Thursday, November 15, 2018

उपन्यासनामा: भाग नौ 

चित्तकोबरा
एक अनोखी प्रेम कथा



मृदुला गर्ग 



“प्रेम को परिभाषित करना असंभव है और प्रेम का उम्र से कोई संबंध नहीं है।”

यह एक लगभग सटीक व्याख्या हो सकती है चित्तकोबरा उपन्यास की। यही वह उपन्यास है जिसके कारण मृदुला जी को कोर्ट में भी खड़ा होना पड़ा था। नैतिकता के पंडितों ने इसे विवादित बना दिया। खैर इस विवाद से आज कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि नैतिकता की सीमाएं इस उपन्यास के विवादित बिंदुओं से मीलों आगे आ चुकी है।

 कोई भी उपन्यास नैतिकता और अनैतिकता के सवाल से नहीं समझा जा सकता है। मृदुला जी की मानवीय संवेदना के उस आयाम तक पहुंचना जहां खड़े होकर वे मानवीय संबंधों को महसूस कर रहीं थीं, एक विशिष्ट दृष्टि के लिए ही संभव है। समाज का जो मानसिक अनुकूलन नैतिकता और अनैतिकता की सीमाओं में किया गया है उसे तोड़े बिना चित्तकोबरा को समझना असंभव है।

 स्त्री पुरुष का संबंध तमाम तरह की सामाजिक और परिवेशगत लक्ष्मण रेखाओं से परे होता है परंतु सामान्यतया वह इस रेखा के दरम्यान ही अभिव्यक्ति पाता है। यह जो विसंगति है यह प्रेम की वस्तुगत संवेदना को भौंथरा करती है, कुछ लोग हैं जो अपनी अनुभूति को भौंथरा बनने देने से इंकार कर देते हैं, मनु जो इस उपन्यास की नायिका है, वह इसी तरह की स्त्री है और तमाम सीमाओं के बीच अपने वास्तविक
प्रेम को जीने का स्पेस वह निकाल लेती है और इस स्पेस को उम्र के उस पड़ाव तक ले जाना चाहती है जब देह को प्रेम के परे मान लिया जाता है।




 मृदुला गर्ग का मानना है कि ‘‘जीवन को उसके समग्र और उदात्त रूप में जानने-पहचानने के लिए प्रेम से अधिक उपयुक्त माध्यम नहीं मिल सकता। जो लोग प्रेम के कथ्य को मात्र स्त्री पुरुष संबंध तक सीमित कर लेते हैं, वे साहित्य के प्रति और जीवन के प्रति भी अन्याय करते हैं या शायद अन्याय वे सिर्फ अपने प्रति करते हैं, जीवन की उस उदात्त धारा से अपने को काट जो लेते हैं, जो मनुष्य को उसके आदर्श रूप में उद्घाटित कर सकती है। प्रेम स्त्री पुरुष के बीच ही होता है पर मात्र उनके आपसी संबंधों की खोज प्रेम का कथ्य नहीं है। कम से कम मेरे लिए नहीं है; इस उपन्यास - चित्तकोबरा - में तो बिल्कुल नहीं। प्रेम के चैतन्य मनः समागम के अनुभव से गुजरते हुए दोनों पात्रों का जो आत्मोत्सर्ग होता है, उनके भाव-बोध में जो सूक्ष्मता, व्यापकता और गहनता आती है, उनकी संवेदनशक्ति जिस प्रकार प्रगाढ़ होती है, अपने चारों तरफ के घटित से जिस प्रकार वे एक दूसरे के माध्यम से पहले से अधिक घनिष्ठ तारतम्य स्थापित करता है, वही प्रेम का कथ्य है।’’1

चित्तकोबरा की मूल कथा एकदम अमूर्त है। इसके कथ्य को हमें संकेतों, और संवादों से ही समझना होता है। इसकी कथा में कुल जमा तीन पात्र हैं - मनु, रिचर्ड और महेश। इसके अतिरिक्त जैनी रिचर्ड की पत्नी, उसके तीन बच्चे, मनु और महेश के दो बच्चे, नाटक मंडली के कुछ सदस्यों का संकेत, मनु के परिवार के कुछ सदस्यों का खाने पर आने का संकेत और इसी तरह के कुछ अन्य इंसानों के होने का संकेत मिलता है।
इसमें मदर टेरेसा हैं, गाँधी हैं, मार्क्स हैं, जीसस हैं। ये सब हैं, परन्तु इनका होना सिर्फ मनु और रिचर्ड के होने से ही है। भौतिक रूप से जीवन्त पात्र इन दो के अलावा सिर्फ महेश है। इस उपन्यास में मनु का नाम लगभग 28 पेज पढ़ने के बाद आता है और रिचर्ड का नाम 74 पेज पढ़ने पर। जबकि ये सारे पेज सिर्फ दोनों के बीच घटित संवाद और घटनाओं से ही रंगे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि रिचर्ड और मनु के बीच का संबंध ‘स्त्री’  ‘पुरुष’ के बीच का संबंध है जिसमें दोनों की सत्तायें एक दूसरे से इतनी अभिन्न हैं कि उन्हें ‘नाम’ की आवश्यकता नहीं है।

मनु की पहचान ‘मनु’ के ‘होने से’ है, मनु नाम से नहीं, उसके लिए रिचर्ड का ‘होना’ उसके होने को महसूसना जितना मायने रखता है उतना उसका नाम नहीं। नाम की सार्थकता तब महसूस होती है जब वे एक दूसरे के करीब नहीं होते, तो नाम से ही एक दूसरे के होने को महसूस करते हैं।

चित्तकोबरा एक अनूठी और बेमिसाल प्रेम कहानी है। शायद हिन्दी साहित्य में तो दूसरी न लिखी गई और न आगे संभव दिखाई देती है। प्रेम दो प्राणियों के बीच ही होता है और वे प्राणी दैहिक भी होते हैं। देह के बिना चेतना का विकास संभव नहीं। प्रेम एक सशरीरी चैतन्य प्राणी का चेतना युक्त दैहिक अनुभव है।

