Wednesday, April 24, 2019

नदी ,धरती और समंदर 
ऋतु जोशी 



ऋतु जोशी 




1
प्रेम एक वहम है
की तुम किसी के हो
और कोई तुम्हारा ...

2
प्रेम एक जिद्धी, बिगडैल, बेलगाम घोडा
नहीं सुनता किसी की भी बात

3
प्रेम गणित में कमजोर एक बच्चा
जो एक और एक जोड़ कर
बार बार एक ही लिख देता है






प्रेम की ऐसी अविरल परिभाषाएं पढने को मिलती है ऋतु जोशी के कविता संग्रह "नदी ,धरती और समंदर" में |
संग्रह में छोटी बड़ी कविताएँ अपनी बात पुरे असर से पाठक तक  पहुंचाने में सक्षम है |प्रेम में मिलना ही प्रेम नहीं होता ,प्रेम में रूठना भी प्रेम है तो शिकवा शिकायत भी प्रेम का  श्रृंगार करते है |विरह के क्षण प्रेम को घटाते नहीं बल्कि उद्दात वेग से मन को प्रेम  से आप्लावित कर देते है |प्रेम के विध रंग ...हर रंग में प्रेम प्रगाड़ता से मन में रचा रहता है और तब रची जाती  है प्रेम कविताएँ तो हर शब्द प्रेम का महाकाव्य प्रतीत होता है|

विज्ञान विषय की विद्धार्थी रही ऋतू जोशी कविता के बारे में कहती  है कि ”विज्ञानं तथ्यों के विश्लेषण के  संस्कार देता है लेकिन कविता तथ्यों के विश्लेष्ण से अधिक भावजगत में विचरण करती है|”

छपास सुख से परे आप कविता लिखने मात्र को सुखों का राजसूय पूरा होना मानती है |भावजगत में विचरती कवी सम्पूर्ण स्रष्टि में प्रेम के ठीये पर तनिक ठहर कर अपने सहज समर्पण के अद्दभुत कौशल  से अपनी कविताओं में  प्रेम मौक्तिक की आकर्षक माला पिरोती है |

कल रात अपने ख्वाब में
मै मिलने चली गई थी तुमसे
बतियाती रही
उस ख्वाब में तुमसे देर तक
कल रात
क्या तुम्हारे ख्वाब में
भी मै तुमसे मिलने आई थी ?

सवाल ...?? नहीं यह सवाल नहीं ,यह तो जिज्ञासा है कि प्रेम जितना डुबो रहा है मुझे ,तुम साथ तो हो न ....तिर जाने के लिए |







इतनी खाली सी क्यों हूँ मै?
तू बिन बोले
बिन बताये
भीतर से कहीं चला गया क्या ?

प्रेम जिन्दगी को मायने देता है ,प्रेम बिना कैसा होता जीवन

ये तो तुम हो
जिसने दे दिए
इस जिन्दगी को मायने
वरना सोचती हूँ
कितनी बोझिल और बेवजह गुजर जाती यह जिन्दगी |

क्या शब्दों में प्रेम पूरा व्यक्त हो पाया है ?जितना लिखा गया ,कहीं न कहीं कुछ छुट ही जाता है ...प्रेम पत्र पर लिखी एक मोहक कविता

यूँ तो कभी प्रेम पत्र
नहीं लिखा तुझे
पर अक्सर ये सोचती हूँ
जो लिखती भी
तो क्या लिखती ?
क्या प्रेम कभी शब्दों में पूरी तरह से
अभिव्यक्त हो सका है भला
बातों का अव्यक्त रह जाना तो
बहुत बड़ी कमजोरी रही है प्रेम की |







प्रेम कविताओ के साथ संग्रह की अन्य कविताएँ भी पाठक का हाथ पकड़ रोक लेती है |स्त्री कवि मन स्त्री विमर्श को कितना व्यक्त कर पाता है यह भी देखने की बात है |हालाँकि शब्द अधूरे है अभी पूरे स्त्री मन को लिखने में ...

एक पारम्परिक लीक पर चलती स्त्री उस लीक को तोड़ने को जीवन समझ ले तो उसके मन की उथल –पुथल को महसूस किया जा सकता है |वो नहीं करना चाहती सेवा ,समर्पण ..नहीं  निभाना चाहती  मर्यादा  के मापदंड |वर्जनाये रोकती है उसकी साँसे तब वो कुछ पल ही सही आज़ादी चाह पाल ही लेती है ...और यहाँ आवाज़ आती है उसके पावों में पड़ी अद्रश्य बेडियो के चटकने की....

तोड़ कर सब वर्जनाये
चाहती हूँ जीना एक दिन
लांघ कर सब अपेक्षित मर्यादाएं
चाहती हूँ एक दिन आज़ाद करना
बरसों से मेरे भीतर कैद उस स्त्री को
जिसके बाहर आने से
सब कुछ उलट पलट हो जाएगा |


शीर्षक कविता नदी ,धरती और समंदर में नदी का अल्ल्हड़पन,समन्दर की चंचलता को अपने धेर्य से समेटे हुए धरती अपने खुरदरेपन को तटस्थता से जीती है |जीवन का त्रिकोण है पर वह न समन्दर के सुख को कम करना चाहती न नदी की तरह सुबकना चाहती ,जिससे समन्दर खारा हो .....धरती धेर्य की पराकाष्ठा का  पाठ सिखाती है इसमें |
अच्छा संग्रह लगा ,शुभकामनाये



प्रवेश सोनी
कोटा ,राजस्थान                                                                               

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