Thursday, November 30, 2017

जब न्याय की तुला अन्याय के बोझ से अस्थिर हो जाती है ,जुल्म और सितम से त्रस्त जनता हाहाकार कर उठती है तब इन्कलाब आता  है और क्रांति की मशाल जलउठती है | |ऐसे समय में कलम भी  क्रांति की सिपहसालार होकर जनपक्ष में अपने शब्दों की समिधा  होम करती है |कुछ ऐसे ही शब्दों का आव्हान है, निर्बलजन और भूमिपुत्र  की पीड़ा की बैचेनी है सुरेन्द्र रघुवंशी के  तीसरा कविता संकलन "पिरामिड में हम "|

इसका विमोचन भोपाल में चल रहे भोपाल जनोत्सव में देश के प्रख्यात हिंदी साहित्यकार असग़र वज़ाहत और विष्णु नागर ने किया। इस अवसर पर समकालीन कविता के प्रमुख कवि बड़ी तादात में मौजूद रहे। विमोचन पूर्व परिचय में प्रमुख चित्रकार , कथाकार और संचालक 'सृजन पक्ष' पत्रिका के निरन्तर संचालन के लिए एवं सोशल मीडिया पर विभिन्न समूहों और फेसबुक के माध्यम से हिन्दी साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए सुरेन्द्र रघुवंशी के निरन्तर महत्वपूर्ण अवदान का उल्लेख प्रमुखता से किया गया।




 सुरेन्द्र रघुवंशी की कुछ कवितायें ,मधु सक्सेना की समीक्षा और समकालीन साहित्यकार एवं सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाओं के साथ आपके ब्लॉग रचना प्रवेश पर आपके अवलोकनार्थ ....                    

  || व्यवस्था का यह शीर्ष राक्षस ||   

भूसा के भाव बिक रहीं हैं फसलें
मजबूरी की मंडियों में नीलाम हो रहा है स्वाभिमान
हमारे सिर से उतार ली गई है पगड़ी
और पैरों से जूते निकाल लिए गए हैं
नंगे पाँव कंटीले और खाइयों वाले रास्ते पर है हमारी यात्रा

हमारे तलवों  का सीधे कांटों से मुकाबला है
यहां खून सपनों में नहीं बल्कि शरीर से चू रहा है
हमारे हाथ धोखे की रस्सी से बांध दिए गए है
और पैरों में आश्वासन की बेड़ियां हैं

हमारे अधिकारों के सितारे हाथों से छीन
उन्हें आसमान की चादर में टांक कर
जीवन और संसार के सौन्दर्य के गीत गा रहा है राक्षस
चारण झूम झूमकर गा रहे हैं यश गान
उन्हें मिला है अभयदान 

व्यवस्था का यह शीर्ष राक्षस गटक गया 
हमारे हिस्से की कल-कल स्वर से बहती सुन्दर नदियों को
और आजकल वह दे रहा है पानी के महत्व पर प्रवचन
हम ज़िंदा हैं कीचड़ से नमी की तलाश में

हमारे बिकने जा रहे खेत रोज सपनों में आलिंगन करते हैं
और रोते हुए बचने के लिए गुहार लगाते हैं
जैसे दलाल के चंगुल में फंसी औरत बिकने से बचने हेतु
रोती है बेबसी में मुक्त होने की उम्मीद में
कि पसीजेगा दुष्टों का हृदय और वे दया दिखाएंगे
भूलते हुए इस ज़रूरी सत्य को
कि विनती करने से न तो कभी इतिहास बदला है
और न ही बदलेगा वर्तमान...



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 || शक्ति का गर्वोक्त प्रदर्शन ||

संग्रहालय की यह काली सुरंग
घूम फिरकर इतिहास के कलंक तक जाती है

जहां धोया गया है खून से सने इन हथियारों को
वहां खून की एक जमी हुई नदी है
उसमें लहराते हैं सैनिकों के असंख्य हाथ

हड्डियों का पुल है जिस पर चल रहे हैं
सरकारों के सत्ता रथ टप टप टप टप
यह जो शोर सुनाई दे रहा है चारों ओर
जन -जन का हाहाकार है
अनसुना ही रह गया आर्तनाद है अपने बचाव में

यह जो पेड़ हिल रहे हैं
इनके हिलने का कारण हवा बिल्कुल नहीं है
यह अपने भय के भयावह मिश्रण से कांप रहे हैं
हवा में तो पेड़ खुशी से झूम उठते हैं

खून की यह जमी हुई नदी
 पिघलकर बहने लगी है इतिहास से वर्तमान की ओर
जबकि खेतों की सूखती हुई फसलों को
पानी की वेगवती नदियों की ज़रूरत थी

यह कौन दैत्य आ गया हर गाँव के खेत और बगीचे में
जिसने अपने मायाजाल  से
 पेड़ों से सारे मीठे फल उतार लिए
और किसानों को मार-मारकर 
 पेड़ों की डालियों पर उनकी लाशों को लटका दिया

अपने चेहरों को ढके हुए 
ये अंधेरे के कौन पैरोकार हैं 
जो मनुष्यता के आकाश से
सभ्यता और विकास के सूरज को निगल रहे हैं
                                                         
