Friday, December 17, 2021

कँचन जायसवाल कवितायें

डा कंचन जायसवाल की कवितायेँ प्रस्तुत है आपके अपने ब्लॉग "रचना प्रवेश " में 









  स्त्रियां और सपने 

 औरतें , एक घेरे को उलांघते 
दूसरे घेरे में सहजता से कैद हो जाती हैं. 
 बचपन में लंगड़ी का खेल खेलते,
 रेखाओं के घेरे को फांदते
 जरा सी लापरवाही में जरता होते ही हार जाती हैं .
 खुली आंखों से दुनियावी सपने देखते युवतियां नकारतीसारी रेखाएं,घेरे,पैमाने 
ज्यादा देर तक खुले आसमान में उड़ने की इच्छा लिए 
, और ऊंची उड़ान के घेरे में बिंध जाती, हलाक हो जाती हैं.
 नकारती सारी पुरानी तजवीजें.
 खोलती नए तालों को नए तालों में कैद हो जाती हैं.
 आसान नहीं है आजादी को चबाना.
 अदृश्य नदी जैसी होती है परंपराओं की धार
 एक के या दस-बीस के या एक गांव, 
अमूमन चार पांच शहरों के नकारने पर भी लुप्त नहीं होती.
 बहती रहती है अनवरत, 
रेत में छिपी नदी की तरह 
धीरे-धीरे ;डेसपसीतो. दुख लंबे समय तक बांधता है घेरे को
 सुख की चाह तोड़ देती है अनचाहे वृत्त. 
अनचीन्हे समय में घुसना साहस का काम है,
 जैसे आजादी को जीना 
.सपनों का रंग सफेद कागज की तरह है.
 तमाम रंगीन घेरे सपनों को बांधते हैं. 
घेरे उलांघना सपनों में रंग भरने जैसा है|







 शाम होते ही 

 शाम होते ही
 आसमान प्रेमी की तरह थोड़ा नीचे झुकाता है,
 मानो . 
शाम होते ही नन्ही मुस्लिम लड़कियां
 पीछे की गली से निकल घूमने चली आती है अहाते तक,
 सिर पर स्कार्फ लपेटे गली में बतियाती हैं वह कुछ छोटे हिंदू लड़कों से. 
 बड़ी लड़कियां उनके दुपट्टे को सही करती हैं .
 अहाते में लड़के जोर-शोर से क्रिकेट खेलते हैं.
 शाम होते ही पेड़ झूमने लगते हैं.
 माएं अपने बच्चों को टहलाने के लिए घरों से बाहर निकल आती हैं 
. युवा होती लड़कियां साइकिल पर हंसते -खिलखिलाते गुजरने लगतीहैं.
 छतों पर झांकते हैं चेहरे.
 शाम होते ही मजदूर दिन भर काम करने के बाद अपना सामान समेट में लगते हैं
 कुछ हाथ मुंह धोने के बाद अपनी मोबाइल चेक करके
, साइकिलें सीधी कर अपने घरों की ओर निकल जाते हैं .
 शाम के बहाने से रात नींद का गीत गुनगुनाने लगती है .
 शाम होते ही मन की गुलाबी आभा ओर- छोर तक पसर जाती है.|








 नि: शब्द

 मेरे पास कुछ भी नहीं है
 बस कुछ नुचे हुए शब्द हैं
 जिन से रिसता रहता है खून
 और पपड़ी की तरह जम जाता है
 रिश्तों पर. शब्द दर शब्द खालीपन है
. और मैं नि:शब्द 








यह बीच की स्थिति है

यह बीच की स्थिति है,
लगभग आधी से थोड़ी पहले; या थोड़ी से ज्यादा भी हो सकती है ।
एक ही ढर्रे से सूरज के उगने और डूबने
और दिन का कैलेंडर में बदल जाने से
आदी हो जाने पर
हम छूट जाने के प्रति उदासीन हो जाते हैं ;
छूट जाना फिर रीत जाना है और यह रीतना ही लोग जीवन बताते हों ;
फिर आगे का दोराहा सीधा सपाट लगता है,
लगभग चिन्हित सा।

