Wednesday, July 11, 2018

उपन्यासनामा: भाग दो ,कालापादरी 

मानवीय संदर्भों की कहानी: काला पादरी


तेजेंदर गगन:स्म्रतियां शेष 
10 मई 1951,..12 जुलाई 2018 



तेजिंदर गगन 




तेजिन्दर के उपन्यास के आरंभ में यह कविता अंश उद्धृत है

कौन हैं ये लोग?
घुटनों तक जमीन में धँसे हैं जिनके शरीर
कौन हैं ये लोग?
जिनकी आवाज खो गई है बियाबाँ में
परछाईं भी जिनकी छोड़ गई उनका साथ
अविश्वास पर से भी उठ गया जिनका विश्वास
कौन हैं ये लोग?
हाँ, ये वही लोग हैं
जिन्होंने तड़के उठकर चाँद को मरते देखा था
ठीक भोर के वक़्त जिन्होंने शंख का नाद सुना था
घन्टियों की आवाजें सुनीं थीं
परन्तु जिनकी अपनी कोई आवाज नहीं
बियाबों में खो बैठ हैं 
अपनी परछाईं....’’
                           -ग्याना (अफ्रीका) के कवि मार्टिन कार्टर की कविता 
                             ‘भूख का विश्वविद्यालय’ का एक अंश


‘‘मुझे लगा कि जिस कमरे में मैं फिलहाल बैठा हूँ उस की छत पर जाले ही जाले फैल आए हैं, आसपास सब कुछ निष्क्रिय है, सिर्फ मकड़ियाँ है जो सक्रिय हैं और बाकी सब कुछ ठहर गया है, कहीं कोई गतिविधि नहीं, जीवन का कोई स्पंदन नहीं, कुछ पुरानी तस्वीरें दीवारों पर टंगी हैं जिनके जिनके इर्द गिर्द धूल है और जाले हैं, कुछेक स्मृतियाँ हैं जालों से बुनी हुई, कुछ बूढ़े और उदास चेहरे हैं जिनकी आंखों में अभी भी रोशनी की औपचारिकता बाकी है। वे अभी भी इस उम्मीद में है कि अपना वजूद खत्म होने से पहले वे इस दुनिया को बदल कर जायेंगे। एक जिद है, जालों से घिरी हुई, छत की किसी मुंडेर पर कुछ पुस्तकें हैं, जिनमें इस दुनिया को बदल दिए जाने का घोषणा पत्र है और उसके आसपास भी जाते हैं।’’पृ16

‘‘मैं जब अपने इर्द गिर्द देखता तो मुझे लगता कि ये सारे लोग जिनमें मैं भी शामिल हूँ, उन्हीं लोगों से मान्यता प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं, जिनका अपने अंतर्मन से विरोध करते हैं। हम उसी व्यवस्था का संरक्षण चाहते हैं, जिसके विरोध में बड़ी बड़ाी बातें करते हैं। ऐसा शायद हम इसलिए करते हैं कि हम अपना नैतिक साहस कहीं न कहीं खो चुके हैं।’’पृ16

‘‘कभी कभी हम समझते हैं कि जीवन के कुछ उलझे हुए सवालों  को स्थगित कर देने से वे स्वतः ही खत्म हो जाते हैं। अक्सर ही हम अपनी पीठ के पीछे बहुत कुछ इकट्ठा हो जाने देते हैं। कूड़े की तरह। जिसका सामना हमें कभी तो करना ही पड़ता है और एक दिन वह सड़ांध बन कर अपने ही जिस्म से आ चिपकता है। मैंने सोचा और डर गया।’’पृ 24

