Sunday, February 18, 2018

पड़ताल: कहानी , बीते शहर से फिर गुजरना 

  तरुण भट्नागर




संध्या कुलकर्णी

तरुण की जितनी भी कहानियां पढ़ीं उन सभी में वो एक जादुई यथार्थ सा रच देते हैं ,उन्हें पढ़ते हुए मार्खेज और निर्मल वर्मा की लेखनी का जादू याद आता रहता है ।कहानी गुज़रते हुए पूरे समय की अंतर्ध्वनि के प्रति एक व्यंजनात्मक शब्द और दृश्य और साथ ही श्रव्य प्रतिध्वनि के रूप में चलती है ।पूरी कहानी एक चलचित्र के रूपक बतौर नाटक के मस्तिष्क में फेंटेसीपरक शैली में नायक की स्मृति के साथ चलती हैं ।प्रत्यक्षत: यह कहानी शहर से गुज़रते हुए शहर की बारीक स्मृतियों के साथ व्यक्तिबोध को उकेरती चलती है।पीछे छूट गया सा कुछ स्मृतियों में चाहे हेज हो या एक बेंच या ट्रेन की बर्थ हो ....या खिड़की से बाहर दिखता प्लेटफार्म या वहां की कोई गली या कोई सड़क जीवंत हो उठती है ।कहानी हिंदी कहानी के पारंपरिक नायक नायिका की छवि से मुक्त है किसी तरह का पूर्वाग्रह दिखाई नहीं देता ...

यूँ भी भारतीय दर्शन आत्मतत्व को प्रतिपादित करता है ,कहानी में आत्मतत्व प्रबल है ।प्रेम यहाँ रूड अर्थ में उपस्थित नहीं है।यहाँ प्रेम स्वयं की खोज और प्राप्ति की ऊहापोह में उलझा सा प्रतीत होता है ।कहीं कहीं पढ़ते हुए धैर्य छूटता सा है .....लेकिन फिर फिर थाम ही लेती है कहानी ।


अबीर आनन्द

कई दिनों से सोच रहा था कि तरुण जी की कहानियाँ पढूँगा, इधर-उधर से रेफेरेंस मिलता रहता है पर आजकल जनवरी-फरवरी वाला आलस हावी है। हर महीने के आलस का अलग कारण होता है।

बिम्ब और प्रतीक कहानी के पात्र बन जाते हैं और इस कण्ट्रोल के साथ बनते हैं कि मन पूछता है कम से कम लड़की का नाम तो कहीं लिखा होगा। पूरी कहानी सिर्फ प्रतीकों की कहानी है और पात्र दूर खड़े जैसे सुचालित होते हैं सपने की मौत से, ट्रेन की परछाइयों से, अलार्मिंग डॉग से, रिलेटिविटी से। जिन्हें हम आदमी कहते हैं उनके नाम तक की अहमियत नहीं रह जाती। प्रतीक इस कदर हावी हो जाते हैं कि कहानी को पढ़ना एक आटोमेटिक प्रक्रिया के तहत होता है।

मुझे नहीं मालूम कि तरुण जी ने ऐसा जान बूझ कर किया है या कहते-कहते हो गया, पर वे कहानी को पात्रों के चंगुल से उखाड़कर ले जाते हैं और उन बेजान चीजों के हवाले कर देते हैं जो प्रेम के गुजर जाने से खंडहर नहीं हो जातीं। मेरी समझ से प्रेम का ताना-बाना एक मुखौटा है जिसकी आढ़ में प्रेम की अवधारण को ही तितर-बितर कर दिया। ऐसा लगा कि प्रेम कुछ भी नहीं है। वे सब चीजें जो एक ‘डेट’ को ‘प्रेम’ में बदल देती हैं – छतनार की पत्तियों से छनती हुई धूप, घर की बालकनी, कॉलेज की कैंटीन, काफ्का और न जाने क्या-क्या....ऐसा महसूस होने लगा कि प्रेम एक बहुत ज्यादा ‘ओवर-रेटेड’ कांसेप्ट है। दरअसल दुनिया में मायने खोजने के लिए इस घने पागलपन की कोई ज़रुरत है ही नहीं। वे लोग मूर्ख हैं जो कहते हैं कि ‘प्रेम के बिना जीवन नहीं जिया जा सकता’। मैं भी थोड़ा पारंपरिक से खयालात का हूँ पर अब लग रहा है कि स्वच्छंदता में जितनी क्रिएटिविटी है उतनी बंदिशों में नहीं है।

न कहानी का विषय नया है, और न ही इसे बहुत अलग ट्रीटमेंट के साथ लिखा गया है; इसके बावजूद यह जरूर सीखने को मिला कि किसी विषय को कितना खुलकर देखा जा सकता है। और यह कि कहानी को अलग धरातल पर कैसे ले जाया जा सकता है। पूरा विश्वास है कि तरुण जी ने सिर्फ एक प्रेम कहानी ही लिखनी चाही होगी – एक आम सी कहानी जिसमें उनके अपने अनुभव अपनी शैली के साथ हों। पर यह एक प्रेम कहानी से कहीं आगे की कहानी बन गई है। दरअसल यह प्रेम कहानी है ही नहीं। उफ़! बहुत कुछ समझा देती है कहानी।

मुझे उम्मीद है, पाठक इसे प्रेम कहानी के परे पढ़ने का प्रयास करेंगे। सचमुच जादुई अनुभव रहा तरुण जी को पढ़ने का।



सुरेन सिंह 

बीते शहर से फिर गुजरना तरुण जी की दूसरी कहानी है जो आज पढ़ी इससे काफी पहले  चाँद चाहता था कि धरती रुक जाए पढ़ी थी और उनके कहानीकार को एक पाठक की तईं एक वाह से भर गया था । बस्तर के आदिवासी जीवन को लेकर लिखी गयी इस कथा के अराजनैतिक कलेवर के होने को लेकर हंस में एक बहस छिड़ी थी जो कमोवेश फिर स्मृति में तैर गयी  । 

बीते शहर से फिर गुजरना की  जहाँ तक बात है तो पहली प्रतिक्रिया जो उभरती है पाठकीय मन मे  . . वो है कहानी का निर्मलीय ट्रीटमेंट होते हुए भी उसका तरुणत्व  लेखक बचा ले जाता है ,जो अच्छा लगता है और कथा अपने लास्ट इम्प्रैशन में पाठक मन  में स्मृति , विस्थापन , कसक , विह्वलता ...आदि के कोलाज  को इस तरह प्रतिस्थापित करता है कि उसकी सम्वेदनाएँ    क्षीण होने में एक पूरा भरापूरा अंतराल लगे । 

कथा एक साथ वर्तमान , स्मृति और विस्थापन को लेकर  चलती है और एक वर्तुल बनाकर कई दृश्य और उनकी कसक छोड़ जाती है । मोनोलॉग शैली में कहानीकार कई बार अतिकथन का शिकार होता है और कथा का पूर्वार्ध उतना कसा बंधा नही रहने पाता । परन्तु पाठक कथा में पिरोई गयी काव्यात्मकता से बहाव पाता है और उसके कंटेंट में जगह जगह आई  एनालोगिस से पाठ्यता में उत्प्रेरण । 

एक बात जो खटकती है वो है अंग्रेज़ी के जो वाक्य पात्र इस्तेमाल कर रहे है वे कई जगह ग्रामेटिकली गलत है और पात्रों की प्रास्थिति के अनुकूल नही लगते । जबकि तरुण जी कथा में भाषा के प्रांजल होने को लेकर काफी सचेत दिखाई पड़ते है । 

जैसा कि ऊपर अबीर जी ने लिखा कि कथा का विषय नया नही है न ट्रीटमेंट  पर किसी विषय को कितना खुलकर देखा जा सकता है .... इसमे एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि कथाकार कैसे एक अंतरंगता भी स्थापित करता है  और उन्ही के शब्दों में एक प्रेमकथा होने मात्र के टैग से बंधी होकर भी मात्र प्रेमकथा नही रहने पाती .... 


अंततः एक सुंदर कथा पढ़वाने के लिए प्रवेश जी का शुक्रिया और तरुण जी से आग्रह की और कथाओं से हम लोगो को रूबरू करवाएंगे ।



अपर्णा अनेकवरणा

मुझे कल से ही 'स्ट्रीम अॉफ़ कॉन्शेसनेंस' तकनीक की याद दिलाती रही ये कहानी। एक ही व्यक्ति के thought process और internal monologue से ही पूरी कहानी कही गई है। यहाँ किसी भी अन्य पात्र की बात या कोई भी संवाद न के बराबर है। ऐसा करते हुए कथा की लोच को बनाए रखना और अपनी बात को एक लॉजिकल अंत तक ले जाना, लेखक ने दोनों को सफलतापूर्वक निभाया है। ये तरुण जी की पहली कहानी पढ़ रही हूँ और बहुत मुतासिर हुई हूँ।


दूसरी बात है कहानी की लंबाई जो मुझे कतई बोझिल करती नहीं लगी, बल्कि एक बीते कल की अब तक जीवित संवेदना को एक roller coaster की तरह दूर पास से दुबारा जीते दिखाने के लिए एक प्रर्याप्त समय देती लगी जिसमें ये complex emotion धीरे धीरे खुलता है।


कहानी की शुरुआत कुछ बिखरी लगी जो पुनर्पाठ में बेहतर लगी। पर कहानी आगे बढ़ते ही जो लय पकड़ती है वो संतुलन बनाए हुए अंत तक बनी रही। एक urban और आधुनिक mindset की अभिव्यक्ति relatable लगी।




सौरभ शांडिल्य

"उसकी थोडी पर एक तिल है। मैंने उस तिल को छुआ है। मैंने सोचा है, आज मैं उस तिल को अपने होठों में दबा लुंगा"

इन पंक्तियों से तय किया कि कुछ है जो सच है, जिसका स्तित्व है। मुझे एक सच की दरकार है जिसपर केंद्रित हो कर लिखा जा सके। देह विहीन प्रेम जिलजिला प्रेम है, ऐसे प्रेम का न जाने क्या भविष्य है? इन्हीं पंक्तियों से कहानी पढ़ते हुए बतौर पाठक मेरी ग्रिप बनी।

प्रेम में हम पूरी पृथ्वी पर अकेले रहते हैं। सब को आइसोलेटेड करते हुए हमीं दो रहते हैं फिर हम मॉल में हों या कि कॉलेज में। लोकेल का चित्रण नहीं जानता कितना सच्चा है पर तरुण जी ने ऐसा लिखा जैसे मैं (भी) उस स्थान से परिचित हूँ।

'समय : एलार्मिंग डॉग या शिकारी' उपशीर्षक बहुत मज़बूत है पर न जाने क्यों उसके नीचे लिखा गया हिस्सा कमज़ोर लगा। असंख्य 'क्योंकि' और बहुत से 'बेमन' मिलकर गति क्रिएट करते हैं। बहुत सी गतियाँ मिलकर समय का एक टुकड़ा। डिपेंड करता है कि वह टुकड़ा कैसा है वही समय के कुत्ते या शिकारी होने को तय करते हैं।

प्रेम में प्रेमी प्रेमिका अपने होने के इतर भी सुविधा के अनुसार काल्पनिक रिश्ते बनाते बिगड़ते रहते हैं यह कितना सामान्य है यह सोचने की बात है। फिर एक तथ्य यह भी है कि प्रेम छुपता नहीं आप इसे चाहे जिस रिश्ते का नाम दे दें। एक न एक दिन कोई बूढ़ी की पारखी नज़रें सच की टोह ले ही लेंगी।


हर प्रेम के सुखद क्षणों से कभी बाहर नहीं निकल पाते। उन स्मृतियों को रोज़ ब रोज़ जीते हैं, भले यह जीना - जीना प्रत्यक्षतः दिखे न दिखे।

यदि कहानी के शीर्षक से बना और अंतिम से ठीक पहले के उपशीर्षक वाले हिस्से को आख़िरी में भी रखें तो कहानी थोड़े सम्पादन की मांग करती है और उसके बाद एक क्रम बन जाएगा।


कहानी की भाषा ने कहानी पर पकड़ बनाए रखने में बहुत मदद की है। कहीं कहीं ज़्यादा लगा मुझे, लंबे समय पर लेकिन एक शानदार कहानी पढ़ी।





