Thursday, March 3, 2016


 वसो तो कागा भला ...   
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राजेश झरपुरे 
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सुबह, सुबह जैसी सुबह उस नगरी के माईनर्स क्वार्टर नम्बर 318 में सात घंटे पहले हो चुकी थी. नौतपे की सूर्य किरणें खिड़की के झरोखें से निर्भय प्रवेश कर, मिठाईलाल के बिछौने पर पसरी हुई थीं. वह मुँह ढाँककर दाँई करवट सो रहा था. पत्नी, बच्चों की सुबह और दोपहर हो चुकी थीं. हो चुकी सुबह और दोपहर के बारे में उसे नहीं बताया गया, न जगाया गया. उसके लिए यह जानना ज़रूरी भी नहीं था. उसके जीवन में कई सप्ताह सुबह नहीं होती. कई सप्ताह दोपहर और कई सप्ताह शाम व कभी रात भी नहीं होती. वह क्रमशः तीन पालियों में 8-4, 4-12 एवम् 12-8 बजे की पालियों में कोयला खदान की लम्बी-अंधेरी सुरंग में पिछले 35 वर्षों से नौकरी कर रहा था. 12-8 यानि रात पाली से आकर बेसुध पड़ा था. देह से आठ घंटे पसीना चुहाने के बाद आई थकान से उसका सोया हुआ चेहरा कुन्दन की तरह दमक रहा था. इस चमक में कोयले की कालिमा भी थी जो उसके चेहरे को और अधिक सुन्दर बना रही थीं. वह नींद में भी थकाहारा लग रहा था. इस अवस्था में चार-पाँच घंटे और पड़ा रह सकता था. पर नींद उसके ऊपर चढ़ी पसीने की परत की गंध से उचटने लगी. वह कुनमुनाने लगा. उसकी कुनमुनाहट पर पत्नी संवाद का साहस जुटा पाती अन्यथा नहीं.
वह अपने पति का बेहद ख़्याल रखती। उसकी हर बात को गांठ बाँधकर रख लेेती. जब वह संवाद हेतु उचित अवसर पा जाती तो बड़े ही मनुहार से कहती ”...उठिएजी! 4-12 का टेम हो रहा हैं।“ पर इसकी ज़रूरत कभी-कभी ही पड़ती. वह ख़ुद ही जाग जाता. उसे नींद में भी अपनी पाली की फ़िकर रहती. पैंतीस बरस की भूमीगत नौकरी में उसने एक भी दिन नागा नहीं किया. बिना किसी उचित  कारण के छुट्टी  नहीं लिया. छुट्टियाँ उसके पास अर्जित अवकाश की थैली में गले तक भरी पड़ी थी. वह बैंक में जमा धन और जमा छुट्टियों में कोई अन्तर नहीं समझता. दोनों ही नगद राशि है. आड़े समय में सब साथ छोड़ जाते हैं तब यह नगदराम ही सच्चा साथी बनकर मदद करता हैं...ऐसा उसका मानना था और ऐसा उसने देखा,सुना और भोगा भी था.आखिर वह कबीर पंथी जो ठहरा।

झरोखों से आती किरणों ने उसेे बायें से दायें करवट बदलने पर मज़बूर कर दिया. लेकिन दांईं ओर भी सूरज के छोटे-बड़े गोले बिछौने पर उछल कूद कर रहे थे. बाएं से दाएं और दाएं से बाएं की मशक्कत के बाद उसके कबिरा मन ने इस सोच के साथ उठा दिया कि ‘‘... चलो! गुज़र गई, जो गुज़रना था. अब बचे दो साल और गुज़ार लेते है. गुज़ारना नियति हैं. बिना गुज़ारे काम  नहीं चल सकता. घर चलाना हैं, परिवार पालना हैं तो खपना पड़ेगा. जो खपेगा,वही भर पायेगा. यही दुःख हैं और सुख भी.

 “मैं रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय ।
  मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय।।“

जो गुज़ारा उनके कांधें पर गुज़रा, जो गुज़रेगा वह भी कांधें पर चढ़कर गुज़रेगा. गुज़र जाने दो इसे भी... सोचते हुए वह उठ बैठा. भरी दुपहरी में सुबह हुई. मुँह-हाथ धुले. तुरन्त हाथ में गरम चाय की प्याली आ गई. पत्नी ने बिछौना समेटकर रख दिया. वह चाय पीने के बाद पूरे मनोयोग से खैनी मलने लगा. मली हुई खैनी की पीट पर दो-चार थपक लगाकर चूना झड़ाया. एक चुटकी अपने तलबे में दबाकर, तहमत लगा ली. खोली (क्वार्टर) के सामने आकर खड़े हो गया. यह संकेत हैं...पड़ोसी सह-कामगारों के लिए। वह ड्यूटी जाने के लिए तैयार है. आवश्यक दिनचर्या से फ़ारिग होने ही वाले हैं. उनकी इस आदत से घर और मोहल्ले में आसपास के सभी लोग परिचित थे. खैनी का लस जब उनके दिल और दिमाग में एक तरह की झनझनाहट भर देता तो वह फ़ारिग होने के लिए चल देते। इसके बाद स्नान,ध्यान. वह वर्षों से एक अगरबत्ती वाली पूजा करते चले आ रहा थे. नियमित रूप से हनुमान चालीसा पाठ के बाद चन्द मिनट हाथ जोड़कर बुदबुदाने से उनकी पूजा सम्पन्न हो जाती. इसके बाद भोजन की थाली तैयार रहती.वह सीधे रसोई में चले जाते. इसी समय घर का हरेक सदस्य उनके आसपास होता. ड्यूटी के दौरान मोहल्ले के आस-पड़ोस और रिश्ते-नातेदारों से सम्बन्धित हालचाल और सूचनायें उन्हें दी जाती. वह भोजन करते हुए बीच-बीच में अपनी राय देते . पत्नी इसी समय घरेलू ज़रूरतों की बातें करतीं. बच्चे अपनी समस्या बतलाते. वह सारी इच्छा और ज़रूरतों को समझदारी से खींचकर चादर के अन्दर लाते. और आवश्यक रकम अलमारी से निकाल लेने की अनुमति दे देते. चादर के दायरे में बंधें बच्चे ना-ख़ुश रहते पर पत्नी स्थिति को सम्भाल लेती.

वह स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे पर बच्चों की परवरिश पर बड़े गर्व से पैसा खर्च करते. उनका सारा ज्ञान पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार की पूंजी था. कबीर पंथियों के बीच पले बढ़े होने के कारण उनकी समझ आग में तपे सोने के आकर्षक गहने की तरह हो गई थी. उनकी इसी समझ और समझदारी के कारण घर-परिवार के लिए उन्हें एक अच्छे पिता, पास-पड़ौस में एक शुभचिंतक और कोयला खदान में एक आदर्श और मेहनती कामगार का दर्ज़ा प्राप्त था. लोग ध्यान से उनकी बातें सुनते और गुनते.

वह अपने बच्चों की पढ़ाई पर खुले हाथ से पैसा खर्च करते और कहते “...बस! इसी एक चीज़ की कमी रह गई मेरे जीवन में. यदि दस क्लास पढ़ा होता तो आज कोयला खदान में सब्बल और गैंती नहीं बल्कि छड़ी पकड़कर खदान चला रहा होता.“
भोजन के बाद वह टी.वी. का स्विच आॅन कर बैठ जाते. समाचार देखे-सुने बिना उनका दिन पूरा नहीं होता. चाहे कोई भी पाली रहे, वह आधा घंटा अनिवार्य रूप से टी वी के सामने बैठते. उनका मानना था... हम जिस समाज में रहते हैं, उसके आसपास के वातावरण और गतिविधियों पर सदैव गौर करते रहना चाहिए अन्यथा हम पिछड़ जायेंगे. उसकी स्मरण शक्ति तीक्ष्ण थीं. उन्हें एक बार पढ़ी,लिखी और सुनी बातें कंठस्थ हो जाती थी. बच्चे उनकी उपस्थिति में यंत्रवत पढ़ते रहते. पत्नी घर के कामों में उलझी रहती. एक बार सामान जहाँ रख दिया, दुबारा उठाकर कहीं ओर रख देती फिर वहां से उठाकर उसको वहीं रख देती जहाँ वह पहले था. वह जानते थे,..उसका स्वर्ग रसोई में हैं. वह बाहर की दुनियाँ से बहुत कम सरोकार रखती थी.