लेकिन यहाँ मानसिक अनुभव और संवेदनाजन्य अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है, शरीर के संबंध उतने महत्वपूर्ण नहीं है। मनु का रिचर्ड के साथ ‘रहना’ बिना सामाजिक कुंठाओं के, बिना सामाजिक लांछनों के ज्यादा महत्वपूर्ण हैं न कि उसके साथ संभोग जन्य क्षण बिताना। वह बार-बार यह कहती है कि हम तीस वर्ष बाद मिलेंगे। साठ वर्ष की उम्र में ताकि कोई शंका न करे। हम निर्द्वन्द्व भाव से जैस चाहें वैसे रह सकें। यह समयातीत, शरीरातीत प्रेम की अनुभूति इस उपन्यास का कथ्य है।

‘मनु’ इस उपन्यास की नायिका है, मनु ही कथा वाचिका है। मनु के अनुभव और रिचर्ड के प्रति उसका अशरीर, अकुंठ प्रेम ही इस कथा को एक उच्चकोटी की प्रेम कथा बनाता है। प्रेम कैसे एक स्त्री को मुक्त करता है, उसे कैसे शरीर से ऊपर उठाता है, कैसे एक समयातीत अनुभव मे जीवन के सूत्रों का पकड़ने देता है। मनु के अन्दर कोई कुंठा, अवसाद, अपराधबोध, अनैतिकता का अनुभव नहीं है। वह रिचर्ड के प्रति अपने व्यक्तित्व को, चेतना को पूर्णतः समर्पित करती है उसके शरीर से आकर्षित होकर नहीं, उसके विश्वव्यापी मानवता को समर्पित व्यक्तित्व से आकर्षित होकर करती है। रिचर्ड का पूरा जीवन विश्व मानवता को समर्पित है। वह निहायत ही संवेदनशील व्यक्ति है, अपने संबंधों के प्रति ईमानदार।





मनु महेश के साथ सिर्फ शरीर बन जाती है, महेश के साथ सोने में, पार्टी में जाने में, खुद को सजाने में सिर्फ शरीर बन जाती है। विवाह एक शारीरिक कांटेक्ट है, प्रेम मानसिक, स्वयं के द्वारा निर्णीत, चुना गया चैतन्य विकल्प है। थोपा गया संबंध नहीं, कोई बाध्यता नहीं, कोई व्यवस्था नहीं, कोई नियम नहीं, स्वयं द्वारा अनुशासित, आत्मोत्सर्ग और सौन्दर्य के नए प्रतिमान रचता विकल्प है। उम्र, स्थान, शरीर और समय से परे का संबंध है मनु और रिचर्ड का प्रेम। मनु को इंतजार है उसके होने का, अस्तित्व का, मिलने का, समाचार का। इस पूरी प्रक्रिया में उसे रिचर्ड के साथ बिताए शारीरिक संभोग के क्षणों का इंतजार नहीं रहता।

मृत्यबोध, समय का बीतना, वर्षों का क्षणों में समाप्त होने की विकलता, साठ वर्ष का होकर एक साथ रहने की विकलता उसे तीस वर्ष कुछ पल की तरह महसूस कराते हैं।

‘‘बस तीस साल और फिर मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’
‘‘बस तीस साल?’’
‘‘बस।’’
तीस साल का क्या है। कुछ महीने ही तो होंगे।’’
‘‘हां। या कुछ हफ्ते।’’
‘‘हफ्तों में कुछ दिन।’’
‘‘या घंटे।’’
‘‘घंटों के मिनट।’’
‘‘या सैकिंड।’’
‘‘देखते -देखते कट जायेंगे।’’
‘‘हां, हर पल में कहूँगी.....रिचर्ड-रिचर्ड-रिचर्ड....एक पल में तीन बार और पल बीत जायेगा।’’ 2

यह संवाद प्रेम को सिर्फ संभोग तो बिल्कुल नहीं रहने देता। यद्यपि यह सच है कि बिना शरीर के प्रेम नहीं होता। प्रेम हवा में नहीं पनपता। उसका आश्रय और मूर्त रूप शारीरिक संबंध ही है। लेकिन महेश के साथ बिताए गए संभोग क्षण और रिचर्ड के साथ बिताये क्षणों के बीच जो मनु की अनुभूति है वह प्रेम और विवाह को बिल्कुल अलग-अलग कर देती है, यद्यपि दोनों में शारीरिक संबंध है। रिचर्ड का मनु के स्तनों को स्पर्श करना और महेश का उसके स्तनों के साथ खेलने के बीच मनु क्या सोचती है? कैसे स्वयं को अनुभव करती है? कैसे अपनी पहचान और व्यक्तित्व को पेश करती है? यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह रिचर्ड के साथ अपने होने को महसूस करती है और महेश के साथ सिर्फ शरीर का होना। यह जो अनुभूति है यही इस उपन्यास का कथ्य है। प्रेम इंसान के साथ उसकी इंसानियत के कारण होना चाहिए न कि उसके फिगर के साथ।

‘‘और लोगों का ख्याल है कि साठ-पैंसठ साल की उम्र में इंसान इंसान नहीं रहता।’’
‘‘वे कुछ नहीं जानते। कुछ भी नहीं।’’
‘‘बूढा  सिर्फ शरीर होता है, मन नहीं।’’
‘‘और उसे पाने के लिए तीस साल का इंतजार कुछ भी नहीं है।’’
‘‘बस चंद महीने।’’
...............................
तीस साल तक हम नहीं मिले तो वे निरापद हो जायेंगे। सोचेंगे अब डर नहीं रहा।’’3

 ठीक यही अनुभूति स्थान की दूरी के संबंध में है -
‘‘कम-अज-कम दस हजार मील दूर।’’
‘‘सिर्फ दस हजार मील। क्या है....बस कुछ मीलों का जोड़।’’
‘‘हां बस...कुछ मील....’’
‘‘या फलांग.....’’
’’बस चंद कदम।’’






यह स्थान और समय की दूरी को महसूस न करने की चेतना प्रेम को बिल्कुल नया आयाम दे देती है। अभी तक हम पढ़ते आ रहे थे ‘‘हार पहार से लागत हैं’’ या एक क्षण की दूरी जन्मों की दूरी लगती थी प्रेमियों के लिए। वृन्दावन से मथुरा की दूरी भी नहीं पाटी जाती थी। प्रेम अपने सम्पूर्ण मानवीय संदर्भों में यहाँ विद्यमान है। काल और स्थान, समय और स्पेस के बीच की यह आवाजाही चित्तकोबरा को बिल्कुल अलग आयाम प्रदान करती है।