कहानी यहाँ पढ़े





Wednesday, February 14, 2018


कहानी: तरुण भट्नागर

 बीते शहर से फिर गुजरना 💟

तरुण भट्नागर

💟         


          सपने में मौत का मतलब
     
        उसका खाली कमरा,वार्ड रोब में लटके उसके कपडे स्कर्ट,पायजामा, सलवार,जींस.....,बिस्तर के नीचे रखे उसके सैंडिल,दीवार पर टंगी उसकी खिलखिलाती फोटो,खिड़की में लटके हल्के नीले रंग के वर्टिकल ब्लांइड्ज जो उसने कुछ दिनों पहले अपनी पसंद से खरीदे थे,फ्लावर पाट में लगे उसके पसंदीदा कारनेशन के पीले फूल...बुक शैल्फ में उसके फेवरेट ऑथर्स की किताबें ऑर्थर हैले,एमिली ब्रोंट्स,.....मेरे से बहस और फिर मान जाने के बाद भी उसने कभी हेमिंग्वगे या काफ्कां नहीं पढा,जब भी उससे कहता उसका एक सा ही जवाब होता- दीज ओल्डी बूर्जुआ,हाउ यू टॉलरेट सच ड्राइ राइटिंग्स.....और मैं थोडा खिन्न हो जाता, कमरे के दरवाजे पर लटकती चाइनीज बैल्स जो हर महीने वह बदल देती थी, किनारे रखा टैराकोटा का पॉट जो उसने खुद पेण्ट किया था और मुझे कई बार यह बात बताई थी,मानो हर बार यह कोर्इ्र नई बात हो-थोडा सा इस सलेटी कलर से गडबड हो गई,है न....अगर सिर्फ ब्लैक और व्हाइट होता तो अच्छा कोंट्रास्ट हो जाता...मैं क्षण भर को उस पॉट की तरफ देखता फिर उसके उत्साह से भरे चेहरे को घूरता, मैं शब्द टटोलता, वह देखती कि शायद सलेटी और काले-सफेद पर कुछ कहूँ , उसकीे स्टडी टेबल पर रखा लैंप जो क्यूपिड की कांच की नंगी मूर्ति है और क्यूपिड के हाथ में कुछ है जिसमें बल्ब जलता है,पता नहीं क्या है?मैंने अक्सर जानना चाहा....कमरे में फैली मस्क की हल्की खुशबू वाला रुम फ्रैशनर जो उस कमरे की पहचान सा बन गया है, इतना कि कहीं और इस खुशबू को सूंघने पर भी इस कमरे में होने का भ्रम होता है और दीवार पर बिस्तर के ठीक सामने लटकी एक तस्वीर जैसी अक्सर पुराने इटैलियन चैपलों पर होती है,पर वह ना तो माइकेलैंजलो था और ना विंसी,वह किसी और की थी,जिसके बारे में मैंने नहीं सुना,उस तस्वीर में बोरियत थी और मैंने उसको कई बार कहा था कि वह इस तस्वीर को वहां से हटा दे,पर वह नहीं हटी.....।
                मैंने इस कमरे को कभी इतनी गौर से नहीं देखा जैसा कि आज देख रहा हूं। इस कमरे की हर चीज के पीछे एक कहानी है। हर चीज बोल सकती है। बता सकती है,खुद के बारे में। किसी भी चीज को देखता हूं,तो कुछ दृश्य याद आ जाते हैं और फिर मैं देर तक उसे देखता रहता हूं। उन चीजों को देखकर और उनके पीछे को महसूस करके मुझे कुछ मिल नहीं जाता। किसी को भी किसी की याद को यूँ टटोलने में क्या मिल जाता है? कुछ भी तो नहीं। बल्कि वह तो पहले से और भी ज्यादा खाली हो जाता है।उन चीजों को टटोलकर मैं भी औरों की तरह ही पहले से ज्यादा भिखारी हो जाता हूं। भीतर कुछ उमडता है,जो मुझे मजबूर करता है,उन चीजों को देखने के लिए। फिर से और ज्यादा खाली हो जाने को।
                उसकी ड़ायरी जिसे उसके जीते जी नहीं पढ़ा था। उसमें जगह-जगह मेरा जिक्र था। उसमें उसने अपने बारे में कुछ भी नहीं लिखा था,सिर्फ मेरे बारे में लिखा था। अपनी माशुका की डायरी में खुद के बारे में पढना न जाने कौन-कौन सी दुनिया में तो ले जाता। उसकी पसंदीदा मैग्जीन्स रीडर्स डाइजेस्ट और सोसाइटी जिसके पन्ने, पन्नों के हिस्से कैंची से काटकर अलग किये गये थे।वह उन्हें अपनी डायरी में चिपका लेती थी। जिनमें कोई कोटेशन,कोई चित्र सामान्यतः रीडर्स डाइजेस्ट के लास्ट पेज पर छपने वाली पेंटिंग,कोई फिटनेस या स्किन केयर की टिप्स,कोई मेंहदी का डिजाइन....वगैरा होते थे।मैं अक्सर उसकी इन बेवकूफियों पर हंसता था और तब वह मुझसे अपनी डायरी छीनकर मुझे चिढाती। कभी इरिटेट भी हो जाती। उसकी मृत्यु के बाद अब मैं अक्सर उसकी चीजें टटोलता रहता हूं।उन चीजों में वह नहीं है,बस उसके होने का झूठ है।वह नहीं आ सकती और ये चीजें उसके साथ नहीं जा पाई हैं।वे यहीं रहेंगी इस दुनिया में,बार-बार इस खयाल के साथ कि अब कुछ नहीं हो सकता।कितना टटोलो वह नहीं मिलेगी।जो खाली हो गया है,हमेशा खाली ही रहेगा।उस रिक्तता का कोई उपाय नहीं।उस बेचारगी का कुछ नहीं किया जा सकता है।रुंधा गला और आंसू बेजान हैं।उनसे कुछ नहीं होता।वे अर्थहीन हैं। एक विवशता घिर आई है, गहन विवशता जो दिनों दिन बढती जा रही है।जब उन चीजों को टटोलता हूं,तो यह और बढ जाती है। उन चीजों को टटोलकर मैं कहीं नहीं पहुंचता हूं...सिवाय इसके कि बहुत सा समय अचानक बीत जाता है।
             जब वह जिंदा थी तो मुझसे उलझ पड़ती थी,कि मैं उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता हूं। अक्सर पार्लर से लौटने के बाद वह मेरे सामने खडी हो जाती और पूछती-उसका नया हेयर स्टाइल उसको सूट करता है कि नहीं। वह कुछ बदली-बदली नहीं लग रही है?...वह अपने हिसाब से फैशन करती थी। उसे इस बात का ख्याल नहीं होता था,कि मुझे या देखने वालों को क्या अच्छा लगेगा। वह अपने तरह से खुद को रखती और इस बात पर मेरी सहमती चाहती।जब वह सहमती के लिए मुझे देखती तो,वह बडी आतुरता से देखती। मेरा मन उसके नये हेयर स्टाइल या बदले-बदले चेहरे के विपरीत होता। मुझे उसकी ये हरकतें किसी फितूर सी लगतीं। पर उसकी आतुरता जो उसकी आंखों से झाांकती जैसे अफ्रीकन सफारी में कोई पेंथर अपने शिकार के लिए चट्टान पर रेंगता हुआ दबे पांव बिना आवाज किये,चेहरे पर अनंत शांति का भाव लिये रेंगता है।उसमें कोई हैवानियत नहीं होती,बस जीवन और भूख का विनम्र अनुरोध होता है,ठीक वैसी ही आतुरता उसके चेहरे पर होती और मैं उसके नये चेहरे और हेयर स्टाइल को नकार नहीं पाता।मुझे सहमत होते हुए अच्छा लगता।कभी वह कहती-वह मेरे साथ ही तो गई थी जब उसने यह नया वाला पैंडल खरीदा था...हुंह तुम्हें तो कुछ याद ही नहीं रहता,सब भूल जाते हो,कम से कम मेरी बातें तो याद रखा करो।....उसने एक नया कैसेट खरीदा है मुझे उसे सुनना चाहिए.....।फिर कहती-तुम्हें तो बस मेरी ही बात याद नहीं रहती है....यू रिमेंमबर आल,एक्सेप्ट माइन ...। पर आज उसकी चीजें टटोलकर लगता है, अगर वह जिंदा होती तो मैं उसे उसकी चीजों के बारे में वह भी बताता जो शायद उसे पता नहीं था। कितना कुछ उसे बताना था। अब मन करता है उसे बताने का। उसे बताने का कि, उस पैंडल को खरीदते समय मैंने क्या सोचा था। उसी पैंडल को खरीदने को मैंने क्यों कहा था। मैंने उससे झूठ क्यों बोला था,कि मुझे याद नहीं कि वह चीज कब ली थी,जबकी मुझे सब याद है। कि,जब हम दोनों विभास की ट्रीट में गये थे तब वह बहुत सुंदर लग रही थी, पर चूंकी हमारे बीच किसी बात पर लड़ाई हुई थी इसलिए मैंने चिढ़कर जानबूझकर यह बात नहीं कही थी.....। मैंने सोचा था,कि उससे किसी दिन कहूंगा,कि उस दिन तुम सबसे सुंदर लगी थीं। वह एक ओपन रेस्टोरेण्ट था और उसकी रेलिंग को पकडकर वह खडी थी। पूरी तरह अंधेरा नहीं हुआ था। शाम की बची कुची रौशनी उसके शरीर पर पड रही थी। वह कुछ सोच रही थी और मैं उसे अपने तरह से देख रहा था।काश मैंने उसे बताया होता।काश मैं बता पाता।एक बात जिसको दफन करने के अलावा अब और कुछ नहीं किया जा सकता है।



                                   
     
             

तभी मेरी नींद टूट गई। वह अपनी बालकनी में खडी थी।मुझे हड़बड़ाकर जागता देख वह बिस्तर पर मेरे पास आ गई।उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और पूछने लगी-                  
 ’क्यों क्या हुआ?’
‘ कुछ नहीं.....कुछ भी तो नहीं.’            
 ’तुम्हें तो पसीना भी आ रहा है।’                          
 ’खराब सपना था....।’              
’क्या था?’      
वह उत्सुकता से मेरे और पास सरक आई। मेरे सामने सिर्फ उसकी आंखें रह गईं...।                                          ’लगा तुम मर गई हो....और मैं अकेला रह गया हूं.....।’                              वह खिलखिलाकर हंस पडी।              
 ’इसमें हंसने जैसा क्या है?’                    
’गौरव, डू यू नो वन हू डाइज इन मार्निंग ड्रीम....लिव्स ए लांग लाइफ।माई आण्टी सेज।और ये ड्रीम तुमने देखा....लवली।’      
मुझमें एक साथ अलग-अलग जड़ों वाली कई बातें उग आईं। और उनमें से एक बात कूदकर बाहर आ गई जैसे भाड़ में भुनते पॉपकॉर्न में से कोई एक उछल जाता है।
’यू काण्ट डाय एनीवेयर एल्स, एक्सेप्ट ड्रीम्स .......मेरा मतलब अगर तुम मर भी जाओ तो जैसे तुम सिर्फ सपनों में मरी हो......।’        
 वह उलझी सी मुझे देखने लगी।फिर मुझसे पूछने लगी कि इस बात का मतलब क्या है? मुझे बहुत पहले से लगता रहा है,जैसे वह इस बात का मतलब जानती है।
         कल रात मैं और वह बालकनी में देर रात तक बैठे रहे थे। हम दोनों चुप थे। फिर हम चुप्पियों से आगे बढ गये। वहां जहां खुद के होने का भान नहीं होता है। आदमी और औरत को पता नहीं चलता कि वे हैं। वे कुछ देर एक दूसरे में घुसने की पूरी मशक्कत करते हैं। फिर थककर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। पहले यह सब एक हिच के साथ होता था। मुझे बीच में अपने होने का अहसास हो जाता,क्षण भर को उस दुनिया का कुछ दिखता जहां मैं हूं। यह अपने आप होता। मैं उसकी तरह खुद को भूल नहीं पाता था,कि एक बार खुद को इस तरह भूल जाओ जैसे खुद को कभी महसूस ही नहीं करने के लिए भूले हों। वह प्यार में खुद को भूल जाती। पर मैं नहीं। जब मुझे खुद का अहसास होता,वह मुझे अपनी ओर खींचती, मेरी देह पर उसके बेलगाम हाथ सरकते, बेतहाशा, होंठ भी, काँच की चिकनाहट पर लुढकती बारिश की मदहोश बूँदों की तरह....। उसने मुझे बखूबी सिखाया था कि प्यार में कैसे भूलते हैं खुद को। कि कितना आसान है यूं भूलना। यूं भूलकर प्यार करना। कि,खुद के होने में कैसा प्यार? खुद को खोना कितना अहम है,प्यार की खुशी और आनंद के लिए। पर अब सबकुछ सामान्य सा लगता है। हम अक्सर रात एकसाथ होते हैं। एक साथ सोते हैं। और फिर जब मैं उससे कहता हूं कि-तुम सपनों के अलावा और कहीं नहीं मर सकती हो,तो वह उलझी सी मुझे देखने लगती है।
          घडी में सुबह के सात बजे हैं।मैं हडबडाकर बिस्तर से उतर गया। जल्दी-जल्दी तैय्यार हुआ। वह मुझे हडबडाकर तैय्यार होता देखकर मुस्कुरा रही है। मानो कह रही हो-पुअर मैन। मुझे कुछ झुंझलाहट सी हुई। मैं एक साथ कई चीजों पर झुंझला गया,पर फिर मेरी झुंझलाहट खुद पर आकर रुक गई।अंत में मैं खुद पर झुंझला रहा था। मैंने सोचा है,आज मैं घर में झूठ नहीं बोलुंगा। कोई पूछेगा तो साफ-साफ बता दूंगा कि रात को मैं कहां था। बता दुंगा कि रात को उसके घर रुका था। हां मैं पूरी रात उसके साथ रहा था। उसके घर में ,उसके कमरे में,उसके बिस्तर पर,.....।मैं उससे प्यार करता हूं। बेपनाह मोहब्बत।
       
       
         रात वाली ट्रेन और भागती छायायें

       
        रात के एक बजे हैं। अंधेरे में एक ट्रेन जा रही है। ट्रेन की खिडकी के कांच पर सिर टिकाये,मैं बाहर देख रहा हूं।बाहर भिन्न-भिन्न प्रकार की छायायें हैं।मेरे पास करने को कुछ नहीं था,सो मैंने अंधेरे में भागती छाया को पकडने और छोडने का खेल ढूंढ लिया था।                        
मेरे केबिन में पहले लोगों की आवाजंे थीं। पर अब बस ट्रेन की आवाज है। बीच-बीच में सोते यात्रियों में से कोई जाग जाता है। पर उसकी आवाज ट्रेन की आवाज को पछाड नहीं पाती है।                                छाया को पकडने और छोडने का खेल अपने आप चालू नहीं हुआ था। मुझे नींद आ रही है। मैं सोना चाहता हूं। पर मैंने सोचा है कि मैं जागुंगा। उस समय तक जागुंगा जब तक वह शहर नहीं आ जाता। वह मेरे सपनों का शहर है। पंद्रह साल पहले मैं उसी शहर में रहता था। उस शहर में मैं था और वह थी। तब हम दो थे। आज भी दो हैं। एक यह शहर है और दूसरी उसकी स्मृतियां और यूं वह आज भी है। कुकुरमुत्ते या आर्किड की तरह...यादों के कचरे पर,एक परजीवी वह शहर आज भी है। वह शहर आज भी वहीं है,जहां मैं पंद्रह साल पहले उसे छोड आया था।कोई और शहर होता तो अब तक मर चुका होता। कई दूसरे शहर भी हैं,जहां मैं रहा हूं और जिन्हें मैं छोड चुका हूं। वे सारे शहर मर चुके हैं। बीते शहरों में से बस यही एक शहर अभी तक जिन्दा है। मुझे उस शहर में उतरना नहीं है। बस उसके लिए जागना है। उसे देखने की इच्छा है। मैं उसे ट्रेन में बैठे-बैठे देखना चाहता हूं और यूं उस शहर को गुजरता हुआ देखना चाहता हूं। उसे फिर से एक बार आता हुआ और फिर से गुजरता हुआ देखना चाहता हूँ। पहले जब वह शहर आया था,तब मैं इसी शहर में रुक गया था। जीवन की जरुरत थी इस शहर में रुकना। जीवन में हम जरुरत के मुताबिक ही शहरों को चुनते हैं। उन्हें चुनने में चाहत नहीं होती है। फिर जरुरत के मुताबिक ही उसे छोड भी देते हैं।अगर उसे छोडते समय भीतर कुछ कुलबुलाता है तो हम खुद को समझा लेते हैं।हमारी जरुरत हमारे मन को समझा देती है।
            तभी लगा बाहर भागती छायाओं में से कोई छाया रुक सकती है। कोई छाया रुककर ट्रेन की खिडकी से चिपककर, ट्रेन के साथ-साथ,मेरे साथ-साथ चल सकती है जैसे कोई प्रेत चलता रहता है। एक चित्र चलता है। बियाबान में चुप्पियों के साथ वह प्रगट होता है और चलता चलता है। एक ख़याल तारी होता रहा-अकेलेपन का चित्र । अकेलेपन का चित्र रंगीन होता है। उसमें तमाम देखे-अनदेखे रंग होते हैं। अकेलेपन के चित्र जो पुराने होकर भी अपना रंग बनाये रखते हैं,जो कागज पर डिफ्यूज होकर नहीं मिटते हैं और जिन्हें रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता है। वे अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। उन्हें मिटाने के लिए खुद को गोली मारनी पडती है।
             पर उस रात उस ट्रेन में ऐसा कुछ भी नहीं था।भागती ट्रेन के बाहर की अंधेरी छाया,एक टाइम पास थी। जिसके रुकने का कारण नहीं बनता। अगर अटककर रुक भी जाती,तो वह यादों का हिस्सा नहीं बन पाती। मैं उन छायाओं में से किसी को भी आज याद नहीं कर सकता।
उसका क्या था जो याद रहा ? क्यों रहा ? बहुत महसूस करने के बाद लगा,इसका कोई कारण नहीं है। जिन यादों के कारण थे,वे ज्यादा टिक नहीं पाईं।     
                  ’आई विल रिमैंमबर यू ’
                  ’कुछ दिन और...।’
                  ’मुझे जाना ही है।जाना है।’
 उस रात आकाश के अंधियारे में हंसियानुमा चांद ठहरा था। उस रात मैंने उसे आखरी बार टटोलती नजरों से देखा था। निकली हुई कॉलर बोन,छोटा लंबा चेहरा,उठी हुई नाक,उभरी चीक बोन,सपाट सी छाती जिसके बीचों-बीच एक गड्ढे के होने का भ्रम मुझे होता यद्यपी ऐसा नहीं था, रुखे बाल, गंडेरी की तरह पतले हाथ, थूथन की तरह बाहर निकली कोहनी .....। मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह मुझे अच्छी क्यों लगती थी? संसार के सबसे अच्छे प्रश्नों की तरह जो किसी जवाब पर पहूँचकर खत्म नहीं होते हैं।
 मैं उससे बच्चे की तरह जिद करता रहा-कुछ दिन और।कुछ और दिनों में कुछ नहीं होता।कुछ और गुंजाइश निकल सकती है।
                  ’अभी नये सैशन के लिए टाइम है।तुम चाहो तो रुक सकती हो।’ 
                  ’तुम जानते हो.....मेरी प्रॉबलम,आई हैव टू गो....।’
                  ’ठीक है।बट आई एम सेइंग फॉर.....।’
                  ’नॉट एट ऑल आई हैव टू गो...।’
 उसने मुझे पूरी तरह नकारते हुए कहा।मानो कह रही हो अब और कुछ नहीं,हां कुछ भी नहीं।   
                  ’यू आर स्टबबॉर्न।’
             मैं थोडा झुंझला गया।