‘‘पहले दिन जब चावल का दाना मुहं  में नहीं जाता तो लगता है कि जैसे कुछ गुम हो गया हो, पर उम्मीद रहती है कि कल तक मिल जायेगा, अगले दिन भी जब चावल का दाना नहीं मिलता तो आस खत्म होने लगती है, पर लगता है कि चलो एक दिन और, पर तीसरे दिन के बाद सोचना पड़ता है कि चावल का स्वाद मूंह में घुलेगा भी या नहीं, आदमी उसकी गंध तक भूल जाता है, उसके बाद कुछ ऐसा होता है कि जिधर देखो चावल ही चावल बिखरे हुए नजर आने लगते हैं, पर आप उनका स्वाद मुंह में नहीं घोल पाते, चावल के लिए अपनीं अंदर की सारी संवेदना आदमी खो देता है, यहाँ तक कि वह चावल के दाने को अपने शरीर के रोएं रोएं में महसूस करता है। यह बहुत त्रासद अनुभव है होता है, क्योंकि आप महसूस तो करते हैं कि आपके जिस्म के रोएं रोएं में चावल भरा पड़ा है, लेकिन आप उसे पका नहीं सकते। उसको पकाने का अर्थ खुद को पकाने जैसा होता है। पहले देह की शक्कर सूखती है, फिर नमक, फिर पानी, फिर खून का बहना और आखिर आपकी सांस रुकने लगती है। आप आसमान की तरफ देखते हैं तो अंधेरा ही अंधेरा दिखायी देता है। कई बार तो लगता है कि जैसे पूरा आसमान सितारों से नहीं बल्कि चावल के दानों से भरा पड़ा है, जहाँ आप पहुँच नहीं सकते, जिसे सिर्फ आप देख भर सकते हैं, छू नहीं सकते, फिर खाने का सवाल ही पैदा नहीं होता और फिर अगर आप बिरई लकड़ा हैं और राज्य में पैलेस विरोधी सरकार है तो चर्च तो आपको पूछेगी नहीं, पर पैलेस को कोई आदमी आपको बीजाकुरा से उठायेगा और अंबिकापुर के जिला अस्पताल में ला कर भर्ती कर देगा। फिर अखबार वाले आयेंगे, टीवी और रेडियो वाले आयेंगे अपने बड़े बड़े कैमरों के साथ, पैलेस की महारानी खुद आयेंगी और आप से पूछेंगी, ‘कबसे चावल नहीं खाया?’’पृ.26-27

‘‘हम अपने चेहरों से भाग कर कहाँ चले जाते हैं? मैंने सोचा था। क्या यह हमारी पढायी लिखायी है या हमारा कथित पढ़ा लिखा समाज हो हमें अपने ही चेहरे से पलायन का रास्ता दिखाता है। वे कौन से मूल्य हैं जो हमारी जीवन की दृष्टि को ही बदल देते हैं।’’ पृ. 52



काला पादरी उपन्यास अपने सीधे सहज कथा प्रवाह में मानवीय संबंधों और संवेदना को उसके तमाम बहशीपन, क्रूरता और विसंगतियों के साथ उजागर करता है। मानवीय संदर्भ और संवेदना की जब बात की जाती है तो उसे अमूर्त मानववादी मूल्यों से संबद्ध नहीं करना चाहिए। मानवीय संदर्भ भौतिक जीवन से नाभिनालबद्ध होते हैं। ये संदर्भ मानवीय नियति को चुनौती देते हैं और व्यवस्था तथा संस्थागत धर्म और मानवीय रिश्तों की चीर-फाड़ भी करते हैं। हम अपने जीवन के विभिन्न संदर्भों मंे देखते हैं कि व्यवस्था और संस्थागत धर्म ने हमारे जीवन को कितने गहरे तक विचलित कर रखा है और हमारी चेतना को कितने रूपों में प्रभावित कर रखा है। इस उपन्यास के मानवीय संदर्भ विभक्त और विघटित मानवीय चेतना के विभिन्न रूपों को पूरी यथार्थता के साथ उद्घाटित करते हैं।