यह शक्ति का महान गर्वोक्त प्रदर्शन है
जहां लोगों को मारने के लिए असंख्य हथियार हैं
और उनको बचाने के लिए उपायों पर
इतिहास से लेकर अब तक 
मौन की एक लम्बी और गहरी खाई है



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 || हिटलरी जूतों की आवाज ||  

 मैं इस अंधेरे समय में
उम्मीदों का एक दीपक ढूंढ रहा हूँ 
दीपावली तो अमीरों के महलों में कैद है

यहां घिसट रही है उदास ज़िन्दगी
उसके चेहरे पर मजबूरी की मक्खियां भिनभिना रही हैं
खेत हार गए हैं अपने कंधों पर बोझा ढो- ढोकर

कर्ज़  और फसलों के लागत मूल्य से भी कम भाव
फांसी के फंदे तक ला रहे हैं धरती पुत्र को
यहां जीने की नहीं मरने की होड़ है
जबकि सरकार मदमस्त हाथी की तरह झूमते हुए 
अपनी अमरता का गौरव गान गाने में मस्त है
वह आजीवन नहीं छोड़ना चाहती  सत्ता की कुर्सी

देश अघोषित शवयात्रा में मौन धारण किए हुए चल रहा है
पर व्यवस्था के प्रतिक्रिया रजिस्टर में 
इसे मातम नहीं बल्कि उत्सव की तरह दर्ज़ किया जा रहा है..

व्यवस्था के गिद्दों और काले कौवों से भर गया है
अपनी प्रकृति में नीला और स्वच्छ रहने वाला आसमान
असंख्य जन चिड़ियाएं धरती पर चुपचाप रेंग रही हैं
क्योंकि काट दिए गए हैं इनके पंख
धरती लहू लुहान कर दी गई है

हवा में डरते-डरते हिलती हैं पेड़ों की शाखाएं
कुल्हाड़ियाँ लिए तमाम हाथ चले आ रहे हैं उनकी ओर
पटाखों के धमाकों की नहीं
बल्कि चलते हुए हिटलरी जूतों की आवाज़ कानों में सन्नाटा भर देती है..



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        || प्रेम ||

उसमे इतना आवेग है
कि अपने प्रवाह पथ में
उसने कभी स्वीकार ही नहीं किया कोई अवरोध
वह कभी अपने तट के भीतर
तो कभी तट के बाहर बहा
हार कर रुक नहीं गई धार
उसकी तरलता में कृत्रिमता का नमक नहीं है

वह यथार्थ के ताप से उपजा है
ज़रूरी नहीं कि सभी देख पाएँ उसे
उसे देखने के लिए वैसी ही नज़र चाहिए जैसा वह है
वह आकाश में आवारा बादलों जैसा है
तो धरती पर पगली-सी बहती फिरती नदी जैसा भी है
पेड़ पौधों में फूलों जैसा है
शरीर में आँखों जैसा है
एक अकथनीय सत्य जैसा वह व्याप्त है हवा में
वह आँखों की तरलता में ध्वनित होता है
तो होंठों के फैलाव में विस्तार पाता है

मैंने उसे कई रूपों में देखा है
ठीक-ठीक कहूँ तो
वह बिल्कुल तुम्हारे जैसा है...



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         || प्रेम (दो) ||

वह क्या था जो उगा नितान्त बंजर में
जो लू के थपेडों में भी नहीं जला
जो तुम्हें पकड़कर लाया मेरे पास
जो दो अलौह देहों के बीच 
एक रंग विरंगी सशक्त चुम्बक था

जिसमें दुनिया का सबसे सुंदरतम राग छिपा था
जिसे मुस्कान से ऊर्जा मिलती थी
जिसे स्पर्श से मिलती थी खाद
जिसे आंखों के उदगम से निकली खारी नदियों से जीवन की हरियाली मिलती थी...

वह क्या था जो दुनिया के षड्यंत्रों से ऊबकर
द्वीपों के एकान्त में बसना चाहता था
जो बादलों में उड़ता था और फूलों में महकता था

वह आम हवा के साथ नहीं बहा
और उसकी अपनी मौलिक हवा थी
साहस की घटाओं से टकराती हुई
और सौन्दर्य की बरसाती झड़ी को भी झुलाती हुई

वह क्या था और क्या है
जो तुम्हारे और मेरे भीतर बिल्कुल एक जैसा है
वह दुनिया के जन्म के साथ उपजा है
और रहेगा दुनिया के रहने तक



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         || गुफ़ा समय ||

कई बार मुझे लगता है
कि मेरे दुःस्वप्न को नींद से निकालकर
सीधे यथार्थ में बदल दिया गया है

मुझे बलात पटक दिया है सघन जंगल में
जहां हरियाली के महोत्सव के नाम पर 
काटे जा रहे हैं अनगिनित पेड़
पक्षी बेघर होकर आसमान में उड़ रहे हैं
 हाहाकार करते हुए चोंच फाड़-फाड़कर
वे थककर जब नीचे गिर जाते हैं
तो बहेलिए उन्हें उठा ले जाते हैं

भेड़िया शेर की खाल ओढ़कर दरबार लगाए बैठा है
और सारे  सियार  हू -हू  के अंध समर्थन में उत्सव मना रहे हैं

जब यही सच  मैंने बोल दिया सरेआम
तो हू-हू  पंचायत ने मुझे देशद्रोही  करार देकर
उग्र जंगलवाद का नारा बुलंद किया...