वह अपनी खदान के वरिष्ट कामगार हैं...
रूफ़ बोल्टर. भूगर्भ में सदैव ऊपर देखते रहना पड़ता हैं ... सुरंग की छत की तरफ़. उसकी मरम्मत करते रहना उनका मूल कार्य था. ताकि छत सह-कामगारों के लिए छत ही बनी रहे. खनिक उसके आश्रय में निर्भय होकर उत्पादन कर सके.

जब वह कनिष्ट थे, कोयले का उत्पादन कम होता था. लोगों को बुला-बुलाकर नौकरी दी जाती थी तब भी मैनपाॅवर पूरा नहीं पड़ता था. अब वरिष्ट हो चुके और रिटायरमेंट के बहुत करीब. उत्पादन पहले से कई गुणा अधिक बढ़ गया और लगातार बढ़ता जा रहा पर नौकरियाँ खत्म हो गई. कोयले के ढेर के सामने आदमी बहुत असहाय और बौने नज़र आने लगे. पहले देने पर लोग नौकरी नहीं करते थे अब करना चाहते हैं तो नौकरियाँ नहीं रहीं. ज़माना बदल गया. ठेकेदारी में लोग कोयला खदान में बिना शर्त और अनुबन्धों के चाकरी कर रहे हैं. हरेक काम फिर चाहे रूफ़ सपोर्ट का  हो या मलमा ढुलाई का, सिविल का या फिर वेलफेयर का, साइडिंग में कोयले के ढेर से सेल-पत्थर छांटने का हो या बैगन में कोयले के लदान का...सब काम ठेके पर, सब आउट सोर्सिंग के द्वारा. जहाँ ठेकेदारी मजदूरों से काम लिया जाना वार्जित हैं वहाँ भी. काम के दाम ठेकेदार तय करता... एक सौ,ढेड़ सौ. बहुत हुआ तो दो सौ रोज़...पर इससे ज़्यादा नहीं. वे कहते...एक बुलाओ तो दस आते. एक जाता तो बीस नए लाईन में लग जाते.ठेकेदार की एक दस्तख़्वत पर ख़ुद ही खदान में काम करने की ट्रेनिंग, प्रशिक्षण केन्द्रों से प्राप्त कर लेंगे. जाॅब ट्रेनिंग के नाम पर महिने भर खदान में बेगारी कर आएंगे और सर्टिफिकेट पकड़कर उनके पास आकर खड़े हो जाएंगे.

उनके देखते-देखते गाँव, नगर और फिर नगर से शहर जैसा लगने लगा. खदानों की कार्य प्रणाली बदलती रही. वे चिमनी युग में भर्ती हुए थे. विधुतीकरण से लेकर मशीनीकरण तक का समय उन्होंने तय किया. अब कम्प्यूटर युग में रिटायर होने को आए. चिमनी युग में श्रमिक नहीं मिलते थे और कम्प्यूटर युग में श्रम कौड़ियों के दाम बिक रहा हैं.

कम्पनी उनके साथ काम करने वाले ठेकेदारी मजदूरों को आउट सोर्सिंग लेबर कहती. इनके प्रति प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कम्पनी की कोई ज़िम्मेदारी नही होतीं. वे ठेकेदार को पहचानते हैं,मजदूर को नहीं. उनके बारे में सोचना... ठेकेदार का हैटेक हैं, उनका नहीं. इस सोच का कोई विरोध नहीं करता. उनके मजदूर-भाई भी नहीं, संगठन भी नहीं. संगठन, परमानेन्ट एम्पलाई के लिए हैं. ठेकेदारी मजदूरों के लिए वे कभी-कभार प्रदर्शन अवश्य कर देते पर अपने कुछ निज स्वार्थ के लिए.

बाज़ार और बाज़ार के मज़बूत हाथ जिस ढंग से बढ़कर सामने आए थे, उसने विरोध करने की सारी ताकतों को छीन लिया था. यह बात वह अपने अल्पज्ञान से अच्छी तरह समझते थे. उनका कबीर मन सदैव विचलित और दुःखी रहता पर उनकी करूणा को कोई समझ नहीं पाता.

“सुखिया सब संसार है जो खावे और सोवै ।
दुखिया दास कबीर है,जो जागे अरू रोवै ।।“

वह जानते-समझते थे...बाज़ार जो चाहता है, वही होता हैं. दस से बारह घंटें इनसे आसानी से काम लिया जा सकता है. ये मेहनती होते हैं. स्थाई कामगार की अपेक्षा कई गुना अधिक काम करके देते. पक्की नौकरी पा जाना अब बड़ी बात हो गई. अनुकम्पा नियुक्ति से खान में नौकरी पाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा. ठेकेदारी में काम मिलना भी अब टेडी खीर हो गई हैं. स्थानीय ठेकेदार का टेन्डर पास हुआ तो काम मिलेगा. नहीं मिला तो बेगारी. बड़े और बाहर के ठेकेदार तो अपने साथ काम करने की मशीन लेकर आते हैं.

अपनी बेगारी और अवदशाओं के लिए वे अपनी उत्तर  पीढ़ी को  उत्तरदायी मानते हैं. राष्ट्रीयकरण के बाद उनकी सोच में एक नकारात्मक परिवर्तन आया. उनकी धारणा बनी कि एक बार सार्विस रिकार्ड में नाम चढ़ जाए, परमानेंट वर्कर हो जाए फिर काम या कर्तव्य परमानेंट नहीं होता, नाम परमानेंट होता हैं. कामगारों की इसी तरह की मानसिकता ने शनैः शनैः राष्ट्रीयकरण को खो दिया, जिसका खामियाजा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा हैं.

वह इस तरह की सोच के सख़्त खिलाफ़ रहे। वह अपने साथी कामगारों से सदैव कहते “...राष्ट्रीयकरण को प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों को जितना कड़ा संघर्ष और बलिदान देना पड़ा, उससे कहीं अधिक मेहनत,समर्पण और सेवाभाव हमें उसे बचाने के लिए देना चाहिए था. पर हम नहीं दे पाए. आज भले ही हमारे हाथ से सरकारी नौकरी नहीं छूटी पर हमारी संतानों के हाथ से यह बहुत दूर हो गई. हमारी गंदी मानसिकता का परिणाम यह हुआ कि हम प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए. जिस सरमाएदारी व्यवस्था का विरोध कर हम आगे बढ़े, हमारी संतान उसी का शिकार होकर रह गई. आज पूरी समाजिक व्यवस्था बाज़ार के बढ़ते हुए क्षेत्रफल और ताकत के सामने कमजोर साबित हो रही हैं. ट्रेड् युनियनस् का अस्तित्व कार्यालयों तक ही सीमित होकर रह गया हैं. हमें दुःख हैं...हम अपनी संतानों के लिए खदानों में नौकरियाँ नहीं बचा पाए.‘‘

