Sunday, March 13, 2016






⬛  टुकडे – टुकडे धूप  

〰〰〰〰〰〰〰

             
➖  मनीष वैद्य
▫▫▫▫▫

                  खपरैलों वाले इस घर में आसमान से धूप के कई टुकड़े उतर आते. समय के साथ – साथ धूप के इन टुकड़ों की जगहें बदलती रहतीं. सुबह से शाम तक धूप के ये टुकडे पूरे घर में चहलकदमी करते रहते. खपरैलों के सुराखों से धूप के छोटे –छोटे हिस्से यहाँ –वहाँ से झांकते रहते. इन टुकड़ों का आकार छोटी रोटी की तरह गोल होता. मानो किसी ने कोशिश कर चाँद की तरह इन्हें गोल –गोल बना दिया है. खपरैलों के सुराख़ से दाखिल होते हुए नीचे घर के कच्चे फर्श पर आते –आते धूप के इन टुकड़ों में बहुत छोटे धूल के कणों की तरह कुछ होता. अणु और परमाणुओं की तरह. ये कण इतने छोटे और महीन होते कि इन्हें गौर से देखे जाने पर ही देखा जा सकता. धूप के इन टुकड़ों को घर में आवाजाही की पूरी छुट होती. ये कहीं भी जा सकते और कहीं से भी लौट सकते. ये उछल कूद कर घर के सामानों पर चढ़ जाते. धूप के ये टुकडे कभी पीतल के हंडे पर पड़ते तो पूरा घर सोने की दमक से भर उठता. ये टुकडे जब बरतन में भरे पानी पर पड़ते तो पूरा घर चाँदी की चमक से भर उठता. सुबह के साथ धूप के टुकडे घर में निकल आते और दिन भर की चहलकदमी के बाद शाम के धुंधलके में कहीं खो जाते. अगली सुबह वे फिर लौट आते मानों रात उन्हें यहीं झपकी लग गई हो और आँखे मलते हुए वे फिर जाग  गए हों. इस तरह वे घर की रोजमर्रा में शामिल हो चुके थे.  .

        रात के अंधेरें में खपरैलों के बीच न कोई सुराख़ नजर आता और न धूप के टुकडे. हाँ, चांदनी रातों में जरुर आसमान का चाँद इन सुराखों से घर में झांकता सा नजर आता. अँधेरी रातों में शायद अंधेरें के टुकडे भी इन सुराखों से आते रहे हों. अंधेरों के बीच अन्धेरें के टुकडे पहचाने नहीं जाते, लिहाजा यह मन लिया गया कि धूप के टुकड़ों का तरह अंधेरों के टुकडे नहीं होते. रात में खपरैलों के बीच की जिन जगहों से घर में जलती चिमनी की पिलपिली रोशनी बाहर के घुप्प अँधेरे के बीच टिमटिमाती रहती, गोया किसी पहाड़ी के नीचे से बस्ती की बत्तियां नजर आ रही हों. रोशनी पूरी तरह अनगढ़ होती. न कभी उनके बीच कोई निश्चित अनुपात और न ही कोई निश्चित दूरी. ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे ने सफ़ेद कागज पर रंग के कुछ छींटे डाल दिए हों. कहीं ज्यादा तो कहीं कम. खपरैलों के बीच की जगहों से आती हुई रोशनी की हलकी परछाइयों से अँधेरे को कोई फर्क नहीं पड़ता. अँधेरा खासा बना रहता और दूर तक पसरा हुआ. रोशनी की यह झिलमिल परछाई अगले सात जनम तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी लिहाजा अंधेरा अपने पूरे आलसीपन के साथ पसरा रहता.

        खपरैलों के बीच की जगहों से इस घर का पुराना नाता था. शायद तब से जब यह घर बना होगा या उससे भी पहले जब घर बनना शुरू हुए होंगे. घर होते तो खपरैलों के बीच जगह जरुर होती. खपरैलों के बीच की जगह का भर जाना शायद घर के न होने की तरह था. घर की अन्य अनिवार्य शर्तों में अघोषित रूप से एक यह भी शर्त थी. खपरैलों के बीच की जगह ही शायद खपरैलों को जोड़े रखती. यदि जगह नहीं बचती तो लोग धूप की उजास और अँधेरे को ही भूल जाते या यह भी होता कि शायद उन्हें समय का ही भान नहीं रहता. धूप के टुकड़ों से दिन का समय और सुराखों से झांकते आसमान के तारों से वे रात के पहर बताते.

