Friday, December 22, 2017



कहानी: गंध 
अपर्णा अनेकवर्णा






गंध 
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सपनों की गंध नहीं होती.. या होती हो शायद, जो छूट जाती है नींद के उस पार.. साथ आती है बस तेज़ी से मिटती स्मृति. फिर कोई सपना देखा था उसने और इस बार पता नहीं कैसे बस गंध साथ थी.. और सब उड़ गया.. सिमट गया.. लौट गया अपने किसी खोह में.
गंध इतनी गुंथी हुयी थी किसी याद से.. खुलती गयी और भीतर कुछ बनता बिगड़ता रहा. अक्सर ठीक पहचान लेती है. बस कभी-कभी कोई एक चुनौती बनकर तन जाती है जैसे कोई ऐसा पहचान वाला हो जिसे हम जानते तो हैं पर याद नहीं करना चाहते. भूले रहना चाहते हैं. इस बाघ गंध की तरह.
पहली बार, बाघ, दिखा नहीं था.. दिखने से पहले एक तीखी गंध बनकर महसूस हुआ था उसे.. छह बरस की थी वो. उसने काका की ऊँगली कसकर पकड़ ली थी. मेले के छोटे से चिड़ियाघर से आती बेचैन आवाजें उसे बुला भी रही थीं डरा भी रही थीं. और फिर दिखा था उसे.. सुनी-पढ़ी कहानियों सा होते हुए भी कितना अलग. अपनी लम्बाई जितने ही पिंजरे में बेचैन डोलता हुआ.. किसी को देखने, डराने में दिलचस्पी नहीं थी उसकी.. लगातार हांफता हुआ वो उतनी सी जगह में घूमने जैसा कुछ कर रहा था.. थोडा निराश हुयी थी याद है उसे. बस एक, आँखों में चुभने वाली तीखी गंध ने घेर लिया था उसे. उसी गंध को बालों में लिए घर लौटी थी.. बेचैन गंध..
तो क्या बाघ का सपना देखा था? नहीं.. अभी कुछ याद नहीं आता.. जैसे कोई शब्द जो जुबान पर होकर भी वही घुमड़ता रहेगा.. बाहर नहीं आएगा. नहीं सोचना है उसे.. आना होगा याद तो आ ही जायेगा.
नयी गृहस्थी है और अकेले हैं दोनों.. पर जाने क्या है जो आ बैठता है उनके बीच. उस पूर्वोत्तर प्रदेश में उसे आये हुए एक महिना ही हुआ है.. शादी हुए सवा महिना.. मन अभी तक महानगरीय गति से ही धड़कता है. यहाँ एक दिन कब पिघला और दूसरा हुआ या दूसरा ही अभी भी पहला है.. पता ही नहीं चलता. नए परिवेश, नए मौसम, नयी ज़िन्दगी में ढल ही रहे हैं दोनों.. कभी साथ.. दो खोये बच्चों की तरह.. कभी अपने अलग-अलग द्वीप में अकेले.
‘चलो तुम्हें सबसे मिलवाता हूँ,’ उसको खिड़की के पास खोयी सी खड़े देखकर पति के मन में मोह जागा. जाने दृश्य में खोयी थी या खुद में. अब तक उसे सामने दिखती पहाड़ियां की रेंज याद हो गयी थी. किसी दिन सात दिखतीं.. जिस दिन सारी नौ दिख जातीं वो दिन वो बस यूँ ही खुश हो जाया करती. पहले दिन बादलों को खिड़की से झांकते, कमरे में भितराते देख कितनी खुश हुयी थी. बाहें फैलाये दौड़ती रही थी.. उनकी गंध नहीं थी.. या थी शायद.. बादलों सी.. धूप और पानी सी.. पर वो भी अब सीली सी लगती है.
उसने माँ से बात की थी.. और चिढ गयी. ऐसे लगा जैसे सब उसके ब्याह से बहुत खुश हों.. क्यूँ? क्या उसके जाने की इतनी ख़ुशी थी उन्हें.. ‘अरे, ये क्या बात हुयी भला!’ माँ के स्वर के तार बस ज़रा सा ही ऊपर नीचे लगे उसे. उसने याद करने की कोशिश की.. माँ की गंध. ठीक से कुछ याद नहीं आता.. लौंग सी.. कपूर सी.. या उबले चावलों के मांड सी. सुहानी सी सुकून भरी एक गंध जो माँ के धुले कपड़ों से भी आती है. बचपन में छुपन-छुपाई खेलती वो सूखने को पसारी हुयी साड़ियों के पीछे छुपती जानबूझ कर.. सांस भर लेती.. माँ की गंध.. अब नहीं आती..
क्रिसमस की छुट्टियों से सब उत्तर भारतीय परिवार लौटने लगे हैं.. वहां के भीषण ठण्ड से यहाँ की सुहानी धूप भली.. फिर सब मिलेंगे.. वही मुट्ठी भर लोग.. वही दावतें... गेट-टुगेदर.. जहाँ पुरुष एक कमरे में पेग के साथ तब तक जोर-जोर से हँसने का सफल अभिनय करते हैं जब तक वहां बैठा सबसे बड़ा अधिकारी मन भर कर नशे में ना आ जाए. पत्नियां दूसरे कमरे में सॉफ्ट ड्रिंक लिए कपडे, मैका, ससुराल, एक दूसरे के फिगर.. बच्चे.. स्मार्ट शौपिंग सेंस.. लोकल भाषा, खानपान सबकी नुक्ताचीनी करने में मस्त.. उसके पति ने कहा उससे. हँसते हुए, बेखयाली में सच बोल गया. उसका मन पार्टी में जाने से पहले ही बुझ गया. दोनों ने बात वहीं छोड़ दी.. जाना तो है.. वहां देखेंगे क्या-क्या होगा..
सब ठीक वैसा जैसा पति ने कहा था. उसने सबसे मिलते ही एक बार फिर वो अजनबी गंध महसूस की.. जिसमें कई गंध आ-जा रही थीं.. घाघ-पैनी गंध.. देह पर रेंगती गंध.. छूने को आतुर गंध. वहां से जल्द ही उसे जनाना गोल में पहुंचा गया पति. इस बार वो लगभग तैयार है. बातें शुरू हुईं तो बस चल पडीं. उस अपरिचय के बगूले में उसे ससुराल का पहला दिन याद आया. लगभग वही सांस-सांस नापता-तौलता माहौल. ‘आओ मेरे साथ किचेन में मेरी मदद करो..’ गृहस्वामिनी ने उसे उबार लिया. किचेन में खाने की खुशबू ने पहचाने नाम उकेरे मन पर. एक ही शहर का एकहरापन दोनों के बीच पनप उठा. खैरियत है, यहाँ है एक कोना जहाँ वो अपनी गांठे खोल सके शायद.