इस जंगलराज में इंसानियत नामक  युवती
अपनी लाज बचाने के लिए 
भटकती हुई फिर रही है
और उसके पीछे पड़े हैं खूंखार बलात्कारी

हमारा सामना सदियों पुरानी गुफाओं के अंधेरों से है
जो न तो विज्ञान के सूरज को मानते और न ही खुली हवा को मान्यता देते हैं....



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|| दीवारों की ऊँचाई की एक सीमा है  ||

मेरे पास तुम्हारी सहमति का अनन्त आकाश है
समर्पण की एक भुरभुरी धरती है
जहां उगती है विश्वास की हरी भरी दूब

दुनिया के यातनागृह के बाहर तुम एक खुला मैदान हो
जहां बन्दी नहीं हैं इच्छाएं
और जीवन का अर्थ विशुद्ध व्यापार , 
लाभ  या खजाना नहीं होता
यहां तराजू पर नहीं तौले जाते रिश्ते और निर्णय

तुम्हारा रंग बहुत मिलता है ऊंचाई पर उड़ते हुए पक्षियों से
तुम्हारे पंखों को अक्सर देखा है जो फड़फड़ाना चाहते  हैं
इन्हीं पंखों को सुरक्षित रखने और काटने  के 
दो पृथक द्वन्दात्मक वर्ग 
हमारी दुनिया की असल पहचान है

पर कितनी भी तलवारों और दीवारों की उपस्थिति
मनुष्यता की प्रतिबद्ध उड़ान को नहीं  रोक सकती

दीवारों की ऊँचाई की एक सीमा है
पर आज़ादी की उड़ान निस्सीम है
मैं तुम्हारे साथ इस उड़ान की अठखेलियों की 
अपेक्षित जुगलबन्दी पर निकल जाना चाहता हूँ....

      🌼 ||| सुरेन्द्र रघुवंशी ||| 🌼

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परिचय

 सुरेन्द्र रघुवंशी

🌷🌷🌷🌷🌷🌷


जन्म- 2 अप्रैल सन 1972
गनिहारी , जिला अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा- हिंदी साहित्य , अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर ।
आकाश वाणी और दूरदर्शन से काव्य पाठ
देश की प्रमुख समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं ' समकालीन जनमत' , ' कथाबिम्ब' , ' कथन' , 'अक्षरा' , 'वसुधा' , ' युद्धरत आम आदमी' , 'हंस' , 'गुडिया' , ' वागर्थ', ' साक्षात्कार' , ' अब' , 'कादम्बिनी' , ' दस्तावेज' , ' काव्यम' , ' प्रगतिशील आकल्प' ' सदानीरा' ' समावर्तन ' एवं वेब पत्रिकाओं ' वेबदुनिया' , ' कृत्या' सहित देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में
कविताएँ , कहानी, आलोचना प्रकाशित ।
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा ' जमीन जितना' काव्य संकलन प्रकाशित

दूसरा काव्य संकलन 'स्त्री में समुद्र'
तीसरा काव्य संकलन ' पिरामिड में हम ' ।' साँच कहै तो मारन धावै ' (डायरी) प्रकाशित
शिक्षक आन्दोलन से गहरा जुडाव
विभिन्न जन आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी
अपने नेतृत्व में मध्य प्रदेश में 11000/- सरकारी शिक्षकों की सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से नियुक्ति ।
मध्य प्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग में शिक्षक के रूप में कार्यरत ।
विभिन्न सामाजिक और मानवीय सरोकारों के विषयों पर विभिन्न मंचों से व्याख्यान ।
कुछ कविताओं का अंग्रेजी और फिलीपीनी टेगालोग भाषा एवं मराठी , गुजराती एवं मलयालम आदि भारतीय भाषाओँ में अनुवाद ।
कविता कोष में कविताएँ शामिल ।
हिंदुस्तान टाइम्स डॉट कॉम और नवभारत क्रॉनिकल का संयुक्त बोल्ट अवार्ड ।
एयर इंडिया का रैंक अवार्ड ।
मानवाधिकार जन निगरानी समिति में रास्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य के रूप में कार्य ।
प्रांतीय अध्यक्ष मध्य प्रदेश राज्य शिक्षक उत्थान संघ
जनवादी लेखक संघ में प्रांतीय संयुक्त सचिव (म. प्र.)
एडमिन/ सम्पादक-
'सृजन पक्ष' -वाट्स एप दैनिक एवं फेसबुक साहित्यिक पत्रिका
'जनवादी लेखक संघ'- फेसबुक साहित्यिक पत्रिका
'जनपक्ष'- फेसबुक साहित्यिक ग्रुप
संपर्क -महात्मा बाड़े के पीछे , टीचर्स कॉलोनी अशोक नगर मध्य प्रदेश, 473331 ।
मोबाईल 09926625886
email-surendraganihari@gmail.com
srijanpaksh@gmail.com
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समीक्षा ,
मधु सक्सेना 


