Tuesday, December 19, 2017


पुस्तक समीक्षा: तीतर फांद,सत्यनारायण पटेल 



सत्यनारायण पटेल

सत्यनारायण पटेल
परिचय
कहानी संग्रह-
१- भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान,
२- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
३-काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस
४- तीतर फांद 
उपन्यास-गांव भीतर गांव

पुरस्कार- 
वागीश्वरी सम्मान भोपाल
प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान, बांदा

पता- m-2/199, अयोध्या नगरी
(बाल पब्लिक स्कूल के पास) इन्दौर-452011( म.प्र.)
9826091605
bizooka2009@gmail.com


तीतर फांद: फंदे से मुक्ति का सपना

अरुण होता


हिंदी के कथा प्रेमी सत्यनारायण पटेल के कथा-संसार से भलीभाँति परिचित हैं। अपने दो कहानी-संग्रहों और एकमात्र उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ के माध्यम से सत्यनारायण ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इन्हें आप उनकी कथा-पीढ़ी से भी अलग रूप में पाते हैं। संवेदना और शिल्प के धरातल पर भी सत्यनारायण की कहानियाँ उनके समकालीनों से भिन्न सुर की पाई जाती हैं। इनकी ‘तीतर फाँद’ शीर्षक कहानी के कुछ प्रमुख बिंदुओं पर विचार करना यहाँ हमारा उद्देश्य है। कहना न होगा कि यह कहानी बहुआयामी है तथा इससे गुज़रकर पाठकों को कहानीकार के सरोकार, उसकी चिंता और उसकी समय तथा समाज से गहरी संबद्धता का परिचय मिलेगा।

सबसे पहले कहानी के शीर्षक ‘तीतर फाँद’ पर विचार किया जाना उचित प्रतीत होता है। तीतर एक पक्षी है। उसे फँसाने के लिए शिकारी फाँद बिछाता है। यह रस्सी से बना होता है। इसकी बनावट बड़ी ढीली-ढाली होती है। शिकारी इसे खेत पर डाले रखता है। दाना चुगने के क्रम में तीतर का पैर फँसता है और वह फँदे से मुक्त होने के लिए दूसरे पैर की मदद लेता है तो उसके दोनों पैर फँदे में फँसे रहते हैं। अगर तीतर ने अपनी गर्दन की सहायता से अपने को मुक्त करना चाहा  तो उसका पूरा शरीर फन्दे में बँध जाता है। कहने का मतलब यह है कि शिकारी के फँदे में तीतर का फँसना ही फँसना है। यहाँ तीतर फाँद प्रतीकार्थक है। इस कहानी में तीतर ही नहीं, सभी पात्र तीतर फंदे में बँधे हुए हैं।
 नैरेटर, उसकी पत्नी, पड़ोसी, महाराज, ठग आदि सभी पात्र किसी न किसी फन्दे से आक्रांत हैं। जैसे, कथावाचक व्यवस्था के फंदे में फंसा हुआ है तो उसकी पत्नी गृहस्थी के तीतर फाँद में बुरी तरह फँसी हुई है। शिकारी युवक जंगल विभाग के फँदे में पड़ जाते हैं तो महाराज ठग के फँदे में। ऐसा कोई भी पात्र नहीं जो फंदे में न हो। दरअसल, आमजन से लेकर सत्ता के उच्चासन पर बैठा हुआ व्यक्ति एक दूसरे को फंदे में डालने के लिए भरपूर प्रयास करता है  और उसमें सफल होता दिखाई पड़ता है। कहानीकार ने अपने समय की इस विडंबना को कथासूत्र में पिरोया है। उसने समय के यथार्थ को अंकित किया है। सबसे बड़ा फँदा पूँजी का है। पूँजी के वर्चस्व के सामने सभी बौने और ठिंगने प्रतीत हो रहे हैं। आम आदमी को फँदे में डालकर शोषण करनेवाली सत्ता पूंजी के समक्ष अपने घुटने टेक देती है। सर्वाधिक पूंजीवाले देश का वर्चस्व न केवल तीसरी दुनिया पर बल्कि विकासशील और विकसित देशों पर भी कायम है।
ऐसी स्थिति से उबरने के लिए संघर्ष ही एक मात्र उपाय तथा भरोसा है। कहानीकार ने तीतर की अपार संघर्षशीलता अंकित कर अपनी इस दृष्टि का परिचय दिया है कि क्रांति कभी आती है तो वह निम्नवर्ग या आमजन की पहल से संभव होगी। पूँजीवादी व्यवस्था में विरोध और प्रतिरोध समाप्ति की ओर है । ऐसी स्थिति में तीतर का बार-बार सत्ता के प्रतीक हेड साहब और तिवारी तथा तमाम मनुष्य विरोधी शक्तियों पर रबड़ी छोड़ना कहानीकार की कथा दृष्टि से परिचित होना है। हर संभव प्रयास करना, जूझना एवं संघर्षशील बने रहना आदि को कहानीकार ने तीतर के माध्यम से चित्रित किया है। यह अलग बात है कि सवर्ण और सत्ता की मिलीभगत से छुटकी तीतर गंभीर रूप से आहत होकर मृत्यु को प्राप्त करती है, लेकिन उसकी अदम्य जिजीविषा, अपार संघर्षशीलता और बेहतरीन समझदारी उसे कालजीविता प्रदान करती है। फाँद से मुक्त रखती है।