पूरी शाम, जो अब तक गबरू रात हो चुकी है, उसने सुना बहुत कम.. बोला उससे भी कम.
‘भाई, आपकी मिसिस तो बहुत शांत हैं. कहीं शरमा तो नहीं रहीं. यहाँ इस ‘गॉड-फॉरसेकेन’ जगह में हम ही हैं जो बार बार मिलते-टकराते रहेंगे,’ अपनी हर बात को कहकहे से शुरू ख़त्म करने वाले महाशय अब साफ़-साफ़ झूम रहे हैं.. खाना निपटते बहुत देर हो गयी. वो थकने लगी. एक साथ देखे-सुने सारे चेहरे एक में मिलने लगे हैं. अचानक उसने बहुत ऊबी हुयी नज़रों से पति की ओर देखा और दोनों उठ खड़े हुए. रास्ते भर वो ऐसे अधिकारीयों की ऐसी पोस्टिंग्स के बारे में पूछती रही. दस लोगों में से बस चार का परिवार साथ है.. बाकि के अकेले. पत्नी बच्चों को लिए महानगरों में रह रही है. और, अकेले कितने, कितने मेले हैं, कितने झमेले, ये एक अलग कथा.
उनके निकलते-निकलते भी कोई बात.. कोई चुप्पी.. एक आँख.. या शायद एक पहचानी सी गंध.. उसकी पीठ पर चिपकी चली आई. हलकी ठण्ड होते हुए भी उसने पानी गुनगुना किया और देर तक नहाती रही.. गंध जाती रही थी.
धीरे धीरे नया परिवेश उसकी आदत का हिस्सा बनता जा रहा है. भाषा, लोग, पहनावा, संगीत, समाज, धर्म सब अलग अनूठा अनजाना सा. रात के अँधेरे में जाने किस कोने से आती लोकगीत की कड़ियाँ.. साथ कोई डफ बजा रहा है. गीत की भाषा अनजानी पर लय की भाषा तो आदिम है. कुछ देर मन पर बजती रही. पलट कर देखा तो पति भी जागा हुआ.
‘वो देखो ऊपर, बहुत ऊपर, एक इंटरनेशनल फ्लाइट की रौशनी.’ दोनों खुली खिड़की से तारों भरे आकाश के एक ‘तारे’ को धीरे-धीरे पूरब की ओर बहते देखते रहे. ‘सोचो तो वहां हजारों फुट ऊपर लोग होंगे.. खा-पी चुके होंगे.. हम-तुम जैसे सो रहे होंगे. ऊपर उतने ऊपर, दूर कितने, वो दुनिया जिससे हम ज्यादा करीब से जानते हैं और अभी हम यहाँ नीचे इस जगह हैं जहाँ सब कुछ अनजाना पता नहीं कब से जस का तस. ये धुन कितनी आदिम’ उसे झुरझुरी से आ गयी. पति ने उसे बहुत हौले से खुद से लगा लिया, ‘तुम यहाँ बहुत अकेली हो गयी हो न. देखो कब तक वापस ट्रान्सफर का जुगाड़ बने. कहो तो कुछ दिनों के लिए अम्मा के पास छोड़ आऊं?’ ‘ना, मुझे कहीं नहीं जाना,’ वो कुछ पति में और बहुत कुछ खुद में सिमट गयी. उसे फ़ोन पर अम्मा का स्वर याद हो आया.. माँ की गंध कहाँ छूट गयी.. क्यूँ? रुलाई गटक ली उसने.
उस रात, उसने सपना देखा.. ‘वो एक अँधेरे अंधे कूएं में पड़ी है जहाँ से कुछ नहीं नज़र आता.. बस बहुत दूर ऊपर सितारे हैं.. जिन्हें उससे कोई मतलब नहीं.. अजीब किस्म के बोर हैं वो.. वो अकेलेपन की दहशत से काँप रही है.. बस उठ भी नहीं पा रही.. बाहर ऊपर कहीं एक बेचैन गंध है - बाघ-गंध.. मंडरा रही है.. और हांका के नगाड़े और शोर उस गंध को उस के और पास लिए आ रहे हैं.’ हांफती हुयी वो ना जागी-ना सोयी उस बोझ से लड़ती रहती है. बदन पर पड़े उस अनाम भार को उतार फेंकना चाहती है पर हिल भी नहीं पाती. पति की आवाज़ सुन रही है. समझ नहीं आता जागी है या सो रही है.
‘उठो उठ जाओ.. सपना है’. इतना पसीना उसे यहाँ किसी दोपहर नहीं आया और अभी भोर में देखो. पानी का गिलास नहीं पकड़ा जा रहा उससे. पति ने थाम कर अपने हाथ से पानी पिलाया, ‘क्या हुआ है? कौन सी बात है जो परेशान हो इतना? यहाँ से जल्द लौटेंगे’. उसे ग्लानि लपेट लेती है.. वो अपना चेहरा उसके कंधे में गाड़े सोचती है ‘कुछ करुँगी अब. आई शाल नॉट सकम्ब टू एनी स्टुपिड नोशंस..’
शनिवार की भोर है. पीछे की गली उसकी खिड़की से तीन मजिल नीचे है जो घूमते हुए जब तक उसके मकान के आगे पहुँचती है तो उसके मंजिल के सामने से गुज़रती है. पहाड़ों के मकान ऐसे ही होते हैं. जैसे एक के अन्दर कई सारे. नीचे झांककर लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार का जायजा लेती है. अभी सब खाली है. किसी ने एक बल्ब तार से जोड़ और जला कर पीछे उगे कटहल के पेड़ की निचली डालियों में टांग दिया है. उसकी रौशनी में सड़क के एक्के-दुक्के आने-जाने वाले, बड़ी और टेढ़ी-मेढ़ी परछाइयां मकान की पिछले दीवार पर फेंक रहे हैं. और दूर.. घाटी के पीछे सारे बादल नदी पर रात भर के लिए आ बैठे हैं. जैसे नदी को बिछा कर सो गए हों. अचानक उस चीख ने उसका ध्यान फिर से सड़क की और खींचा. ये क्या है?!! इतना बड़ा सूअर!! और वो उसे.. उसे मार रहे हैं. एक बड़ा सा काठ का हथौड़ा लिए ठीक उसके सर पर लगातार.. ओह! भय की गंध लहू के लोहे सी है..
