Tuesday, June 6, 2017


कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता थे। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ। 


पूंजी मृत श्रम है जो पिशाच की तरह है जो केवल श्रम चूसकर ही जिन्दा रहता है और जितना अधिक जीता है उतना श्रम चूसता है.
कार्लमार्क्स 
ऐसी विचारधारा के प्रणेता के जन्मदिवस पर डॉ  संजीव जैन ने मार्क्स के विचारों को संग्रहित करके मार्क्सवाद और पूंजीवाद पर रोशनी डाली |






डॉ. संजीव कुमार जैन

सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय
गुलाबगंज, म.प्र.











मार्क्सवाद क्या है
मार्क्सवाद क्या है? यह प्रश्न बार बार उठाया जाना चाहिए और एक समस्या के रूप में उठाया जाना चाहिए। मार्क्सवाद वह दर्शन है जिसने अब तक उपलब्ध दर्शनों को समस्यात्मक बना दिया। इतिहास के दर्शन और दर्शन के इतिहास को देखने और व्याख्यायित करने का ढंग बदल दिया, ‘मानव’ के भौतिक अस्तित्व को समस्याग्रस्त कर दिया। वस्तुओं और संबंधों के स्वतंत्र अस्तित्व के स्वीकार को नकार  में बदल दिया और उनके आन्तरिक संबंधों के अन्तर्द्वन्द्व, संघर्ष को उसके अस्तित्व के होने के रूप में पेश करके विश्व की रचना को पुनः व्याख्यायित करने की समस्या पैदा कर दी।

‘गति’ के उपलब्ध तमाम नियमों की धूरी को हाशिये पर डाल कर नया केन्द्र उपस्थित कर दिया और इस तरह ‘जीवन’ और ‘जगत’ की सीधी सरल रेखा को ‘वक्र रेखा’ और ‘कर्व रेखा’ में बदल दिया। हजारों वर्षों के ‘आधार’ ‘अधिरचना’ के संबंधों की संरचना को समस्याग्रस्त करके नये आधार और अधिरचना को उपस्थित करके दुनिया की संरचना को ही बदल दिया।

मार्क्सवाद क्या है? यह एक विश्व व्यवस्था है जो दुनिया को पुनः रचने और मानवीय बनाने के कार्यभार का वहन करती है -‘‘मार्क्स के लिए, समाजवाद एक विश्व व्यवस्था है जिसमें हमारे पास एक संघ होगा, जिसमें प्रत्येक का मुक्त विकास, सभी के मुक्त विकास की शर्त होगी। इस तरह का समाज लोकतांत्रिक और वर्गहीन होगा, और उत्पादन के साधन, चंद लोगों के लिए नहीं बल्कि कई लोगों के हाथों में होंगे। वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण जरूरतों के लिए किया जाएगा, मुनाफे के लिए नहीं।’’ (माइक कोल, मार्क्सवाद और शैक्षिक सिद्धांत, गंथ शिल्पी, पृ. 61)

‘‘साम्यवादी समाज के उन्नत चरण में, जब किसी व्यक्ति की श्रम विभाजन से दासता की अधीनता, और इसके साथ इसकी विरोधाभासी पक्ष शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच खत्म हो जायेगा; जब श्रम जीवन का साधन नहीं रह जायेगा बल्कि जीवन की मुख्य जरूरत बन जायेगा; जब उत्पादक ताकतें भी व्यक्ति के समग्र विकास के साथ बढेंगी। और सहकारी धन का प्रवाह सभी दिशाओं में समान रूप से होगा - तभी पूरी तरह यह संभव होगा कि दक्षिणपंथी बुर्जुआ वर्ग की संकीर्ण नजरिए को पार किया जा पाएगा, और प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी जरूरत के अनुसार केवल तभी समाज अपने ध्वज पर यह लिखने के काबिल होगा।’’( माइक कोल, पृ. 61

