Saturday, April 29, 2017

कविता की अनेक व्याख्यायें हैं, पर कई बार ऐसा होता है कविता पढ़कर हम कहने लगते हैं कि यह होना चाहिए कविता में, और कई बार हम सिर्फ वहां पहुंच जाते हैं जहां कविता ले जाती है, तब हमें ऐसा जरूरी नहीं लगता कि हम शब्दों से कविता को भी समझें या समझायें, वहां केवल संवेदना ही सफर करती है जो ह्रदय से ह्रदय तक का होता है, 
आज साहित्य की बात समूह में ऐसा ही हुआ, विस्थापन और विस्थापित का एक  दृश्य कविता के बहाने नजरों के सामने आता गया और पाठक बार बार डूबते रहे एक दुख भरी स्मृति में. जब प्रदीप मिश्र की हरसूद पर केंद्रित कविताएँ प्रस्तुत कीं गईं |
प्रस्तुत है साकीबा की समूची चर्चा. 
ब्रज श्रीवास्तव.
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प्रदीप मिश्र

जीवन वृत्त

जन्म - १ मार्च १९७०, गोरखपुर, उ. प्र. । विद्युत अभियन्त्रण में उपाधि, हिन्दी तथा ज्योतिर्विज्ञान में स्नात्कोत्तर। साहित्यिक पत्रिका भोर सृजन संवाद का अरूण आदित्य के साथ संपादन। कविता संग्रह “फिर कभी” (1995) तथा “उम्मीद” (2015), वैज्ञानिक उपन्यास “अन्तरिक्ष नगर” (2001) तथा बाल उपन्यास “मुट्ठी में किस्मत” (2009) प्रकाशित। साहित्यिक पत्रिकाओं, सामाचारपत्रों, आकाशवाणी, ज्ञानवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण । म.प्र साहित्य अकादमी का जहूर बक्स पुरस्कार, श्यामव्यास सम्मान, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार 2016 तथा कुछ अन्य सम्मान । अखबारों में पत्रकारिता । फिलहाल परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र, इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत। 

संपर्क -  प्रदीप मिश्र, दिव्याँश ७२ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, डाक : सुदामानगर,  इन्दौर - ४५२००९, म.प्र.।

मो.न. : +९१९४२५३१४१२६, दूरभाष : ०९१-७३१-२४८५३२७, ईमेल – misra508@gmail.com.   

                     
डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएं
( हरसूद म.प्र. का एक गाँव है, जहाँ के निवासियों को बाँध निर्माण के कारण विस्थापित कर दिया गया। )

एक - घर
जब भी कोई जाता
लम्बी यात्रा पर
घर उदास रहता
उसके लौटने तक

जब भी उठती घर से
बेटियों की डोली
वह घर की औरतों से
ज़्यादा विफरकर रोता

जब भी जन्मते घर में बच्चे
गर्व से फैलकर
अपने अन्दर ज़गह बनाता
उनके लिए भी
उत्सवों और सुअवसरों पर
इतना प्रसन्न होता कि
उसके साथ टोले-मुहल्ले भी
प्रसन्न हो जाते

इसी घर पर
आज बरस रहे हैं हथौड़े
वह मुँह भींचे पड़ा हुआ है
न आह, न कराह
चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर

घर विस्थापित हो रहा है।


दो - छूटा हुआ जूता
सुनसान सडक़ पर छूटा हुआ है
एक पैर का जूता
उसे इन्तज़ार है
हमसफ़र पाँव का
जिसके साथ
टहलने जाना चाहता है
पान की दूक़ान तक

एक किनारे औंधा पड़ा हुक्का
सुगबुगा रहा है
कोई आकर उसे गुडग़ुड़ाए
तो वह फिर जी जाएगा
भर देगा रग-रग में तरंग

ठण्डा पड़ा चुल्हा
खेतों में खटकर लौटी भूख
को देखकर जल उठेगा
लपलपाते हुए

खूँटी पर टँगा हुआ बस्ता
अपने अन्दर की स्याही से
नीला पड़ रहा है
उसे लटकने के लिए
नाज़ुक कन्धा मिल जाए तो
उसे बना देगा कर्णधार

उजड़ती हुई खिड़कियों के झरोखों
और दरवाज़ों की ओट में पल्लवित प्रेम
विस्थापित हो रहा है
अभी भी मिल जाऐं आतुर निगाहें तो
वे फिर रच देंगे हीर-राँझां

नीम की छाँव में
धूप के चिलकों का आकार बढ़ता जा रहा है

खेतों के गर्भ में
बहुत सारी उर्वरा खदबदा रही है

आखिरी तारिख़ का ऐलान हो चुका है
एक दिन इन सब पर
फिर जाएगा पानी

इस पानी से बनेगी बिज़ली
जो दौड़ेगी
नगर-नगर, गाँव-गाँव
चारो तरफ विकास ही विकास होगा

एक दिन विकसित समाज में 
कोई दबाएगा बिज़ली का खटका तो
उसकी बत्ती से रोशनी की जगह
विस्थापितों के जूते बरसेंगे
जो पुलिस के डंडे की डर
से छुट गए थे सड़क पर

कोई टेबल लैम्प ज़लाएगा
पढ़ने के लिए
उसके सामने फ़ैल जाएगी
बस्ते की स्याही
जो खूँटी पर टँगा छूट गया था

कोई कम्प्यूटर का खटका दबाएगा
तो उसके कम्प्युटर के स्क्रीन पर
उभरेगा मरणासन्न हुक्का
पूछेगा कहाँ गए वो लोग
जो मुझे गुडग़ुड़ाते थे

कोई हीटर का खटका दबाएगा
चाय बनाने के लिए
तो हीटर पर रखी केतली में
उन चूल्हों के ख़ूनभरे आँसू उबलेंगे
जिनकी आग पानी में डूब गयी

खेतों के गर्भ में खदबदाने के लिए
कुछ भी नहीं बचेगा
सड़ रही होंगी जड़ें

फिर दबाते रहिए बिज़ली के खटके
गाड़ते जाएं विकास के झण्डे
वहाँ कुछ नहीं बचेगा
जीवन जैसा ।


तीन - डूबता पीपल, तिरती स्लेट
बढ़ रहा है नदी में पानी
चढ़ रहा है गाँव पर

कसमसा रहे है खेत
वर्षों पैदा किया अनाज
अब जम जाएगी उन पर काई

या उनके अंदर बची हुई जड़ें
सडक़र बदबू फैलाएंगी
हो जाएगा जीना मुहाल
मर जाऐंगे खेत
चिल्ला रहे हैं
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

अभी मेरे जि़म्में बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है

एक घर जो बचा रह गया था
सरकारी बुल्डोजरों और हथौड़ों से
न रो रहा है
न बचाव के लिए चिल्ला रहा है

खुद के आँसुओं से
गल रहीं हैं उसकी दीवारें

चढ़ रहा है नदी का पानी
घर जल समाधि लगा रहा है

देखते ही दखते डूब गया हरसूद
हाथियों नीचे पानी में
और पानी की सतह पर
एक स्लेट तैर रही है
जिसपर लिखा है क ख ग।


चार - डूब गया एक गाँव हरसूद
एक बार फैली थी महामारी
दखेते-देखते
पूरा गाँव खाली हो गया था

यहाँ तक कि जानवर भी नहीं बच पाए थे
महामारी के प्रकोप से

एक बार आया था
बहुत भयानक भूकम्प
धरती ऐसी काँपी थी कि
नेस्तनाबुत हो गया था पूरा गाँव

एक बार गाँव के बीचो-बीच
फूट पड़ा था ज्वालामुखी
जलकर राख हो गए थे
गाँव के बाग-बगीचे तक


एक बार आया था प्रलय
ऐसा महाप्रलय कि
उसमें समा गया था पूरा गाँव

इसबार न फैली महामारी
न भूकम्प से थरथरायी धरती
न ज्वालामुखी से उमड़ा आग का दरिया
न ही हुआ प्रलय का महाविनाशक ताण्डव
फिर भी डूब गया एक गाँव हरसूद

हरसूद डूब गया
अपनी सभ्यता-परम्परा और
जीवन की कलाओं के साथ।


पाँच - छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग
 पकिस्तान से विस्थापित होकर
मैं आया था अपने देश में
अपने देश में भी विस्थापित
होता रहा बार-बार
हर बार तोड़ी एक गृहस्थी
हर बार जोड़ी एक गृहस्थी

नयी गृहस्थी हमेशा ही पुराने से
कमतर ही रही
अब फिर अस्सी वर्ष की उम्र में
उज़ड़ रहा हूँ हरसूद से
अस्सी वर्ष की उम्र में
उज़डऩा बहुत आसान होता है
बसना नामुमक़िन

मुझे सरकार ने दिया है
बहुत सारा मुवावज़ा

मैं आजकल रूपये
ओढ़-बिछा रहा हूँ
ख़ूब चबा-चबाकर खा रहा हूँ
सौ-सौ के नोट
लेकिन कम्बख़्त भूख़ है कि मिटती नहीं
नोटों के गद्दे पर वो नींद नहीं आती
जो कर्ज़ में गले तक डूबे रहने के बाद भी
अपनी झोपड़ी के ज़मीन पर आती थी
मैं हरसूद से विस्थापित हो गया
मेरा जीवन वहीं छूट गया
डूबकर मरने के लिए

मेरी सुहाग की चूडिय़ाँ
लोक गीतों की डायरी
रंगोली के रंग
चौक पूरने का सामान
तुलसी का चौरा
सखी -सहेलियाँ
सबकुछ छूट गया हरसूद में
हरसूद डूब गया

अब मैं डूबने से बच गयी
या मैं भी डूब गयी
हरसूद के साथ
कौन बताएगा मुझे

मास्टरजी ने कहा था
विकास मनुष्य को बेहतर जीवन देता है
विषय पर लेख लिखने के लिए
मैंने बहुत अच्छा लेख लिखा है

लेकिन मेरी पाठशाला और मास्टरजी
दोनों छूट गए हरसूद में
अब मैं क्या करूँ इस लेख का।

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हरसूद की बुड़ान और कवि प्रदीप मिश्र की संवेदना

बचपन का वह दृश्य याद कीजिए जब आपने भोजन की तलाश में भटकती चीटियों की किसी पांत  को अचानक पानी के किसी रेले के बहाव में आकर बहते देखा होगा या उनके बिल में अचानक पानी भर जाने के कारण उन्हें इधर-उधर जान बचाते हुए भागते हुए देखा होगा । आपके मन में शायद ही यह विचार आया हो कि अगर  चीटियों की जगह मनुष्य होते तो क्या होता ? चीटियां मूक प्राणी है और उनकी औकात ही क्या है मर गईं तो मर गईं । लेकिन सोचिए सचमुच यदि ऐसा मनुष्य के साथ होता तो क्या होता ।

पिछले वर्षों में ऐसा हुआ । मध्यप्रदेश में नर्मदा के किनारे बसे एक गांव हरसूद के निवासियों के साथ ऐसा ही हुआ । यहां यह अवश्य हुआ कि वे  इंसान थे चीटीं नहीं इसलिए उन्हें  जान बचाने का मौका दिया गया लेकिन जान के अलावा उनका सब कुछ बांध के उस पानी में डूब गया । पानी भरने से डूब गए उनके मकान खेत खलिहान और उसके साथ डूब गईं उनकी स्मृतियां भी । 

