Tuesday, January 31, 2017

 बसंत पंचमी यह ऋतु अपने साथ कई परिवर्तन लेकर आती हैI कभी सुखकर दरकती धरती, तो कभी उसे रिमझिम फुहारों से भिगोकर मनाने कि चेस्टा करते देख, कभी शरद कि कुनकुनी धुप तो घने कोहरे मैं किसी उदास मन सी उलझी उलझी यह धरतीI मानो जैसे जो कुछ भी इंसान के मन में चल रहा है, यही प्रकृति में भी प्रतिबिंबित हो रहा हैI
शिशिर की विदाई और बसंत का आगमन ..जैसे सूरज ने रजाई से झाँक कर देखा स्रष्टि को और चारो और प्रकृति स्वागतातुर हो गई सूरज की बसंती रश्मियों के लिए ... ,चटक कर खिल गई हर कलि ..भ्रमर ने प्रीत गीत गुंजाये और धरती ने ओढ़ ली धानी चुनर ....सब ने एक स्वर में कहा लो आगया बसंत मेहमां बन ...मन को कर तरंगित हरषाया पलाश तो कोयल की कूक से बौराया आम ...सरसों  की आभा इठलाई पवन झकोरों से .... तो परदेसी कन्त की राह में प्रिय ने अपनी नज़र बिछाई |
बसंत पंचमी पर साहित्य शिरोमणि श्री सूर्यकांत त्रिपाटी निराला जी  का जन्मोत्सव मनाया जाता है और माँ सरस्वती का पूजन का दिवस भी| शायद ही कोई ऐसा कवि  रहा हो जिसने  अपनी कलम से बसंत पर साहित्य सृजन न किया हो |सबने अपने अपने मन से बसंत को देखा और उन भावों को शब्दों से सजाया |निराला जी  ,पद्माकर,धूमिल , त्रिलोचन केदारनाथ सिंह ,मंगलेश डबराल  और समकालीन कवियों  की रचनाओं के साथ आज रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है साहित्य की बात समूह के  रचनाकारों की भिन्न भिन्न भावों को संजोई हुई रचनाएं |
 कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
          क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है.
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में 
          पानन में पीक में पलासन पगंत है
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में 
          देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में 
          बनन में बागन में बगरयो बसंत है
निराला जी
सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,

स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
(गीत)
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी--
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-
छबि-विभावरी;

बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी--
छबि-विभावरी;

निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी--
छबि-विभावरी;

आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर
विहरी--
छबि-विभावरी;
         *निराला*
रुखी री यह डाल ,वसन वासन्ती लेगी.
देख खड़ी करती तप अपलक ,
हीरक-सी समीर माला जप .
शैल-सुता अपर्ण - अशना ,
     पल्लव -वसना बनेगी-
     वसन वासन्ती लेगी.
हार गले पहना फूलों का,
ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का,
स्नेह, सरस भर देगा उर-सर,
      स्मर हर को वरेगी .
      वसन वासन्ती लेगी.
मधु-व्रत में रत वधू मधुर फल 
देगी जग की स्वाद-तोष-दल ,
गरलामृत शिव आशुतोष-बल 
        विश्व सकल नेगी ,
       वसन वासन्ती लेगी.
      *निराला*
*हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र*
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल--आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।

तुम मध्य भाग के, महाभाग!--
तरु के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।

देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँध कर रँगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज।
  *निराला*
आज का विषय *बसंत* काव्य के लिए बहुश्रुत विषय है । जिस पर आदि काल से रीति काल और आधुनिक समय तक के कवियों ने सुंदर रचनाएं हमे दी हैं ।
आज विषय के सापेक्ष अपने समय को काव्य में बताने वाले कुछ कवियों की महत्वपूर्ण रचनाएं परंपरानुसार प्रस्तुत कर रहा हूँ । देखिएगा हर कवि बसंत को कैसे महसूस करता है और कैसे काव्य में उतारता है । बसंत ... प्रेम है , उन्माद है ,उदासी है , अकेलापन है , तुर्शी है , स्मृति है , आत्मनिरीक्षण है ,.... और भी बहुत कुछ है । देखिये ,सुनिये ,गुनिये और हो सके तो कुछ कहिये भी