जब व्यवस्था जनता के हित की ना सोचे ,खुद के विकास पर घ्यान दे ,जब आकाश में क्रूरता के बादल छाए और घरती रक्तरंजित हो जाये ,जब मानवता की
बलि चढ़ाई जाने लगे तो,..... कोई आवाज ,कोई हाथ जरूर उठता है मानवता के पक्ष में । हज़ारों को स्वर देता है ...हज़ार हाथ बन कर परे धकेलता है आतताइयों को।
हिम्मत ,साहस ,हौसला और विवेक को साथ लेकर चल पड़ने वाले कवि के कथनी और करनी में अंतर नही है ।
जितनी कठोरता से ललकारते हैं उतनी हो कोमलता से प्रेम कवितायें लिखते है सुरेंद्र ...
कवि की कविताओं में भाव पक्ष  और कलापक्ष दोनों ही प्रबल हैं। वे यहां बिम्ब , प्रतीक और नवीन उपमानों के साथ उपस्थित हैं ।
 सुरेन्द्र रघुवंशी प्रतिरोध और साहस के हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कवि हैं। आम जन और गरीब किसान मजदूर के शोषण के ख़िलाफ़ व्यवस्था को गरियाते हुए वे कोई भी परवाह नहीं करते। साहित्य में जुगाडमेंट की राजनीति से दूर सुरेन्द्र रघुवंशी उम्मीद का एक आभामण्डल हैं। सुरेन्द्र रघुवंशी मूलतः धूमिल , पाश , बाबा नागार्जुन और दुष्यन्त कुमार की परम्परा के क्रांतिकारी जन कवि हैं। उन्हें पढ़ना निश्चित ही सुखद होगा।
जनवादीऔर क्रांतिकारी कवि सुरेंद्र रघुवंशी का तीसरा कविता संग्रह ''पिरामिड में हम '" अपनी पूरी ऊर्जा ,साहस ,और उद्देश्य को  लेकर हमारे सामने है ।कलम में आग भरकर लिखी ये कवितायें जितना झुलसाती है उतना ही अपनी गहरी प्रेम कविताओं से मन को सुकून भी दे जाती हैं । असल मे आग और पानी का संतुलन ही जीवन है ।
 मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने की जद्दोजहद और ज़िद है कवि के मानस में ।हर विषय को समेट कर उनमे प्राणतत्व फूंक कर बुराई के खिलाफ शंखनाद करती है ये कवितायें । आसपास की विसंगतियों का पुरजोर  विरोध और जनमानस के मन के दुख की पड़ताल करती हैं । सच की धरती से उठी ,निर्भय कवितायें शब्द -शब्द से अलख जगाती है।
  कवि की चिंता में  सत्ता , अन्याय ,जंगल ,नदी ,सागर आग ,प्रेम ,लड़की आदि सब हैं ।इसीलिए ये कवितायें समूचे समाज को बदल डालने और हर व्यक्ति के हक़ में अंगद के पांव की तरह खड़ी है ।
प्रतीक ,विम्ब ,भाषा ,भाव ,लय , सम्प्रेषणीयता आदि के ताने बाने से गुंथी ये कवितायें आज के समय के लिए बहुत ज़रूरी हैं । कुछ उदाहरण देखिये ... 

1 .. जब दुनिया से गायब हो रहा है सत्य 
    कवि तुम विश्वास के बाल पकड़ कर 
    सत्य को चेहरे से झिझोड़कर जगा दोगे ।

2..प्राकृतिक सिद्धांत के बहाने ही सही 
   पर विचार करो सरकार !
पेड़ों पर तो खुशियों के फूलों में 
समृद्धि के फल लगते आये हैं हमेशा से 
पर तुम ये कैसा विनाशकारी मौसम ले आये 
कि इन पर लाशें लटकने लगी ...

3..प्रेम की आवारा हवाएं
किसी मौसम की मोहताज़ नही होती 
इच्छाओं की बदलियां बरसकर मिटा देती हैं 
हृदय के संताप को ....

 इस संग्रह में छियत्तर कवितायें है जो अपनी चमकदार उपस्थिति से पाठक को आंदोलित करती है ...राह सुझाती हैं ,सच की वकालत करती हैं और मानवता के पक्ष में निर्भीकता से खड़ी होती हैं । बधाई सुरेंद्र रधुवंशी जी को इस सार्थक लेखन के लिए ।उनके कलम की ताकत बनी रहे ।युगों तक साथ रहे उनका लेखन ।शुभकामनाएं ।

                           मधु सक्सेना
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उपरोक्त कविताओं पर चुनिंदा टिप्पणियां-

