Thursday, October 18, 2018

उपन्यास नामा ,भाग आठ 
शाल्मली 
नासिरा शर्मा 

नासिरा शर्मा 


“शाल्मली : ठूंठ में बदलती स्त्री के मानवीय रिश्तों की अद्भुत कहानी”


स्त्री जीवन के समग्र सरोकारों और बदलते जी्वन की पैरोकार नासिरा जी का यह उपन्यास एक मध्यवर्गीय स्त्री की जीवन गाथा को सहज तरीके से प्रस्तुत करता है। शाल्मली इसकी नायिका है और नगरीय जीवन के उतार-चढाव का पितृसत्तात्मक व्यवस्था की क्रूरता का उसके अन्याय और शोषण का जीता जागता सबूत है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने एक जीती जागती, जीवन की महक से भरपूर शाल्मली को एक ठूंठ में बदल दिया। यह इस व्यवस्था की क्रूरता का चेहरा है जिसे नासिरा जी ने शाल्मली के रूप में उकेरा है।

        ‘‘मैं केवल एक सूखा वृक्ष भर रह गई हूँ। न फल, न फूल, न शाख, न पत्ती, न छाया, न ठंडक, ऐसे सूखे वृक्ष की शरण में भला कौन आना पसन्द करेगा? धरती ने भी जैसे अपने स्रोत समेट लिए हैं, तभी तो मेरी जड़ें तरावट को तरसती, धरती छोड़ने लगी हैं। ऐसा सुखा, छायारहित, ठूंठ, वृक्ष तो बस जलाने के काम का रह जाता है, लपटों के बीच कोयला बनती काली काया।’’1
       
यह एक आम औरत का छाया चित्र है, जो हर औरत के चमकते चेहरे के पीछे छिपा हो सकता है, जो हर औरत की चेतना में घटित हो रहा हो सकता है, सिर्फ महसूसने की, समझने की और उभारने की आवश्यकता है। शाल्मली व्यवस्था से, अपने पति नरेश की पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार से लड़ते-लड़ते स्वयं को एक ठूंठ की तरह का महसूस करती है। वह इस व्यवस्था पर,  सोच पर, प्रश्न चिह्न लगाती है और सवाल खड़ा करती है कि उसने क्या अपराध किया था जो उसे ठूंठ में बदल दिया गया। उसने एक सहज सामान्य जीवन की ही तो माँग की थी। उसने नरेश से स्वयं को एक व्यक्ति की गरिमा, एक इंसान की पहचान, अपने वजूद की स्वीकृति ही तो चाही थी। साथ-साथ जीवन के रंगों में रंगने का भीगने का मन ही किया था उसका। उसने मांगी थी जीवन की महक और उसे मिला जहर से बुझे तीरों का तरकस

 एक कामकाजी स्त्री जो अपनी योग्यता और काबलियत के कारण पति से ऊँचे दर्जे की नौकरी कर रही हो, सब उसके काम से प्रसन्न हैं, उसके व्यवहार से खुश हैं, जो नौकरशाह होते हुए भी नौकरशाही अंदाज नहीं रखती, उससे उसका पति नाराज है, उसे प्रताड़ित करता है, दूसरी स्त्रियों के साथ ऐयाशी करता है और शाल्मली को सिर्फ एक भोग की वस्तु न बने रहने की सजा देता है। दरअसल शाल्मली का पूरा संघर्ष भोग की वस्तु से इंसानियत का दर्जा पाने का संघर्ष है। एक मानवीय इकाई बनकर जीने का संघर्ष है। वस्तु बनने से इंकार करने का संघर्ष है। जड़ वस्तु से एक विचारशील, विवेकशील, तर्कशील और स्वतंत्र मानवीय इकाई बनने का संघर्ष है। पत्नी के रूप में एक स्त्री सर्फ बिस्तर पर पड़ी गर्म गोश्त भर नहीं होती। उसमें मानवीय चेतना के सुख-दुख महसूस करने का, अपनी देह की चेतना को महसूस करने का जज्बा भी होता है और वह इस जज्बे को अपने साथी पति से भी महसूसने की अपेक्षा करती है।








        शाल्मली नरेश से अलग रहने का निर्णय नहीं करती, उससे तलाक नहीं लेती और अंत तक इस बात का इंतजार करती है कभी तो नरेश उसे एक व्यक्ति की गरिमा से युक्त स्वीकार करेगा। वह घर को मानुस गंध से सराबोर करना चाहती है, यही उसकी कोशिश है अंत तक, पर ऐसा हो नहीं पाता। ‘‘इस घर में मेरी मेहनत की महक अवश्य है, पर मानुस गन्ध नहीं।’’2

  जब घर और परिवार में, संबंधों में, साथ और साथी के बीच से मानुस गंध समाप्त हो जाती है तो एक स्त्री व्यक्ति से मशीन बन जाती है। ‘‘शाल्मली घड़ी की सुई की टिकटिक के साथ अपने को बांधे भोर से सन्ध्या तक मशीन बनी काम करती और थक कर घर लौटती।’3

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में विवाह दो व्यक्तियों के बीच अवश्य होता है, परन्तु वे विवाह के बाद व्यक्ति न होकर पति और पत्नी बन जाते हैं। इंसानियत और मानवीयपन समाप्त होते जाते हैं। जो स्त्रियां अपने का इस रूप में स्वीकार कर लेती हैं, वे स्वयं को वस्तु और पति का स्वामी मान लेती हैं, यदि थोड़ा बहुत जिंदा होने का अहसास होता है तो दासी और स्वामी का संबंध भी हो सकता है, परन्तु जो स्त्री स्वयं को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किए रहती है उनके विवाह असफल हो जाते हैं। संबंधों में विखराव आ जाता है। साथ रह कर भी मीलों दूर रहने लगते हैं। सुख की जगह भोग और संतुष्टि की जगह वस्तुओं से भरने लगती है जिंदगी।

आधुनिकता ने स्त्रियों को घर से बाहर काम करने का अवसर पैदा किया यह आधुनिकत का स्वार्थ और अधिक मुनाफा कमाने की रणनीति थी,परंतु इसने स्त्रियों को स्वतंत्र श्रमसमय और स्पेस पैदा किया जिसने स्त्री के अंदर एक चेतना का जन्म हुआ। इस चेतना ने उसमें अपनी पहचान और गरिमा के प्रति जागरूक कर दिया। इस परिवर्तन के कारण उन पुरुष पतियों में एक ईर्ष्या भाव पैदा किये जो कामकाजी स्त्रियों के पति बने और यदि पत्नी ज्यादा कमाती हो बडे ओहदे पर हो और उसमें थोड़ी भीअस्मिता की भूख हो तो वे पुरूष अपनी पत्नियों के प्रति अधिक क्रूरता पूर्ण और अमानवीर दृष्टिकोण पैदा करते रहे हैं।

 इसीलिए कामकाजी स्त्री के संबंध अपने पतियों से टूटते विखरते नजर आते हैं, क्योंकि उनके काम से उनकी पहचान बनती है और यह बात पति/ पुरुष स्वीकार नहीं कर पाते। छिन्नमस्ता की प्रिया हो, शाल्मली हो, अंकिता हो, या अन्य......कोई..। शाल्मली को आरंभ से ही यह टूटन महसूस होने लगती है - ‘‘विवाह के कुछ दिनों बाद से ही उसे लगने लगा कि उनके बीच कुछ टूटा था, जिससे एक ही ध्वनि गूंजी थी कि नरेश पति है और वह पत्नी। स्वामी और दासी का यह संबंध एक काली छाया बन उसके और नरेश के बीच एक मजबूत दीवार का रूप धरने लगी थी। उसने आरंभ में बहुत हाथ-पैर मारे। मानवीय संबंधों की गहराई को परंपरागत चले आये पति-पत्नी के रिश्तों से अलग हट कर एक पारस्परिक समझ और बराबरी के स्तर पर उसे समझाने की कोशिश की थी, मगर बात उससे बिगड़ी थी, वह घबराकर पहली कही बात को विस्तार से समझाने की कोशिश करती, मगर फिर उससे बात बन न सकी, बल्कि बिगड़ती ही चली गईं उसके विवाहित जीवन में ग्रहण लगना था, सो लग गया। उसका संकल्प, संघर्ष, उसकी चुनौती जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण, सब कुछ एकाएक ढहते नजर आए। जीवन का यह रूप उसने कभी सोचा नहीं सोचा था, मगर प्रश्न उसके सोचने का नहीं, किसी दूसरे के सोचने का था और इसी विभ्रम ने दोनों के आधे-आधे चेहरे ढंक लिए थे जो शेष आधे चेहरे बचे थे, वे भी धुंधला कर स्याही की चपेट में आ रहे थे।’’4
     
नरेश शाल्मली के बारे में कहता है कि ‘‘तुम ठहरी एक आधुनिक विचार की महिला... विचारों में स्वतंत्र, व्यवहार में उन्मुक्त, तुम्हारे संस्कार....।’’5 यह विशेषताएँ एक आधुनिक विचारों की स्त्री की हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्वच्छंद विचारों की हैं जैसा कि नरेश उसे कहता है। आधुनिक शिक्षा और लोक में लड़कियों को या सामान्य इंसान को जो बातें सिखाई जाती हैं, जब लड़की पत्नी बनती है तो वे ही बातें उस पर व्यंग्य की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। जिन बातों से लड़की का व्यक्तित्व बनता है, उसकी पहचान बनने लगती है, जब वही बातें अपने ससुराल में प्रयोग करती है तो उस पर आधुनिकता का स्वच्छंदतावादी होने का आरोप लगाया जाता है। नरेश बार-बार उसे उसके व्यक्तित्व की पहचान वाली विशेषताओं के लिए प्रताड़ित करता है, व्यंग्य करता है।‘‘आधुनिकता की जो परिभाषा नरेश देता है,उसके विश्लेषण को सुनकर स्वयं शाल्मली को शब्द ‘आधुनिकता’ से घृणा होने लगती है।’’6

यदि पत्नी पति से अधिक कार्यकुशल है और  बड़े पद पर है तो पति का रवैया उसके प्रति कैसा होता है - ‘‘ऐसी पत्नी, जो अपने को पति से अधिक चतुर, सुदृढ़ और व्यवहार कुशल समझती हो, उसके पति के भाग्य में ढाबे का खाना ही लिखा है।’’7 पितृसत्ता स्त्री की शिक्षा और उसके विकास को सहन नहीं करती। क्योंकि शिक्षा से उसके व्यक्तित्व में एक विशेष तरह का बदलाव आ जाता है। वह सर उठाना सीख जाती है, हर बात को चुपचाप सहन नहीं करती, आँखों में आंखें डाल कर बात कर सकती है। गलत बात का विरोध करती है, सही बात को तर्कपूर्ण ढंग से पेश करती है। बाहर की दुनिया और परिवार की स्थिति के बीच के द्वंद्व को सुलझाने के लिए घर और पति को भी बदलने के लिए कह सकती है। सही कार्य के लिए, अपनी पहचान और वजूद के लिए स्वयं निर्णय ले सकती है, लिए गए निर्णय पर साहस पूर्वक कदम बढ़ा सकती है। घर से बाहर की दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के लिए स्वयं विचार कर सकती है।

शाल्मली यह सब करती है तो नरेश जो एक परंपरागत पति है, इन सबको अपना अपमान मानता है, और बात-बात पर उस पर लांछन लगाता है। घर के परंपरागत सामंतीय परिवेश में उसका व्यक्तित्व बार-बार टूटकर बिखर जाता है। उसे अपना अस्तित्व ढूँढना मुश्किल लगने लगता है। ‘‘इस अभिशाप से दाम्पत्य जीवन को बचाने की कोशिश में उसका अपना व्यक्तित्व कहीं खो रहा है। महासंग्राम के असीमित फैलाव में अपने अस्तित्व को ढूँढना असम्भव हो जाता है। अपने को गिद्धों से बचाना, अपने टुकड़ों को समेटना, अपने जख्मों पर मरहम पट्टी करने का अवसर तक नहीं मिलता।’’8   

 परिवार का विघटन - शाल्मली के लाख चाहने पर भी उसका विवाह असफल हो गया। परिवार विखर गया और संबंध टूट गये। वे दोनों एक छत के नीचे रहकर भी नदी के दो किनारों की तरह रहते हैं। उनके अन्दर का बारीक सूत्र छिन्न-भिन्न हो चुका है। शाल्मली ने अपने व्यक्तित्व को किसी भी कीमत पर बचाए रखा और स्वयं को अन्दर से टूटने नहीं दिया। ‘‘उसके शरीर को लकवा मार गया हो। जब संबंधों का उत्साह मरने लगे, तो मन कुछ नहीं करना चाहता।’’9