मानवीय चेतना जो भौतिक संबंधों की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है, को किसी धर्म, संस्था, संस्कृति, भाषा, स्थान या जाति के आधार पर शोषित या उत्पीड़ित नहीं किया जा सकता और ऐसा करना मानवीय संदर्भ को संस्थाबद्ध करना ही होगा जो कि मानवता के विकास के प्रति भयंकर अपराध माना जाना चाहिए।
काला पादरी उपन्यास में आदित्य और जेम्स खाखा के बीच जो दोस्ताना संबंध बनता है वह एक विशुद्ध मानवीय संदर्भ के दौरान उपजता है। यात्रा के दौरान मुसाफिर खाने में वे दोनों मिलते हैं और चूँकि वे एक सही स्थान पर जाने वाले यात्री थे इसलिए वे सहयात्री बन गए और जीवन की यात्रा के विभिन्न पढ़ावांे को साथ साथ तय करते गए। इस यात्रा में अनेक यात्री और विभिन्न मानवीय संदर्भ सहज ही आते चले जाते हैं।

आदित्य बैंक में तबादला होकर गया है और वहाँ जिस तरह से वह आदिवासियों का शोषण देखता है, वह पूरे देश की स्थिति को संकेतित करता है। पूरे देश में भ्रष्टाचार का जाल बैंकों के माध्यम से ही फैल रहा है। बैंक कर्ज देते हैं, पर इस कर्ज का लाभ बैंक कर्मचारियों के साथ स्थानीय राजनैतिक और सामंतवर्गीय लोग उठाते हैं। वहाँ का जीता जागता मनुष्य तो सिर्फ अंगूठा लगाने और कर्ज की किस्त चुकाने में अपनी जमीन और पैदावार को लुटाता भर है। इस स्थिति में आदित्य की जो स्थिति है वह किसी भी मानवीय संवेदना के प्रति जागरूक इंसान की होगी ही।

‘‘मुझे लगा कि जिस कमरे में मैं फिलहाल बैठा हूँ उस की छत पर जाले ही जाले फैल आए हैं, आसपास सब कुछ निष्क्रिय है, सिर्फ मकड़ियाँ है जो सक्रिय हैं और बाकी सब कुछ ठहर गया है, कहीं कोई गतिविधि नहीं, जीवन का कोई स्पंदन नहीं, कुछ पुरानी तस्वीरें दीवारों पर टंगी हैं जिनके जिनके इर्द गिर्द धूल है और जाले हैं, कुछेक स्मृतियाँ हैं जालों से बुनी हुई, कुछ बूढ़े और उदास चेहरे हैं जिनकी आंखों में अभी भी रोशनी की औपचारिकता बाकी है। वे अभी भी इस उम्मीद में है कि अपना वजूद खत्म होने से पहले वे इस दुनिया को बदल कर जायेंगे। एक जिद है, जालों से घिरी हुई, छत की किसी मुंडेर पर कुछ पुस्तकें हैं, जिनमें इस दुनिया को बदल दिए जाने का घोषणा पत्र है और उसके आसपास भी जाते हैं।’’1 






हम जिस युग में सांसे ले रहे हैं, उसमें मानवीय संदर्भों की कोई अहमियत नहीं है। मुनाफा और सुविधायें जुटाने की होड़ जिस समाज का चरित्र बन गया हो वहाँ भूख से मरने के प्रति कोई संवेदना नहीं उपजती है। मानवीय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संदर्भ है ‘‘भूख’’, यह एक भौतिक अस्तित्व की चेतना है जो मानवीय जीवन को न केवल अस्तित्व प्रदान करती है बल्कि उसमें जीवन के अन्य पक्षों के प्रति जागरूकता पैदा करती है। हमारी तमाम व्यवस्थायें -धर्म, समाज, राजनीति, उत्पादन के साधन और उन पर अधिकार का संघर्ष इस मानवीय भूख को ही नियंत्रित करने के माध्यम हैं।