चित्तकोबरा अपने लक्ष्य में एकदम स्पष्ट है पति-पत्नी का संबंध सिर्फ दैहिक संबंध है पर वह जायज इसलिए है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है…..पर उस देह के साथ जो चेतना है उसका क्या? उसे क्या चाहिए? इस प्रश्न का कोई जबाव इन परंपरागत संबंधों के पास नहीं है। चित्तकोबरा इस प्रश्न का समाधान है। जीवन जीने का एक अलग दृष्टिकोण है। जीवन की दैहिक और चेतनागत के बीच की खाई को पाटने का एक रास्ता है।
मनु और रिचर्ड के बीच मानवीय संवेदनाओं की वास्तविक समझ के कारण चेतनागत संबंध बनता है। चूंकि चेतना कोई वायवीय चीज नहीं है वह एक ठोस भौतिक यथार्थ है इसलिए दैहिक नजदीकी पाने की ललक और साथ बिताए गये क्षणों में सेक्स का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। देह के संवेदनशील स्थलों के स्पर्श के साथ जो अनुभूति गत अंतर महेश और रिचर्ड के बीच मनु अनुभव करती है उसके फर्क को नैतिकता की परिभाषाओं से नहीं समझा जा सकता। इस फर्क को न समझने के कारण है उपन्यास पर अनैतिकता के आरोप लगाये गये थे।
  मनु रिचर्ड के बीच जो रिलेशन है वह सामाजिक-पारिवारिक परिभाषाओं और सीमाओं से परे है। दरअसल यह उपन्यास जीवन और स्त्री-पुरुष के बने हुए सांचों को तहस-नहस करता है और संबंधों की अनपरखी संभावनाओं को प्रकट करता है। हमारी सोच की सीमाएं जो सामाजिक नैतिकता से बंध गई है और थोड़ी बहुत छूट के साथ उस डोर से बंधे रहने में ही सार्थकता पाती है, उससे बहुत आगे की और गुणात्मक रूप से भिन्न संबंधों को रेखांकित किया गया है।

मनु का जो एटीट्यूड है वह स्वच्छंदतावादी या अनैतिकता को मूल्य की तरह जीने का नहीं है। सच्चाई यह है कि उसकी अनुभूति और प्रेम को जीने की उत्कट भावोच्छलता में नैतिकता अनैतिकता की परिभाषा का कोई भी तत्त्व नहीं है। वह इन से परे है। उसमें विद्रोह नहीं है। न वह पारिवारिक नैतिकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए झंडा लेकर नारे लगाती है। वह महेश के साथ एक पत्नी की तरह रहती है चूंकि महेश एक पुरुष देह बनकर उसके पास आता है तो वह भी स्त्री देह मात्र बनकर उसे मिलती है। इसमें महेश को विलेन नहीं बनाया है। बस देह को स्पर्श करने के पीछे की फीलिंग को अलग दिखाया है यह फीलिंग जिसमें रिचर्ड की मानवतावादी जीवन दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मनु के जीवन में महेश और रिचर्ड एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं वह दोनों को अलग तरह से जीती है। महेश अपनी परंपरागत पति की भूमिका में हैं उसके लिए मनु एक पत्नी है उसकी दैहिक और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने का औजार। एक व्यक्ति इस खांचे से बाहर भी जीने की ख्वाहिश रखती सकता है, उस ख्वाहिश को मनु का जीवन अभिव्यक्ति देता है।
     चित्तकोबरा एक अलग स्पेस मुहैया कराता है जीने का। खांचाबद्ध जीवन से परे एक अद्भुत बेमिसाल जीवन। इसे इसी तरह जीने के लिए एक स्वतंत्र सोच और साथी की जरूरत होती है ।



डॉ संजीव जैन 


 संदर्भ
1. चित्तकोबरा मृदुला गर्ग की भूमिका से उद्धरित
2. वही पृष्ठ 93
3. वही पृ. 97
                             

डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज 
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553
सुदर्शन शर्मा की कविताएँ









”पीठ पर पहाड़”
 पीठ पर पहाड़ ढोते आदमीकी उपमा पढ़ कर
छुटपन से ही
मुझे हमेशा याद आयी
पिता की तनी हुई रीढ़

पिता की पीठ पर
ज्येष्ठ पुत्र होने के सम्मान में
अपने पिता से विरासत में मिला पहाड़ था

अपने पिता के जाने के  बाद
पिता ,पिता हो गये थे
जवानी की दहलीज़ के दोनों ओर खड़े छोटे बहन भाइयों के
पिता के काम पर से लौटने के समय
एक अघोषित व्यवस्था उतर आती थी
आंगन में

छोटा किताबों के संग
और बड़ा चारे की मशीन के हत्थे से जूझता मिलता
बहन पीतल की लिश्कती थाली दो बार पोंछती
अपने दुपट्टे से
और मां
घी से तर बूरा की कटोरी रखती
थाली में अंदर की ओर
जो कभी खाली नहीं हो पाती थी
और स्थानांतरित हो जाती
छोटे पढ़ाकू की थाली में

थाली पर बैठे
दिन भर की खबरों का जायजा लेते पिता
इतने पिता थे अपने अनुजों के
कि कभी आंख भर नहीं देखा
चूल्हे की लपट के आर पार
हल्के घूंघट में
जुगनू सी चमकती
एक जोड़ी आंखों को
कभी नहीं दुलारा
दादी की गोद में ऊंघती
पांच बरस  की गौरैया सी
बच्ची को
उस वक्त पिता की तनी रीढ़ पर रखा
भरकम पहाड़
साफ़ दिखता था मुझे

मगर देर रात चौपाल से लौट कर
तारों की ठंडक तले
जब घूक सोयी बच्ची की पेशानी चूमते पिता
तो रुई सा हल्का हो जाता था
पिता की पीठ का पहाड़

बहुत प्रकार के जादूगर आते थे
दादी की कहानियों में
पर पहाड़ को रुई में बदलने का जादू
आज भी सिर्फ पिता को आता है