उनकी विचारतन्द्रा टी.वी. पर दिखाई जा रही देश की आर्थिक व्यवस्था से निकल कर फिर अपनी कोयला खदान की गुफाओं के भयावह अंधेरे में समा गई. वे और उनके साथी जो आउट सोर्सिंग लेबर के समानान्तर खड़े परमानेन्ट एम्पलाई थे को सब कम्पनी का दामाद कहते. पर उन लोगों की संख्या भी अब लाखों से घटकर हज़ारों में आ गई थी. जब वे नहीं रहेंगे, उनकी जगह और कोई नहीं होगा. जो रिटायर हो गए,उनकी जगह कोई नहीं आया. आया इसीलिए नहीं कि... जो चला गया दरअसल वह था ही नहीं. उसका नाम भर था. उस नाम के प्रति कम्पनी की ज़िम्मेदारी उसे हर माह वेतन देने की थी. उनके न होने पर, कम्पनी की ज़िम्मेदारी कम हुई, सैलरी इनपुट कम हुआ, प्रोफ़िट बढ़ा. वह था तो आउट सोर्सिंग लेबर से कार्य अवधि और वर्कलोड की तुलना में कई गुणा अधिक वेतन पाता था. आउट सोर्सिंग लेबर को जितना एक साल में नहीं मिल पाता, उससे कहीं अधिक उसे एक माह में देना पड़ता था... हज़ारों रूपए. हज़ारों में कुछ ओर अधिक हज़ार बढ़ाने के लिए वह अपने साथियों के साथ मिलकर हड़ताल करता और सफ़ल हो जाता. इस तरह हज़ार के आंकड़े बढ़ते गये पर ठेकेदारी मजदूरों की हालत एक सैकड़े के आसपास ही रह कर बद से बदतर होती चली गई.

“कबीर  सोई पीर  है  जो जाने  पर पीर।
जो पर पीर न जानिई, सो काफ़िर बे पीर।।”

वह अपने ठेकेदारी मजदूरों की पीर समझते थे. वह अच्छी तरह जानते थे कि... वह और वे सब जो उनके साथ हैं, खदान में काम करने वाले अंतिम होंगे. अब खदान में नौकरी पाना और आसमान के तारे तोड़ लाना जैसी बात हो गई हैं. वह स्वयं अपने घर आँगन के एक अकेले सितारे हैं और रिटायरमेन्ट के बहुत करीब. आने वाली बरसात में उनके सितारे ज़मीन पर होंगे और उनके बाद, परिवार का कोई सदस्य सितारा नहीं बन पाएगा.

उनके दो बेटे, दोनों पढ़े-लिखे पर बेरोज़गार. बेरोज़गारी की वय को पार कर विवश, किसी व्यवसाय को पकड़ पाने की अधीरता में पिता का मुँह ताकते लाचार नज़र आते, उनके कुछ साथी अपने घर के सामने दुकान खोलकर बैठ गए. कुछ बीमा कम्पनी की आती हुई बाढ़ में नैया खैने लगे. कुछ इस उम्मीद में ठेकेदार के पास काम कर रहे कि जब कभी खदानों में भर्ती होगी, उनका अनुभव काम आएगा. उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी. पर यह सब सपना था...वह अच्छी तरह जानते थे. इस उम्मीद में विगत कई सालों से पिस रहे ठेकेदारी मजदूर लगभग अधेड़ हो चुके हैं,जिन्हें माह में मुश्किल से पन्द्रह-बीस दिन काम मिल पाता था. मज़दूरों की कमी न रहें... इसीलिए ठेकेदार तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ाते रहते कि जल्द ही खदान में भर्ती होने वाली हैं और अनुभवी ठेकेदारी मजदूरों को प्राथमिकता दी जायेगी. इस तरह वह मजदूरों को पलायन करने से रोके रखते और जमकर शोषण करते.

उनकी रिटायरमेंट की तारीख़ तेजी से करीब आ रही थी फिर भी वह अपनी ड्यूटी पूरे उत्साह और उमंग से करते जैसे युवावस्था में. आज भी उसी तरह वह 4-12 की पाली के लिए निकल पड़े. जबकि अन्य कामगार अपने रिटायरमेन्ट के साल-छः महीने पहले ही काम से तौबा कर अपनी खारिज की जाने वाली केज्युल लीव और सिक लीव को समाप्त करने में लगे रहते. जब वह भी खत्म हो जाती तो समय पास करने के लिए टालमटोल करते. संगठन की ताकत उनके साथ होती.

अम्बुजा खदान उनके घर से आधा किलोमीटर दूर थी. वह हमेशा पैदल जाते. घर में मोटर-साइकिल थी पर उन्होंने चलाना नहीं सीखा. बेटे चलाते पर ज़रूरत भर. उनके दिमाग में तरह-तरह के विचार चल रहे थे. पढ़े-लिखे न होने के बावजूद अपनी बड़ी सी समझ से वह इस निर्णय पर पहुँचे थे कि बाज़ार की बढ़ती हुई ताकत में पूंजी का हाथ हैं और श्रम के घटते हुए मूल्य में उसी का षड्यंत्र. वह सिहर उठे... यह गलत है. इसका विरोध होना चाहिए..? इस तरह सोचते हुए वह चले जा रहे थे कि यकायक एक नई चमचमाती बाईक का ब्रेक, बहुत अधिक दवाब से ठीक उनके पास आकर लगा. बाईक उनसे चन्द कदम आगे जाकर रूकी.
”चाचा! नमस्कार.“
नमस्कार करने वाला कामगार उनके सह-कामगार रह चुके अनोखेलाल का बेटा था. उसे अनुकम्पा नियुक्ति प्राप्त हुई. तीन वर्ष पहले पिता खान दुर्घटना में परलोक सिधार गए थे।.
”नमस्ते बेटा!“
”चलिए!” शिवलाल ने उनसे बाईक पर बैठने का आग्रह किया.
“अरे! थोड़ा पैदल भी चलना चाहिए...”
कहते हुए वह बाईक पर सवार हो गए.
 शिवलाल न मुसकराते हुए बाईक आगे बढ़ा दी.
“चाचा! फस्र्ट शिफ्ट में फाॅल हुआ.
 कल जहाँ अपन ने सपोर्ट किया था...ठीक उससे आगे डीप साईट में.
”क्या...?“ उनके मुख से आश्चर्य, आक्रोश और संताप मिश्रित कंपकंपाता स्वर निकला. पर शीघ्र ही उन्होंने अपने आपे पर काबू पा लिया. विस्मय, भय और अफ़सोस में डूबे उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से कहा “...यह नहीं हो सकता ? क्या तुम सही कह रहे हो... किसने बताया तुम्हें...?“ उन्हें इस अप्रत्याशित दुर्घटना की उम्मीद नहीं थी.
“रामदयाल और जगन को हलकी सी चोट आई है पर झुमकलाल को अभी तक होश नहीं आया. मैं उससे अस्पताल में मिला. बच गए दोनों. छानी का किनारा ही उनके हेलमेट पर आया. वे सतर्क थे... दौड़ पड़े. पर...’’ कहते-कहते वह रूक गया. सामने से एक बड़ी गाड़ी तेजी से उनकी ओर आ रही थी. उसने बाईक को झट किनारे कर लिया.
“पर क्या...?” सब कुछ एक साथ जान लेने की भयातुर अधीरता में वह चीख  पड़े. शिवलाल घबरा गया. उसने जो देखा सुना, जल्दी-जल्दी बताने लगा “...पर तीन ठेकेदारी मज़दूर पिसकर रह गए. पूरे चिपटा हो गए. फाॅल बहुत हुआ. पूरी छानी बैठ गई. रेस्क्यू आपरेशन चल रहा हैं. बाॅडी अभी बाहर नहीं आई. बहुत बुरा हुआ चाचा...!“ कहते हुए उसकी आँख की कोर आर्द्र हो उठी. उसे खान दुर्घटना में पिता का मुर्दा चेहरा याद आ गया. पिता, पिता नहीं लग रहे थे. क्षत-विक्षत माँस का लोंदा बन कर रह गए थे. उनका टोकन नम्बर, उनके पिता होने का दावा कर रहा था अन्यथा माँ ने तो रोते-बिलखते घर सिर पर उठा लिया था ”...यह नही हो सकता! यह शिवा के बापू हो ही नहीं सकते!“ बड़े-बूढ़ों ने मुश्किल से धैर्य बंधवाया. उस वक्त़ वह पिता की मृत्यु से दुःखी था या माँ के शोकाकुल विलाप से.. यह बात वह आज तक नहीं समझ पाया. पर यह बात वह बहुत अच्छी तरह समझ गया था ’’...एक खनिक की दुर्घटना में मृत्यु होने से उससे जुड़े परिवार के सभी सदस्य मर जाते है... पुनर्जन्म के लिए पर खनिक नहीं जन्मता फिर.... और जन्मा भी तो खनिक नहीं बनता।’’ उसने कई बार चाचा यानि मिठाईलालजी को गुनगुनाते सुना था.