‘‘कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने में वैचारिक रूप से समाजवादी हो सकता है पर वह व्यवहार में जीवन में तब तक समाजवादी नहीं हो सकता जब तक पूरा मानव समूह जिसमें वह जीवन यापन करता है और एक विशिष्ट उत्पादन के संबंधों की संरचना में संरचित रहता है, समाजवाद को न अपना ले। यहीं से एक समस्या खड़ी होती है, वह यह कि ‘एक व्यक्ति का होना’ उसका अस्तित्व ‘एक विशिष्ट ऐतिहासिक सामाजिक संबंधों की संरचना के होने से है, न कि उसके भौतिक रूप से विद्यमान होने से। यह संबंधों की संरचना का तंत्र अपने भीतर रहने वाले व्यक्ति घटकों की वैयक्तिकता और अस्मिता की पहचान सुनिश्चित करता है। जब एक व्यक्ति संबंधों के विशिष्ट संरचना तंत्र को छोड़कर दूसरे तंत्र में प्रवेश करता है तो उसकी पहचान और वैयक्तिकता दोनों बदल जाते हैं। यह बदलाव स्थान या धर्म या संस्कृति के बतौर नहीं होता, यह व्यवस्था तंत्र के बदल जाने से ही संभव है।

एक समाजवादी तंत्र में कोई व्यक्ति अपने विचारों से घोर पूँजीवादी हो सकता है, पर यदि वह समाजवादी तंत्र के संबंधों की संरचना में स्थित रहता है तो उसके सामाजिक जीवन में व्यवहारतः समाजवादी उत्पादन और मूल्य संबंधों के तहत ही उसे जीवन का निर्वाह करना होगा न पूँजीवादी व्यवस्था के उत्पादन संबंधों और मूल्यों को व्यवहरित कर सकता है।

समाजवाद की राह में यह समस्या सबसे जटिल अवरोध पैदा करती है। इसी अवरोध को मिटाने के लिए समाजवादी तानाशाही का जन्म होता है। व्यक्ति का अनुकूलित चरित्र और स्वभाव इतनी आसानी से नए संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाता है, यदि वह वैचारिक रूप से ओरियेन्टेड न हो तो, या वह पूर्व के व्यवस्था तंत्र से उत्पीड़ित हो तभी वह नए व्यवस्थातंत्र को स्वीकार कर पाता है। समाजवादी व्यवस्था के लिए मजदूर वर्ग को ही संघर्ष करने के लिए पहल करने पर मार्क्स का इतना अधिक वजन क्यों था? इसका जबाव इसी बात में निहित है कि वही वर्ग ऐसा वर्ग है जो पूँजीवादी तंत्र में सबसे अधिक उत्पीड़ित ‘था’, ‘है’, और ‘रहेगा’।

हम आज के पूँजीवादी तंत्र का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि उसने मजदूर वर्ग को अनुकूलित करने की कोशिश नहीं कि बल्कि उसे ‘एक वर्ग के रूप’ में और ‘अपने आप में एक वर्ग के रूप’ में नेश्तेनाबूद करने का प्रयास किया है। समाज के शेष सभी वर्गों को उसने अनुकूलित कर लिया है। विशेषकर मध्यवर्ग और स्त्री वर्ग को सर्वाधिक सचेत तरीके से अनूकूलित करने का अभियान पिछले सौ वर्षों से निरंतर जारी है और आज भी चल रहा है यद्यपि भारत जैसे देश का तथाकथित शिक्षित मध्यवर्ग पूरी तरह पूँजीवादी तंत्र के मुनाफा कमाऊ अभियान का पालतू बैल बन चुका है, तथापि आने वाले लोग भी निरंतर अनुकूलित होते रहें उसके लिए ‘शिक्षा’ और ‘मीडिया’ के अश्वमेघ लगातार दौड़ रहे हैं।