नरेश बार-बार उसका अपमान करता है, तिरस्कार करता है, उसके अस्तित्व को चोट पहुँचाता है, उसके बजूद को नकारता है। शाल्मली इस सबको सहन करती है क्यों?  एक भारतीय परंपरा के संस्कार ही हैं जो उसे इस बात का अहसास दिलाते हैं कि शायद कभी नरेश उसकी बात को समझेगा, उसे समझने की कोशिश करेगा और यह संबंध शायद चल जाये। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि नरेश न तो समझौता करने का तैयार है न समझने को।
पिता से उसके संबंध बहुत अच्छे हैं, पिता पितृसत्ता के प्रतीक उस रूप में नहीं है जिस रूप में पति है। महिला उपन्यास कारों की विशेषता है कि उनके स्त्री चरित्रों के पिता पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उस क्रूर सोच के प्रतीक नहीं होते जैसे कि पति या दूसरे पुरुष होते हैं। छिन्नमस्ता की प्रिया, आवां की नमिता, महरूख इत्यादि।
शाल्मली के पिता कहते हैं कि ‘‘किसी पत्नी के अतिरिक्त भी उसकी अपनी एक पहचान बन जाये। बस, दूसरे दिन शालमली को ब्याह दूंगा।’’10 दृढ़ संकल्प - ‘‘ऐसा जीवन मैं कभी नहीं गुजारूंगी, कभी नहीं।’’11 छिन्नमस्ता की प्रिया भी कहती है कि ‘‘मैं औरत कभी नहीं बनूँगी।’’

द्वंद्व ही व्यक्तित्व का विकास करता है, सृष्टि में नए-नए विकास इसी द्वंद्व से होते हैं, शाल्मली कहती है ‘‘यही तो जीवन है, टकराहट से ही इन्सान अपने को पहचानता है, संवारने की कोशिश करता है, वरना खद्दर धरती की तरह पड़ जाए? न फले, न फूले।’’12 
संबंधों में बिखराव का कारण पति नरेश का अपने आप तक सीमित रहना और आत्मिक स्तर पर मिलन और संबंध न बन पाना इसका मूल कारण है। शाल्मली भी यह सोचती है कि ‘‘शाल्मली स्पर्शों की सरसराहट के बीच सोचती रही कि इतने दिन शादी को गुजर गए, मगर आज भी वह नरेश के व्यक्तित्व में न झांक सकी। वह खुलता ही नहीं। जब भी उसने कोशिश की, हर बार बंद दरवाजे से माथा टकराया। खाना, प्यार, सोना-जागना इससे परे भी अपने जीवन साथी से एक पहचान बनती है, उसका आरंभ शाल्मली को कहीं नजर नहीं आता, तभी वह नरेश को केवल भौतिक रूप से समर्पण कर पाती। आत्मा और भावना उसी तरह अनछुई खामोश पड़ी सेाती रहती है।’’13

जब पति पत्नी के संबंधों में पत्नी स्वयं को एक लिबास महसूस करने लगे, एक भोग का उपकरण महसूस करने लगे तो उस संबंध को तो बिखरना ही है। शाल्मली और नरेश के संबंधों में यही घटित होता है, बारंबार -‘‘उसे लगता है, जैसे वह एक बेजान लिबास है, जिसे जरूरत पड़ने पर पहना जाता है और जरूरत खत्म होते ही उतारकर रख दिया जाता है। रोज रोज की इस लिबासपोशी से वह थकने लगी है। प्यास बुझने की जगह भड़कती है। देह से हटकर भी तो आवश्यकता होती है मनुष्य की वरना कान, आँख, जबान और दिल मनुष्यों को क्यों मिले हैं? अच्छा सुनने और बोलने-समझने और महसूस करने को, अपनी इस शक्ति को किस पत्थर के नीचे दबा दे, जो अपना सिर उठा न सके?’’14

शाल्मली का यह महसूस करना स्वयं को मात्र जिस्म मानने से और भोग की वस्तु में तब्दील होने से इंकार करने की दिशा में अपनी चेतना की पहचान स्थापित करने के लिए किया गया चिन्तन है।
हम देखते हैं कि शाल्मली के नरेश और प्रभाखेतान की छिन्नमस्ता के नरेन्द्र में औरत के जिस्म को लेकर एक सा बहशीपन है। उधर प्रिया और इधर शाल्मली भी एक सी प्रतिक्रिया दिखाती हैं - ‘‘मैं एक पल नहीं जी सकती! इतना बहशीपन, इतना दुर्व्यवहार आखिर किस लिए! गुस्से से पागल सी हो गई शाल्मली। आंखें निकाल कर जैसे उसे अंधे कुएं में किसी ने फेंक दिया हो। वह एक अजीब पीड़ा से छटपटा उठी थी। इस हद तक संबंधों और भावनाओं को कोई अपमानित कर सकता है! इस सीमा तक कोई निर्दय हो सकता है! कहाँ आकर फंस गई है वह...! यही मेरा भाग्य है! हाँ, माँ यही कहती हैं कि यही तेरा भाग्य है।’’15

      शाल्मली का यह सोचना कि ‘‘अपने पुरुष को उगता सूरज मैं नहीं दिखाऊँगी, तो फिर कौन दिखायेगा!’’16 लेकिन पुरुष के लिए औरत सिर्फ औरत है, घर, गृहस्थी और पति बच्चों को पालने वाली। वह दुनिया भी चला सकती है, घर के अलावा यह पुरुष न सोच सकता है और न सहन कर सकता है। तभी तो नरेश कहता है कि ‘‘तुम औरतें अपने को जाने क्या समझती हो? बाहर नहीं निकलोगी, काम नहीं करोगी, तो संसार के सारे काम ठप्प हो जायेगें....’’17  स्त्री किसी भी रूप में आजाद नहीं है, वह घर की चाहरदीवारी में रहे या अपने दफ्तर में। पुरुष अपने स्वार्थ के लिए थोड़ी बहुत छूट देता है जिसका अर्थ आजादी नहीं होता। नरेश शाल्मली को बारबार इस बात का एहसास कराता है कि घर का संचालक, रक्षक और मालिक वह है, अतः उसकी मर्जी और नामर्जी ही शाल्मली की मर्जी-नामर्जी होना चाहिए।

‘‘मैंने तुम्हें नौकरी करने की छूट दी, इसका अर्थ यह नहीं कि तुम अपने का पूर्ण स्वतंत्र समझने लगो।’’18 और फिर कहता है कि ‘‘अब तुम मेरी नकल मत करो! मैं मर्द हूँ, कहीं भी आ-जा सकता हूँ। तुम औरत हो और अपनी मर्यादा को पहचानो।’’19

शाल्मली इस स्थिति का विरोध करती है और कहती है -‘‘कल मेरा रेजिग्नेशन लेते जाना। मुझे तुम से स्वतंत्रता की भीख नहीं चाहिए। तुम्हारा दान किया हुआ कारावास मेरे लिए काफी है।’’20
और - ‘‘यह नाटक तब तक चलेगा, जब तक मैं अपना अधिकार नहीं पा लेती हूँ।’’21

‘‘मुझे अधिकार देने वाला भले ही तुम अपने को समझो, मगर याद रखो, कोई भी किसी को आसानी से उसका अधिकार नहीं देता है। अधिकार लेने वाला तो लड़कर उसे प्राप्त करता है।’’22

पितृसत्ता की समस्या यह है कि वह स्त्री को अपने से आगे बढ़ता नहीं देख सकती - ‘‘नरेश भी क्या करे? हर दिन एक अनजाना भय उसे दबोचने लगा था कि शाल्मली का बढ़ता कद उसके अपने व्यक्तित्व से ऊँचा उठता जा रहा है, उसपर छाता जा रहा है।’23 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरत कहीं भी स्वतंत्र नहीं है, किसी भी रूप में। हाँ कहीं गले में बंधी रस्सी थोड़ी ज्यादा ढीली है तो कहीं ज्यादा कसी हुई। इस बात को शाल्मली की सास अधिक सटीक ढंग से समझती हैं और कहती हैं - ‘‘हम तो, बहू, री! दासी थे। तुझे देखा, तो मन में सोचा कि चल कहीं तो औरत स्वतंत्र है। भयभीत भी हुई थी कि तू निभाएगी भी या नहीं? शहर की लड़की...बहुत बातें सुन रखीं थीं। इन वर्षों में तेरे साथ रह कर जान पाई, बहू, री! औरत जन्मजली कहीं स्वतंत्र नहीं। कहीं खूटें से तंग बंधी, तो कहीं उसके गले में बंधी रस्सी थोड़ी लम्बी या अधिक लम्बी। अपना बेटा है। नौ महीने  कोख में रखा दूध पिलाया। तुझे तो मैंने जन्म नहीं दिया, मगर दोनों को देख रही हूँ। उसके व्यवहार से तू कितनी सुखी है, मैं नहीं जानती, बहू री! पर भगवान का साक्षी मानकर कहती हूँ, तेरे लिए मेरा मन कुढ़ता है। मैं बहुत दुखी हूँ। क्या कहूँ उसे? मुझ अनपढ़ से वह सीख लेगा, मेरे उपदेश सुनेगा, मेरे लिए जिसके पास तनिक भी समय नहीं?’ माँ की आवाज भर्रा गई थी।’’24

 यह सास का बहू बेटे के लिए किया गया मूल्यांकन स्त्री विमर्शकारों को समझना चाहिए कि वे स्त्री चरित्रों के आपसी संबंध कैसे देखना चाहती हैं। परंपरागत सास बहू के या इस तरह के जो एक स्त्री होकर स्त्री की पीड़ा और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अत्याचारों को निरपेक्ष दृष्टि से देख समझ सकती हैं और बहु सास के संबंध को एक दोस्ती के बराबरी के संबंघ में पेश कर सकती हैं।
शाल्मली का अनुभव उसे पुरुष को व्याख्यायित करने को विवश करता है और वह उसकी सीमाओं की ओर संकेत करते हुए सरोज से कहती है - ‘‘कभी-कभी मुझे लगता है कि मर्द एक ताकतवर घोड़े के समान है, जो दौड़ना जानता है, मगर उसकी आँखों पर पड़ी पट्टी उसे केवल उतना ही छोटा सा रास्ता दिखाती है, जिस पर उसे दौड़ना होता है। मानवीय संबंधों की सूक्ष्मता, व्यापकता, विस्तार का इन्हें जरा भी ज्ञान नहीं और ये भावनाएँ और संवेदनायें बल के जोर पर नहीं आती।’’25

शाल्मली की स्वतंत्र सोच उसे अपनी स्थिति का मूल्यांकन करने पर विवश करती है -‘‘मैं दूसरी औरत बनने की प्रताड़ना से घबराकर पहली औरत बनी थी, मगर धर्म-पत्नी बनकर इतना तिरस्कार, इतना अपमान, इतनी घृणा, इतना अंकुश....! यह अनुभव, यह कड़वापन मैने कभी झेलना नहीं चाहा था। इसी प्रताड़ना के भय से मैं सब कुछ पीछे छोड़ आयी थी कि समाज में सर उठाकर जिऊँगी। सर झुकाना मैंने कभी नहीं स्वीकारा था। समाज के नियम को अपनाकर और उसकी मर्यादा का पालन करके मुझे क्या मिला है? न मान, न सम्मान्।’’२६

स्त्री का भाग्य पुरुष के कर्मों कुकर्मों के साथ बंधा है, यह पाठ स्त्री को उसकी माँ सदियों से सिखा रही है। शाल्मली भी जब अपनी माँ से सब कुछ कह देती है तो उसकी मां भी यही कहती है कि यही तेरा भाग्य है - ‘‘ यही तेरा भाग्य था, शालू। इसे ही संवार, बेटी, रीति-रिवाज से कटकर कौन जी पाता है, पगली! अपना और दूसरों का हिस्सा भी भोगना ही औरत का भाग्य है, तू उससे अलग कहाँ है?’’२७

इस पर शाल्मली को गुस्सा आता है और वह स्त्री के इस भाग्य को नियति मानकर अपना लेने वाली नहीं है। पितृसत्ता द्वारा तय किया गया यह भाग्य प्राकृतिक नहीं है, व्यवस्थाजन्य है जिसे स्वीकार करना न करना स्त्री के अपने ऊपर निर्भर करता है। तभी तो शाल्मली कहती है कि हर इंसान को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी चाहिए। दूसरों की सहायता मांगने की कमजोरी उसे नहीं दिखानी चाहिए।

‘‘हर इंसान अपनी लड़ाई लड़ता है। अपनी नाव पार लगाता है, फिर दूसरों से पतवार मांगने की उसे क्या जरूरत है, जबकि कोई भी दूसरों की नाव को न खेना जानते हैं, न उन्हें उनके लक्ष्य का ही पता होता है। यह सब सोचकर उसने अपने और नरेश के चारों ओर एक लक्ष्मण रेखा खींच ली थी। न किसी को अन्दर आना है, न किसी को बाहर जाना है।’’२८ पितृसत्तात्मक सोच कहाँ तक गिर सकती है इसका विश्लेषण करते हुए नासिरा जी लिखती हैं - ‘‘उसका (नरेश) का मुगालता बीमारी की हद तक बढ़ता जा रहा था कि वह शाल्मली को पूरी तरह अपने कब्जे में रखे हुए है। वह उसकी पत्नी है, उसकी आज्ञा के बिना वह सांस भी नहीं ले सकती है। वह अपने सारे मित्रों, परिचित लोगों को बता देगा कि शाल्मली की कमाई पर जिन्दा नहीं है। वह उसके पद से लाभ नहीं उठाता है, बल्कि शाल्मली उसकी दी स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाती गुलछर्रे उड़ा रही है।’’२९