“पानी  केरा  बुदबुदा,  इस मानुष की जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यौं तारा परभात।।”

जीवन कभी रूकता नहीं. कुछ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाता हैं पर जाने वाला कभी नहीं लौटता. शिवलाल को अनुकम्पा नियुक्ति मिली. उसने खदान में पिता के होने के एहसास को माँ से छुपाकर रखा. प्रतिदिन कार्य के दौरान वह अपने आसपास, अपने सिर पर किन्हीं अज्ञात हाथ को प्यार और स्नेह से दुलारता महसूस करता. माँ को जब दुर्घटना के बारे में पता चला, वह बहुत रोई. उसका दुःख पीड़ित परिवार के सदस्यों के लिए खुलते दुर्गति के मार्ग को लेकर था या पिता के ना होने के पुराने घाव का हरहरा जाना... वह नहीं समझ पाया था.
उसने मिठाईलालजी से कहा...“चाचा! माँ मुझे ड्यूटी नहीं आने दे रही थी. बड़ी मुश्किल से समझा-बुझा कर आया हूँ.”
“हाँ! तुम्हें नहीं आना चाहिए था. माँ के पास रहते. उसे ढाँढ़स बंधाते.” उन्होंने  अभिभावक की तरह समझाते हुए कहा और एकदम चुप हो गए. उनका दिमाग भूगर्भ में दुर्घटना स्थल की ओर विचर रहा था. वह सोच रहे थे “...लगता है सुपरवाईज़र ने बिना सपोर्ट के ज़रूरत से ज़्यादा होल दगा दिए. घर भागने की जल्दी जो रहती हैं. कोई कुछ नहीं कहता. सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे. बस! मज़दूर पिस रहें हैं. राजनीति हो रही हैं पर उनका कुछ भला नहीं होता.’’ वे अपने और अपने सह-कामगारों के कत्र्तव्य और दायित्व के बारे में सोचते हुए दुःखी हो उठे.
‘‘चाचा! कुछ लफड़ा तो नहीं होगा...?‘‘
’’नहीं! ऐसा कुछ नहीं होगा...!
कद की लड़ाई है !
यूनियन अपना कद पीछे नहीं करना चाहती. कम्पनी अपने कद से बड़ा कद जो उस पर भारी पड़े, देखना पसंद नहीं करती. इस तरह संघर्ष निरन्तर बना रहता है. यूनियन होड़ में रहती, कम्पनी सतर्क.  हो सकता हैं... आज यूनियन भारी पड़ जाये. कम्पनी सुपरवाईज़र्स को फंसाने और अपने अधिकारी को उबारने की जुगत भिड़ा रही होगी।’’ वह वर्षों से देखते आ रहे हैं... अधिकारियों की ताकत हर स्थिति में अनुकूलता बना लेती हैं... हाथ बढ़ाकर, हाथ मिलाकर या सामने वाले के हाथ काट कर. पर हाथ और हाथ की उंगुली कभी अपने तरफ़ उठने नहीं देती.“ उन्होंने शिवलाल की पीठ पर हाथ रखते हुए समझाया “...तुम अभी छोटे हो. तुम्हें बहुत दिन काम करना हैं. समय आने पर सब समझ जाओगे.”
आश्चर्य और भय की लम्बी छाया उसके चेहरे पर सिमट गई. विस्मय से देह में कंपन हुआ और उसने धीरे से बाईक का ब्रेक लगा दिया. वे दोनों मेनगेट से अन्दर टोकन आॅफ़िस के पास पहुँच चुके थे.
  चारों तरफ़ गहरा सन्नाटा था. कामगार छोटे-बड़े समूह में खड़े थे और दबी जुबान में  चर्चा जारी थी. सभी डरे-सहमें. यूनियन आफ़िस के सामने अधिक भीड़ थी. टाईपराइटर की खट-खट एक ही धुन, एक ही लय में प्रवाहित हो रही थी. अधिकारियों के चेहरे पर तनाव स्पष्ट झलक रहा था. वे दौड़कर कभी टोकन आॅफ़िस में घुस जाते, कभी सर्वे, कभी पिट आफ़िस में... पर सब एक साथ, एक जगह, मैनेजर आफ़िस में ही इकट्ठे होते. वे निरीक्षण की तैयारी में जुटे थे. वे अपने बचाव में दस्तावेज़ों को प्रमाणिक और विश्वसनीय बनाने की कोशिशें कर रहे थे.
मिठाईलाल ने आफ़िस में टोकन जमा किया और टिम्बरमेन की जुट्टी की तरफ़ चल पड़े. शिवलाल ने भी बाईक स्टैन्ड किया और टोकन आफ़िस कि ओर बढ़ गया. मजदूर अन्डरग्राउन्ड जाने से डर रहे थे. वे सब मोहरे के आसपास, सतह पर ही घूम रहे थे.
खान प्रागंण में दो एम्ब्यूलंस खड़ी थी. डाक्टर्स और पैरा मेडिकल स्टाफ़ की टीम मुस्तैदी से डटी हुई थी. वे सतर्क थे. अन्डरग्राउन्ड में चल रहे रेस्क्यू आपरेशन के बाद दुर्घटनाग्रस्त खनिक के सतह पर आते ही उनका कार्य आरम्भ होना था. रेस्क्यू आपरेटर्स पिट आफ़िस के सम्पर्क में थे. जल्द ही डेड बाडी बाहर आने वाली थी.
टिम्बरमेन की जुट्टी कुछ ज़्यादा डरी सहमी थी. मिठाईलाल जुट्टी के वरीय और बुजुर्ग कामगार थे. सब उनकी बात सुनते और तहेदिल से सम्मान करते थें। इस तरह की कई दुर्घटनाएं उनके सेवावधि में घट चुकी थी. उन्होंने स्थिति की नाजुकता को भाँप लिया और अपने सह-कामगारों को ढाँढ़स बंधाते हुए कहा “... दोस्तों! यही कोयलाखान का जीवन हैं. प्रकृति के विरूद्ध आचरण, पदोन्नति के लिए प्रतिस्पर्धा, हमारी हेकडी, अपने ही बीच के कुछ कामगारों का चापलूसीपन, ईमानदारों की हाड़तोड़ पिसाई और इन सबसे ऊपर निरूद्देश्य नेतागिरी और कम्पनी की हेकटी ने हमारे मुख पर कालिक पोत दी हैं. आज कोयला धधकता नहीं... सिसकता हैं. उससे लपटें नहीं उठती, आँसूओं की धारा बहती हैं. कोयले की आग और आँच को प्रतिस्पर्धा की दौड़ ने बहुत तेज कर दिया हैं. हमीं कोयला खदानों से कोयला निकाल रहे हैं और हमीं झुलस रहे हैं।“ हल्की निःश्वास छोड़ते हुए उन्होंने पछतावे की मुद्रा में कहा... जैसे कुछ गलतियाँ उनसे हुई वैसे ही बहुत सारी हमसे भी. अपने आपको कोसते हुए वह पुनः कहने लगे “पर... पर इसके लिए काफ़ी हद तक हम सभी ज़िम्मेदार हैं. हमने, अपने छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए अपनी सबसे बड़ी ताकत राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को नज़रअंदाज कर दिया. हमें फिर से एकबार सृजन की बुनियाद में जाकर अपनी ताकत को पहचानना होगा. अपनी सामाजिकता और राष्ट्रीयता के अनुसार नीति और निर्देश तय करना होगा तभी खनिक की मुक्ति सम्भव हैं अन्यथा ऐसे हादसे होते ही रहेंगे और हम मूक दर्शक बने देखते रह जाएंगे.“
उनके पास किसी स्कूल-काॅलेज की डिग्री नहीं थी. गिरते-सम्भलते, बनते-बिगड़ते, समय की पाठशाला ने उनके ज्ञान और चिन्तन को एक कामगार के कद से बहुत ऊँचा कर दिया था. उन्हें समय ने ही तराश और समय ही  उन्हें बुरे दिन दिखा रहा  पर वे टूटे नहीं थे.