               ➖ *सुरेन*
*बसंत आएगा*
▪▪▪▪▪
--स्वप्निल श्रीवास्तव
बसंत आएगा इस वीरान जंगल में जहाँ 
वनस्पतियों को सिर उठाने के ज़ुर्म में 
पूरा जंगल आग को सौंप दिया गया था 
वसन्त आएगा दबे पाँव हमारे-तुम्हारे बीच 
संवाद कायम करेगा उदास-उदास मौसम में 
बिजली की तरह हँसी फेंक कर बसंत 
सिखाएगा हमें अधिकार से जीना 
पतझड़ का आख़िरी बैंजनी बदरंग पत्ता समय के बीच 
फ़ालतू चीज़ों की तरह गिरने वाला है बेआवाज़ एक ठोस शुरूआत फूल की शक्ल में आकार लेने लगी है मैंने देखा बंजर धाती पर लोग बढ़े आ रहे हैं कंधे पर फावड़े और कुदाल लिए देहाती गीत गुनगुनाते हुए उनके सीने तने हुए हैं बादल धीरे-धीरे उफ़क से ऊपर उठ रहे हैं ख़ुश्गवार गंधाती हवा उनके बीच बह रही है एक साथ मिलकर कई आवाज़ें जब बोलती हैं तो सुननेवालों के कान के परदे हिलने लगते हैं वे खिड़कियाँ खोलकर देखते हैं दीवार में उगे हुए पेड़ की जड़ों से पूरी इमारत दरक गई है
*इन ढलानों पर* ▪▪▪▪▪मंगलेश डबराल इन ढलानों पर वसंत आएगा हमारी स्मृति में ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता धीमे-धीमे धुंधुवाता खाली कोटरों में घाटी की घास फैलती रहेगी रात को ढलानों से मुसाफ़िर की तरह गुज़रता रहेगा अंधकार चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख फिर से उभरेगा झाँकेगा कभी किसी दरार से अचानक पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ़ शिखरों से टूटते आएँगे फूल अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़ छटपटाती रहेगी चिड़िया की तरह लहू लुहान *वसन्त* ▪▪▪--धूमिल इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूँ : कुर्सी में टिमटिमाते हुए आदमी की आँखों में ऊब है और पड़ौसी के लिए लम्बी यातना के बाद किसी तीखे शब्द का आशय अप्रत्याशित ध्वनियों के समानान्तर एक खोखला मैदान है और मासिकधर्म में डूबे हुए लत्ते-सा खड़खड़ाता हुआ दिन जाड़े की रात में जले हुए कुत्ते का घाव सूखने लगा है मेरे आस-पास एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है उधार देने वाले बनिये के नमस्कार की तरह जिसे मैं मात्र इसलिए सहता हूँ कि इसी के चलते मौज से रहता हूँ मेरे लिए अब कितना आसान हो गया है नामों और आकारों के बीच से चीज़ों को टटोलकर निकालना अपने लिए तैयार करना – और फिर उस तनाव से होकर – गुज़र जाना जिसमें ज़िम्मेदारियाँ आदमी को खोखला करती हैं मेरे लिए वसन्त बिलों के भुगतान का मौसम है और यह वक़्त है कि मैं वसूली भी करूँ – टूटती हुई पत्तियों की उम्र जाड़े की रात जले कुत्ते का दुस्साहस वारण्ट के साथ आये अमीन की उतावली और पड़ौसियों का तिरस्कार या फिर उन तमाम लोगों का प्यार जिनके बीच मैं अपनी उम्मीद के लिए अपराधी हूँ यह वक़्त है कि मैं तमाम झुकी हुई गरदनों को उस पेड़ की और घुमा दूँ जहाँ वसन्त दिमाग से निकले हुए पाषाणकालीन पत्थर की तरह डाल से लटका हुआ है यह वक़्त है कि हम कहीं न कहीं सहमत हों वसन्त मेरे उत्साहित हाथों में एक ज़रूरत है जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग चीज़ों को घटी हुई दरों में कूतते हैं और कहते है : सौन्दर्य में स्वाद का मेल जब नहीं मिलता कुत्ते महुवे के फूल पर मूतते हैं *वसन्त* ▪▪▪-एकांत श्रीवास्तव वसन्‍त आ रहा है जैसे मॉं की सूखी छातियों में आ रहा हो दूध माघ की एक उदास दोपहरी में गेंदे के फूल की हॅंसी-सा वसन्‍त आ रहा है वसन्‍त का आना तुम्‍हारी ऑंखों में धान की सुनहली उजास का फैल जाना है काँस के फूलों से भरे हमारे सपनों के जंगल में रंगीन चिडियों का लौट जाना है वसन्‍त का आना वसन्‍त हॅंसेगा गॉंव की हर खपरैल पर लौकियों से लदी बेल की तरह और गोबर से लीपे हमारे घरों की महक बनकर उठेगा वसन्‍त यानी बरसों बाद मिले एक प्‍यारे दोस्‍त की धौल हमारी पीठ पर वसन्‍त यानी एक अदद दाना हर पक्षी की चोंच में दबा वे इसे ले जाएँगे हमसे भी बहुत पहले दुनिया के दूसरे कोने तक। *बसंत* ▪▪--केदारनाथ सिंह और बसंत फिर आ रहा है शाकुंतल का एक पन्ना मेरी अलमारी से निकलकर हवा में फरफरा रहा है फरफरा रहा है कि मैं उठूँ और आस-पास फैली हुई चीजों के कानों में कह दूँ 'ना' एक दृढ़ और छोटी-सी 'ना' जो सारी आवाजों के विरुद्ध मेरी छाती में सुरक्षित है मैं उठता हूँ दरवाजे तक जाता हूँ शहर को देखता हूँ हिलाता हूँ हाथ और जोर से चिल्लाता हूँ- ना...ना...ना मैं हैरान हूँ मैंने कितने बरस गँवा दिए पटरी से चलते हुए और दुनिया से कहते हुए हाँ हाँ हाँ...|  

