पड़ताल: कहानी संग्रह फुगाटी का जूता
गंगाशरण सिंह
मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल का प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान-2017 मनीष वैद्य जी के कहानी
संग्रह "फुगाटी का जूता' " को दिए जाने की घोषणा हुई |संग्रह पर युवा आलोचक गंगा शरण सिंह, की समीक्षा के साथ प्रतिनिधि कहानी फुगाटी का जूता "रचना प्रवेश " पर
युवा आलोचक गंगा शरण सिंह, मुंबई ने 'फुगाटी का जूता' को अपनी समीक्षात्मक संपन्न दृष्टि में इस तरह पाया... यहाँ जस की तस उनकी टिप्पणी
मनीष वैद्य पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक महत्वपूर्ण कहानीकार के रूप में उभरे हैं। 2013 में आये पहले कहानी संग्रह "टुकड़े टुकड़े धूप" के बाद इस अंतराल में उनकी जो कहानियाँ देश की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं, उन्हीं का संकलित स्वरूप "फुगाटी का जूता" के रूप में हमारे सामने हैं। इन कहानियों से गुज़रते हुए हुए मैंने पाया कि मनीष जी ने इन बीते वर्षों में भाषा और शिल्प पर काफी मेहनत की है। उनकी समृद्ध भाषा और संवेदनशील सम-दृष्टि कई कहानियों को यादगार बना जाती है। उनके लेखन की एक और विशेषता उनकी रचनाओं का कथ्य है। विविध प्रकार के चरित्र और विषयवस्तु उनकी झोली में मौजूद हैं। घर और समाज से विस्थापित और व्यवस्था की संवेदनहीनता का शिकार हुए लोग उनकी रचनाओं में बार बार आते हैं।
इसी संग्रह की कुछ चुनिन्दा कहानियों पर एक नज़र। साथ ही एक कहानी पाठक मित्रों के लिए। कृपया इसे प्रतिनिधि कहानी न मानकर संग्रह की एक बानगी के तौर पर देखें।
घड़ीसाज--
"वह दुनिया के समय को बदलने, ठीक करने और अपनी तरह का समय बताने की एवज में अपना समय भुला देता है। समय बीतने पर क्या बचता है। हम दरवाजे पर चौकसी करते रहते हैं और वह कम्बख़्त खिड़कियों से गुज़र जाता है।
अब तो अपनी घड़ियाँ ही नहीं, लोग अपने समय तक को दुरुस्त नहीं करते। उपयोग के बाद फेंक देते हैं सब कुछ।"
अब तो अपनी घड़ियाँ ही नहीं, लोग अपने समय तक को दुरुस्त नहीं करते। उपयोग के बाद फेंक देते हैं सब कुछ।"
संग्रह का आगाज़ एक घड़ीसाज की संवेदनशील कथा से होता है, जो आधुनिकीकरण के दौर में न सिर्फ़ अपनी दुकान बल्कि इस दुनिया से ही बेदखल कर दिया जाता है।
"आदमी जात" एक लम्बे कालखण्ड को प्रस्तुत करती है। विभाजन के समय सिंध नदी के किनारे स्थित एक छोटे से गाँव से जान बचाकर भागा हुआ किशोर शरणार्थी कैम्प्स में भटकते हुए एक दिन अपने परिवार को पा लेता है। किन्तु बचपन की दोस्त शीनू और उसके परिवार का दुखद अंत उसे जीवन भर का दुख दे जाता है। घर परिवार और ज़िन्दगी की व्यस्तता के बीच सत्तर साल गुजर जाने के बाद भी उसके ख़यालों की आवाजाही सरहद के इस पार से उस पार तक चलती रहती है।
"फुगाटी का जूता" पिछले वर्ष पहल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बाजार के फैलते पाँवों और ब्रांड के पीछे भागती नई पीढ़ी की ये कहानी वास्तविकता की अंदरूनी तहों तक ले जाती है हमें।
"....कि हरदौल आते हैं---
(एक स्त्री के लिए विवाह के बाद कितना कुछ बदल जाता है। बोली, पानी, खान-पान, आचार-व्यवहार, बाना-पहनावा। फिर भी तमाम चीजें रह जाती हैं जो कभी नहीं बदलतीं। भौगोलिक सीमाओं से परे भी। जैसे उनकी नियति। जो यहाँ है, वही वहाँ भी है।)
जनश्रुतियों में जीवित हरदौल की ऐतिहासिक लोक-कथा का वर्तमान संदर्भों में किया गया सफल पुनर्लेखन है। इसका मार्मिक घटनाक्रम वर्तमान कहानी में मौजूद पात्रों के साथ पाठक को भी रोमांचित कर जाता है।
"उज्जड़" एक शालीन प्रहार है उन लोगों पर जो अपने वैभव के अहंकार में गरीबों को छोटा करके आँकते हैं, जबकि किसी आकस्मिक विपत्ति के समय यही।लोग निःस्वार्थ भाव से काम आते हैं।
"काग़ज़ ही काग़ज़ में बोलता है"
(सावन के बाद हमेशा भादौ ही नहीं आया करता। कभी कभी सावन के बाद फिर से आषाढ़ आ जाया करता है। ऐसा ही है ज़िन्दगी का भूगोल।)
ये एक ऐसे निःसंतान शख़्स की व्यथा कथा है जो पत्नी की मृत्यु के बाद शहर में एकाकी जीवन बिताते हुए एक दिन गाँव वापस लौटने का निर्णय करता है। भतीजे और बहू का अनमना व्यवहार देखकर उसकी उलझन बढ़ती ही जाती है। कुछ दिनों बाद उसे मालूम पड़ता है कि उसकी जमीन को हड़पने के लिए उसके भतीजे ने उसे मृत घोषित कर रखा है। स्पष्टीकरण माँगने पर "जो उखाड़ना है, उखाड़ लो" की धमकी मिलती है।
"अब्दुल मज़ीद की मिट्टी"
( क्या हुआ? अब्दुल मज़ीद मिला? अब तो वक़्त ने भी उसे रफू कर दिया। बरखुरदार, हमें ये गुमान होने लगता है कि हम बहुत बड़े रफ़ूगर हैं, जबकि वक़्त से बड़ा कोई रफ़ूगर नहीं होता। सब कुछ बदल देता है वह.. सब कुछ..)