पति का सहायक सिंघा मणिपुरी है. हिंदी अच्छी जानता है. बांग्ला उससे भी अच्छी. मणिपुरी, मिज़ो, अंग्रेजी मिलाकर कुल पांच भाषाएँ.. उसका आत्मविश्वास उसके उम्र और वहां के मुस्तकिल कर्मचारी होने की वजह से है. पति की पोस्टिंग कुछ साल की है ये वो अच्छी तरह जानता है और हाव-भाव मं हमेशा ज़ाहिर भी कर देता है. ‘मिमसाहेब, आप तो यहाँ परेसान हो जायेगा. आपको घर जैसा तो इधर कुछ भी नहीं. ये देस बहुत अलग है. मैंने देखा हूँ डिल्ली. यहाँ मन लगाओ.. लगेगा,’ उसने सूंघ लिया है शायद उसका उचटता मन. नहीं, वो ऐसी किसी चीज़ को पति की नौकरी के आगे नहीं आने देगी.. उसे कोशिश करना ही है.
शाम होते ही आकाश के अंधेरों को घटाते-बढाते दूर-पास घाटी-पहाड़ियों से आग की रौशनी फिर उनसे उठते धुयें की रेखायें.. ये रोज़ का सिलसिला है. ‘झुम’ करके पहाड़ साफ़ करना और खेती करना इनकी परंपरा.. पर साथ ही चर्च की घंटियाँ.. प्रार्थना के स्वर.. सब मिल कर ‘पैराडाइस लॉस्ट’ और ‘इन्फरनो’ के दृश्य उगा देते उसके मन में. वो खिड़की से पलट आती है. आज ऐसे ख़याल नहीं. आज उसने मन से खाना बनाया है. कैंडल नाईट डिनर प्लान किया है. पति उन्ही अफसर-मित्रों से मिल कर लौट रहा होगा. वो उसे सरप्राइज देगी आज. आते ही उसने उसकी ख़ुशी देखी.. ख़ालिस ख़ुशी.. खुद को इम्पोर्टेंस मिलने की ख़ुशी.. प्यार की ख़ुशी और उसने उसे माथे पर चूमते हुए ‘शुक्रिया’ कहा. उसके हाथों में एक बड़ा सा पैकेट पकड़ाते हुए वही शब्द दोहराया, ‘सरप्राइज.. मेरा भी’. पैकेट में किताबें.. ढेरों.. उस नहीं पढने वाले को खूब पता है उसे क्या पसंद है और उसने किसी कार्यालय की लाइब्रेरी से ये किताबें जुटाईं हैं. वो मुस्कुरा उठी.. वो मुस्कुरा उठा.. वो दोनों मुस्कुरा उठे. कमरे में ऑरेंज मोमबत्तियों की पकी सी खुशनुमा महक फ़ैलने लगी है. सब इतना बुरा भी नहीं. खासा अच्छा है इन फैक्ट. आँखें मूँद कर मुसकुरा रही है वो.. जैसे संतरे के फूलों से लदे बगीचे में एक पकी सी दोपहर की गंध जी रही हो.
इधर जितने बार भी वो उन एक सी गेट-टुगेदर में गयी उसने खुद को काफी सहज कर लिया है. अब किसी गंध के बारे में ना सोच कर उसे नियंत्रित किया जा सकता है.. वो सीख चुकी है. उसे पता है कितना कम बोलकर और ज्यादा मुस्कुरा कर काम चलाया जा सकता है. नयी सहेली भी अब पुरानी हो चली है और सहज भी. उसकी धारणाओं.. मतों को वो ध्यान से सुनती है पर परखती हमेशा खुद ही है. स्थानीय संस्कृति पर किताबें पढ़ रही है. वो घूम रही हैं मन में.
आज पार्टी में बस दो परिवार ही हैं. उसने सहेली से बाघ-मानव की किवदंती का ज़िक्र किया और धीरे-धीरे ऐसी ही बातों का सिलसिला शुरू हो गया. अक्सर चुप और अलग-थलग रहने वाले उस प्रशासनिक अधिकारी ने जो स्थानीय ही है.. आज कई कहानियाँ सुनाई. बचपन में उन्होंने ऐसे किस्से सुदूर गाँवों में घटे सुने थे.. जहाँ कोई आदमी जोग-टोना सीखता और दिन में मनुष्य और रात को बाघ बन जाता.. लोग जान नहीं पाते.. लौटता तो पास के झरने से नहा कर.. पर पत्नी को बेचैन करती उससे कभी-कभी आती तीखी बाघ-गंध. उस अधिकारी के विश्वास ने उसकी बात से ज्यादा माहौल भारी कर दिया. रात भी काफी हो गयी.. जिसे कभी बोलते नहीं सुना उसे इतना बोलते देखकर सब उसे कहने लगे, ‘भाभी, आपने कमाल कर दिया. आज आपने इसे बोलवा लिया.. क्या बात है.’ घर लौटते वक़्त हर अँधेरे मोड़ से उसने मुंह मोड़े रखा.
गर्भ के पहले चिन्ह उभरने लगे हैं. दोनों खुश हैं. पति नहीं चाहता वो यहाँ अकेले रहे. अब माँ बहुत याद आने लगी हैं और गंध ने फिर से सर उठा लिया है. कितने ही रूप में उसे घेर लेता है. सूखी मछली.. हरे अनाम साग, उबलते हुए पत्तागोभी.. मांस.. दाल.. अड़ोस-पड़ोस और अपनी ही रसोई से उठती हर गंध.. सबका भभका लगता है. उसके उबकाई के स्वर ने साथ के कमरे में भी खबर फैला दी है. सिंघा की पत्नी ने उससे पूछ ही लिया और खुद इतनी खुश हुयी कि उसे पहली बार एक अपनापा सा लगने लगा है.
अजीब से सपने फिर उभरने लगे हैं.. नए पुराने.. आधे-अधूरे.. सबका मतलब ढूंढता है मन.. भय, उम्मीद, चिंता, घबराहट, ख़ुशी, पति से दूरी और माँ से मिलने के दुःख-ख़ुशी के बीच जीती है. गोपाल मन्त्र रटती बस इन्ही ख्यालों में झूलती-टहलती रहती है. जल्द ही जाना है घर. ये सपने और ये गंध.. इनसे मुक्ति मिले शायद.. ‘ॐ देवकी सुत देहि मे तनयं.. कृष्ण त्वां अहम् शरणम् गतः’ हर सांस के साथ आते-जाते जल्द रट लिया है उसने.
कल की फ्लाइट है और बदस्तूर उसे विदा करने के लिए आज रात ये ‘सेंड ऑफ’ पार्टी. ये सात महीने और ये पार्टियां.. अब सब यंत्रचलित सा भी है और एक अजीब सी फमिलिअरिटी भी है. सब हाल-मिजाज़ पूछ लेते हैं और यहाँ घर से दूर उसे ये सब अच्छा लगता है अब. वही हर बार की तरह एक कमरे में जाम और दूसरे में महिला मंडली. परिचित सब और सब अजनबी.. बातें, हंसी, खाना, इंतज़ार और.. सबकी अलग से उठती और उसकी देह टटोलती नज़र.. जैसे आँखों ही आँखों में माप लेंगे पांच माह में उसके शरीर में हुयी तब्दीली को. कौन कितना पढ़ा-लिखा और कितना सभ्य है.. ये उसकी खुली और चोर नज़र से समझ आ जाता है. वो खुद में सिमटने लगी है. दोस्त ने भांप लिया, ‘सब तुम्हारी पसंद का बनाया है आज’. ‘अरे! थैंक्स.. बस ज्यादा कुछ खाया ही नहीं जाता’ हर बार कोई नयी गंध चिपट जाती है उससे..