“सोना, सज्जन  और  साधु  टूट जुड़े सौ बार।
कुम्भित कुम्भ कुम्हार के, एक ही धक्को दरार।।“
उनकी सोच किसी कुम्हार के घड़े की तरह कच्ची या कमजोर नहीं थी. वह कोयला खान की आँच में तपकर परिष्कृत हुए थे. उनके शब्दों में कोयले की आँच थी. शिवलाल और उनके कामगार सम्बल पाकर अपने आपको, अपने-अपने डर से मुक्त  महसूस कर रहे थे. जैसे उनके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा कवच बन गया हो. .
एक कामगार दौड़कर उनके पास आया. चाचा! चाचा!! डेड बाडी बाहर आ गई. रेस्क्यू आपरेशन ख़त्म हुआ. सुपरवाईज़रबाबू सबको बुला रहें हैं. जुट्टी के साथ वे भी पिट आॅफ़िस की तरफ़ चल पड़े.
रेस्क्यू टीम स्ट्रेट्चर में लाई डेड बाडी को लेकर एम्ब्यूलंस में सवार हो गई. मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ़ की टीम जो मोहरे पर खड़े थी, बिना कुछ किए उसमें सवार होकर उनके पीछे  चल पड़ी. एम्ब्यूलंस अपने पीछे छोड़ गई भय और उत्तेजना की उड़ती हुई धूल. भय कामगारों में था और उत्तेजना श्रमिक संगठन के नेताओं में.
कुछेक नेता पिट आॅफ़िस में पहुँचे. वहाँ पहले से कामगार, सुपरवाईज़र्स और अधिकारी मौजूद थे. कामगारों के भूमिगत कार्यों को सुनिश्चित किया जा रहा था. इसी बीच यूनियन के नेता आक्रोश में आ गए और नारे लगाने लगे।
“ मजदूर एकता जिन्दाबाद!
“ जिन्दाबाद! “ जिन्दाबाद!!“
“ कम्पनी की तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी!“
“ नहीं चलेगी! नहीं चलेगी!!“
जितने आवेग में नारे लगाए जा रहे थे, उतने जोश में प्रतिवाद नहीं मिल रहा था. भय में उत्तेजना नहीं जन्मती और न विवेक काम करता. यह बात कम्पनी के अधिकारी अच्छी तरह जानते थे. इसी बात का फायदा उठाते हुए कोलियरी मैनेजर छिर्पाकर भीड़ के सामने निर्भय खड़े हो गए. धैर्य और आत्मविश्वास से भरे हुए लहज़े में उन्होंने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा “...आज जो हुआ, बुरा हुआ. एक अकेला व्यक्ति इन दुुर्घटनाओं से नहीं लड़ सकता. आप सबका साथ चाहिए. मैं तो सदैव आपके साथ हूँ. मेरा हमेशा प्रयास रहा कि कामगारों को बाल बराबर भी खरोंच न आए पर होनी को कौन टाल सकता हैं. हम सब दुर्घटना की जाँच कर रहे हैं. निदेशक साहब की टीम स्वयं जाँच करने के लिए आ रही हैं. मृतकों के परिवार के साथ पूरा न्याय होगा. उन्हें नियमानुसार मुआवज़ा मिलेगा. आप सभी जाँच कार्यवाही में सहयोग करे. आज के समय में नौकरी पर होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं. इसे सम्भालकर रखिए.“  संवेदना में लपेटकर उन्होंने कामगारों को एक तरह से स्पष्ट चेतावनी दे डाली और सीधे अपने आॅफ़िस में घुस गए. नेता नारे लगाते रहे. कुछ कामगार अपने डर के साथ घर लौट गए पर सभी नही.

“डर करनी, डर परम गुरू, डर पारस, डर सार।
डरत  रहै  सो  उबरे,  गाफ़िल  खावे  मार।।“

वह सोच रहे थे... मजदूर, मज़दूर में कितना अन्तर होता हैं. ठेकेदारी मजदूर खान दुर्घटना में मरा तो अफ़सोस, सिर्फ अफ़सोस. परमानेन्ट के साथ हादसा हो जाए तो वह “मरे हुए हाथी कि तरह लाखों का." कम्पनशेसन, लाईफ़ कवर, ग्रेज्युटी, पी.एफ. पेंशन और परिवार के किसी एक सदस्य को एम्प्लायमेन्ट टू डिपेन्डेन्ट के अन्तर्गत नौकरी की सुविधा, दुःख उसके परिवार को एक स्वर्णिम दुनियाँ में पहुँचा देता. दो हाथ कटने से उसके परिवार में कई सोने के हाथ लग जाते. पर ठेकेदारी मजदूर के साथ हादसा हो जाए तो परिवार के हाथ सदा-सदा के लिए कट जाते हैं...ऐसा क्यों..?
श्रमिक संगठन सार्वजनिक क्षेत्रों के मोटी तनख़्वाह पाने वाले कामगारों के बीच काम करना पसंद करते. ठेका मजदूर के पास पर्याप्त काम नहीं .काम मिला तो पर्याप्त वेतन नहीं. चन्दा वे दे नहीं सकते. बिना चंदें के यूनियन नहीं चलती. दुर्घटना को लेकर वे कितने संवेदनशील और सक्रिय हो सकते हैं...सब अच्छी तरह जानते-समझते थे. वे सब मिलकर मैनेजमेन्ट को हलाकान कर अपना उल्लू भर सीधा कलना जानते थे ...