इस उपन्यास का एक बहुत ही दर्दनाक मानवीय संदर्भ है भूख। भूख से होने वाली मौत और उसके साथ खेलने वाले धर्म और राजनीति के चरित्र को परत दर परत खोलता है यह उपन्यास। आजादी के साठ वर्ष बाद भी सरगुजा जैसे क्षेत्र -‘‘लोकतंत्र के सबसे सस्ते सामंतीय संस्करण हैं।’’2 '

यह लोकतंत्र का सबसे सस्ता सामंतीय संस्करण दरअसल पूरा देश ही है। जिस देश में आय और जीवन के साधनों का इतना असमान वितरण हो कि लोग भूख से मरें और कर्ज के कारण आत्महत्या करें, वह सामंतीय जीवन मूल्यों से भी गयाबीता संस्करण ही माना जायेगा। आदित्य समाचार पत्र में दो खबरें पढ़ता है कि सरगुजा के एक गाँव बीजाकुरा में एक आदिवासी औरत और उसके दो बच्चों की मौत भूख से हो गई। और दूसरा एक सत्तर साल के बूढ़े व्यक्ति को उसकी इच्छा के खिलाफ अंबिकापुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। बताया गया कि वह बूढ़ा मरने वाली औरत का श्वसुर था और उसका लड़का भी कुछ दिन पहले भूख से मर चुका था।’’3 

इस खबर पर लेखक की टिप्पणी है -‘‘खबर के दोनों चेहरे मेरे सामने थे। साथ-साथ। भूख का क्या कोई एक आकार होता है? मैं नहीं जानता था। मैंने भूख को कभी नहीं देखा था। भूख के बारे में सुना जरूर था, लेकिन वह भी इतना नहीं कि उसकी आवाज को अपनी अतंड़ियों तक महसूस कर सकूँ।
दरअसल, सच बात तो यह थी कि अपने जिस्म के बारे में सोचते हुए कभी शरीर की अंतड़ियों के बारे में नहीं सोचा था। मुझे लगता था कि अपनी देह के प्रति बहुत सतर्क लोग भी संभवतः इस बारे में कुछ नहीं सोचा करते।’’4 

एक तरफ भूख से मर चुका पूरा परिवार और दूसरी तरफ भूख के बारे में अनजान लोग। यह देश के विकास का गहरा अन्तर्विरोध है। भूख का कोई एक आकार होता है? यह सोचना भी मुश्किल है देश के मध्य और उच्च वर्ग के लिए। यहाँ एक ओर तो भूख महसूस ही नहीं होती लोग स्वाद और स्वास्थ्य के लिए तरह तरह के विटामिन और प्रोटीन वाले व्यंजन करते हैं और दूसरी ओर बिरई लकड़ा जैसे लोग हैं जो भूख से मर जाने के लिए तैयार हैं क्योंकि उसका पूरा परिवार भूख से मर चुका है मगर उसे जबरन अस्पताल में भर्ती करा दिया जाता है। इस पर डॉक्टर की टिप्पणी है कि उसकी किस्मत में राज योग लिखा था। यह शब्द सुनकर वह बिरई लकड़ा भी मर गया। इस मौत का व्यंग्य देखिए कि वह भूख के कारण मरना चाहता था पर उसे मरने नहीं दिया गया और अस्पताल में भर्ती करवादिया ताकि राज्य के लोककल्याणकारी चरित्र को प्रचारित किया जा सके और अखबार में यह समाचार परिवार के अन्य सदस्यों की मृत्यु के समाचार को ढंक ले। मगर असल व्यंग्य यहाँ है लेखक टिप्पणी करता है -

‘‘बहरहाल तुम्हें पता है न कि आज सुबह बिरई लकड़ा भी मर गया। हो सकता है कि वह भूख से न मरा हो, अस्पताल में किसी डॉक्टर के मूँह से ‘राजयोग’ शब्द सुनकर ही मर गया हो, यू नो, इफ यू आर पूअर, इट्स पार्ट ऑफ गेम फार देम।’’