        धूप के टुकडे लगातार अपनी जगह बदलते रहते. कभी रोटी की तरह थाली में नजर आते लेकिन थोड़ी ही देर में थाली से छिटक जाते. भूख बाकी रह जाती पर धूप के टुकडे थाली से बाहर हो चुके होते. माँ के साथ अक्सर ही ऐसा होता. सबको खिलाने के बाद जब वह अपनी थाली परोसती तो जल्दी ही धूप का टुकड़ा थाली से छिटककर खाली परात में दौड़ने लगता जहाँ अब रोटियां नहीं, पपड़ाये हुए आटे की परत चिपकी रहती.

                धूप के टुकड़े कभी छुट्टी पर नहीं जाते. वे कभी नागा नहीं करते.मानो सूरज के साथ उनका आना जरुरी ही हो. घर में चहलकदमी करते धूप के टुकडे सदियों से इसी तरह आते रहे. बिना अपने आने की मुनादी पीटते हुए. मौसम आये और चले गए, त्यौहार आये और चले गए, शादी –ब्याव, जनम –मरण सब कुछ चलता रहा. लेकिन धूप के टुकड़ों का लगातार आना जारी रहा, सदियों से इसी तरह. आज भी वे आ राहे होंगे और शायद सदियों तक आते रहेंगे. यूँ ही बिना नागा किये.

         साल –दर- साल खपरैलों को आल –चाल कर दिया जाता लेकिन धूप के टुकडे अपने लिए जगह निकाल ही लेते. हर साल आषाढ़ के महीने में पिता निसरनी लगा कर खपरैलों की छत पर चढ़ जाते. माँ उन्हें नए खपरैलों का टोपला दे आती. पिता एक सिरे से खपरैल हटाना शुरू करते. मानो घर की छत उघड रहे हों. फिर टूटे खपरैलों के टुकडे, तुअर संटी के टुकड़े और धूल- धक्कड़ को खोडियेकी बुहारी से झाड़ते. फिर साबूत खपरैलों से नयी छत बनाने लगते वे जिस हिस्से की खपरैल हटाते वहां का आसमान घर में उतर जाता, धूप के साथ. खपरैल हटाने के बाद कंकाल की तरह निकल आई बल्लियों और सांकटियों पर फिर से खपरैलों का काम घंटो तक चलता. खपरैलों के टुकड़ों, संटी के टुकड़ों और धूल- धक्कड़ से पूरा घर भर जाता. बल्लियों और सांकटियों के बीच से सारा कचरा पूरे घर में छा जाता. बरतनों, बिस्तरों, टिन के डिब्बों, पिता की किताबों, हंडे – मटके, माँ के सिंगारदान –सब कुछ धूल –धक्कड़ से पट जाता. घर का कोई कोना साबूत नहीं बचता. यहाँ तक कि भगवान भी. घर के एक कोने में लकड़ी का छोटा सा पाटिया था, जिस पर तमाम भगवान मौजूद रहते थे. राम, हनुमान, कृष्ण, दुर्गामाता, शंकर, गणेश, विष्णु,लक्ष्मी और गरुड़. यानी पूरा देव परिवार. पिता इसे पाटिया नहीं सिंहासन कहते. वे अपनी पूरी उम्र इसे सिंहासन ही  कहते और शायद मानते भी रहे. उनके लिए शायद जरुरी भी था ऐसा मानना कि इतने महान भगवान अपना देवलोक छोड़कर जब इस छोटे से कच्चे मकान में आयेंगे तो लकड़ी के पटिये पर नहीं बल्कि सिंहासन पर ही बिराजेंगे. तो खपरैलों की आल –चाल के दौरान तमाम धूल –धक्कड़ में अन्य सामानों की तरह देव परिवार भी दब जाया करता. पिता जब खपरैलों की पूरी आल –चाल के बाद छत से नीचे लौटते तो उनकी हालत भी उन्ही सामानों की तरह हो जाती जो घर में धूल –धक्कड़ से सने रहते.वे इस तरह धूल –धक्कड़ से सने हुए लौटते मानो अभी किसी युद्ध में गुत्थमगुत्था होकर आ रहे हों. कभी लगता कि वे एक आदिम लड़ाई के सिपाही हैं जो सदियों से इसी तरह लड़ी जा रही है.