डर कभी नहीं जाता है,
बस आकार बदलता रहता है 45 की उम्र में भी सुबह की अलसाई शुरुआत में ,
रात का प्रेमी भी अचानक से कंधे के पीछे से डरा सकता है।
डर हर सांस के साथ पलता है 
तुम कागज की कश्ती बना लेते तो अच्छा था।

तुम घड़ियों के व्यापारी बन जाते,
नंगे पैर रेत पर दौड़ते,
बालू के घर बनाते ,
दोनों बाहें फैलाए दौड़कर लहरों को गले लगाते ,
तुम किसी छोटे बच्चे को देर तक कहानियां सुनाते ,
तुम किसी हुनर के पुजारी होते।

बचे हुए आधे के सूख जाने से पहले ही तुम करवट बदल लेते 
सोने और जागने के बीच में कई सुबहें अपनी राह देखती हैं|







मेरी अनुपस्थिति के बीच में

(1)
उसकी नींद में मैं कहीं नहीं;
मेरे स्वप्न में है बेचैन समुद्र
उफनता हुआ,
अंधेरा,
आसमान से गिरती हुई नौकाएं
और उन्हें बचाने में लगे हुए कुशल कप्तान।

(2)
 दुनिया की सभी नौकाएँ
समुन्दर की छाती को चीरती हुई
विजय पताकाएं फहराने को आतुर


(3)
 स्वप्न से जागती है स्त्री।
रात के तीन बजे हैं।
बगल में सोया आदमी
बुदबुदाता है कुछ
अस्पष्ट सी भाषा में,
अपनी यात्राओं के दर्द,
और वह पुकारता है इक नाम.....


(4)
 स्त्री के भीतर प्रेम जागता है।
वह उसका माथा सहलाते हुए
उसकी थकान अपनी पोरों मे
भर लेती है।
रात धीरे धीरे अंगडाई लेती है।








बूंद भर यादें


जैसे धुंध मे से निकली हो कोई आवाज
खो चुकी धुन की तरह
बरसों बाद।
जैसे बंजारन ने छेड़ी हो विरह की तान,
जिहाले मिस्कीन मकुन बा रंजिश
बहाल ए हिजरा बेचारा दिल है.....
पांव पसार रही है झनझनाहट मेरे भीतर।

जैसे फागुन के महीने की धूप हो ,अलसाई
फगुनहट की साँय साँय हो।
और खिलखिलाती सखियों के घेरे
मे से भागती,
हवा में उठाए रँगी हथेली से बचने को
दौडती, कूदती, फांदती
छलांगती सारी धरती को।

बेचैनी से भरे किसी और शहर में
किसी दूसरे समय में।
स्मृतियों के बोझ तले दबी कोई याद
अचानक से उगती और बुझ जाती।
सूखी, पपड़ाई धरती पर गिरती
जैसे पहली बारिश की नन्हीं बूंद।









बोधि वृक्ष

जब मैंने स्त्री को जाना
जैसे छू कर मिट्टी को जाना,
जैसे छू कर जल को जाना,
जैसे छू कर अग्नि को जाना,
स्त्री - तुम हो बोधि वृक्ष।

सिद्धार्थ ने भी तुम्हारी परिक्रमा की होगी,
अपनी कामनाओं के धागे बांधे होंगे,
और तुमने उसे ज्ञान का दर्पण दिखलाया होगा।

जब मैं नीद भर जगा और सुख भर सोया,
तभी मै खुद को समझ पाया।

और ओ स्त्री!
यह तुमसे ही संभव हुआ,
कि मैं नीद भर जगा और सुख भर सोया।

ओ स्त्री!
तुम्ही तथागत हो।






परिचय 
कंचन लता जायसवाल

प्रधानाध्यापक प्राइमरी शिक्षा मे.

विभिन्न पत्रिकाओं में कविता एंव कहानियां प्रकाशित. यथा,- कथाक्रम, रेवान्त,स्वतंत्रता पत्रिका  ।
राजनीति शास्त्र में ph.d.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका विषय पर.









 

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