         

 वह मुझसे थोडा दूर होकर बैठ गई। उसने अपने कानों में वॉकमैन लगा लिया। वह गाना सुनने लगी। वह इतना तेज गाना सुनने  लगी,कि मुझे भी वह सुनाई देने लगा। उसने एकदम से वाल्यूम बढा दिया था। वाकमैन के इयरफोन से गाने की भुनभुनाती आवाज सुनाई दे रही थी। उस आवाज पर जरा सा ध्यान देने पर समझ आता था,कि वह कौन सा गाना है। वह उसका गाना नहीं था। वह मेरा गाना था। उस गाने से वह हमेशा चिढती थी-हुंह ट्रेसी चैपमैन।हाउ यू बी सो अनरोमैंटिक....व्हाट ए नॉनसेंस।और मैं उससे वह इयरफोन छीन लेता था। पर आज....वह नहीं सुन रही थी। उसके कान में वह गाना भांय-भांय कर रहा था। वह गाना उसके कान के बाहर ही खत्म हो रहा था। वह गाना उसके भीतर नहीं जा पा रहा था।
            मुझे पता था,वह नहीं सुन रही है। जैसे मैं ट्रेन में टाइम पास कर रहा हूं,ठीक वैसे ही उस दिन वह वाकमैन सुन रही थी। वह टाइम पास नहीं था,बस उसमें मन नहीं था। उसका मन कहीं और था और वह सारे संसार से एक मौन अनुरोध कर रही थी-मुझे अकेला छोड दो...प्लीज लीव मी एलोन.....। धीरे-धीरे अंधेरे में उसकी आंखें चमकने लगी थीं। रात में चांद की रौशनी में जिस तरह पहाडी नाले का पानी और उसके नीचे के पत्थर चमक जाते हैं। अचानक। ठीक उसी तरह उसकी आंख चमकने लगी थी। जिस तरह पहाडी नाले में दूर पहाड से उतरकर,लंबे जंगलों को पार कर पानी आता है कुछ-कुछ वैसा ही । फिर उसके नाक सुडकने की आवाज मुझे सुनाई दी। वह मेरे पास सरक आई और मेरे कंधे पर उसने अपना सिर टिका दिया।...एक गीला सा अहसास मेरी गर्दन पर जम गया। लगता है वह अहसास आज भी बांई गर्दन की खाल पर जमा है।गीलेपन में गर्दन में हल्के चुभते उसके घुंघराले बाल,मानो आज भी मेरी गर्दन पर जमे हैं।वे अक्सर मुझे महसूस होते हैं। 
               जब समय विपरीत होता है,तब सिर्फ एक कोरी जिद रह जाती है-कुछ दिन और।....यू कैन डू इट..यू कैन डू इट फॉर मी...। मैं उस समय को,उस जरा से समय को भी जीना चाहता था। मैं उसे छोड नहीं सकता था। मैं भूलना चाहता था,कि बस आज का ही दिन है। मैं भूल जाना चाहता था कि कल हम एक दूसरे से अलग हो जायेंगे। मैं मानना चाहता था कि कुछ भी नहीं हुआ है। हम अभी साथ रहेंगे। उस समय तक साथ रहेंगे,जब तक मन चाहेगा। पर ऐसा नहीं होने वाला था। मैं एक बेजान सी कोशिश कर रहा था,कि ऐसा हो जाये। मैं समय को नहीं बदल सकता था।पर जो चल रहा है,उसे वैसा ही चलने देना चाह रहा था। मुझे लगता था कि मेरी जि़द कुछ समय के लिए समय के बदले होने का झूठा अहसास देती रहेगी। मैं उस अहसास को खोना नहीं चाहता था। पर मैं उससे और जि़द नहीं कर पाया। भीतर की वह बात बाहर नहीं आ पाई। मैं हार गया था। मैंने उससे बस यही कहा था-आई विल रिमैंमबर यू। और मेरी बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया था। वह वाकमैन सुनने का ढोंग करती रही। मेरी बात मुझ तक आकर टकराती रही, टूट-टूट कर बिखरती रही - आई विल रिमैंमबर यू। एक अजीब सी ख़ामोशी हम दोनों के दरमियाँ तैरती रही। वह सबसे सघन चुप्पी थी। कहते हैं पहले प्यार से विदा लेते हुए जो घिरता है वह सघनतम होता है। पहले इश्क से अलविदा कहती ख़ामोशी सबसे भयावह होती है। जेहन को चीरकर आज तक लहुलुहान करते रहते हैं उस ख़ामोशी के हर लफ्ज़ - आई विल रिमैंमबर यू।
            उस रात मैं उसके फ्लैट तक गया था। रास्ते भर हमने कोई बात नहीं की थी। मैं उसे सीढियां चढते देखता रहा। उसने देखा था,कि मैं देख रहा हूं। पर वह चुपचाप रही। जब जाने लगा तो लगा एक बार और उससे मिल आउं। एक अजीब सी इच्छा थी। एक फडफडाती इच्छा। पर मैं रुका रहा। मुझे भ्रम था,कि यह सब झूठ है। हम फिर मिलेंगे। शायद बार-बार मिलें। कितनी बडी है,यह दुनिया। बहुत आसान है,दुबारा मिलना और फिर से शुरु करना या फिर वहीं से शुरु होना जहां पर हम समय को बडी बेरहमी से काटकर किसी और समय के लटकते टुकडे को पकडकर आगे बढ गये थे। कुछ भी तो कठिन नहीं।
            पर फिर हम नहीं मिले। कोशिशें नाकाम रहीं। पता चला मैं गलत  था। पता चला कि दुनिया बहुत बडी है। दुनिया के बडे-बडे दांत हैं। दुनिया किसी इंसान को पूरा का पूरा निगल सकती है। दुनिया ने उसे चबाकर निगल लिया था। उसे एक बार देखने की इच्छा आज भी है। क्या वह वैसी ही होगी जैसी कि उन दिनों थी-लंबा पतला चेहरा,धंसी हुई छाती,अभरी हुई कालर बोन,माथे पर फैलते घुंघराले बाल.....क्या वैसी ही स्टबबार्न और अडे रहने वाली....क्या.......। पता नहीं वह कहां होगी। पता नहीं कभी वह दिखेगी भी या नहीं। मैं अब नहीं सोचता हूं कि वह दिखेगी। उसे देखने की इच्छा है,पर उसे देखने का ख्याल नहीं आता। कोई बात इसी तरह पुरानी होती है। इसे ही कहता हूं उसकी पुरानी बात,एक आकंठ इच्छा जो कहीं इतने गहरे दब गई है,कि उसका अब खयाल ही नहीं। एक चमक खो चुकी पुरानी बात,जिसे बहुत गुनने पर भी कोई खालीपन नहीं उतरता है भीतर,कोई बेचैनी नहीं घेरती.....। किस तरह वह पुरानी हो गई है। वह जब याद आती है,तो जैसे एक इतिहास जिससे मैं गुजरा ही नहीं हूं। कितना कठोर होता है समय,जो छीलकर अलग कर देता है,हर कोमल भाग को,हर बेचारगी और आंसू को.....। पता नहीं वह कहां होगी? पता नहीं ?






         



 खुले आकाश के नीचे बिना हेज के......

 जब हम मिले थे,तब नहीं सोचा था कि हम इस तरह अलग होंगे। हमने सोचा था,सब कुछ थोडा दिन चलेगा और फिर खत्म हो जायेगा। कॉलेज के दूसरे लडके-लडकियों की तरह,जो बस कुछ ही दिनों में अपने फ्रैण्डस बदल लेते हैं। बस कुछ दिन का घूमना फिरना,मौज मस्ती और फिर सब खत्म...। हमने इसे एक नाम दिया था-लव फॉर फन। कितनी उल्टी चीज है,लव और फन। हमारे कॉलेज में यह खूब था।
              कुछ दिन हमारी यादों में उन पोस्टरों की भांति चिपक जाते हैं,जिन्हें हम बेदर्दी से फाडकर अलग तो कर देते हैं,पर उनके कुछ कतरे दीवार पर चिपके रह जाते हैं। मुझे ऐसा ही एक चिपका हुआ ढीठ कतरा याद आया।
              हम दोनों कालेज के कैण्टिन में थे।वह मुझसे किसी बात का आश्वासन चाहती थी।
              ’डेट। ऑनली डेट।’
             उसने ’ऑनली’ थोडा वजनदारी से कहा। कहते समय उसकी आंख मेरी आंख में घुसी जा रही थीं।
              ’या...ऑनली डेट।नथिंग एल्स।’
              मेरे चेहरे के सामने से उसकी ब्राउन आंखें हट गईं। उसके चेहरे पर एक बेपरवाही तैर गई। वह बिल्कुल रिलैक्स हो गई।
उसको मैंने पहले भी देखा था।पर आज वह कुछ अलग लग रही थी।वह वैसी ही थी,जैसी हमेशा दिखती थी। धंसे हुए गाल,उभरी चीक बोन,दुबला-पतला लंबा सा चेहरा जिस पर अब भी थोडा बचकानापन रह गया था। कंधे पर झूलते सर्पिलाकार बालों की लटें जो बार-बार उसके चेहरे के सामने आ जातीं और वह उन्हें इकठ्ठा कर अपने कानों के पीछे खोंस देती। उसके होठों में स्ट्रॉ फंसी थी,जिसमें से ऊपर चढता कोल्ड ड्रिंक दिख रहा था।बीच-बीच में वह अपने दाँतों से स्ट्रॉ को दबा देती और तब उसके गुलाबी लिपिस्टिक पुते होंठ अजीब से दिखने लगते।
              उसकी ठोडी पर एक तिल है। मैंने उस तिल को छुआ है। मैंने सोचा है,आज मैं उस तिल को अपने होठों में दबा लुंगा।
              उस दिन हम दोनों ग्लोबस मॉल में घूमते रहे। मैं उससे जिद करता रहा कि हम वहां नहीं जायेंगे,पर वह ले गई। उसे एक बुक खरीदनी थी। फिर हम दोनों ग्रीन पैसेज गये। ग्रीन पैसेज हमारे कॉलेज के पास ही है। वहां अक्सर कॉलेज के लडके-लडकियां जाते हैं। अक्सर और पूरे दिन वे वहां मिल जाते हैं। यह जगह उन्हें इतनी अच्छी लगती है,कि उन्होंने उसका नाम ही बदल दिया है।वे उसे एमरैल्ड पैसेज कहते हैं। वह एमरैल्ड लगता भी है। पूरे पार्क में ताड के पेड लगे हैं और स्क्वेयर कट वाली हेज लगी है। वहां गजब की शांति है। उस जगह पहंुचकर लगता है,जैसे हम इस भीड-भाड वाले शहर में न हों। मानो यह पार्क इस शहर में न हो। सुना है चांद में एक जगह है,जिसे हम नहीं देख पाते हैं। अंधेरे में खोई हुई गजब की शांति वहां है। उसे नाम दिया गया है-ओशेन ऑव ट्रेंक्वेलिटी। बस वैसा ही है ग्रीन पैसेज। लगता जैसे बरसों से कोई यहां न आया हो।
            पहले मैं अकेले यहां आता था। तब अक्सर इक्का दुक्का लडके-लडकियां वहां दिख जाते थे। घास के छोटे-छोटे लॉन में दुनिया से बेखबर वे एक दूसरे में डूबे रहते। लॉन के किनारांे पर जहां हेज मुडती है,वहां कोई ना कोई लडके-लडकी का जोडा दिख ही जाता था। जब मैं उनके पास से गुजरता तो अक्सर उन्हें पता ही नहीं चलता था। फिर अगर कहीं वे मुझे देख लेते तो खुद को और सुरक्षित करते हुए हेज के और भीतर घुस जाते। कुछ परवाह नहीं करते थे। पर कभी-कभी जब किसी जोडे पर नजर पडती और वह सकुचाकर किसी दूसरी सुरक्षित जगह पर चला जाता तो मुझे एक तरह का अपराध बोध होता। जब किसी अपने कॉलेज वाले जोडे से मेरी नजर मिलती,हम दोनों क्षण भर को एक दूसरे को ऐसे देखते जैसे हम एक दूसरे से अजनबी हों। हम एक दूसरे को इस तरह देखते जैसे पहली बार देख रहे हों। कॉलेज में साथ-साथ मटरगस्ती करने वाले लडके-लडकियां इस पार्क में अजनबी और पराये से लगते। फिर जब उनमें से कोई मुझे देखकर सकुचाता तो मेरा गिल्ट और बढ जाता। उस पार्क में सच्ची शांति थी। चांद के अदेखे अंधेरे वाले भाग ’ओशन ऑव ट्रेंक्वेलिटी’ से भी ज्यादा शांति। इतनी शांति कि वहां पहुंचकर अजनबी और पराया बना जा सकता था। एक अण्डरस्टैंडिग कि हम मटरगश्ति करने वाले यार दोस्त होकर भी कितने अनजान हो सकते हैं। उस पार्क का प्रभाव विरक्ति पैदा करता था,वह भी बिना किसी दबाव के स्वभाविक तरीके से।
            मैं और वह ग्रीन पैसेज के एक कोने में लकडी की पार्क चेयर पर बैठ गये। चेयर के ऊपर कचनार का एक पुराना पेड था। जिसकी पत्तियां चारों ओर बिखरी थीं। मेरा ध्यान उसके बैग पर गया। उसमें से वह बुक झांक रही थी,जो उसने अभी खरीदी थी। मैंने उस बुक को निकाल लिया। थॉमस हार्डी की ’टैस ऑव द डरबर विलेज’।
                        ’कोर्स बुक।आई हेट लिट्रेचर।’
            उसने कहा।
                        ’बट आई डोंट।’
                        ’हाउ यू बी सो अनरोमैंटिक।’
                        ’मुझे यह अच्छा लगता है।’
            मैंने उसके चिन पर बने तिल पर उंगली रखते हुए कहा।
                   कि      ’व्हाट।’
            उसके माथे के बीच बनावटी से बल पड गये। मैंने अपना चेहरा उसकी ओर बढाया।मैं उस तिल को अपने होठों में दबा लेना चाहता था। वह कुछ सकपकाकर पीछे हट गई। मेरे और उसके बीच एक खाली जगह बन गई। एक छोटी सी खाली जगह जो लम्बी सी खाली जगह महसूस हो रही थी। उस खाली जगह में पार्क चेयर के लकडी के बत्ते थे। हम दोनों अपने-अपने में बैठे थे। मैं उस खाली जगह को भरना चाहता था। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में खींच लिया। वह खाली जगह भर गई। अब वहां उसका हाथ था। मेरी हथेली में दबा उसका हाथ। उसके बढे हुए नाखून मेरी हथेली में चुभ रहे थे। पास ही एक स्क्वैयर कट हेज थी। वह हेज हल्की सी हिली। हम दोनों उस हेज को देखने लगे। फिर वह मुझे देखने लगी। पता नहीं उस समय वह क्या सोच रही थी? तभी हेज जोर से हिली। मैं उसकी ओर देखकर मुस्करा दिया और वह मुझे देखकर अपना मुंह अपने हाथों से दबाकर हंस पडी। शायद उसकी हंसी हेज में दबे लोगों ने सुन ली। हेज शांत हो गई। मुझे हमेशा की तरह अपराधबोध महसूस हुआ।
            मेरा बैग अभी तक मेरे कंधे पर था। मैंने उसे उतारकर चेयर के नीचे घास पर रख दिया। मुझे उस पर थोडा गुस्सा भी आ रहा था। वह उसी किताब को देख रही थी,जिसके लिए उसने कहा था ’आई हेट’। मैं उसे अपने और पास बुलान चाहता था।पर फिर लगा मैं ही क्यों?
                         ’व्हाय यू लीव्ड निशा?तुम दोनों ज्यादा दिन साथ नहीं रहे।’
             उसने अचानक पूछा।
                         ’वी वर नॉट इंट्रेस्टेड लांगर।’
             मैंने धीरे से कहा। मानो न कहना चाह रहा हूँ। वह जरा सा मुस्कुराई। फिर एकदम से मेरी आँखों में उतरते हुए उसने कहा-
                       