       बहरहाल, माँ बुहारी से एक –एक सामान देर तक साफ करती. कुछ घंटों की मेहनत के बाद घर पहले की तरह दिखने लगता. पहले की तरह नहीं, पहले से ज्यादा हल्का और साफ- सुथरा. पिता गरम पानी और उबटन –तेल के जरिये धूल – धक्कड़ से निजत पाने की कोशिश करते. माँ खपरैलों के टुकड़ों को अलग कर लेती. बाद में इन्हें पत्थर से बारीक़ पीसकर माँ खोर बनाती. यह खोर लीपन के साथ मिलाकर कच्चे फर्श पर लीपी जाती. इससे फर्श सीमेंट की तरह मजबूत हो जाता. पिता नहा –धोकर अपने भगवान से माफ़ी मांगते, देर तक मंत्र बुदबुदाते हुए. पिता कहते –

यदक्षर पथभ्रष्टम मात्रहिनम च यद्भवेत
तत्सर्वम क्षम्यताम देव प्रसीद परमेश्वरम

उन्ही भगवानों से जो थोड़ी देर पहले तक उन्ही की तरह धूल –धक्कड़ से सने हुए थे.
        पिता जब खपरैलों की आल – चाल करने चढ़ते तो लगता कि इस बार न तो कोई सुराख़ बचेंगे और न ही धूप का कोई टुकड़ा घर में दाखिल हो सकेगा. लेकिन पिता की तमाम कोशिशों के बावजूद साल- दर –साल सुराख़ बच ही जाते. खपरैलों के बीच की जगह से अगली सुबह फिर धूप के टुकडे उतरने लगते. यह धूप के टुकड़ों की जीत थी या पिता की कोशिशों की हार. हालाँकि ऐसी लडाइयों में हार –जीत तय कर पाना मुमकिन भी नहीं होता. ये लड़ाईयां ही ऐसी होती हैं, निरंतर चलने वाली, बिना हार  –जीत की परवाह किए, शायद कभी न ख़त्म होने के लिए, अनिर्णीत ही रह जाने के लिए, खपरैलों के बीच सुराखों और पिता की कोशिशों के बीच भी ऐसी ही लड़ाई थी जो बरसों से इसी तरह जारी थी.

        भादौ के महीने में जब जोरदार बारिश होती तो पिता की तमाम कोशिशों के बावजूद खपरैलों के बीच की इन्ही जगहों से बारिश का पानी घर में चूने लगता. पानी चूने   की वजह से  घर –गृहस्थी का अधिकांश सामान भींग जाता. कभी –कभी तो साबूत बिस्तर लगा पाने लायक जगह भी नहीं बचती. तब पिता सारी रात सो नहीं पाते. तेज बारिश की रातों में वे चूने वाली जगहों पर बरतन रखते. बाल्टी, तगारी, तपेला, परात यहाँ तक कि लोटे और गिलास भी. फिर इनके भरते जाने और खालीकर इनका पानी फेंके जाने के काम में माँ और पिता देर तक भिड़े रहते. इस मुसीबत से बचने का कोई विकल्प नहीं होता. विकल्प था लेकिन वह उनके बस में नहीं था. जिस घर में रोटियों की कीमत भारी लगे वहां अंगरेजी कवेलू का खर्चा कैसे उठाया जा सकता था. खैर, माँ और पिता ने इसे विकल्पहीन करार दे दिया था. फ़िलहाल इसका कोई हल उनके पास नहीं था. सिवाय बरतनों में जमा पानी को उलीचते जाने के. पिता सोचते कि सारी बातें वैसी ही हों, जैसी चाही जाएँ, यह तो मुमकिन नहीं हो सकता. इच्छाएँ तो बहुत होती हैं. लेकिन सारी इच्छाएँ पूरी भी तो नहीं हो सकती. वे कहते – जिन्दगी के कई रंग होते हैं. जिन्दगी के रंग भी तो धूप के टुकड़ों की तरह आते जाते रहते हैं.