वर्तमान पूँजीवादी लूट(लोक)तंत्र में भूख के प्रति हम और हमारी सरकार कितनी संवेदनशील है? सत्ता को पूँजीपतियों के मुनाफे की चिंता सर्वाधिक होती है। बजट के भीतरी तर्क जो आम जनता नहीं जानती उसमें आम जनता की रोज मर्रा के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं पर से सब्सिडी कम करने के लिए मीडिया और नेता जितने तर्क विकास और ग्रोथ के रखते हैं, इन्हीं विकास और ग्रोथ के तर्क के आधार पर पूँजीपतियों को इन्सेटिव के नाम पर हजारों करोड़ की छूट दी जाती है ताकि देश की विकास दर कम न होने पाये। इस विकास दर का सबसे ज्यादा लाभ किसको मिलता है? पूँजीपतियों का मुनाफा हजारों करोड़ रुपयों में बढ़ता है और एक आम आदमी के जीवन के लिए गरीबी रेखा को महज 27 रुपये प्रतिदिन तक ले आया जाता है और मंहगाई बढ़ने के लिए तर्क दिया जाता है कि मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की आय में वृद्धि होने से वह अधिक खाने लगा है इसलिए खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं। इस व्यवस्था में भूख का कोई सवाल ही नहीं है। भूख से मरने वालों को सत्ता के नुमाइंदे आई.ए.एस अफसर किस दिशा में टर्न कर देते हैं इसका हवाला देखिए -






‘‘कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित, बीजाकुरा गांव में भूख से मृत्यु संबंधी समाचारों की विस्तृत जाँच की गई है। जांच से पता चला है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले कई आदिवासी परंपरागत रूप से बंदरों और बिल्लयों का शिकार करते हैं और उनका मांस खाते हैं। बीजाकुरा में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु भूख के कारण नहीं हुई है। तथा जिले के किसी भी क्षेत्र में ग्रामीणों के पलायन का समाचार जांच के बाद सही नहीं पाया गया है।’’6

यह खंडन सरगुजा के कलेक्टर का है। अमानवीय होती जा रही व्यवस्था के सबसे खतरनाक नुमाइंदे से और क्या अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपना बयान उन मरने वाले आदिवासियों के पक्ष में देगा? क्या वे आदिवासी उसे कलेक्टरी की नौकरशाही के ठाटवाट प्रदान करते हैं। इस नौकरशाही की प्रतिबद्धता किसके प्रति है? जनता के प्रति या सत्तासीन नेताओं और पूँजीपतियों के प्रति? यह सवाल कोई मीडिया नहीं पूछता इन नौकरशाहों से की जांच का आधार क्या था? किसको जांच का अधिकार दिया गया? तुम जैसे किसी अन्य नौकरशाह ने ही तो जांच की होगी? वह क्यों अपने सुखों पर लात मारेगा? यदि वह यह रिपोर्ट दे देगा कि बिरई लकड़ा का परिवार कई दिनों से भूखा था और चावल का एक दाना भी उनके पेट में नहीं गया था तो आप नौकरशाहों को नैतिक रूप से और जनता के द्वारा जबरन आपके इस पद से हटा नहीं दिया जायेगा। इस देश में भूख से मौत तो लाखों होती हैं पर सरकारी आंकड़ों में शायद ही कोई भूख से मरता हो। नैतिक अधोपतन की अजीब दास्तां है हमारा लोकतंत्र। हम अपनी जिम्मेदारी निभाते तो हैं ही नहीं उसके प्रति जबावदेही को भी स्वीकार नहीं कर पाते निरंतर मरते मानवीय संदर्भों की कीमत पर भी।

रोज सत्ता और अधिकार का सुख भोगने वाले नौकरशाह, नेता और मीडिया जिसने भूख की जहालत और पीड़ा न देखी हो और न कभी उसका अनुभव किया हो वह यह स्वीकार कर ही नहीं सकता कि भूख से कोई मर सकता है - ‘‘भूख से कोई व्यक्ति मर सकता है, यह कल्पना दुनिया की भयानक कल्पना थी। जैसे हजारों सुईयाँ एक साथ किसी आदमी के शरीर में नोंच दी गईं हों या फिर किसी व्यक्ति का मुँह खुला हो और एकाएक उसके मुंह से उसकी जीभ गायब हो जाये।’’7 