शिक्षा और मीडिया के अलावा ‘‘निरंतर समयबद्ध युद्ध’’ और ‘‘राज्य द्वारा प्रायोजित ंिहंसा के विविध परिष्कृत रूप’’ अनुकूलन के ताकतवर हथियार हैं। इनको व्यवहरित करने के लिए राज्य के पास सेना, पुलिस, प्रशासन, आर्थिक प्रतिबंध, राजकीय सुविधाओं का रोका जाना, धार्मिक तत्वाद के माध्यम से प्रताड़ित किया जाना, साम्प्रदायिक और नस्लीय नीतियों को छिपे तरीके से अपनाया जाना इत्यादि कई तरीके होते हैं, क्योंकि वह सत्ता में है और राष्ट्र की तमाम कानूनी और आर्थिक नीतियों और साधनों पर उसका वर्चस्व होता है।

दरअसल एक बड़ा अन्तर्विरोध इस रूप में भी देखा जा सकता है कि पूँजीवादी तंत्र में उत्पीड़ित पूँजीवादी उत्पादन संबंधों की संरचना में मकड़ी के जाले में फंसी मक्खी की तरह जकड़ा रहता है, पर जाल रचने वाले मकड़ी इस तंत्र में रहते हुए भी उससे बाहर रहती है। पूँजीपति तमाम तरह के तंत्र के बाहर रहता है। पूँजीपति एक सामाजिक प्राणी है पर वह निरंतर समाजिक तंत्र के बाहर रहता है, इस अर्थ में वह असमाजिक प्राणी होता है, जो रहता तो स्वयं के द्वारा निर्मित और रचित तंत्र में है पर उसका आचरण पशुओं की तरह वैयक्तिक होता है। यही कारण है कि वह उत्पीड़ितों के साथ किसी तरह की सहानुभूति या संबंधों की गरमाहट को महसूस नहीं करता। वह अपने उत्पीड़क चरित्र के साथ एक ‘‘सुरक्षित दुनिया’’ में रहता है जिसमें शेष मानवीय गतिविधियों की कोई क्रिया प्रतिक्रिया या आवाज नहीं पहँुचती है।

यद्यपि उसे (पूँजीपति को) समाज की आवश्यकता होती है, इसलिए नहीं कि उससे कोई मानवीय संपर्क स्थापित करना है या उसके संबंधों का विस्तार वहाँ तक करना है, कदापि नहीं, पर इसलिए कि उसकी सामूहिक श्रम का शोषण करके वह अपने मुनाफे और ‘‘सुरक्षित दुनिया’’ को और अधिक सुदृढ़ बनाये रख सके। उत्पीड़ितों के बिना उत्पीड़क का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा। शेष दुनिया जो अभावों में जी रही है और उसके लिए श्रम कर रही है, यदि स्वयं में सामूहिक रूप से आत्महत्या करले या आत्मविनाश करले तो उत्पीड़क वर्ग को भी आत्म हत्या करने पर विवश होना पड़ेगा। उसका जीवन उत्पीड़ित और उत्पीड़क के एक संबंधों की संरचना के तहत ही चल रहा है यदि यह संबंधों की संरचना मिट जायेगी तो वह निरा पशु की तरह फालतूपन और व्यर्थता बोध की अनुभूति के दुष्चक्र में घिर कर आत्मविनाश करने लगेगा। 

इस स्थिति में ही हम मार्क्सवादी कार्य योजना को समझ सकते हैं - ‘‘मार्क्स समाज के निर्माण पर जोर देता है जहाँ सामाजिक हितों को व्यक्तिगत फायदों के लिए परे नहीं धकेला जाता है, जहाँ मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच और विचार और गतिविधि के बीच के अंतर को बंद किया जाता है और जहाँ मानवीय रचनात्मकता बढ़ाई जाती है।’’ माइक कोल, पृ. 15

हम वर्तमान शताब्दी से अब तक जिस व्यवस्था में रह रहे हैं उसमें निरंतर सामाजिक हितांे को व्यक्तिगत हितों के पक्ष में या तो स्थगति किया जाता रहा है या उसे निरस्त किया जाता रहा है। ‘मानवीय जीवन के लिए आवश्यक पर्यावरण’ के विनाश की ओर बढ़ने के लिए उत्तरदायी भूमंडलीकरण को तमाम देशों द्वारा निरंतर अपनाये जाने के रूप में इस बात को बहुत गहराई से समझा जा सकता है कि किस तरह कुछ ‘‘दैत्याकार निगमों’’ को लाभ पहुँचाने के लिए हम व्यापक मानवता के विनाश को स्वीकार करते जा रहे हैं। मार्क्सवाद इस स्थिति के बरक्स एक विशुद्ध मानवीय हितों के अुनकूल सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण को बनाये जाने के लिए आवश्यक कार्यवाही और आचरण से युक्त कार्य योजना प्रस्तुत करने वाला दर्शन है।