प्रार्थनाओं से बचना

दुखों में बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना

प्रार्थना रत हथेलियों के बीच से बह जाता है
एक हिस्सा जुझारूपन
एक हिस्सा जिजीविषा

प्रार्थनाएं प्रमेय हैं
जो सिद्ध करती हैं
कि तुम्हारे स्व की परिधि से बाहर स्थित है
सत्ता का अंतिम केंद्र

प्रार्थनाएं तुम्हें कातर बनाती हैं
और तुम खो बैठते हो
जन्मसिद्ध युयुत्सा,
भूल बैठते हो
गर्भ की अंधकोठी की
मूक प्रतीक्षा,
विस्मृत कर जाते हो
गर्भ भेद नीति
चरण प्रति चरण

प्रार्थनाएं रोक लेती हैं
व्यूह द्वार पर तुम्हारा रथ
और तुम चाहने लगते हो
कोई और लड़े तुम्हारी ओर से

याद रखो
तुम्हारे दुख केवल तुम्हारे हैं
आदि से अंत तक

याद रखो
जिजीविषा के समानुपातिक होते हैं दुख,

हमेशा
याद रखो
प्रार्थनाएं तीसरा चर है
यह गड़बड़ा देंगी
दुख और जिजीविषा के समस्त समीकरण,

प्रार्थनाएं
खींच लेंगी पौरुष का समस्त ओज,
एक दिन
मान लोगे तुम स्वयं को
नपुंसक,
निर्बल तुम
भेंट कर दोगे
अपना मस्तक
एक दिन
दुख को

इसीलिए
दुखों में
बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना



“संकट काल”

 उन्होंने कहा,
'संकट काल है,
मजबूती से थामे रखना होगा,
अर्थों को,
अर्थ ही पहचान हैं तुम्हारी'

तुमने कहा,
'भूख'
उन्होंने कहा,
'क्षुध् धातु से बना है 'क्षुधा'
जिसका अर्थ है 'भूख'
तुम थाम कर रखो भूख को,
हम क्षुधा की निगरानी करेंगे'

उन्होंने तुम्हारे मुँह में नारे भरे
और कहा,
'संकट बलिदान मांगता है'

तुमने भूख को जकड़ लिया अंतड़ियों में,

जब तुम नारे उगल रहे थे,
वो धर रहे थे
भूख के सामने 'मंदिर-मस्जिद',
रोज़गार के सामने 'गाय-बैल-बकरा',
'राजद्रोह' को किया 'देशद्रोह' की सीध में
'सुरक्षा' को कहा 'डर'
'उदार' को 'भीरू'
और 'निरपेक्ष' को 'दोगला'

शब्द और अर्थ की नयी सारणी में
नसेनी के डंडों से जुते हो तुम,
तुम्हारे कपाल पर पग धर
चढ़े जा रहे हैं वे,
ऊपर और ऊपर

जो तुम्हें नहीं चीन्हता
शब्दों और अर्थों का यह असंतुलन,
तो निसंदेह शापित हो तुम
दब मरने के लिए,

छद्म शब्दों के अर्थों समेत
धम्म से आ गिरेंगे
वे
तुम्हारे ऊपर
एक दिन









भारी मांग

राजधानी से ख़बर आई है
गडरियों की भारी मांग है
सियासी हलकों में

हुक्मरान संजीदगी से पढ़ रहे हैं
भेड़ों का मनोविज्ञान

अफसर अंडर ट्रेनिंग सीख रहे हैं
एक लाठी से झुंड को हांकने का हुनर

भाषाविज्ञानी नज़रबंद हैं घरों में
और गढ़ रहे हैं
हुर्र हुर्र के नये पर्यायवाची

निज़ाम जानता है
भीड़ में तब्दील होता मुल्क
एक हुर्र से हांका जा सकता है
किसी भी वाद ,काद,फसाद की ओर




लोकतंत्र के कुछ दृश्य

 (दृश्य-1)

 निराला का भिक्षुक आता है,
मुंडी देख पता चलता है
आ रहा कि जा रहा,
(वरना -पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक)
हाथ में मिठाई का डिब्बा और धन्यवाद ज्ञापन है,
'लकुटिया'टेक तनिक हाँफता है,
फिर प्रशासन के चरणों में झुक जाता है,
"आप बचा लिए हूज़ूर.
पड़ोस के राज्य में
तीन सौ मर गए
फूड पाॅइज़निंग से"
खींसे निपोर कहता है
"अपने यहाँ तो न फूड
न पाॅइज़निंग"
प्रशासन पेट थपथपाता है,
चमचा समूह जयकार करता है,
कृतज्ञ लकुटिया मुड़ जाती है।




(दृश्य-2)

बहुत साल लग गए,
अब जाकर समझ आया,
राष्ट्र 'जन' नहीं
'तंत्र'में निवासित है,
'तंत्र' की भक्ति-
'राष्ट्र भक्ति'
'तंत्र' से विद्रोह-
'राष्ट्र द्रोह'।
आज़ाद मुल्क में आज़ादी की मांग-
दंडनीय,
माँग को जेल में ठूंस दिया जाता है,
(राष्ट्र) भक्त समूह जयकार करता है,
माँग की पीठ ज़ख्मी है।







(दृश्य-3)

आधे चेहरे पर धूप का चश्मा चढाए,
स्विम सूट में लिपटी/उघड़ी,
लोकप्रिय अभिनेत्री,
अपने बंगले के स्विमिंग पूल के किनारे
प्रेस कान्फ्रेंस कर रही है।
पानी की कमी से जूझ रहे लोगों का
साथ देने के लिए,
उसके तीनों कुत्तों ने आज शाॅवर नहीं लिया।
पंखागण जयकार करता है,
संवेदना पूल भर पानी में डूब मरती है।




(दृश्य-4)

ढाबे पर छोटू से पत्रकार पूछता है,
"आर टी ई सुना है?"
"नहीं" जवाब मिलता है।
"प्रौढ़ शिक्षा वाले साब ने मना किया हैसुनने को",
ढाबा मालिक सुरती दबाते कहता है,
"छोटू आर टी ई सुन लेगा
तो आने वाले समय में प्रौढ़ शिक्षा बहरी हो जाएगी,
आज का छोटू कल की प्रौढ़ शिक्षा का कान है।"
आंकड़े जयकार करते हैं,
धारा मटमैले पंखे से लटक
ख़ुदक़ुशी कर लेती है।
(पर्दा अभी गिरा नहीं है)