                          ’आई डोंट थिंग।ये कोई रिलेशन नहीं है। यह सिर्फ डेट है। डेट। ऑनली डेट।’
             मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था। मैंने अपने बैग से एक मैगजीन निकाली और उसे उलटने-पलटने लगा। मैं उसे दिखाना चाहता था-आई डोंट केयर। जैसा कि वह मेरे साथ कर रही थी। फिर वह भी उस मैगजीन को देखने लगी। मेरे कंधे पर उसकी ठोडी थी और वह मेरी तरह से उस मैग्जीन को देख रही थी। मैग्जीन के बीच ग्लेज्ड पेपर पर दो पोस्टर बने थे। पोस्टर में जो मॉडल थी,वह नेकेड थी। मैंनेे उस फोटो को उसे दिखाते हुए उसके कान में कुछ कहा। उसने मेरे बाल पकडकर हल्के से झिंझोड दिये और अपना चेहरा मेरे कंधे से ऊपर उठाकर हंसने लगी। उसके चेहरे पर कचनार के पेड से छनकर आती घूप-छांव अपना खेल दिखाने लगी। मैंने धीरे से उसकी ठोडी पर बने तिल पर अपने होंठ रख दिये। अचानक उसके हाथ मेरे कंधे और पीठ पर आ गये। मेरे चेहरे के दोनों ओर उसके सर्पिलाकार बाल थे और बालों के अंधेरे में मेरे सामने उसकी ब्राउन आंखें थीं। मैं उन आंखों को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहता था। वहां कोई हेज नहीं थी। पार्क की कुर्सी के चारों ओर खुली हवा और ऊपर कचनार की जाली से झांकता आकाश था। लगा ही नहीं कि हेज होनी चाहिए। खयाल ही नहीं आया।                     
         

         




 समयः एलार्मिंग डाग या शिकारी


             ट्रेन कुछ धीमी हो गई थी।अब छायाओं को पकडने और छोडने के काम में मन नहीं था। वह बेमन का काम था। गुजरते समय की मजबूरी। क्योंकी घडी रुकती नहीं। क्योंकी अकेलापन हाड मांस बन गया है। क्योंकी हम कभी खाली नहीं होते। क्योंकी निर्वात मरने से पहले सिर्फ एक कमरा भर हवा के लिए तडपाता है।ऐसे बहुत से ’क्योंकी’ मैंने ढूंढें हैं,जो इस ’बेमन’ के पीछे उसे धकियाते से पडे हैं।       केबिन में ऊपर की बर्थ पर सोया बूढ़ा जाग गया है। वह बूढ़ा मुझे ताक रहा था।उसकी आँखें मेरे देह पर पडी थीं। वे मेरे भीतर झांकने की ताक में थीं। मैं कुछ असहज सा हो गया। बूढ़ी आँखों का भीतर झांकना सकुचा देता है,जैसे कोई अनुभवहीन आदमी जब किसी वैश्या के सामने नंगा होता है तब एक ’हिच’ उसके भीतर की दीवारों को नोचता रहता है। उस बूढ़े की आँखों से खुद को छिपाना कठिन था। क्या पता ट्रेन की खिडकी के कांच से चिपका अंधेरे को देखता आदमी उन बूढ़ी आँखों के करोडों खांचों में से किस खांचे में फिक्स होता हो ? मैं क्षण भर को ऐसा प्रदर्शित करने लगा जैसे मैं कुछ भी तो नहीं कर रहा हूं...बस मुझे नीेंद नहीं आ रही थी,सो खिडकी के कांच से चिपक गया...पर अब नींद आ रही है...मुझे जम्हाई आ रही है,जिसका मतलब है कि मैं जल्दी ही सो जाउंगा... उन आँखों का मुझे ताकना बेमानी है....मैं प्रदर्शित करता रहा,जैसे चाइनीस चेकर की गोटी एक सोच के तहत एक गढ्ढे से दूसरे गढ्ढे पर कूदती रहती है।
            कितना विचित्र है,उस दिन हमें लगा ही नहीं था,कि हेज होनी चाहिए। किसी ओट का ख़याल ही नहीं आया था और आज मैं एक निरीह बूढी आँख से सकुचा रहा था। समय कितना कुछ बदल देता है। वह नष्ट करता है। शिकारी जानवर की तरह किसी जीवन को चबाकर।
             शुरु में हम दोनों मानते थे-डेट...आनली डेट। इस तरह एक सीमा तय थी। एक सहूलियत भी। पर फिर लगा ही नहीं कि कब यह डेट,डेट नहीं रही। बात समय गुजारने भर की नहीं थी। हमने सोचा था,थोडी सी मौज-मस्ती और फिर सबकुछ दफ़न। हमेशा आसान लगा था,समय को इस तरह गुजारकर दफ़न कर देना। कितना आसान है,कोई झंझट नहीं। हम समय को अपनी तरह से गुजारना चाहते थे। हमने जाना था,कि समय हमारी मुठ्ठी में बंद है। वह युवाअवस्था थी। समय हमारे हाथें में कुलबुलाता रहता था। वह गुलाम था। उन पामेरियन,तिब्बती लासाप्सा या सिल्की सिडनी सरीखे पालतू कुत्तों की तरह है,जिन्हें उनके मालिक शाम को घुमाने के लिए ले जाते हैं और वे हगने-मूतने के लिए भी अपने मालिक की दया पर होते हैं। जब रात को कोई अजनबी आ जाता है,तब दूर से ही भौंकते हैं और फिर भीतर घुस जाते हैं। एलार्मिंग डाग्स...समय भी ऐसा ही लगता था।
                 उन दिनों नई-नई जवानी के उन लम्हों में , समय हमारे सामने इसी रुप में आता था। एक मजबूर एलार्मिंग डाग की तरह।
                     ....पर फिर भी  डेट,फिर आगे डेट नहीं रही। हम गलत सिद्ध हुए थे। और इस तरह गलत होना हमें अच्छा लगा था।
                   हमने इस बारे में संजीदगी से बात भी नहीं की। हम एक दूसरे पर हंसते हुए कहते थे-डेट आनली डेट.....व्हाट ए फन...यू वर लुकिंग सिली सेइंग डेट आनली डेट.....मुंह में स्ट्रा दबाये हुए,लिपिस्टिक पुते चेहरे को अजीब तरह से घुमाते हुए...डेट आनली डेट। कभी-कभी वह चिढ जाती। पर यही वह बात थी,जिससे मैंने जाना कि समय पामेरियन डाग की तरह अलार्मिंग डाग ही नहीं है,वह शिकार भी कर सकता है। उसने हमारी डेट्स का इस तरह शिकार किया था,कि हमें पता भी नहीं चला। फिर यह भी कि कुछ बातों को पहले से तय नहीं किया जा सकता था।
                   वह इश्क था और उसका पहले से तय होना नामुमकिन था। जो डेट का वादा था वह झूठ था। जो समय था वह हम दोनों पर मुस्कुराता था। बस समय ही था जो झूठ को झूठ और सच को सच जानता था। सिर्फ समय की धार को पता था कि जो बह रहा है वह इश्क है। सिर्फ समय ही जानता था कि जो बीत रहा है वह सौदाई माशूक की उल्फ़त है।
हम दोनों प्यार में थे और हमें पता चलने में अभी देर थी कि यह प्यार है।
                  उसके हाथ को थाम कहने को आतुर जो लफ्ज़ गले में थे, जो ख़्याल थे कह देने को दीवानगी की हद तक और जो ख़्वाब थे धडकनों में जुंबिश की तरह......वह पहली आहट थी।एक गिरफ्त थी। एक मौजों में हहराता दरिया। एक दरमियाँ था हर हतबंदी को गिराता एक के बाद एक। एक बात थी जिसे कहने को ठीक-ठीक शब्द न थे। एक इजाज़त थी जुर्म की हद तक। एक इंकार था, जिसका इंकार खत्म हो गया था। एक सहमति थी पर जड हो उठते थे होंठ और थरथरा उठता था जिस्म। इस तरह एक चाहत थी जिसका चाहत होना न जाने कब से तय था।
                  जो पता न था बस उसी को इश्क होना था। इस तरह मोहब्बत थी। पहली मोहब्बत का पता होना पता भी चले तो कैसे ?
         
       
      रिलेटिविटी 


           छायायें पीछे की ओर भाग रही थीं। पर उनसे जी उकता गया था। अब उन्हें पकडकर छोडने का मन नहीं कर रहा था।मैंने काले आकाश की ओर देखा और उसे पकडकर छोडना चाहा। पर वह छूट नहीं पाया। एक बार पकड में आया काला आकाश छूटता नहीं है। वह ट्रेन के साथ-साथ चलता है। उसके चाँद-तारे और उसका अंधेरा ट्रेन के साथ चलते हैं। वह बीतते अंधेरों में नहीं छूटने की अपनी जिद पर अडा रहता है। वह ट्रेन के साथ ही रुकता है,टेªन के साथ ही चलता है और ट्रेन के साथ ही दौडता है। ना एक कदम आगे और ना पीछे।
            ऐसा क्यों है? क्यों पेड,घर,पहाड,पुल,रेल्वे स्टेशन,शहर, गाँव,...सब तेजी के साथ पीछे चले जाते हैं और चाँद तारे,आकाश,...भागती ट्रेन के साथ-साथ चलते रहते हैं। कॉलेज के उन दिनों  में एक प्रोफेसर ने बताया कि ऐसा ’प्रिंसिपल ऑफ रिलेटिविटी’(सापेक्षवाद का सिद्धांत) के कारण होता है। चाँद-तारे पृथ्वी से बहुत दूर हैं। इसलिए ट्रेन के चलने पर भी पृथ्वी के रिलेटिव उनका डिस्प्लेसमेंण्ट(विस्थापन) बहुत कम याने लगभग शून्य होता है,जबकी पेड,जंगल,पहाड,घर,...वगैरा का डिस्प्लेसमेंण्ट बहुत ज्यादा होता है। इसलिए चाँद तारे साथ-साथ चलते हैं। पर बात शायद इससे भी आगे जाती है।







           जो जितना निकट होता है,वह उतने ही तेज झटके के साथ बीत जाता है।
           वह भी जब निकट हो गई,झटके के साथ बीत गयी। मैं उसे ठीक से विदा भी नहीं कर पाया। बहुत सी बातें हमेशा-हमेशा के लिए मिट गईं। आज सोचता हूं तो लगता है,कि कितना कुछ किया जा सकता था,जो नहीं हो पाया। लगता है अगर वह मिल गई।बीत चुके पूरे पंद्रह सालों के बाद तो मैं आज भी उससे कह सकता हूं,वह सब जो कहना था। मैं उसके सामने चुप भी रह सकता हूं। ठीक उसी तरह जैसे मैंने उसके सामने चुप होना सोचा था,कभी उसे निहारते हुए,कभी उसके कामों को देखते हुए उनमें इनवाल्व होते हुए,कभी उसे मुझमें डूबने के लिए गिरते हुए......तरह-तरह की चुप्पियां। लगता है जो छूट गया है उसे आज पूरा किया जा सकता है। कोई अंतर नहीं अगर पंद्रह साल बीत गये।
            जब वह जा रही थी,मैंने उससे कहा था कि मैं आ सकता हूं। वह जब भी बुलायेगी, मैं आउंगा। पर फिर कभी उससे बात नहीं हुई। ना कोई फोन आया,ना कोई मैसेज...बाद में कुछ दिन मैंने उसे तलाशा भी। कालेज के पुराने फ्रैण्ड्स जिनसे मेरे कान्टेक्ट थे,उसकी वह फ्रैण्ड जो उसकी रुम मेट थी उसे मैंने ढूंढ निकाला था,पर उसेे भी पता नहीं था...फेसबुक और नैट पर में उसे बेतहाशा तलाशता रहा, पर वह कहीं नहीं थी।
            मैं ट्रेन के बाहर दिखते आकाश को फिर से ताकने लगा।काला आकाश हमेशा साथ चलता है। पास होने की शर्त है एकदम से बीत जाना। एक नियम। गणित के मार्फत सिद्ध एक सिद्धांत।
           