स्मृतियाँ मनुष्य के मस्तिष्क में संग्रहित होती हैं लेकिन उनके आलंबन होते हैं उनसे जुड़े स्मृति चिन्ह । सबसे भयावह होता है स्मृतियों से जुड़ी चीजों का खत्म हो जाना । हम आज गांधीजी, नेहरू जी, बाबा साहेब आंबेडकर और बड़े-बड़े नेताओं से जुड़े स्मृति चिन्हों को बरकरार रखने के लिए संग्रहालय बना रहे हैं , और तो और काल्पनिक चरित्रों के लिए भी संग्रहालय बनाये जा रहे हैं लेकिन हरसूद के उन निवासियों की स्मृतियां जानबूझकर सदा सदा के लिए समाप्त कर दी गईं । उन का कसूर इतना सा था कि वे  अत्यंत साधारण इंसान थे ।

हरसूद के उन  निष्पाप , निरपराध,  सीधे-साधे निवासियों की इसी वेदना को प्रदीप मिश्र अपनी इन कविताओं में स्वर देते हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि वहां के निवासियों के जीवन के छोटे छोटे सुख-दुःख  के अवसरों , शादी ब्याह ,जन्म ,शिक्षा आदि से जुड़े स्मृतिचिन्ह इस डूब में डूब गए । प्रदीप इतने छोटे-छोटे बिम्बों के माध्यम से  डूबे हुए उस हरसूद  के चित्र रचते हैं जो कभी खुशहाल था आबाद  था ।

शायद आप उनको हरसूद वासियों का दर्द नहीं समझ सकते इसलिए कि खोया तो उन्होंने है लेकिन कविता यही काम करती है , यह आपको हरसूद के विस्थापितों की संवेदना से जोड़ती है।  उन चौराहों, खेतों-खलिहानों ,शिक्षा संस्थानों , बाज़ारों , पनघट, और चौपालों की सैर कराती है जो कभी आबाद थे । पीपल और नीम के उन पेड़ों को दिखलाती है जिन्हें छू कर हवाएं कभी आती थी जो हरसूद के निवासियों के लिए प्राण वायु थी । 

प्रदीप की इन कविताओं में हरसूद वासियों के लिए सिर्फ संवेदना मात्र नहीं है वह एक सटायर के साथ तत्कालीन व्यवस्था और उसकी विकास की समझ पर भी प्रहार करते हैं ।

फिर दबाते रहिए बिजली के खटके 
कुछ भी नहीं बचेगा 
सड़ रही होंगी जड़ें 

नीतियां वातानुकूलित भवनों में बनती है और जमीन से उनका कोई सरोकार नहीं होता । सुविधाएं मनुष्य के लिए जरूरी हैं  लेकिन किस कीमत पर ? यह सवाल भी वे अपनी कविताओं में खड़ा करते हैं ।
चढ़ रहा है नदी का पानी 
घर जलसमाधि लगा रहा है 

यह घर ईंट पत्थरों का घर है लेकिन इस घर से संवेदनाएं जुड़ी है इस में रहने वालों की । यह आपदाएं भूकंप और महामारी की तरह प्राकृतिक आपदाएं नहीं है बल्कि यह कुछ मनुष्यों की सोची समझी चाल है जो कुछ लोगों के जीवन को अपने स्वार्थ  के लिए बढ़ाना चाहते हैं यद्यपि यहाँ उनका उद्देश्य विकास है जो कि एक छद्म आवरण में है ।

प्रदीप इस बात के लिए आगाह करते हैं कि मनुष्य और उसकी विरासत को पैसों से नहीं तौला जा सकता है ।यह  जीवन एक बार ही मिलता है और उसका कोई मोल नहीं होता । हरसूद के परिदृश्य पर बहुत सारे लेख लिखे गए हैं , पुस्तिकाएं आई हैं , रपट प्रकाशित हुई है हमारे एक दिवंगत मित्र पूरन हार्डी ने एक कहानी भी लिखी थी 'बुडान' जो काफी चर्चित हुई . लेकिन कविता इन सबसे अलग काम करती है यह पाठक को उन सरकारी गैर सरकारी रपटों से अलग वहाँ के विस्थापितों की संवेदना से जोड़ती है । एक कवि ही होता है जो संवेदना के स्तर पर अत्याचार और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है और अपने साथ तमाम लोगों को शामिल करता है ।हरसूद और उसकी स्थितियों से इन कविताओं के माध्यम से पाठकों का साक्षात्कार करवाने के लिए प्रदीप मिश्र का बहुत-बहुत आभार ।

शरद कोकास    
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 प्रदीप मिश्र जी की पाँच कविताएँ दो दिन पहले ब्रज जी से प्राप्त हुईं और इन दो दिनों के अपनी सहूलियत से किए पाँच पहरों में कई बार इन कविताओं को पढ़ा. पढ़ा और हर बार बेचैन हुआ. बेचैन हुआ और कई बार अपनी यादों के हरसूद से मिल कर लौटा. ख़ाली-ख़ाली सा और भरा-भरा भी. खंडवा से भोपाल की रेल लाइन पहले हरसूद से होकर जाती थी और फिर मेरी माँ का ननिहाल हरसूद रहा तो एक ज़ाती रिश्ता हरसूद से रहा है. इसलिए लाग-लपेट के बग़ैर कहूँ तो इन कविताओं ने दिल ही दुखाया है. कहाँ फ़ुर्सत हमें अपनी आपाधापी में गुज़रे को याद करने की! पर जब इस तरह ठोकर लगती है तो मन वही सवाल करता है जो प्रदीप जी ने इन कविताओं में किए हैं. मैंने इस क़स्बे को देखा है फिर मुआवज़ा लेकर हरसूद से विस्थापित होकर आए परिवारों को अपने शहर खंडवा में बसते हुए भी. इसलिए इन कविताओं ने उन सब किरदारों और एक भरे पूरे जीवन के विलीन हो जाने से गुज़र जाने का अवसर ही दिया. शीर्षक 'डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएँ' मुझे तब भी कुछ उम्मीद दे गया कि हरसूद अभी डूबा नहीं बस डूबने को है. अशोक वाजपेयी की कविता की  एक पंक्ति है 'इतिहास जिस काम को करने की अनुमति भी नहीं देता, कविता उसे आसानी से करने की छूट देती है'. मुझे शीर्षक पढ़ कर लगा कि हरसूद अभी डूबा नहीं और उसे बचाया जा सकता है. कम से कम इन कविताओं ने उस डूबे हुए हरसूद को थोड़ा-सा तो बचाया ही है. 
फिर एक-एक कर के मैं कविताओं के सिरे पकड़कर और थोड़ा अपनी याद के सहारे एक घर से मिला जो विस्थापित हो रहा है. फिर कुँवर नारायण याद आए 'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे. समय होगा हम अचानक बीत जाएँगे'. जैसे वह विस्थापित घर चीख-चीख कर कह रहा हो मैं अब भी हूँ और पानी के नीचे रहूँगा, तुम्हारी यादों को समेटे. आदमी ने फिर दग़ा किया. घर वहीं रहा और आदमी चल दिया. घर, बेघर हो रहा है. वही घर जिसने हर ग़म और हर ख़ुशी, हर हँसी और हर शर्म में सर छुपाने से लेकर गली-मोहल्लों तक को आबाद किया. 

चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर

यह मार्मिक पंक्ति प्रदीप जी के भीतर किस ताप से गुज़री होगी उसका सही- सही आकलन नहीं कर सकता. उसका देशज शब्द प्रयोग 'भरभराना' अपने आप में सब कह रहा है. अगली कविता में एक और दृश्य 'छूटा हुआ जूता' है जो सबसे छोटी कहानी 'फ़ॉर सेल: बेबीज़ शूज़, नेवर वोर्न' की तरह ही दुखती रग को बार-बार छेड़ता है. कविता पढ़ने के बाद भी आप उससे बाहर निकलने में असमर्थ होते हैं. और उस छूटे हुए जूते के साथ ही छूट जाते हैं. उसी जूते के साथ विकास के सवाल भी हैं जैसे आप किसी और के हिस्से की रोटी छीनकर खा रहे हैं! 
...बस अब हरसूद डूब चुका है. इस तीसरी कविता में केवल घर, जूता और सांसारिक चीज़ें ही नहीं बल्कि एक पूरी सभ्यता और संस्कृति लेकर. 

आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

अभी मेरे ज़िम्मे बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है

यही संस्कृति के डूब जाने का दर्द अगली कविता में विस्तारित होता है. अंतिम कविता 'छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग' मुआवज़े के नाम पर तोले गए इंसान के ईमान के साथ बातचीत करती है. 

प्रदीप मिश्र जी की इन कविताओं पर साहित्यिक कमी-पेशी, चर्चा/विमर्श होते रहेंगे. फ़ॉर्म, शब्द-चयन, वाक्य, भाषा आदि पर भी वरिष्ठ साथी कुछ कहेंगे ही. मुझे बस पहली कविता की अंतिम पंक्ति 'घर विस्थापित हो रहा है' खल रही है. शायद कविता इस पंक्ति के पहले मुकम्मल हो चुकी और बहुत वज़न के साथ अपनी बात रख चुकी है. ये केवल मेरी असहमति है और इस बाबत मैं प्रदीप जी से विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति जता रहा हूँ. उम्मीद है आप अन्यथा न लेंगे. 

मुझे यह नहीं पता कि कवि का हरसूद से क्या रिश्ता है पर इन मुकम्मल तस्वीरों और जज़्बातों ने लगभग एक दशक पहले डूब चुके हरसूद के बहाने झकझोरा तो है ही. आगाह भी किया है कि क्या पता विकास (या विनाश) के नाम पर तबाह होने वाले अगले व्यक्ति, छूटे हुए जूते, पीपल के पेड़, शहर और छूटी हुई डायरी हमारी ही हो ?

(अपनी समझ से मैं बस इतना ही लिख पाया. पहली बार इस तरह कुछ कहने का प्रयास किया है. इसे बस मेरी टिप्पणी ही समझिएगा प्रदीप जी. शुक्रिया ब्रज जी इस अवसर के लिए
सुदीप सोहनी📕📕                                                
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श्रीकान्त सक्सेना :  हरसूद के ऊपर बहुत वर्ष पहले एक युवा पत्रकार.ने यात्रा वृतांत शैली में एक पुस्तक लिखी थी।बहुत पसंद आई थी।हरसूद जैसे विषय साझा पीड़ा को महसूस करने और साझा संघर्ष को ज़िन्दा रखने का हौसला देते हैं तो तथाकथित विकास के योजनाकारों की नीयत और प्राथमिकताओं को भी स्पष्ट कर देते हैं।
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प्रदीप मिश्र का कवि धर्म हैं  हरसूद श्रृंखला की कविताएं 
पोलिटिकली भले ही अब हमारा नेतृत्व इन दिनों  नदियों को मनुष्य का दर्जा देने का स्वांग करने का खूब प्रयास कर रहा हो,लेकिन हमारे समाज में न जाने कब से नदी,पहाड़,गांव,मुहल्लों,प्रकृति में प्राण होने की मान्यता और व्यवहार और आचरण रहे हैं।
संवेदनशील व्यक्ति इन सब पर आई विपदा पर दुखी हुए हैं। विशेषतः जब कवि इन क्षणों को देखता है अनुभूत करता है, अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने को बेचैन हो उठता है। दरअसल कवि का ये अपना विशिष्ट धर्म भी होता है।
समर्थ और युवा कवि प्रदीप मिश्र ने हरसूद श्रृंखला की अपनी कविताओं में एक बस्ती के उजड़ जाने और एक गांव के साथ स्मृतियों और सुख दुख के पानी में समा जाने की पीड़ा और उससे पैदा हुई उखड़ी हुई साँसों को अभिव्यक्त करने का कवि धर्म निभाया है।
ये कविताएँ मैंने उनसे सुनी भी हैं,पढ़ी भी और उस कवि के  विकास का भी साक्षी रहा जब ये कविताएँ अवतरित हो रहीं थीं।
कहीं की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार का वहां का होना या उन कष्टों को भोगना उतना ज्यादा जरूरी भी नही होता जितना कि उन अनुभूतियों को अपने हृदय में सीजने के लिए स्वीकार कर लेना। बावजूद कि कवि मूल उत्तरप्रदेश के रहे, हरसूद प्रसंग के समय इंदौर मालवा में होकर हरसूद के दर्द को उन्होंने महसूस किया,प्रत्यक्ष देखने की कोशिश की है।
अनेक संवेदनशील लोग हरसूद और वहां के निवासियों के जीवन को लेकर चिंतित हुए लेकिन कुछ ही प्रदीप मिश्र की तरह अपने को अभिव्यक्त करने में सफल हुए।
ये प्रदीप की प्रतिबद्धता और एक कवि की चिंता ही थी जिसके परिणाम स्वरूप हरसूद श्रृंखला की कविताएं साहित्य की धरोहर हो सकीं।
इन कविताओं के बाद भी प्रदीप मिश्र ने बहुत बेहतर सृजन किया है, लेकिन जब उनकी कविताओं पर बात होने लगती है। हरसूद नदी के तल से निकलकर सतह पर तैरने लगता है।
बहुत शुभकामनाएं उन्हें। एक बार पुनः सुंदर कविताओं को पढ़वाने के लिए समूह का आभार।

