो भी रह गया है ये ठीक है !

मेरी फ़ितरतों मे ही कुफ्र है ,मेरी आदतों मे उज्र है ,
बिना सोचे मैं कहूँ किस तरह ,जो लिखा हुआ है ये ठीक है !


Akhilesh: देखते हैं कहां-कहां तक हम
फ़न कोई दूरबीन है? हां है।
फ़न दूरबीन है..वाह
भवेश के पास दृष्टि है वो इस दूरबीन का प्रयोग बखूबी कर पायेंगे ।इस कम्बिनेशन का वितान बहुत दूर तक है ।
बड़ी शागिर्दी से आती है ऐसी शायरी ।                      

श्रद्धा : भवेश दिलशाद जी का लहजा..हाँ है बेहद खूबसूरत .  

Rekha Dube: वाह,भवेश भाई अति सुंदर अशआर

चंद्रशेखर जी ..वाह वाह भवेश जी।
अपनी अलग शैली की शानदार ग़ज़लें,
एक से बढ़ कर एक शे'र..
मगर ये तो सबा-सेर है भाई
न मन्नत मांगते हैं अब न करते हैं दुआ कोई.......    
 निकल आये हैं हम दोनों बहुत आगे मुहब्बत में
बहुत बधाई आपको।
सुरेन जी आभार।


जतिन अरोरा.. गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुँह खुला रह जाएगा
उसे तन्हाई में सुनना भरी महफिल सा लगता है
आसमान काला और इस कदर है ज़हरीला
उड़ के थोड़ा सा पंछी अपने पर कतरते हैं
भवेश भाई कितनी लंबी खुखरी जिगर में उतार दिए.
न भारी भरकम शब्द
 न उलझन कोई
आम आदमी की कलम
बड़ी आसानी से सब शीशे में उतार दिया।
बहुत बहुत बधाई


सुधीर देश पाण्डे... जहेनशीन जहेनशीन भवेश।
तुम्हारी गजल है या कि है वो आग का शोला।
Jyotsana Pradeep: कभी - कभी कुछ पढ़कर लगता है आपका नसीब बहुत अच्छा है जो नायाब चीज़ आपको भी पढ़नें को मिली।
कमाल की  ग़ज़लें है !! एक अलग ही अंदाज़, लहज़ा और उस पर खूबसूरत बेबाकी..हर ग़ज़ल एक खूबसूरत  महल की तरह!!!
किस किस की तारीफ़ करूँ ...कुछ भी छूटा तो नाइंसाफी होगी..
भावेश  जी को बहुत - बहुत बधाई!
सुरेन जी का बहुत शुक्रिया
ऐसी पोस्ट को सलाम !!!!                      
Avinash Tivari: भवेश दिलशाद जी की छै शानदार गजलों का तोहफा आज.मिला।सभी बहुत अच्छीं एक से बढ़कर एक सुरीली हैं इन्होंने भीतर के तानपुरे को झनझना दिया है।संध्याजी ने भी एक गजल नरीब आ न दूर जा का जिक्र किया है भवेश जी से सस्वर पेश करने की गुजारिश है।आज का दिन खुशनुमा करने के लिये भवेश जी एडमिनजी संचालक जी सुरेन्द्र जी का शुक्रिया।👍👌💐🙏🎤                      

Uday Dholi: उस्तादाना कलाम है दिलशाद साहब का,बेहतरीन अश्आ़र से बज़्म रोशन हो गयी आज।
 वाह वाह 🙏🏻🌹🙏🏻🌹  
                  
राखी तिवारी : भावेश जी को बधाई.....
बेहतरीन गज़लो के लिए।
संचालन के लिए आभार, सुरेन जी।                      
 HarGovind Maithil Ji ...आज प्रस्तुत बेहतरीन गज़लों के लिए भावेश दिलशाद जी को बधाई और एडमिन  सुरेन जी का आभार ।

मीना शर्मा    एक शानदार शायर की उम्दा शाइरी के दिलफ़रेब अंदाज़ से रूबरू होना, यानि भवेश जी के रूबरू होना ।
बेहतरीन अन्दाज़े बयाँ, हर शेर पर वाह कहने का दिल करे.....*शहंशाहों ने बनवायी मुहब्बत में मज़ारें और
गरीबों ने वहाँबाँधे कई धागे मुहब्बत में *
दिलशाद जी को पढ़ना जैसे सीखना ग़ज़ल की महीन ,बारीकियाँ ।
मुबारकें......
चश्मेबद्दूर ।
शुक्रिया सुरैन जी , बेहतरीन प्रस्तुति के लिए| !