तंग घरों की औरतें

मेरे आसपास कुछ बेहद तंग घर हैं
जिनमें चलते चलाते
दीवारों से भिड़ जाती हैं औरतें
या शायद औरतों से भिड़ जाती हैं दीवारें

ज़ख़्मी औरतें छुपाती हैं
चेहरे, पीठ और बाजू पर उभरे
नील के निशान

कहती हैं
घर तो बहुत खुले हैं
उन्हें ही नहीं है
चलने का शऊर

मैं कहती हूँ
हौसले का एक धक्का लगाओ
खिसकेंगी दीवारें

औरतों के पांवों के नीचे नहीं है पर
टुकड़ा भर ज़मीन,
जिस पर पैर जमा
धकेल सकें
दीवारों को,
सांस लेने भर अंतर तक

मर्द हंसते हैं
जब मैं छोटी अंगुली के नख से खुरचती हूँ,
मर्दों के जूतों के तलों से चिपकी
घरों की ज़मीन

मैं कहती हूँ
सुनो!
इसमें एक हिस्सा औरतों का भी है।










स्त्री के भीतर की कुंडी

 एक स्त्री ने भीतर से कुंडी लगाई
और भूल गयी
खोलने की विधि
या कि कुंडी के पार ही जनमी थी
एक स्त्री

उस स्त्री ने केवल कोलाहल सुना
देखा नहीं
कुछ भी,

नाक की सीध चलती रही
जैसे कि घोड़ाचश्म पहने जनमी थी वो स्त्री
जैसे कोई पुरुष जनमा था
कवच,कुंडल पहने

दस्तकों ने बेचैन किया
तो सांकल से उलझ पड़ी वो स्त्री

इस उलझन पर बड़ी गोष्ठियां होती रहीं
पोप-पादरी
क़ाज़ी -इमाम
से लेकर
आचार्य-पुरोहित
ग्रह नक्षत्र
सब एकत्रित हुए

उन्होंने कहा
करने को तो कुछ भी कर सकती है
किंतु सांकल से नहीं उलझ सकती
 वो‌ स्त्री

उस स्त्री के भीतर की सांकल पर
संस्कृतियों के मान टिके हैं
और बंद कपाट के सहारे खड़ा है
गर्वीला इतिहास

उन्होंने कहा
ईश्वर को ना पुकारे वो स्त्री
वो नहीं आयेगा
क्योंकि एक स्त्री के भीतर की बंद कुंडी
'धर्म की हानि' नहीं है

इस समय
मैं भीतर हूँ उस स्त्री के
और जंग खायी कुंडी पर डाल रही हूँ
हौसले का तेल,

मैं सिखा रही हूँ
एक स्त्री को भीतर की कुंडियां खोलना

क्या आपको आता है
किसी स्त्री के भीतर जा कर
बंद कुंडियां खोलने का हुनर?


परिचय


सुदर्शन शर्मा

जन्म- 20 जून 1969
मूल रूप से पिंड मलौट, ज़िला मुक्तसर,पंजाब से।

शिक्षा -अंग्रेजी साहित्य और दर्शन शास्त्र में ग्रेजुएशन बठिंडा पंजाब से।
विवाहोपरांत राजस्थान में निवास और अंग्रेज़ी, हिंदी और शिक्षा में स्नातकोत्तर यहीं से।

कई सालों तक ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया (राजस्थान) में अंग्रेज़ी अध्यापन 
फिलहाल श्रीगंगानगर (राजस्थान) में निवास

पुस्तक - 'तीसरी कविता की अनुमति नहीं' पहला काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन , जयपुर से।

हिंदी पंजाबी की की कुछ पत्रिकाओं और कुछ सांझा संकलनों में में कुछ रचनाएं प्रकाशित।



साहित्य की बात समूह से प्रस्तुत कविताओं पर कुछ प्रतिक्रियाएं (एडमिन श्री  ब्रज श्रीवास्तव )



सुधीर देशपांडे 
प्रार्थना के सारे पुराने आग्रह तोड़ती कविता। मनुष्य को कातर और अपेक्षी बनाती प्रार्थनाओं को खारिज करना एक कतृत्ववान व्यक्तित्व के लिए संभव है।


शरद कोकास 
स्त्री के भीतर की कुंडी यह सुदर्शन शर्मा की बेहतरीन कविता है ।
घर के भीतर की कुंडी हम असुरक्षा भाव के तहत इस्तेमाल करते हैं । यह असुरक्षा भाव बाहर की दुनिया के भय और आतंक के फलस्वरूप उत्पन्न होता है ।
स्त्री के बाहर की दुनिया मे एक ऐसा ही समाज है जहाँ पुरुषवादियों द्वारा रचित मान्यतायें हैं , वहाँ धर्म का आतंक है ।
यह समाज मिथकों के सहारे अपना आतंक कायम करता है । जो मिथक उसके पक्ष में हैं वह उन्हें हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है । वह स्त्री को धर्म और ईश्वर के नाम पर भयभीत करता है । स्त्री को सुरक्षा के नाम पर दिया गया यह एक भुलावा है ।
लेकिन यह कुंडी तब तक नही खुलेगी जब तक स्त्री धर्म और ईश्वर के भय से मुक्त नही होगी ।

अनिल कुमार शर्मा 
सुदर्शन जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया । पिता की पूरी दिनचर्या ने पिता को जीवंत कर दिया,जीवन में मेहनत ,मशक़्क़त ज़्यादा फलदायक है प्रार्थना से ,बहुत सही कहा है सुदर्शन जी ।
आस्था कभी कभी इतनी बढ़ जाती है कि मेहनत से मिले परिणाम व पुरूस्कार को प्रार्थना से जोड़ ही दिया जाता है ।राजनीतिक व्यंग्य बहुत सटीक हैं ,
भीतर की कुंडी -अद्भुत कविता है