आज कोई बड़ा अफसर नहीं.. सब हमउम्र ही हैं तो धीरे-धीरे सब साथ ही आ बैठे. पुराने रीति-रिवाजों. किंवदंतियों की बातें फिर छिड़ गयीं. वो आज भी हमेशा की तरह अकेला.. किनारे बैठा अकेले पी रहा है. उसने अक्सर दबे सुरों में उसके पीने की क्षमता के चर्चे सुने हैं. किसी ने उसकी पत्नी को नहीं देखा बस सुना है कि वो कोलकाता में रहती है. अक्सर बीमार अपनी बेटी को लेकर. उसका इलाज और पढाई वहीँ हो रही है. वो बोलता बहुत कम है पर उसकी नज़र सर चढ़ कर बोलती है. उसने अक्सर उन्हें महसूस किया है अपने चहरे पर मंडराते हुए.
कोई बहुत पुरानी गंध दबी होती है शायद सब में ही.. वो मिटती नहीं कभी भी. ज़हन में कहीं दुबक जाना.. पर्दा करना सीख जाती है. शायद और शातिर हो उठती है. चमकीले छद्म आवरण से ढकी बाहर आती है सब में ही. पर वो ऐसा नहीं. बोलता ही नहीं, क्या पता इसलिए कि बोलेगा तो सब सतह पर ही तैर रहा है.. झट बाहर आ जायेगा.. जस का तस.. और वो सबकी मुश्किल का सबब बन जायेगा.
आज फिर भी वो बोल रहा है. उसने किसी लोकगीत की धुन गुनगुनानी शुरू की है. उसे लगातार देखता हुआ.. उन बोलों के मायने नहीं जानता कोई पर कुछ बहुत गाढ़ा सा घुलने लगा है कमरे में.
लगातार उसे देखती उस दृष्टि ने अकेले उसे ही असहज नहीं किया. सब महसूस कर रहे हैं. ‘विश आई हैड माय गिटार टुनाइट’.. उसने रुक कर कहा और हंस पड़ा. रोती हुयी उदास हंसी. हर बात को समझना, उसे छांट कर किसी खास आले में दीमाग के डाल देना.. फिर उसे उसके हर आयाम से समझना.. जुगाली करना.. उसके रेशे-रेशे नोचना.. सब मज़े लेंगे फिर बाद में.
‘बहुत हुआ कप्पू.. यू हेड अ बिट टू मेनी फॉर द इवनिंग..’ ‘नो.. वन फॉर द इवनिंग.. वन फॉर द रोड.. एंड हा हा हा.. द लास्ट वन फॉर द डिच.. हा हा हा..’ उसने कहा. हंसी से आँखें मूँद लीं. कमरे में कुछ और आ बैठा है.. उन सबके बीच मंडरा रहा है. पहचान लिया उसने. बाघ-गंध है.. पीली चमकीली आँखों में डोलता बाघ.. बेचैन एक बंद कमरे में.. वो गंध इतने दिनों बाद आज फूट पड़ी है चारों ओर.. अचानक वो खड़ा हो गया और अपने डगमगाते क़दमों से उसकी ओर बढ़ा. ‘और एक आपके लिए माय लेडी.. फॉर आय विश यू वर माइन.. जस्ट अ विश.. प्लीज़ एक्स्क्यूस मी,’ उसने लडखडाती जुबान में बेहद उदास और संजीदा अंदाज़ में कहा.
सब सन्न हैं. किसी को होश भी नहीं कि कुछ सेकंड बीते हैं या एक काल पिघल गया. उसकी बेचैनी उसने पढ़ी या चुप्पी.. क्या पता. इससे पहले कभी कोई बात भी नहीं की.. पर आज उसके जाने के एक दिन पहले जाने क्या कह गया. ‘बाय.. थैंक्स फॉर द डिनर.. मैं अब जायेगा..’ वो कमरे से बाहर निकल गया.. पीछे छोड़ गया अपनी बेचैन बाघ गंध.. जो अब उसके बालों में रेंग रही है.. कितना कुछ अचानक हो गया..
वहां से खामोश ही घर लौटे दोनों. अपने बिस्तर पर ढह गयी. पति उसका सर सहलाता रहा और वो चुपचाप पड़ी रही. बहते आंसू भी नहीं पोछे उसने.. जैसे खुद को किसी एहसास से खाली कर देना चाहती हो. आज की शाम गूंजती रही, नाचती रही उसके सामने जब तक वो सो नहीं गयी.
हवाई अड्डे पर कोलकाता से आने वाली फ्लाइट का इंतज़ार करते समय उसने अपने पति को एअरपोर्ट मेनेजर से बातें करते देखा. दोनों उसकी ओर नहीं देख रहे पर कुछ तो हुआ है.
‘क्या हुआ?’ उसने पति से पूछा. ‘कुछ नहीं.. फ्लाइट आ गयी है. चलो सिक्यूरिटी के लिए’ उसने हाथ थाम कर उठाया. दोनों सिक्यूरिटी के लिए बढ़ गए. जहाज़ से उतर कर आते लोगों को लेने वालों में उसने एक परिचित लड़के को रोते देखा. वो तो उस अफ़सर का चचेरा भाई था या जाने ममेरा.. एक पीसीओ सेंटर का मालिक..
‘क्या हुआ है?’ पति की चोर नज़र पकड़ ली उसने, ‘बताइए न’. उतरे यात्रियों में एक.. मिज़ो है शायद.. औरत और साथ में एक १५-१६ बरस की लड़की उस लड़के से रोते हुए लिपट गए.
‘आप कहते क्यूँ नहीं..’ ‘तुम बैठ जाओ. बताता हूँ.. उसकी कही बात सच हो गयी कल रात. इतनी पी रखी थी उसने एक्सीडेंट कर बैठा कमबख्त.. गाड़ी लिए खाई में.. ओह!’ वो उसे देखती रही.. उसे पति की जगह कल रात का झूमता हुआ नशे में वाचाल बन बैठा एक उदास अकेला पुरुष दिखा जो उससे प्रेम कर बैठा था शायद. ‘लास्ट वन फॉर द डिच.. गुड नाईट माय लेडी..’
‘सुनो!’ उसने पति के हाथ पकड़ लिए.. ‘मुझे बाल धोने हैं अपने..’ एक गंध उसके बालों में उबलने लगी और उतरती हुयी उसे घेरने लगी.. वही पीली चिटकी हुयी बेचैन बाघ गंध..