घड़ीसाज के मुख्य पात्र की तरह इस कहानी का नायक भी इस बेरहम वक़्त का शिकार है। अपनी रफूगरी के लिए मशहूर इस शख़्स को अपने हुनर और इस हुनर की कद्र करने वाले लोगों पर इतना यकीन है कि बेटे के समझाने के बावजूद किसी और काम के लिए तैयार नहीं होता। कहानी का उत्तरार्ध हमारे समय की अमानवीयता और भयावह बाजारीकरण का दुखद स्वरूप प्रस्तुत करता है।
"ख़ैरात" शासकीय चालों और दबंगों के बीच पिसते साधारण जन की कहानी है। प्रशासनिक आदेश से एक गाँव के भूमिहीन गरीबों को जमीन आवंटित की जाती है। इनमें से अधिकांश जमीन नालों और ऊसर बंजर पहाड़ियों पर निकलती है। जिसके हिस्से में उपजाऊ जमीन आयी उन पर पहले से ही गाँव के पटेलों का कब्जा। इस बारे में बात करने पर उनकी ओर से धमकियाँ मिलती हैं। धीरे धीरे एक ऐसी पार्टी का अस्तित्व वहाँ उभरता है जो लोगों के आक्रोश को भुनाने में विशेषज्ञ है और एक दिन पूरा क्षेत्र आंतरिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो
जाता है।
जाता है।
"हरसिंगार सी लड़की" एक मासूम सी प्रेम कहानी है। विषयवस्तु और पात्रों के अनुरूप परिवर्तित भाषा का खिलंदड़ापन आनन्दित करता है।
"खोए हुए लोग"
( जो ज़िन्दगी भर सबकी चिट्ठियाँ सही पते पर, आज वह खुद अपना पता भूल गए।)
यह इस संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में एक है। स्मृति लोप का शिकार इस कहानी का बुजुर्ग पात्र अपने गाँव को अपना मानने से इनकार कर देता है। उनकी जिद है कि उन्हें उनके गाँव पहुँचाया जाय।
ये सोचकर कि शायद कुछ दिन यहाँ से दूर रहकर उनकी जिद कम हो जाय, घरवाले उन्हें लेकर तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। हालाँकि उनकी मनःस्थिति पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी गतिमान स्मृति यात्रा हमें प्रसंगवश गाँवों के निरंतर परिवर्तित होते हालात और लोगों की हिंसक मनोवृत्ति से जुड़ी कुछ घटनाओं से रूबरू कराती है। अतीत की इन्हीं दुखद यादों से उनकी वर्तमान मनोदशा के तार जुड़े हुए हैं।
ये सोचकर कि शायद कुछ दिन यहाँ से दूर रहकर उनकी जिद कम हो जाय, घरवाले उन्हें लेकर तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। हालाँकि उनकी मनःस्थिति पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी गतिमान स्मृति यात्रा हमें प्रसंगवश गाँवों के निरंतर परिवर्तित होते हालात और लोगों की हिंसक मनोवृत्ति से जुड़ी कुछ घटनाओं से रूबरू कराती है। अतीत की इन्हीं दुखद यादों से उनकी वर्तमान मनोदशा के तार जुड़े हुए हैं।
"सुगनी" हमारे समाज के उस दौर और उन क्षेत्रों की दास्तान बयान करती है जहाँ अशिक्षा और अज्ञान का अंधकार इस कदर व्याप्त रहता है कि सही और ग़लत की सारी विभाजन रेखाएँ ख़त्म हो जाती हैं। एक गरीब, असमर्थ और विधवा स्त्री पहले ताकतवर लोगों द्वारा जमीन और घर से रहित की जाती है और बाद में डायन घोषित कर उस पर अत्याचार की इंतिहा कर दी जाती है। दुखद अंत वाली यह कहानी बरबस मिथिलेश्वर के प्रसिद्ध उपन्यास "युद्धस्थल" की याद ताजा कर जाती है।
बोधि प्रकाशन जयपुर से इसी वर्ष आयी इस किताब का आवरण कलात्मक और प्रकाशन उच्चस्तरीय है। इन दिनों पढ़ी गयी अन्य किताबों की तुलना में प्रूफ़ की गुणवत्ता भी प्रशंसनीय है।
कहानी
फुगाटी का जूता
मनीष वैद्य