       

            उसकी तरह का प्यार

             वे दिन जब हम अक्सर मिलते थे।
उसने एक फ्लैट ले रखा था। वह अपनी एक फ्रैण्ड के साथ उसे शेयर करती थी। एक कमरा और एक छोटी सी बालकनी। बहुत सी लडकियाँ इस तरह रहती थीं। होस्टल बेहतर न थे। बालकनी से दिखते चौरस छत वाले बेतरतीब मकान और उनके पास से गुजरने वाली रेल्वे लाइन। हर थोडी देर बाद ट्रेन की धडधडाहट फ्लैट के उस कमरे की चुप्पी को तोड देती थी।
            अक्सर हम दोनों कॉलेज से उसके फ्लैट तक साथ-साथ आते थे। कभी उसकी फ्रैण्ड फ्लैट में होती थी,तो कभी वह खुद उस फ्लैट का लॉक खोलती थी। जब उसकी फ्रैण्ड देर से लौटती तो वह फ्लैट का दरवाजा खोले बिना भीतर से ही उससे कहती कि वह थोडी देर कहीं और चली जाये,क्योंकी मैं उसके साथ हूं। वह अक्सर एडजस्ट कर लेती,पर कभी-कभी वह इरिटेट हो जाती। फिर हम लोगों ने अपनी मीटिंग्स इस तरह तय कर लीं कि उसे प्राब्लम ना हो। उसे पहले से पता होता और वह कहीं और चली जाती।
            नीचे एक बूढी औरत रहती थी। वह हमें शक से देखती। एक दो बार इŸाफाकन वह नीचे मिल गई। अक्सर जाते हुए। उसने एक बार उस बूढी को उसके और मेरे संबंध के बारे में बता दिया। सच नहीं, झूठ। बताया कि मैं उसका भाई हूँ। इस तरह कि बात में कुछ भी गलत न लगा।
            जब रिश्ते पवित्र और अपवित्र के संकीर्ण दायरों में तय हों तो दुनिया को आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है- उसने बाद में मुझसे कहा था।
            जब उस फ्लैट को याद करता हूं तो कुछ भी सिलसिलेवार याद नहीं आता है। बस कुछ टूटे हुए चित्र हैं। वे चित्र किसी एक मोमेण्ट को पूरा नहीं करते हैं।           
              मुझे याद आया मैं और वह फ्लैट की बालकनी में खडे थे। उसने मुझसे कुछ कहा था। पर तभी ट्रेन गुजरी और मैं सुन नहीं पाया। मैंने उससे पूछा। उसने कहा-कुछ नहीं। फिर उसने दुबारा कहा। शाम घिर रही थी। चौरस छत वाले घर धुँये में घिर रहे थे। मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस उस रात मैं घर नहीं गया। वह पहली रात थी। उसकी फ्रैण्ड भी उस रात नहीं आई। उसे पहले से पता था। उसी ने बताया था। मुझे अच्छा लगा कि यह उसका प्लान था। लडकी पहल करे तो अच्छा लगता है। वह कहती नहीं थी करती थी, मैं कहता था और झेंपता था।
               प्यार में एक किस्म का अधिकारबोध होता है, वह कर गुजरता है, उसके लिए निषेध की कोई दुनिया नहीं, वह तिलस्म की तरह घटता है और जिस्म पर रेंगने वाली तमाम यादों की तरह बस जाता है- उन्हीं दिनों कहीं पढा था जो अक्सर याद आता रहता।
               वह शर्म को झूठ मानती थी। मानती थी कि जो प्यार से डरता है वह शर्माता है। मैं उसकी बात पर चुप्पी लगा जाता। मैं बस वह सब हो जाने देना चाहता था जो उसने सोच रखा था। मैं उसकी तरह के प्यार की गिरफ्त में उसकी तरह से गुजर जाना चाहता था। मैं चुप रहता और वह कहती कि प्यार इतनी सीरियस चीज भी नहीं । वह सबकुछ कह डालती और मेरे शब्द गले में ही रह जाते। रात के गहन अंधेरे में बिस्तर पर उसकी बातों को सुनना मुझे आनंद से भर देता। मैं अंधेरे में ही जान जाता कि अब वह मुस्कुराई और अब उसने मेरे चेहरे को घूरा। प्यार की कल्पना को साकार करने की कवायत वह करती रहती। उसके प्यार में इकहरापन नहीं था। दुहराव भी नहीं।
             उस रात मैंने हर धडधडाती ट्रेन को सुना था। फिर जब सुबह अपने घर गया तो घर वालों के पूछने पर उनसे झूठ बोला कि,रात भर मैं कहां रहा था। फिर बाद में यह झूठ मुझे कई बार कहना पडा। मैंने पहली बार महसूस किया,कि हेज का होना जरुरी है। पर जैसे यह मेरी कमजोरी हो। फिर इससे भी आगे मानो मैं गलत हूं। जब यूं सोचता तो खुद से चिढ सी हो जाती। मन कहता घर वालों से कह दूं,कि रात को मैं कहां था,किसके साथ सोया था,हम दोनों पूरी रात एक दूसरे के साथ क्या करते रहे....। कह दूं सब कुछ। क्या जरुरत है,इस झूठ की,इस ढोंग की जो मुझे पाप लगता है। पर जैसे मैं हार रहा था। मुझे पता ही नहीं था,कि यही वह रास्ता है जहां से मौत को आने की जगह मिलती है,वरना आदमी कभी मरने के लिए पैदा नहीं होता।
              उस फ्लैट में मैं उसके साथ उन रास्तों पर चला था,जहां मैं फिर किसी और लडकी के साथ नहीं चल पाया। वे रास्ते उसने खुद बनाये थे। उसने सोचा था,वह मुझे वहां अपने साथ लेकर चलेगी। उसने मुझे अपने साथ लेकर चलने का सोचा था। ऐसा बहुत कम होता है। ऐसी कितनी लडकियां होती होंगी,जो अपने प्रेमियों के लिए रास्ते सोचकर रखती हैं। कि जब प्यार होगा तब वे उसे अपने साथ उन रास्तों पर ले जायेंगी। वे उन रास्तों पर नहीं जायेंगी जिन्हें उनके प्रेमियों ने उनके लिए सोचा है। बल्कि वे उन्हें खुद ले जायेंगी,उनका हाथ पकडकर,उन रास्तों पर जो उन्होंने सोचा है।वे खुलकर बतायेंगी कि यह है,जो उन्हांेने सोचा है। मैंने जितना जाना है,जितना महसूस किया है,वह यह है,कि ज्यादातर के पास उनके अपने रास्ते ही नहीं होते हैं। अगर होते हैं,तो वे उन्हें छिपाकर रखती हैं। फिर उनका दावा होता है,कि वे प्यार करती हैं। वे उन रास्तों को छिपाकर प्यार करती हैं। कितना अजीब है यह विरोधाभास। कुछ छिपाकर प्यार करना। पर हर कोई इसे अंधे की तरह मानता है और प्यार चलता रहता है। पर उसने नहीं छिपाया। मैंने उससे पूछा भी नहीं। जब छिपा ही ना हो तो पूछना कैसा। उसके साथ उन रास्तों पर चलना बडा सहज सा था। मैंने सोचा था,कि प्यार इसी तरह होता है। पर मैं गलत था। बहुत कम लडकियां उस तरह कर पाती होंगी। उसकी तरह प्यार करना कठिन है।
           
         


            

