Friday, January 17, 2020


मीरा चंद्रा की कविताएँ

मीरा चंद्रा 


 बूंद बूंद हो गए समुद्र तुम

 बूंद बूंद हो गए समुद्र तुम
प्यार के उजास से
कोण कोण तप गया है
दुख के प्रहार से
हो गया बहुत
अब लौट भी आओ
रीत गया मन
बीत रहा जीवन
है पड़ा शरीर
बस सांस की प्रवाह में।




 तकदीर—

लाठियों से पिटता
गाली खाता
जूठन का महाभोज निगलता
बलचनमा-नागार्जुन का
फिर-फिर जन्मा है।
कटकटाती रात में
बुझी मींगड़ियों की आग
अब भी कुरेदता
चीखती अंतडिय़ों की आवाज पर
आम की गुठलियों के
गूदे से पुचकारता
आज भी जिंदा है।
गांव के, शहर के
हर गली चौराहे पर खड़ा
अपनी तकदीर का
सुनने को फैसला।





आदमी.

जीवन के आंगन में
चाहों का मेला
अनचाहों की भीड़ में
आदमी अकेला,
सीमित चादर को
खींचने में व्यस्त
अपनी निजता मे ही टूटता
ये टूटन और बिखरन
प्रतिदिन नयी मौत देता
अपनों से कटता, टूटता
फिर भी-
भोगता आदमी
भागता है-
चाहतों की भीड़ में।





जीवन के सपने

शब्दों का खिलवाड़ भर नहीं
जीवन के प्रति आदमी का
प्यार है कविता।
मन के निविड़ अंधेरों मे
जुगनुओं सा टिमटिमाती
भविष्य के प्रति
आस्था की गुहार लगाती है कविता।
पीड़ा को स्वर देती
जीवन के सपने गढ़ती
संघर्ष की ऊर्जा से
छुटे सिरों को जोड़ती
दर्द से उपजी संवेदना है कविता।
शून्य के खिलाफ
पूर्णता की पक्षधर
यथास्थिति से टकराती
जुनून को हद से गुजराती
शब्दों को जन्माती है कविता।
दृण संकल्पित शक्ति
सामान्य अनुभवों की,
मुखर अभिव्यक्ति
विश्वसनीयता सम्प्रेषण की
परछाइयों को भी पहचान बनाती है कविता।







परिचय

डा०मीरा चंद्रा
जन्म 14सितंबर1954 गाजीपुर उ०प्र०
प्रकाशित पुस्तक-नागार्जुन का कथा साहित्य(आलोचना)
कितनी गिरहें(कहानी संग्रह)
बूंद बूंद होगए समुद्र तुम(कविता संग्रह)
सृजन के सरोकार और स्त्री(आलोचना)
सम्मान-हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, इलाहाबाद का प्रज्ञा भारती सम्मान2006

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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