अब जूता उनके दिमाग में था या कहें कि जूता दिमाग में इस कदर अपना दखल कायम कर चुका था कि वे उससे इतर सोच भी नहीं पा रहे थे। जूता कुछ इस तरह से उनके भीतर रच–बस गया था कि कई बार झटकने पर भी निकल नहीं पा रहा था। गोया जूता नहीं उन्होंने कोई बीमारी गले लगा ली थी।
मौसम बदल रहा था। गुनगुनी ठंड अब बिदा लेने को आतुर थी। सुबह-शाम फागुनी बयार तन–मन को सुहाने लगी थी। उन्होंने अपने ड्राइंग रूम में सोफे पर पसरते हुए दूर तक निगाहें दौडाईं। सुबह की मुलायम धूप पूरब के पेड़ों से छनकर उजाले का इन्द्रधनुष बनाते लॉन की घास पर कुछ तिरछी आकृतियाँ बना रही थी। आम के पेड़ों पर फूल लद गए थे। कोयल अपनी कूक में तान भरने लगी थी। पास के तालाब से कुछ प्रवासी परिंदे उनके लॉन के पेड़–पौधों पर मंडराते चले आए थे। क्यारियाँ फूलों से भर गई थी।
कोई और दिन होता तो शायद वे इस दृश्य को जी रहे होते, लेकिन आज...आज तो वह जूता उनकी समूची चेतनाबोध पर भारी पड़ रहा था। उस अकेले जूते ने उनकी समूची चेतना को झनझना दिया था। उन्हें लगा कि यह सब सोचने का अब कोई मतलब नहीं है। इससे कुछ नहीं होने वाला है। उन्हें अब मान ही लेना चाहिए कि वे समय को पीछे नहीं ले जा सकते और न ही भागते हुए समय को पकड़ने की कूबत अब उनमें बची है।
हालाँकि उन्होंने कभी तीव्रगामी पहियों पर सवार वक्त की रफ्तार को इतनी हडबडी में बदहवास भागते भी नहीं देखा। उनके दौर में भी वक्त कभी ठहरा नहीं पर इस तरह उद्दंड, उद्दाम वेग से समूची सभ्यता और उसकी चेतना को रौंदते, धराशायी करते हुए वक्त से उनका साबका पहली ही बार है। वह भी उस जूते की वजह से। वह जूता नहीं होता तो शायद वे उसको इस तरह नहीं ही देख पाते। बदलते दौर की आहट से तो वे बावस्ता थे लेकिन वक्त के इतना दूर चले जाने की कल्पना भी उन्हें नहीं थी।
कभी उन्हें लगता कि जूता उनके गाल पर जड़ दिया गया है। वे दर्द और अपमानबोध से तिलमिला उठते हैं। कभी लगता कि जूते का आकार अनायास बड़ा हो रहा है। वह बढ़ते–बढ़ते इतना बड़ा हो जाता है कि बाज़ार से घर तक फ़ैल जाया करता है। वह बाज़ार से घर तक की समूची जगह को घेर लेता है। वे डरने लगते हैं। जूते से नहीं, बाज़ार और घर के बीच की जगह कम होते जाने से। उन्हें डर है कि कहीं यह जूता बड़ा-और बड़ा होते हुए उनके घर में तो नहीं पसर जाएगा।
वह जूता अब वहाँ नहीं था। वह लौट गया था लेकिन उनकी स्मृतियों में वह जूता अब भी वहीँ रखा हुआ था। उस खाली जगह पर अब भी उनकी स्मृतियों का जूता पड़ा हुआ था। चमचमाता हुआ काले रंग के चमड़े का जूता। उस पर करीने से काले रंग के महीन फीते गुंथे हुए थे। पैर की उँगलियों की और जाते हुए जूता नुकीला हो गया था। आम जूतों की तरह होते हुए भी उसमें कोई बात थी। ख़ास बात। मन मोह लेने वाली अदा थी उस जूते की। उसके अनाम कारीगर का हुनर क्या रहा होगा। यह उसका हुनर ही रहा होगा,जिसने उस जूते में अपनी जान डाल दी थी।
अकूत दौलतमंद और ताकतवर एक बादशाह था। उसने दुनिया के सबसे हुनरमंद कारीगरों से कहा कि ऐसी मोहक और खूबसूरत तामीर की जाए कि दुनिया में किसी ने कभी सोची तक न हो। ख़्वाबों से भी हसीन। हजारों मजदूरों ने अपने खून–पसीने से कुछ ही सालों में ऐसी बेमिसाल तामीर का महल बनाया कि चांदनी रात में वह मोतियों की तरह झरता। नदी के पानी में अपना अक्स देख–देख महल इतराता। दुनिया ने ऐसा महल पहले कभी नहीं देखा था। इतना सुंदर तो बादशाह का ख्वाब भी नहीं था। दूसरे दिन कारीगरों को दरबार में बुलाया गया। कारीगर खुश थे कि उन्हें बड़ा इनाम मिलेगा। तख़्त पर बैठे बादशाह ने वजीर को आदेश दिया कि इन कारीगरों के हाथ काट दिए जाएँ ताकि ये और कहीं ऐसी तामीर नहीं कर सकें। कुछ ही देर में उनके हाथ काटे जा चुके थे। तब से लेकर अब तक फिर कहीं कोई ऐसी तामीर नहीं हुई हाँ, बादशाहियत बनी रही। बादशाह बनते, बिगड़ते और बदलते रहे।