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कहानी पर वाट्सअप समूह ,"साहित्य की बात" और "धागा " पर  आई प्रतिक्रियाएं 


अनिल अनलहातु: सर्वप्रथम तो अपर्णा जी को एक खूबसूरत अहसास और गंध की अद्भुत कहानी के लिए साधुवाद और बधाई । दूसरी बधाई इस कहानी के कथ्य के निर्वहन की निर्ममता के लिए , वरना इसी तरह के कथ्यों पर, आजकल के चालू स्त्रीवादी विमर्श के तहत लद्धड़ और आंसुढकेल कहानियाँ लिखी और सराही जा रही हैं ।
कहानी को पढ़ते हुए जैसा फ़ाक़ीर भाई ने कहा है , कि सहसा यह विश्वास नहीं होता कि यह लेखिका कि पहली कहानी है, शायद यह उनकी दृष्टि और जीवन की परिपक्वता का असर है ।इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे लगातार मंटो की कहानी "बू" और शेखर जोशी की "बदबू" जेहन मे घुमड़ती रही , उन्हीं कहानियों की तरह अपर्णा जी ने भी इस कहानी मे गंध का इस्तेमाल कहानी के वातावरण के निर्माण मे अद्भुत कलात्मक अन्विति के साथ किया है ।
कहानी मे यथार्थवाद की पहचान का एक टूल विभावना व्यापार होता है । हमारी बहुत सारी स्मृतियाँ किसी ध्वनि , गंध या दृश्य से correlate हो जाती हैं , बाद मे जब भी उस ध्वनि,गंध या दृश्य से हमारा साबका होता है , हमारा मस्तिष्क उस गंध, ध्वनि या दृश्य से जुड़े विगत की स्मृतियों को ताज़ा कर देता है ।इस कहानी मे भी गंध से जुड़ी हुई तमाम स्मृतियाँ हैं जो मौके बे मौके कथानायिका को अलग अलग स्मृतियों मे ले जाती हैं और कहानी के वातावरण को ज्यादा यथार्थपरक बना देती हैं ।
कहानी की भाषा बहुत ही चुस्त है, कहीं कोई बिखराव नहीं है और न अनावश्यक स्फीति । यही कारण है कि कहानी का प्रभाव बहुत ही सघन ,सांद्र और स्पर्शी है । सबसे जो मार्के कि बात है वह यह कि अंत अंत तक पाठक यह अनुमान नहीं लगा पाता कि क्या वाकई कथानायिका का उस मिज़ो अफसर के प्रति कहीं कोई नर्म कोना था भी या नहीं, और यही इस अद्भुत कहानी कि सफलता है. कुछ इसी तरह कि एक कहानी प्रियंवद की है जो शायद "फाल्गुन की एक उपकथा" मे संग्रहीत है, उस कहानी मे भी यह सस्पेन्स अंत अंत तक बना ही रह जाता है ।
इस तरह की प्रेम कहानियाँ (अगर यह प्रेम कहानी, इकतरफा ही सही , है तो ) लिखना तलवार की धार पर चलने के समान है. थोड़ा सा चुके नहीं कि ..........
रिमोट और निर्जन जगहों की उदासी और अवसाद का बड़ा ही सुंदर और वास्तविक चित्रण इस कहानी को कलात्मक ऊँचाइयाँ देता है । बाकी बातें प्रीत सर ने विस्तार से लिख ही दिया है , मैं उनसे पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ कि इस कहानी मे एक जबर्दस्त पठनीयता है और आप एक झपाटे मे एक लंबी कविता की तरह पढ़ जाते हैं ।अपर्णा जी को अनेकश: बधाई ।