“मन मैला, तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
वसों तो कागा भला, तन मन एकहिं रंग ।।

उजरे तन, बगुली मन और सब रंगों के झंड़ों के संगठन पर ऐसा कोई नहीं जो दुर्घटना में मरे ठेकेदारी मजदूर के परिवार को कोयला खदान में स्थाई अनुकम्पा नियुक्ति दिला सके. ग्रेज्युटी या पेंशन देने के लिए कम्पनी के खिलाफ़ लड़ सके ...फिर नारेबाज़ी करने से क्या होगा...! कागा और कोयले का रंग तो राष्ट्रीयकरण के पूर्व भी काला था और आज भी हैं. उसे क्या दोष देना. उनकी जुट्टी के सभी कामगारों के मन में कुछ इसी तरह के विचार घुमड़ रहे थे. वे सब मोहरे के पास खड़े रहे. बहुत देर तक उनके बीच एक गहरी चुप्पी पसरी रही.
खान सुरक्षा सप्ताह में कम्पनी ने नोटिस बोर्ड पर सुरक्षा से सम्बन्धित पोस्टर और खान दुर्घटना केे आंकड़े पोस्टर बना कर चस्पा किये थे. मिठाईलाल को सारे आंकड़े कंठस्थ थे. एक लम्बी निसाँस छोड़ते हुए उन्होंने अपने साथियों से एक प्रश्न किया ’’...1975 की चान्सनाला खदान दुर्घटना में 375 कामगार, इसी साल महाराष्ट्र की सिल्लेवाड़ा खदान में 10 कामगार, मध्यप्रदेश में 1923 में रावनवाड़ा कोलियरी में 16 कामगार, 1953 में माजरी कोलियरी में 11 कामगार, 1960 में दमुआ कोलियरी में 16 कामगार, 1954 में न्यूटनचिखली में 62 और 1976 सुदामाडीह कोलियरी में 43 कामगार, खान दुर्घटना का शिकार हुए थे. और आज भी सुरक्षा के नियमों की अवहेलना करने पर दुर्घटनाएं हो रही हैं. क्या खदानें बन्द हुई? लोगों ने खदान में काम करना छोड़ दिया. हमारे लिए बने और सजे रूलस् रेग्यूलेशन में समय और परिस्थिति के अनुसार कई संशोधन हुए. पर दुर्घटना नहीं रूकी..? और न रूक सकती हैं..? प्रकृति के विरूद्ध आचरण ही दुर्घटना हैं...यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं. लेकिन हमारी लापरवाही और कत्र्तव्य के प्रति उपेक्षा भी इन दुर्घटनाओं का कारण हो सकती हैं. बदलना हैं या किसी को बदला जा सकता हैं तो सबसे पहले हमें अपने आपको बदलना होगा. बिना अपने आपको बदले नारे लगाने से क्या फायदा..? इसके बाव़जूद भी नारे लगाये जा रहे हैं.‘‘ एक लम्बी निसाँस छोड़ते हुए उन्होंने पुनः कहा ‘‘...जिस दिन हम अपने आपके के खिलाफ़ लड़ना सीख जायेंगे, व्यवस्था के खिलाफ़ अपने आप लड़ना आ जायेगा. पर हम लड़ना भूल गए हैं. हमने अपने आपको को पूरा का पूरा बाज़ार में गिरवी रख दिया. समय पर किस्त पटाने की विवशता ने हमें बेहद कमजोर कर दिया. हम पानी की तरह पैसा बहाकर अनफ़िट हाना चाहते हैं. अपने अयोग्य बच्चों को अनुकम्पा नियुक्ति दिलाने की होड़ में हम उसे नपुंसक बनाने में लगे हैं. पर इस सड़े-गले सिस्टम को बदलने के बारे में कभी नहीं सोचते. हमने इन चालीस वर्षों में कभी नहीं सोचा कि हमारे साथ काम कर रहे ठेकेदारी मजदूर का क्या होगा? हम सदैव अपने आज के बारे में सोचते रहे. यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी रही.‘‘ कहते-कहते वह हांफने लगे. कुछ देर वातावरण में चुप्पी छाई रही फिर उन्होंने एक दीर्घ उसाँस लेते हुए कहा...’’अंधेरा ही अंधेरा हैं...कामगारों के जीवन में. उनके हिस्से की सुबह रात में ही होती हैं। सुबह, सुबह जैसी सुबह हमारे जीवन में अवसरबाज़ों से नहीं होगी. हमें लड़ना सीखना होगा... अपनी खदान और अपने मजदूर भाईयों के लिए. तभी मजदूरों की मुक़्ित सम्भव हैं.“ एक गहरी निस्वाँस छोड़ते हुए उन्होंने अपने साथियों को आगाह कराया “...अब तुम सबको सोचना हैं, तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?‘‘
समूह में गहरी निस्तब्धता छा गई. सब चुप खड़े उन्हें देखते रहे. वे समझ चुके थे. उन्होंने पुनः गहरी उसाँस लेते हुए कहा ‘‘...विरोध के लिए विरोध करने से बेहतर हैं ऐसे समय में चुप रह जाना। चुप्पी में ताकत होती हैं। मजदूरों की चुप्पी तो और अधिक ताकतवर होती हैं। ज्वालामुखी के लावे की तरह। लोग लगाते रहे कयास! हम किस ओर हैं..? मैनेजमेन्ट या यूनियन साइट..? हमें प्रतीक्षा करना चाहिए। धैर्यपूर्वक की गई प्रतीक्षा से ही सार्थक विरोध सम्भव हैं. बिना तैयारी के व्यवस्था के खिलाफ़ किया गया विरोध आत्मघाती हो सकता है...‘‘ कहते हुए वे गेट के बाहर चल पड़े। उनके पीछे कुछ मजदूर साथी भी थे. वे सब अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ रहे थे.
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राजेश झरपुरे
सम्पर्कःनई पहाड़े काॅलोनी, जवाहर वार्ड, गुलाबरा, पो.एवम् जिला-छिन्दवाड़ा  (म.प्र.480001) मोबाइल 9425837377

प्रतिक्रियाएं
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[24/02 09:51] Pravesh: कोयला खदानों में निजीकरण से प्रभावित  मजदुर  जीवन  के शोषण का  मार्मिक चित्रण है इस कहानी में ।
 सरकारी खदानों में ठेकेदारी  द्वारा  मजदूरों की  अनियमित नियुक्ति सही है या शोषण

आप भी अपनी महत्वपूर्ण राय से अवगत कराये ।
[24/02 13:37] ‪+91 94257 11784‬: आदरणीय श्री राजेश झरपुरे जी की कहानी ,'वसो तो कागा भला' कोयला खदानों के मजदूरों के त्रासद जीवन को बयां करती लंबी किन्तु मार्मिक  कहानी है ।उसका मुख्य पात्र मिठाई लाल खदान का अनपढ किन्तु पुराना और अनुभवी कामगार है । वह खदान में घटित दुर्घटना में घायल एवं मृत मजदूरों के समाचार से दुखी और चिंतित होता है । वह सोच उठता है कि अस्थाई किस्म के ठेकेदारी मजदूरों का कोई भविष्य नहीं ।उनके मरते ही  उनका पूरा परिवार ही मर जाता है  जबकि राष्ट्रीयकरण के अन्तर्गत हुए स्थाई 'मजदूर के हाथ  कटने  से उसके परिवार  में कई सोने के हाथ लग जाते हैं ।
       प्रबंधन और व्यवस्था के इस द्वैत के प्रति मजदूर यूनियनों की निष्क्रियता एवं संवेदनहीनता से मिठाई लाल दुखी है । यूनियनें  दिखावे के लिए नारेबाजी करती हैं ।एक हादसे के संदर्भ में मजदूर अपने मुहबोले चाचा मिठाई लाल से मार्गदर्शन की मांग करते हैं और तब वह कहते हैं , ' विरोध के लिए विरोध  नहीं .......बिना तैयारी के व्यवस्था के खिलाफ किया  विरोध आत्मघाती होगा ।'
 अपढ होकर भी मिठाईलाल  एक गंभीर चिंतक हैं ।उनका सोच है कि श्रमिकों की सारी समस्याओं और दुख तकलीफों का कारण तो मूलतः वे स्वयं ही हैं ।राष्ट्रीयकरण से मिली सुरक्षा एवं स्थायित्व का गलत लाभ उठाते हुए वे एक प्रकार से प्रबंधन  के 'दामाद ' ही बन गए ।वह  सौ प्रतिशत कामचोर हो गए और ठेकेदारी मजदूर व्यवस्था आरंभ हो गई तथा ये नये प्रकार के मजदूर पिसने लगे ।
     इस तरह श्री झरपुरे जी की यह कहानी खदान मजदूरों की व्यथा कथा तो कहती ही है, श्रमिकों की समस्याओं के संदर्भ में एक व्यापक सोच भी प्रस्तुत करती है।उनकी कहानी का कथ्य एक प्रकार से अछूता ही है । हो सकता है कि कहानी को महज मनोरंजन के रूप में ग्रहण वाले पाठक उसमें बहुत रुचि न ले सकें ।किन्तु कहानी मात्र मनोरंजन  का विषय तो न ही  है ।  दुखद स्थितयो का रूपांतरण भी उसके सृजन में सन्निहित है ,।श्री राजेश झरपुरे जी कहानी उसी ओर उन्मुख है ।इस दृष्टि से और उनके रचनात्मक सौष्ठव के लिए उनका अनेकशःअभिनंदन ।आदरणीया मधुजी प्रवेश जी को प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ।
[24/02 13:58] Braj Ji: पहले भी पढने का मौका मिला है इस कहानी को..अच्छी है
[24/02 13:59] ‪+91 99771 37809‬: कहानी नहीं यह घिनौना सच है
[24/02 14:09] Pravesh: आदरणीय जगदीश तोमर जी ,ब्रज जी ,रमाकान्त जी
आभार आपका ।
वाकई यह एक कटु और मार्मिक सच को बयां करती है । विचलित करती है यह कहानी ।