नरेश की इस मानसिकता के कारण शाल्मली को लगता जैसे-‘‘जीवन की सारी मात्रायें गलत लग गईं हैं।’’३०

और दूसरी ओर पितृसत्तात्मक सोच से सराबोर नरेश के संवाद देखिए और शाल्मली की उस पर प्रतिक्रिया -
‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी, शाल्मली। नरेश ने निर्णय दिया।
‘‘क्यों भला?’’ शाल्मली चौंकी।
‘‘मैंने जो कह दिया, उसका पालन तुमको करना है, बस।’’ नरेश कठोर स्वर में बोला।
‘‘यह नौकरी है। बिना कारण दिए मैं घर थोड़े ही बैठ सकती हूँ।’’ शाल्मली ने बड़ी सहिष्णुता से कहा
‘‘कारण-वारण कुछ नहीं, कह देना मेरा पति पसंद नहीं करता इस तरह मेरा टूर पर जाना, समझीं! घर अलग उपेक्षित पड़ा रहता है। नरेश ने चिढ़कर कहा
‘‘सभी औरतें यदि इसप्रकार की अर्जी देने लगें, तो हो चुका काम। यह पति की नहीं, सरकारी की नौकरी है, उसके प्रति कर्तव्य की अवहेलना...।’’
‘‘तो तुम बड़ी सरलता से मेरी अवहेलना कर सकती हो। मैं इस घर की सबसे उपेक्षित वस्तु हूँ।’’568 

स्त्री का स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार पितृसत्ता बिल्कुल सहन नहीं कर पाती। तभी तो नरेश कहता है कि - ‘‘तुम अपने बारे में निर्णय लेने वाली कौन हो? मेरी इच्छा के बिना न अब तुम अपने घर जा सकती न इस शहर से बाहर।’’३१(ठीक यही बात छिन्नमस्ता का नरेन्द्र प्रिया से कहता है)

शाल्मली को सार्क सम्मेलन में भाग लेने के लिए विदेश जाना है और नरेश अपना पति होने का अहं पूरा कर रहा है। पत्नी का अपमान और तिरस्कार।
इसके बाद जब बिस्तर पर नरेश शाल्मली के प्रति अपना पतिपन दिखाना चाहता है तो शाल्मली इसका विरोध करती है। (प्रिया भी इसी तरह विरोध करती है) ‘‘नरेश के स्पर्श से घिन-सी आ रही थी।’’३२

इसके बाद नरेश फिर अपना अधिकार जताने की कोशिश करता है और कहता है -‘‘मुझे यहाँ भी अपना अधिकार लेना आता है। प्रेम से या बल से, जिस तरह मैं चाहूँगा। तुम्हारा रूठना, तुम्हारा अकड़ना व्यर्थ है।’’३३  तब शाल्मली ने कहा ‘‘छोड़ो!’’ शाल्मली कसमसाई और फिसलकर बिस्तर से उठने लगी।’’३४ इस पर नरेश अपनी घिनौनी मानसिकता को उजागर करता हुआ कहता है, जो कि पितृसत्ता की स्त्री के प्रति रचित मानसिकता है, - ‘‘तुम जानना चाहोगी पुरुष की दृष्टि में औरत क्या है? भोगने की वस्तु ... वही उसकी पहचान है। इसलिए तुम औरत की तरह रहो, इसी में तुम्हारा उद्धार है और इस घर का कल्याण और गृहस्थी का सुख।’’

पितृसत्तात्मक इस मानसिकता के प्रति शाल्मली की प्रतिक्रिया इस तरह है - ‘‘शाल्मली को नरेश का स्वर सस्ता, बेहद सस्ता लगा। महसूस हुआ, किसी ने उसके सारे बदन में आग लगा दी हो। क्रोध का गर्म लावा उसकी शिराओं में उफनने लगा। किसी जंगली बिल्ली की तरह वह पलटी और अपने नाखूनों और दांतों से नरेश को नोच डाला और इससे पहले कि नरेश संभलता, वह उसे धक्का देती हूई उछली और लपककर बाथरूम में घुसकर अपने को अंदर से बंद कर लिया।.......पहली बार शाल्मली ने अपना विवेक खोया था।’’३५ जब वह बाथरूम से बाहर निकलती है और नरेश उससे कहता है कि मैं तो मजाक कर रहा था, और उसे छूने की कोशिश करता है तो वह कहती है ‘‘मुझे हाथ मत लगाना, नरेश!’’३६ यह उसका इंकार करने का साहस उसे अलग व्यक्तित्व देता है, एक मानवीय इकाई के रूप में उसकी पहचान बनाता है।

वह अपने जीवन के बारे में सोचती है - ‘‘यह भी कोई जीवन है? बार-बार मरघट तक ले जाने और जीवित जल जाने से पहले जलती चिता से खींच कर उतारने का यह क्रम, बलपूर्वक जीवन दान देने की यह हठ...न पूरी तरह मरने दिया जाता है, न पूरी तरह जीने दिया जाता है। कभी-कभी जीवन और मृत्यु में कितना कम फर्क रह जाता है! आज उसे महसूस हो रहा है कि जैसे वह स्वयं एक श्मशान घाट है, जहाँ पर उसके विचारों और भावनाओं का हर पल दाह संस्कार होता रहता है।’’३७

यह पितृसत्तातमक व्यवस्था द्वार निर्मित श्मशान घाट है जिसे औरत हर पल महसूस करती है, यदि वह थोड़ी भी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और सोच रखने वाली है, अपना अस्तित्व अलग महसूस करने वाली है तो।
शाल्मली की भावनाओं और कार्यों की कोई कद्र या सम्मान नरेश के मन में नहीं है और यही चीज उसे बार-बार आहत करती है। ‘‘शाल्मली का विश्वास जैसे संबंधों के नाम से उठने लगा है। संबंध और भावना दो कितनी अलग वस्तुएँ हैं! जहाँ भावनायें अपने में स्वतंत्र, निश्छल और निसर्ग होती हैं, वहीं उन पर खड़े किए गए संबंध जब अपना आकार लेने लगते हैं, तो इनमें कितनी घुटन, छल और समझौते का अहसास जागता है!’’३८

       जीवन का विखराव - ‘‘शाल्मली के जीवन रूपी तानपुरे के सारे तार ढीले होकर अजीब बेसुरे हो गए थे। सुरीली तान का सपना टूट गया था। जीवन की लय का विस्तार बिखर गया था। गुनगनाने के लिए विश्वास की कोई धुन उसे याद न आती। जब कभी इस अंधी मूकता से घबराकर ‘इन ढीले तारों को कसने की कोशिश में अपने ‘मैं’ को खोजती तो नरेश सामने आन खड़ा हो जाता और ‘मै’ फौरन ‘हम’ में बदल जाता और ‘हम’ के संग जब वह तारों की तरफ हाथ बढ़ाती, तो अकेले अपने हाथ देखकर नरेश का स्थान खाली पाती और तब आधी अधूरी ‘मैं’ के साथ उसके खो गए आधे अंग को खोजती अकेली बैठी रह जाती शाल्मली।’’३९

नरेश दूसरी औरतों से संबंध रखने लगा और जब शाल्मली घर पर न होती तो वह उन्हें घर भी लाने लगा। इस बात को शाल्मली सहन नहीं कर पाती और इसमें स्त्री के सम्मान की मर्यादा को बिखरते देखती है। वह नरेश से इस विषय पर बात करती है। घर पर अधिकार की बात करती है और घर की मर्यादा को बनाए रखना दोनों की जिम्मेदारी है। नरेश नियम और कानूनों का सिर्फ औरतों के लिए बनाया गया मानता है और कहता है कि -‘‘नियम और धर्म केवल कागज पर लिखने के लिए होते हैं या फिर तुम औरतों के लिए बनाए जाते हैं। इनसे हटकर एक और कानून होता है , जो हम मर्दों के बीच प्रचलित होता है। उसका अपना संविधान, अपना नियम, अपना धर्म होता है।’’४०

और इस कानून को सम्पूर्ण मर्द समाज की आवाज बताता है - ‘‘यह पूरे मर्द समाज की आवाज है।’’४१
नरेश शालमली से बदला लेने के लिए दूसरी औरतों के पास जाता है। जब शाल्मली यह कहती है कि तुम्हें औरत का अपमान करके कौन सा सुख मिलता है? तो वह कहता है कि ‘‘वही जो तुम लोगों को हमारी बराबरी करने में मिलता है, सो हम तुम लोगों को आमने सामने करके बराबरी का स्थान दे देते हैं और बराबरी का व्यवहार करते हैं।’’४२ इस पर जब शाल्मली कहती है कि -

‘‘यदि यही मैं करूं, तो कैसा लगेगा तुम्हें?’’
मुझे? करके देखो गोली से उड़ा दूंगा।’’
यदि यही मैं करके दिखा दूँ तो?’’   
‘‘बन्दूक उठा लोगी, मगर गोली नहीं चला पाओगी, तुम लोगों के लिए शब्द ‘सुहाग’ स्वयं में तुम्हारा कारागार है, जिसे चाह कर भी तुम लोग स्वतंत्र नहीं हो सकती हो।’’४३

इसके बाद जब शाल्मली दोनों में एक को चुनने को कहती है और अपनी तरफ से उसे स्वतंत्र करती है। इस तरह शालमली ने आज पितृसत्ता को उसकी ही भाषा में उसे जबाव दिया और वही कहा जा एक पुरुष सदियों से स्त्री को कहता आ रहा है।

इस विच्छेद के बाद शाल्मली स्वयं को अकेली रहने के लिए तैयार करती है और कहती है - ‘‘मैं टूटूंगी नहीं। नरेश के बिना में रह लूँगीं कितनी औरतें अकेली रहती हैं! क्या वे जीना भूल जाती हैं? तब शायद वे अपने को अधिक खोजती हों? नरेश कुछ नहीं बोलता, ठीक है। मैंने भी फैसला कर लिया है कि शेष जीवन अकेले रहकर गुजारूंगी। पुरुष तक पहुँचना मेरा लक्ष्य नहीं था, मगर उसकी महत्ता से मुझे इनकार भी नहीं। वह औरत का पूरक होता है, उसके जीवन में रंग भरता है और फिर मेरी जैसी औरत, जिसकी संवदेना पूर्ण रूप से मुखरित हो, वह पुरुष का साथ क्यों छोड़ेगी, मगर जब पुरुष एक मित्र, एक मनुष्य एक जीवन साथी की तरह न मिले, तो उसमें इतना साहस है कि वह इस संबंध की महिमा से इनकार कर दे भले ही उसकी याद में सारा जीवन बिता दे। उसकी उपस्थिति कतई जरूरी नहीं है, मगर सम्मान के दांव पर नारीत्व की बाजी हरगिज नहीं लगा सकती हैं चाहे सारा जीवन निपट अकेले ही क्यों न काटना पड़े।’’४४

पितृसत्तात्मक व्यवस्था और उसमें पुरुष-स्त्री की स्थिति  और संबंधों के संबंध में यह एक संतुलित विश्लेषण है। दोनों की समान आवश्यकता है तो दोनों को बराबर का सम्मान और पहचान क्यों नहीं? क्यों एक को बहुत से विशेषाधिकार मिलें और दूसरे को जीवन के सामान्य अधिकार भी प्राप्त न हों? अपना वजूद और सम्मान को नारीत्व के सामान्य गौरव को दांव पर लगा कर पुरुष के साथ की आवश्यकता को स्त्रियों को नकारना होगा, तभी वे सही अर्थों में अपने गौरव और गरिमा की रक्षा कर सकेंगी। यह स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

शाल्मली के अन्दर निरंतर इस बात का द्वंद्व चलता है कि उसे अकेले रहने का फैसला करना चाहिए या नहीं? इसके क्या परिणाम होंगे? कैसे समाज उसके साथ व्यवहार करेगा? क्योंकि वह जानती है कि अभी समाज इस संदर्भ में हमेशा ही औरत पर ऊँगली उठाता है, गलती चाहे जिसकी हो। वह कैसे समाज का यह बताएगी की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद नरेश ने इस तरह की स्थितियाँ पैदा कर दीं की उसे अलग रहने का निर्णय लेना पड़ा। उसके अंदर मुक्ति की आकांक्षा छटपटा रही है, परन्तु परिवेश और परंपरागत सामाजिक सोच और मूल्य उसे आने वाले खतरों के प्रति भी सचेत कर रहे हैं।