ब्रजेश कानूनगो      
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ज्योति खरे : हरसूद तो डूब गया है पर प्रदीप मिश्र की कविता पढ़ते समय लगा कि आज भी हरसूद जिन्दा है.
कविता लिखना और उसमें संवेदना भरना अलग बात है पर कविता की सवेंदना को जिन्दा रखे रहना अलग बात है, इसे तभी जिन्दा रखा जा सकता है,जब कवि की अनुभूति मन को मथती है,मन की परतों को गीली करती है, स्मृतियों का यही गीलापन प्रदीप की संवेदना है और उनकी अभिव्यक्ति है.
डूब रहे हरसूद और डूब गया हरसूद का मर्म वही समझेगा जिसके घर गाँव की चौखट उखाड़ दी जाती है .
विस्थापन की मन को छूती कवितायें.
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राखी तिवारी : विस्थापन पर लिखी प्रदीप जी की कविताओं ने झकझोर दिया।विकास की गांथाऐ.....एक गहरे रूदन से निकले क्या ये जरूरी है?
संवेदनाओं से ओतप्रोत कविताएं हरसूदमय है.....सच की सशक्त अभिव्यक्ति।
प्रदीप जी को बधाई.....
शरद दा एवं सुदीप जी को धन्यवाद।
शानदार टीप.......🙏🏻                        
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मणि मोहन मेहता: जैसे की वाद्य पर विस्थापन की एक उदास धुन बज रही हो , बेहतरीन कविताएं।बधाई प्रदीप भाई ।  
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घनश्याम सोनी : डूबे हुए हरसूद पर प्रदीप मिश्र जी की कवितायेँ विनाश पर विकास की सच्चाई का ऐसा यथार्थ प्रस्तुत करती हैं जिसे भुक्तभोगी ही गहराई से समझ सकता है l योजनाकारों की योजना में कुछ घर , झोपड़ी , सड़कें , खेत आदि डूब क्षेत्र में आयेंगे/ आते हैं लेकिन वे उन संवेदनाओं को कहाँ अनुभव कर सकते हैं जो उस क्षेत्र के रहवासियों की उस क्षेत्र विशेष से जुड़ी होती है l जिन्हें कवि ने सजीव निर्जीव सभी में बहुत ही गहराई से एक प्रत्यक्षदर्शी/ भुक्तभोगी की तरह अनुभव कर सहज सरल व दिल में गहरे पैठ कर जानेवाले शब्दों में अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया है l बहुत ही शानदार रचनाये पढवाने के लिए साकीबा व प्रस्तुतकर्ता का आभार l 
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मनीष वैद्य : मित्र प्रदीप मिश्र की कविताओं से गुजरते हुए पीड़ा और उदासी के भावों में जाना अवश्यम्भावी ही है।पाठक तक इस संवेदना को प्रेषित करने में ये कविताएँ स्वाभाविक अपना कर्म बखूबी करती है। हरसूद के बीस से ज्यादा साल गुजर जाने के बाद आज भी वह किसी लाइलाज नासूर की तरह जब तब हमें अपनी टीस से बिलबिला देता है।जब हमारी यह स्थिति है तो उन पर क्या गुजरती होगी जो इसकी वजह बेदखल होकर बेघर बार हो गए। उनकी स्मृतियों में वह कितनी भयावह पीड़ा होगी। बात यहीं नहीं रूकती। इससे बेदखल लोग आज भी विस्थापन की तमाम विसंगतियां झेल रहे हैं।फिर बात विकास की भी है। मनुष्य और मनुष्यता को उजाड़कर कैसा विकास। एक तरफ संस्कृति बचाने की बात तो दूसरी तरफ संस्कृति डुबोने का काम। ये रचनाएँ नॉस्टेलजिया ही नहीं जगाती हमें झकझोरती भी है।ये आगाह करती हैं कि कोई दूसरा हरसूद न बन सके। कविताएँ सहजता से संप्रेषित करती हैं अपनी बात को। प्रदीप लंबे वक्त से शब्दों की दुनिया में प्रतिबद्धता से काम कर रहे हैं। वे विचारों के साथ रचते हैं पर रचनाओं में सहज सरल होकर तरल हो जाते है।यहाँ विचारों की संश्लिष्टता नजर नहीं आती। आज की कविताओं पर खूब लिखा जा सकता है। पर फ़िलहाल इतना ही, प्रदीप को सर्जना के लिए अशेष शुभकामनाएं।    
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उदय ढोली :अपनी जडो़ं से मजबूरन दूर होने वाले विस्थापितों के दर्द कोा मार्मिक अंदाज़ में बयाँ  करती हैं प्रदीप जी की कविताएँ,पाठक के अंतर्मन को उद्वेलित करने वाली बेहतरीन कविताओं के लिए शुभकामनाएँ 💐          =================================================             
विनीता वाजपई  : प्रदीप मिश्र जी की कविताओं ने कई पन्ने पलट दिए 
आए दिन खबरें आती थीं कि हरसूद डूब जाएगा 
खंडवा में हमारी बहन रहती है सो आना जाना लगा रहता है 
रास्ते में हरसूद है जिसका नया नाम छनेरा है , मन हुआ और हम डूबा हरसूद देखने गये 
दूर दूर तक पानी और उसमें डूबती उतराती जाने कितनों की स्म्रतियां 
कैसे वहां के रहवासियों ने विस्थापन का दर्द सहा होगा , एक आह निकल कर रह गयी 
हम रीते मन से लौट आए 
आज प्रदीप जी की कविताओं ने उन्हें आवाज दी , बहुत अच्छी कविताएँ 
पांचवी कविता तो मन को छू गयी ,
उस पर सुदीप जी की टिप्पणी ने उसे और सदा दी , 
बहुत अच्छी प्रस्तुती
सुदीप सोहनी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं , मैने उनकी कविता भी सुनी है और नाटक भी देखा है ,वो बहुत दूर तक जाएंगे 
शुभकामनाएँ      
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दीप्ती कुशवाह : हरसूद के लिए मेरा मन भी बहुत दुखता है। टिहरी और हरसूद.. एक सी नियति रही...! प्रदीप जी की कविताओं ने एक बार फिर मन गीला किया। उम्दा कविताएँ, प्रदीप जी !   
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डॉ पद्मा शर्मा  :विस्थापन की अद्भुत और भावपूर्ण कवितायेँ। सवेद्नात्मक धरातल पर मन को भिगो जाती हैं।
वीरेन्द्र जी का डूब उपन्यास भी विस्थापन समस्या पर है।
बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई प्रदीप मिश्र जी।
धन्यवाद ब्रज जी   
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भावना सिन्हा  : बड़ी ही सूक्ष्मता से विस्थापन के दर्द  उकेरा गया है। कितनी बड़ी त्रासदी है यह  , कैसा विकास । कविताएँ मन  को भिगो गई ।सच को उजागर करती  सशक्त अभिव्यक्ति के लिए 
कवि को बहुत बहुत बधाई । 🌹🌹    
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हरगोविंद मैथिली: विस्थापित परिवारों के एक दर्द का नाम है हरसूद और उस दर्द को कवि ने एक भुक्तभोगी की तरह महसूस कर अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है जो बेहद मार्मिक, संवेदनशील और सहज संप्रेषणीय हैं।
प्रदीप मिश्र जी को बधाई और ब्रज जी का आभार🙏🙏💐💐    
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अखिलेश श्रीवास्तव 
 हरसूद श्रृंखला की कवितायें पढ़ते हुये कौन होगा जो इन कविताओं की छोर पकड़े हुये उस समय में न पहुँच जायेगा जब पानी हरसूद के कंठ के ऊपर पहुँच रहा होगा,अंजुर भर हम भी डूबते हैं, जब पानी से लगभग अफनाते हुये खेत पुकार लगाते हैं, बचाने की गुहार को अनसुना करना,उसे डूबते हुये छोडकर निकलने की बेबसी का शंताश तो हमें भी ये कविताएँ महसूस करा ही देती है भले ही हम उस दुख के साक्षी न रहे हो पर संवेदना से परिपूर्ण प्रदीप जी का कवि मन पाठक को उस हाहाकार की अनुभूति करा देता हैं ।
इन कविताओं पर बिम्बों की मार है न शिल्प की लदान, पर कवि में रस उपाजने की क्षमता है तो ज्यादा मेहनत की आवश्यक नहीं होती, ये कविताएं दुख की एक गठरी साथ लेके चलती है और डूब के बीच भी आपकी आंखो को पनियाती रहती हैं जैसे घर से विस्थापित कोई आदमी पनिआये आंखों से गृहस्थी की गठरी उठाकर कदम पानी में रखता हैं ।
प्रदीप जी ने सायास कुछ भी नहीं जोडा या घटाया हैं जिस तरल भाव से कविताएं आई है उसी तरह से पाठकों की ओर तैरा दिया हैं,पाठकों को भी कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना है इन समझने में,सिर्फ भाव पक्ष को महसूस करते हुये एक दुख से गुजरा जा सकता है ।
प्रदीप जी अपनी कविताओं से उस दुख के साक्षी व हमसफ़र रहे है आज  हमें भी कुछ कदम चलने का मौका मिला ।
आभार प्रदीप भाई । 
                      
 आजकल प्रदीप जी को पढ़ रहा हूँ, हरसूद श्रृंखला में कविता अपने वास्तविक व सहज रूप में है पर प्रदीप जी के बिंब विधान को भी समझा जाना चाहिए, उनकी एक कविता रखता हूँ पटल पर ।                        
 फ़ाउण्टेन पेन की कविता / प्रदीप मिश्र

फाउण्टेन पेन को चलाते समय
बहुत ध्यान रखना पड़ता है
ठीक कोण पर टिका हो
अंगुलियों के बीच 
निब पर दबाव सही हो
ठीक हो स्याही का बहाव