सत्ता और वर्चस्व के हर घटक या संस्था भूख की तिजारत करती है। धर्म के नाम पर लोग भूख का मजाक उड़ाते हैं, उन्हें रोटी देकर, सत्ता उनके नाम पर सस्ते अनाज, की बिक्री करने का ढोंग करती है, बैंक कर्ज देकर उनकी रही सही जमीन और उत्पादन के साधनों को भी हड़प लेती है। स्थानीय जमींदार और प्रभावशाली वर्ग उनकी भूख के नाम पर बोट बटोरते हैं, कंट्रोल के राशन का स्टॉक उठाते हैं, एन.जी.ओ विदेशों से धन आयात करते हैं, पर भूख वहीं की वहीं बनी रहती है और भूख से मरने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जाता है। यह क्रूर मजाक है भूख और भूख से मरनेवालों के प्रति। यह मजाक हमस ब निरंतर करते हैं उनके साथ। देश में ही नहीं दुनिया में यदि कहीं भी कोई भूख से मृत्य होती है तो यह हम सबको चुल्लभर पानी में डूबकर मरने की बात है। लानत है हमारे विकास के मानकों पर और विकास दर के बढ़ने की प्रक्रिया की वकालत करने वालों की इंसानियत पर।

भूख का यह मानवीय संदर्भ इस उपन्यास के कथानक में अनुस्यूत है। भूख से मरना क्या होता है? इसका बहुत ही जीवंत चित्रण इसमें किया गया है। भूख के चारों ओर कथानक बुना गया है। धर्म, राजनीति, प्रशासन, समाजसेवा, धर्मांतरण इत्यादि सभी इस भूख के मखौल उड़ाते हैं। इस भूख पर राजनीति और धर्मनीति चलाते हैं। भूख का कोई आकार या मजहब नहीं होता, भूख की कोई नीति या समाज नहीं होता। भूख तो भूख है वह किसी भी आकार में इंसान के जीवन का अवसान कर सकती है।

ईसाई मिश्नरीज भारत के आदिवासियों को जहालत और भुखमरी की जिंदगी से बाहर निकालने का मुखौटा ओढ़कर कार्य करते हैं। यह मुखौटा भी राजनीति का ही एक रूप है। वे रोटी के बदले उनकी स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय कर अधिकार छीन लेते हैं। प्रभु ईशु की प्रार्थना की बेगार कराते हैं। रोटी के बदले आदमी की अस्मिता का सौदा करना भी एक तरह की क्रूरता है। चर्च और मिशनरीज यही करते हैं। इसका मानवीय संदर्भ भी इस उपन्यास में शिद्दत से उठाया गया है।

‘‘वे हमें जीवन भर धूल का कीड़ा ही समझें, ही हैज टू रीकेग्नाईज़ अवर न्यू स्टेट्स’’, उसने कहा, ‘‘हम लोग जब पढ़ लिख गये हैं, प्रार्थना का काम करते हैं, पूरी चर्च सम्हालते हैं, तो वे बार-बार हमारी बेगार के दिनों की जुगाली क्यों करते हैं।’’8 

यह जेम्स खाखा की सोच है कि वे मानव सेवा की बात करते हैं तो फिर हमें अपनी पहचान और आजादी क्यों नहीं देते। रोटी दी है, जहालत की जिंदगी से बाहर निकाला है, पर दूसरी ओर एक नई जहालत और मानवीय गरिमा से रहित जिंदगी को क्यांे हम पर थोपा जा रहा है। वह कहता है कि -‘‘ माँ कहती है कि चूँकि चर्च ने तुम्हारे पिता और दादा को रोटी दी थी, काम दिया था और राजा की बेगार से मुक्ति दिलाई थी, इसलिए तुम्हें अपना पूरा जीवन चर्च की सेवा में बिताना है। क्या यह एक तरह का बंधुआ विचार नहीं है,’’ उसने मुझसे पूछा।’’9 एक चरित्र है लुइसा टोप्पो उसके पिता है माईकल टोप्पो। जब आदित्य उस लड़की से पूछता है कि तुम्हारे पिता क्या करते हैं तो वह कहती है ‘‘वे यीशू के मंदिर में प्रार्थना की बेगार करते हैं।’’10 