बचपन में सुना यह किस्सा उनकी स्मृतियों में हमेशा बना रहा। वे जब कोई नायाब चीज देखते तो उसके कारीगर के बारे में सोचते हुए डरने लगते। क्या पता उसके हाथ सलामत होंगे या नहीं। पहले पहल उन जूतों को देखकर भी उन्हें यही लगा था।
उन्हें अपने गाँव का कालू मोची अभी भी याद है। अपने छोटे से घर के आँगन में पत्थर पर जूते गांठते हुए चमड़े को रांपी से काटता या हथौड़ी से ठोंकता तो लगता वह चमड़े को नहीं अपने समय को ठोंक–पीट रहा हो। वह जब अपनी पिरैनी से चमड़े को गाँठ रहा होता था तो लगता कि वह अपने अभावों को गाँठ रहा हो। रैदास के गीत गुनगुनाते हुए भी उसके हाथों की सधी हुई उँगलियाँ चमड़े को ठीक ऐसी मोडती कि चमडा खूबसूरत मोजडी में बदल जाया करता। उस पर चमड़े का फीता लगाता और सतरंगी फुंदा बांधता। फिर मोजडी का जोड़ा आँखों के सामने कर लेता। उसकी आँखे हंसने लगती। अपने ही हुनर पर शायद वह फ़िदा हो जाता। वह कभी खाली नहीं होता था, कभी जानवरों की खाल साफ़ करते हुए तो कभी मोजडी बनाते तो कभी फटे हुए जूतों में पैबंद लगाते हुए वह हर समय काम में लगा रहता।
उसके आसपास नौसादर के पानी में सड़ते हुए चमड़े की बदबू फैली रहती। उन्हें लगता कि कालू अपने छोटे–छोटे औजारों से किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी कर रहा है। वे उसे जीतता हुआ देखना चाहते थे लेकिन बादशाह और कारीगर के किस्से से भीतर ही भीतर डर जाया करते। कालू के हाथ तो नहीं काटे गए लेकिन अब उसके सीधे हाथ में कोई हरारत नहीं। उसकी देह के दाएं अंग को फ़ाज़िल हो गया है। अब वहाँ गीले चमड़े की गंध कहीं नहीं है। उसकी उंगलियाँ किसी छोटी-सी हरकत के लिए अब भी कसकती होंगी, थरथराती होंगी। वह अब आँगन में नहीं बगल की बरसाती में सारी रात खांसते और थूंकते हुए पड़ा रहता है। आँगन की छाती पर एक छोटी दुकान उग आई है। डायमंड फुटवेयर। उसके लडके शहर से नई चलन के जूते–चप्पल लाकर बेचते हैं। लडके कहते हैं कि इसमें मेहनत भी कम और मुनाफा ज्यादा। कालू बात काटता है, 'मुनाफा है पर हूनर...' लडके उसे खा जाने वाली निगाह से घूरते हैं। वह सहम जाता है।
वे भी तो सहम गए थे। ठीक उसी तरह, जब मन्नू से उन्होंने जूते पर बात की थी। वे खुद को कालू में बदलते देख रहे थे... तो क्या हम सबकी नियति यही है। एक-सी नियति के लोग। अपने ही घर–परिवार से धीरे–धीरे हाशिये पर खिसकते लोग। उन्हें अब लगता है, उन्हें नहीं कहना थी मन्नू से जूते वाली बात... कहकर भी क्या हुआ। चुप रह लेते तो यूँ आज मन भारी नहीं होता। लेकिन नहीं कहते तो न जाने कब तक भीतर फांस चुभती रहती। खैर, अब उन्हें भी इस बात को नजरअंदाज़ कर देना चाहिए हमें थोडा–थोडा नजरअंदाज़ करना भी सीखना होगा। नजरंदाजी की आदत बनानी होगी।