‘‘इस जल घर में बैठी वह नाव बनाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करते-करते रुक जाती और स्वयं से पूछती, घर के बाहर अपने कार्यक्षेत्र में सम्मान पाने वाली औरत का घर में कितना अनादर होता है, यह किसी से छिपा है क्या? तो भी इस उत्पीड़न से कैसे बचा जा सकता है? अहेर न बन सके इसके लिए कोई मुक्ति मार्ग...? मुक्ति........!मुक्ति......!! संबंध विच्छेद, तलाक और एक नितांत अकेला जीवन पूर्ण स्वावलम्बी बनकर....।’’४५

समाज की स्त्री के संबंध में जो सोच है वह स्त्री को कठोर कदम उठाने से रोकती है। समाज हमेशा ही पुरुष के पक्ष में खड़ा होता है और स्त्री पर लांछन लगाने में पीछे नहीं हटता, उसे स्वीकारने में समाज को हमेशा संकोच होता रहा है। यही कारण है कि लाखों स्त्रियाँ पुरुषों के अत्याचारों और अपमानों का निरंतर सहती रहती हैं। उनके खिलाफ घर में ही आवाज नहीं उठाती तो घर से बाहर तो लाने का प्रश्न अपवाद ही हो सकता है। शाल्मली भी इस परिवेशगत परिस्थिति के प्रति सचेत है और इस पर बहुत सोचती भी है - ‘‘अपने स्वाभिमान की रक्षा में उठाया उसका ठोस कदम समाज में, सराहा जाएगा या उसकी दृष्टि में वह अभिशप्त बना दी जायेगी? आरोपों, लांछनों, व्यंगों से बिंधा उसका व्यक्तित्व, उसकी अपनी यातना का प्रमाण पत्र होगा या पति द्वारा ठुकराई एक व्यभिचारिणी का?’’४७

इस स्थिति में वह क्या करेगी? इस पर भी विचार करती है? - ‘‘यदि समाज भी आदर नहीं दे पायेगा, तो वह संभाल पाएगी अपने इस खुले आधुनिक संतुलित विचारों पर आधारित अपने व्यक्तित्व को, जिसे लेकर उसे देश विदेश में घूमना है, घर में बैठकर अपने भाग्य पर रोना नहीं है। इस तरह के व्यक्तित्व की औरत को तलाकशुदा जानकर लोगों के व्यवहार में हल्कापन नहीं आयेगा? अपने पीछे फैलती अफवाहों और मूँह पर छीटाकशी को वह सहन कर पाएगी? किस किस को पकड़कर बताएगी कि नटनी की तरह पैर साधकर पत्ली रस्सी पर चलने वाली औरत के मन मस्तिष्क पर पड़े असंख्य घाव उसे इस निर्णय तक लाए हैं। उसके अंदर झांककर देखो, वह इतनी ऊँचाई पर चलती अपने अन्दर किस संतुलन को बांधे हुए है।’’४८

पितृसत्तात्मक समाज  (एक जमीन अपनी में भी यही संदर्भ है) शोषित पीड़ित स्त्री के दुख को सहानुभूति पूर्वक देख सकता है, परन्तु जब वही स्त्री उस दुख को स्वीकारने से इंकार कर दे तो वही समाज उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है।
‘‘यातना झेलती औरत सबके आकर्षण और सम्मान (सहानुभूति) का केन्द्र होती है, मगर वह उसको सहने से इंकार कर दे, तो सारी हमदर्दी घृणा और अपमान में बदल जाती है। कैसी बिडंबना है? सत्य की खोज और सत्य को खरीदकर अपने तालों में बन्द रखने वाले ये लोग! क्या कहें इन्हें? एक साथ कई धरातलों पर खड़े होकर रोज नई लड़ाइयों के द्वार तो नहीं खोल सकती हैं, परन्तु अपनी स्थिति समझौते और प्रताड़ना से बचाकर कैसे अपने लक्ष्य को पहुँचे, इसके लिए उसे अपने जीवन को अधिक व्यवस्थित और विचारों को अधिक गूढ़ बनाना होगा।’४९ 

पितृसत्ता एक जीती जागती और सचेत स्त्री को स्वीकार नहीं करता। उसे चाहिए चाबी वाली गुडिया। शाल्मली स्वयं को चाबी वाली गुड़िया बनने से इंकार करती है। ‘‘कभी शाल्मली टाल जाती, कभी चिढ़कर सोचती, बाहर मैं एक सुशिक्षित, चतुर-चुस्त जीवन संगिनी बनूं, मगर घर में केवल एक गूंगी पत्नी जो गूंगी तो हो साथ-ही-साथ समय पड़ने  पर अन्धी और बहरी भी बन सकती हो। नरेश को मुझ जैसी औरत फिर क्यों पसन्द आई थी? ले आता कोई सजी-सजायी रबर की गुड़िया को, जो पेट दबाते ही बोलती और चाबी देते ही चलती। हाथ और गर्दन अपनी इच्छा से ऊपर-नीचे दाएं-बाएं करके विभिन्न मुद्राओं में उसे घर के एक कोने में सजा देता। एक जीवित जागरूक, संवदेनशील औरत तो हवा के चलने से भी बज उठती है। वह चाहने पर भी गूंगी, अन्धी, बहरी नहीं बन सकती।’’५०

स्त्री की मुक्ति की अवधारणा समाज की मुक्त सोच और विचारधारा से जुड़ी है। जब तक समाज की विचारधारा में परिवर्तन नहीं होगा तब तक समाज स्त्री के संबंध में वही दकियानूसी सोच रखेगा तो मुक्त सोच की स्वतंत्र स्त्री कहाँ जायेगी रहने? उसे एक अलग परिवेश और माहौल की आवश्यकता है जिसमें शाल्मली, महरूख, स्मिता, नीरजा, असीमा, प्रिया, अंकिता, जैसी स्त्रियाँ रह सकें। आज की आधुनिक और स्वंतत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र सोच और निर्णय लेने वाली स्त्रियों की बिडंवना यही है कि उसे इसी समाज में रहना है जो परंपरागत विचारधारा वाला है। यह स्थिति स्त्री को स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने देती और उन्हें समझौता करने को विवश होना पड़ता है। शाल्मली भी तलाक का निर्णय नहीं ले पाती तो उसके पीछे समाज का परिवेश उत्तरदायी है, न कि उसकी कमजोरी। जैसा कि राजेन्द्र यादव ने आरोप लगाया है कि नासिरा जी के स्त्री चरित्र अन्ततः पुरुष का आश्रय पाने के लिए ही वापस भागते हैं।

शाल्मली नरेश के साथ अपने संबंध को मानवीय आधार पर बने रहने के लिए तैयार है और दोनों अपनी अपनी स्वतंत्र इकाई के साथ, अपने गौरव और गरिमा की रक्षा करते हुए बिना किसी औपचारिक संबंध के भी साथ रह सकते हैं? यदि ऐसा है तो मानवीय इतिहास में यह एक नया कदम होगा।

‘‘मैं उस घेरे से बाहर आ गई हूँ और अब मुझे लगता है कि मुझे समस्या का समाधान और संबंधों की कसौटी की चिन्ता नहीं है, बल्कि अपनी इकाई के साथ स्वयं मनुष्य बने रहने और नरेश के मनुष्य बने रहने में सहायता देना ही मेरा प्रथम कर्तव्य है और यह मेरी दृष्टि में मानव प्रगति में एक महत्वपूर्ण अध्याय होगा, जो आने वाले लोगों को, मनुष्य के जुड़े रहने की संभावना को अधिक सार्थक बनाएगा।’’५१

स्त्री की विचित्र स्थिति के संदर्भ में शाल्मली का चिंतन एकदम नया है। वह एक नये रास्ते की नई दिशा की तलाश करती है? यदि इस दिशा में चला जा सके तो स्त्री मुक्ति की अवधारणा को नए आयाम मिल सकते हैं - ‘‘औरत के पास दो ही अभिव्यक्तियाँ हैं या सर झुका लेना या समस्या को अधूरा छोड़, सर कटा लेना। मेरा विश्वास न घर छोड़ने पर है, न तोड़ने पर न आत्महत्या पर है, न अपने को किसी एक के लिए स्वाहा करने में है। मैं तो घर के साथ औरत के अधिकार की कल्पना करती हूँ और विश्वास भी। अधिकार पाना यानि ‘घर  निकाला’ नहीं और घर बना रहने का अर्थ ‘सम्मान’ को कुचल फेंकना नहीं। यह जो हमारे मन-मस्तिष्क में अति का भूत सवार हो गया है, वही जीवन के लिए विष समान है।’’५२

शाल्मली स्त्री विमर्श के इस पहलू को भी प्रश्नांकित करती है कि पितृसत्तातमक समाज से मुक्ति का रास्ता स्त्रियों का अविवाहित रहना है। वह सरोज से पूछती है कि -‘‘क्या  तुम अविवाहित रहकर पुरुषों के समाज, उनके नाम और आकार से पूर्ण रूप से मुक्त हो गई हो?’’५३

वास्तव में अविवाहित रहना समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि यह सच है कि उसके बाद भी स्त्री पुरुष के अन्य रूपों से घिरी होती है। जिसमें प्रेमी, पिता, भाई, दोस्त इत्यादि। किसी न किसी रूप में वह पुरुष के संरक्षकत्व में रहती है। समस्या पति या प्रेमी में से एक के चुनाव की नहीं है। समस्या है पुरुषों के साथ संबंध के आधार की, पुरुष के उस दृष्टिकोण की जिसके तहत वह स्त्री से संबंध बनाता है। इसी लिए शाल्मली एक प्रति समाज की कल्पना को प्रस्तुत करती है - ‘‘तुम्हारे सामने समस्या केवल पति से निपटने और उससे मुक्त होने की है, मगर मेरी नजर में सही नारी मुक्ति और स्वतंत्रता समाज की सोच और स्त्री की स्थिति बदलने में है। बाहर निकलो या घर में रहो, हर स्थान पर पुरुष तुम से टकरायेगा। चाहे वह सब्जीवाला हो या तुम्हारा बॉस अखबार वाला हो या तुम्हारा पति। संक्षेप में होगा वह पुरुष ही। पति से मुक्ति पाकर क्या इनसे भी मुक्ति पा लोगी? या सबको नकारती जाओगी?’’ ५४

शाल्मली स्वावलंबन का अर्थ भी नए सिरे से व्याख्यायित करती है - ‘‘मेरी दृष्टि में स्वावलंबी होने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वह परिवार को तोड़ डाले और उन सारी भावनाओं से मुकर जाये, जो उसकी पहचान ही नहीं जरूरत भी हैं। यह सही है कि रोटी पहली और सेक्स दूसरी जरूरत है इन्सान की, जिससे मुकरना मुश्किल है। यह भी है कि सहज और सुन्दर प्रेम की अभिव्यक्ति मर्द के साथ ही औरत कर सकती है, मगर प्रश्न तो सामने उससे भी जटिल है कि आज की औरत भूख लगने पर किसी भी तरह की रोटी आंख बंद करके खा ले या केवल वासनापूर्ति के लिए वह किसी के सामने घुटने टेक दे, असम्भव है। जहाँ उसकी स्थिति बदली है, वहीं उसकी रुचि और अरुचि भी बढ़ी है। अब वह अपनी पसंद की नौकरी और जीवन साथी चाहती है। अपने पेशे और प्रेमी का स्वयं चयन करना चाहती है, क्योंकि आज उसकी मानसिक अवाश्यकता भी रोटी और सेक्स की तरह महत्वपूर्ण हो गई है, क्योकि पहली दो चीजें अब उन्हें प्राप्त हो गई हैं और वह किसी हद तक स्वतंत्र भी हो गई हैं।’५५

 इस तरह शाल्मली मानवीय संबंधों को बनाए रखने के लिए संघर्षरत है परन्तु स्त्री की पहचान और उसकी दैहिक गरिमा के साथ।


डॉ संजीव जैन 


    डॉ. संजीव कुमार जैन
    सहायक प्राध्यापक हिन्दी
    शासकीय महाविद्यालय, गुलाबगंज
    विदिशा म.प्र.