फाँद के संदर्भ में एक बात और भी है। कहानीकार का भी एक फंदा होता है। वह भी एक घेरा बना लेता है और उसके इर्द-गिर्द  वह कथा बुनता है। वह फंदे में पड़कर एक ही तरह की रचनाएँ करता है। इससे उसकी कथा एकरेखीय बन जाती है। ऐसा लगता है कि वह एक ही कथा को कई कहानियों में बार-बार रच रहा होता है। खुशी की बात है कि सत्यनारायण पटेल ऐसा नहीं करते हैं। यह कथाकार बार-बार अपने को तोड़ता है, अतिक्रमण करता है। अपने को ‘रिपीट’  से बचाता है। शिल्प और संवेदना दोनों ही स्तर पर। ‘भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी इमान’ हो अथवा ‘लाल लुगड़ी वाली छींट का सपना’, पल-प्रतिपल-78 में प्रकाशित कहानी ‘मिनी, मछली और साँड’ हो अथवा यह कहानी ‘तीतर फाँद’... सत्यनारायण एक ही तरह की कहानियाँ नहीं लिखते हैं। फाँद से मुक्त होकर कथा का सृजन करते हैं। इसलिए कहानीकार के लिए कहा जा सकता है कि वह फाँद से मुक्त तीतर फाँद है। इस कहानी को तीतर की तरह इसका रचनाकार अत्यंत जागरुक, संवेदनशील, प्रगतिशील और वैज्ञानिक सूझ-बूझ का है।

‘तीतर फाँद’ सही अर्थ में समकालीन परिवेश की कहानी है। इसकी समकालीनता भी महत्वपूर्ण है। समय और समाज की वास्तविकताओं तथा विडंबनाओं से टकराकर कहानीकार ने शिद्दत के साथ यथार्थ को अंकित करने का प्रयास किया है। असहिष्णुता हो अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कहानीकार ने गहरे रूप से अपनी संबद्धता तथा पक्षधरता को  कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है। अत्यंत असहिष्णु दौर में भी सत्ता की चालाकियों को समझे बिना उसके समर्थन में शामिल होने वाले लोगों पर इस कहानी में धारदार व्यंग्य किया गया है। अभिव्यक्ति के संकट का भी मनोज्ञ चित्रण इस कहानी में तीतर के माध्यम से किया गया है। खूबी यह है कि तीतरी बिल्कुल निडर होकर अपनी वाक्-स्वतंत्रता का प्रयोग करती है। भूमंडलीकृत समाज में महामौन साधता है, पढ़ा-लिखा और अपने को बुद्धिजीवी समझने वाला वर्ग। मध्यवर्ग में तो घोर अवसरवादिता आ गई है, पहले भी कम न थी। हालाँकि, यह भी सच है कि वह वर्ग हमेशा ढीला-ढाला रहा है।