एक बार फिर उन्होंने उस खाली जगह को देखा, जहाँ कुछ देर पहले तक वह जूता पड़ा था। उस खाली जगह में उन्हें जूते की मुस्कराती छवि दिखाई दी। उस जूते ने इस बार एक कदम आगे बढ़कर घमंड से इतराते हुए जीत की कुटिल मुस्कान उनकी ओर फेंकी। यह उन्हें इतना उपहासिक लगा कि वे सहन नहीं कर सके, दर्द की ठंडी नश्तर धंस गई थी। वे जानते थे कि यह भ्रम है पर उसमें इतना गहरा तंज था कि वे भीतर तक बिलबिला उठे।
उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी इतनी जलालत नहीं सही थी, लिहाजा यह उनके लिए पहला मौका था। वे अपने बचपन से ही गांधी दर्शन से खासे प्रभावित थे और अपरिग्रह का पालन करते हुए अपने लिए कम से कम संसाधन रखते थे। कम से कम ज़रूरतें और अच्छे विचार। अधिकारी होते हुए सादा पहनावा और ईमानदारी से उन्होंने घर चलाया। बच्चों को भी शुरू से अनुशासन में रखा और खूब पढाया–लिखाया। दोनों बेटियों की शादियाँ की, वे अपने घर चली गईं। बेटा मन्नू आगे पढाई के लिए यूएसए चला गया। वहीँ उसकी जॉब भी लगी। वे उसके वहाँ जॉब करने के खिलाफ थे। उन्हें लगता था कि बेटा पढाई के बाद इंडिया आए और यहीं कहीं नौकरी करे। सेलेरी भले ही कम हो पर यहीं रहे। पहले माँ–बहने भी खिलाफ रहीं फिर वहाँ मल्टीनेशनल कंपनी में साल की तनख्वाह आठ अंकों में सुनी तो उनकी खिलाफत ठंडी पड गई वे आखिर तक अड़े रहे। लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। यह उनकी पहली हार थी।
फिर धीरे–धीरे पिता का स्नेह जीतता गया और उनकी हार फीकी पड़ने लगी। करीब–करीब हर रोज ही वीडियो कालिंग से उनकी बेटे–बहू और बच्चों से बातें हो जाया करतीं। साल में दो बार मन्नू बच्चों के साथ घर आता। माँ–पिता को बीमारियों का वास्ता देते हुए अपने साथ ले जाने की जिद करता। बहनों के यहाँ मिलने जाता।
हालाँकि मन्नू के रहन-सहन का तौर–तरीका पूरी तरह से बदल गया था। उसकी हर ज़रूरत अब ब्रांड में बदलने लगी थी। पहनावे से लेकर क्रीम–पाउडर और चड्डी–बनियान तक। वह इस तरह इनका आदी हो गया था कि इनके बिना उसको अनकम्फर्ट महसूस होने लगता। वे अपनी ज़िन्दगी में जब, जहाँ और जो भी मिला, वापरते रहे पर मन्नू को देखकर वे सिहर उठते। ये लड़का किस तरफ जा रहा है। वे देखते कि मन्नू बेतहाशा और बिना सोचे-समझे अपने और अपने परिवार पर खर्च करने लगा है। उन्हें चिंता होने लगती। बावजूद इसके सब कुछ ठीक–ठीक चल रहा था।
दरवाजे पर हुई आहट ने उन्हें चौंकाया। देखा तो सरूप था। उनके मुंह से अनायास निकला–"सरूप अच्छे वक्त पर आए हो, बड़ा बुरा लग रहा था। मन में न जाने क्या–क्या ख्याल आ रहे थे। चाय पियोगे ...?"
सरूप अपनी आदत के मुताबिक पहले खांसा था और फिर लंबी सांस लेते हुए कहने लगा–"इधर से गुजर रहा था साहब तो आपकी याद आ गई, क्यों मन दुखी करते हो आप भी... अब मन्नू भैया का तो ऐसा ही चलता है। मन्नू भैया बच्चों के साथ आते हैं तो घर में होली और दीवाली साथ–साथ आ जाती है और जब जाते हैं तो..."
“बात वह नहीं है सरूप, उसकी तो अब आदत बन गई है। पता है कि वो दो–चार दिन ही हमारा वक्त हुआ करता है। वक्त ने हमको अपनी तरह से ढाल लिया है।"
वे सरूप को सब कुछ बताना चाहते थे। उससे खुलकर बात करना चाहते थे। अपने मन में चल रही घनमथान पर बातें करते हुए वे हल्के हो जाना चाहते थे। लेकिन भीतर कुछ था, जो उन्हें रोक रहा था। सरूप उनके नजदीक था पर आखिरकार बाहर का ही। घर की अंदरूनी बातें उससे करना ठीक नहीं होगी।
उधर सरूप चिंता में पड गया था।–"साहब, तबीयत नरम–गरम तो नहीं हो रही। ब्लड प्रेशर की दवाई लेना तो नहीं भूल गए, अस्पताल ले चलूँ क्या?"