राकेश पाठक: हमें कहानी हर मायने में अच्छी लगी..एक सम्पूर्णता जो पाठक को चाहिए वह है इसमें..यह बाघ गंध बेचैनी और नैराश्य का समन्वय लिये हर स्त्री जीती ही है...कुछ व्यक्त हो जाता है तो कुछ सदा के लिए अव्यक्त..यह अव्यक्त भाव ही जो बचपन से किसी कोने में सिमटा बैठा होता है ..स्त्री मन और मनोविज्ञान की बड़ी बारीक पड़ताल है इस कहानी में जो टूटा हुआ अव्यक्त रह जाता है हर स्त्री के अतीत में...यह बाघ गंध भी स्त्री का वही अतीत है...इस कहानी में बिम्बों, प्रतीकों, रूपकों सबका बड़ा ही संतुलित इस्तेमाल किया है अपर्णा जी ने...सच ही कहा है कहानी में की स्त्री का कोई कोना है क्या कहीं..?? एक माँ, एक पत्नी, एक बेटी हर रूप में स्त्री अपना कोना ढूंढती है पर उलझनों और जिम्मेवारियों के बीच उसे मिलता कहाँ हैं.. ? माँ की गरिमामय महानता उसकी कोना छीनती है तो एक पत्नी से उसका पति, या फिर बच्चे..बहुत वाज़िब सवाल की स्त्री का कोना कहाँ है..?? इस कहानी ने काफ़ी प्रभावित हुआ..ट्रेन में हूँ अतः लिखने में दिक्कत आ रही है ..इसलिये फिलहाल इतना ही..यह बताने के लिए काफी है कि एक अच्छे कहानीकार की संभावनाएं साकीबा ने बाहरी परिदृश्य को दे दिया है.


सुरेन सिंह: गन्ध कथा पर पूर्व में लिखी टीप , आज कथा के पुनः लगने पर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
गंध ...कथा ,पर कुछ कहने से पहले एक बात ये कहना चाहूँगा कि  ये अपर्णा की पहली प्रकाशित कथा है जिसे मैंने फेसबुक इनबॉक्स के बाद  निकट पत्रिका में पढ़ा था ।
इस  कथा में ये बात पक्की है कि पहली कथा का कच्चापन  नही है । लेखिका ने बड़ी सलाहियत और संवेदनशीलता से कथा को बयां किया है ।
इस कथा को पढ़ने पर पाठक का मन विविध नोशन्स पर काम करने लगता है ... जैसे जैसे कथा बढ़ती है .उसके मन में बाघ को लेकर जमे कई तरह के  प्रत्यय डोलने लगते है ...इनमे बाघ और आदमी के साहचर्य और एक दूसरे में कन्वर्ट होने के रस्किन बांड नुमा कथ्य , बाघ जो उद्दाम यौन क्षमता का प्रतीक है  , बाघ जो पोटेंशियल रखता है साथ ही उस पोटेंशियल की  बंधन युक्त लाचारगी (तुलना करे नाज़िम हिकमत के पिंजरे के शेर से जो कतई लाचारगी प्रक्षेपित नही करता ) , स्वप्न में  महसूस की गयी अंधकूप सी खोह और उसके ऊपर चमकते सितारों के मध्य वही बाघ गन्ध  की फील के  फ्रायडीय निहितार्थ , चूंकि बाघ गंध 6 वर्ष की उम्र से साथ है या कहे अवचेतन के निमार्ण काल से साथ है तो उस गंध के साथ  कोई यौनउत्पीड़न  के जुड़ाव का संकेत (...हालाँकि लेखिका ऐसे संकेत नही देती पर ये उपज सकता है पाठक मन में स्वभाविक रूप से )
इसके साथ ही नायिका का नए परिवेश से अपनी अन्तर्मुखीता के साथ तादाम्य और हिंदी पट्टी की शुचिता और उसपर संक्रमण से उपजा  अपराधबोध ..जिससे नायिका शरदचंद्रिय आंसू बहाती है और पति सर सहलाता है । अदिआदि ।
   
इन सब नोशन्स के एक साथ जागने पर जागरूक पाठक कथा की जटिलताओं से रूबरू होता हुआ कथा के मोटिव और लेखिका की लोकेशन और गेज़ की फीते से कथा को मापने ,नापने और आंकने  की  कोशिश करता है ।
 इस कोशिश में वो लेखिका की स्वर्ण हिन्दू मध्यम वर्गीय चेतना  की लोकेशन से उसके आस्वाद को परखते हुए कथा के मोटिव में निहित संवेदनशीलता को तो पाता है परंतु अपने समय के बोध की जटिलताओं को समझने की दृष्टि में कोई नया आयाम नही पाता ।
अब दूसरे पहलू से विचारने पर सबसे पहले गौतम याद आते है जो तथाकथित आत्मा (चेतना) के कम्पोजीशन को पञ्च स्कन्ध ..रूप,रस,गंध... से बना पाते है । अब इसमें आधुनिक अन्तर्मुखीता को जोड़ दे तो चेतना का प्रवाह जो प्रायः बाहर से भीतर की ओर है, में एक  व्यक्ति (नायिका)जब  अंतर्मुखी होता जाता है ,तब गंध,दृश्य और स्पर्श  जैसी संवेदनाये या इन्द्रिय बोध ... जो उसे बार बार उन विशिष्ट जगहों पर ले जाती है जहा से उसके अपने भीतर उतरने की यात्रा की शुरुवात की।कोई दृश्य आपको अपने भीतर बांधता है तो कोई आप को आपके ही भीतर बंध जाने को मजबूर कर देता है..... यही गंध और स्पर्श के साथ भी होता है ।कोई गंध विरक्त करती है तो कोई जीवन से भर देती है ............. तो पञ्च स्कंधों में से किसी एक को लेकर और उसके विस्तार ,विश्लेषण एवं सबलीमेशन को लेकर एक स्त्री पात्र के अवचेतन की खोह को छानने की प्रक्रिया को ये कथा पाठक के समक्ष इस भांति रखती है कि  पाठक ,सम्भवतः  निम्न तरह से विचार करने को उद्द्वेलित हो जाता है ...

बाघ गंध को लेकर कई मेटाफर और अपने अवचेतन से जुड़े कई आयामों पर पाठक सोचता रह जाता है ।

बचपन से इस बाघ गन्ध के अस्तित्व से नायिका का ही नही पाठक का अवचेतन भी प्रभावित होता है । एक साथ ही पाठक के मन पर पर कई विचार धावा बोलते है ...