 स्वार्थपरता इसका स्वभाव है। सत्यनारायण ने मध्यवर्गीय मानसिकता को भी भली भांति रेखांकित किया है---“ किसी अंबानी अडानी जैसी तोप तो नहीं । किसान मजदूर का बेटा हूँ। पूरा मध्यमवर्गी भी नहीं। रोटी, कपड़ा और मकान के लालच में खुद को पहले ही गिरवी रख चुका हूँ। फिर फँदे में और क्या फँदवाऊँगा। मैं महाराजा से पंगा कैसे लूँ। क्या करूँ! छुटकी को क्या कहूँ। जब इतना सोच विचार कर भी कुछ न सुझा! झूठ-मूठ ही कहा कि रामजी की मौज है। बस यूँ समझूँ कि सोलह मई के बाद तो जैसे राम राज्य ही है।’’

कवि मुक्तिबोध ने पचास वर्ष पहले लिखा था--- “ अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’’ लेकिन आज के चापलूस समाज में  अभिव्यक्ति के संकटों का कोई सामना नहीं करना चाहता है। बुद्धिजीवी वर्ग अपनी गोटी बिछाने में व्यस्त है। इस कहानी का नरैटर ‘कन्फ्यूज्ड’ तो है, पर पूरी तरह ‘कन्फ्यूज्ड’ नहीं है। उसे गलत-सही, उचित-अनुचित के बारे में जानकारी है। लेकिन वह खतरे उठाने के पक्ष में नहीं है। एक सरकारी कर्मचारी सुरक्षा को महत्व देता है। अपनी ही सुरक्षा उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। ढुल-मुल व्यक्तित्व वाले ऐसे कर्मचारियों की तादाद सर्वाधिक है। कहानीकार की बड़ी चिंता है कि ऐसे बिना रीढ़ की हड्‍डी वाले व्यक्तियों से समाज तथा राष्ट्र का निर्माण भला कैसे संभव है? 

इसी तरह असहिष्णुता, गोमांस भक्षण विवाद आदि विषयों पर भी कहानीकार की साफ दृष्टि नज़र आती है। वह गोमांस भक्षण का समर्थक नहीं है। ‘बीफ पार्टी’ आयोजित करने वालों के पक्ष में भी नहीं है। गोमांस निषेध के बहाने अपनी राजनीतिक स्वार्थ लिप्सा की पूर्ती करने वालों का भी पैरोकार नहीं है। दरअसल, पशु-पक्षी भी जीव होते हैं और मांसभोजियो की संख्या बढ़ती जाए तो कई प्रजातियों के तमाम जीव-जंतु विलुप्त हो सकते हैं। इससे घोर पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। अत: इस कहानी का एक पर्यावरणीय पाठ भी किया जा सकता है। पुन: अपने भीतर की संवेदनशीलता का विनाश हो जाए तो घोर अमानवीयता का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। कभी यह भी दिन आ सकता है “दो किलो मांस हूण का देना….दो किलो मांस नीग्रो…. मुस्लिम…. हिन्दू’’ कैसा अत्यंत भयानक दिन होगा। सच तो यह है कि पूंजीवादी समय में मनुष्य तथा उसके नाते तथा रिश्तों को प्रॉडक्ट बनाकर छोड़ दिया है। अगर यह स्थिति बनी रही तो अमानवीयता की क्रूर लीलाएँ  छा जाने में कोई देर नहीं।

प्रस्तुत कहानी में रचनाकार की राजनीतिक चेतना अत्यंत परिपक्व प्रतीत होती है। आज की राजनीति सत्ता पाने का एक हथियार भर है। गंदी तथा कलुषित राजनीति  का महाजंगल के चुनाव के माध्यम से जो खाका बताया गया है वह मूल्यहीनता का सूचक है। देश सेवा के नाम पर अपना घर भरनेवाले राजनेताओं की असलियत को बिना लाग लपेट के कथाकार ने पाठकों के समक्ष रखा है---“ जी था तो भौत गरीब माँ का बेटा। पर था महाचतुर भिया। महालफ्फाज। फाँकोडिया। फेंकू। झाँसेबाज। भिया लोग कहते कि उसको जन्म से ही तीतर का बाल था।… वह अपनी चालाकी, ठगी और भाटपन से कुछ छोटे-छोटे कारनामे किया करता। कभी दो जाति-संप्रदाय को भिड़वा देता और खुद साबुत बच निकलता।’’ कथनी और करनी में पीरघाट और मीरघाट की दूरी होती है इन तथाकथित ‘विकास पुरषों’ की।
 खान-पान में भी महाराज की बराबरी कोई नहीं कर पाता—“ ये नया महाराजा तो जैसे ब्रह्मपिशाच हो। जो खाता तो खिचड़ी ही। लेकिन उसे सीझाता है सवा अरब तीतर के खून में।’’ संविधान तथा लोकतंत्र के नाम पर ‘तीतरों’ का शोषण करनेवाले प्रबल आक्रोश में न आते तो भला क्या करते। इसलिए कहानीकार ने ‘तीतर’ के माध्यम से अपना तीव्र विरोध दर्ज कराया है---" लेकिन उस दिन छुटकी के मूड को जाने क्या हुआ था। मेरी न सुनी और न रुकी। और यूँ एक-एक चीज पर रबड़ी टपकाने लगी, मानो बुरी, अप्रासंगिक, मृत चीजों को रबड़ी के नीचे दफ़न कर रही हो। फिर तो घर में मौजूद बाज़ार पर, संविधान पर, हर कानून पर छुटकी रबड़ी टपकाने लगी।’’