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1. शाल्मली, नासिरा शर्मा, पृ. 09
2. वही, पृ. 171
3. वही, पृ. 171
4. वही, पृ. 10
5. वही, पृ. 11 
6 वही, पृ. 11
7. वही, पृ. 12
8. वही, पृ. 14
9. वही, पृ. 14
10 वही, पृ. 20
11. वही, पृ. 23
12 वही, पृ. 25
13. वही, पृ. 26
14. वही, पृ.26
15. वही, पृ. 40
16. वही, पृ. 10
17. वही, पृ. 47
18.. वही, पृ. 74
19. वही, पृ. 74
20. वही, पृ. 74
21. वही, पृ. 74
22. वही, पृ. 74
23. वही, पृ. 75
24. वही, पृ. 94
25 वही, पृ. 102
26. वही, पृ.112
27 वही, पृ. 121
28. वही, पृ. 121
29. वही, पृ. 125
30. वही, पृ. 125
31. वही, पृ. 126-127
32. वही, पृ. 127
33. वही, पृ. 128 
34. वही, पृ. 128
35. वही, पृ. 128 
36. वही, पृ. 128-129
37 वही, पृ. 129 
38. वही,पृ. 130
39. वही, पृ. 134
40. वही,पृ. 142
41. वही, पृ. 144
42. वही, पृ. 145
43. वही, पृ. 145
44. वही, पृ. 145
45. वही, पृ. 146-147
46. वही, पृ. 149
47. वही, पृ. 149
48. वही, पृ. 150
49. वही, पृ. 150
50 वही, पृ. 152-153
51. वही, पृ. 164
52. वही, पृ. 164
53.वही, पृ. 165
54. वही,, पृ. 166
55. वही, पृ. 166

                 संजीव जैन



Monday, October 1, 2018

उपन्यासनामा: भाग सात 

ठीकरे की मंगनी 
नासिरा  शर्मा         



ठीकरे की मंगनी और एक अविस्मरणीय चरित्र महरूख

नासिरा जी मानवीय रिश्तों की सूक्ष्म पकड़ रखती हैं और वह अपने चरित्रों तथा परिस्थितियों के वर्णन के माध्यम से उसे प्रस्तुत भी ‘करती हैं। ‘ठीकरे की मंगनी’ हो या ‘शाल्मली’ फिर चाहे ‘जिंदा मुहावरे’ ही क्यों न हो रिश्तों को बनाये रखने में स्त्री के संघर्ष और समर्पण को रेखांकित करने में कहीं भी नहीं चूकती हैं। लेकिन रिश्तों के माध्यम से नाजायज फायदा उठाने की दरकार जब कोई करता है तो उनके स्त्री चरित्र अपने व्यक्तित्व की गरिमा और मानवीय व्यवहार के माघ्यम से उसे नाजायज फायदा उठाने से रोक देती हैं। ठीकरे की मंगनी’ लगभग इसी आधार पर लिखा गया उपन्यास है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि औरत का भी उसका अपना बजूद होता है समाज में पहचान होती है। उसकी मेहनत उसके सपनों का भी घर हो सकता है। जो केवल उसका अपना होता है। आज के जमाने की नई युवा पीढ़ी में ऐसी कई महरूख हैं जो केवल अपनी पहचान चाहती हैं और कुछ रफतमियां जैसे भी हैं जो केवल मानवीय रिश्तों को सफलता के शिखर तक जाने के लिए मात्र उन रिश्तों का उपयोग सीढ़ी के तौर पर करते हैं।

स्त्री पुरुष के पारस्परिक संबंध जितने सरल सहज स्वाभाविक दिखाई देते हैं उतने होते नहीं हैं। दोनो के बीच आकर्षण तो सामान्य रूप से मान लिया जाता है, लेकिन उसकी परिणति घोर अरूचि में कैसे हो जाती है। स्त्री-पुरुष को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए ही विवाह नाम की संस्था बनी होगी। यह संस्था अनेक बुराइयों, दोषों, कमजोरियों के बावजूद आज तक चली आ रही है। 

    सदियों से चली आ रही विवाह प्रथा से विभिन्न समाजों के सदस्य इतने अनुकूलित हो गए हैं कि इसकी परिधि से परे बनाऐ जाने वाले संबंधों को ये किसी सूरत में हजम कर ही नहीं पाते। किसी लड़का-लड़की का समय रहते विवाह न होना, वैवाहिक जीवन का सफल न होना, विवाह विच्छेद होना, वैवाहिक प्रतिबद्धता का उलंघन  आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो सभी समाजों में सामान्य हो चली हैं।


नासिरा जी ने अपनी कथा रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य को अविसमरणीय स्त्री चरित्र दिए हैं। उनके चरित्र पाठक के मानस पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। महरूख एक ऐसा ही अविस्मरणीय चरित्र है जो स्त्री चरित्रों की परंपरा में सबसे अनूठा कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी

विवाह की एक प्रतीकात्मक घटना है जो इस उपन्यास की नायिका महरूख के जन्म के साथ ही घटित हुई थी। ‘‘खालिदा, आज से यह लड़की मेरी हुई।’’ कानपुर वाली खाला ने उसकी पैदाईश के फौरनवाद गन्दगी से भरे ठीकरे पर चांदी का चमचमाता रुपया फेंक कर कहा था। यह टोटके की रस्म थी, ताकि लड़की जी जाए, इसके ददिहाल में तो लड़कियाँ जीती ही न थीें। शाहिदा ने पैदा होते ही उसे गोद ले लिया था, मगर टोटके की रस्म सच पूछो, ‘ठीकरे की मंगनी’ में बदल डाली थी।’’1 

जैदी खानदान में चार पुश्तों के बाद अल्लाह की नेमत के रूप में लड़की पैदा हुई थी। इस लड़की का नाम रखा गया महरूख। ‘‘महरूख दादा की आंखों का नूर और दिल का सरूर थी। अम्मी और अब्बू की खुशी और गुरूर का नायाब तोहफ़ा, चचा और ताया के लिए एक रूहानी राहत का सामान और बाकी खानदान वालों के लिए एक इत्मीनान कि चलो खानदान पर से फ़क़ीर की दी बद्दुआ का साया तो हटा और हमें एक लड़की का मूँह देखना नसीब हुआ।’’2 








इस उपन्यास में महरूख के पैदा होने और उसके बाद खानदान में खुशियों और बधाइयों के जो स्वर सुनाई पड़े, उनसे नासिरा जी ने इस मिथक को तोड़ने की कोशिश की है कि लड़की का पैदा होना गौरव की बात है न कि अफसोस की। जैसा कि पूरी दुनिया में खास तौर पर भारत में यह भ्रम फैलाया गया है कि इस्लाम में और उसके अनुयायी स्त्री विरोधी होते हैं और स्त्रियों पर अत्याचार करना उनके लिए कोई शर्म की बात नहीं होती। नासिरा जी ने महरूख के जन्म से उसके जीवन के अन्तिम पढ़ाव तक की कहानी लिखकर इस भ्रम को तोड़ने की कोशिश की है।
लड़की के प्रति जो हिंसक और पर्दानशीं होने का मिथक गढ़ा गया वह इस्लाम के आगमन के बाद से ही संभव हुआ। इस उपन्यास के माध्यम से हम इस मिथक की हकीकत से भी दो चार होते हैं। ‘‘सच कहा है किसी ने, लड़की घर की बरकत होती है।’’ ‘‘रसूले खुदा का घर भी लड़की की रोशनी से मुनव्वर हुआ था, लड़कियाँ तो प्यार की बरकत होती हैं।’’....सच पूछो तो नगर की रौनक और दुनिया की आबादी इन्हीं के दम से है।’’3
दादा-पोती के संबंध - महरूख भी अपने दादा जान से बहुत प्यार करती है और दादा जान भी उस पर जान न्यौछावर करते हैं।
महरूख बचपन से ही अलग मिजाज की लड़की है। वह अन्दर से भावुक होते हुए भी बाहर से सुदृढ़ है। अपनी कमजोरी को अन्दर ही अन्दर पी जाना उसकी आदत है। उसके व्यक्तित्व की रेखाओं को इस तरह उकेरा गया है - ‘‘रोना उसकी शान के खिलाफ था। वह हुक्म देना जानती थी। बात मनवाना जानती थी। वह तो दिलो पर हुकूमत करती थी और हुकम्रां कभी रोते नहीं है। दादी ने इस हुकक्मरां की अकड़ को प्यार से सहला-सहलाकर एक नाजुक लड़की में बदलना शुरू कर दिया था।’’4 

हमारा समाज एक लड़की को हुक्मरां के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। न घर के बड़े बूढ़े न आस-पड़ौस के लोग। इसीलिए महरूख की दादी ने उसे एक लड़की बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। यह वह प्रक्रिया है जिसके तहत सिमोन द बोऊवार ने कहा था कि ‘‘औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है।’’ चाचा और आस-पड़ौस ने महरूख के उठने-बैठने पर चलने-फिरने पर शिकायतें करनी प्रारभं कर दीं। उसका गली मोहल्ले में लड़कों के साथ खेलना भी लोगों को पंसद नहीं आता और उसकी दादी और अम्मी को उसकी इन गतिविधियों को रोकने के लिए कहा जाता। उसके घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गईं।

‘‘महरूख पर लगी पाबन्दियाँ उसकी उम्र के साथ बढ़ती गईं। महरूख के बालिग हो जाने के पहले नहान के बाद, जब उसकी गोद तरह-तरह के फलों से भरी गई और लाल दुपट्टे उसको सजाया गया, तो उसके अन्दर एक ऐसी लड़की का जन्म हुआ, जो झिझकना, शरमाना जान गई थी, जो काढ़ना, बुनना और पकाना सीखना चाहती थी, जो दूसरों के दुख पर उदास हो जाती थी।’’5  

महरूख की मंगनी रफ़त से हुई थी। जब उसके अब्बू न निकाह की बात की तो रफत भाई ने लड़की को आगे पढ़ाने के लिएक कहाँ चूँकि रफत भाई कम्यूनिस्ट विचारधारा के हैं इसलिए वे कुछ प्रगतिशील बातों में विश्वास करते हैं। उन्होंने महरूख का दिल्ली में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। महरूख रफत मियां के साथ दिल्ली जाती है पढ़ने। यह एसका अपने घर से बाहर दुनिया से जुड़ने का अवसर था। उसकी अम्मी उसके पढ़ने के पक्ष में थीें। ‘‘मगर तालीम से समझ तो बढ़ी, अपना हक तो पहचाना-गलत तेजी की तरफदार तो मैं भी नहीं हूँ, मगर लड़की अपना अच्छा बुरा समझे यह अक्ल तो तालीम इी दे सकती है।’’6  

इस तरह अम्मी के यह प्रगतिशील विचारों ने महरूख को सही गलत के बीच चुनने की तालीम, निर्णय करने की क्षमता के विकास के लिए आगे पढ़ने भेजने का निर्णय लिया। उसकी दादी भी सुलझे विचारों की हैं और उसकी माँ को सांत्वना देते हुए कहती हैं कि -ग ‘‘वह जमाना कब का लद चुका है, जब औरत नए-नए पकवान बनाकर, ससुराल वालों की खिदमत करके मियां का दिल जीतती थीं, आज तो उसे इन सबके साथ बाहरी दुनिया में भी अपने पैर जमाने हैं। घर-बाहर दोनों जह अपनी खूबी का सिक्का जमाना होता है, फिर पढ़ी-लिखी लड़कियाँ किसी पर बोझ बनकर नहीं रहतीं, बल्कि गिरे वक्त में घर को मर्द की तरह संभालती हैं।’’7

दादी के यह विचार स्त्री विमर्श के संबंध में एकदम उचित हैं। हमारे समाज और परिवार को लड़कियों के संबंध में इसी तरह के दृष्टिकोण और विचारों का अपनाने की आवश्यकता है। रफत भाई और उसके परिवार के लोगों के यह विचार समाज के विचार बनें। नासिरा जी ने उन्हें इसी रूप में प्रस्तुत किया है। पितृसत्ता के विभिन्न रूपांे को यहाँ उदारकृत और मानवीय भूमि पर पेश किया गया है। यद्यपि वे अपने मूल रूप में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतीक ही हैं।

महरूख विवाह के संबंध में सोचती है कि ‘‘हर औरत को शादी के बाद अपने का मिटाकर अपने वजूद को शौहर के वजूद में मिलाना पड़ता है। पता नहीे अम्मी शादी के पहले कैसी आदतों की होंगी! फिर क्यों हमसे कहा जाता है कि इस तरह रहना चाहिए, यह हमारे घर का रिवाज है और फिर एक दिन सब कुछ छोड़ कर अपने को नए सांचे में ढालना पड़ता है। आखिर क्यों?’’8 