एक बीता हुआ शहर   

              बाहर के अंधेरे में रेल की पटरी पर धुंधली सी चाँदनी चमक रही थी। पटरी छूटती जा रही थी,पर धंुधली सी चमक साथ चल रही थी। लगता मानो पटरी रुकी हुई है। उसका एक सा आकार बिल्कुल भी नहीं बदला है। चेतना नहीं होती तो मैं उसे रुका ही जानता। चेतना ना हो तो कितना कुछ रुक जाये। ना आगे जाय और ना पीछे जाय। तभी तो मैं आज भी अपने हाथों पर उसकी देह को महसूस कर पा रहा हूं। उसकी देह की उष्णता को। एक मासूम सी चेतना जो मेरे हाथों पर आज भी फिसलती जान पडती है। उन दिनों वह चेतना मुझे उकसाती थी,मुझे उसकी ओर खींचती थी। पर जो आज उकसाती नहीं है और ना ही उत्त्ेाजित करती है। बस आंखों को भिगा जाती है। गले को रुंध देती है।
                 मैंने आँखें बंद कर लीं।मेरे अंधेरे में बस ट्रेन की आवाज रह गई।  
                अचानक ट्रेन की आवाज बदल गई। उसकी धडधडाहट तेज हो गई। मैं चौंककर जाग गया। ट्रेन के नीचे से कई नई पटरियां निकल आईं और तभी एक जगमगाता स्टेशन तेजी से आया और बीतते अंधेरों में खो गया। मैं उसकी जगमगाहट में से कुछ भी नहीं पकड पाया। दूसरे ही क्षण ट्रेन की आवाज पुरानी आवाज जैसी हो गई। अगर ट्रेन बोलती तो मैं उससे पूछता-वे कौन-कौन से स्टेशन हैं,जिन्हें वह रोज जगमगाता पाती है और लगभग एक ही तरह से उन्हें अंधेरों के हवाले कर देती है?क्या उसने सोचा है,कि उनमें से किसी स्टेशन पर वह रुकेगी? सिग्नल के लाल होने से नहीं बल्कि अपनी मर्जी से। स्टेशन से गुजरते समय उसकी धडधडाहट क्यों बदल जाती है?क्या ठीक वैसे ही जैसे वह जा रही थी। वह हमेशा के लिए जा रही थी। फिर जाते-जाते अचानक वह मेरे गले से लिपट गई और तब मुझे उसकी धडकन सुनाई दी थी। वह धडकन अलग तरह की थी। मैंने उसकी जितनी धडकनें सुनी थीं वह उससे अलग थी। वह बदली हुई धडकन थी।क्या ठीक उसी तरह.....?
             वे बूढ़ी आँखें मुंदकर लुढ़क चुकी थीं।
             कुछ और लोग जाग गये थे। वे अपना सामान बांध रहे थे। उनकी बातें मुझे समझ नहीं आ रही थीं। वे किसी दक्षिण भारतीय भाषा में बात कर रहे थे। मैंने उनमें से एक व्यक्ति से आने वाले स्टेशन के बारे में पूछा। पता चला वह जगह आने वाली है। वही जगह जिसके लिए मैं जाग रहा हूं। खिडकी के पार एक काली पहाडी सरक रही थी और एक झिलमिलाता शहर काले आकाश को घूंट दर घूंट गटकता जा रहा था।       
            उन दिनों इन पहाडियों को हम दोनों लगभग रोज देखते थे। इस शहर में वे लगभग रोज मेरे सामने होती थीं। उन पहाडियों से बचकर नहीं रहा जा सकता था। उनका सामने होना एक अजीब सा ढांढस बंधाये रहता था। जैसे घर का बुजुर्ग सदस्य होता है।वह अनुत्पादक है। उसका होना ना होना कोई अंतर पैदा नहीं करता। पर उसके होने से एक ढांढस होती है। जब हम दुःखी होते हैं,तब अपना चेहरा टिकाने के लिए किसी अपने बूढे का कंधा ढूंढते हैं। वह कमजोर कंधा होता है। पर वहीं ढांढस मिलती है। वे पहाड भी ऐसे ही थे। पूरा शहर थककर उन्हीं के कंधों पर अपना सिर टिका देता था। यद्यपी रोज उन पहाडों को काटा जाता था। उन्हेें नुकसान पहुंचाया जाता और वे किसी बुढ्ढे की तरह निरीह होकर सब सहते थे। हम दोनों कई बार इन पहाडों पर गये थे। पर उन दिनो मैंने इन पहाडों को इतनी संजीदगी से नहीं देखा था,जिस तरह इन्हें देखने का मन आज कर रहा है और मैं ट्रेन की खिडकी से अपना चेहरा चिपकाये इन्हें देख रहा हूं। शायद पहाडों को नहीं देख रहा हूं। एक भ्रम सा है,जैसे आज भी उस पहाड पर मैं और वह दिख सकते हैं। एक दूसरे का हाथ थामे,ऊपर की ओर बढती दो छायायें....मैं और वह।
              फिर शहर की पुरानी वाली झुग्गी बस्ती गुजरने लगी। फूस और खप्परों वाले मकानों के बीच इक्का दुक्का पक्के मकान इसमे हैं। यह वैसी ही है,जैसी उन दिनों होती थी। फिर शहर का गंदा नाला आया। हम इसे ही पार कर कालेज जाते थे। फिर बोर्ड आफिस वाला एरिया पडा। इसी से लगा हुआ वह कैंटीन था, ‘रिजाइस’ और उसके पीछे ‘ला बैले कालेज’। जो आज भी मुझे किसी सपने सा लगता है। यद्यपी मैं वहां पढा था। पर कुछ चीजें सपना ही होती हैं। उनसे गुजरने से पहले हम उसे सपना ही जानते हैं और सोचते हैं जब गुजर जायेंगे तब वह सपना नहीं रहेगा। पर वह गुजरने के बाद भी नहीं बदलता है। हम उसको लेकर कल्पनायें गढते रहते हैं। उसको लेकर सपने बुनते रहते हैं। यद्यपी हम जानते हैं कि अब इन सपनों का कुछ नहीं हो सकता। हम लौटकर पीछे नहीं जा सकते हैं। ये सपने और इन्हें देखना पागलपन है। हम जानते हैं। परन्तु फिर भी उसे लेकर सपने बुनते हैं। एक अधूरापन मन में होता है। उसे भरने के लिए हम इन सपनों को देखने का पागलपन करते हैं। पर वह अधूरापन कभी नहीं भरता है। वह उन सपनों के साथ-साथ और गहरा हो जाता है। वह खालीपन हर सपने के साथ और बढ जाता है।
              ट्रेन के पास ही से कैण्टीन की वह सफेद बिल्डिंग गुजर रही थी। उस पर लाल रंग से लिखा ‘रिजाइस’ चमक रहा था। उसके पीछे धीरे-धीरे ला बैले कालेज की बिल्डिंग दीख रही थी। रात के अंधेरे में वह कुछ उदास दिख रही थी। उसका रंग वही था,लाल किर्री पत्थरों वाला रंग। वह उन्हीं पत्थरों से बनी थी। बरसात में माली उन दीवारों पर काही के बीज डाल देता था। तब वह इमारत नीचे से हरीमखमली हो जाती थी।....मुझे लगा यह संसार की सबसे सुंदर इमारत है। मैं उसे संसार का सबसे बढिया कॉलेज मानना चाहता था। उस क्षण लगा कि मैं सही था। यह सबसे सुंदर है। सबसे बढिया है। अगर यह सबसे बढिया नहीं है,तो फिर कौन है? मैं आज तक... उससे गुजरने के बाद भी, पंद्रह सालों बाद भी,उसके ही तो सपने देखता हूं।
              कुछ भी नहीं बदला। सब वैसा ही है।
              इसी इमारत के ठीक पीछे था-ग्रीन पैसेज। वह ट्रेन से नहीं दीख सकता। पर मुझे विश्वास था,कि वह वैसा ही होगा जैसा पंद्रह साल पहले था। वह वैसा ही होगा। कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है। वह भी वैसा ही होगा। यहां कुछ भी नहीं बदलना चाहिए। मुझे लगा कुछ भी नहीं बदलना चाहिए। अगर समय गुजरता है,तो गुजरता रहे। पर कुछ भी न बदले। कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं।
             वे बूढी आंखें फिर से जाग गई थीं। वे मुझे फिर से देख रही थीं। वे अचरज में थीं,कि मैं इतनी डूब के साथ क्या देख रहा हूं? उनमें अब कोई बेचारगी नहीं दीख रही थी। वे अब उत्सुक थीं।
            रेल की पटरियों से थोडी ही दूर एक संकरी गहरी पुलिया थी। पुलिया के किनारे ही वह अपार्टमेंण्ट था,जिसमें उसका फ्लैट था। अपार्टमेंण्ट का नाम आज मुझे याद नहीं है।                         
मैं उत्सुकता से ट्रेन के बाहर देखने लगा। वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट शायद स्टेशन के पहले ही पडते थे। तभी एक के बाद एक दो पुलियां निकलीं। पर ये वो नहीं थीं। मैं इंतजार करता रहा। पर वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट नहीं आये। मुझे लगा शायद नये कंस्ट्रक्शन के कारण जगह बदल सी गई हो। वह पुलिया और वह अपार्टमेंण्ट छुप गये हों।
             थोडी ही देर में रेल्वे स्टेशन आ गया। स्टेशन के ऊपर दीखता चाँद पहले से ज्यादा पीला होकर दूसरी ओर सरक गया था। तारे सोडियम की लाइट में खो गये थे। स्टेशन पर लटकी घडी के काण्टे दो बजकर चालीस मिनट पर अटके थे।
            मैं ट्रेन से नीचे उतर आया। स्टेशन बिल्कुल वैसा ही था,जैसा मैंने उसे उन दिनों देखा था। यहां मैं उससे आखरी बार मिला था। एक पुराना लैंप पोस्ट है। ओव्हर ब्रिज के ठीक नीचे। वह आज भी वहीं है। उससे सटी हुई एक बैंच है। वह भी वहीं है। उस दिन उसकी ट्रेन लेट आई थी। हम दोनों उस बैंच पर काफी देर तक बैठे रहे थे। मैं ट्रेन से उतरकर उस बैंच के पास जाकर खडा हो गया। उस बैंच पर एक भिखारी सो रहा था। उस दिन भी देर रात हो गई थी। हम दोनों देर तक उस बैंच पर बैठे रहे थे। उसने अपना बैग अपनी गोद में रखा हुआ था। वह चुप थी। स्टेशन में बहुत कम भीड थी। क्षण भर को लगा,जैसे अभी-अभी उसकी ट्रेन स्टेशन से गई है और मैं अकेला छूट गया हूं। जैसे उस दिन छूट गया था और थोडी देर तक उस बैंच के पास खडा रहा था।
            पर दूसरे ही क्षण लगा जैसे मैं बहुत समय से अकेला और खाली रहा हूं,बस उसका अहसास मुझे आज हो पाया है। और मुझे यह शहर पराया लगने लगा। एक बिल्कुल अजनबी शहर,जिसके रेल्वे स्टेशन में रात के तीन बजे मैं किसी दूसरे ग्रह के प्राणी की तरह खडा हूं। इस शहर पर अब मेरा कोई अधिकार नहीं। यह अब दूसरों का शहर है।
            जब हम किसी शहर में रहते हैं,तब कितने अधिकार के साथ रहते हैं। लगता ही नहीं कि शहर कभी भी हमारा नहीं होता है। वह तो हमेशा समय का होता है। लोगों में धोखे पालता है। स्मृतियों के बावजूद भी वह बेगाना हो जाता है। मानो वे स्मृतियां कूडा हों। एक मजबूरी है जो वे स्मृतियां इस शहर से जुडी हुई हैं। उन स्मृतियों को इस शहर से पोंछने का काम समय हमेशा करता रहता है। पर यह शहर मेरे लिए शायद कभी भी मर ना पाये। वह अगर मेरे जीवन में ना आती तो यह शहर मेरे लिए मर सकता था। पर उसकी स्मृतियों के कारण यह शहर मर नहीं सकता।
            मैं उस बैंच के पास थोडी देर और खडा रहना चाहता था।पर तभी ट्रेन के चलने का सिग्नल हो गया और मैं वापस ट्रेन में आ गया।
             वह ना होती तो मैं इस शहर से गुजरकर भी इससे नहीं गुजरता।मैं उसी तरह गुजरता जैसे भीड-भाड वाले रास्ते से किसी शवयात्रा में कोई मुर्दा गुजरता है।
           वह ना होती तो यह स्टेशन भी उन आम स्टेशनों की तरह होता,जिन्हें ट्रेन पकडने और ट्रेन से उतरने की सुविधा के लिए बनाया गया है। वे स्टेशन सामान्य हैं। उनमें कुछ भी अलग नहीं है,कुछ भी विचित्र नहीं है। जब हम उन स्टेशनों पर उतरते हैं,तब हम पत्थरों और सीमेण्ट के लंबे चौडे बेजान से प्लेटफार्म पर उतरते हैं। वहां उतरना हमें धडकाता नहीं है। वह ना होती तो मैं इस स्टेशन पर नहीं उतरता।इतनी रात जब ना उतरना हो,तो कौन अजनबी स्टेशनों पर उतरता है।
           वह ना होती तो स्टेशन की वह बैंच वहां नहीं होती। उस पर कोई भिखारी ना सोया होता। किसी को पता भी नहीं चलता कि स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक बैंच है और बैंच पर एक भिखारी सोया है। ट्रेन चली जाती और उस बैंच का कोई मतलब न होता ।उस बैंच का होना,उसका नहीं होना होता।
           वह ना होती तो सिर्फ स्टेशन होता, ट्रेन होती,एक गुजरता हुआ शहर होता,सरकते पहाड होते, चांद और पीला सोडियम होता,रिजाइस कैण्टीन का लाल रंग से चमकता साइनबोर्ड होता, बैंच पर सोता भिखारी होता,ला बैले कालेज की लाल किर्री पत्थरों वाली ऊंघती इमारत होती.....पर मैं नहीं होता। वह नहीं होती तो इस शहर से गुजरती ट्रेन में मेरे होने का कुछ अलग मतलब होता। पता नहीं क्या मतलब होता? कोई बेजान सा मतलब। एक ऐसा मतलब जो किसी बडी चट्टान की तरह हो। जो इस शहर से गुजरते हुए जरा भी नहीं धडके। 
               पता नहीं वह कहां होगी?पंद्रह साल हो गये।पर आज भी इस शहर पर उसका बस चलता है। यह शहर आज भी उसका कहा मानता है। पता नहीं वह कभी मिलेगी भी या नहीं? यह शहर भी मेरी तरह उसकी उम्मीद में धडकता है। यह शहर नहीं मरेगा। उसकी यादें इसे मरने नहीं देंगी।
           
           



 पंद्रह साल पुराना दिन

              थोडी देर बाद ट्रेन चलने लगी। स्टेशन छूट गया और शहर धीरे-धीरे गोल-गोल सा घूमता छूटने लगा। मुझे नींद आने लगी। मैं उनींदा सा कंपार्टमेण्ट की खिडकी पर सिर टिकाये बैठा रहा। और तभी...। हां तभी एक संकरी पुलिया और एक अपार्टमेंण्ट झटके से निकल गये। मैं तेजी से खिडकी से चिपक गया। मेरा चेहरा खिडकी के कांच पर धंस सा गया। पर तब तक सबकुछ निकल गया था। पंद्रह वर्ष पुरानी एक बात मुझे याद आई। मुझे लगा काश मैं केबिन में अकेला होता। अकेला होता तो मैं उस बात को अपनी तरह से याद करता। कोई मुझे देखता नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं?
मैं जल्द ही अपनी बर्थ पर लेट गया। मैंने लाइट बुझाई। अपने ऊपर चादर खींच ली। अपने चेहरे पर भी चादर खींच ली।ट्रेन भागती जा रही थी।मैं सोने की कोशिश करता रहा।
            थोडी देर तक एक अजीब सा मन करता रहा। लगा इसी तरह मुँह तक चादर खींचे पडा रहूँ। उसकी यादें रुलाती नहीं, वे बस सालती रहती हैं। उसका चेहरा मुस्कुराता है और मैं जोरों से चादर खींच लेता हँू। वह हाथ बढाती है, मैं करवट बदलता रहता हूँ। कहीं कुछ चीरता जाता है जेहन को। कितना कुछ टूट-टूट कर बिखरता जाता है, किरच-किरच। खामोशी के नाखून निकल आते हैं। चुपचाप रहना मौत हो जैसे। जी करता है रो लूँ। शायद रो लूँ। चादर खींच-खींचकर मैं जाने क्या तो करना चाहता हूँ।     
            भागती ट्रेन के एक ओर सिंदूरी प्रकाश बिखरा आया था। काले को हटाकर नीला आकाश आ चुका था। मैं अपनी बर्थ पर लेटा था। बर्थ से आकाश और ऊपर सोये हुए यात्री दिख रह थे। वे वैसे ही सो रहे थे जैसा कि मैंने उन्हें रात को सोते समय देखा था। क्षण भर को लगा कि सबकुछ वैसा ही है। कुछ भी नहीं बदला है। रात को जब मैं सो रहा था,ट्रेन बहुत धीमी चल रही थी। वह रात को साथ-साथ भगने वाले आकाश से भी ज्यादा धीमी हो गई। रात को आकाश और ट्रेन एक ही स्पीड में एक साथ,एक ही तरफ भाग रहे थे। पर ट्रेन इतनी धीमी हो गई कि आकाश आगे भागने लगा। वह आकाश के साथ-साथ आकाश के बराबर स्पीड में नहीं भाग पाई और यूं ट्रेन पिछडने लगी। ट्रेन आकाश से पिछडने लगी। आकाश आगे भागने लगा। ट्रेन आकाश से पीछे छूटने लगी। रात को साथ-साथ चलने वाले चांद और तारे बहुत आगे निकल गये और ट्रेन बहुत पीछे रह गई। ट्रेन बुरी तरह पिछड गई।उसके साथ-साथ भागने वाला आकाश उससे आगे बहुत दूर जा चुका था । अब ट्रेन उस आकाश के  साथ थी जो बरसों पहले बीत चुका है। वह बीत चुके आकाश के साथ थी। बाहर सिंदूरी आलोक बिखरा था। वह किसी बीत चुके दिन का आकाश था। पंद्रह साल पुराना कोई दिन। उसके साथ गुजरे वे दिन। वे दिन जो लगता है कि बीत चुके। वे दिन जो बीतते नहीं। आकाश में जो दिन है वह उसके साथ गुजरे दिनों में से एक दिन है।




परिचय: तरुण भटनागर

      
                चर्चित कहानीकार एवं उपन्यासकार।
               24 सितंबर 1968 को रायपुर छत्तीसगढ में जन्म । बचपन बस्तर, डिण्डोरी, जशपुरनगर तथा सरगुजा जिलों के जनजातीय क्षेत्रों में बीता । स्कूली शिक्षा छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में । बस्तर से गणित और इतिहास में स्नातकोत्तर । जनजातीय क्षेत्रों में लगभग सात बरसों तक अध्यापन का कार्य और उसके बाद मध्यप्रदेश में सरकारी सेवा में । वर्तमान में ग्वालियर में पदस्थ।
                प्रथम चर्चित कहानी ‘गुलमेंहदी की झाडि़यां’ वागर्थ के नवलेखन विशेषंाक में वर्ष 2004 में प्रकाशित । लगभग 24 कहानियां विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित । प्रथम कहानी संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाडियां’ वर्ष 2008 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित । दो कहानी संग्रह ‘भूगोल के दरवाजे पर’ ,‘ जंगल में दर्पण’ तथा एक उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ प्रकाशित। कुछ रचनायें विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल। कुछ रचनायें मराठी, उडिया, अंगरेजी और तेलगू में अनुदित। ‘एट द थ्रेशहोल्ड ऑफ ज्याग्राफी’,‘गुलमेंहदी की झाडियाँ’, ‘वॉइस व्हिच वाज़ प्रोजेनी’ तथा ‘ओड टू एन अमेरिकन डिमाइस’ नाम से चार कहानियों का अंगरेजी में अनुवाद। कुछ अनुवाद कार्य हिंदी से अंगरेजी में। संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाडि़यां’ को युवा रचनाशीलता का वागीश्वरी पुरुस्कार 2009 ।  कहानी ‘मैंगोलाइट’ जो बाद में थोडा संशोधित नैरेशन्स के साथ ‘भूगोल के दरवाजे पर’ शीर्षक से आई थी,शैलेश मटियानी कथा पुरुस्कार में पुरस्कृत । सात चुनिंदा कहानियों पर ‘रचना समय’ का एक समग्र अंक जून 2012 में प्रकाशित। उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ को 2014 का वागेश्वरी सम्मान। कुछ चुनिंदा कहानियाँ श्रृँखला ‘ गौरतलब कहानियाँ’ में प्रकाशनाधीन। एक उपन्यास ‘कफ़स’ तथा कविताओं की एक किताब प्रकाशनाधीन।
              संपर्क: 35, रेसकोर्स रोड, ग्वालियर, मध्यप्रदेश, 474002
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सूर के भ्रमरगीत में वियोग-रस
आलेख: अनिता मण्डा



अनीता मण्डा  


डॉ. नगेंद्र का कथन है,  “भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रसंग तो सूर की काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है।”

डॉ. नगेंद्र के इस कथन में सूर साहित्य का सार समाहित है। इस कथन के पहले भाग 'भक्ति के साथ शृंगार को जोड़कर'  को समझने की कोशिश करते हैं। भक्तिकाल में वैष्णव सम्प्रदायों की प्रवृत्ति सगुण भक्ति की थी। आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत या निर्गुण वाद जनता के मन में बैठी निराशा से मुक्ति नहीं दिला सका। वल्लभाचार्य जी ने भक्ति के क्षेत्र में शुद्धाद्वैत वाद की स्थापना की।  शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है। ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही भीतर ही उपस्थित है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है।