नौकरी के व्यस्ततम क्षणों के चलते समूह में सक्रिय नहीं हो पा रहा हूँ। सुरेंद्र की कविताएँ अभी पढ़ पाया। सुरेंद्र और उनकी कविताओं के बारे में कुछ बातें जो दोहराव हो सकती हैं लेकिन फिर भी दोहराना चाहूँगा। सुरेंद्र रघुवंशी से मेरा परिचय काफी पुराना है। लगभग 15 वर्षों पूर्व उन्होंने अपने पहले कविता-संग्रह ज़मीन जितना की पांडुलिपि मुझे पढ़ने को दी थी इस आग्रह के साथ कि मैं इसका फ्लैप लिखूँ। मैंने सुरेंद्र से कहा कि बेहतर होगा कि किसी वरिष्ठ कवि/आलोचक से लिखवाओ। मैं इस योग्य नहीं हूँ। लेकिन सुरेंद्र ने मानो ज़िद पकड़ ली थी कि नहीं लिखेंगे तो आप ही। मैंने आधे मन से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया वह भी इस शर्त के साथ कि यदि मुझे कविताओं में कुछ दिखेगा तो लिख दूँगा। दरअसल सुरेंद्र उस समय लेखन के प्रारंभिक काल में  थे (जो हर कवि का होता है)। उनकी कविताओं को हिंदी साहित्य ने गंभीरता से नहीं लिया था। मैंने भी। छिट-पुट कविताओं से सुरेंद्र का कवि बन नहीं पा रहा था। कई दिनों तक पांडुलिपि यूँ ही पड़ी रही। फिर एक दिन जब मैंने उन्हें पलटना शुरू किया तो कुछ कविताएँ पढ़ कर ठहर  गया। मुझे लगा कि सुरेंद्र हल्के में लिए जाने वाला कवि नहीं है। वे किसी कवि के बनने के दौर की कविताएँ थीं। अपने तमाम काव्याभ्यासों के बावजूद उनमें संवेदनों की महीनता, अपनी ज़मीन से जुड़ाव की व्यग्रता और भाषा का देशजपन था। मैंने तीन बार स्क्रिप्ट पढ़ी और फ्लैप लिखा। खूब मन से लिखा। दरअसल यह इस तथ्य की भी तस्दीक थी कि कुछेक कविताओं से किसी कवि का चित्र साफ नहीं उभरता। जब हम किसी कवि की इकट्ठी कविताएँ एक साथ पढ़ते हैं तभी कवि समझ में आता है। उस पहले संग्रह के लोकार्पण में राजेश जोशी और रामप्रकाश त्रिपाठी अशोकनगर आए थे। राजेश जोशी को फ्लैप इतना पसंद आया कि जोश में कह गए कि मैं अपने अगले संग्रह का फ्लैप निरंजन से लिखवाऊंगा। तो तात्पर्य यह कि सुरेंद्र को पढ़ना मेरे लिए एक प्रीतिकर अनुभव है।  उनके बाद के संग्रहों में कवि का ऊर्ध्वाधर विकास स्पष्टतः परिलक्षित होता है। वे संदर्भों की सीमाओं का अतिक्रमण कर उन्हें नए अर्थों से भर देते हैं। यहाँ मधु जी द्वारा प्रस्तुत कविताओं में भी उनकी राजनीतिक/सामाजिक प्रतिबद्धता साफ देखी जा सकती है। सुरेंद्र की कविताएँ राजनीतिक/आर्थिक दुश्चक्रों के विरोध में उठा एक सार्थक स्वर है। वह मनुष्य के पक्ष में खड़ी कविता है। वे हिटलर के बूटों की आवाज़ से दहलते नहीं बल्कि मनुष्य को उसके खिलाफ एकजुट होने की जिजीविषा से भर देते हैं। आप इन कविताओं के शिल्प, भाषा और संवेदनों में किसी किस्म की सायास प्रविधि या प्रायोजना नहीं पाएँगे। एक साफ नीयत वाले कवि को इस तरह पढ़ना सुकूनदायी है।
               -  निरंजन श्रोत्रिय

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"देश अघोषित शवयात्रा में मौन धारण किए
हुए चल रहा है
पर व्यवस्था के प्रतिक्रिया रजिस्टर में
इसे मातम नहीं बल्कि उत्सव की तरह
दर्ज किया जा रहा है।"

सुरेन्द्र रघुवंशी की कविताएं कवित्व की परवाह किए बगैर रची गई हैं।
इन कविताओं में जो 'अपील' है वह अपना टटकापन इसी कारण अर्जित करती है। वे सत्ता से टकराती हुई सत्ताधारी के कुचक्रों को बेनकाब करती हैं। 
इन कविताओं की जनपक्षधरता पर्देदारी में न रहकर मुखर है, प्रकट है और निर्भ्रांत है।
यह तंद्राकारक कलासर्जना न होकर विचारोत्तेजक शब्द सृजन है।
कबीर का गुस्सा और कबीरी प्रेम दोनों इन रचनाओं में हैं।
पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास।
मुख कस्तूरी महमही, बानी फूटी बास।
       
भारतीय साहित्य में किसानों को लेखन के केन्द्र में लाने वाले पहले कवि को नमन।
उसी परंपरा में सुरेन्द्र रघुवंशी जी को पाकर प्रसन्नता का पारावार नहीं।

ये कबूतर शांति के प्रतीक नहीं, जीवन संघर्ष के रूपक हैं।
इन्हें नैतिक समर्थन देने के लिए सुरेन्द्र रघुवंशी जी इनके बीच में हैं।