मनोज  जैन मधुर  ..साकीबा ने आज एक हीरे को प्रस्तुत किया है
भवेश जी मानसर के राज हंस हैं उनकी कहिन का मैं सदैव कायल रहा हूँ वे स्तर से समझौता नहीं करते वे अल्प और मीत भाषी है उनके स्वभाव का पता उनकी ग़ज़लें देती हैं।
भवेश जी के अनेक रूप इन प्रस्तुत ग़ज़लों में देखने को मिलते हैं कहीं दार्शनिक तो कहीं चिंतक एक बात और भवेश दाद की फ़िक्र नहीं करते उन्हें पढ़ने या सुनने के बाद उनके लिए दुआएं दिल से निकलती हैं।


Dinesh Mishra Ji: भवेश जी
बहुत उमदा ग़ज़लें
कई दिनों के बाद जैसे ताज़ा हवा का झोंका आया हो।
मुबारकबाद                      
 Komal Somrwaal: वाह भवेश जी की गजले एक से बढकर एक..👏🏼👏🏼👏🏼
खुद को बार बार पढने से नहीं रोक पा रही.. कुछ शेर तो वाकई इतने उम्दा है कि आने वाले समय में इन्ही के शेरों से हाजिर जवाबी की जायेगी..
गोलमजे जब उठेगी बात कर के प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
वाह वाह शानदार.. 👌🏻👌🏻
हर शेर का अंदाज ए बयां माशल्लाह.. अंतिम शेर खुद ब खुद सब कह जाता है..
लहजा दिलशाद का है खूब मगर
क्या इशारा महीन है? हाँ है..
बेशक है, बकायदा है..पटल हर रोज रचनाओं से सज्जित होता है किन्तु आज की बात तो कुछ और ही है..आपके गजल कहने के अंदाज और चीजों को देखने के नजरिये के हम कायल हुए.. बार बार हजारों बार आपको पढना चाहेंगे.. पटल का बहुत बहुत आभार.. 💐💐  
 गजलों में अर्थों की अभिगम्यता कितनी महत्वपूर्ण है??
क्या पाठक को अर्थ तक पहुँचने के लिए मेहनत करनी चाहिए?? यदि हाँ तो क्यूँ और नहीं तो भी क्यूँ??             भवेश जी आपसे जिज्ञासा का समाधान करने का अनुरोध 🙏🏼                      

Bhavesh Dilshaad: संप्रेषित होना साहित्य की हर विधा का कर्तव्य है। मेरा ख़याल है कि ग़ज़ल में तहदारी होती है, यानी जिसे हम अच्छी कहते हैं। एक सामान्य अर्थ के पीछे भी कुछ होता है, उसके लिए यानी between the lines के लिए पाठक को पहुंचना चाहिए। साहित्य प्रेमचंद के हिसाब से समाज व सत्ता के आगे चलने वाली मशाल है। रोशनी वही दिखाएगा जो ज़्यादा रोशन होगा। उस् ही दिखाएगा जिससे ज़्यादा रोशन है।          

आरती तिवारी...ग़ज़ल को समझना यूँ तो आसान नहीं,.इनकी तकनीकी समझ मुझे नहीं किन्तु दिलशाद भावेश की ग़ज़लें बहुत बारीकी से खुद बयां होती हैं,.वो सुना है ज़हीन है
 फिर भी वो नुक्ताचीन है👌🏼👌🏼इन ग़ज़लों में सूफ़ियाना अंदाज चुम्बक सा खेंचने की ताक़त रखता है। लगता है एक अरसा लगाया उनकी ग़ज़लों ने ये मुक़ाम हासिल करने में हर ग़ज़ल मुक़म्मल है👏🏼👏🏼 आफ़रीन🌹🌹😊
आरती तिवारी             
Manjusha Man: आज भवेश जी की ग़ज़लें पढ़ी बहुत ही अच्छी ग़ज़लें हैं, ऐसी की सीधी दिल में उतर जतिन हैं और जुबान पर चढ़ जातीं हैं। इन ग़जलों का खास कहन है जो प्रभावी है।
भवेश जी को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई                      
सईद अय्यूब ...आपके अ'शार और ग़ज़लों के बारे में क्या कहूँ सिवाय इसके कि वे इतनी दिलफ़रेब और ख़ूबसूरत हैं कि मुझपर अब यह लाज़िम है कि मैं एक दिन उन्हें चुराकर अपने नाम से शाया करवा लूँ। 😊😊 
मैं ख़ुशनसीब हूँ कि हमारे अहद में शायरी की बागडोर आप जैसे शायर के हाथों में है।

 मधु सक्सेना ...मैं ग़ज़ल के बारे में कुछ नहीं जानती ।आपकी ग़ज़लें पढ़ कर यूँ लगा मानो कोई अनजान अचानक आत्मीय बन कर मेरे साथ चल पड़ा ..
शब्दों और भावों का कारवां मेरे जेहन में बस गया  और मैं सोचती रही यूं भी लिखा जा सकता है ? कितने नज़दीक से जीवन को देखा होगा और उसे समझा होगा आपने, आज समझ आ रहा ।
आपके द्वारा आपकी रचनाएँ नष्ट करने वाली बात मुझे पता थी तब से ही सोचती थी अब कहन कितनी दृढ़ता आ गई होगी । बहुत दिनों से इच्छा थी आपको पढ़ने की अब रूबरू सुनना भी चाहती हूँ ।
18 जनवरी से 24तक भोपाल में हूँ ।आपका कोई कार्यक्रम हो तो बताइयेगा ।
आज आपकी ग़ज़लों में कबीर, खुसरो ग़ालिब आदि सभी आ गए हो मानो ।
एक एक शेर वज़नदार और दिलकश ।
सहज भाषा में इतना सुंदर लेखन आसान तो नहीं पर आपने मुमकिन कर दिखाया ।बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।

आभार सुरेन ।
               

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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