सूरदास जी वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। उन्होंने शुद्धाद्वैत-दर्शन पर आधारित पुष्टि-मार्ग को अपनाया। इसमें प्रेम प्रमुख भाव है। इसे 'वल्लभ सम्प्रदाय' भी कहा जाता है। पुष्टिमार्ग में भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण करता है। इसको 'प्रेमलक्षणा भक्ति' भी कहते हैं। 'भागवत पुराण' के अनुसार, "भगवान का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।" वल्लभाचार्य ने इसी आधार पर पुष्टिमार्ग की अवधारणा दी। प्रेमलक्षणा भक्ति ही भक्ति को शृंगार से जोड़ देती है। भक्त आराध्य  की लीलाओं का गान करते हैं। इस प्रकार आमजन के हृदय में रागात्मकता का संचार होता है व नैराश्य से मुक्ति मिलती है।
नगेंद्र जी का कथन आगे कहता है,  "संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।" भक्ति काल से पहले जन्मे सभी दार्शनिक मत कमोबेश एक-दूसरे के पूरक ही हैं। इन्हीं मतों से निकले विभिन्न मार्गों ने भक्तिकाल के साहित्य को भी पोषित किया क्योंकि भक्तिकाल के लेखक कोई दरबारी कवि न होकर आमजन के बीच रहने वाले आमजन ही थे।
 वल्लभ सम्प्रदाय में अष्टछाप कवि सूरदास, कुंभनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, नन्ददास, छीतस्वामी, गोबिन्द स्वामी और चतुर्भुज दास थे।  महाकवि सूरदास जी इनमें सबसे प्रमुख थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदासजी की भक्ति और श्रीकृष्ण-कीर्तन की तन्मयता के बारे में उचित ही लिखा है – "आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएं श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं जिनमें सबसे उंची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदासजी की वीणा की थी।"
 सूर ने वात्सल्य, शृंगार और शांत रस को अपनाया और अपने गुरु के बताये पथ पर न केवल चले बल्कि उसे जन मन में प्रतिष्ठित भी किया।


कृति: प्रवेश सोनी 



हिंदी साहित्य में सूर बेजोड़ हैं। और सूर साहित्य में भ्रमरगीत बेजोड़ है। शृंगार रस को रसों का राजा बताया गया है क्योंकि इसके दो पक्ष होते हैं संयोग और वियोग। इसलिए शृंगार का कैनवस अन्य रसों से विस्तृत है वियोग शृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण सूरदास जी के सूरसागर  का भ्रमरगीत प्रसंग है।
सूरसागर के दशम स्कन्ध के दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला’ और 'भ्रमरगीत-प्रसंग' बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसमें से 400 पदों को छाँटकर 'भ्रमरगीत-सार' के रूप में संग्रहित किया है। इन पदों में सगुण भक्ति को श्रेष्ठता व ज्ञान पर प्रेम की विजय सूरदास जी ने प्रकट की है।

भ्रमरगीत प्रसंग इस तरह उपस्थित होता है कि  बाल लीलाएं करते हुए कृष्ण बड़े हो रहे हैं। कभी माखन-चोरी लीला कभी कोई राक्षस-वध लीला कभी गोचारण को जाना कभी माता से लाड लडवाना। कृष्ण केवल एक घर के नहीं पूरी गोकुल नगरी के वासी हैं। वह गोप-गोपियाँ,  नंद-यशोदा बालसखा सभी घुले मिले हुए हैं। सभी पर अपना स्नेह न्यौछावर करते हैं। कृष्ण की लीलाएं गोकुल के नित्य जीवन का हिस्सा हैं।  परंतु जब मथुरा नरेश का संदेश पाकर वे गोकुल से मथुरा चले जाते हैं तब ना केवल गोप-गोपियाँ, नंद-यशोदा बल्कि गायें, पशु-पक्षी आदि प्रत्येक प्राणी यहां तक कि गोकुल की वनस्पतियां भी विरह के ताप में बेसुध हो जाती हैं। सूरदास जी ने इस प्रसंग को बहुत तल्लीनता के रचा है। संपूर्ण गोकुल के प्राण श्री कृष्ण में हैं और उनके वहां न रहने से जो दशा होती है वह अत्यंत कारुणिक है कोई भी सहृदय उस वियोग को अपने हृदय में अवश्य अनुभूत कर सकता है।
भ्रमरगीत में सरसता है।  वाग्वैदग्ध्य एवं माधुर्य के साथ-साथ उद्धव-संदेश, गोपियों की झुंझलाहट, प्रेमातिरेक, व्यंग्य-विनोद, हास-परिहास, उपालंभ, उदारता, सहज चपलता, वचनवक्रता  आदि बहुत मनोरम हैं।

भ्रमरगीत में जो अंश सबसे मोहक लगता है वह है उपालंभ। कृष्ण गोपियों को समझाने के लिए  उद्धव को भेजते हैं। उद्धव जब निर्गुण का उपदेश देते हैं तो गोपियों को तनिक भी अच्छा नहीं लगता। उन्हें आशा थी कि कृष्ण ने प्रेम सन्देश भिजवाया होगा। लेकिन उद्धव का निर्गुण ईश्वर का उपदेश सुनकर उनकी विरह व्याकुलता और बढ़ जाती है। गोपियों की हाजिर ज़वाबी देखते ही बनती है उनके व्यंग्य, ज्ञान पर कटाक्ष उनकी कृष्ण पर आस्था देखकर एक तरह से उद्धव जी की सिटी पिटी गुम हो जाती है। वह ठगे से रह जाते हैं। गोपियां उनसे एक से एक तर्क करती हैं इस प्रसंग में सूरदास जी द्वारा गोपियों का मनोविश्लेषण अद्भुत है। किसी एक बात को अलग-अलग पहलुओं से देखने का दृष्टिकोण इतना महीन कि आश्चर्य होता है। गोपियों के मन की आंतरिक चेष्टाओं का इतना सूक्ष्म-विश्लेषण सूर की गहरी मनोवैज्ञानिक समझ दर्शाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूर के वियोग-वर्णन  के महत्व  को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि - “ वियोग की जितनी अंतर्दशाएं हो सकती हैं ,जितने ढंगों से उन दशाओं का वर्णन साहित्य में हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं |”



कृति: प्रवेश सोनी 


 भ्रमर गीत में बड़ी रूचि व तल्लीनता के साथ सूरदास जी ने विरह की अनेक दशाओं -अभिलाषा, चिंता, गुण-कथन, स्मृति, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मूर्छा एवं मरण आदि का मार्मिक व रोचक चित्रण किया  किया है -

स्मृति -
“एहि बिरियां बन तें ब्रज आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि बारंबार बजावते।।”

वात्सल्य वियोग में चिंता का उदाहरण यह पद-             
“संदेसो देवकी सों कहियो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करति ही रहियो।।”



उद्धव जब कहते हैं कि ईश्वर का कोई रूप आकार नहीं होता वह तो निराकार होता है।
दरअसल उद्धव ज्ञानमार्गी हैं। और गोपियाँ प्रेममार्गी। तो सूरदास जी ने प्रेम को ज्ञान पर श्रेष्ठता प्रदान की है इस प्रसंग में।  गोपियाँ कहती हैं कि हमारे पास तो एक ही मन था उद्धव, वह भी कृष्ण के साथ चला गया। अब ईश की आरधना कैसे करें?  कोई दस बीस मन तो हैं नहीं कि एक से प्रेम करें, एक से निर्गुण को भजें।

उद्धव का आग्रह गोपियों से -
"सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
किर समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।"

गोपियों का उद्धव को उत्तर:-
"ऊधौ मन ना भये दस-बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥"

इस तरह निपट गंवार अनपढ़ गोपियों ने उद्धव को जता दिया कि तुम यह ज्ञान के पौथे अपने पास रखो, हमें नहीं आवश्यकता इनकी। ज्ञान प्रेम की कहीं बराबरी नहीं कर सकता।

संयोग के समय जो प्रकृति सुखकारी थी वही वियोग के समय दारुण दुःख देती है। जहाँ-जहाँ संयोग था-नदी, पेड़, लताएँ, बाग़, कुँज, खेत अब वे सब वस्तुएं स्मृति में दुःख का कारण बन गये हैं।

"बिनु गोपाल बैरनि भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुन्जैं।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं अलि गुन्जैं।।
पवन पानि घनसार संजीवनि, दधि सुत किरन भानु भई भुन्जैं।।
ए उधो, कहियो माधव सों, बिरह कदन करि मारत लुन्जैं।।
सूरदास प्रभु को मग जोबत अँखियाँ भई बरन ज्यों गुन्जैं।।"

वियोग में गोपियों की दशा ऐसी हो गई है कि चाहे कोई भी ऋतु हो उनके यहाँ पावस ऋतु ही रहती है।

"निसिदिन बरसत नैन  हमारे।
 सदा रहत पावस ऋतु हमपै, जब ते स्याम सिधारे।।
दृग अंजन लागत नहिं कबहूँ ,उर कपोल भए कारे"

उद्धव जी अपने ज्ञानमार्ग का आचरण जब गोपियों को समझा रहे होते हैं, उसी समय एक भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आ जाता है। उद्धव जी का एक नाम मधुकर भी होता है। अब तो जी गोपियों को बहाना मिल गया भ्रमर का, वो उसे माध्य्म बनाकर वो खरी-खरी व्यंग्य भरी बातें कहती हैं उद्धव को कि उद्धव जी अपने ज्ञान के तरकश में से तीर चलाते चलाते पस्त हो जाते हैं।

"रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।"



कृति: प्रवेश सोनी 




भ्रमरगीत में गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। :-
"उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी।"

गोपियों का कृष्ण से प्रेम कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि निरन्तर साहचर्य से उपजा प्रेम है। खेल के बहाने तो कभी पनघट पर तो कभी गो-दोहन के समय तो कभी यमुना-तट पर राधा व गोपियों की कृष्ण से भेंट होती ही रहती है। ग्राम के उन्मुक्त वातावरण में ये निरन्तरता प्रेम का रूप धारण कर लेती है। राधा से अचानक हुई पहली भेंट का दृश्य इस प्रकार है :-

“खेलत हरि निकसे ब्रज–खोरी।
औचक ही देखी तहं राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिली परी ठगोरी।।”

सूर परिदृश्य उपस्थित करने में माहिर हैं एक उदाहरण देखिये क्या अद्भुत है।

“बार-बार तू जानि ह्यां आवै।
मैं कहा करौ, सुतहिं नहिं बरजति, घर तें मोहि बुलावै।।
मोंसो कहत तोहिं बिनु देखे, रहत न मेरौ प्रान।
छोह लगति मोकौं सुनि बानी, महरि तिहारी आन।।
मुंह पावति तबही लौं आवति, और लावति मोहिं।
सूर समुझि जसुमति उर लाई, हंसति कहत हौ तोहि।।”

गोपियों का गरीमामय वियोग:- सूर की गोपियाँ चंचल और प्रत्युत्प्न मति वाली तो हैं लेकिन उनका प्रेम बहुत उदात्त और सच्चा है। आंतरिक है। संवेदना की गहराई लिए है।  सूर ने वियोग में कहीं भी उहात्मक स्थिति को नहीं आने दिया है जैसा कि बाद में रीतिकाल के समय हुआ कि विरहिणी नायिका के शरीर के ताप से पापड़ भुंजे गये। सूर ने वियोग के मन पर प्रभाव के बहुत सूक्ष्म चित्र अपने पदों में रखे। उन्होंने मन की पर्तों का अवलोकन किया। गोपियों को पूरी सृष्टि ही वियोगमयी दृष्टिगत होती है क्योंकि वे स्वयं वियोग में हैं। यमुना का पानी भी उन्हें दुःख के कारण काला हुआ जान पड़ता है। यह दुःख  की एकरूपता है। प्रत्येक सहृदय प्राणी इसे महसूस करता है। बुद्ध भी तो संसार में यही दुःख देखते हैं सब में। यहाँ गोपियाँ भी बुद्ध की दृष्टि अपना लेती हैं। वाल्मीकि के राम वन-वन पूछते हैं सीता को, वनस्पति जगत को संबोधित कर भाव व्यक्त करते हैं। तुलसी के राम भी वियोग में वन के पशु-पक्षियों से सीता के बारे में पूछते हैं। कालिदास का यक्ष भी चेतन-अचेतन के भेद को भूल बादल को सन्देशवाहक बनाता है। लेकिन गोपियाँ तो अपने साथ सम्पूर्ण सृष्टि को ही वियोगी समझने लगती हैं। वो मधुवन को उपालम्भ देती हैं:-

"मधुबन तुम कत रहत हरे।
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरे?"

सूरदास के रस एवं भाव निरूपण की सबसे बड़ी विशेषता उक्ति वैचित्र्य एवं वाग्विग्धता की प्रचुरता रही है। तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा, “सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्विद्गधता भी है।” सूर ने भाव सम्पदा से समृद्ध हृदय पाया है मनोभावों पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी है, साथ ही विविध रसों के मर्मज्ञ कवि तो वे हैं ही। वात्सल्य रस के रूप में साहित्य को उनका अवदान तो कालजयी है। भ्रमरगीत के माध्य्म से ज्ञान पर प्रेम की विजय भी सूर की सहृदयता व संवेदनशीलता का प्रमाण है।

अंत में उद्धव अपनी हार मान लेते हैं। वो समझ जाते हैं कि कृष्ण ने उन्हें ज्ञान के बोझ से मुक्त होने व भक्ति के सागर में डुबकी लगाने ब्रज में भेजा था।

"अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गह्यौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ।।"



परिचय:-
अनिता मण्डा
जन्म- 20 जुलाई 1980
सुजानगढ़, राजस्थान।
निवास-दिल्ली
शिक्षा- एम ए, बी एड हिन्दी, इतिहास
साहित्य पठन में रूचि

Thursday, February 1, 2018

मञ्जूषा मन की कविताएँ




मञ्जूषा मन 


परिचय

नाम - मंजूषा मन
पिता - प्रभुदयाल खरे
माता - ऊषा खरे
जन्म - 9 सितम्बर।
सागर (मध्य प्रदेश)

शिक्षा : समाज कार्य मे स्नातकोत्तर (मास्टर इन सोशल वर्क- MSW)

सम्प्रति/व्यवसाय : कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन (सामुदायिक विकास कार्यक्रम)

लेखन विधाएं - कविता, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, छंद, माहिया, कहानी-लघुकथा आदि।

प्रकाशन - 

"मैं सागर सी" हाइकु-ताँका संग्रह एवं 7 साझा संकलन






कविताएँ 

उपयुक्त बीज
बंजर कहकर पुकारा गया
लानतें भेजीं गईं
अपशगुन माना उसका नज़र आना
दूर रहे सब उस जगह से
जिसे कहा गया बंजर...