"अरे, चिंता की कोई बात नहीं रे सरूप, यह तो उमर का ही कसूर है। इस दौर में आदमी ज़रूरत से ज़्यादा सोचने–समझने लगता है। नहीं सोचना चाहिए पर क्या करें, बस में भी कहाँ...यह भी जानते हैं कि इससे कुछ नहीं बदलेगा। सब कुछ अपनी रफ्तार से ही चलेगा। हम उसे बदल नहीं सकते। हम इस रफ्तार से बाहर किए हुए लोग हैं, जहाँ से हम पैवेलियन के दर्शक की तरह उन्हें रफ्तार में दौड़ते हुए देख रहे हैं।"–उनका चेहरा तमतमा गया था।
"हाँ, साब दुनिया ऐसे ही बनती है। नया आता है तो पुराने को जाना ही पड़ता है। देखिए न मैं भी तो रफ्तार का ही शिकार हूँ। उन निर्जीव मशीनों की रफ्तार ने एक ही रात में हम बारह सौ मजदूरों को फेक्ट्री से निकाल बाहर कर दिया। सवाल मशीनों का भी नहीं है, मशीने पहले भी थी और वक्त के साथ बदलती जाएंगी। सवाल तो हमारी सोच का है। विदेशों में आबादी कम होने से ज्यादातर काम मशीनों से करना पड़ता है पर हमारे यहाँ आबादी ज़्यादा होने पर भी मशीनों का मोह इसीलिए है कि इससे मजदूर कम रखने होते हैं। तनख्वाह कम तो मुनाफा ज्यादा। एक झटके में हम रफ्तार से परे धकेल दिए गए थे। फेक्ट्री को हमने अपने खून–पसीने से सींचा था। भूखे–प्यासे रहकर भी उसकी साख बनाई थी। आज दुनियाभर में इसके जूतों का डंका बजता है तो हमारे ही हुनर पर..."
उसने खांसने के बाद लंबी सांस भरी और कहने लगा–"यह हमारा हूनर ही था कि जूते मुंह से बोलते थे। सन सत्तर के आसपास जब फेक्ट्रियां लगाने के लिए सरकार ने इस कस्बे को चुना। तभी टाटा ने पहली बार यहाँ चमड़े का सामान बनाने का कारखाना खोला था। दो रोटी की चाह में हम भी जुट गए थे। गाँव में खबर पंहुची तो पिता उखड़ पड़े थे- “यही बाक़ी रह गया था। इसीलिए तुम्हें पढाया–लिखाया कि ठाकुर की औलाद होकर जूते गांठने का काम करो। क्यों मेरे नाम पर बट्टा लगा रहे हो। गाँव आ जाओ, खेत इतना तो देते ही हैं कि कोई भूखा न रहे। पर साब नहीं लौटे तो नहीं लौटे हम भी... डटे रहे और खटते रहे यहीं पर।"
"सरूप, तुम्हारी ये कहानी कई बार सुन चुका हूँ पर क्या करें... हम सब इस समय के आगे बेबस हैं। बेबस और निहत्थे। हमारे पास न इसके उस पार जाने का रास्ता है और न ही कोई तैयारी। इस चकाचौंध में हमारी आँखों की पुतलियाँ रतौंधी का शिकार हैं। हम मुट्ठीभर लोग बख्तरबंद हो भी जाएं तो क्या कर सकते हैं। हमारी हड्डियां थक चुकी हैं और नए लोगों से तो कोई उम्मीद भी नहीं..."
"अच्छा मैं चाय बनाता हूँ। मन्नू की माँ सत्संग में गई है। उसे लगता है कि बुढापे में यही रास्ता बच रह गया है। पता नहीं उसे लगता है या सत्संग वाले स्वामीजी की बात को ही दोहराती रहती है। कहती है कि सारी ज़िन्दगी अपने लिए जीते रहे, आखरी वक्त तो ऊपर वाले की लौ जगा लो। यही साथ जाएगा। यही सत्य है। मुझे नहीं लगता कि यह सत्य होगा। यही सत्य होता तो स्वामीजी इतना बड़ा मठ क्यों खड़ा करते। सत्संग में वे जिस माया को परे धकेलने की बात करते हैं, खुद उसमें ही क्यों उलझे रहते।"
सरूप बगीचे में काम करने चला गया और वे चाय बनाने किचन में। उन्होंने चाय चढ़ाकर लाइटर से गैस चूल्हा ऑन कर दिया। चाय धीरे–धीरे उबलने लगी। उबाल उनके भीतर भी फूट रहा था।