      माँ –पिता की जिन्दगी भी तो धूप के टुकड़ों की ही तरह जगहें बदलती रही बार – बार. नाना के यहाँ से माँ धूप के टुकड़ों की तरह उजास बिखेरती यहाँ पहली बार आई थी. माँ और पिता ने साथ –साथ मेहनत की तो पुश्तैनी उसर जमीन भी ऐसी लहलहाने लगी कि उसकी उजास से गाँवभर में रोशनी के सोते फूटने लगे. कहते हैं कि सुख के दिन ज्यादा दिनों के नहीं रहते. यहाँ भी नहीं रहे. माँ –पिता ने सुनहरे सपने देखना शुरू ही किया था कि तभी उन्हें किसी की नजर लग गयी. आस- पास के दो कस्बों को जोड़ने वाली सड़क यहीं से निकली, ठीक उनके ही खेत की छाती पर से. खेत का जो थोडा मुआवजा मिला उससे दूसरी जमीन खरीदने के लिए पिता ने बहुत कोशिश की लेकिन इतने से पैसों में कहीं जमीन नहीं मिली. इधर पैसा लगातार खर्च होता रहा. और आखिर में न जमीन बची न पैसा. बची थी तो  पिता के बाजुओं में इतनी ताकत कि कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.          

      बारिश जैसे –जैसे तेज होने लगती, घर में साबूत जगहें कम होने लगती. माँ कभी बारिश को दोष देती तो कभी पिता की कोशिशों को. माँ का आरोप होता कि पिता ने खपरैलों की आल- चाल के दौरान छेद रख दिए. माँ ऐसे आरोप बरसों से लगाती थी इसलिए पिता अपने बचाव में केवल चुप हो जाया करते. माँ और पिता कई बार ऐसे वाकियों पर एक –दूसरे के लिए आरोप मढ़ते यह बात जानते हुए कि आरोप सही नहीं है. माँ और पिता के बीच इस तरह की तकरार कोई नयी बात नहीं थी. आमतौर पर जब –तब होती रहती थी. दोनों ही इसे गंभीरता से नहीं लेते थे. चुप होकर छोड़ दिया करते. पिता मन में सोचते कि अब इसे कौन समझाये, कोई आदमी भला अपने ही घर की खपरैलों की आल –चाल में छेद क्यों रखेगा. क्या उन्हें पता नहीं कि उनकी एक गलती से पूरा घर गीला हो जायेगा. माँ अक्सर ऐसे मौकों पर अपने गोरधन नाथ को याद करती जिन्होंने अपनी चींटी ऊँगली पर गोवर्धन पहाड़ उठाकर वृन्दावन के अपने लोगों की घनघोर बारिश से हिफाजत की थी. माँ की बात पर न पिता ध्यान देते और न गोरधन नाथ. पर माँ को इसका कोई मलाल नहीं रहता. माँ उस वाकिये को याद कर अब भी सिहर उठती है जब एक घनघोर बारिश की पूरी रात उसने दरवाजे में खड़े –खड़े  गुजारी थी,अपने दो बच्चों के साथ . उस रात माँ ने जिन्दगी और मौत के बीच एक महीन रेखा पहचानी थी.यह वाकिया पिता कभी याद नहीं करते. उनका मानना है कि कडवी यादों को सीने से चिपकाये नहीं फिरना चाहिए. ऐसे पल तो आते ही रहते हैं. इन्हें यद् कर अपना जी क्यों छोटा करना ... आगे बढ़ना है तो अच्छी बातें याद रखो और सब के साथ अच्छा करो तो तुम्हारा भी अच्छा ही होगा.