वहाँ लगाई नहीं गई ऊर्जा
तोड़ी नहीं गई
यहाँ की जमीन,
चलाये नहीं गए हल
इन बंजर जमीनों पर
जिनमें संचित थी क्षमता
जंगलों को जन्म देने की,
उनके पालन करने की...

पर बंजर कही गई
धीरे धीरे होने दिया
सबकुछ पत्थर सा कठोर...

पर किसने सोचा
कि हर जमीन बंजर नहीं होती

कभी कभी
मिलता नहीं उन्हें
अवसर,
अपनी संचित क्षमता के उपयोग का,
कभी मिलता नहीं उन्हें,
पर्याप्त खाद, पानी, हवा
और न ही
उपयुक्त बीज।



वो पँछी
वो एक पँछी
डाल पर बैठा अकेला
बहुत देर तक चीखकर
अब चुप हो गया है,
अब सामर्थ नहीं बचा
और चौंच फाड़ने का
और चीखने का,

अक्सर ही उसके हिस्से का दाना
चुन लेते हैं कौवे
या उसके की ही बिरादरी के
कुछ ताकतवर पँछी,

शाम ढले लौटने पर
दिख जाता है बाहर ही,
कोटर में रहने वाला नाग
अपने तर थूथन पर
दोनों जीभ फिराते
खाकर उसके अंडे,

बिखेर दिया जाता है
उसका घोंसला
जो बनाता है वो
एक एक तिनका चुन
उसे सलीके से सजा कर,

हरबार की तरह
रोकर, चीखकर, चिल्लाकर
आधा पेट दाने पाकर ही
फिर जुट जाता है
तिनके चुनने....

इस दृण निश्चय के साथ
कि एक बार करके तो देखूं
मुकाबला।



 ज्वालामुखी
जाने कौन सा ज्वालामुखी
फूट पड़ा है मन में
हर तरफ बह निकला लावा
नसों में बहने लगा, तपता हुआ

हरे भरे बाग़ बगीचे,
लहलहाते खेत
भरे पूरे जंगल
सब में से गुजरता
बहा जा रहा है अपनी धुन में...

मन के आसमान में छाया है
गहरा काला धुंआ
इस धुंए में कुछ नज़र नहीं आ रहा
जहाँ नज़र दौड़ाओ बस धुंआ ही धुंआ
और चारों तरफ लावा ही लावा...

मेरे मन से बह रहे लावे के साथ
कई अनमोल रत्न भी बह रहे हैं,
मैं रत्नगर्भा हो गई हूँ
चमक रहे है भावों के रत्न,

भावों के लावे ने मुझे रंग दिया
मैं सिंदूरी हो कर
पूरी धरती पर फैल गई
अपने मन के लावे के रूप में







खगोलीय पिंड

ये करा रहे हैं बिछोह
दो मिले दिलों में,
ये करा रहे हैं
व्यवसाय में लाभ-हानि,

ये जोड़ रहे है
जन्म-जन्मान्तर के नाते
ये ही करा रहे हैं
बेटियों के हाथ पीले
ये तोड़ रहे हैं
घर की दीवारें,

गढ़ रहे हैं सपनों के महल
ये उजाड़ रहे हैं
बसे बसाए चमन,
कर रहे हैं चोटिल तन मन

जाने कौन उठकर बैठ जाता है
कौन से घर में
देखने लगता है किस को
वक्र दृष्टी से..
और होने लगती है
सारी जोड़ तोड़
होने लगती है
सारी उठा पटक

क्या सबकुछ घट रहा है
इन खगोलीय पिंडों की चाल से

या
घटता है कुछ
हमारी भी चाल से
हमारे चाल चलन से।




 बीतने वाले

बीतने वालों का
यही बुरा है
ये छोड़ जाते निशान
अपने होने के,
अच्छे और बुरे निशान...

पतझड़ छोड़ जाता है
सूखे पत्तों का ढेर
बंजर/ सूखापन..

बारिश छोड़ जाती है
हरा रंग,
बसन्त भी छोड़ता है
फागुनी गन्ध,

जख्म अपने निशान/दर्द,
उम्र ने छोड़ीं चेहरे पर सलवटें

वर्षा ऋतु छोड़ जाती
कपकपाती ठिठुरन
छोड़ जाती ठंड
बेचैन करती भीषण उमस

इसी तरह छोड़ जाता है
वर्तमान अपना इतिहास
और
इतिहास से हर बार
सीख लेता वर्तमान।




तुम चुप रहना...

कितनी बार पूछा तुमसे-
तुम्हारे ख्यालों के जंगल तक
कभी पहुंचे हैं मेरे ख्याल?
वैसे ही जैसे सरसराती फिरती है हवा
या जैसे पत्तों की कोर पर
लटकती है ओस की बूंद

क्या ऐसे ही कभी
तुम्हारे मन के गलियारे से होकर
गुजरी है
मुझे छू कर गुजरने वाली हवा।

तुम बस मुस्कुरा देते हो
कैसे समझूँ तुम्हारा न कह कर भी कहना

जैसे एक दफा तुमने
सिर्फ बारिश की बूंदे उछालीं
बिना कुछ कहे

एक रोज तुमने जब उड़ा दिए थे
फूंक मार कर सेमल के रेशे
जो उड़कर बिखर गये थे दूर दूर तक
तब भी तो तुमने कहा नहीं था कुछ,

और उस दिन
जब बोल रहीं थी तुम्हारी आँखे
तब तुमने पलकें बन्द कर लीं थीं।

मैं पूछती रहूंगी तुमसे,
तुम ऐसे ही चुप रहना।







 इस रात के बाद...

कितने ही सपने
पलकों में तैर कर खो जाएंगे,
इनमें गुल्ली डंडा खेलते तारे
हाथ में गुब्बारा लिए दौड़ता चाँद..
वहीं कहीं किसी बादल पर बैठकर,
मैं लिख रही हूँ कविता...

आज पलकों का आकाश छोटा पड़ जायेगा,

कविता में तुम गा रहे हो गीत
कविता में तुमने पार कर लिए समन्दर
और भंवरा बन घूम रहे हो सारी धरती ।

तुम हाथ हिला कर विदा हो गए...
अब इस रात के बाद
बस सुबह का इंतज़ार है
अब कभी न सोने के लिए

ऐसे सपने अच्छे नहीं लगते,
जिनमें विदा होते हो तुम।




 पेस्ट कंट्रोल

उद्योगपतियों का पैर
पड़ जाता है अकसर
चींटियों/कीड़े-मकोड़ों के झुंड पर
उन्हें पता ही नहीं चलता
अगर कभी कहीं
थोड़ी हिम्मत जुटा
कोई चींटी या कोई कीड़ा
चढ़ गया तलुवे से ऊपर
और महसूस हुई
सरसराहट
या चींटी ने कर दी हिमाकत
डंक मारने की...

तब वहीं
धीरे से मसल दिया उसे
और कराया गया
पेस्ट कंट्रोल।



 सहारा
तुमने कहा - "तुम लता बन जाओ"
मैं हूँ न सहारा देने को,
मेरे सहारे तुम बढ़ना ऊपर
छूना आसमान...

खो गई में तुम्हारी घनाई में
तुम्हारे घने पत्तों के बीच
दम घुटने लगा था मेरा
पर मेरी नाजुक टहनियाँ उलझ चुकीं थी तुम में,
निकल पाना सम्भव नहीं हुआ
मैं घुट घुट कर मरने लगी,
मेरे पत्ते मुरझाने लगे,
मुझपर छाने लगा पीलापन,

और तुम
दम भरते रहे
मुझे सहारा देने का...

तुम भूल गए
कि मैं अमरबेल हूँ
में कहीं भी जी सकती हूँ
मैं मरती नहीं..



मिन्नतें

मिन्नतें मेरी
सिरे से ठुकरा देता है वो
दिल के बदले
मेरे ही ऐब गिना देता है वो

मैं फिर भी ढूंढती हूँ उसे ही
उगते सूरज की किरणों में
ढलते चाँद की फीकी चमक में,

तमाम दिन भटकती हूँ
उसके मसरूफियत के जंगल में और रात उसकी नींद के रेगिस्तान में
कुलाँचे भरती हूँ मरीचिका के पीछे...

उसकी ही तस्वीर हर पल... हर शै में उभर आती है
बस वो ही वो है हर ओर

पर नहीं मिलता
उसमें ही वो....



क्या है मेरे पास
खोज डाली सब सन्दूकें
टटोल लिए नए पुराने बटुए,
चाहा था आज
अपनी पूंजी का हिसाब,

क्या है मेरे पास??
प्रश्न जाने क्यों उठा मन में

पाये कुछ सिक्के,
कुछ छोटे बड़े नोट
जिन्हें देख बहुत खुशी नहीं हुई...

इनमें मिलीं थीं कुछ कविताएँ
जो असल में पत्र थे प्रेम के,
एक मर्दाना रुमाल भी था
जिसमें लिपटी रखीं थी यादें,
उन पलों की
आँसू पोंछने को दिया था तुमने जब...

एक डायरी में दबे हुए थे
कुछ धूप के टुकड़े
थीं कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ,

कुछ रंगीन कंचे
एक प्लास्टिक की गुड़िया भी थी
जिसका एक हाथ टूट था
इमली के बीज,

कुछ और भी था
जो कीमती हो शायद

कौन कहता है
मेरे पास कुछ नहीं








मनोरंजन

मेहमानों के लिए
चाय और नाश्ते की व्यवस्था
करते हुए ही
कर लेनी होती हैं बातें भी,


रात का खाना बनाते हुए
कड़ाही में करछुल हिलाते
कानों पड़ते
पसंदीदा टी वी सीरियल की आवाज सुन
हाथों की रफ्तार बढ़ जाती है
कि किसी तरह
देखा जा सके सीरियल
भाग कर पकड़ लेती है
सीरियल का अंतिम डायलॉग...


कपड़े धोते हुए
रेडियो सेट करती है
और....
ये है विविध भारती....
सुनकर मुस्कुरा देती है...
चार से पाँच फरमाइशी फिल्मी नग़मों के
पूरा होने तक निपटा लेती है धुलाई...


नल पर पानी भरते हुए
पड़ोसिन से कर लेतीं हैं बातें
कह लेतीं हैं सुख दुख
कर लेतीं हैं कुछ ठिठोली...


गेंहू और चावल
छानते फटकते
गा- गुनगुना लेतीं हैं
दादरे, भजन, फिल्मी गीत...


औरतें क्या क्या करतीं हैं
अपने मनोरंजन के लिए





उड़ान

पैरों में डाल दीं गई थीं
परम्पराओं की बेड़ियाँ
कि तय न की जा सकें
सफलता की राहें...


परों पर चलाईं गई थीं
रिवाज़ों की कैंचियाँ
कि नापी न जा सके
आसमान की ऊंचाई...


फिर भी मैं
पार कर आई
सघन अंधेरे का जंगल
हालांकि आंखों पर अनपट था !


मैं दौड़ पड़ी साहस समेट
बेड़ियाँ घसीटते हुए
दूर तक ..
बस दौड़ती ही चली गई। !


छू ही आई एक दिन
आसमान की ऊँचाइयाँ,
लहू से सराबोर परों से !


फिर एक सुबह देखा
जगमगा उठा था आसमान
मेरी आँखों में जीत की चमक देख !


हार की काली रात
ठीक उसी सुबह ढली ।

मंजूषा मन


कविताओं पर बात 
प्रदीप मिश्र 
मंजूषा जी की इन कविताओं में भारतीय स्त्री अपनी संपूर्णता के साथ उपस्थित है। कविता का दायित्व है कि वह अपने समकाल को ठीक से दर्ज करे। यह काम मंजूषा जी बखूबी किया है। सारी कविताएँ स्त्रियों के इर्द गिर्द हैं। इसलिए इसमें दुहराव के संकट हैं। कवियत्री ने इस संकट से बचने का प्रयास किया है और सफल भी हुई हैं। यह उनके कविताई के कौशल को रेखांकित करता है। कविताओं में शब्दों के वर्ताव एवं चयन में और प्रवीणता की जरूरत है। कविताओं में अभी अपने मुहावरे को प्राप्त करना है।

अपर्णा अनेकवर्णा
ये आज बहुत बड़ी बात मानती हूं क्योंकि लिख तो हम सब ही रहे हैं। अब कितनी कविता लिख रहे हैं ये बिल्कुल ही अलग बात है।


इन कविताओं में स्त्री मन है और उसकी दृष्टि है। ये एक 'मध्यमवर्गीय घरेलू स्त्री' है जैसा राजेंद्र जी ने अपनी टिप्पणी में कहा है। तो ये हर स्त्री की कविता न होकर भी एक बहुत बड़े वर्ग की स्त्री की कविता है।

मुझे ये स्त्री, रूढ़ीवादी परम्पराओं से जकड़ी स्त्री और आज़ाद स्त्री के बीच की कड़ी लगी। इसकी सोच विकसित है, यह स्व को पहचानने लगी है, उसकी आकांक्षा करती है पर अभी उसे पा नहीं सकी है। ये कविताएं अपने इस टोन इस व्यग्रता के लिए महत्वपूर्ण हैं।

शरद कोकास
मंजूषा बहुत अच्छे दृश्य बुनती हैं । स्त्रियों के जीवन को इतने करीब से देखना और उसकी साधारणता में स्थित असाधारणता को लक्षित कर उसे कविता का विषय बनाना वास्तव में कवि कर्म है । कैशलेस जैसे विषय पर कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है ।
कविता में यदि द्रश्यों के साथ कुछ बिम्बों को और पिरोया जाए तो कविता बहुत परफेक्ट हो जाएगी
तीसरी कविता उड़ान स्त्री के दुर्दम्य आशावाद की कविता है , यह कविता भी अंत तक ब्यौरों के साथ चलती है और अंत मे अपने निर्णय तक पहुँचती है । वस्तुतः एक स्त्री के संघर्ष का अंत इतना आसान नही होता । काली रात का सुबह में ढलना चिरपरिचित बिम्ब है । वस्तुतः यह कविता का प्रस्थान बिंदु होना चाहिए ।

अबीर आनंद
बहुत अच्छी लगीं कविताएँ। सबसे अच्छी बात ये कि एक को छोङकर बाकी सब कविताएँ सकारात्मकता लिए हुए हैं।
जमीन से जुङी हुई कविताएँ हैं, जिनमें आम सी जिंदगी के ठहराव में से रस, आशा और स्वाद दुहने का प्रयास किया गया है। स्त्री विमर्श की टिपिकल कविता भी है, कोई बात नहीं, अच्छी बन पङी है। उङान की भावना में दोहराव है, इसी भाव की कई कविताएँ पढ़ी हैं। यहाँ मौलिकता का न होना थोङा खलता है। बाकी, सच कहूँ तो आपकी कविताएँ  लय में लगीं। पाठक से सीधा सरल संवाद करती हुई नजर आईं।


चित्र गूगल से साभार

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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