Sunday, November 13, 2016

नदियों में बहता जल महज जल  नहीं एक संस्कृति है ,सदियों  की कहानियों  का साक्ष्य है ,निर्मल जल  के तरल में भी एक तरल भाव है जिसे महसूस कर उपन्यास जूण जातरा का सृजन किया कवि ,कथाकार ,उपन्यासकार ,व्यंगकार ,आलोचक ,समीक्षक ,अनुवादक श्री अतुल कनक ने |२०१२ में इस उपन्यास के लिए अतुल कनक जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया |

राजस्थानी भाषा से हिंदी में अनुवाद कर रचना प्रवेश पर प्रस्तुत किये ,उपन्यास के कुछ अंश प्रवेश सोनी ने 


नदी से पूछ कर देखो

नदी से पूछ कर देखो
करती है
घाट से आपस में
बहुत दिनों से ऐसी बातें
नदी
किया करती है इन दिनों
जाने कैसी –कैसी बातें
नदी के मन में क्या है ,
कैसी है उसकी पीड़ा
किसी दिन डूब कर देखो ...

प्यासा न रहे कोय
ऐसा वचन धारण किये हुए थी
कैसा लगता है
जब वचन टूटता है
यह जानने के लिए
नदी की तरह सूख कर देखों|


अतुल कनक 
जन्म 16फरवरी
कोटा ,राजस्थान 
शिक्षा- एम ए (हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास)
नौ पुस्तकें प्रकाशित
हिन्दी, अंग्रेजी, राजस्थानी में लेखन
13 साल की उम्र से कविसम्मेलनों में सक्रिय
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान और वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय के राजस्थानी पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल
साहित्य अकादमी सहित देश के कुछ पुरस्कार/ सम्मान


जूण जातरा


अपने पिता की अस्थि विसर्जन करते  समय नदियों से अपने मन को बांधकर लेखक ने उनके जीवन को अपने भीतर समेट लिया | जैसे नदी उनके  भीतर बह रही हो, जैसे कल कल करती लहरों के मीठे संगीत के साथ नदी के भीतर आर्तनाद करता दर्द बह रहा हो |नदियों का जल सदियों से धरा पर प्रहावित है उस प्रवाह में सभ्यता की जननी बन बह रही नदियां ,इतिहास की स्मृतियों को समेटे हुए |जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी कल कल करती लहरों  से ,मन में हिलोरे लेती नदियां सूख कर अब बेरंग उदास बेवा सी हो गई है | मानव सभ्यता और विकास की कहानी कहती यह नदिया मनुष्य और उसके आचरण का बखान करे तो  किससे ?उसके आसुओंकी नमी से अपने ह्रदय को भिगो कर लेखक ने लिखा  उपन्यास “जूण –जातरा “ |
यह उपन्यास राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ है और इस की विशेष बात यह है की यह सम्पूर्ण उपन्यास नदी के कथ्य में है |चम्बल नदी अपने कथन में देश विदेश की समस्त नदियों ,उनसे जुडी संस्कृति और कथा –कहानियों से जुड़े उनके सुख –दुःख  का बखान  करती है |

चंबल नदी की पीड़ा उसके ही शब्दों में

मैं चंबल हूं वहीं चंबल हूँ,चर्मण्यवती  जो विंध्याचल के आँगन से निकलकर यमुना जी में स्वयं को समर्पित कर देती हूँ।
लोग मुझे सदासलिला भी कहते हैं याने वह नदी जिसमें हमेशा पानी का प्रवाह बना रहे।लेकिन लोग कुछ भी कहें....पर मैं इसे समर्पण का ही प्रताप मानती हूं|
आप अपनी खुशी दूसरों के सुख में समा कर देखो आपके  अस्तित्व के अंश अंश पर ऐसा अमृत समा जाएगा  कि काल कितना भी विकराल हो जाए ,आपकी कीर्ति को छू भी नहीं सकता |आज आप सोच रहे होंगे कि बहती नदी को आज बात करने की फुर्सत कैसे मिल गई |नदी की नियति तो निरंतर बहना ही है| ठहरने का नाम तो मौत है जिंदगी प्यारी है तो लगातार भागते रहो |महानगर और इंसानों की तरह ,जिनको दम लेने की भी फुर्सत नहीं |लेकिन नदी और महानगर के लोगों की भागमभाग में बहुत फर्क है |नदी अपने भीतर का  नेह बांटने को बहती है ,और इंसान ज्यादा से ज्यादा पाने  के लिए भागता है |महानगर में भागते  इंसान को न अपने लिए समय है न  अपनों के लिए |पर नदियां तो अनजानों से भी खुलकर मिलती है |