अक्षर बनाने का एक निश्चित तरीका होता है
नहीं तो कागज,निब और अक्षर का
तालमेल बिगड़ जाता है
उंगलियों में लगनेवाली स्याही को
बार-बार पोंछना होता है सिर पर
अक्षर सुन्दर ही बनाने पड़ते हैं
जब लिखा जाता है फाउण्टेन पेन से

इतनी सारी पाबंदियाँ और सुन्दरता की शर्त
ऐसे में भला फाउण्टेन पेन से कोई
कैसे लिख सकता है कविता

कविता लिखते समय तो

एक मासूम सी बच्ची
अचानक गृहस्थी से जूझती औरत में बदल जाती है
                            
उछलते-खेलते नौजवान
कब शामिल हो गए बूढ़ों की जमात में
लिखने के बाद भी पता नहीं चलता

नदी अपने तटबंधों को तोड़कर
इस तरह फैलती है
जैसे उसके अन्दर भरता जा रहा हो समुन्द्र

अपनी धूरी पर घण्टों ठहर कर
सोचती रहती है पृथ्वी 
निरंतर घूमते रहने का कारण

इतनी गति
इतना उफान
इतना आक्रोश
इतना ठहराव
ऐसे में कोई कैसे रखेगा
सुन्दरता और पाबंदियों का ध्यान
जब तक हम पूरी करते हैं 
सुन्दरता की शर्त

एक मासूम सा खूबसूरत चेहरा
भयानक अठ्ठाहास करने लगता है

जब तक खोलते हैं पाबंदियों की गाँठ
आजादी का उत्सव मनाते लोग
गुलामों की तरह गिड़गिड़ाने लगते हैं

कविता लिखने के लिए
ऐसी कलम चाहिए
जिसमें पहली उड़ान पर पर निकले 
चिड़ियों का आकाश बहे 
स्याही की जगह

निब डाक्टर के आले की तरह टिकी हो
समय के छाती पर।                        

मेरे समय का फलसफा/ प्रदीप मिश्र

मेरे समय का फलसफा


इकट्ठे हुए थे सारे जीव एक जगह
फुनगी पर बैठी चिड़िया / गर्वोन्नत शेर
रेत में अलसाया मगरमच्छ
इधर-उधर रेंगते कीड़े-मकोड़े
हरी कालीन जैसी बिछी घास 
और टीले पर बैठा मनुष्य 

प्रकृति के सारे जाने-अनजाने जीव
इकट्ठे हुए थे एक जगह
सबकी समस्या थी जीवन की 
जीवित बचे रहने की 

इस विकट समस्या की बहस में उपस्थित
हर जीव 
दूसरे के लिए भोजन की थाली था
कोई भी एक नष्ट होता तो 
दूसरा स्वंय ही नष्ट हो जाता
फिर कैसे कोई किसी को खाता
और अगर खाता नहीं तो जीवित कैसे रहता

मनुष्य ही ऐसा था 
जो किसी का भोज्य नहीं था 
जानता था जीवन जीने की कला
बुरे दिनों में घास की रोटियाँ खाकर भी 
बचा सकता था अपने आपको
अच्छे दिनों में शेर का शिकार करता था
शगल की तरह 
इसलिए टीले पर बैठा
मुस्करा रहा था

नहीं सूझा किसी को भी 
इस विकट समस्या का हल
तब मनुष्य ने ही सुझाया
प्रेम में सबकुछ जायज होता है
प्रेम में कोई नष्ट नहीं होता
जितना व्यापक प्रेम उतना ही ज्यादा जीवन

इतना सुनते ही
सबको सूझ गया विकट समस्या का हल
बकरी को घास से प्रेम हो गया
और वह प्रेम से चरने लगी घास
शेर को बकरी से हो गया प्रेम
और वह प्रेम से बकरी को खा गया

तबसे प्रेम का सिलसिला खूब फलाफूला
अब कभी भी/कहीं भी/किसी को/किसी से
प्रेम हो जाता है।      
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प्रवेश सोनी : किसी का भी अस्तित्वहीन हो जाना अत्यंत पीड़ा दायक होता है ।इन कविताओं से गुजरते हुए लगा जैसे संवेदनाओं के अथाह सागर में डूब गए हो । 
विकास का पहिया इतनी क्रूर गति से चलता है ,रौंद देता है वो मासूम  गाँव की सभ्यता को ।
विस्थापित होने का दुःख जड़ो से अलग हुए पौधों की तरह होता है जिनके नसीब  में हरियाली नही होती है ।
अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़कर ,साथ ही सभी की प्रतिक्रियाओं ने इन्हें और खोल दिया ।
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जतिन अरोड़ा : निलय जी का दर्द कुरेद गया. गंगा के आँसू पीकर चले निलय जी के आंदोलन की मानिंद ही यह रचनाएँ भी दर्द की पराकाष्ठा हैं। दिल दिमाग में गहरा के बैठे दर्द को शब्दों में पिरोने या बाँधने की कोशिश बिलकुल नहीं की गई है। यही वजह है कि  इन रचनाओं ने जुबान से दिल तक दस्तक दी.प्रदीप जी को सलाम💐===================================================                      
मधु सक्सेना : प्रदीप जी कविताएँ सुबह से कई बार पढ़ चुकी हूँ पर कुछ लिख नही पाई ।हरसूद की पीड़ा बार बार उभर कर आ रही है ।विस्थापन का दर्द पुरे बचे जीवन को प्रभावित करता है ।स्मृतियाँ टीसती है ।
अब सब कहा जा चुका है ।कवि को सुनना है अब ।

आभार ब्रज जी ।
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संतोष  तिवारी : प्रदीप जी की कविताएं, मोह की मार्मिक परिभाषाएं गढ़ती हैं। अब भले बड़े ज्ञानी महात्मा कुछ कहें मगर जिसे अपनी माटी से प्यार हो जाये उसे बड़ी बड़ी बातें उद्धव के निर्गुण प्रवचन सी लगती है। 
हरसूद से मेरा भी वास्ता है। हालांकि विस्थापन का दर्द मैंने नही  भोगा, मगर प्रदीप जी की कलम ने मन को ऐसा छुआ की दर्द के निशान उभर आये हैं।
कुछ हरसूदवासी साहित्यकार मित्रों को कविताएं प्रेषित की बगैर अनुमति। उम्मीद है माफी मिल जाएगी।
- संतोष तिवारी      
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जतिन अरोड़ा : हिमाचल में पौंग बांध बना तो करीब तेरह हजार परिवार बेघर हुए....कुछ को राजस्थान में मुरब्बे मिले ...पुरानी जमीन की कीमत उतनी नहीं थी लेकिन नई जमीन ने सोने के अंडे दिए...लोगों की जिंदगी बदल गई...बुजुर्ग और कुछ लोग जो मिट्टी से जुड़े थे आज तक कसमसाते हैं पर जो
पीढ़ी पंख लगाने की जुगत में थी वह खुश है कि उनकी जिंदगी बन गई। इतने सालों बाद भी पौंग बांध के समीप के इलाके विकास से महरूम हैं विस्थापित नए शहरों में नए तरक्की पसंद इलाके में मौज में है। कुछ विस्थापित एेसे भी हैं जो आज भी कहते हैं..मेकी अोही मिट्टी लियाई दैया...मेकी उत्थे चैण पौणा,.....     
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प्रदीप मिश्र : भाई बाँध तो बनना चाहिए। विकास होनी चाहिए। एक समाप्त होता तो दूसरा रचा जाता है। लेकिन अकाल मृत्यु और स्वाभाविक मृत्यु का अंतर तो है। यहाँ सवाल यह है कि दूसरे विकल्प को भी देखा जाना चाहिए जो कि उपस्थित हैं देखिए परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन इसकी गति क्या है। अगर हमारा परिवर्तन प्रकृतिक गति के अनुरूप हैतो  यहउतना विध्वंस नहीं करेगा। हमारे समयका सबसे बड़ा संकट गति है। यह अंधाधुँध गति हमें कहाँ ले जा रही है? सब कुछ स्वाभाविक और प्रकृतिक हो जैसे पतझर और कोंपल होता है तो उसका स्वागत है।                        

अंजू शर्मा : प्रदीप जी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं और पिछले कुछ समय से मैं उनकी कविताएँ लगातार पढ़ रही हूँ।  उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता मुझे यही लगती है ये कविताएँ अपने समय के सजग दस्तावेज की तरह जरूरी और सामयिकता से भरपूर हैं।  हरसूद की त्रासदी के विषय में मैं बहुत नहीं जानती थी पर साहित्य में इसका दर्ज होना इसे कभी विस्मृत नहीं होने देता।  इससे पहले मनोज कुलकर्णी की एक संस्मरण विधा में लिखी कहानी ने मुझे हरसूद तक पहुंचाया था। आज प्रदीप जी की कविताओं में विस्थापन की पीड़ा साकार ही उठी है।  मुझे नहीं लगता कि उस त्रासदी का कोई पहलू भी कवि की नज़र से छूटा होगा।  डूबते हरसूद की ये कविताएँ गहरी ख़लिश पैदा करती हैं।  धीमे धीमे अवसाद मन पर हावी होने लगता है और यही कवि की सफलता है।  बधाई प्रदीप जी      
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सुरेन सिंह 
हरसूद ... एक डूबता हुआ गांव । इस डूब के साथ डूबते है वहां के निवासियों के अरमां और डूब जाता है बहुत कुछ । 
प्रदीप जी इस डूब को एक कवि के रिश्ते से महसूस करते  है  और एक नॉस्टेलजिया रचते है । सबसे बड़ा दर्द क्या है ?  कि मानवीय  विस्थापन का दर्द  प्रकृति से ,नियति से तय न होकर  शक्ति के खेल में नियंत्रक कुछ मानवों के  निर्णयों से ही आकार ग्रहण कर रहा है । 
कवि उस पीड़ा को आवाज देना चाहता है जो मानव द्वारा ही अन्य मानवों के लिए  निर्मित  की गई है । या यूं कहें कि एक मानवीय निर्णय की यहां बांध बनेगा या आज से यह तुम्हारा देश नही और संसार का सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन होता है और कवि कहता है कि पाकिस्तान से विस्थापित होकर मैं आया था अपने देश ...
मतलब कितनी जल्दी एक झटके में उसने अपने पूर्व  स्थान को पराया मान लिया .... क्यों ,क्योंकि वहां उसे वह शक्ति का  निर्णय  कंविंसिंग  सा लगने लगा ... क्यों ,क्योंकि उसके पीछे एक  समुच्च्य की साइक काम कर रही है पर पुनः विस्थापन उसी अपने देश में ... जो निर्णय अपने  बस का लगता था पर वो वास्तव में बसका न रहा .... तो पीड़ा का स्वर  आर्तनाद में कन्वर्ट होने को आतुर हो जाता है । यह बिंदु पाठक को एक विचारतन्द्रा मे डुबोने को पर्याप्त लगता है ।
कविताओं का स्वर अपने लोकेल को उभारता तो है पर उसके नॉस्टेल्जिया में रोको ,जाने मत दो के साथ एक कवि का तथाकथित विकास और आधुनिकता से कोरिलेशन बनाने की भयावयता के बिंदु पर जोर देकर छोड़ देना .. मतलब पाठक को विचलित कर पाने की सफलता के श्रेय का आयाम तो स्थापित होता है पर एक सरल सा अर्थक्रियाकारित्व क्रिएट नही होता जैसा ....