सरूप से उनका वास्ता करीब दस साल पहले हुआ था, जब चमड़े की टाटा फेक्ट्री से उसे निकाला जा चुका था। वह बहुत सदमे में था। उसके बच्चे अभी आठवीं–दसवीं में ही पढ़ रहे थे। नौकरी छूटने से उसका परिवार अब कैसे चलेगा। यह चिंता उसे खाए जा रही थी। उसने पढाई के बाद फेक्ट्री में काम करते हुए चमड़े के काम का हुनर सीख लिया था। इसके अलावा रोजी–रोटी के लिए उसे कोई काम नहीं आता था। तब उन्होंने ही उसे कुछ पैसे दे जूते बनाकर बेचने के लिए प्रेरित किया था। वह टाटा से कच्चा माल ले आता। उसने भी कुछ पैसे जोड़े थे, उससे ज़रूरी औजार खरीद लिए फिर जूते बनाने लगा। पहली जोड़ी उन्होंने ही उससे खरीदी थी। उसने बहुत सुंदर, फिट और आरामदेह जूता बनाया था। कुछ और जोड़ियाँ भी बनाई, उन्हें बेचने के लिए खूब हाथ–पैर मारे। बाज़ार भर में मेहनत की पर कुछ नहीं हुआ। हर किसी को ब्रांड चाहिए था। वे जूता नहीं पहनते थे, ब्रांड पहनते थे। अब जूता पैरों के लिए ज़रूरी नहीं,स्टेट्स सिंबल बन चुका था।
उन्हें पिता याद आए, जो एक ही जूते को कई सालों तक पहना करते। जूते में छोटी–मोटी टूट–फूट भी हो जाती तो वे मोची से उसे दुरुस्त करवा लिए करते। बारिश के चार महीनों में चमड़े के जूतों को कपड़े में बांधकर सहेजते, फिर बारिश खुलने पर उनकी सफाई और पालिश करते। उनमें नए फीते डालते तो उन्हें लगता कि नए जूते पहने हैं। नए जूते काटते तो वे उनमें रुई के फाहे चिपका लेते। बारिश के दिनों में वे नायलोन के जूते पहनते और बारिश के बाद उन्हें सहेज कर रखते अगली बारिश के इंतज़ार में। उनके जूते देखकर हम मौसम का हाल पता कर लेते थे।
चाय उबल गई थी। उन्होंने दो प्यालों में गर्म चाय उंडेली और प्यालों को दोनों हाथों में थामे उन्हें ड्राइंगरूम के सेंटर टेबल पर रख दिया। सरूप को आवाज़ दी और चाय के प्यालों से उठते धुंए के छल्लों को वे देर तक देखते रहे। उन्हें लगा हमारे बच्चे भी इन छल्लों की तरह ही हमसे दूर कहीं खो गए हैं। इस चकाचौंध भरे मेले में कहीं गुम चुके हैं।
सरूप और वे दोनों चाय पी रहे थे। ड्राइंगरूम में खामोशी पसरी थी। कभी-कभार सिर्फ़ चाय की सिप सुनाई देती थी। यह खामोशी उनके पूरे दौर की खामोशी थी। भीतर के भरे–पूरे उबाल के बावजूद बाहर की खामोशी। वे चाय नहीं अपने वक्त की सिप ले रहे थे। घूंट–घूंट। ड्राइंगरूम के बाहर की ज़िन्दगी रोजमर्रा की तरह आबाद थी। बाज़ार सुबह की अंगडाई लेने के बाद खुलने लगे थे। दुकानों के सिर पर ताज की तरह सजे वस्तुओं के ब्रांड के साइनबोर्ड धूप में छुरे की मानिंद चमकते हुए जगमग हो रहे थे। टीवी पर संसद में विदेशी निवेश को बढ़ाने का प्रस्ताव पास हो रहा था। ठीक उसी वक्त इस ड्राइंगरूम में दो बूढ़े अपनी चित परिचित उदासी में डूबे खामोश चाय पी रहे थे। छले जा चुके बूढ़े।
चाय पीते हुए वे सोच रहे थे उसी जूते के बारे में। मन्नू के जूते के बारे में। उन्होंने फिर एक बार उस जगह पर डरते हुए दृष्टि डाली,जहाँ कल तक वह जूता रखा था। उन्हें हैरत हुई कि अब वहाँ जूता नहीं था। सरूप के आने के पहले तक वही जूता उन्हें चिढाने का भ्रम दे रहा था पर अब वह यहाँ नहीं है। क्या सरूप की आँखों का लिहाज कर रहा है।
जब पिछली बार मन्नू आया था तब वे उसे टाटा कंपनी के आउटलेट पर ले गए थे। एक हजार से लगाकर तीन हजार तक के अच्छे से अच्छे जूते वहाँ थे। नई से नई डिजाइन और उम्दा दर्जे के जूते लेकिन मन्नू को नहीं जंचे थे। मन्नू बाहर निकल आया था और कार के पास खड़े होकर किसी से मोबाइल पर बतिया रहा था।
उन्होंने काउंटर पर बैठी लडकी से मुस्कराते हुए कहा था...”आजकल के बच्चों की पसंद भी बड़ी टिपिकल होती है। उन्हें चीजों से ज़्यादा उसके ब्रांड की ज़रूरत हुआ करती है।“
काउंटर पर बैठी लडकी भी मुस्कराई थी। फिर उसने अपनी सूनी आँखों में चमक भरते हुए कहा–"कोई बात नहीं सर... टाटा का ब्रांड भी पूरे देश में पहचाना जाता है और हमें यह बताते हुए प्राउड फील हो रहा है कि ये जूते यहाँ से एक्सपोर्ट भी होते हैं। दुनिया के नामी ब्रांड के जूते यहीं से जाते हैं।"
"मैं कुछ समझा नहीं... दुनिया के नामी ब्रांड के जूते यहीं से...कैसे?"