सौरभ शांडिल्य 
धूमिल की एक बहुउद्धृत पँक्ति है - कविता , भाषा मे आदमी होने की तमीज़ है ।

मैं इसे सूत्रवाक्य मानता हूँ एवं कविताओं में एक मनुष्य ढूंढता हूँ । कविता के फॉर्म में लिखी पंक्तियों में एक मनुष्य का हलफनामा दर्ज / दर्ज होता न दिखे फिर मैं कविता नहीं मानता |
सुदर्शन शर्मा की कविता में उपस्थित मनुष्य एवं मनुष्यता हमारे मनुष्यता से इत्तफ़ाक रखता है एवं निजी तौर पर मेरे आदमियत से जुड़ता है ।

इनकी कविताओं से गुज़रते हुए अग्रज कवि एवं आलोचक मणि मोहन मेहता लिखते हैं -

" सुदर्शन शर्मा की कविताओं को पढ़ते हुए उनकी संवेदनाओं पर शक करने की गुंजाइश नहीं रहती । एक महीन सी सार्वभौमिकता इन कविताओं और कवि को अपने समकालीनों से अलग  पहचान दिलाती दिखाई देती है । "

संध्या कुलकर्णी 
पिता पर लिखी कविता जहां एक ओर पितृसत्ता के टूल्स की ओर इशारा कर रही है वहीं ,दूसरीओर पिता की कर्तव्यों को ढोते पिता की मजबूरी भी समझ रही हैं , जो बिटिया की ओर ध्यान नहीं देने की ओर भी इंगित कर रही है , पिता की पीठ का पहाड़ अपनी थकान भी बिटिया के स्नेह में ही उतारता है , यह जैसे पिता एक उच्चासन पर विराजमान हो जाते हैं ।बेहतरीन उद्गार पिता पर ।
 प्रार्थना कविता में कवि प्रार्थना को दुख का कारण बताती हैं जो जीजिविषा के विरुद्ध ले जाती है व्यक्ति को , ओर जीवन जीने के जुझारूपन से न लड़कर व्यक्ति प्रार्थना में तल्लीन रहता है सत्य भी है , आध्यात्मिकता अक्सर सन्यास की ओर प्रवृत्त करती है , सब वृथा है केवल प्रार्थना के सार को ही समझने वाले दर्शन एक नकारात्मकता की ओर ले जाता है , दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि , कवि एक रिबेल करती हैं उस दर्शन के प्रति जो यथास्थितिवाद की ओर ले जाता है ।
तुम थाम कर रखो भूख को , हम क्षुधा की निगरानी कर्रेंगे    उस परिप्रेक्ष्य की ओर इशारा करती कविता है जो भूख की भी राजनीति कर अपने मंतव्य हल कर रहा है । न सिर्फ बल्कि , भाषा के नए नए व्याकरण रचती सत्ता को इंगित करते हुए सभ्यता को संचेतन करती सशक्त कविता है ।
 नाज़ीवाद की ओर बढ़ते कदम की सियासी दांव पेंच कीओर संजीदगी से संकेत करती कविता है , सुदर्शन जी के  पास शब्दों को बरतने का खूबसूरत हुनर है , जो अपने मंतव्य में स्पष्ट भी है और सफल भी , कविता अपने अर्थ को थाम कर चलती
 है ।
स्त्री विमर्श का वैशिष्ट्य लिए तंग घरों की औरतें  उस विद्रूप की ओर संकेत करती कविता है जो , खुद पर होने वाले घरेलू अत्याचारों को किस हद तक मुस्कुराते हुए झेल जाती हैं , जैसे स्त्री होना ही उनका दोष हो , अपनी लाचारी को अंत मे कविता अपनी ज़मीन की मांग रखती है , अच्छा लगता है , कविता जहां अपनी ज़मीन थामती है ।
स्त्री के भीतर की कुंडी , में कवि उन बंदिशों की बात कर रही हैं जिसमे आदि काल से स्त्री क़ैद है ,  संस्कृति के नाम पर जिनका दमन हुआ है , उसे इतना बंद रखा गया है कि , उन्हें खुली जंज़ीरों की कुछ खबर नहीं , उलझने का अर्थ चरित्र की बैसाखियों पर टेक दिया गया है । कवि , व्यंजना के बिम्बों  को बहुत कारगर तरीके से उतारती हैं अपनी कविता में।

 
बबिता गुप्ता 
एक से एक बढकर बेहतरीन कविताएँ पढने को मिली।' पीठ पर पहाड' में 'और स्थांतरित हो.....थाली में' सही कहा है, सबसे ज्यादा अपेक्षित सदस्य का ध्यान रखा जाता है, ऐसा अधिकांशत स्वेच्छा से ही होता है।सही हैं केवल प्रार्थनाओं से जीवन नहीं संवरता बल्कि निठल्ला बना देता है।'खींच लेगी पौरूष का समस्त ओज' चेतावनी देती पंक्ति। 'लोकतंत्र के कुछ दृश्य में' लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कटाक्ष  करते दृश्य।'तंग घरों की औरतें' और स्त्री के भीतर की कुंडी' नारी विमर्श कविताएँ जिसमें स्त्रियों पर लगाई गई बंदिशों में कैद वो निकलने को बेवश है पर कोशिश जरूर करती हैं,  'और जंग खाई. ...हौसले का तेल', बहुत ही प्रभावी लगी।शेष कविताएँ बहुत ही अच्छी लगी।


भावना सिन्हा 
पिता का त्याग बच्चों के जीवन के लिए मूल्यवान होता है-
पहाड़ को रुई में बदलने का जादू
आज भी सिर्फ पिता को आता है
पिता पर सार्थक पंक्ति ।

तंग घरों की औरतें
 औरतों के जीवन की मार्मिक कहानी है। आज भी स्त्रियाँ घर में  कमोबेश  नीले निशान के साथ जीतीं हैं  , अधिकार के साथ नहीं।
लोकतंत्र के  कुछ दृश्य- व्यंग्य में प्रभावित करते हैं ।