मार्क्स के समाज में ‘व्यक्ति हित’ सामाजिक हितों के अनुपूरक और सहयोगितात्मक मूल्यों के आचरण वाले होंगे न कि सामाजिक विनाश की दिशा में वृद्धिंगत पूँजीपतियों के हितांे की तरह। मार्क्स की उत्पादन पद्धति और तकनीक व्यापक मानवीय हितों के अनुकूल पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए जरूरी उत्पादन ही करेगी। न कि एक ओर अति उत्पादन से पृथ्वी के मूल स्रोतों का नष्ट होते जाना और दूसरी ओर क्रय शक्ति के अभाव में एक बड़ी जनसंख्या को भूख और गरीबी से मरते जाने का संकट पैदा करने वाली स्थितियों को पैदा करना।

हमारी धरती पर मानव के उदय और विकास ने जीवन का दबाव कई गुना बड़ा दिया है। पशु और अन्य प्राणी धरती के पर्यावरण को उस तरह से प्रभावित नहीं करते जिससे वह विनाश को ओर बढ़ने लगे। वे एक दूसरे को अनुकूलित करते हैं और अनूकूलित होते हैं। पर मानव की सचेत गतिविधियों ने प्रकृति को असंतुलित करने की दिशा में प्रभावित किया है। औद्योगिकरण के साथ यह असंतुलन निरंतर बढ़ता जा रहा है। इस संबंध में डग लॉरिमर लिखते हैं - ‘‘धरती पर मानव का प्रभाव किसी भूगर्भीय ताकत से कम नहीं है। एक अनुमान के अनुसार मानव पिछली सदियों में धरती से कम से कम 50 अरब टन कार्बन, दो अरब टन लोहा, बीस अरब टन तांबा, बीस अरब टन सोना इत्यादि निकाल चुका है। मानव की उत्पादन गतिविघि प्रति वर्ष कम से कम पाँच घन किलोमीटर पत्थर धरती की सतह पर ला देती है। लोग महासागरों पर  नहरे खोद डालते हैं, और समुद्र से मिट्टी पत्थर निकाल लेते हैं। रेगिस्तान में सिंचाई करके, दलदलों को सुखाकर और नदियों के प्रवाह की दिशा बदलकर मानव मौसम में भी परविर्तन कर देते हैं। मौसम पर मानव गतिविधियों का अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ता है जैसे तेल, कोयला और पीट जालने से प्रति वर्ष एक अरब 50 करोड़ टन कार्बन वातावरण में फेंका जा रहा है। हवा में कार्बन की मात्रा धरती का तापक्रम नियंत्रित करने के कई कारकों में एक है।’’ (ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूल सिद्धांत, पृ. 96)

वे आगे कहते हैं कि इसके लिए मानवता पर दोष नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार है निजी मुनाफा कमाने के लिए उपयोग किये जा रहे मानव श्रम की विवशता। मार्क्सवाद इसी विवशता से मुक्ति का पथ प्रदर्शित करने वाला दर्शन है। जिसमें व्यक्ति या कोई समूह इस तरह पराधीन नहीं होगा कि वह अपनी इच्छा से स्वतंत्र और मानवीय हितों के प्रतिकूल अपने श्रम को बेचने को विवश हो। प्रत्येक मानव व्यापक मानवीय जीवन के सुरक्षा और उसके लिए आवश्यक पर्यावरण को बनाये रखने की दिशा में कार्य करने के लिए अपने श्रम का योगदान देने के लिए पूर्ण स्वतंत्र होगा। इसमें प्रतियोगिता और होड़ न होकर सहयोगिता और सामंजस्य होगा।