उसने काउंटर के पीछे अपनी कुर्सी से खड़े होते हुए कहा–"सर, बात यह है कि दुनिया के कई नामी ब्रांड ऐसे होते हैं, जो खुद कोई चीज नहीं बनाते। वे सिर्फ़ अच्छी चीजें खरीदते हैं और उन्हें अपने टेग लगाकर ऊँचे दाम पर बेचते हैं। यही जूता यूएसए में जाकर फुगाटी का नामी जूता हो जाता है।"
"फुगाटी का जूता तो काफी महंगा होता है...?" उन्होंने आश्चर्य से आँखे फैलाकर पूछा था।
"हाँ सर, वहाँ करीब तीस–बत्तीस हजार का पड़ता है।"
"ओह्ह, एक टेग लगा देने से सीधे दस गुना कीमत बढ़ जाती हैं"
"हाँ सर और लोग वहाँ ख़ुशी–ख़ुशी साढ़े चार सौ डालर में इसे खरीदते हैं।"
बाद में इसकी तस्दीक उन्होंने सरूप से भी की थी। इस बात को कई महीने बीत गए इस बीच मन्नू दो बार इंडिया आया भी। बात आई–गई हो गई
सरूप अपना प्याला खालीकर फिर से बगीचे में काम करने लौट गया था। वे सिलसिलेवार तीन दिन पुराने वाकिये को याद कर रहे थे।
इस बार जब मन्नू यहाँ आया तो चमचमाता चमड़े का जूता उसके पैरों में था। उसने घर में घुसने से पहले ठीक इसी जगह उतारा था अपना वह जूता। उन्होंने फिर उस खाली जगह को देखा, बिच्छु के डंक की तरह वह जगह उन्हें झनझना रही थी। जब मन्नू आया था तो जूते को पहन कर लेकिन जब लौटा तो जूते ने उसे पहन लिया था।
उन्होंने जूते के बारे में मन्नू से पूछा तो उसने बताया कि यूएसए के प्रसिद्ध शोरुम से इसे साढ़े चार सौ डालर में खरीदा है। यह दुनिया की सबसे बड़ी ब्रांड फुगाटी का जूता है। इसकी चमक देखिए, पहनने पर इतना हल्का और कम्फर्ट लगता है जैसे आपने जूता पहना ही नहीं।
फुगाटी का नाम सुनते ही उनका पारा चढ़ गया था।
"तुम्हें कुछ पता भी है। फुगाटी कोई जूता नहीं बनाती, वह सिर्फ़ अपना टेग लगाती है। यह जूता तो यहीं की फेक्ट्री में बना हुआ है। इसकी कीमत यहाँ महज ढाई–तीन हजार की है। यानी महज चालीस डालर का"-उनकी आवाज तल्ख होती जा रही थी।
"अरे, इसमें इतना हायपर होने की क्या बात है। वहाँ साढ़े चार सौ डालर मेरी दो दिन की कमाई है। कुछ कम-ज्यादा दे भी दिया तो कौन-सी मुसीबत टूट पड़ी।"-मन्नू ने बेपरवाही से जवाब दिया।
मन्नू की माँ ने उन्हें रोक दिया, वे कहना चाहते थे कि यह थोड़े पैसे ज़्यादा दे देने भर की बात नहीं है। यह जूता मारा है फुगाटी ने तुम्हारे चेहरे पर। तुम्हारे पूरे समाज पर।
उनकी साँसे उखड़ने लगी थी।
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परिचय
मनीष वैद्य
जन्म – 16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.)
शिक्षा -एम ए, एम फिल (हिंदी साहित्य), राहुल सांकृत्यायन पर शोध
हंस, पहल, कथादेश, वागर्थ, पाखी, कथाक्रम, इन्द्रप्रस्थ भारती, अकार, लमही, परिकथा,
कथाबिम्ब, वीणा, साक्षात्कार, आउटलुक, पुनर्नवा, अक्षरपर्व, युद्धरत आम आदमी सहित
महत्वपूर्ण सहितियिक पत्र - पत्रिकाओं में 60 से ज्यादा कहानियाँ प्रकाशित.
पानी, पर्यावरण और सामाजिक सरोकारों पर साढे तीन सौ से ज्यादा आलेख पत्र – पत्रिकाओं
में प्रकाशित, आकाशवाणी से भी नियमित प्रसारण.
कहानी संग्रह -
टुकड़े-टुकड़े धूप (2013)
फुगाटी का जूता (2017)
पुरस्कार -
प्रेमचन्द सृजनपीठ उज्जैन से कहानी के लिए सम्मान
यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017)
कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)
संप्रति -पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव
संपर्क- 11 ए मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा,
देवास (मप्र) पिन 455001
मोबाइल - 9826013806
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