- बजरंग बिहारी तिवारी
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सुरेंद्र भाई से मेरा पहला परिचय उनकी कविताओं के रास्ते ही हुआ था , पहली बार एक दूरदर्शन के कार्यक्रम में कुछ साल पहले । मित्रता तो बाद में हुई । उनके जीवन के बारे में जितना जाना , जितनी भी मुलाकातें हुई इस कवि के साथ उतनी  ही निकटता उनकी कविताओं के साथ होती गई । उनके जीवन और सृजन के बीच फांक नहीं दिखती। जैसे ठेठ और  अपनी धरती से जुड़े मनुष्य हैं वे ठीक यही देसीपन और ठेठ अंदाज उनकी कविता में दीखता है । कविता उनके लिए इस चित्र में दिख रही तोप की तरह ही लगती है , यह ज़ुनून हो सकता है पर उनके लिए यही सच है और हमे उनकी इस मासूमियत पर फक्र है और प्यार भी । जैसे दिखो वैसा लिखो , यही उनकी कविता का उत्स है । वे आम मनुष्यता की कविता रचते हैं। उनका रचना संसार धूल धूसरित समय के खिलाफ एक चेतवानी है , अलख भी । वे कलावादी लटको झटकों की ज्यादा परवाह नहीं करते । विचार उनकी कविता की रगों में रक्त बनकर दौड़ता है । अपने समय का हाहाकार , विवशता , आक्रोश सब एक साथ एक राग के रूप में हमारे सामने अभिव्यक्त होता है। अपने निजी जीवन में वे जिस तरह अपनी बस्ती और परिवेश के साथ जुड़े हैं - छात्रों का आंदोलन ही , शिक्षक साथियों की रैली हो , किसानों का आंदोलन हो , वे हर जगह मौजूद रहते हैं , अपनी सक्रियता के साथ । यहीं से वे अपनी कविता के लिए प्राण वायु लेते हैं । कवि को शुभकामनाएं , बस यूँ ही रचते रहो 👍💐

-मणि मोहन मेहता 
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गुफा समय में सुरेंद्र रघुवंशी की कविताएँ
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प्रत्येक कवि सत्ता पर अपनी नज़र रख रहा है। जो नज़र नहीं रखते सत्ता या व्यववस्था पर और लिखे जा रहे हैं उनकी काव्य चेतना पर हमें विचार करना होगा। जो सत्ता-व्यवस्था के व्यवहार के लिए कसीदे काढ़ रहे हैं उनपर विचार नहीं करना होगा। जो मौन हैं और सतत मौन हैं उनका मौन प्रायोजित है। इस प्रायोजित मौन की भयावहता भविष्य में परिलक्षित होनी है। ऐसे मौनियों को प्रणाम।
ये कविताएँ व्यवस्था के प्रति आलोचकीय दृष्टि रखती हैं अतः इनके मुखर होने में ही इनका अभीष्ठ है। 
कई कारणों से खेत, किसान, खेती-किसानी, किसानी सभ्यता आदि ने मुझे अचानक अपनी तरफ खींचा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस देश में किसानों के साथ क्या हो रहा है! हम होश सम्भालने के बाद ही रटने लगते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश हैं। देश की अर्थव्यवस्था का ८०% कृषि से आता है। सच्चाई कुछ और है। जहाँ की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है उसका कॉर्डिनेट प्रति दिन फांसी लगा है। यही व्यवस्था आत्महत्या को मृत्यु का कोई दूसरा कारण सिद्ध कर दे रही है।
जिस देश के किसानों को रीढ़ मानना चाहिए उसे गोली मार दी जा रही है। उसकी पगड़ी उछली जा रही है। उसका आधार छीन लिया जा रहा है। जो किसान आत्महत्या नहीं कर रहे, आंदोलन कर रहे हैं उन्हें गोली मार दी जा रही है। कई राज्यों से आंदोलनों को नेगोशिएट किया जा रहा है। व्यवस्था हर हाल में किसानों के विरुद्ध नीतियां बना रही हैं। 
समूह के कितने साथी कपास-गन्ना उगाने वाले किसानों से जुड़े हैं। जबकि सूती/खादी सबों को चाहिए। चीनी के विरुद्ध गुड़ को हर कोई स्टेबलिश करने पर आमादा हैं।
विगत किसान-हत्याकांड के दिन, मैं सृजनपक्ष में बाद में जुड़ा, देर शाम मैंने व्हाट्सप ग्रुप्स के कई एडमिन को (जो मेरी विचारधारा से नहीं जुड़े हैं उनसे भी) आग्रह किया कि इस कुकृत्य के विरोध में अपने अपने समूह में संवाद कराएं। कुछ ने साफ मना कर दिया कि हमारा समूह साहित्य का है और यह मामला पोलिटिकल है। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि भाई क्यों लिखते हो, कागज़ क्यों बर्बाद कर रहे हो? लोगों की नज़रों में आने के सैकड़ों तरीक़े हैं, कुछ और करो पर यदि लेखन की तमीज़ न हो तो मत लिखो। 
इसी देश में एक फ़्रॉड हमसे-आपसे एक छोटा सा (बीमार होने का) बहाना बना कर लाखों रुपए उगाह ले रहा है और उसके साथ खड़े लोग तर्क देते हैं कि किस बात की कर्ज़ माफी, एक बैंकर भी जब कर्ज़ नहीं चुका पाता तो बैंक उससे पैसे उगाह लेती है। किसानों के खिलाफ ऐसे तर्कमारों के मुंह पर थूक देने का मन करता है। ये सभी फ़्रॉड हैं, जिन्हें चिह्नित कर साहित्य को एक हद तक गंदा होने से बचाएँ। मैं एक ही बात जानता हूँ, देश उसका जो खेत मे पसीने निचोड़े। जो किसी भी प्रकार से ज़मीन से नहीं जुड़ा उसे लिखने का हक़ नहीं है। 
सुरेंद्र रघुवंशी की कविताओं में वह ताप है जो यथास्थिति को पिघला दे। कविताओं में नाद है पंक्तियाँ देखें –