भाषा और भाव में  स्पष्ट



सुदर्शन जी की सभी बेहतरीन कविताएं ।
 संभवतः  ऐसा कोई कवि नहीं होगा जिसने पिता पर कविता न लिखी हो । पर इस कविता ने विशेष रुप से प्रभावित किया। सुदर्शन की कविता में पीठ पर पहाड़ लिए पिता के पास जहां पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के जन्म सिद्ध टूलस् देखने को मिलते हैं,वही एक ममतामई स्त्री का चेहरा भी देखने को मिल जाता है जो पहाड़ को रुई में बदलने का जादू जानते हैं। प्रार्थनाओं से बचना... अपने स्व की सामर्थ और ताकत पर अविश्वास करने जैसा है प्रार्थी के लिए।  गर्भ की अंध कोटरी की मुख प्रतीक्षा ... कविता की यह पंक्ति जीवन के आरंभ के उन संघर्षों की ओर इशारा करती है जिसकी धरातल पर जीवन खड़ा होता है। बहुत गहरे और व्यापक अर्थ में मैं इस कविता को देखता हूं।  संकटकाल, भारी मांग, लोकतंत्र के कुछ दृश्य, जीवन और राजनीति के बीच परस्पर संबंध और संकट की कविताएं हैं, जिन पर लगातार पर्दा डाला जाता रहा है पर पर्दा अभी पड़ा नहीं है। तंग घरों की औरतें  और स्त्री के भीतर की कुंडी  कविता पर शरद भाई ,संध्या जी व अन्य मित्रों ने बहुत ही बढ़िया टिप्पणी की। व्यवस्था प्रकृति जनित नहीं होती । हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था उन्हें विवश बनाती हैं । सुदर्शन जी ने व्यवस्थाओं के खिलाफ़ कुंडी खटखटाई हैं । दोनों ही उल्लेखनीय  कविता... पर मुझे इनमें से कोई एक चुनना होगा तो मैं तंग घरों की औरतों द्वारा घर की दीवारों को चुनौती देती स्त्री की कविता को पहले क्रम पर रखूंगा।

बधाई सुदर्शन जी।
बेहतरीन कविताओं के चयन एवं मंच पर साझा करने के लिए ब्रज भाई का शुक्रिया।


अखिलेश श्रीवास्तव
कवि सुदर्शन जी की कविताएँ अपने नखों से खुरच कर हडप ली गई जमीन पर नये सीमांकन की कोशिश में है उनके हिस्से की जमीन उन्हें नामांकित हो न हो, रकबा मिले न मिले पर  वो निशान जरूरी छोड़ जायेंगी । अगली पीढ़ी हो सकता है इसी निशान का सहारा ले आगे बढ़े और कोई हल न निकलने पथ पहले लकीर खींचे फिर दीवार की मांग उठा दे । यह हस्तक्षेप करती कविताओं का साहस है जो अपने उपेक्षा को उपेक्षित करते हुए पुरूषियां अटट्हासो के बीच अपनी हिस्सेदारी बताती है उसे उम्मीद कम है पर बात का पहुँचना महत्वपूर्ण है इन कविताओं से कुछ भी एकाएख नहीं ढहेगा पर दरकन की गुंजाइश बनेगी । स्त्री विमर्श कोई किरदार का रूप धर कर कवि की कविताओं में नहीं आया है वह लक्षित स्त्री की बात नहीं करता बल्कि वह सही और जड़ के मुद्दों की पहचान रखता है वह टुकड़ों में विमर्श नहीं करता, वह सम्रग को निर्देशित है विषय की समझ कवि से ऐसा करवा पाती है । विमर्श के नाम पर मुझ सहित बहुत से लोगों के पास स्त्री देह या उसके उथले मन की कविताएँ है पर सुदर्शन जी मूल पर काम कर रही है जहाँ हाहाकार नहीं है शांत सी कोई पंक्ति मुक्ति का राह बता देती है ।

उन्होंने अपना संग्रह मां को समर्पित किया है पर पिता पर लिखी कविता भी  बेहद अच्छी है अच्छा हुआ कि उन्होंने जयपुर में यह कविता नहीं पढ़ी वरना मेरी लिखी पिता शीर्षक कविता का श्रोता मिलना मुश्किल हो जाता । वो कविता पढने में भी सिद्ध है उनके समक्ष मैं भी पढ़कर गौरवान्वित हुआ । बहुत बधाई व शुभकामनाएँ ।


नीलिमा करैया
सुदर्शन जी की सभी  कविताएं भावनात्मक धरातल पर संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उसका  प्रतिबिम्ब है। वास्तव में  कविता सिर्फ मनोरंजन नहीं वह अभिव्यक्ति है ऐसी जो  पाठक  के समझ को परीक्षित करती है और इन्हें  सिर्फ  और सिर्फ  वही समझ सकता  है जो रिश्तों         की कद्र  करता हो।उन्हें समझता हो।और उन्हें  बनाए रखने  के लिए  मान अपमान से परे प्रयत्नशील रहे।
पहली कविता "पीठ पर पहाड़ "पिता के दायित्व को समझाती ऐसी ही कविता है जहाँ  पिता अपनी बेटी का माथा घूमते हुए अपने सारे उत्तरदायित्व से मुक्त  हो जाता है। कविता पर बहुत लिखा जा सकता है  एक एक पंक्ति पर।किन्तु मूल भाव यही है।
प्रार्थनाओं से बचना कविता  सचेत  करती हे अंधश्रद्धा से बचने के लिये जो हमारे  विकास  की सबसे बड़ी बाधा है ।जो हमारी कर्मठता को पंगु कर हमें  नाकारा बना देती है । कविता हमें स्वयं पर भरोसा  करने के लिये विश्वस्त करती है।
संकटकाल कविता बहुत   ही गंभीर  और काबिलेगौर कविता है।इंसान  इतना  स्वार्थी हो गया है कि अपनी तरक्की  और विकास  का सौदा कमजोर और असहाय  लोगों की भूख और जीवन से करता है ।यहाँ नैतिकता अपने सारे वजूद को खोकर दम तोड़ती नज़र आती है।
भारी माँग कविता  सामयिक दृष्टि से  महत्वपूर्ण व्यंग्य है, शासकों की कूटनीतिक व्यवस्था  पर गहरा तंज।
पूरी कविता प्रतीकात्मक शैली  में है ।राजनेताओं को ऐसे चमचों /दलालों  की जरूरत  है जो निरीह जनता  को  भेड़ की तरह हाँकने में  सक्षम हो ।
लोकतंत्र के कुछ दृश्य
इस कविता  के लिये  कुछ भी कहने में  हम समर्थ ही नहीं  शब्द  से परे ,चित्र लिखित यहाँ  आपकी लेखिकीय क्षमता को हमारा सिर झुकाकर नमन🙏🏻तंग घरों  की  औरतें
यह कविता चतुर्थ श्रेणी के बदहाली की कविता है और बहुत  जीवन्त ।आपकी शैली  और शब्द  संयोजन  चकित करते हैं  सुदर्शन जी।
स्त्री के भीतर की कुंडी बहुत ही बेहतरीन कविता  है। यद्यपि परिवर्तन दृष्टव्य है पर कहाँ ? यह तलाशने होता है ।
बेहतरीन  सृजन के लिये सुदर्शन जी को तहेदिल से बधाइयाँ और शुभकामनाएं
और उतने ही दिल से ब्रज सर का और साकीबा  का आभार