मिशेल परेंटी लिखती हैं - ‘‘पूँजीवाद आत्मा रहित, मानवता रहित एक व्यवस्था है। यह प्रत्येक मानवीय गतिविधि को बाजार के मुनाफे में बदलने की कोशिश करता है। लोकतंत्र पारिवारिक मूल्यों, संस्कृति, ज्यूदियों-क्रिश्चियन नीतिशास्त्र, सामान्य जनता या अन्यों में से कई इसके जनसंपर्क प्रतिनिधियों द्वारा समय समय पर दिए जाने वाले नारों के प्रति इसकी कोई जवाबदेही नहीं है। इसमें किसी भी राष्ट्र के प्रति जबावदेही नहीं है, इसकी वफादारी किसी के प्रति है तो वह पूँजी संचय की इसकी अपनी व्यवस्था के प्रति। यह केवल अपनी सेवा करता है, सभी से खींचकर।’’ (माइक कोल पृ. 19)

शिक्षा का मूलमंत्र है कि आप दूसरों से अलग कैसे हैं, कैसे बनें और कैसे दिखें? यह समूह से व्यक्ति को अलग करने के सिद्धांत पर आधारित है। यही पूँजीवाद का लक्ष्य है, क्योंकि इसी तरह से अलगावीकृत व्यक्ति समूह के साथ अपने भौतिक अस्तित्व को अनुभव नहीं करता और इसी स्थिति में वह पूँजीवाद के लिए उपयोगी होता है, उसके मुनाफा कमाने की मशीन कर तरह और एक उपभोक्ता के रूप में शोषित होने के लिए।

‘‘बायल्स और जिंटिस तर्क देते हैं कि शिक्षा तंत्र जनता को पढ़ाते हुए यह कोशिश करता है कि उनकी चेतना को पर्याप्त कुशलता से अलग-अलग करके वह योग्य अधीनस्थ बनें ताकि साथ मिलकर अपने भौतिक अस्तित्व को एक साथ प्रकट न कर सकें।’’ (माइक कोल,पृ. 71)

मार्क्सवाद क्या है? इस प्रश्न को समस्या की तरह उठाया जाना चाहिए कि दरअसल मार्क्सवाद दुनिया को तरह संयोजित और संरचित करने की योजना है? मार्क्सवाद निरतंर और भयावह रूप से असमान होती जा रही दुनिया को ‘समानता’ (यह समानता  फ्रांसीय क्रांति के नारे के अर्थ में नहीं है) अर्थात् जीवन के लिए आवश्यक तत्वों के उत्पादन के अधिकारों की समानता, प्रकृति में उपलब्घ और मानवीय श्रम से सृजित उत्पादित वस्तुओं पर सबका समान रूप से अधिकार और समान रूप से सबको उपलब्धता, पीने योग्य पानी, खाने योग्य खाना, पहनने योग्य कपड़े, करने योग्य काम, रहने योग्य आवास, जीने योग्य पर्यावरण, मानवीय विकास के लिए आवश्यक शिक्षा और कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थों में समानता को लागू करने की योजना है। 

इसकी आवश्यकता उस वक्त महसूस होगी जब हम यह जानेंगे कि आज कि दुनिया में असमानता कितनी भयावह स्थिति में मानवता का विनाश कर रही है। ‘‘दुनिया की पूरी आबादी की करीब आधी आबादी 1.40 डॉलर प्रतिदिन से भी कम आय पर बसर कर रही है और प्रत्येक एक डालर का सहयोग जो गरीब देशों में किया जा रहा है, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उससे 1.50 डॉलर का लाभ खींच रहीं हैं’’ (माइक कोल पृ. 109) 