नदी यदि अपना पराए का भेद करती तो उसके  स्पर्श मात्र से पाप मिटने की ताकत उसे नहीं मिलती |लेकिन पाप मिटाने की सामर्थ ही नदियों के लिए बहुत बड़ा श्राप बन गई |सरस्वती  नदी को शायद इसका भान हो गया था कि कलयुग में मनुष्य नदियों से ऐसा बुरा बर्ताव करेगा ,इसलिए ऐसी लुप्त हुई थी अपनी कोई निशानी भी पृथ्वी पर नहीं छोड़ी| वह सरस्वती थी उसे ही यह ज्ञान नहीं ,होता तो और किसे होता |
अन्य  नदियां ऐसी बड़भागी नहीं हो सकी |जब तक रही तब तक वेद मंत्रों की रचना की महत्ता बताती रही और जब दुनिया की नियत पर पाप की पणी चढ़ने लगी तो अपने को धरती के गर्भ में समा लिया |

नदिया अपने जल के साथ संस्कारों की घुट्टी भी देती है |सभ्यता  की जननी बन जाती है |चाहे इस राह पर उम्हे कितने ही कष्ट उठाने पडे |गंगापुत्र भीष्म वचनबद्ध होकर ताउम्र दुख दुविधाओं को झेलते रहे लेकिन वचन से कभी डिगे नहीं |यह गंगा मां के ही संस्कार थे उनमें |हालाँकि वो भी  कौनसी सुख से रही |आज कलयुग में गंगा ही ऐसे ऐसे मनुष्यों के पाप धोने के लिए बह रही है जिन पापों को यमराज भी अपने लेखों से नहीं मिटा सकता |

दहेज के लिए बहू को जला देना ,पराई बहन बेटियों की इज्जत का हरण करने में ज़रा भी न हिचकना , सत्ता में बने रहने के लिए मानवता को नीलाम कर देना ,धर्म की आड़ में भोले भाले नर-नारियों के विश्वास भरोसे से खेलना.. ऐसे पापों की गंदगी को कौन धो सकता है |जमाने के पाप धोने की धुन में गंगा मैली होती गई और सब ने उसकी इस दशा से आंखें मूंद ली |

यह कैसा रंग है जमाने पर मुझे गंगा मां की चिंता हो रही है| कावड  में माता पिता को यात्रा कराने वाले श्रवण कुमार और पिता के वचन की लाज  रखने की खातिर दर दर भटकने वाले राम की भूमि पर आज गंगा मां का किसी संतान को खयाल नहीं| पत्थर पत्थर पूज कर औलाद पाने वाले मां-बाप को आज औलादों से तिरस्कृत होना पड़ रहा है |तो  गंगा मां की कौन सुध ले |

नदियां तो सारे संसार को एक समान समझती है लेकिन मनुष्य ही मनुष्य होते हुए भी मनुष्य -मनुष्य में भेद करता आया है |जाति ,धर्म ,भाषा, प्रांत ,वर्ण  और देश में सब को बांट दिया| जल तो मनुष्य के जीवन का मोरमुकुट है.... ,आन है ..कोई कैसे अपनी ही आन पर पाँव रख उसे रोंध सकता है |लेकिन लगता है इस युग में सब अंधे हो गए है ,उन्हें अपने स्वार्थ के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं देता |आज यदि मनुष्य की आँख का पानी नहीं मरा होता तो ,नदियों के पानी के साथ ऐसा बुरा बर्ताव नहीं करता की उनकी आने वाली नस्लों के लिए पीने का शुद्ध पानी भी न बच सकें |

 एक दूसरे से बड़ा होने के जुनून की  कुभावना श्रेष्ठ नहीं बनाती है |बड़ा होने के लिए तो बड़प्पन होना जरूरी है सरल होना जरूरी है| पांडवों के राजसूय यज्ञ में विष्णु अवतारी कहे जाने वाले कृष्ण ने सभी मेहमानों केपाँव  धोने  की जिम्मेदारी ली ,जिसके चरणों की धूल से सारे पाप मिट जाते हैं वह अवतारी दूसरों के पाँव धुलाता है  ,यह कृष्ण की महानता और बड़प्पन था |

प्रेम की बात सब करते हैं लेकिन प्रेम की गहराई को कोई नहीं समझता |नदी के सुख-दुख की गहराई को समझने के लिए नदी की धारा के साथ बहना होता है| समय अपने  निशान बहती धारा पर छोड़ देता है |जिन्हें नदियाँ अपने गर्भ में समां लेती है | युगों में करवट लेते समय की काल कलवित होती कहानियों की साक्षी बनी नदियां अनवरत बह रही है |हिमालय के उतुंग से समुद्रतल में समा जाने की यात्रा में समेट रही है |