हड्डियों का पुल है जिस पर चल रहे हैं
सरकारों के सत्ता का रथ टप टप टप टप
यह जो शोर सुनाई दे रहा है चारों ओर
जन जन का हाहाकार है
अनसुना ही रह गया अंतर्नाद है अपने बचाव में

यह नाद किसानों के पक्ष में है अतः इस नाद में एक आवाज़ मेरी भी है। मैं हर उस व्यक्ति के साथ खड़ा हूँ जो खेतों के लिए, फसल के लिए, पेंड के लिए, जंगल के लिए, घास के लिए स्टैंड लेता है। मैं लिखने वाले प्रत्येक लेखक कवि के साथ हूँ जो ग्रास रुट पर लिखते हैं। इसीलिए मैं सुरेंद्र रघुवंशी के साथ खड़ा हूँ। काश के किसान हत्याकांड के दिन मैं सृजनपक्ष में होता, निश्चित ही  किसानों के पक्ष में व्यवस्था के प्रति आलोचकीय होते हुए हम समवेत स्वर में अपनी बात कहते।
समस्या यह है कि यह समय की व्यवस्था हंसोड़ है। रंग बदलने में माहिर। यह समय सिर्फ और सिर्फ उनका है जो व्यवहारिक रूप से पैरासाइट हैं। जिंदा वही रहेंगे जिन्हें संबंधों को चूस कर फेंक देने में सिद्धि प्राप्त हो। हम और आप इस गुफा समय में मिसफिट लोग हैं। मिसफिट लोग भविष्यदर्शी होते हैं। भविष्यदर्शी की कही को जब कोई कान देता है तब बड़ी असहजता होती है। कवि जब प्रायोजित शांति में कंकड़ मारेगा तो जिनने तथाकथिक शांति क्रिएट किया है वे बेचैन होंगे और आपको तड़ीपार करा देंगे (मानसिक ही सही)। गुफा समय का विस्तार इतना हुआ है कि वैज्ञानिक सिद्यांतो के खिलाफ आपके लिए ज़हर का प्याला तैयार है।
इस संक्रमित समय में जबकि कुछ भी अपने मूल स्वभाव में नहीं है, जब एक बड़े रद्दोबदल की ज़रूरत है, जब हर चीज़ पुनर्परिभाषित करने की मांग करती है चाहे संबंध हो या वस्तु; सुरेंद्र रघुवंशी की कविताएँ अनिवार्य कविताएँ हैं। 
शांडिल्य सौरभ
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सुरेन्द्र रघुवंशी समसामयिक विषयों पर गहरी दृष्टि रखने वाले कवि हैं खासकर जन जमीन से जुड़े विषय उन्हें उद्वेलित करते है
 उनकी कविताओं में आक्रोश है व्यवस्था और निज़ाम के ख़िलाफ़ इंकलाब है जो सोए हुए लोगों को जागते रहो कहकर होशियार करता रहता है ।
 आज़ आमजन की खासकर हमारे अन्नदाता किसान की वक़्त दर वक़्त मुसलसल बढ़ती जा रही मुश्किलों और तानाशाही टाइप निज़ाम 

की नीतियों पर उनकी पैनी नज़र है -देखें उनकी मारक पंक्तियां ,
हमारे सिर से उतार ली गई है पगड़ी /और पैरों से जूते निकाल लिए गए हैं ।
हमारे तलवों का सीधे कांटों से मुकाबला है ,,,,,।
इस तरह वे प्रहार करने में सफल हैं।
हड्डियों का पुल है जिस पर चल रहे हैं /सरकारों के सत्ता रथ टप टप टप टप /यह जो शोर सुनाई दे रहा है चारों ओर /जन जन का हाहाकार है ,,,,,।
  एक और रचना में उनका आक्रोश -मैं इस अंधेरे समय में/उम्मीदों का एक दीपक ढूंढ रहा हूं /यहां घिसट रही है उदास ज़िंदगी ,,,,।
आज़ की ज्वलंत समस्या किसान, कर्ज़ ,फांसी ,मंडी में लूट बढ़ती मंहगाई हम सब इससे दो चार हैं।
देश अघोशित शवयात्रा में मौन धारण किए हुए चल रहा है ,,l 
 दो रचनाएं प्रेम पर कवि की कोमल भावनाएं दर्शाती हैं तो सच बयानी और उजागर करने की नीति पर एक अजाना भय भी उसे परेशान करता है ।
 इस जंगलराज में इंसानियत नामक युवती /अपनी लाज बचाने के लिए /भटकती फिर रही है /और उसके पीछे पड़े हैं खूंखार बलात्कारी ,,,,।
 कुल जमा सुरेन्द्र की रचनाओं में सोच का एक वृहद दायरा है । उनकी भाषा सरल संप्रेषणीय है शब्दों में आक्रोश है जो मौन तोड़ने का आव्हान करते हैं । 