‘‘बीसवीं सदी के आखिर में दुनिया के बड़े शहरों में लगभग 100 करोड़, प्रताड़ित और भूखे सड़क के बच्चे थे, दासत्व पुनः उभार पर है और लगभग 2 करोड़ (मिलियन) लड़कियाँ जिनकी उम्र 5 से 15 साल थी, वेश्यावृत्ति बाजार में लाई गईं थीं। लगभग सौ करोड़ लोगों के पास रहने के लिए उचित आवास नहीं थे, और 800 करोड़ लोगों के पास भोजन की सुनिश्चितता नहीं थी जो भूखे थे। छह हजार बच्चे अस्वच्छ पेयजल के कारण प्रतिदिन मरते हैं और 11 करोड़ बच्चे 2006 तक मर जायेंगे क्योंकि वे गरीब पैदा हुए थे।’’ (माइक कोल पृ. 110

‘‘वास्तव में दुनिया केन्द्र और परिधि में धु्रवीकृत होती जा रही है। अमीर और गरीब के बीच अंतर के साथ, शक्तिशाली और शक्तिहीन के बीच बड़े स्तर पर बढ़ रहा है है। 1990 के दशक के अंत तक दुनिया में 300 सबसे अमीर बड़े निगमों के पास 70 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विश्विक पूँजी और संपत्ति का 25 प्रतिशत भाग था। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत पर दुनिया के 225 धनाढ्यों की संयुक्त संपत्ति मोटे तौर पर द    ुनिया की 47 प्रतिशत आबादी के बराबर थी और 8 कंपनियाँ दुनिया की आधी आबादी से भी अधिक आय अर्जित करती हैं।’’ (माइक कोल पृ. 110)

आज 125 मिलियन बच्चे स्कूल नहीं जा सकते और 110 मिलियन बच्चे किशोरों और वयस्कों को पढ़ने-लिखने की जैसी बुनियादी कौशल सीख पाने से पहले ही स्कूल छोड़ देना पड़ता है। इसी समय विश्विक शिक्षा बाजार 3,000 अरब डॉलर (बिलियन) यूरो से ज्यादा मूल्यवान है।(माइक कोल पृ. 110)

असमानता और विसंगति की इस भयावह सच्चाई को पाओला आलमान इस तरह प्रस्तुत करती हैं - ‘‘अनुमानतः ऐसे बच्चों की संख्या जो सड़कों पर सो रहे हैं, लगभग दो करोड़ है। इनके लिए इनका आवास या शरण्य या तो गत्ते का कोई डिब्बा होता है या फिर किसी घर की देहरी, और करोड़ों और बच्चे ऐसे घरों में रह रहे हैं जहाँ न पानी मिलता है, न बिजली और न सफाई। विश्वभर के बाल श्रमिकों की विशाल फौज में बीस करोड़ बच्चे शामिल हैं। जिनमें से बहुत से बच्चे थोड़े से मेहनताने के लिए असुरक्षित, अस्वास्थ्यकर और प्रायः अवैध स्थितियों में घंटों-घंटों काम करते हैं। हम जानते हैं कि बहुत से बच्चे अनावश्यक रूप से कुपोषण का शिकार हो रहे हैं, यहाँ तक उन कुछ देशों में जिनकी आधी वार्षिक आय अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक का कर्जा चुकाने में खर्च होती है, हर घंटे एक बच्चा कुपोषण की मौत मर रहा है। ‘अमरीका में हर पांच में से एक बच्चा गरीबी की रेखा से नीचे जी रहा है। ये और ऐसे बहुत से आंकड़े बताते हैं कि बहुत से बच्चों के लिए उनका पैदा होना ही भयावह अभिशाप है, और इन आंकड़ों का प्रत्युत्तर दानराशि से दिया जाता है।’’ (भूमंडलीय पूँजीवाद के विरुद्ध आलोचनात्मक शिक्षा, पी आलमान, पृ. 57 -58)