      वह जन्माष्टमी की एक खौफनाक काली अँधेरी रात थी. शाम से ही रह –रह कर बारिश हो रही थी. रात का दूसरा पहर बीतते –बीतते तो मानो बादल ही फट गए. पिता पहले ही रिश्तेदारी के काम से बाहर गाँव गए हुए थे. पिता साथ होते तो माँ उन्हें ही भला – बुरा कहकर हिम्मत भर लेती. पूरा घर बारिश के पानी में चपड –चपड कर रहा था. घर की कच्ची दीवारों से पानी रिस रहा था. चारों तरफ पानी ही पानी. बादल गडगडाते तो दिल बैठने लगता. मन में तरह –तरह की चिंताएं और आशंकाएं उठ रही थी. दोनों छोटे                  

बच्चे डर रहे थे. आसमान में बिजली दमकती तो खपरैलों के सुराख़ से होती हुई उसकी चमक फैलकर माँ की डरी- सहमी आँखों में कौंध जाती. इस रात बारिश का सामना करते हुए उसे पिता बहुत याद आ रहे थे. आज माँ हमेशा की तरह न तो गोरधन नाथ को याद कर रही थी और न ही पिता को भला –बुरा कह रही थी. माँ आज पिता की तरह चुप थी.      

शायद चुप्पी के बीच कहीं भीतर की ताकत को इकट्ठा कर रही थी. आज तो मईपला (प्रलय) ही होने को था. बारिश कुछ पल के लिए थमती और फिर शुरू हो जाती. तीसरा पहर बीतते –बीतते घर का पूरा कच्चा फर्श भींग चुका था. पूरा सामान और बिस्तर पहले ही भींग चुका था. जिस जगह माँ अपने छोटे –छोटे बच्चों के साथ बैठी थी वहां भी पानी आने लगा था. बौछारों से पूरा बदन भींग रहा था. वह ठण्ड से कंपकंपा रही थी. जैसे –तैसे बच्चों को बौछारों से बचाने की कोशिश कर रही थी.

       इधर बारिश के साथ ओले भी शुरू हो गए. पहले मक्का के दानों की तरह और फिर छोटे नींबू के आकर के ओले. तेजी से गिरते ओले जब खपरैलों से टकराते तो खपरैल टूट जाते. जब खपरैल भी टूट –टूट कर गिरने लगे तो घर में पानी की रेलमपेल मच गई. घर का कोई सामान साबूत नहीं बचा. माँ को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें और क्या न करें. पड़ोस वाली रामकन्या पड़ते पानी में माँ को अपने अंग्रेजी कवेलू की छत वाले मकान में चलने के लिए बुलाने आई थी लेकिन माँ ने मना कर दिया. दिन का समय होता तो और भी ... रात में दुसरे के घर अकेली औरत दो बच्चों के साथ, पिता होते तो उनके साथ जरूर चली जाती लेकिन आज नहीं.....नहीं गई माँ, वहीँ डटी रही.

       माँ ने सोच लिया था कि जो होगा यहीं होगा इसी खपरैलों वाले घर में. खपरैल छार –छार होते रहे. गृहस्थी का सामान तबाह होता रहा. खपरैलों के टुकडे बम की सी गति से यहाँ –वहां उड़ते रहे और माँ ने अपने अंदर की सारी ताकत को इकट्ठा कर लिया. वह दरवाजे की उस छोटी सी जगह में घंटों तक खड़ी रही बुत की तरह अपने दोनों बच्चों को भींचे हुए. दरवाजे के ठीक ऊपर लकड़ी के दो छोटे पटियों को जोडा हुआ था. इससे न तो सीधे पानी टपकता था और न ही खपरैल के टुकड़े सिर में लगने का डर था. बच्ची माँ के सीने से चिपटी थी और बच्चे को उसने अपने पैरों के बीच भींच लिया था. समय गुजरता रहा. चौथे पहर में बारिश कुछ कम होने लगी. पौ फटते ही उजाला टूटे हुए खपरैलों के बीच से घर में आने लगा था. बस्ती के लोगों ने देखा तो हैरत में पड़ गये. इतनी तबाही के बाद भी ये औरत और इसके बच्चे साबूत कैसे बच गए. यह तबाही की रात कई लोगों ने दूसरों के पक्के मकानों में बितायी थी. बस्ती के आधा दर्जन बच्चे, बूढ़े और औरतें मर चुकी थी.

       उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला. चूल्हे पर चढाने लायक कोई सामान साबूत नहीं बचा था. ओलों और बारिश ने सब कुछ ख़त्म कर दिया था. सब कुछ. पिता लौट आये थे बाहर गाँव से. माँ पिता को उस रात का हाल सुनाती रही और पिता चुप से सुनते रहे. पिता ने कहा- ख़त्म होने की कोशिशों से ख़त्म नहीं होना और तमाम साजिशों और मंसूबों को नकारते हुए फिर –फिर उठ खड़े होना, फिर –फिर साबूत रह जाना ही तू जिन्दगी है. धूप के टुकड़ों की तरह ।
*****************************

प्रतिक्रियाएँ
[11/03 08:09] Rajnarayan Bohare: अदभुत कहानी।खूब किस्सागोई। भाषा और कहन शानदार।बहुअर्थी वाक्य।
[11/03 09:38] प्रज्ञा रोहिणी: बेहद अच्छी कहानी। मन में धूप के साथ कविता, घर, संघर्ष, जिजीविषा, उम्मीद सब टुकड़ा टुकड़ा उतर आये। बधाई मनीष जी।
[11/03 10:07] प्रज्ञा रोहिणी: खपरैलों से छनती आती धूप से निर्मित अनेक बिम्बों ने कहानी को आरम्भ में कविता की शक्ल दी । धूप के साथ कहानीकार ने घर रच दिया। सुबह दोपहर साँझ रात रच दीं। फिर बस्ती रच दी। और बस्ती से चुनकर एक  संघर्षशील परिवार रच डाला जिसे रोज़ कमाना है इसलिये कभी कोई नागा नहीं उनके खाने में
 कहानी यहाँ आकर घर के भीतर प्रवेश करती है। जबकि मुझे लगा था कि इस कहानी में नागार्जुन की अकाल और उसके बाद कविता की तरह ही घर रहेगा जीवित मनुष्य पार्श्व में होंगे। पर कहानी धूप के संसार के साथ परिवार का संसार भी रचती है। कतरों में बिखरी धूप घर के हर कोने को सुंदरता से भर देती है। धूप और बारिश ज्यों ज़िन्दगी का ज्वार-भाटा। संगीत का तार और मन्द्र स्वर और इनके बीच दम्पत्ति के सुख दुःख के राग। इस राग में माँ की आस्तिकता और पिता की सामर्थ्य और फिर संघर्ष की उस रात में माँ का पिता हो जाना। यथार्थ से मुठभेड़ के समय तनाव के चरम क्षणों में अलोक से नहीं लोक के तनावों से शक्ति अर्जित करती स्त्री धूप से भी बड़ी हो जाती है या कहें बारिश के प्रतिपक्ष में धूप रच देती है। और तब माँ पिता दो इकाई नहीं रहते वे एकसे हो जाते हैं और संघर्ष से सृजित होता है ज़िन्दगी का फलसफा। मनुष्य का संघर्ष, उम्मीद की किरण और हर स्याह से लड़ने की जिद्द।
दरअसल यही है ज़िन्दगी जीने का हुनर। ज़िन्दगी जीने की कला शिविरों में बैठकर नहीं सीखी जा सकती जीवन में गहरे धँसकर ये कला राह बनाती है।
[11/03 20:44] Alka Trivedi: कभी कभी जो कहानी मन को बहुत भा जाती है  मन पूरे समय उसकी जुगाली सा करता रहता है।किसी घटना की साम्यता किसी  अन्य पढी या देखी घटना से, और ऐसे ही वो उससे संबद्ध सा हो जाता है। आज यह कहानी मेरी तरफ से उसी श्रेणी की है।मुझे बहुत पसंद आयी ।धन्यवाद दीदी एक ऑर अच्छी रचना से परिचित कराने के लिए। मनीष जी बधाई एक उम्दा सृजन के लिए
[11/03 21:21] Amitabh Mishra मंच: जीवन सुख दुःख आशा निराशा के महीन धागों से ही तो बुना हैं l जब तक साँस हैं तब तक आस हैं को चरितार्थ करती कहानी बधाई मनीष जी       अमिताभ मिश्र
[11/03 22:06] ‪+91 89596 87445‬: इतनी मोटी कहानी को गूंथकर एक पतली कविता बनायी जा सकती थी
इसमे कहानी को जबरिया गूंथा गया है
हालाँकि बिम्ब योजना शुरुआती पैरा मे चमत्कृत करती है
बाद मे उन्ही बिम्बों की पुनरावृति और विस्तार  है
और यदि यहाँ तक भी  कहानीकार ने लोभ स्म्वरण कर लिया होता तो भी निर्मल वर्मा की याद दिलाती एक रचना बन जाती
लेकिन निर्मल वर्मा से
निकलकर अमरकांत होने के चक्कर मे कहानी द्वीमुखी हो गयी
लेकिन फ़िर भी पठनीय बन पड़ी है.
इस हेतु उन्हे बधाई साधुवाद 🙏🏾