प्रार्थना की बेगार हो या राजनैतिक बेगार या बंधुआ मजदूरी या दास प्रथा। इस मानवीय संदर्भ में सब मानवीय गौरव और गरिमा के पतन और अवमानना की कहानी लिखते हैं। मानवीय जीवन स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण अस्तित्व का भूखा होता है। उसे भूख से मरना मंजूर है पर भीख चाहे वह राजैनतिक हो या धार्मिक मंजुर नहीं होती। यही कारण था कि बिरई लकड़ा अस्पताल नहीं जाता चाहता था। राजयोग की भीेख की अपेक्षा भूख से मर जाना उसे स्वीकार था।

भूख से मरनेवालों के नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज नहीं होते। कौन कितने दिन तक भूख को सहन कर सका। इसका कोई रिकार्ड दर्ज नहीं है किसी भी इतिहास या धर्म या राजनीति की किताब मैं। क्योंकि इसे किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति या धनी व्यवसायी ने नहीं बनाया आज तक। गुमनाम लोगों की सहनशक्ति का कोई इतिहास नहीं होता।

‘‘एक आदमी भूखा है और भूख की वजह से बीमार है। भूख एक, भूख दो, भूख तीन, भूख चार, भूख पांच और भूख छह। उसने भूख छह तक का रिकार्ड बनाया है। एक ऐसा रिकार्ड जिसे दस्तावेजों में दर्ज करने वाला कोई नहीं है। कोई गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड नहीं, कोई लिम्का नहीं, कोई थम्स अप नहीं। इस तरह वह जब भूख छह तक पहुंच जाता है तो उसे लगता है कि बस अब इसके बाद और कुछ नहीं।’’11 

इस भूख का कोई मान नहीं और कोई सम्मान नहीं। भूख भी जहालत भरी हुई और उसकी मौत भी अनपहचानी ही रह जाती है। भूख से मरते आदमी को कोई ओझा, कोई डॉक्टर या दवाईया फिर ईश्वर नहीं बचा सकता उसे सिर्फ अनाज के दाने बचा सकते हैं, जो उसके पास नहीं है। दुनिया की तमाम चिकित्सा सुविधायें यहाँ लाचार हैं, बेमानी हैं, तमाम देवता नकारा और अस्तित्हीन हो जाते हैं, क्योंकि -‘‘इस आदमी को देवता नहीं चावल बचा सकते हैं।’’12

इस आदमी की मौत भूख छह के बाद की गिनती सहन न कर सकने के कारण हुई है। इसकी मौत का कारण उसकी भूख नहीं, प्रशासन की नजरों में सड़ा मांस खाना और धर्म की नजरों में दुष्टात्मा होना है। यह उसकी मौत और भूख का घोर अपमान है ‘‘यह आदमी जो अभी-अभी मरा गया, दुष्टात्मा था, इसने जीवन में घोर पाप किया था। वह घोर पाप क्या था, यह मैं तुम लोगों को अभी नहीं बता सकता क्योंकि धरमेस ने इसके लिए मना किया है।’’13 