वे आगे लिखती हैं कि - ‘‘शायद समकालीन यथार्थ का सर्वाधिक चर्चित पहलू बहुत अमीर और बहुत गरीब के बीच बढ़ता हुआ अंतर है - समुद्धि और गरीबी का धु्रवीकरण। पूरी बीसवीं सदी के दौरान टिप्पणीकार दुनिया के विकसित और अल्पविकसित देशों के बीच के विभाजन- यानी केन्द्र और हाशिये के बीच के विभाजन-पर ध्यान केन्द्रित किए रहे हैं। यह उनकी केन्द्रीय चिंता का विषय रहा है, फिर भी देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमीर और गरीबों के लोगों के बीच धु्रवीकरण न केवल तेज हुआ है बल्कि प्रत्यक्षतः दिख भी रहा है। उदाहरण के लिए, इस तरह के आंकड़ों को बार-बार प्रस्तुत किया जाता है कि दुनिया में अब 350 ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी कुल परिसंपत्तियाँ एक अरब या उससे अधिक अमरीकी डॉलर की हैं यानी विश्व के 45 प्रतिशत लोगों की संयुक्त परिसंपत्तियों से भी अधिक। मैकग्रेगर के अनुसार जिन्होंने अपने आंकड़े 1998 की संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट से लिए हैं, दुनिया के पन्द्रह सर्वाधिक समृद्ध लोगों की संपत्ति उप-सहारीय अफ्रीका की समग्र वार्षिक आय से अधिक है। यही रिपोर्ट यह भी दरशाती है कि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के किसी भी देश की तुलना में अमरीका की प्रति व्यक्ति आय सर्वाधिक है और गरीबी की दर भी यहीं सर्वार्धिक है।’’(पाओला आलमान, पृ. 58)

यह संक्षिप्त पर भयावह आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि दुनिया में विषमता कितनी भयावह स्थिति तक पहुँच गई है और अधिकांश आबादी भूखों मरने के लिए क्यों विवश है? शोषण और संचयन का इतना भयावह रूप पहले कभी नहीं था। यह स्थिति व्यक्तिगत योग्यता या श्रम का परिणाम नहीं है, यह व्यवस्था के द्वारा शोषण के तंत्र का विकास, उसकी सुरक्षा और उसके वृद्धि के लिए निरंतर किए गए राजकीय प्रयासों का प्रतिफल है।

मार्क्स का दर्शन इसी विषमता के बरक्स एक मानवीय समता मूलक समाज की स्थापना के लिए सैद्धांतिकी के साथ साथ रणनीतिक कार्यवाही को प्रतिपादित करता है। क्या हमें नहीं लगता कि यह विषमता राक्षसी प्रवृत्ति की द्योतक है और इसके खिलाफ आवश्यक कार्यवाही की जानी अब अनिवार्य हो गई है। क्या यह प्रथ्वी और इसके संसाधन सिर्फ 300 - 400 सौ लोगों के लिए हैं? क्या यह मानवीय है? यदि नहीं, तो क्यों नहीं कार्यवाही आरंभ की जाये। मार्क्स यही कार्ययोजना अपने स्तर से प्रस्तुत करते हैं। वे यह मानते हैं कि यह संभव होगा देर सवेर जब कभी उत्पीड़ित वर्ग एक वर्गीय चेतना में संयुक्त होकर अपने भौतिक अभावों की जिम्मेदारी तय करेगा तो यह विषमता रेत के ढेर की तरह ढह जायेगी।

मानवीय विषमता का यह नक्शा किसी एक देश या समाज का नहीं है। यह संपूर्ण विश्व की स्थिति है और इसीलिए उत्पीड़ितों को अपनी राष्ट्रीय और जातीय सीमाओं को तोड़कर पूँजी के प्रवाह की तरह का चरित्र अपनाना ही सार्थक कदम होगा। जिस तरह पूँजी मुनाफे के शोषण के लिए  भूमंडलीय हो गई है उसके लिए किसी राष्ट्र की किसी तरह की सीमा का कोई मायने नहीं है ठीक यही चरित्र उत्पीड़ितों को अपनाने की आवश्यकता है। आज विषमता का अर्थशास्त्र रचने वाली व्यवस्था विश्वव्यापी है तो हम क्यों अपनी जाति, धर्म और राष्ट्र की सीमाओं में बंधे रहें। यही विवशता तो हमें विश्वव्यापी प्रतिरोध की शक्तियों की एकजुटता के साथ प्रतिबद्ध नहीं होने देती और इसी कारण पूँजी अपने सीमाहीन प्रवाह में निरंतर शोषण को जारी रखे हुए है।