[11/03 22:14] ‪+91 94116 56956‬: इस कहानी में लेखक कहानी विधा का अतिक्रमण कर कविता करने लगता है ,बिम्ब रचने लगता है । ये विधा का  अतिक्रमण लेखक की स्वयं को किसी भी हद तक एक्सप्रेस करने की दीवानगी का परचम है ,जो पाठक के मन पर भी लहराता है । ऊपर प्रज्ञाजी ने अच्छे से व्याख्यायित किया है । उनकी टिप्पणी से इत्तिफ़ाक़ रखने में ये तो है की मुझे कम शब्दों को ही टाइप करना पड़ रहा है । मनीष जी की इस कहानी के लिए प्रवेश जी का शुक्रिया ।
[11/03 22:22] ‪+91 94116 56956‬: हनुमंत जी की टिप्पणी पर एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई की निर्मल वर्मा की याद किस तरह आ रही है । कृ उदहारण भी दे क्योंकि मैंने जितना भी पढ़ा है निर्मल को ,उनकी पंक्तियाँ या दृष्टान्त जहन में नहीं चमक रहे  है इसे पढ़ कर । कृ बताये तो अभिवृद्धि हो सके मेरी और शायद बाकियों की भी ।
[11/03 22:28] ‪+91 89596 87445‬: सुरेन्द्रजी
मैने बात कहानी मे आये बिम्बों और भाषा
के संदर्भ मे की थी
जो इम्प्रेशन मेरे जेहन मे उन्हे पढ़कर कभी बनाथा
[11/03 22:29] ‪+91 89596 87445‬: स्मृति के प्रति कुछ ऐसा ही लालित्य भरा मोह
[11/03 22:44] ‪+91 94116 56956‬: यदि यहाँ तक भी कहानीकार ने लोभ संवरण कर लिया होता तो भी निर्मल वर्मा की याद दिलाती एक रचना बन जाती । आपकी इस पंक्ति ने मुझसे ऊपर का वक्तव्य लिखवाया । निर्मल वर्मा की तीन पुस्तकों का जिक्र करना चाहूँगा जो मुझे अछि या प्रतिनिधि लगती है  , एक चित्र सुख ,वे दिन और कव्वे और काला पानी  इन तीनो रचनाओं में एक्का दुक्का  उदाहरण मुझे  अभी याद आ रहे है । एक चिथड़ा सुख में जब नायिका पूछती है सुख क्या है  तो जवाब में  आता है  की भरी ठण्ड में जो चिथड़ा लिपटता है टसन से वो सुख है । या कव्वे और कला पानी का अकेलापन जो व्यक्तिगत होल्कर भी समष्टिगत हो जाता है । हाँ जब आप संजीव की कहानी आरोहण पढ़ते है तो कई जगह निर्मल याद आते है । वो भी जब परिद्रश्य रचा जा रहा हो   , ट्रीटमेंट  और मोटिव में नहीं ।
[11/03 22:45] Padma Ji: मनीष वैद्य जी की कहानी "टुकड़े-टुकड़े धूप" बहुत ग्राम्य जीवन को चित्रित करती बहुत अच्छी कहानी है। भाषा में कलात्मकता और शैली में प्रवाह है। कहानी में रोचकता और प्रभावोत्पादकता भी है। ऐसी कहानियां बार बार पढने को मन लालायित रहता है। मनीष जी को बधाई। मंच के त्रयी एडमिन को धन्यवाद।
[11/03 22:48] Jaishree Rai: अच्छी कहानी! मन को छूती। बधाई!
[11/03 23:10] Kavita Varma: मनीष जी की कहानी पहले भी पढ़ी थी टुकड़ा टुकड़ा धूप मन के अंदर उतरती गई । सुंदर कहानी बधाई मनीष जी ।
[11/03 23:13] ‪+91 98260 13806‬: सभी रचनाकार साथियों का शुक्रिया, जिन्होंने समय निकाल कर इतनी शिद्दत से कहानी को पढ़ा और इस पर अपनी बेशकीमती टिप्पणियाँ भी की। एक कहानीकार के नाते यह मेरे लिए बड़ी बात है कि आप सबने इसे पढ़ा और परखा। यहाँ कई मेरे अग्रज भी हैं।
[11/03 23:13] ‪+91 89596 87445‬: सुरेन्द्र जी
निर्मल वर्मा से मेरा परिचय आप जितना गहरा नही है
अंतिम उपन्यास आज भी याद है अंतिम अरण्य
यहाँ दादी की तबीयत बहुत खराब है तो उस उपन्यास कीयाद स्वाभाविक है
पहला परिचय क्व्वे और काला पानी से  ही हुआ था
दिनेश खन्ना नेप्ले निर्देशित किया था जिसमे मेरा एक किरदार था
बाद मे हमने पिक्चर और पोस्ट कार्ड् भी खेला
खैर
जब मैने आज की कहानी टूकड़ा टूकडा धूप को पढ़कर उनका नाम लिया तो उसी फार्म की वजह से
यानी नास्तेल्जीक मोनोलॉग
निर्मल वर्मा के तीन एकांत मे एक कहानी है
धूप का टुकडा
उसका फार्म यही है
बस ऐसा ही कुछ था
कि कह गया
[11/03 23:17] ‪+91 89596 87445‬: मनीष जी 👍🏾🙏🏾