यहाँ महरूख एक महत्वपूर्ण सवाल उठा रही है? कि जब विवाह के बाद लड़की को ससुराल के रीति-रिवाज की अपनाने हैं, अपनी पहचान और वजूद को शौहर की पहचान और वजूद में क्यों मिलाना पढ़ता है? और जब मिलाना ही है तो उन्हें मायके के रीति-रिवाज और परंपरायें सीखने को क्यों कहा जाता है? इस सवाल का जबाव यह हो सकता है कि मायके में रीति-रिवाजों को अपनाने के लिए इसलिए कहा जाता है ताकि उसे रीति-रिवाज अपनाने की आदत पढ़ जाए। यह आदत उसे ससुराल में भी वहाँ की रीति-रिवाजों और परंपराओं को स्वीकारने में सहयोग देती है। इससे लड़की में विद्रोह की आग नहीं सुलगपाती है। वह सर झुकाकर नए परिवेश में अपने वजूद को विलीन कर देती है। यही पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सुक्ष्म तकनीक है जो लड़की को लड़की बनाय रखने के लिए इस्तेमाल करती है।
दिल्ली में पढ़ते हुए उसकी दोस्ती रवि से होती है। कुछ ही समय में वह रवि के साथ कभी-कभी दिल्ली घूमने निकल जाती थी। एक शाम रवि के कमरे में दोनों काफी पी रहे थे। इसी बीच जब रवि ने उसे अपनी बांहों में भर लिया तो महरूख को गहरा सदमा लगा। रवि ने उसे इतने हल्के किरदार की लड़की कैसे समझ लिया। रवि एक मर्द है और वह औरत के साथ दोस्ती को इसी रूप में लेता है और जो महरूख जैसी औरत उसके काबू में न आये तो उसे लगता है कि वे नाम के लिए आधुनिक हैं, दरअसल तो वे उन्हीं पुरानें ख्यालातों की हैं, तभी तो वह कहता है ‘‘मिस जैदी, केवल ऊपरी आवरण के बदल लेने से मनुष्य का आंतरिक रूप नहीं बदल जाता है। आधुनिकता का तो नाटक है, वरना रूढ़िवादिता तो लोगों के हावभाव से टपकती है।’’9

एक अकेली लड़की को मर्दवादी विचारधारा हमेशा ही गर्मगोश्त के रूप में देखती रही है, तमाम प्रगतिशील विचारों को अपनाते हुए भी। महरूख को रवि की यह बात बहुत चुभती है ‘‘ रह रह कर एक बात मन को मथती रही कि यदि दो लड़कों की मित्रता इस स्तर पर होती, तो क्या वह भी इस नतीजे पर जा पहुँचती, फिर लड़की के साथ दोस्ती का मानवीय सन्दर्भ अपने अर्थ क्यों खोने लगता है और एक बंधे-बंधाए रास्ते पर चल पड़ता है? उसे हैरत होती कि इस विश्वविद्यालय में भी औरत को देखने वाली नजरों का वही पुराना दृष्टिकोण है, तो फिर वह किस अर्थ में अपने को स्वतंत्र, प्रगतिशील और शिक्षित कहते हैं? उसके किसी सवाल का जबाव इस माहौल ने नहीं दिया। यहाँ तो सिर्फ सवालों की फसल उगती है, सिर्फ सवालों की।’’10 

महरूख के जीवन की दिशा परिवार और दिल्ली के इस प्रवास के बाद ही तय होती है। इस माहौल में ही उसे स्त्री होने का बोध होता है और यह भी कि दिल्ली का विश्वविद्यालय परिसर हो या गाँव की गलियाँ सभी जगह औरत को यौनिकता के संदर्भ में ही देखा जाता है। उसे उपभोग की वस्तु के रूप में ही देखा जाता है और उसी तरह का व्यवहार उसके साथ किया जाता है।
महरूख ने अपने व्यक्तित्व को इस माहौल के खिलाफ एक मानवीय संदर्भ में देखे और समझे जाने के रूप में डाला और पितृसत्ता के विभिन्न रूपों के समक्ष पेश किया। ‘‘महरूख के दिल में एक बात कील की तरह गड़ गई थी कि अब उसे अपने को ऊपर से भी ऐसा ही बनाना है, जैसी वह अन्दर से है, जो महरूख तो हो, मगर साथ इस माहौल की चुनौतियाँ का सामना करने के लिए सीना तानकर खड़ी हो सके, आते हुए तीरों को कुन्द कर सके और अपने ढाल जैसे व्यक्तित्व पर उसका निशान तक पड़ने न दे।’’11 







पितृसत्ता की भूमिकाओं से इंकार - और अन्ततः महरूख ने स्वयं को चुनौतियाँ का सामना करने के लिए तैयार कर ही लिया और उसने निकाह करने से इंकार कर दिया और एक गाँव में बच्चों को पढ़ाने का गुरूतर भार ग्रहण कर लिया। यह उसने अपने विवेक पूर्वक विकल्प का चयन किया है। दुनिया और परिवार के दबावों के आगे झुकी नहीं। अपने लिए गए निर्णय पर साहस पूर्वक, संकल्प सहित चलती रही। रास्ते मंे आने वाली चुनौतियों का भी सामना किया और अपना संतुलन भी नहीं खोया। न तो उसे अपने निर्णय पर अफसोस है और न जिंदगी से कोई गिला-शिकवा। एक बार वापस आने के बाद जब खानदानी मकान बिक जाता है तो वह पुनः अपने उसी गाँव लौट जाती है।
महरूख निरंतर पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई भूमिकाओं और परंपराओं से टकराती रही। उनको नकारती रही, नए सिरे से सोचने के लिए विवश करती रही और स्वयं अपने जीवन में उनकी भूमिकाओं का नकारती रही। नए विचारों को अपनाना, और आधुनिकता की आड़ में स्वच्छन्दता को जीने का रास्ता जो रवि जैसे अधिकांश युवा अपना लेते हैं, उसने नहीं अपनाया। उसने एक कठिन और बीहड़ राह चुनी, दिल्ली जैसे महानगर और विश्वविद्यालय से पढ़कर प्रगतिशील से प्रगतिशील व्यक्ति भी गाँव की राह नहीं पकड़ता, विदेश का रास्ता तलाशता है, जैसा कि रफत भाई, परन्तु महरूख के माध्यम से नासिरा जी ने नई पीढ़ी और खास कर ‘स्त्री’ को यह दिशा दी है कि प्रगतिशीलता और स्वयं की मुक्ति का रास्ता इधर से जाता है।
ठीक ऐसा ही निर्णय कठगुलाब की स्मिता और असीमा करती हैं। दोनों चरित्रों की सोच की समानता को देखा जा सकता है।
उसके विरोध के स्वर को इन शब्दों में देखा जा सकता है ‘‘यह क्या बात हुई, अम्मी, जो होता चला आया है, वह क्यों होता चला जाएगा? पहले और आज की जरूरतों में बहुत फ़र्क है। यह बात हमें समझनी पडे़गी।’’12  

महरूख वर्तमान जीवन की आवश्यकताओं को पहले देखती है और परंपरा निर्वाह के नाम पर पैसे लुटाना उसे पसंद नहीं। वह अपनी अम्मी अब्बु से घर की हालात का वास्ता देती है और उसे सुधारने की बात कहती हैं।
महरूख की जिन्दगी का रुख रफत मियां के अमेरिका जाने के बाद से बदलता है। उसे खबर मिलती है कि रफत मियां वहाँ किसर वैलरी नामक अमेरिकन युवती के साथ ‘लिविंग टु-गेदर’ जैसी जिंदगी गुजार रहे हैं तो उसका पुरुष पर निर्भरता का भ्रम चकनाचूर हो गया। ‘‘रफत भाई के व्यक्तित्व का फानूस टूटना था सो टूट गया। उससे फूटती फैलती रोशनी के दायरे से वह हमेशा के लिए आजाद हो गई थी, मगर जिस अंधेरे से वह जा लगी थी, उसने जिंदगी का मकसद ही खत्म कर दिया था।’’13 

‘‘ (उसे) महसूस हुआ, दुनिया का हर रिश्ता झूठा है। एतबार नामकी चीज का कोई वजूद इन्सानी रिश्तों के बीच अब बाकी नहीं बचा है।’’14 

‘‘आज उसे महसूस हो रहा था कि इन्सानी रिश्ते भी कागज की नाव की तरह होते हैं, जो सारी एहतियात के बाद हालात के समन्दर में डूब जाते हैं।’’15 

‘‘हवाई किले की सैर से महरूख लौट आई थी। अब उसकी समझ में यह बात आ गई थी कि वह रफत भाई के दिल व दिमाग में कभी नहीं थी। वह तो रिश्ते के नाम पर एक पोस्टर थी, एक नारा थी, जिसे रफत भाई समाज की दीवार पर चिपका कर अपनी पहचान का झण्डा ऊँचा रखना चाहते थे, वरना वह महरूख का हक किसी और औरत को क्यों दे बैठते? उसके दिल में बगावत के तूफान उठने लगते। गम के बादल छंट गए थे। अब वहाँ नफरत और हिकारत का आसमान फैला हुआ था, जो महरूख को बताता कि सबने उसे छला है, कभी प्यार के नाम पर, कभी जिम्मेदारी के नाम पर, कभी रिश्तेदारी के नाम पर।’’16

  पितृसत्तात्मक समाज में एक स्त्री को कितनी तरह से ठगा जाता है, महरूख का यह अनुभव हमें बताता है। इसी अनुभव से गुजर कर महरूख को एक नई दिशा की खोज करनी पड़ी और वह सारे रिश्तों को धत्ता बताते हुए अपने लिए नई जमीन बनाने में जुट गई। उसने पुरुष पर निर्भरता के सारे लबादे फेंक दिए और बिना किसी पुरुष की सहायता के अकेले ही अपनी पहचान बनाने में और अपने वजूद को कायम रखने में किस तरह कामयाब हुई इसकी कहानी है महरूख का जीवन संघर्ष।

उसे पांच हजार की आबादी वाले गाँव में, अपने अस्तित्व की लड़ाई किस तरह लड़नी पड़ी यह वही जानती है, क्योंकि हमारा परंपरागत सोच वाला समाज यह बात सहज रूप से पचा नहीं पाता कि एक पढ़ी लिखी सुंदर लड़की अकेली छोटे-से गांव में नौकरी क्यों कर रही है? ‘‘महरूख गाँव के मुसलमानों के लिए एक ‘राज’ थी और बाकी लोगों के लिए एक पहेली। ऐसी पाक साफ, निखर लड़की, जिसके दामन पर नमाज पढ़ी जा सकती हो, वह इतनी तन्हा, अलग-थलग क्यों रहती है? एक साल तक यह सवाल पूरे गाँव में नाचा, मगर जब कोई जबाव न मिला, तो थक हार कर सवाल खुद महरूख की तारीफ में ढल गया।’’17 

संबंधों में विखराव और पारिवारिक विघटन - महरूख के जीवन में परिवार बसने से पहले ही विघटित हो चुका है। उसके संबंध जो ठीकरे की मंगनी के टोटके से बचपन से ही बंध गए थे, वे जब वाकई बंधने का अवसर आया तो समाप्त हो चुके थे। संबंधों में विखराव समय की मांग थी या रफत भाई की आवश्यकता ताकि वह अपने को बडा  बना सके, महरूख को सीढ़ी बनाकर वह आसमान की सैर करना चाहता था तो उसने किया। महरूख ने इस विखराव को अपनी ताकत बनाकर एक नए जीवन को चुनाव किया। दिल में कसक तो जिंदगी भर बनी रही, परन्तु वह टूटी नही, विखरी नहीं, स्वयं को जलते तवे पर खड़ा रखकर भी जिंदगी का संतुलन बनाए रखा।
महरूख एक विचारशील लड़की है। वह इंसानी रिश्तों और खून के रिश्तों और सामाजिक रिश्तों के बारे में खुले दिल और दिमाग से सोचती है। उसे यह भी समझ में आता है कि इंसानी रिश्तो अन्य रिश्तों से ज्यादा ताकतवर होते हैं, सफल होते हैं।

‘‘अपनी जिंदगी जीता तो अकेला इंसान है, मगर उसकी जिंदगी में कितने लोग जुड़े होते हैं! कितने रिश्ते बंधते हैं, जो हालात् को बनाते-बिगाड़ते हुए चाहे-अनचाहे उस इन्सान की किस्मत का फैसला भी करते हैं और इन सबसे जुड़े रहने के बावजूद इन्सान को अपनी निजी जिंदगी की सलीब खुद उठानी पड़ती है, अपनी जिन्दगी का जबावदेह होना पड़ता है।’’18 

‘‘इन्सानी रिश्ते कभी कभी खून के रिश्तों से ज्यादा सुख देते हैं।’’19

महरूख ने अपनी जिंदगी को समाज के निचले तबके के लोगों को जीवन के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का तरीका सिखाने का बीड़ा उठाया है और इसके लिए उसे आरोप-प्रत्यारोप भी सहने पड़ने थे।
महरूख का असली द्वंद्व और संघर्ष उस वक्त प्रारंभ होता है जब रफत भाई अमेरिका से डिग्री लेकर बिना मेंम के लौट आये थे। अब लोगों का भी और रफत भाई का भी ख्याल था कि महरूख को उनसे निकाह कर लेना चाहिए। जब रफत भाई ने पूछा कि ‘‘तुम खुश तो हो ना?....मेरी खुशी से क्या बनना बिगड़ना है।’’ ...किसी का मंगेतर डॉक्टरेट की डिग्री लेकर आये, तो क्या खुशी की बात नहीं है? रफत ने लहजे में दुलार-भर कर पूछा। ....‘‘किसका मंगेतर और कैसी खुशी, रफत भाई?’’20