जब शोषण और उसकी तकनीक विश्वव्यापी है तो प्रतिरोध राष्ट्रीय और स्थानीय चरित्र में क्यों बंधा रहे? ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ’ का नारा प्रतिरोध के इसी विश्वव्यापी चरित्र का आह्वान करता है।

मार्क्स का दर्शन हमें यह बताता है कि यह दुनिया जो आज है और जिस रूप में भी इसने भौतिक उन्नति की है, भले ही उसका लाभ कुछ मुट्ठीभर लोग ही उठा रहे हों, यह  अब तक जन्में सभी मनुष्यों के लगातार किये गए सामूहिक श्रम का परिणाम है, यह किसी एक व्यक्ति या एक वर्ग के द्वारा किये गए श्रम का परिणाम नहीं है। अतः इस दुनिया में बराबरी से रहने और जीने का अधिकार सभी मनुष्यों को है। मनुष्यों के श्रम ने ही अभावों को मिटाने के लिए, असुविधाओं के प्रतिरोध के लिए, जीवन को आसान बनाने के लिए तमाम तरह की तकनीक और उत्पादन के साधन सृजित किए हैं, ये समाज की सामूहिक संपत्ति हैं, इन पर किसी एक का अधिकार सामान्य न्याय और प्रकृति के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह अब तक किये गए मानवीय श्रम का अपमान भी और उसकी उपेक्षा भी है।

दुनिया को यहाँ तक पहुँचाने की ‘‘यह क्षमता उन लोगों ने विकसित नहीं की है जो आज अपने निजी सुरक्षा घेरों के बीच समृद्धि के महलों में रह रहे हैं, बल्कि यह आम मनुष्यों की सदियों की प्रवीणता और प्रयासों की परिणति है। यह क्षमता मनुष्य जाति ने विकसित की है, इसलिए इसका उपयोग सभी मनुष्यों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जा सकता था और साथ ही इससे धरती के स्वास्थ्य को बनाए रखा जा सकता था और उसे सुधारा भी जा सकता था हालांकि जब तक हम पूँजी के आधिपत्य में रहेंगे तब तक मनुष्य की जरूरत और धरती के पर्यावरण को उपेक्षित किया जाता रहेगा।’’(आलमान, पृ. 38)

आज के जन माध्यम जो पूँजीवादी व्यवस्था के दलाल हैं, हमसे कहते हैं कि हमें विकास के रास्ते में बाधा नहीं बनना चाहिए और जब बाजार का विकास होगा तो उसका लाभ सबको मिलेगा। हमारी चेतना का कुंद करने के लि तमाम तरह की बहसें आयोजित की जाती हैं, और एक आम सहमति बन रही है यह जताने का प्रयास किया जाता है - ‘‘हमसे कहा जाता है कि हम ‘‘सूचना युग’’ और ‘‘उत्तर आधुनिक’’ युग के नए यथार्थ में प्रवेश कर रहे हैं, इसलिए हमें धैर्य रखना चाहिए और स्वयं को लचीला बनाना चाहिए। हमें भेड़ों के झुंड की तरह केवल एक अपरिहार्य निष्कर्ष की ओर धकेला जा रहा है कि हम यह निष्कर्ष निकाल लें कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। यह स्पष्ट करके कि पूँजीवाद कैसे काम करता है, कैसे यह बढ़ता और विकसित होता है, और अपनी वृद्धि और विकास को बनाए रखने के लिए किन तत्वांे की जरूरत होती है।’’ (आलमान पृ. 39)

मार्क्स का दर्शन इस विकल्पहीनता का विकल्प है जो आज भी जीवंत और सक्रिय है, हजारों प्रयासों के द्ववारा ग्रहण किया जा रहा है और मानवता की बेहतरी के लिए, इस दुनिया के रूपांतरण के लिए कटिबद्ध है।

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