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे

मैं उनसे मिलने

उनके पास चला जाऊँगा
 (विनोद शुक्ल )

एक चीज़ होती है यथार्थ जो दिखता है पर एक और चीज़ होती है फैंटेसी  । कोई यथार्थ वास्तव में यथार्थ तभी बनता है जब उसमे फैंटेसी भी घुल जाती है ,तभी काव्य भी जन्म ले लेता है जो डूब रहा है... बुरा होरहा है पर इस ने कितनो के मन मे और कैसी फैंटसी पैदा कर दी जिससे आने वाले समय का विचार ,रूप और पूरी साइक रीक्रेयेट होगी का आभास भी कवि उतार सकता है पन्नो पर ... ( हो सकता है विषयान्तर हो रहा हूँ पर इसमें सुदीप सोहनी का दोष है जिन्होंने विनोद शुक्ल जी का जिक्र कर मुझे बहका दिया 😊😊🌸)
बाकी अन्य बाते काव्य ,बिंम्ब , लोच ,भाषा की सहजता की ऊपर हो ही चुकी है ,जिन्हें दोहराने का मतलब नहीं ।अंततः प्रदीप जी को बहुत बधाई की वह निरन्तर गम्भीर काव्य रच रहे है और अपने पाठकों की अपेक्षाओं को बढ़ाते जा रहे है ।  निश्चित ही हरसूद पर लिखी यह कविताएं महत्वपूर्ण है और एक रोचक बात आपसे कहना चाहूंगा कि किसी समूह में  मैंने इसी प्रकार की डूब पर कविताएं पढ़ी थी वहां अन्य बातों के अलावा कवि से यही कहा था कि आप प्रदीप जी की हरसूद पर कविताएं पढ़े  .... ☺
तो प्रदीप जी एक पाठक के नाते यह सब जो भी कहा वो बढ़ती  पाठकीय अपेक्षाओं के तहत ही कहा । 
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 आशुतोष श्रीवास्तव :उजड़ने की व्यथा से भली भाँति परिचित हूँ! मेरा गाँव का पैतृक मकान भी बाढ़ में कट गया था ! आधा गाँव नदी में बह गया था ! जब मेरे बाबा जी को लग गया की अबकी बार नदी नहीं मानेगी ओर हमारी सारी ज़मीन का पता नदी के पूरब से नदी के पश्चिम में बदल के ही रहगी, तो घर तोड़ने का फ़ैसला लिया ! काफ़ी बड़ा मकान था ! जो गाँव वाले घर के डेहरी में सर झुकाये आते थे ! आज वो सब हाथ में हाथ में खनती भाला लिए छतों दीवारों पे चढ़े उसे गिरा रहे थे ! पुराने ज़माने का पुश्तैनी मकान मिट्टी की मोटी मोटी दीवारें, जिनसे पुरानी महुए की लकड़ी ओर मलबे सिवा कुछ निकल रहा था तो मेरे पापा की आँखों के आँसू थे ! जिस घर मकान में पैदा हए बड़े हुए उसी को तोड़ने में मदद कर रहे थे ! 

ओर शहर में आयीं तो ढेर सारी पुरानी लकड़ियाँ ! जलौनी से ज़्यादा क़ीमत नहीं थी बाज़ार में,लेकिन फिर भी ट्रक का किराया देकर ले आए थे गोरखपुर शहर तक ! क्यूँकि वही बस निशानी बची थी गाँव की !
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 ए असफ़ल :हरसूद पर बढ़िया कविताएं प्रदीप मिश्र की। साथ ही अखिलेश जी द्वारा साझा की गई अन्य कविताएं भी शानदार रहीं। मित्रों ने सुरेन जी आदि ने बहुत अच्छी समीक्षा की। साकिबा का यह दिन बेहद महत्वपूर्ण रहा जो अब तक के कई यादगार दिनों में शुमार हो गया।
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Friday, April 21, 2017


मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।
फ़िराक़
हम सबकी ज़िन्दगी में भी ऐसे कितने मौक़े आते हैं जब हमें किसी किसी की याद काफी समय तक नहीं आती लेकिन वो हमारी स्मृति में रहता है, वो इतना महत्वपूर्ण चाहे न हो कि हर पल उसकी याद आये लेकिन कोई बात तो है उसमें कि दिल उसे भूला नहीं है। याद आने व भूलने के अन्तराल को बहुत ख़ूबसूरती से बताया है फ़िराक़ ने।

याद उसकी इतनी ख़ूब नहीं मीर बाज़ आ
नादाँ वो फिर जी से भुलाया न जायेगा
मीर
मीर साहब दिल को समझाते हैं बार बार उसको याद न कर, यूँ कहकर देखते हैं कि वो कोई इतना ख़ास नहीं कि उसकी याद महत्वपूर्ण हो, इसलिए अब याद न कर उसको। एक तरफ़ जहाँ कहते हैं ख़ास नहीं याद न कर वहीं यह कहते कहते  ख़ुद ही याद भी करते जा रहे हैं और कहते हैं  ए दिल तू नादान है इतना याद करेगा तो वो फिर जी से भूला नहीं पायेगा। एक  तरफ़ कहते हैं खास नहीं, दूसरी तरफ़ ख़ुद ही कहते हैं वो इतना ख़ूब कि उसे भुलाया नहीं जा सकता। इस उलझन में, याद में, दिल की कशमकश में कितनी तस्वीरें बनती हैं, बहुत बड़ी बात कही मीर साहब ने।
अनीता मंडा
***************************
स्मृतियाँ हमारा धन भी हैं जिनसे हम समृद्ध होते हैं तो वो ही वो पड़ाव भी हैं जहाँ से ठोकर खाकर हमने एक नई दिशा ढूंढी होगी।

वाकई ये सोचना भी असंभव सा है कि स्मृतियों के बिना जीवन कैसा हो सकता है।


 स्मृति की धरती पर
______

अनजान मार्ग पर
चलते हुए
याद आते हैं
कई चेहरे।

जिनके सच की
साख भरती है स्मृति
सबूत है शब्द
उनके वज़ूद का।

डग-मग डोलता जीव
हृदय के आंगन में
भटकता है
पीछे भागती है
एक अप्रिय छाया
बेखौफ़।

ख़ुद से भागता जीव
अंतस की आरसी में
तलाशता है
अनजान चेहरे
और बाँचता है
स्मृति की धरती पर
जीवन के आखर।
...........................
मदन गोपाल लढा
(मूल राजस्थानी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा)
(कविता कोश)

जी हाँ! आज के लिखो कविता का विषय है स्मृति.
नास्टेलजिया के मोह में अक्सर कवि अतीतजीवी भी बन जाते है। आप भी इस पर आज कविताएं लिखें। सभी साथियों से सहयोग की आकांक्षा है।
अपर्णा अनेकवर्णा  

वाट्सअप के साहित्यिक समूह  साहित्य की बात में कविता की कार्यशाला में स्मृति विषय पर लिखी गई कविताएं  रचना प्रवेश पर संकलित है |
=======================================                
 स्मृति की धरती पर उगते हैं फूल
कभी झरते हैं फूल
स्मृति की धरती पर आती हैं
नई कोंपलें
कभी झरते हैं पत्ते
स्मृति छोड़ती नहीं कभी पीछा
पीछा करती है उनका
जो छोड़ गए
स्मृति जाती नहीं मन से
आती है बार बार
स्मृति से पीछा छुड़ाने का कोई उपाय नहीं
सिवा इसके कि
स्मृति के साथ रहा जाय हर घड़ी
हर पल।

ए. असफल  
=====================================                
 मेरा मुहल्ला
कहाँ गया मेरा मुहल्ला
जो मै छोड़ गया था बीस बरस पहले यहीं कहीं
नहीं दिखाई दे रहा वह नुक्कड़ का हलवाई
रस से भरी मिठाइयाँ दूर दूर तक जाती थी जिसकी
चिढ़ती-झल्लाती जगत बुआजी
जिसके बरामदे में होली पर गंदगी फैंक आया करते थे हुड़दंगी
अंगूठा छाप टेलर मास्टर जिन्हे मैंने
चंद्रकांता संतति पढ़कर सुनाई थी रोज-रोज
अख्तरख़ान जिसे देखकर हम गली में छुप जाते थे इस डर से
कि कहीं वह हमारी किताबें न छीन ले
वह काला और मरियल सा नन्हा शायर
जो मधुर आवाज में गाया करता था फिल्मी गाने
क्रिकेट की गेंद जब्त कर लेने वाली कठोर महिला
जो पहले तो डांटती थी
फिर उढ़ेल देती थी स्नेह का पूरा समुद्र
न जाने कहाँ चले गए हैं सब
वह इमली का पेड़ जो दादी की कहानियों के प्रेत की तरह
हमारी पतंग को पकड़ लिया करता था अक्सर
वह टूटा पुराना ध्वस्त मकान भी दिखाई नही दे रहा
जिसकी सड़ी हुई लकड़ियाँ होली में जलाते रहने से
हमारा चंदा बच जाया करता था-
सिनेमा देखने के लिए
शायद यही है मेरा मुहल्ला लेकिन
उग आया है एक बाजार हमारी गेंद पट्‌टी पर
होली के वृक्ष की स्थापना चिंता की बात हो गई है
टेलर की दुकान में खुल गई है एक नई दुकान
जो अंग्रेजी माध्यम में सिखा रही है त्यौहार मनाना
गर्म जलेबियों की खुशबू नही बिखरती अब नुक्कड पर
नई जमीन के नक्शे पर
सपने बेच रहा है हलवाई का बेटा
धराशायी मकान की भस्म पर खड़ी हो गई है ऊँची इमारत
जिसकी ओट में छिप गया है नीला कैनवास
पतंग के रंगों से बनते थे जिस पर स्मृतियों के अल्हड़ चित्र
वैसा ही हो गया है मेरा मुहल्ला
जैसे कोई कहे-कितना अलग है तुम्हारा छोटा बेटा

ब्रजेश कानूनगो
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दरिद्र
बहुत दरिद्र होते हैं वे लोग
जिनके पास खूबसूरत पलों की स्म्रतियां नही होतीं

हम सुनाते हैं एक दूसरे को
अपने हसीन पलों के क़िस्से
और वे भावहीन चेहरे लिए
बस भागने का बहाना खोजते हैं

बहुत दरिद्र होते हैं वे लोग
जिनके पास
भयानक पलों की स्म्रतियां भी नहीं होतीं
हम एक दुसरे से सटकर
सुनते - सुनाते हैं
भयावह पलों के क़िस्से
और वे डरावने चेहरे लिए
भागने की जुगत तलाशते हैं

बहुत दरिद्र होते हैं
वे लोग
जिनके पास
स्म्रतियां नहीं होतीं ।

# मणि मोहन

 शरद कोकास :  मणि मोहन की यह कविता सच का एक बयान है यह स्मृतियों की नही बल्कि स्मृतियों के बारे में लिखी कविता है , इस तरह की कविताओं की बहुत जरूरत है । मेरी पहली कविता मस्तिष्क और स्मृति इसी शैली की कविता है ।                    
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एक धागा ~

एक धागा देता है भरोसा
ये कच्चा  सा रेशम
मज़बूत कर जाता है रिश्ते
ख़ुशी और ग़म में
याद आता है सबसे पहले भाई ..

एक धागा जीवन से बंध जाता है
हर पल साथ निभाने के वचन लेकर
धागों में बन्धी होती है
आस और निराश

कितना  विश्वास  करती है
हम स्त्रियां धागों पर
उस कच्चे धागे पर क़दम
रखती हुई पार करती हैं  जीवन की धूप
पीपल ,बड़ ,मन्दिर और मज़ार पर
मन्नत का धागा बांधते हुए
बांध आती है अपने अरमान

धागों से बंधी जिंदगी
धागों पर चलते हुए
खत्म हो जाती है
कच्चे धागे सी ज़िन्दगी

और रह जाती है
स्मृतियों के धागों में ......