तोमर सर आप हमेशा कहानी  के  अंतस को खंगाल कर मीमांसा करते हो ।इससे कहानी का पुनः पाठ हो  जाता है ।आपके सूक्ष्म अवलोकन को प्रणाम करती हूँ ।

🙏🙏🙏
[24/02 14:17] ‪+91 86290 84484‬: बहुत ही मार्मिक और कोयला खदानों में कार्यरत खनिकों की दशा का चित्रण कहानी में बड़ी साफगोई से किया गया है। ऐक उम्दा कहानी देने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
[24/02 16:13] प्रज्ञा रोहिणी: पहले भी पढ़ी ये कहानी फिर से बधाई राजेश जी। कोयला खदानों के इस सच से नई आर्थिक परिस्थिति के अनेक सच उजागर होते हैं। मुझे लगता है आपका उपन्यास
कबीरा आप ठगाइयेगा को आपने इसके बाद ही रचा है।
मित्रो राजेश जी का एक सार्थक प्रयास है ये उपन्यास।
[24/02 18:47] ‪+91 98260 44741‬: बहुत अच्छी कहानी। कोयला खदान, खदान में काम करने वाले मजदूर, उनका जीवन, उनकी कठिनाइयां सब के बारे में पता चला। कहाँनी अंत तक बाँधे रखती है। आजकल ऐसी यथार्थवादी कहानी बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं। मजदूरों के शोषण का मार्मिक चित्रण। समाज के एक वर्ग के जीवन के हर पहलु से परिचय कराती कथा। बहुत बहुत आभार मंच का।
[24/02 19:08] Pravesh: विनीता जी ,शिवानी धन्यवाद

 कहाँनी में मजदूरो काे मज़बूरी में  खदानों में काम करने का  बहुत ही बारीकी से वर्णन किया है लेखक ने ।या तो उनका इस क्षेत्र से बहुत करीबी सरोकार है या बहुत गहरी पड़ताल की है ।
जो मजदुर अपना सारा जीवन इन खदानों में झोंक देते है ,यदि किसी दुर्घटना में अपाहिज हो जाय या मृत्यु हो जाय तो अस्थायी नियुक्ति होने के कारण उनके परिवार को व्यवस्थापक से सिर्फ शब्दों की सहानुभूति ही मिलती है ।
घर के मुखिया के हताहत हो जाने के बाद कोई अनुकम्पा नहीं ,pf नही ।क्या हो फिर घर के सदस्यों का ।
बहुत ही साफ़ आइना रखा है कहानी में  सरकारी और गैरसरकारी तंत्र की मिली भगत का ।
[24/02 19:21] Kavita Varma: खदान का काला सच और सरकारी नौकरी की स्वार्थी मानसिकता दर्शाती अच्छी कहानी । ये मानसिकता कमोबेश हर सरकारी महकमे में है और इसीलिये वर्क कल्चर कमजोर है संविदा नियुक्ति के द्वारा सरकार भी शोषण पर उतर आई है पर स्थाई नियुक्ति प्राप्त लोग मैं से आगे सोचना ही नही चाहते । बधाई राजेश जी आईना दिखाती इस कहानी के लिये।
[24/02 19:58] Varhsa Raval: राजेश जी बेहतरीन कहानी,कोयला खदान के अंदर चलने वाली गतिविधियों को बहुत सूक्ष्म अध्धयन के बाद चित्रित किया गया है....आपको बधाइयाँ🙏
[24/02 20:07] Pravesh: कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण समाज में व्याप्त असमानता और सरमायेदारी व्यवस्था के विरोध में किया गया था ।1 मई 1972 को  कोकिग कोल कम्पनियों और 1 मई  1973 को नाॅन कोल कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था । आज कम्पनी  महारत्न कम्पनी से अलंकृत है पर रोजगार नही । पिछले तीस साल से कोयला खदानों  में अकुशल और अर्ध्द कुशल कामगार की भर्ती नहीं हुई जबकि खान का सत्तर प्रतिशत से अधिक काम इसी तरह के कामगार करते है पर सब ठेकेदारी व्यवस्था के तहत ।