वैसे भी रचना कार की रचना ही उसका स्टेटमेंट है.
यदि इसके बाद भी कुछ कहने की ज़रूरत रह जाये
तो वो रचना की असफलता है
[11/03 23:22] ‪+91 98260 13806‬: मैं शुक्रगुजार हूँ राज बोहरे जी, प्रज्ञा रोहिणी जी, प्रवेश जी, ललिता जी, संध्या जी, प्रतिभा जी, विजय भाई, अलका जी, अमिताभ जी, लीना जी, सुरेन्द्र जी, हनुमन्त भाई, ब्रज भाई, पद्मा जी, कविता जी और जयश्री जी आप सभी का
[12/03 00:14] ‪+91 94116 56956‬: जी हनुमंत जी शुक्रिया , अंतिम अरण्य नहीं पढ़ पाया चाह कर भी ,केवल उसके क्रिटिक्स पढ़े थे ।आपने जो टर्म कहा नॉस्टेल्जिक मोनोलॉग वह एक दम उपयुक्त है । क्योंकि पूरा उपन्यास देश और काल के एक दुसरे में घुलने पर निकली भारतीय प्रज्ञा के  उसी पारलौकिक मोक्ष सरीखे ठौर में अपनि सार्थकता ढूंढना है । इस तरह का मंतव्य उन क्रिटिक्स का मुझे याद पड़ता है । आलोचय कहानी में ऐसा  तत्व  मैं नहीं ढून्ढ पा  रहा । आपने चर्चा को आगे बढ़ाया , इसके लिए शुक्रिया ।
[12/03 06:09] Rekha pancholi: बहुत अच्छी कहानी 'फिर उठ खड़े होना, फिर साबुत रह जाना ही तो जिन्दगी है, धूप के टुकड़ों की तरह ।' कहानी का यह आदर्श वाक्य सम्पूर्ण कहानी का सार है । शब्द चित्रण और शैली प्रभावशाली है ।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

पिछले पन्ने