          - मुस्तफ़ा खान साहिल
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भाई सुरेन्द्र रघुवंशी की कविताएँ हमारे बुरे समय और हमारे समय के बुरे लोगों पर दूर तक जाकर चोट करने में सक्षम हैं।
            -  शहंशाह आलम
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सुरेन्द्र को हम ऐसा कवि कह सकते है जो खेत की मेड से लेकर संसद भवन के सामने खड़ा होंकर एक ही शिद्दत , हक और जूनून से कविता लिख सकते है। समाज  के आखिरी आदमी की कविता जो किसान से लेकर अध्यापक तक सब हो सकता है।
                -राजनारायण बोहरे
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सुरेंद्र जी की कविता सत्ताधारियों के ख़िलाफ़  निडरता के साथ बुलंद स्वर में अपनी बात कहती हैं। 
 चाहे किसानों पर हुए अत्याचार हों या आज़ादी की उड़ान का आह्वान हो या सत्ता की छुपी कुटिलता से भरी चाल हो ।  सभी का विरोध सुरेंद्र जी की कविताएं अपनी आक्रामक  शैली में  दबंगता से अपनी बात कहती हैं। आज ऐसी ही कविताओं की जन-जन को जरूरत है।
बधाई सुरेंद्र जी।
           - अर्चना मिश्रा
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बहुत बढ़िया कविताएँ हैं आज के परिवेश में प्रसंगिक सशक्त और सार्थक सुरेन्द्र जी निडरता से सत्ता के ख़िलाफ़ लिखते हैं । समाजिक सरोकार  की इन कविताओं की धार बहुत पैनी है । शुभकामनाएँ इसी तरह लिखते रहिए । 💐

-  शाहनाज इमरानी
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"इस जंगल राज में इन्सानियत खूंखार भेड़ियों   से अपनी जान बचाने  के लिए  भटक रही है।"बहुत  अच्छी  रचनाएँ  भाई  रघुवंशी  जी।  रचनाओं की स्थिति पर कुछ काम करें

      - रामकिशोर मेहता
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सुरेन्द्र रघुवंशी जी की कविताओं के स्वर  स्पष्ट हैं। वे जनपक्ष में जूझते ' सच के शब्द शिल्पी' हैं।
      
- हिमांशु शेखर झा
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: कविता जीवन का की रवानी के साथ साथ जीवन की सचाइयों को भी वया करती है इसमें कवि की ज़िदा दिली और खूबसूरती के साथ सच को देखने की आखे भी दी ब: सुरेन्द्र जी की कविताओं में एक रवानगी है बेवाकी है और समाज के सारोकरो की गहराई से अभिव्यक्ति।
             -अंजना बक्शी
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कवि मन 
कविता मेरे लिए जीवन, मिशन और आन्दोलन है।जिन्दगी और कविता मेरे लिए दो अलग स्थिति नहीं हैं। मुझे कविता व्यंजनाओं से खेलते हुए कोई चमत्कारपूर्ण, कलात्मक और सायास  काव्य शब्दावली या प्रविधि नहीं है। बल्कि जीवन की यथार्थपरक  धरती पर संघर्ष की सवेग बहती नदी और अपने साथ हुए छल के खिलाफ़ उसका विद्रोह और प्रतिकार ही मेरी कविता है। न यहां चट्टानों की परवाह है और न ही पर्वतों सहित खाइयों की।जिस कृषक समाज में मैंने जन्म लिया है उसका व्यवस्था द्वारा निरन्तर चीर हरण , मर्दन , शोषण और यहां तक कि हत्या झकझोरकर रख देते हैं। उसके हक़ की आवाज को बुलन्द करना  और प्रतिकार में साहस का हथियार उसके हाथ में देना यही मेरी आजीवन कविता है और उसका ध्येय भी जो जन का प्राण है वही प्राण मेरी कविता का भी है और मेरा भी।  

                                   -   सुरेन्द्र रघुवंशी
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4 comments:

  1. मेरे काव्य पर इतना महत्वपूर्ण और समग्र अंक 'रचना प्रवेश में देने के लिए मैं सम्पादक प्रवेश सोनी का हृदय से आभारी हूँ।यह प्रेम और प्रोत्साहन अपार ऊर्जा देता है जो महत्वपूर्ण भी है।

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  2. अद्भुत रचना, शानदार जबरदस्त जिंदाबाद

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