सुदर्शन जी की कविताओं को पढ़वाने के लिए आदरणीय एडमिन जी का आभार ।



प्रवेश सोनी 
तीसरी कविता की अनुमति नही ,संग्रह का नाम ही कवि मन की थाह देता है ।वो मन जो स्त्री विमर्श के ढोल ताशे नही पीटता ,पर जानता है उसकी गहराई ,और उसी गहराई में पैठ बना रचता है कविता ।

पिता के लिए उमड़ते हो भाव ,या प्रार्थना में जुड़े हाथों को लताड़ने ओर जिजीविषा को समझाने के अपने अपने अर्थ हो , कहीं भी बिना हिचक के अपनी बात पूरे वजन से कहती है कवि ।

बिंब की बुनावट कविताओं को अलग ही धरातल पर खड़ा करती है ।

राजनीति और जन की आवाज़ भी अछूती नही रही कविताओं में ।बड़ी अच्छी पकड़ विषय की ।

 यह तो बानगी है ,संग्रह की अन्य  कविताएं भी आपको पूरी ख़ुराक देने की काबिलियत रखती है ।
जरूर पढ़ें इन्हें ।



मुस्तफ़ा खान

पीठ पर पहाड़ - जिसके ऊपर घर की जिम्मेदारियों का पहाड़ आ लदे उसकी रीढ़ तनिक झुकी होगी सीधी नहीं । पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र का दर्जा पिता सम होता है हमारी संस्कृति में । उससे बहुतेरे त्याग की आशा रहती है जिसे वह पूर्ण करता है । अपने लिए भी कम ही जीता है वह । चाहे रहना ,खाना ,पहनना हो या दीगर जरूरी काम । कविता अपनी माटी की गंध से सुवासित है । बढ़िया लिखा-बहुत प्रकार के जादूगर आते थे/ दादी की कहानियों में /पर पहाड़ को रुई में बदलने का जादू/ आज़ भी सिर्फ पिता को आता है ।
2 ,प्रार्थनाओं से बचना - एक अलग तरह की कविता जिसके निहितार्थ व्यापक हैं । ये कमजोर बनाती हैं हम उनके भरोसे संतुष्ट,सफल रहने प्रतीक्षारत रहने लगते हैं । जबकि कर्म महान है भले सफलता अपेक्षित न मिले । और तुम चाहने लगते हो /कोई और लड़े तुम्हारी ओर से । सही है अपनी जंग खुद लड़नी चाहिए । कविता कुछ उपदेशात्मक,निर्देश देती लगी । मात्र प्रार्थना के भरोसे नहीं रहने का संदेश है ।
3, संकट काल - तुम थाम कर रखो भूख को /हम क्षुधा की निगरानी करेंगे । संकट बलिदान मांगता है । राजनीतिक व्यंग है कविता में । राजनीति जो जन को मुख्य मुद्दों से भटकाती चलती है 4, भारी मांग - बढ़िया कविता बढ़िया सामयिक व्यंग । निज़ाम जानता है /भीड़ में तब्दील होता मुल्क /एक हुर्र से हांका जा सकता है । हुर्र ,शब्द का बढ़िया प्रयोग ।
5, लोकतंत्र के कुछ दृश्य - अलग विषयों पर बढ़िया दृश्य पेश किए गए हैं।
6, तंग घरों की औरतें - स्त्री विमर्श की कविता जो सहती है पर कहती नहीं । मैं कहती हूं/ हौसले का एक धक्का लगाओ/ खिसकेंगीं दीवारें । ठीक आगाह करतीं हैं सुदर्शन ।
       कुल जमा सीधी सरल बात करती कविताएं हैं । भाषा पठनीय है बिंब बढ़िया कहीं अधिक विस्तार भी है ।
आभार प्रस्तुति व संचालन ।

हरगोविंद मैथिल
आज पटल पर प्रस्तुत सुदर्शन शर्मा जी की सभी कविताएँ पाठक के हृदय तल से होकर गुजरने वाली बहुत संवेदनशील कविताएँ हैं ।
पहली कविता पिता का बिल्कुल सटीक चित्रण करती है ।
दूसरी कविता प्रार्थना व्यक्ति को कर्म ही पूजा है की प्रेरणा देती है ।तथा कबीर की साखी
 पाहन पूजें हरि मिलें , तो मैं पूजौ पहार ।
या ते तो चाकी भली पीस खाय संसार की तरह कर्म की प्रधानता को रेखांकित करती है ।
शेष कविताएँ भी पुरकशिश लगती है ।
सुदर्शन शर्मा जी को बधाई और ब्रज जी का आभार. . .


ज्योति गजभिये 
सुदर्शन जी की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर स्थापित कुछ कड़वे सच हैं जिन्हें वे कुशलता से बयान करती हैं | कितनी आसानी से जिम्मेदारियों का पहाड़ एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जाता है और खुशी-खुशी इसे पहाड़ से रुई बनाकर निभाया भी जाता है |
प्रार्थना से ज्यादा जरूरी खुद पर भरोसा
संकटकाल सामयिक मुद्दों पर कड़ा प्रहार करती है
अपने भीतर की कुंडी खोल कर ही नयी दुनिया देख पाएगी औरत ।




 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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