 यह जो महरूख का जबाव है यह उसके साहस और स्वतंत्र व्यक्तित्व की गरिमा से ओत-प्रोत है। यहाँ उसके आत्मनिर्णय और स्वतंत्र व्यक्तित्व का झलक मिलती है। उसने रफत की मजबूरी बताये जाने के बाद कहा कि ‘‘डिग्री आपको मुबारक हो, मगर मैं तो इन ख्वाहिशों के बंधन से कब की आजाद हो चुकी हूँ।’’21 

यह आजादी की घोषणा उसके अन्दर से व्यक्तित्व के गौरव और आत्मविश्वास की आवाज है। वरना आज की कौन लड़की इस तरह का जबाव दे सकती है। इसके बाद रफत कहते हैं कि मेरा सहारा मिलेगा तो तुम्हें आसानी होगी। पितृसत्ता अपना जाल फेंकती है। पुनः लाभ-लालच और भय का जाल फेंकती है, कैसे भी कोई लड़की बिना उसके सहारे कैसे विकास कर ले कैसे अपना अस्तित्व बना ले।
महरूख का रफत भाई को जबाव है - ‘‘रहम खाइये, रफत भाई, मुझ पर रहम खाइए। मुझे फिर तराशने और चमकाने की जिम्मेदारी मत लीजिए। मुझे फिर एक खूबसूरत जिंदगी का भुलावा मत दीजिए। मेरा सुकुन मत छीनिये। मैंने बड़ी मुश्किलों से दोबारा इसे पाया है।’’22 

महरूख का स्वयं को किसी चीज या वस्तु की तरह देखे जाने का तीव्र विरोध किया। जब रफत कहते हैं कि मैं तो सोचता था कि जैसे मैं तुम्हें महकता हुआ छोड़ गया था, वैसा ही लौट कर पाऊँगा। तो महरूख कहती है ‘‘मैं जगह, चीज या मकान नहीं थी, रफत भाई, जो वैसी की वैसी ही रहती। मैं इन्सान थी, कमजोरियों का पुतला। मैंने आपको जिस भरोसे से भेजा था, आप भी वैसे कहाँ रह पाए? कुछ चीजें कितनी बेआवाज टूटती हैं। मैं बेआवाज टूटी थी, किरच-किरच होकर बिखरी थी। बड़ी मुश्किल से अपने को चुना है, समेटा है, जोड़ा है, तब कहीं जीने के काबिल हुई हूँ। मुझसे अब मेरी यह जिन्दगी वापस मत छीनिये।’’23 

पुरुष हमेशा ही औरत के विरोध को उसके पीछे छिपे मानवीय पहचान के दर्द को गुस्से या क्षणिक आवेग का नाम देकर उपेक्षित करता है। महरूख भी यह समझती है, तभी तो वह कहती है ‘‘मेरे जज्बात को सिर्फ गुस्से का नाम देकर इसकी अहमियत कम मत करिए। यह सब कुछ हमारी जिन्दगी की हकीकत है, जिसने हमें तोड़ कर अलग कर दिया है।’’24 

जब रफत भाई कहते हैं कि क्या अब तुम्हारी जिंदगी पर मेरा कोई हक नही तो महरूख का जबाव है - ‘‘अब मेरे पास समझ है।  मैं अपना बुरा-भला खुद समझ सकती हूँ। ठोस जमीन पर ठोस जिन्दगी चाहती हूँ। मेरी जिन्दगी पर सिर्फ मेरा हक है।’’25 
यह एक ब्रह्म वाक्य महरूख ने बोला है कि मेरी जिन्दगी पर सिर्फ और सिर्फ मेरा हक है। इस वाक्य के पीछे पूरा स्त्री विमर्श का स्वरूप और सिद्धांत खड़ा है। स्त्री की जिंदगी पर से स्त्री का हक छीनने का ही तो पूरा षड्यंत्र पितृसत्ता ने रचा रखा है। यह बात कह कर महरूख ने स्त्री की आवाज को समाज के सामने पेश किया है।
स्त्री के आँसू उसके वजूद के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं। पुरुष उसकी इस भावुकता और कमजोरी का फायदा उठाता है। यही कारण है कि महरूख रफत भाई के सामने स्वयं को कमजोर नहीं पढ़ने देती और सोचती है - ‘‘वह रफत भाई के सामने रो कर अपने को छोटा नहीं करेगीं वह अपनी कमजोरी को यूँ रुसवा नहीं करेगी। वह एक बूंद आँसू किसी के सामने नहीं गिरने देगी।’’26 

महरूख को अपने निर्णय और जिंदगी पर भरोसा है। वह अपने निर्णय पर शर्मिंदा  नहीं है। तभी तो वह अपने अब्बू से कहती है ‘‘अब्बू, मैं अपनी मौजूदा जिन्दगी से पूरी तरह मुतमईन हूँ।’’27 

महरूख भी स्कूल को अपना जीवन लक्ष्य बनाती है। चाक में सारंग स्कूल और सकूल मास्टर के लिए सब कुछ दांव पर लगाती है। कठगुलाब की स्मिता और असीमा गाँव को अपना कर्मक्षेत्र चुनती हैं।
महरूख अपनी नौकरी को अपना सब कुछ बना लेती है और सोचती है कि ‘‘घर का मतलब अगर ईंट, गारे पत्थर की चहारदीवारी होता है और शौहर का मतलब जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों का जरिया, तो फिर वे दोनों चीजें मेरे पास मौजूद हैं। यह दीवारें और नौकरी जो मेरा सहारा है।’’28 

महरूख का यह सोचना भी पितृसत्ता के उस विचार को धराशायी करना है जिसके तहत स्त्री को घर की सुरक्षा और अस्मिता और पेट की बुनयादी आवश्यकताओं की संरक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर बनाया गया था। उसके पास नौकरी है अर्थात् वह इन दोनों चीजों की  जरूरत पूरी कर लेती है। अतः उसे पुरुष और उसके द्वारा दी गई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है।






महरूख ने पुरुष पर निर्भरता के खिलाफ स्वयं को खड़ा किया है, पुरुष के खिलाफ नहीं और न ही उसके मन में मर्द के खिलाफ नफरत का जहर है जैसा कि असीमा और स्मिता (कठगुलाब, और आवां) के मन में है। जब रफत भाई उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तुम्हारे मन में मर्द के लिए नफ़रत पैदा हो गई है?’’....है तो उसका जबाव है कि ‘‘नहीं बिल्कुल, नहीं, औरत की जिन्दगी के सारे करीबी व ज़जवाती रिश्ते मर्द से ही होते हैं। बाप, भाई, शौहर, बेटा जैसी अहमियत को नकार कर औरत कहाँ जायेगी, रफत भाई? सवाल मर्द से नफरत का नहीं है, बल्कि सवाल यह उठता है कि मैं आपके ख्वाबों में बसे घर की मालकिन बन सकती हूँ या नहीं? मुझे लगता है, यह नामुमिकन है।’’29  

यह सवाल औरत को औरत के नजरिये से देखने की मांग करता है। यह सवाल औरत ने स्वयं खड़ा किया है और स्वयं इसका जबाव दिया है। यह स्त्री के द्वारा स्त्री की भूमिका को स्वीकारना है और अपनी भूमिका को स्वयं चुनना है। यह चुनाव उसे अलग व्यक्तित्व देता है। स्वतंत्र व्यक्तित्व, पुरुष के द्वारा दी गई भूमिका के बिना बना उसका अस्तित्व और उसकी पहचान।
महरूख के लिए स्त्री पुरुष के संबंध एक अलग ही विचार पर केन्द्रित हैं। सामान्यतया जो सोचा जाता है जो आधार और आवश्यकता पितृसत्ता ने बना रखी है, महरूख के लिए वे वही नहीं है। वह रफत भाई से कहती है ‘‘क्या बताऊँ रफत भाई? आप तो खुद रिश्तों की गहराई और फैलाव का समझते हैं। कुछ के लिए रिश्ते महदूद होते हैं और उसका इजहार कभी बलात्कार, कभी झुंझलाहट और कभी तरस और नफरत, तो कभी नस्ल की बढोत्तरी होता है, मगर एक और नजरिया रखने वाले के लिए यह मर्द-औरत के ताल्लुक का सबसे खूबसूरत इजहार है। मेरी नजर में जहाँ दिल और दिमाग मिलते हैं वहीं अपनी खुदी देने की ख्वाहिश उभरती है और उस खुदी को, उस नफ्स को कोई कैसे दे सकता है, जब तक...?30

महरूख ने रफत भाई के सामने बहुत स्पष्ट शब्दों में यह बात रख दी की आपने जो घर का ख्वाब देखा था उसे पूरा करने के लिए आप विवाह कर लें। इसके साथ यह भी कि अब यह आवश्यक नहीं की जो ख्वाब आपने देखा है वही मेरा भी हो और मैं उसे ही अपनी हकीकत बनाऊँ। ‘‘मेरे पास कोई ख्वाब आपको लेकर या जिन्दगी को लेकर नहीं है, जो कुछ मेरा है, उसे जो भी कह लें, ख्वाब या हकीकत वह यह गाँव है, यहाँ के लोग हैं, यह नौकरी, जो मेरी पहचान है, जो मेरा भविष्य और वर्तमान है।’’31

महरूख ने पितृसत्ता का यह अहं तोड़ दिया कि स्त्री की पहचान बनाने का काम वही करती है - ‘‘मैं ही तो उसे बनाने वाला हूँ। अगर न ले आता दिल्ली, तो क्या वह आज इतनी समझदार और खुले दिमाग की मालिक बन सकती थी?’’32 
महरूख ने रफत भाई से अपने विवाह होने से इंकार कर दिया। विवाह के बंधन और पति के साथ घिसटते रहने से उसने इंकार कर दिया। उसने अपनी जिंदगी का लक्ष्य आम आदमी के साथ चलना तय किया न कि पूँजीवादी विकास की रफ्तार में दौड़ना। ‘‘आपको बहुत आगे जाना है और मुझे एक जगह ठहरकर बहुत लोगों के साथ चलना है।’’33
वह विवाह को एक समझौते के रूप में जीने से इंकार करती है। क्योंकि वह मानवीय संबंधों को दिलो दिमाग से जीना चाहती है। ‘‘यदि रिश्ता बना भी तो बस वह एक समझौता होगा, फिर कुछ दिन बाद रफत भाई अपने रेस के मैदान में उतर जायेंगे, फिर नई रफ्तार, नई चुनौतियाँ, नई स्कीमें उन्हें उकसायेंगी और वह उनसे इंकार नहीं कर पायेंगे। तब वह उनकी बीबी होगी। उनके साथ घिसटते हुए ही सही दौड़ना तो पडे़गा और उस दौड़ के बीच वह कहीं...? ऐसी जिंदगी वह अब नहीे जी सकती है। कोई मजबूरी, कोई मुसीबत नहीे आन पड़ी है उस पर जो वह सर झुका कर इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दे।’’34

 मर्दों की दुनिया में मर्दोे के सामने उनके द्वारा लिए गए निर्णय से इंकार करके अपना निर्णय सुनाने का साहस महरूख दिखाती है। जब रफत भाई यह कहते हैं कि उसकी जिंदगी में यदि कोई और है तो वह रास्ते से हट जायेंगे तो महरूख कहती है ‘‘आखिरी बार मैं सबके सामने, खासकर अब्बू मैं आपसे कह रही हूँ कि रफत भाई मेरे बड़े भाई हैं। मैं उनको अपने बुजुर्ग की तरह देखती हूँ, बस! चेहरे की तमतमाहट, आँखों से टपकता फैसला खड़े होने का अन्दाज और आवाज में आत्मविश्वास, इन सबने पल भर में ही मसले को हल कर दिया था।’’35  

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सच्चाई बताते हुए ताई जी कहती हैं -‘‘मर्द सौ गलती करें, तो उन्हें माफी, औरत एक करे तो उसके लिए पिस्तौल तैयार है। कभी सुना है कोई मर्द औरत के नाम पर बैठा रहा हो, मगर औरत एक मर्द के नाम पर जिन्दगी तज देती है। सारी जिन्दगी उसी के नाम की माला जपती रहती है। जमाना कभी नहीं बदलेगा। औरत मर-मर कर जियेगी, चुप रह-रह कर सहेगी। (माई, गीतांजली श्री)’’36

इस पूरी घटना में सबसे महत्वपूर्ण बात जो हुई, वह यह कि एक औरत ने मर्द को ठुकरा दिया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक टूटन दिखाई दी। ‘‘परंपरागत खानदान के लिए यह हादसा जितना शर्मनाक था, उतना हैरतअंगेज भी कि औरत मर्द को ठुकरा दे? गम की परतों और फिक्र की घटनाओं के बीच कहीं इस बात का दबा-दबा गुरूर भी था।’’37