जैसे फ़्रायड का स्वप्न सिद्धान्त    ,   रस्किन बांड नुमा आदम और  बाघ सहसंबंधी विचार ,  बाल यौन  शोषण संबंधी विचार ( हालाँकि फिर दोहराऊंगा कि लेखिका ने इशारा नही किया है इस तरफ पर वो उभरेगा ,ऐसा अनुमान किया जा सकता है  )  , कही कहीं शरदचन्द्रिय भावुकता को बाकि के कथा कांसेप्ट से एसोसिएट करने का विचार ...आदि आदि ।
एक छोटा सा तार्किक दोष जो दिखा ,हो सकता है न भी हो ...वो ये कि बचपन में अनुभूत बाघ गंध और वर्तमान की बाघ गंध में जो कोरिलेशन लेखिका बनाती है वह परफेक्ट नही है । क्योंकि एक वही प्रत्यय.. बचपन , वर्तमान स्वप्न , मिज़ो अफसर से विदाई , उसकी मृत्यु  की खबर  सब घटनाओ पर रेशनल तरह से तादात्मय नही बिठा पाता  ।
इस  भांति हम कथा के कई पाठ कर सकते है । लेखिका ने जो सोच कर लिखा ..जरुरी नही वैसा ही वो कागज पर उतरा हो । मतलब लेखिका का अपना भी पाठ होगा जो किसी पाठक से मैच कर भी सकता है और नही भी ।
  अंततः कथा लेखन कर्म के लिए  शुभकामनायें ..अपर्णा जी 💐💐 ,प्रवेश जी का शुक्रिया 🌸🌺

अनीता मंडा: गंध जब पहली बार साकीबा पर लगी थी तब भी ख़ासा प्रभावित कर गई थी, अभी 5-7 रोज़ पहले fb पर भी पढ़ना हुआ। मानव मन स्मृतियाँ संजोता हुआ, कहाँ किस चीज़ से क्या जोड़ लेता है यह एक यात्रा है। हम सब कहीं न कहीं इन्हें महसूसते हुए ही आगे बढ़ते हैं। नायिका का जीवन- संघर्ष या जीवन यात्रा  गंध के माध्यम से ही सामने आ रहा है, घटनाएँ बहुत कम हैं कहानी में, जो हैं वो भी बहुत सूक्ष्म, कहानी मन के धरातल पर अधिक चलती है, वो चाहे नये वातावरण से नायिका का घुलमिल पाने में सहज न होना, अकेलेपन का अवसाद। अपने पैतृक घर से दूर जाना, गन्ध के माध्यम से ही अतीत याद आना।
इस तरह से गंध शीर्षक एकदम वाज़िब है। कहानी की भाषा तो बहुत परिपक्व  है ही। घटनाओं का संयोजन, व माहौल का चित्रण भी सटीक है। परिदृश्य बुनने में तो कहीं कहीं निर्मल याद आ जाते हैं। ऐसा लगता है कहानी नाज़िल हुई है, कहीं भी सायास लेखन नहीं लगता।

अबीर आनन्द:  कहानी जिस इंटेंसिटी से शुरू होती है वह इंटेंसिटी अंत तक बनी रही. बहुत बड़ी बात है. कहानी ज्यादा लम्बी नहीं है पर उतनी छोटी भी नहीं है कि इंटेंसिटी बरकरार रखना आसान हो.
दूसरी बात जिसके लिए कहानी मुझे पसंद आई वो ये कि अपर्णा जी ने कविता की सी बुनावट और अपनी एक्सपेरीमेंटल मेधा को भी बरकरार रखा. कहानी है...इसलिए उसे अलग सा ट्रीटमेंट नहीं दिया. कुछ को यह शैली शायद अच्छी न लगे पर यह लेखक की अपनी चॉइस होनी चाहिए कि उसे क्या लिखना है और कौन सी शैली में लिखना है.

घरों से दूर ‘गॉड फोरसेकन’ जगहों पर बसेरा बनाने वाले अफसरों और उनके परिवारों का सटीक चित्रण है. दूर अँधेरे में बजते डफ की आवाज जिसकी भाषा अनजानी पर लय जानी-पहचानी है. नई पोस्टिंग में कुछ-कुछ ऐसा ही माहौल होता है. लगता है जैसे शरीर की पोस्टिंग हो गई हो पर आत्मा अभी वहीँ पुराने घर के आँगन में छूट गई है. इंटरनेशनल फ्लाइट की टिमटिमाती रोशनी और सूनेपन को भरने का प्रयास करते हुए अनमने से विचार कि हवाई जहाज में लोग सो चुके होंगे.
बहुत सारे वाक्य-विन्यास हैं जिन्होंने मुरीद सा बना लिया. बार-बार घूम-फिर कर उसी बात पर आने को जी चाहता है कि कविता की कल्पनाशीलता और प्रयोगधर्मिता का भरपूर लाभ उठाया गया है. यदि कोई आपकी कविताएं पढ़े बिना इस कहानी को पढ़े तो वह आपकी अगली कहानी की प्रतीक्षा जरूर करेगा (इंतज़ार अब भी है पर कविताओं ने पहले से एक आस जगा रखी है). लेखक की यह ललक बहुत पसंद आती है कि वह अपने सर्वश्रेष्ठ से इतर कुछ भी देने को राज़ी नहीं है.

माँ की गंध... लौंग सी, कपूर सी, या उबले चावलों के माड़ सी.. (अद्भुत)