 हम नदियों ने मनुष्य के साथ रिश्ते को दुखी होकर भी निभाया |उसके कई कुकर्मों ने आंखों के आंसुओं को सुखा दिया |नर्मदा के आस-पास के गांव में आज भी ये रिवाज है कि बेटी के जन्म होने पर उसे मां बाप नर्मदा में बहा देते हैं| स्त्री और नदी की जीवन यात्रा एक समान होती है| हाड मॉस की मनुष्य योनि में भी स्त्री को सांस लेने की इजाजत नहीं दी |नन्हे से जीव को कोई कैसे पानी में डाल सकता है |मनुष्य तो निपट पत्थर ही हो गया है|जिस  नर्मदा के स्पर्श से पत्थर तक शिव  हो जाते हैं और यह मनुष्य पत्थर बना ऐसे पत्थरदिल सरीके कर्म करता रहा  |ओकारेश्वर में कंकर कंकर में शिव दिखाई देते हैं |मैंने कई बार नर्मदा जी का रोना सुना |मनुष्य के ऐसे कर्मों को देख कर हम नदियां रोये नहीं तो क्या करें| ऊपर से पाखंड देखो.हाथ जोड़कर कहते हैं .नर्बदा जी बच्ची को आप के सहारे छोड़ कर रहे हैं .आप पाल सको तो पाल लेना|

आग ,पानी, हवा, आकाश ,धरती पंचतत्व से बने शरीर को नदियों के वश में नहीं हो सकता पालना |पानी का स्वभाव तो पानी हो जाना है|रिवाजों और गरीबी के वशीभूत इन मूर्खों की बात तो समझ आती है, लेकिन सर्व सम्रद्ध परिवारों में जन्म से पहले की कोख में लड़कियों की हत्या कर देना किस प्रकार की तरक्की का बयान है |कैसा विकास है |यह लोग नहीं जानते मां के गर्भ में पलते जीव की हत्या से हम नदियों के शरीर के खून में से हीमोग्लोबिन का एक हिस्सा खत्म हो जाता है (लेखक की कल्पना का आधार )लोग यदि इस तरह लड़कियों को गर्भ में ही मारते रहेंगे तो हम सभी नदियों भी खून में लोहे की कमी से मर जाएगी |

हुबली से लेकर ह्वांग हो ही तक श्राप की इतनी कहानियां बिखरी पड़ी है की गिनती बीत जाएगी पर आंखों से बहने वाले आंसू नहीं बीतेंगे इन दर्द भरी कहानियों की वजह से |चीन की पीली नदी के उत्तर इलाके में मिनघुन प्रथा में जिंदा लड़की बहाने से भी खतरनाक रीत है |यह भी चीन के इस दौर में शुरू हुई थी जिस दौर को चीन के इतिहास का जोहाग युग कहा जाता है | उस समय यह चलन था कि कोई युवा पुरुष की मृत्यु बिना शादी के हो जाए तो उसी की हमउम्र लड़की को उसके साथ दफना देते थे |ताकि उस युवक को  अगले जन्म में सब सुख प्राप्त हो| मनुष्य की ऐसी करतूतों के डर से कौन  न पीला पड़ जाए| पीली नदी यों ही पीली नहीं पड़ी।

स्त्री जीवन सदैव संघर्षरत ही रहा |आम्रपाली की मुक्ति तथागत की वजह से हो गई वरना उसे नगरवधू बना दिया था | राजा भर्तहरी की कहानी यहाँ उलट है |यहाँ स्त्री ने ही धोखा दिया ,राजा भर्तहरी ने  अपनी किताब में लिखा है ....भगवती मानी जाने वाली गंगा स्वर्ग से उतरी तो शिवजी के माथे पर ,वहाँ से हिमालय पर और प्रथ्वी पर से होती हुई समुद्र में गिरी| एक बार गिरना शुरू हुआ तो गिरती ही चली गई |यह बात स्त्री पर भी चरितार्थ होती है|

विदेशी जमीन पर भी नदियों के दर्द कम नहीं है |इंग्लेंड में एक जगह है ‘डेवोम’ |उसके पास बिकलेघ  का किला है चौदहवीं सदी की बात है |बिकलेघ के किले पर कब्ज़ा करने की सोच ने सर अलेक्जेन्डर क्रोस ने केयोर घराने के बहुत लोगों को मौत के घाट उतार दिया |इनमे एक एक युवा की गर्दन उतार कर उसके शारीर को पास में बहती नदी में जिस जगह फेंका ,उस जगह आज भी २४ जून के दिन वो नदी लाल हो जाती है |इतनी सदियों पहले फेंके गए शारीर से आज भी नदी में रक्त बह रहा है |ऐसे अत्याचारों से नदी आज भी खून के आंसू बहा रही है |


और भी कई कहानियां जो बह रही है पूरी पृथ्वी पर नदियों की धाराओ के साथ ,जिन्हें इस उपन्यास में सहेजा है श्री अतुल कनक ने |


 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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