क्या आज का स्त्री विमर्श और उसके पैरोकार इस गुरूर को गुरूर बनाकर जी सकते हैं? शायद नहीं, अधिकांश स्त्रियाँ महरूख जैसी औरत को ही दोषी और कुलच्छनी कहेंगी।
महरूख ने अपने अंदर की लड़की को, स्त्री चेतना को खोज लिया है, पा लिया है और वह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। इसके साथ ही वह यह भी समझ गई कि मुझे जो निरंतर औरत बनाया जा रहा था, एक परंपरागत स्त्री के रूप में ढाला जा रहा था, उसने उससे अलग अपने वजूद को पा लिया है, अब वह उसक दांव पर नहीं लगा सकती।
‘‘महरूख कमरे में विस्तर पर औंधी पड़ी सोच रही थी कि जिस महरूख को पूरा खानदान बचपन से मुझ पर लादता आया था, वह महरूख मैं नहीं थी। मुझे सांस ही कब किसी ने लेने दी, जो मैं अपने अंदर छिपी लड़की को ढूंढती, समझती, पाती और पहचानती। आज जब मैंने अपने को पहचान लिया है, तो उस लड़की को पा लिया है, जो मेरे अन्दर है, जिसका सही नाम महरूख है और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि उसकी पहचान जो भी हो, मगर रफत भाई हरगिज नहीं है।’’38  

यह जो उसने रफत यानि की पुरुष के बना और उससे अलग अपनी पहचान बनाने का कार्य किया है, वह अपने आप में बेमिसाल है।
विवाह से इंकार और विकल्प - ‘‘महरूख अम्मी की इन बातों को सुनकर सोचने लगती कि शादी हर औरत-मर्द के लिए जरूरी है, मगर इतनी भी जरूरी नहीं है कि वह बेजान दीवारों और बेजबान पलंगों से कर ले या जो भी अंधा, लूला, लंगड़ा रास्ते में आ टकराए उसी के साथ निकाह पढ़वा लिया जाए। आखिर हर जिंदगी का एक ही चौखटा तो नहीं हो सकता।’’39 

‘‘सही और गलत की कसौटी ‘औरत’ होती है, मजहब और रीति रिवाज की जिम्मेदारी भी औरत होती है, राजनीतिक बदलाव को दर्शाने वाली भी औरत होती है। परिवार और कुल की मर्यादा औरत होती है। कुल मिलाकर इस दुनिया को जिन्दा रखने चाली ‘शै’ भी औरत होती है, फिर औरत को इतनी  हिकारत की नजर से क्यों देखा जाता है? क्या सिर्फ इसलिए कि एक गुलाम, एक वेजुबान कनीज की जो आदत सदियों से पड़ गई है, उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता है। वरना संबंधों की तानाशाही किस पर चलेगी और तानाशाही का अपना एक मजा होता है। क्या स्वयं में यह दृष्टिकोण एक प्रकार की राजनीति नहीं है,? फिर उससे औरत क्यों दूर रहे? उस राजनीति में उसका बराबर से हिस्सा होना चाहिए। उसकी मांग, जरूरत, और पुकार को तभी दूसरा पक्ष समझ पायेगा।’’40 
स्त्री जाति का यह विश्लेषण वास्तविकता के धरातल पर है। इसमें उसके होने को दुनिया के लिए आवश्यक बताया गया है और उसके पक्ष को दूसरा पक्ष बराबरी के स्तर पर सुने और समझे इसकी प्राकृतिक आवश्यकता को स्वीकार किया गया है।
स्त्री विमर्श का स्वर पुरुष के खिलाफ नहीं होना चाहिए, बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ होना चाहिए। महरूख के माध्यम से नासिरा जी ने यह बात बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत की है। अमृता के संघर्ष में वह उसे समझाती हुई कहती है ‘‘मर्द न हमारा दुश्मन है, न हरीफ़-वह हमारी तरह का इंसान है। मानती हूँ औरतों की तकलीफें बेशुमार हैं, मगर मर्द कब अपनी उलझन से आजाद है? उसकी सबसे बड़ी उलझन तो आज की बदलती औरत है जिसे वह समझ नहीं पा रहा है -मर्दों को हम जज़्बाती नजर से न देखकर उन्हें व्यावहारिक तौर पर देखें तो शायद हम उनकी कुण्ठाओं की गिरहें खोल सकें और उन्हें बहुत कुछ समझा सकें।’’41

वे स्त्री की लड़ाई में पुरुष को प्रतिद्वंद्वी नहीं सहयोगी बनाने का सुझाव रखती हैं। ‘‘हमारी लड़ाई अपनों से संघर्ष की लड़ाई है, यानी भूमिगत, अपने अन्दर अपने को समझने और मजबूत बनाने की -हमें मर्द नहीं बनना है न ही मर्द को औरत बनाना है - एक दूसरे को लबादा पहनने की यह ललक ही मुसीबत बन रही है। जरूरत है अपनी -अपनी जगह खड़े होकर अपने आप को समझने और दूसरे को समझाने की जब समझ कह दे, यह नामुमकिन है तो उसे कबूल कर लो, मगर इस तरह से मर के नहीं - याद रखो, इन्सान का जिन्दगी सिर्फ एक बार मिलती है और उसे सिर्फ एक के लिए खत्म करना नासमझी ही नहीं; जुर्म भी है।’’42 

स्त्री-पुरुष के संबंध को पति-पत्नी के संबंध में बांधना पितृसत्ता का वर्चस्वी राजनीति की तकनीक थी। स्त्री के माँ बनने के प्राकृतिक अधिकार को सामाजिक और नैतिक कानून से जोड़कर शुचिता और पवित्रता का वास्ता देकर पितृसत्तात्मक भूमि और बीज के संबंध में क्यों बदल दिया गया। इस पर भी महरूख विचार करती है।
‘‘अपने चारों तरफ गूंजते-गंुधते सन्नाटे में उतरती हुई महरूख महसूस करती कि औरत को बनाते हुए खुदा ने कोख तो उसी के बजूद में बनाई है, अपने बाद सृष्टि का अधिकार उसे ही दिया है फिर उसका श्रेय मर्दों के नाम पर किसने चढ़ा दिया है? हर औरत की माँ बनने का पैदाइशी हक खुदा ने दिया है, तभी तो कयामत के दिन करम का लेखा-जोखा तय करते समय मुर्दों को उनकी माँ के नाम से पुकारा जायेगा। फिर इस दुनिया में जिन्दा इन्सानों के बीच बच्चे की पहचान और नाम माँ न होकर बाप क्यों हो गया है और बाप भी ऐसा जो पति हो, मजाजी खुदा हो, सामाजिक बन्धनों के मुताबिक हो वरना....?’’43

महरूख ने जहाँ से पितृसत्ता द्वारा दी गई भूमिका के आगे अपनी सरहदें फैलाई थीं, वहीं से उसकी पहचान बन थी और वह तय शुदा भूमिकाओं - पत्नीत्व, मातृत्व को न निभाते हुए भी एक मुकम्मल इंसान है और अंदर से पूर्णत्व और मुक्ति का अनुभव करती है।
‘‘अब वह अम्मी को क्या कहे और उन्हें कैसे समझाये कि आपकी महरूख रिवायती दायरे को तोड़कर एक नई जमीन पर खड़ी है। वह अगर माँ नहीं बनी तो चाह अधूरी नहीं है। यह ख्याल अपने में कितना बेमानी है, फिर खुद तो इसकी ख़तावार महरूख नहीं, बल्कि वह माहौल और हादसे हैं जिन्होंने नई महरूख को जन्म दिया।’’44 

महरूख स्त्री के वजूद और पहचान को बंधे-बंधाये ढर्रे से हट कर सोचने पर मजबूर करती है। वह समाज और पितृसत्ता के सामने यह प्रश्न उठाती है कि क्यों औरतों की बोलियाँ लगाना बंद किया जायेगा और कब इनको कोड़ियों और ठीकरों में नापना बंद होगा?

‘‘महरूख अपने बिस्तर पर लेटी चुपचाप अम्मी की यह बेकली देख रही थी कि औरतों की खुशकिस्मती और बदकिस्मती के कितने बंधे-बंधाये ढर्रे हैं। बरसों से चली आ रही यह सोच कब बदलेगी? कब औरत की कीमत ठीकरों और कौड़ियों से नापना बन्द होगा? कब उसे इन्सान समझ कर उसकी बोलियाँ लगनी बन्द होंगी? कब उसे मर्दों के सहारे के बिना दुनिया जीते देखना पसन्द करेगी? कब उसे अपनी तरह जीने की आजादी मिलेगी? आखिर कब?’’45 

महरूख ने अपने लिए गए फैसले की कीमत भी चुकाई है, आने वाली चुनौतियों का सामना किया है। स्त्री को यदि मुक्त होना थोपी गई भूमिकाओं से तो उसे महरूख की तरह फैसले लेने होंगे और साहस के साथ चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना होगा।

‘‘तो मैंने भी अपने पसन्द की जिन्दगी जीने की कीमत अदा की है, मैं अपनी जिन्दगी से मुतमईन हूँ। मैंने कुछ खोकर पाया है अम्मी! आप इसे न जान सकें तो वह अलग बात है, मगर मैंने सचमुच हादसों से घिर कर तजुर्बों की सुरंगों से निकल कुछ पाया है जो बहुत कीमती, बहुत पुरमयानी है जो आप नहीं मगर आने वाली नस्लों की औरतें समझेंगी कि उसका सफ़र कब से शुरू हुआ था - और वह औरत भावनात्मक धरातल पर हमसे ज्यादा मजबूत होगी, हर चोट को हर चिटकन को गहराई से समझ कर उसे रचनात्मक मोड़ देना इमसे कहीं ज्यादा जरूरी समझेगी।’’46 

महरूख के इस निर्णय से भविष्य की औरत आजाद होगी, स्वतंत्र व्यक्तित्व की धनी  होगी और अपने फैसले स्वयं करेगी। इस संभावना को महरूख इन शब्दों में व्यक्त करती है - ‘‘जहरा बीबी, तुम क्या कोई भी किसी लड़की को अब नहीं रोक पायेगा। रोज हालात की भट्टी में पक-पक कर कैसी पुख्ता लड़कियाँ निकल रहीं हैं। इस खानदान की मै पहली लड़की सही, मगर इस दुनिया की तो नहीं। बाहर निकल कर जमाने को तो देखो, आसमान कैसे-कैसे रंग बदल रहा है! सच कहा है किसी ने, जो दिल ग़म से आश्ना ने हो, वह दूसरों का दर्द क्या जाने।’’47
मर्द से अलग अपना भी औरत का घर हो सकता है, उसकी दुनिया हो सकती है, उसका अपना परिवेश और समूह हो सकता है। जिसमें मर्दों का बहिष्कार नहीं साथ भी हो सकता है और उनका वर्चस्वी रूप नहीं हो सकता है।
‘‘एक घर औरत का अपना भी तो हो सकता है, जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग, उसकी मेहनत और पहचान का हो।....मेरा अपना घर वही पुराना है, जहाँ मैं पिछले तीस साल रही हूँ। तुम लोग अपने-अपने घर रहे हो, मैं अपने घर लौट रही हूँ। इसमें इतना पेरशान होने की क्याबात है? महरूख ने बड़े इत्मीनान से कहाँ’’48

इस तरह महरूख स्त्री विमर्श की नई दिशा, सोच और व्यवहार का ‘जिन्दा मुहावरा’ है।



डॉ संजीव जैन 

डॉ. संजीव कुमार जैन
सह-प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज, म.प्र. संपर्क
522 - आधारशिला, ईस्ट ब्लॉक एक्सटेंशन
बरखेड़ा, भोपाल, म.प्र. 462021
मो. 09826458553





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1. ठीकरे की मंगनी, नासिरा शर्मा, पृ. 17
2. वही, पृ. 12
3. वही, पृ. 12
4. वही, पृ. 14
5. वही, पृ. 17
6. वही, पृ. 22
7. वही, पृ. 26
8 वही, पृ. 40-41
9. वही, पृ.
10. वही, पृ. 49
11. वही, पृ. 50
12. वही, पृ. 51
13. वही, पृ. 61
14. वही, पृ. 61 
15. वही, पृ. 61
16. वही, पृ. 62
17. वही, पृ. 65
18. वही, पृ. 74
19. वही, पृ. 75
20. वही, पृ. 115
21. वही, पृ. 116 
22. वही, पृ. 116
23. वही, पृ. 117
24. वही, पृ. 117
25. वही, पृ. 117-118
26. वही, पृ. 118
27. वही, पृ. 119
28. वही, पृ. 125 
29. वही, पृ. 126
30. वही, पृ. 127
31. वही, पृ. 127
32. वही, पृ. 121
33. वही, पृ. 131
34. वही, पृ. 132
35. वही, पृ. 133
36. वही, पृ. 135
37. वही, पृ. 136
38. वही, पृ. 136
39. वही, पृ. 136
40. वही, पृ. 178
41. वही, पृ. 180
42. वही, पृ. 181
43. वही, पृ. 189
44. वही, पृ. 190
45. वही, पृ. 193
46. वही, पृ. 194
47. वही, पृ. 196
48. वही, पृ. 197

               

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