              ~मधु सक्सेना ~
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खुलता है यादों का दरीचा
लोग पुराने मिलते हैं।
कुछ अल्हड़ से मिलते हैं
कुछ लोग सयाने मिलते हैं।

उसके मेरे मिलने पर तब
कितने पहरे होते थे।
जितनी दूरी होती रिश्ते
उतने गहरे होते थे।
प्रेम कहानी में मिलने के
कई बहाने मिलते हैं।
खुलता है यादों का दरीचा
लोग पुराने मिलते हैं।

हँसी ठिठोली करती
जानी यारी भी मिल जाती है।
यार लुटाये बैठी
दुनियादारी भी मिल जाती है।
अनजानी सी शक्लों में
जाने पहचाने मिलते हैं।
खुलता है यादों का दरीचा
लोग पुराने मिलते हैं।

इक कमरे में ग़ज़लों के
दीवान ,दोस्तों रखे हुए।
इक कमरे में गीत रखे हैं
गये वक़्त से ढके हुए।
पड़ी खराशें आवाज़ों में,
ऐसे गाने मिलते हैं।
खुलता है यादों का दरीचा
लोग पुराने मिलते हैं।

ज़ोर लगा कर बन्द कर दिये
यादों के दरवाज़े तक।
बड़े जतन कर रोक चुका हूँ
जितनी थीं आवाजें तक।
यादों के उस घर में फिर भी,
कुछ तहखाने मिलते हैं।
खुलता है यादों का दरीचा
लोग पुराने मिलते हैं।

- संतोष तिवारी  
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 इससे पहिले कि ,
 जान पाते,पहिचान पाते-
   खो गया जीवन के गहन वन में
     नन्हा बचपन।

देखता रह गया कैशोर्य
  देहरी पर ।
    कब आगोश में आया-
       और चला गया यौवन,
          पता न चला

और अब सठियाई आँखों पर
  स्मृति की ऐनक चढ़ा-
    खोज रहा हूँ--
     कंचे ,गुल्ली -डंडा
        सिर पर पिता का हाथ
           और....
             माँ  का आँचल ।  
राजेन्द्र श्रीवास्तव
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पापा

कल ही टी वी पर अंधा कानून देखी ,
अनायास याद आ गये आप ,
आज सुबह ही जब आपकी पोती ने मुझे अप्रत्यक्ष तौर पर व्हाट्सएप पर गुड माॅर्निंग कहा ,
फिर याद आये आप ,
आपके कनिष्ठ खान अंकल का आकस्मिक इंतकाल हो गया ,
स्वतः याद आये आप ,

घर की साफ सफाई के दौरान जब टिफिन का डिब्बा देखा ,
सहसा याद आ गयी हमारी माँगें ,
जो कागज पर लिख ,
रोटियों के बीच ,
कभी-कभार डरते-डरते भेजी जातीं थीं ,
इस उम्मीद के साथ कि आप पढ पायें ,
भयाक्रांत होते हुए भी कि , कहीं आप नाराज न हो जायें ,
अन्यथा तो सेतु बंधन का कार्य माँ के ही हिस्से होता था  सदा ,

कुछ एक सप्ताह पहले की ही बात होगी शायद ,
जब घर का पता पूछे जाने पर मुझे मजबूरीवश अपना नाम बताना  पड़ा  ,

कुछ ऐसी ही बात थी , जब मेरे कार्यालयीन सहयोगी ने पूछा था , पिता जी कैसे हैं ?
मैंने कह दिया था , अब नही हैं ,

जीवन में शायद ही कभी आपको होली में गुलाल लगाया हो ,
परंतु इस होली में मैंने ,
आपके गालों पर ,माथे पर खूब गुलाल लगाया,
आप सिर्फ निहारते रहे मुझे ,निर्विकार भाव से ,

आज भी कभी-कभी आपकी तस्वीर के सामने जाने पर , अपराधबोध से ग्रसित होता हूँ मैं ,
जानता हूँ भली-भांति कि ,
आप जानते हैं सब कुछ ,
परंतु कहते कुछ भी  नही ,

मैं तो आपका पुत्र हूँ ,
स्वाभाविक है बात-बात में आँखें नम हो जाना,
गला रुंध जाना ,
किंतु आपकी पुत्रवधु या अप्रत्यक्ष मायनों में बेटी भी ,
कुछ कम द्रवित नही है , आपके अवसान से,
नासमझ , कहती है कि काश आप एक बार जाते ,

उसका दर्द ऊपर से दिखता कम है ,
मेरा बारंबार सतह पर आ जाता है ,
बिल्कुल आप ही की तरह ,

अब मुझे कोई भैय्या नहीं बुलाता ,
मेरे बनाये भोजन पर आपकी बहू को भी कोई रश्क नहीं होता ,
अन्यथा उसे हमेशा से लगता था कि ,
उसे कम तवज्जो मिलती है , मेरी तुलना में ,
आपकी पोती तो छोटी ही है अभी,
किंतु कुछ मायनों में आप व मेरी तरह ही है वह भी,

भाईदूज के दिन बुआ का फोन आया था पापा ,
मोबाइल नेटवर्क की उपलब्धता के बावजूद भी,
दोनों तरफ से कुछ कहा-सुना न जा सका ,

आपके सामानों में आवर्धक लैंस का मिलना ,
आपके गुरू मित्र द्विवेदी अंकल का आगमन ,
सासू माँ का कहना ,अभी नवंबर में ही तो अच्छे से मिले थे ,
काॅलोनी के लोगों का याद करना , आपका टहलना,
अभी भी ,कभी-कभी आपके कमरे में समाचार पत्र रख देना ,
शाम व सुबह क्रमशः आपके सत्संग व टहलने से लौटने का इंतजार ,
सब मुझे आपके साथ होने की याद दिलाते हैं ,
अश्रुधारा बढाते हैं ,  मैं रोता हूँ कभी चुपके-चुपके ,
और कभी जोरों से ,
मेरा गम शायद कुछ कम हो जाता है ,
यथार्थ सामने आ जाता है ,

इस बार कुलदेवी मैय्या की पूजा की मैंने ,
और प्रार्थना भी कि माता , कृपा करें कुल पर

सोचता हूँ , आखिर पिता की परछाई ,
भला पुत्र में कैसे न आये ,
जबकि रंग ,रूप , कद ,काठी , संस्कार,
आदतें , चाल-चलन सब आप से ही पाये ,

सागौन में पतझड़ क्रम देर से शुरू हुआ है इस बार ,
आपकी पोती ने कक्षा कर ली है पार ,

पापा ,सर्दी का  वह  तूफान भी थम गया था ,
आपके जाने के कुछ समय बाद  ही ,
अलबत्ता दिनों हम पीड़ित हैं ,
अंदर व बाहर दोनों ही की गर्मियों से ,

जिस तरह  वाचाल मन पर नियंत्रण असंभव सा होता है ,
मेरे लिए  कुछ उसी तरह आपकी स्मृति का झरोखा है ,
अजीब सा डर लगता है पापा , आपके न होने से ,
मुश्किल होता है मेरे लिए ,चुप होना , रोने से...

पीयूष ,रायपुर
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जीते जी ही
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स्मृतियाँ टेढ़ी रेखा में बनती हैं
पसंद नापसंद के परे
सिरजती हैं अपनी दुनिया

गुज़रते समय की धुँध में
नींद और सपने के बीच
दृश्य और अदृश्य की ओट में
सहेज लेती हैं चुपके
समय का एक महीन फ़ाहा

बदलते स्वयं के साथ
गाढ़ी होती जाती हैं उनकी धमनियाँ
आत्मा के अपरिचित रहस्यों में
मन की परतों में घुल कर
तह कर जाती हैं

अँधेरा स्मृतियों का रंग है

जीते जी ही बन जाती हैं ये पहचान आदमी की

- नीहसो   
सुदीप सोहनी  

 अपर्णा अनेकवर्ना : गहरी मनोवैज्ञानिक कविता है। आज के अनुभव जहां हमारे आज को ढालते हैं वहीं वो मन के किसी अपरिभाषित या अर्द्धपरिभाषित कोने में ठहर जाते हैं स्वभाव बनकर और आत्मा के अपरिचित रहस्यों का संसार बसाते हैं। बाहरी हर उद्दीपन जहां अनुभव की स्मृति बनता है वहीं उसका असर हमें आगे और गढ़ता है। सुंदर अनूठे  बिंब हैं। भाषा भी बड़े ही सौम्यता भरी प्रयोग हुई है। रुई के फाहों सा असर छोड़ती इस कविता का आभार।
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लाये हैं बांधकर

जितने बचपन में देखे थे
उतने इस कस्बे में
नहीं दिखाई देते कबूतर
कुछ परंपराओं की तरह
जैसे ये भी गायब हो गये हैं

अलबत्ता महानगर की
पांचवी मंजिल पर भी
उड़ उड़ कर आ जाते हैं
पर परंपराएं यहां भी गायब हैं

डूबने मन होता है
इनकी टुकुर टुकूर आँखों में
कम से कम इतना तो
उड़ना आना चाहिए मुझे भी
जितना उड़ना मैं  इनका देख रहा हूँ

सोच रहा हूँ
ये एस.एम.एस, ये कोरियर सेवाएं
अपनी परंपरा में
कबूतर के बारे में तो
जरूर पढ़ते होंगे

इन कबूतरों ने
पता नहीं प्रेमिकाओं की चिट्ठीयां
पहुंचाई होंगीं  या नहीं
उनके प्रेमियों तक

पता नहीं उस सदी में
बादशाहों के  सियासती ख़त
भेजे होंगे या नहीं

मगर
इस वक्त  ज़रूर ये कबूतर
बचपन की एक स्मृति को
बांधकर लाये हैं
मुझे देने के लिए.

ब्रज श्रीवास्तव.

अपर्णा अनेकवर्णा:.... ब्रज जी की कविता में कबूत रों की उड़ान रस्किन बौंड की 'फ़्लाइट औफ़ पिजंस्' की याद अनायास ही ले आई।
गायब होते कबूतरों की तरह गायब होती परंपराएं!
देखा जाए तो अन्य पक्षियों की तुलना में कबूतर फिर भी बचे रहें हैं। स्मृतियों की तरह। भावनाएं लुप्त हो रहीं पर स्मृतियाँ बनी रहती हैं।
शुक्रिया ब्रज जी    
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 स्मृति

नज़रें बचाकर,
बाबूजी से

चुपके से अम्मा
रख देती
हथेली पर
पांच पैसे का सिक्का

उस सिक्के को ले
इठलाते हुए
दौड़ते फिरते
सारे गांव में हम....

आज अफसर कहलाकर भी
अम्मा का दिया
वो सिक्का
बहुत याद आता है

बचपन के दिन भी
क्या अमीरी के दिन थे।

मंजूषा मन
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 चाहू होना शून्य
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स्मृतियों के पल ,
लौट लौट आते,
अपने पूरे वजूद से ,
खडका देते है मन की किवडियाँ

समेट लाते है अनंत ब्रम्हाण्ड प्रेम का ..
अंतस में सजा देते है
ख्वाबों के शामियाने ,
तरंगित साँसो  मै गूंजती है
मधुर शहनाई ..