हर बात को समझना, किसी ख़ास आले में डाल देना, हर आयाम से समझना, जुगाली करना, रेशे-रेशे नोचना (वाह).
कथन अच्छा है पर प्रवाह और किस्सागोई कहीं-कहीं पर खलती है. इसका एक कारण हो सकता है कि कहानी कहीं-कहीं धुंधली हो जाती है. कहानी के मूल-भाव से मैं बिलकुल सहमत हूँ पर मायके और बचपन के अतीत को, नायिका पर जिसकी गंध का काबिज़ हो जाना बिलकुल समझ में आता है, सही परिणिति नहीं मिलती. एक अलग सा ख़याल है किसी का नायिका पर मोहित हो जाना. ऐसे ही एक अलग सा ख़याल है बचपन की बाघ गंध का दबे रहना (पुरानी गंद दबी होती है, दुबक जाती है...पर्दा करना सीख जाती है (अद्भुत विन्यास)). बहुत आसानी से समझ में नहीं आता कि इन तीनों का आपस में बस इतना सम्बन्ध है कि ये अलग तरह की गंधें नायिका की स्मृति में, उसकी करवटों में घुल चुकी हैं जिनसे पीछा छुड़ाना कम से कम ‘गॉड फोरसेकन’ जगह पर तो संभव नहीं है. तीनों इवेंट्स नायिका की स्मृति में उबलती हुई परछाइयाँ हैं. यह सार समझना आम पाठक के लिए मुश्किल है. सच कहूँ तो पहली बार जब fb पर कहानी पढी तो मैं समझ ही नहीं पाया. आज दोबारा पढी और सुबह से घूम रही है...तब थोडा बहुत डेसिफर हो पायी है. इस धुंध को थोडा साफ़ करना एक बड़ी चुनौती है, ख़ास कर इसकी इंटेंसिटी से समझौता किये बिना. यदि ये धुंधलका हट जाए तो किस्सागोई और आकर्षित करेगी.
बहुत सारे डॉट-डॉट वाले, आधे-अधूरे वाक्यों वाले कथानक मेरी निजी पसंद बिलकुल नहीं हैं. संभव है किसी कहानी की किस्सागोई इस शैली से निखरती हो पर कम से इस कहानी में ऐसा नहीं लगता. एक ऊब सी होती है. हाँ, इन अधूरे वाक्यों का मनमाफिक प्रयोग करने में कोई दिक्कत नहीं है. एकबारगी लगा कि शायद इन वाक्यों की वजह से इंटेंसिटी जिन्दा रही हो. पर ऐसा नहीं है...जैसा कि अपर्णा जी की कुछ कविताओं में भी महसूस हुआ, इंटेंसिटी आपका नैसर्गिक गुर है. उसे इन विन्यासों की ज़रुरत नहीं है.



अलका प्रकाश: प्रस्तुत कहानी के कुछ अंश द्वारा इसके सूत्र को पकड़ा जा सकता है- भूले रहना चाहते हैं इस बाघ गंध की तरह।गंध को बालों मे लिए घर लौटी थी और कहानी के आखिर मे इस गंध से मुक्ति के लिए कथानायिका बाल धुलना चाहती है।अजनबी गंध में कई गंध आ जा रही थी।घाघ पैनी गंध ...छूने को आतुर गंध...देह पर रेगती गंध...एक पहचानी सी गंध....उसकी पीठ पर चिपकी चली आयी।गंध से पीछा छुड़ाने के लिए कथानायिका गुनगुने पानी से देर तक नहाती रही।बाघ गंध मडरा रही है।बदन पर पड़े उस अनाम भार को उतार फेंकना चाहती है पर हिल भी नहीं पाती। पर पत्नी को बेचैन करती उससे कभी-कभी आती तीखी बाघ-गंध।कोई बहुत पुरानी गंध दबी होती है शायद सब मे ही।कथानायिका तीन बार बाल धुलना चाहती है,जो बाघ गंथ से मुक्ति का प्रतीक है।यदि यह प्रेमी की गंध होती तो कथानायिका इससे मुक्ति का प्रयास नहीं करती।प्रेमी-युगल तो इस अहसास को बनाये रखना चाहते हैं ।
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कथाकार अपनी कथा-नायिका के मुख से गोपाल मंत्र का जाप करवाती हैं, जो कि हरिवंश पुराण से लिया गया है और इसका जप पुत्र-प्राप्ति हेतु किया जाता है।जाहिर है,यह प्रगतिशील या स्त्री -विमर्श की कहानी नहीं है,जहाँ होने वाले बच्चे के लिए हरिवंश पुराण का मंत्र जाप किया जा रहा है।स्त्री -दृष्टि अवश्य है,जहाँ एक माँ भावी शिशु की रक्षा हेतु प्रयास कर रही है।
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 इस कहानी को पढ़ते हुए स्वदेश दीपक जी बहुत याद आये।उनकी "किसी एक पेड़ का नाम लो"या शब्द शब्द शब्द कहानी मे इस तरह का ट्रीटमेंट है।निर्मल वर्मा जी के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता।आदरणीय दूधनाथ सिंह की रीछ कहानी की तरह इस कहानी में पति के अंदर से भी वही बाघ गंध आने लगती है।
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उस ऑफिसर की मृत्यु के बाद शायद कथानायिका इस बाघ के गंध की ग्रंथि से मुक्त हो जाय।यही इस कहानी का प्रस्थान बिंदु है।मुझे यह कहानी बहुत अच्छी लगी।फ्रायडीय काॅम्प्लेक्स और बाघ की गंध का मंतव्य यही है कि पहले भी कथानायिका का कोई चाहने वाला था,जिसने कुछ गलत  किया था।....और देह पर भार महसूस करती नायिका यदि हिल नहीं पाती तो किसी जबर्दस्ती की तरफ इशारा है।कहानी के जानकारों से यह बात छुपी नहीं रह सकती कि ऐसी कहानी पहले भी लिखी जा चुकी है।यदि अपर्णा जी अपनी कुछ और कहानियाँ प्रेषित करें तो उनके कथाकार रूप के प्रति एक मुक्कमल धारणा बन पायेगी।बहुत -बहुत बधाई।।

मधु सक्सेना: पहले भी पढ़ी ... आज फिर पढ़ा तो लगा जो पहले छूट गया था आज उसे भी पा गई ।हरवाक्य महत्वपूर्ण है और कोई अर्थ लिए हुए ।कहानी नायिका के ही चारों तरफ घूमती बहती है ।मन की विकलता गन्ध के रूप में उभरकर आती रहती है ।
लेखिका ने जिस गहराई से इसको रचा है उतने तक पाठक पहुंच पाया ये भी सवाल आ जाता है ।
एक मन को बांध कर उस पर शोध किया हो मानों और कहानी बहने लगती है ।गन्ध का अर्थ बार बार किसी घटना से जोड़ता है पाठक . .. पर गन्ध तो घटनाओं का समुच्चय हो जाता है ।जितना दिखा उतना ही छुपा ।अपनी पाठकीय दृष्टि का समुचित उपयोग करवा लेती है ये कहानी पाठक से ।
बेहतरीन लिखा अपर्णा
अगली कहानी के इंतज़ार में ।




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