भूख और हिंसा का संबंध बहुत गहरा है। मृत्यु दोनों ही स्थितियों में सच है। भूख से मरना एक अलग बात है, इससे हमारी राजनीति और धर्म नीति को कोई फर्क नहीं पढ़ता क्योंकि वह भाग्यवादी है कम से कम इस मामल में तो कि भूख से मरना मरने वालों की नियति थी। पर भूख से मरने वालों को रोटी दे दी जाये तो वे हिंसा से मरते हैं या जहालत से मरते हैं। जीते जी मरना या मर-मर कर जीना दोनों ही हिंसा की श्रेणी में आते हैं। जो लोग सत्ता से बाहर हैं, सत्ता का लाभ उठानें की हिंसा उनके अंदर नहीं है, उन सीधे-साधे आदिवासियों को हिंसा का शिकार तो होना ही पढ़ता है। सिस्टर अनास्तसिया कहती है कि -‘‘देखो पहले हम भूख का शिकार होते थे और जब चर्च ने हमें भोजन देना शुरू किया है तो हमें हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है।’’14 

काला पादरी उपन्यास में कई मानवीय संवदेनात्मक संदर्भों को उठाया गया है। मैंने अपना ध्यान सिर्फ भूख के मानवीय संदर्भ पर केन्द्रित किया है। भूख का संदर्भ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाना चाहिए। कई रिपोर्ट यह बताती हैं कि आज भी दुनिया में लगभग साठ करोड़ लोग हैं जो भुखमरी का शिकार हैं। यह भुखमरी खाद्य पदार्थों के कमी के कारण हो ऐसा नहीं है। विभिन्न तकनीक और साधनों ने मानव जनसंख्या के अनुपात से कहीं बहुत ज्यादा खाद्य पदार्थ पैदा किया है, पर व्यक्तिगत लाभ और मुनाफे की व्यवस्था ने इस तरह के अंतविर्रोध पैदा कर दिए है कि एक ओर हजारों टन अनाज सड़ जाता है, दूसरी तरफ लोग भूख से मरते हैं, या कर्ज के कारण आत्महत्यायें करते हैं। रोटी के संघर्ष में हत्यायें होती हैं और मानवीय जीवन आतंक और संत्रास का शिकार होता रहता है। भूख प्राणी जगत का सबसे भयानक सच है। इस सच को संतुलित और समादृत किया जाना चाहिए। राजव्यवस्थाओं का सबसे पहला और महत्वपूर्ण मुद्दा भूख के प्रति होना चाहिए। भूख से मरने की नौबत जिस किसी भी स्थिति में आये उसकी जिम्मेदारी तत्काल निश्चित होनी चाहिए और इसके लिए एक स्वायत्त तंत्र की स्थापना की जाये जिसमें राजनीति और प्रशासन का दखल न हो। जिला अधिकारी को सबसे पहले तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाना चाहिए। यह सिर्फ मृत्यु का सवाल नहीं है। यह उत्तरदायित्वहीनता के द्वारा की गई हत्या की श्रेणी में आना चाहिए।

हमारे विकास के तमाम कंगूरे को धराशायी कर देना चाहिए यदि हम भूख से मरने की स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं तो। देश की जनता को तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराने और उन्हें सत्ताच्यूत करने की बीड़ा उठाना चाहिए। मीडिया को कम से कम इस मुद्दे पर लाभ और टीआरपी बढ़ाने की चिंता न करते हुए एक मुहिम छेड़ना चाहिए कि यह स्थिति क्यों बनी। इस मानवीय दायित्व का वहन हर एक भरे पेट को उठाना ही चाहिए। जिससे मानवता पर कलंक का काला धब्बा न लगे।

डॉ संजीव जैन 


डॉ संजीव जैन 


संदर्भ -
काला पादरी, तेजिन्दर, नेशनल पेपरबैक्स दिल्ली, पृष्ठ संख्या 15-16 
वही पृ. 16 
वही पृ. 20-21
वही पृ. 21
वही पृ. 27
वही पृ. 21
वही पृ. 21-22 
वही पृ. 46 
वही पृ. 47
10. वही पृ. 53
11. वही पृ. 71 
12. वही पृ. 73
वही पृ. 73
वही पृ. 103




डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज 
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553

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