एक छुअन ,
एक सिहरन ..,
अधरों पर थरथराती एक कहानी ,

मीरा की ह्रदय जोत
राधा की अटूट प्रीत
चातकी की आस
जन्म- जन्मो की साध ,

मनमीत मेरे ,
प्रीत मै तेरे ,
रचे सब गीत मेरे ..

दिव्य अलोकिक यादों की छवियाँ
अनंत कर देती
मुझको मुझमे

चाहू होना शून्य ,
विलीन होकर  बस उनमे ...!!!
प्रवेश सोनी   

मधु सक्सेना :.. प्रवेश ...दिव्य में लीन होने की इच्छा याने पूर्णता को प्राप्त करना ।प्रेम की उच्च भावना की तरंगों को पहचान लेना ।
दुःख जब समर्पण बन जाए तो यही होना साहस देता है   

शरद कोकास : प्रवेश की कविता स्मृतियों की कविता होते हुए भी प्रेम कविता है । थोड़ा विस्तार दो । प्रेम दरअसल स्मृतियों का ही प्रतिबिम्ब होता है , यह बात कहीं आनी चाहिए ।         

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कविता

स्मृति की धरती पर खिलते हैं फूल
कभी मुरझाते हैं
स्मृति के वृक्ष पर आती हैं कोंपलें
कभी झरते हैं पत्ते
स्मृति कभी छोड़ती नहीं पीछा...
पीछा करती है उनका
जो छोड़ गए स्मृति!
स्मृति जाती नहीं मन से,
आती है बार बार...
स्मृति से पीछा छुड़ाने का कोई उपाय नहीं।

ए. असफल    
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🏔 स्मृति  ⛰

स्मृति के इतिहास में पहली बार ऊगा सूरज
अपनी सम्पूर्ण उष्मा और प्रकाश सहित
मानव मस्तिष्क के इसी हिस्से में दर्ज हुआ

यहीं कहीं दुबकी हुई है
नग्नता को छाल से ढँकने की पहली कोशिश
विश्वस्तरीय फैशन शो के आगे शर्मसार होती हुई
शिकार के लिये भाला बनाने की खुशी पर
पानी फेरता परमाणु बम बनाने का आनन्द

जीवन में घटित हुआ हर पल
आँखमिचौली खेलता हुआ
दुबक जाता है मस्तिष्क के किसी कोने में
और समय की आवाज़ पर बाहर निकल आता है

वस्तुओं की तरह भौतिक जगह नहीं घेरती स्मृतियाँ
भूख और हवस की स्मृतियों के साथ
सहअस्तित्व बनाती हैं प्रेम और करुणा की स्मृतियाँ

किसी भी सुपर कम्प्यूटर से बड़े स्मृति भंडार में
लाखों वर्षों का इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर लिये
मनुष्य का यह मस्तिष्क
भविष्य के हर  खतरे के लिये खुद को सतर्क पाता है

स्थायी और तात्कालिक स्मृतियों के द्वन्द्व से
नये आयाम खोजती है मनुष्य की जिजीविषा

स्मृतियाँ जीवित रहती हैं
और प्रकट होती हैं
कविता की किसी पंक्ति में
किसी जानी पहचानी आवाज़ में
प्रिय लगने वाली किसी गन्ध में
बार बार पुनर्जन्म होता है उनका ।

शरद कोकास
(नया ज्ञानोदय में प्रकाशित )    
                  
 💦 याद 💦

माँ जिस तरह याद रखती थी तारीख़ें
वैसे कहाँ याद रखता है कोई
माँ कहती थी
जिस साल देश आज़ाद हुआ
उस साल तुम्हारे नाना गुजरे थे
हम समझ जाते
वह सन उन्नीस सौ सैंतालीस रहा होगा

माँ बताती थी
जिस साल पाकिस्तान से लड़ाई हुई थी
उसी बरस तुम्हारे बाबा स्वर्ग सिधारे थे
हम समझ जाते
वह सन उन्नीस सौ पैंसठ रहा होगा

माँ कभी नहीं कर पायेगी
अमेरिका के अफगान हमले का ज़िक्र
हम याद करेंगे
जिस साल ऐसा हुआ था
उस साल माँ नहीं रही थी

मुश्किल नहीं होगा समझना
वह सन दो हज़ार एक रहा होगा  ।

शरद कोकास
( हमसे तो बेहतर हैं रंग से )    

अपर्णा अनेकवर्णा: इस संपूर्ण मानव जाति की  स्मृति-कविता के अंतिम पैरा में वो बात है जो स्मृतियों को पुकार लाती है। वो है उनसे जुड़े उद्दीपकों से जुड़ी हमारी कंडीशनिंग।
शुक्रिया इस कविता का शरद जी! 
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 तुम्हारी याद

स्मृतियों का यह
कानन
बहका देता है अक्सर
गुजार देता है
अपने ही बीच से
एक सारा युग,
इतिहास राजनीति
समाज
सारे फाख्ते अचानक
आ बैठते हैं
मुंडेर पर
चुगते है दाने देर तक
गूँजती है गुटर गूँ
हँसी ठट्ठा
अचानक एक धमाका सा
होता है
और फाख्ते
ओझल हो जाते
दृष्य से
आँखों के आगे एक
धुंधला सा नम संसार
होता है
स्मृतियों का जल
बंध तोड देता है अचानक
अचानक कितना कुछ होता है।

सुधीर देशपांडे     
=============================================                  
''मन की किताब ''
जब कभी ,मिलते है मुझे ,
फुरसत के कुछ लम्हे ..........
खोल लेती हू,,
मन की किताब के पुराने पन्नो को .......
और महक जाती हूँ .......
तेरी हंसी यादों के झोंके से ,
गुनगुनाने लगती हूँ ,
उन दिलकश  पलो को ,.............
उस खुबसूरत कविता की तरह ,
और भरपूर जी लेती हूँ ,
उन भूली यादों को भी ,
जिन्हें तुमने ,बुकमार्क  की तरह ,
पन्नो में दबा रखा है ,
पर खोलना भूल जाते हो ...........
किताबे पढना हमदोनो  का शौक है.,
फर्क सिर्फ इतना है,,,
मैं ....जिन्दगी की किताब को
पन्ने पलट कर ,
बार-बार पढ़ती हूँ ......
और ..........तुम,......सिर्फ .....
पन्ने पलट कर आगे बढ़ जाते हो ..
अर्चना नायडू
=======================================                     
 अभी
राख को झटका है
और तुम्हारी यादों की
गर्माहट से
चेतन है परिवेश
हल्कीसी लाल
दहकते अंगारे की नन्हीं सी आग
फिर भभकने को तैयार है
अदहन खौलना ही चाहता है
तुम्हारी भाषा के मसालों की खुश्बू के साथ

सुधीर देशपांडे   

 केवलराम पेट्रोलपंप

गिनी चुनी ही थी तब गाडियाँ
न थी इतनी रेलम पेश
तब था वजूद कायम
कि अब केवल नाम
पर दहकती है आज भी आग
जबकि
मनाही होती है
मोबाइल चलाने की
मनाही होती है
आग की
बहस मुबाहिसे की
पर केवल
यही जगह है जहाँ
भरपूर है मोबाइल की दुकाने
बजती रहती हैं जहाँ घंटियाँ
मोबाइल की चारों यानी
बहस मुबाहिसे फितरत है यहाँ की
आग में जलते रहते हैं
पुतले
भेद नही करता कोई
चुनते  समय इसे
मेरे शहर की सारी गरमी
बस इसी जगह पाती है
शीतलता
दिन भर की ऊर्जा यहीं
यहीं मिलते हैं चार यार
अपनी दिन भर की थकान
और प्रतिबद्धता के बाद
हँसी ठिठोली और
भी बहुत कुछ है
बाजार है
जहाँ दिन भर की जरूरत भर
का सामान ले जाता है सुखिया
और मतलब भी नहीं रखता
बाकी दुनिया जहान स

सुधीर देशपांडे  

अपर्णा अनेकवर्णा: कविता अच्छी है। थोड़ी अस्पष्ट  है। शायद घुमा कर नाक पकड़ी जाए। कि पुराना पेट्रोल पंप अब भी गुलज़ार है बस रौनक का सबब बदल सा गया है।
मुझे ये एक शब्द चित्र की तरह बेतरह लुभा रहा है।
शुक्रिया सुधीर जी। आज आपने जी भर शिरकत की। मंच आभारी है
===========================================                    
|| काकी का चौका ||

एक थी काकी
नहीं वे जन्मजात काकी नहीं थी
बारह बरस की नादान उम्र में ब्याही जाकर
आई जब ससुराल
और आते ही काकी बन घई
हाँ पहला सम्बोधन जेठानी के बेटे का
उन्हें इसी नाम से दीर्घजीवी बना गया
अब वे सबकी काकी थीं
हर छोटा बड़ा ऊंचा लम्बा
उन्हें काकी पुकारता
यहाँ तक कि उनका सोलह बरस का दूल्हा भी
वे मुँह में पल्ला दबाये हँसती
पर काकी की पुकार सुनते ही दौड़तीं
इस कमरे से उस कमरे
दालान से बारहदरी तक
दिन भर पुकार मची रहती काकी काकी
काकी का मुख्य काम रसोई में होता
सास और जेठानी के निर्देशों का पालन करते जाने कब
काकी एक कुशल रसोइये में
तब्दील होती गई
खुद काकी को भी नहीं पता

एक चूल्हा दिन भर सुलगता रहता
पास पड़ी रहतीं मोटी पतली छिपलियाँ
सूखे कण्डे और आसपास पसरा होता
रसोई का सामान

तेल मसाले में रची बसी काकी
कब छै बच्चों की माँ बन गई
और घर की मालकिन भी
कोई नहीं जानता
अब बचा भी कौन है
सुनाये जो काकी की दास्ताँ
बच्चे खुद दादा नाना बन
बिसरा चुके काकी की रसोई
पर एक जमाना था
हर आया गया
बिना जीमे जाने नहीं दिया काकी ने
मद्धि मद्दी आँच चूल्हे में राख में दबाये रखती काकी
क्या जाने कौन कहाँ से भूखा प्यासा
भटकता राहगीर आ जाये
दो चार रोटियाँ तुरन्त बन जाएँगी
काकी के चूल्हे पर हर वक़्त चढ़ा रहता चाय का अधन
कब कौनसी गुइंया आ जाये क्या मांगने
काकी की बनाई छाछ मोहल्ले भर में बटती
बाल गोपालों को मक्खन और
देवर लालाओं को चाय नाश्ता
काकी का चौका बारहमासी था
कोई न कोई बहू बेटी
मुस्तैद रखी जाती
चाट पकौड़ी से लेकर इडली सांभर तक
काकी हर व्यंजन की जादूगर थी
छानती मालपुए रांधती खीछड़ा
चौका गमकता मीठी नमकीन खुशबुओं से
बड़ी बिजौड़े पापड़ आचार दसियों तरह के काकी की निगरानी में होते तैयार
खूब बंटते बहन बेटियों में
हर मौसम हर त्यौहार हर प्रदेश के
व्यंजन ही व्यंजन
जिमाये जाते मनुहार करके
दिन भर रसोई की महारानी बनी काकी
निकली नहीं घर से बाहर
हाथ भर का घूँघट किये नवोढ़ा काकी
सर पर पल्लू खिसकाते खिसकाते
प्रौढ़ा से वृद्धा में चौके में ही बदल गई
नहीं चली चार कदम पैदल
नहीं देखी बाहर की दुनिया
चौके से बाहर निकली
बन कर एक असहाय रोगी
बिस्तर पर रही बीस बरस
अंतिम क्षण में भी
काकी की आँखों में बस चौका था