दो राष्ट्रों के बीच छिड़े संघर्ष अथवा युद्ध दरअसल दोनों राष्ट्रनायकों की अभीप्सा पूर्ति के उदाहरण हैं। लेकिन आम जनता इसे भी भली-भांति समझती है। दो महाराजाओं को ठग जिस प्रकार बेवकूफ बनाता है उसे आप अमेरिका की अस्त्र-शस्त्र विक्रय नीति के साथ मिलाकर पढ़ें तो निहितार्थ अच्छी तरह समझ में आयेगा। आमजन की इच्छा और आशंका है कि दुनिया के सभी लोग मिल-जुलकर रहें। दोनों राजाओं की आँखें खुल जाती हैं जब तीतरी कहती है—“ क्या हासिल होगा तुम्हें एक-दूसरे का खून बहाकर। धन-दौलत। यह सब तो तुम्हारे पास पहले से ही हैं। दोनों अपने सैनिकों और हथियारों पर जितने रुपये खर्च करते हो वह बंद कर दो। आपस में शांति-संधि कर लो।…दोनो के राज्य में सुख समृद्धि होगी। खुशहाली होगी।’’ 

इस कहानी में छुटकी तीतरी के माध्यम से दलित संदर्भ भी खुल कर प्रकट होता है। सत्ता और सवर्णों के संयुक्त आक्रमण से दलित जीवन असह्य हो उठता है। कहानी में शंभू सिंह किसान की आत्महत्या की घटना भी बहुत कुछ कहती है। लोग इसे तमाशा मानकर खड़े रहते हैं जबकि तीतरी अपनी जान जोखिम में डालकर अपनी संवेदना प्रकट करती है।
‘तीतर फाँद’ पूर्वदीप्ति शैली में लिखी गई एक मार्मिक कहानी है । तीतरी छुटकी के पात्र को इतनी आत्मीयता और संवेदनशीलता के साथ सिरजा गया है कि पाठक इसे लंबें समय तक याद रखेंगे। सत्यनारायण पटेल कथा लिखते नहीं, कहते हैं। अत: स्वाभाविकता मार्मिकता, रोचकता, पठनीयता तथा सरसता इनकी कहानी में स्वत: आ जाती है। एक अद्भुत किस्सागो हैं सत्यनारायण पटेल। मुख्य कथा के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी घुली-मिली रहती हैं। किस्सों से किस्से निकालने में भी इन्हें बड़ी सफलता हासिल हुई है।
इस कहानी की सबसे महत्वपूर्ण खूबी है इसकी लोक कथा गूँजा और बाई की कथा के माध्यम से कथाकार ने अतीत, वर्तमान और भविष्य को अंतर्सूत्रों में ग्रथित किया है। इस कहानी में प्रयुक्त लोककथाएँ इतिहास को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जोड़ती हैं। मालवा अंचल की बोली-बानी में कहानी में जबरदस्त चढ़ाव भी आया है। उम्मीद ही नहीं, विश्वास है कि ‘तीतर फाँद’ को पाठक खूब सराहेंगे।
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अरुण होता 




अरुण होता
वरिष्ठ आलोचक
2 एफ, धर्मतल्ला रोड, कस्बा,
कोलकाता- 700 042

साभार: पर प्रतिपल

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