राष्ट्रीयकरण को पूरे पचास साल भी नहीं हुए और सरमायेदारी व्यवस्था  अपना रूप बदलकर   पुःन इसे अपने शिकंजे में जकड़ती जा रही है ।क्यो और कैसे जैसी परिस्थितियों से अवगत कराती कहानी हमें सोचने के लिए विवश कर देती ।
[24/02 20:35] Aasha Pande Manch: बहुत अच्छी कहानी.कोयला खदानों में मजदूर की दशा का सटीक चित्रण किया है राजेश जी ने.बधाई
[24/02 20:40] Rachana Groaver: आज के शोषण और कल के शोषण में कोई अंतर नहीं
[24/02 20:41] ‪+91 94249 90643‬: मन मैला ,तन ऊजरा ,बगुला कपटी अंग
वासों तो कागा भला ,तन -मन ऐकहि  रंग
कहानी का शीर्षक है वासो तो कागा भला .....कहानी सच मुच ऐसे बगुला देही संगठनो के असली चेहरे बेनकाब करती है जो दावा तो ठेके पर काम कर रहे मजदूरों के हित का करते हैं लेकिन उनका असली मकसद अपना उल्लू सीधा करना होता है .
कहानी कोयला खानों के कामगारों के जीवन की एकरसता और जुझारू पन सॆ भी पाठकों को रूबरू करवाती है कि उनका जीवन कितना श्रम साध्य है जिसमें दिन और रात ने अपने मानी खो दिये हैं ....फिर भी अपने हिस्से के एक मुट्ठी आसमान की तलाश में वो संघर्ष रत रहता हैअथक , अनवरत .....
[24/02 20:43] Padma Ji: मजदूरों की मनोदशा , उनकी व्यथा और मजदूरों के अधिकारों के प्रति यूनियन की निष्क्रियता आदि का बहुत सुन्दर चित्रण किया है। कोयला खादानो पर जो साहित्य लिखा गया है उनमे यह बेजोड़ कहानी है। भाषा ,कथ्य और शिल्प सभी दृष्टि से उत्कृष्ट कहानी है। बधाई राजेश जी ।धन्यवाद मधु
[24/02 21:24] ‪+91 99313 45882‬: मुझे तो राजेश जी की यह कहानी " वसो तो कागा भला " एक उच्च स्तरीय कहानी के साथ ही एक उच्च स्तरीय विमर्श लगा ! कोयला खदानों के मजदूरों के जीवन-वृत्त पर रची बसी यह कहानी खदानों के राष्ट्रीयकरण , फिर उसके ख़त्म होकर बाजार व्यवस्था के तहत ठेकेदारी मजदूरों के श्रम के शोषण की कथा-व्यथा है ! मिठाईलाल जी के माध्यम से कथाकार ने जिस विमर्श-मूलक कथा को बड़ी खुबसुरती से रचा है उसपर कबीर-दर्शन की छाया है !
आज जब बाज़ारवाद आवारा पूंजी के जरिए अपने ख़ूनी पंजे पसारता ही जा रहा है , राजेश जी की यह कहानी हमें बहुत कुछ सोचने समझने का सामर्थ देती है !
कथ्य और शिल्प के लिहाज से भी यह कहानी एक रोचक और पठनीय कहानी है !
राजेश जी को इस कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई !
[24/02 21:34] ‪+91 94249 90643‬: मुझे भी ऐसा लगा सतही तौर पर कहानी जो कथा कह रही है ,वो  रुहानी तौर पर बड़े ही गूढ अर्थ लिये हुए है .
[24/02 21:44] ‪+91 94116 56956‬: संभवतः मेरे पाठ की सीमायें हो या अज्ञानता पर मुझे इस कहानी में कहानी के तत्व कम और निबंध के तत्व अधिक लगे । निसंदेह कहानी का विषय और कथ्य कई मुद्दों को समाहित करता है परंतु लेखक सपाट बयान जारी करने के मूड में दिखता प्रतीत होता है । शायद इतना वृहद् विषय और मुद्दे  और बड़े कैनवास की मांग रखते हो ।
[24/02 21:58] Pravesh: इस तरह के विषय की कहनियों के लिए. कहानी की सर्वमान्य सीमाओ का अतिक्रमण भी करना पड़े तो स्वीकार किया जा सकता है ।कम से कम  हम  उन परिस्थितियों को महसूस तो कर सकते है कि nationalizatii को पाने और लगातार खोते जाने के क्या परिणाम समाज में परिलक्षित हो रहे है ।

 बाकी मंच के सुधिजन अपनी राय दे ।
[24/02 22:06] Pravesh: Nationalization*
[24/02 22:08] ‪+91 94258 70973‬: सुरेन जी के विचार से पूरी तरह सहपत हू'
[24/02 22:09] Rakesh Bihari Ji: कोयला खदानों में नियमित कर्मचारी बनाम ठेका मजदूरों की भिन्न स्थितियों और उनकी त्रासदियों पर बात होनी चाहिए। यह एक जरूरी मुद्दा है। लेकिन एक कहानी पर बात करते हुए सिर्फ विषय तक सीमित नहीं हुआ जा सकता है। कहानी यथार्थ की विधा है, बिना यथार्थ की जमीन से जुड़े कहानियाँ नहीं लिखी जा सकतीं। यहाँ तक कि शुद्ध कलावादी कहानियाँ भी तभी सफल होती हैं जब उनकी नाल यथार्थ की जमीन में गड़ी हो। लेकिन क्या कहानी सिर्फ यथार्थ है?  नहीं। कहानी हकीकत और फ़साने  का एक संतुलित सम्मिश्रण होती है। यथार्थ को कहानी में बदलने के लिए एक ख़ास किस्म की कलात्मक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। मैं आप मित्रों से असहमत होते हुए यह कहने की इजाजत चाहता हूँ कि आज की कहानी में इस कलात्मक कल्पनाशीलता का घोर आभाव है। यथार्थ को जस का तस रख देने के कारण एक कहानी के रूप में आज की कहानी कोई ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ती। एक मुद्दे के रूप में इस विषय की अनिवार्यता से भला किसे इंकार होगा लेकिन कहानी को कहानी तो होना ही चाहिए। यह कहानी न सिर्फ कहानी कला से बहुत दूर रह जाती है बल्कि कई बार एकालाप, भाषण या आलेख होने का अहसास भी देती है। कहानी अपने वर्तमान स्वरुप में कहानी कम एक अच्छी कहानी का कच्चा माल ज्यादा लगती है।
[24/02 22:19] राजेश झरपुरे जी: ।।।
सभी मित्रो का हार्दिक शुक्रिया । आप सभी ने बहुमूल्य समय कहानी को दिया और प्रतिक्रिया  से अवगत कराया । शुक्रिया आद0 तोमरजी, रमाकान्त श्रीवास्तव जी, मधु सक्सेना जी.प्रवेशजी.भुपेन्द्र कौरजी, ब्रजभाई, विनय उपाध्याय जी, प्रज्ञाजी. शिवानी शर्मा जी, विनिता राहुरीकरजी.कविता वर्माजी, वर्षा रावलजी,आशा पाण्येयजी; रचना ग्रोवरजी, पूर्णिमाजी, पद्मा शर्माजी, शेखर सावंतजी, सुरेन्द्रजी,  त्रिवेदीजी, राकेश बिहारी जी। आपकी टिप्पणी  से प्रोत्साहन मिला और मार्गदर्शन भी ।

यह कहानी पहली बार ही किसी  व्हाहट्स एप समूह में यहां लगी है । कोयला खान  की पृष्ठ भूमि पर अन्य कहानी अवश्य यहां लगी थी ।

आप सब का पुनः आभार  ।
[24/02 22:43] ‪+91 99313 45882‬: जिन मित्रों को इस कहानी में कहानी कम और निबंध ज्यादा नज़र आया उसका एक कारण है ! कारण ये है कि इस विषय पर निबंध ज्यादा लिखे गए हैं इसलिए कहानी पढ़ते वक़्त उन निबंधों की धूमिल यादें ताज़ा हो आती हैं ! दरअसल इस कहानी का कथ्य एक वृहत उपन्यास की मांग करता है !
लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि इस कहानी में कहानीपन की कमी है !

इस कहानी के विषय-वस्तु को हम जीवनी के रूप में भी पढ़ सकते हैं--बुजुर्ग लेखिका रमणिका गुप्ता जी की चर्चित पुस्तक " हादसे " में ! द्रष्टव्य है कि रमणिका जी का आधा जीवन धनवाद के कोयला खदानों के इर्द-गिर्द बीता है और वे कोयला खदान मजदूर यूनियन की नेता भी रह चुकी हैं ! उन्होंने बड़ी खूबसूरती से खदान मजदूरों की जिंदगी और ट्रेड यूनियन की राजनीति पर हादसे में प्रकाश डाला है ! वैसे इस विषय पर फ़िल्म भी बन चुकी है !
[24/02 22:54] Rajnarayan Bohare: उपन्यास
वो भी
कबिरा... जैसा छोटा नही
बड़ा सा उपन्यास रचने का हौसला बांधिए राजेश जी

[24/02 22:57] ‪+91 94116 56956‬: जी सही कहा आपने , पर एक डॉक्यूमेंट्री को आप फीचर फ़िल्म नहीं कह सकते । कहानी में प्रायः पात्र और परिस्तिथियाँ अपने बयां जारी करते है  । यहां इसका आभाव दिखा । वही मैंने भी कहा कि बड़ा कैनवास मांगता है इतना बड़ा मुद्दा ।
[24/02 23:37] Mamta Bajpai: व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसे
श्रमिकों की अंतर्व्यथा को रेखांकित करती  सारगर्भित कहानी मनके गरे तक पहुची
बधाई आभार

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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