चौका अब स्मार्ट किचन था
नकार दिया था जिसने काकी को
रसोई दारिन के पद से च्युत काकी
हसरत भरी निगाहों से चौके की तरफ देखती ही मरी थी
घुट्टी में चाटा चौका काकी की आखिरी साँस में कराहता गया था
काकी एक औरत कब थी?
काकी थी रसोई दारिन

आरती तिवारी     

अपर्णा अनेकवर्णा: न जाने कितनी ही काकियों के मूक पीड़ा से भरी है ये कविता। पूरा जीवन एक शैली को साधते साधते अंत में उसी परिवार और उसकी करवट बदलती जीवन से च्युत हो जाती है। वो अपनी इकलौती पहचान खो बैठती है। बढ़िया!
कविता में गद्यात्मकता और कथात्मकता है। इस पर काम किया जा सकता है। सादर!
शुक्रिया इस आवाज़ को उठाने के लिए।
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 गीत
तुमसे तुम्हारी यादें भली हैं

तुमसे तुम्हारी यादें भली हैं
चलूँ जहाँ संग मेरे चली हैं |

तेरे तो हैं  रे खूब  बहानें
यादों ने ना  बहाना बनाया |
गीतों को मेरे तूने सुना न
यादों ने गीतों को उपजाया |
बिरहा की रातों में पिघली है |


अपने  ही  घुटनों पर मुख धर के
तेरी छवि को नयनों में भर के |
बहाएं  नयन ये   कितने  सावन
फिर भी ना  आये मेरे साजन |
पूजा की धूप सी ये जली है |


यादों को चाहें कहीं बुलालो
पलकों  की शैया पर सुला लो |
तुमको बुलाया बोले समय ना
हमको पता है तुझ पर हृदय न |
फिर भी मन में छवि सांवली है |

ज्योत्स्ना प्रदीप
===============================================   
विस्मृति
➖➖➖➖

कुछ चीज़ें जगह बना लेती हैं
छोटे छोटे द्वीप
जिनसे सटकर विस्मृति का सागर बहता है
द्वीप की दीवारों को छूता
और किनारों को धीरे-धीरे काटता


कुछ प्रार्थनाएं की गईं
ईश्वर के समक्ष नहीं
किसी के भी समक्ष नहीं
बस विस्मृत होते दिनों को
नैवेद्य अर्पित करती हुई


शहर कर्फ़्यू से ग्रस्त था
तमाम तरह की आवाज़ें
नसों को भर-भर देती थीं
गुज़रना किसी सूनी गली से
उन्माद के साथ
विस्मृति के किसी सागर को
उफान पर देखना था
और ठौर पर लगाए जाते
अपनी जमा पूँजी को देखना
एक अजब सुकून था
जिसके लिए सुकून शब्द
अपर्याप्त था

वो फिर कुछ शब्द बड़बड़ा रहे थे
जिनमें कोई शब्द आकार नहीं लेता
शायद वे भी प्रार्थनाएं थीं
अस्फुट सी

     ➖➖  सुरेन                      
============================================                 
 अतीत की स्मृतियाँ
प्लास्टर चढ़े पाँवों से
लंगडाते हुए आती है
सनस्क्रीन क्रीम की तरह मैं
दरवाजे पर इनकी चमक रोके बैठी हूँ
पड़ोसियों की सटी छत से
पुकारती है ये मुझे बार बार

मजबूरन
किसी क्लासी लडकी की तरह
जो प्रशिक्षित है
नफरत को झूठी मुस्कुराहट से
बड़ी शालीनता से ढकने में
और
पार्टी से लौटने पर
बदलकर पहने गये
घर के घिसे कपड़ों की सी
सहजता से
स्वागत करती हूँ मैं इनका
(हाँ, बनावट आजकल फैशन है)

पता है मुझे कि स्मृतियों के गले पर लिपटा
ये सुंदर कसीदे का लाल स्कार्फ
थोड़े समय बाद मेरे गले में
गड़ेगा नुकीला तार बनकर
मेरे मन की उथल पुथल को
लाउड स्पीकर पर डाल
सुनने की कोशिश की जायेगी
सभी कमजोरियाँ

इसलिए मैं पहले ही धुंधला देती हूँ इन्हें
उतना ही जितना सिरहाने रखे लैंप को
सोने से पहले मंद किया जाता है
इसका फायदा उठा निकालती है ये
ब्रुट्स ब्रांड का छुरा
उनींदी ही मैं उस पर मक्खन लगा
ब्रेकफास्ट का टोस्ट आगे कर देती हूँ
(अभ्यस्त हूँ मैं कई सालों से)

मुझे पता है लगेज में सबसे नीचे
छुपाये हुए है टीस के पहाड़
जिनकी नोक पर खडी हो
जला देती हूँ यहाँ से निकलने वाली
सभी नदियाँ मिटटी का तेल छिडक
मेरे अहाते में
(मेरा अहाता काफी बड़ा है इसके लिए)

बन गयी है दुनिया पीछे हटकर दर्शक
 और मैं इसकी अलाव के पास बैठ
खोल लेती हूँ एक किताब कविता की..

-कोमल सोमरवाल                      
=========================================
                       
तिल-तिल उम्र गवाई सारी
तुम्हें न आई याद हमारी
सावन गरजा, भादो बरसा
होली में तन –मन भी तरसा
दीपाली पर स्नेह लुटाया
फिर भी मन मेरा ही तरसा
बाती बनाकर रात बिताई .......तुम्हें न .....
बस्ती  के हर चोराहे पर
तुम को कितनी बार पुकारा
हाथ थाम कर पथ पर चलना
क्या तुम को है नहीं गवारा
मैं तो इस जीवन से हारी ...तुम्हें न .....
मेरी अश्रु झड़ी के आगे
सावन भी तो हार गया
करुण-कणों का दान मांगने
वह सागर के द्वार गया
मन की धार लुटाई सारी...तुम्हें न ....
लिए हाथ में विष का प्याला
पिया श्याम की मीरा बनकर
खड़ी हुई जन्मों से प्यासी
स्मृति की गागर ले पनघट पर
चिर वियोगिनी बनी तुम्हारी
तुम्हें न आई याद हमारी 

कृष्णा कुमारी  
===========================================                     
 जेठ की दुपहरी और
पूस की रातें जुड़वां हैं
दोनों ही मेरी स्मृति में
नाचतीं हैं कालबेलिया नृत्य
उनके घूमरैले घाघरे का वृत
बहुत पसरा है
उसमें उचाट नींदें
नीम अंधेरे कमरे
कुछ भी नहीं हो पाने की जाग
आँख फाड़े लेटी रहती है

जेठ रेंगता है गर्दन के इर्द-गिर्द
खारेपन की हंसली बनकर
लू रोज़ थोड़ा सा हिला जाती है
सलाहुद्दीन हैंडलूम हाउस की टिनही छत
माँ दोपहरी से तिजहरिया की दूरी
उस स्वर से नाप लेती हैं

पूस बंद खिड़कियों के उस पार से
खरोंचता है कांच
फुसफुसाता है झीरियों से
पुकारता है कातर
कुक्कर स्वरों में
ऋतु चक्र के दो छोरों पर
बसे ये तो अतिशयोक्ति के सघन द्वीप
आज भी रेंगते हैं
विस्मृति को पछाड़
लौट लौट आते हैं

मैं उनकी स्मृति में अभिशप्त
उलटे पांव चलती हूँ आजकल
.
अपर्णा अनेकवर्णा                      
ज्योति खरे : वाकई जिनके पास स्मृतियों नहीं होती उनके पारदर्शी मन भी नहीं होते हैं, स्मृतियाँ सच और झूठ का खुलासा करती हैं .
बेहतरीन रचना
बधाई 💐🙏  
==========================================                   
 स्मृति :

राजमार्गो की स्मृति में जस की तस है पगडंडिया
अकेले, उदास खड़े इमली के पेड़ को
अब तक याद है
योजन तक फैले महुआ वनो की गमकती खूश्बू
उसी पेड़ के नीचे बिक रहे कशमीरी शालो को
जब भी याद आती है भेड़ो की
वो खूब आंसू बहाते है और
आपको लगता है कि
आपकी देह ने छोड़ा है पसीना ।

मिठाईयों की मिठास भी स्मृति हीन नहीं हैं
जबकि दर्द की एक पूरी यात्रा है
पहले उतारी गई खाल
फिर लोहे के दो पाटो के बीच पेर कर
अलग किया गन्ने के रेशों से
उबाला गया बड़े बड़े तशलो में
मढ़ी गई जिस्म पर चांदी की वरक
पर बचपन भुलाये नहीं भूलता
मिठास आज भी लौटना चाहती है गन्ने के खेतो में

तितलीयां खोज रही है
उन्हें पकड़ने वाले छोटे छोटे हाथ
टिकोरे इंतजार में हैं
कि फिर कोई उछाले उनकी तरफ पत्थर
और पत्थरों की स्मृति में राम नाम हैं
कोई लिख दे फिर से तो
तैर आये समंदर ।

सबकी अपनी अपनी स्मृतियां हैं
सिर्फ आदमी भूला हैं कि
वो कभी आदमी था ।

अखिलेश                      
मणि मोहन मेहता : भाई अखिलेश , बड़े फलक की कविता है , सच में .......इस कविता में स्मृति एक जगह खड़े खड़े कदम ताल नही कर रही है , यह खास बात है । कविता में जो अपने समय की आवाजाही हो रही है न , यह ख़ास है । स्मृति जैसे हवा के झोंके से पत्तो के बीच बन गई खाली स्पेस भर का काम कर रही है जिसमे से यह समय भी झांक रहा है या उसकी परछांई दिख रही है । गुरु बधाई 😀                      
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 कुछ दिन
ये तरीका भी खूब चला था
अपनी शिकायतों का,
फरमाइशों का
एक पुर्जा बनता था
जो सोते वक्त चुपके से
पापा के तकिये के नीचे रख दिया जाता था
या फिर दफ्तर जाते समय
उनकी कमीज़ की जेब में
चेन वाली जैकेट की फरमाइश हो,
या फिर जूतों के पुराने हो जाने की शिकायत
हमेशा तो नहीं,
पर अक्सर काम कर जाते थे ये पुर्जे

पीढ़ियों से गुजरते हुए
कल एक पुर्जा मेरे घर पहुँचा
न जाने कैसे मेरी पत्नि सीख गई ये कला।
रोज दफ्तर जाने से पहले
मेरी जेब में रख देती है
सब्जियाँ, दवाईयाँ, बिजली के बिल,
टीवी, सोसाइटी का बकाया
और बैंक लोन की ई एम आई भी। 

अबीर आनंद    
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अचानक ही,
धरा को असहाय पाकर,
चुपके से सूरज ने कहर बरपा  दिया,
घरौदा जल कर राख हुआ।
यही तो वो जगह है.....
जहाँ मातृ त्व का अहसास उसने किया था,
गोद मे लेकर मुड़ेर पर बैठी रहती,
ये सोच कर कि.......
मां एक अहसास से भी बढ़कर है।
जीवन मे घटने वाली,
प्रतिकूल ताओं से परे,
 संजोती रही सपने....
 नन्हे कदमों के साथ,
  सच साबित होते ही,
 आंखें पथरा गई,
अब जेठ की तपिश,
सावन की झडि़यों पर भारी पडी।
इस शुष्क मौसम को
सुखद समृतियोंकी नमी  के साथ,
मैं झेल लूगी।       

राखी तिवारी          
                   
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