बिना टिकट के
गंध लिफ़ाफ़ा
घर-भीतर तक 
डाल गया मौसम
रंगों डूबी
दसों दिशाएँ
विजन डुलाने लगी हवाएँ
दुनिया से बेख़ौफ़ 
हवा में
चुंबन कई 
उछाल गया मौसम।
दिन सोने की
सुघर बाँसुरी
लगी फूँकने...फूल-पाँखुरी,
प्यासे अधरों पर ख़ुद 
झुककर
भरी सुराही 
ढाल गया मौसम।
-इसाक अश्क

सीधी है भाषा बसंत की
त्रिलोचन ...
कभी आँख ने समझी कभी कान ने पाई कभी रोम-रोम से प्राणों में भर आई और है कहानी दिगंत की नीले आकाश में नई ज्योति छा गई कब से प्रतीक्षा थी वही बात आ गई एक लहर फैली अनंत की|
वासंती समझौते 
दस्तख़त पलाश के।
गंधों के दावों का
एक बाग फूला,
आँखों ने कलियों पर
डाल दिया झूला,
कहाँ रहे कोयल के
आज मन हुलास के।
आसमान छूने को
परचम लहराए,
कौवों ने सुबह-सुबह
काँव गीत गाए,
उगल रही तोती भी
शब्द कुछ भड़ास के।
तेज़ हुई आँधी में
डोलते बबूल,
डाल की गिलहरी भी
राह गई भूल,
टिड्डी दल पाले है
-बृजनाथ श्रीवास्तव

प्रत्यंचा टूट गई
छूट गए फूलों के वाण
ऋतुओं के गंध कलश छलक गए
रेशमी हवाओं की
रस्सियाँ भाँजता
बटरोही वसंत
वन-बगीचों में झाँकता
कोयल के पैने संधान
अंध कूप में गहरे सरक गए
शहज़ादे सलीम-सा
बौराया आम
मेंहदी हसन-सी
ग़ज़ल पढ़ती है शाम
पहाड़ों पर नदी के पैतान
गुलमोहर निगाहों में करक गए
जंगल ने ओढ़ ली 
खुशबू की चादर
धरती ने लगा ली
जैसे महावर
रंगों के तन गए वितान
गीत-क्षण शीशे-सा दरक गए
-कैलाश पचौरी

संयम के टूटेंगे फिर से अनुबंध,
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

मधुबन की बस्ती में,
सरसिज का डेरा है।
सुमनों के अधरों तक,
भँवरों का फेरा है।
फुनगी पर गुंजित है, नेहों के छंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

किसलय के अंतर में, 
तरुणाई सजती है।
कलियों के तनमन में,
शहनाई बजती है।
बहती, दिशाओं में जीवन की गंध।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

बौरों की मादकता,
बिखरी अमरैया में,
कुहु की लय छेड़ी,
उन्मत कोयलिया ने।
अभिसारी गीतों से, गुंजित दिगंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

सरसों के माथे पर,
पीली चुनरिया है।
झूमे है रह रहकर,
बाली उमरिया है।
केसरिया रंगों के, झरते मकरंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।
बूढ़े से बरगद पर,
यौवन चढ़ आया है।
मन है बासंती पर,
जर्जर-सी काया है।
मधुरस है थोड़ा, पर तृष्णा अनंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।
अजय पाठक
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साहित्यिक समूह साहित्य की बात के रचनाकारों की कविताएं |समूह के संचालक है श्री ब्रज श्रीवास्तव जी
1
बसंत का अग्रदूत
पर जीवन ऐसा
जब भी आने को होता
बसंत पतझड साथ
चली आती है उसके
पूरा बसंत 
अकेला बसंत
एक साथ 
नहीं मिलता जीवन में कभी
जैसे पूर्णिमा के साथ
ही आरंभ हो जाती है
अमावस्या........।

संजीव जैन 
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2
आ गया वसन्त झूमती दिशा दिगन्त
नहीं आए मेरे कन्त मन डोल-डोल जाए रे
मन्द-मन्द डोलती प्राण रस घोलती 
फागुनी बयार ,जैसे प्रेम गीत गाए रे !
खुल गए हैं देख कलियों के बाजूबन्द
फूल-फूल की सुगन्ध मकरन्द छलकाए रे
रुत अलबेली जैसे रागिनी नवेली
जैसे प्रीत की पहेली कोई छन्द लिख जाए रे !
खेत-खेत ,मोड़-मोड़ सारे काम-धाम छोड़,
सरसों रंगीली जो चुनर फहराए रे
कोकिला के सोर और आम पे लदा ये बौर
देख टेसू ठौर-ठौर रंग बगराए रे !!

मीना शर्मा

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3
*बसंत*
▪▪▪
प्रिय , जैसा कि तुम जानते हो
मौसम  ... 
जिसे फागुन कहते है
तुमने साल भर जो चोटियाँ
बाँधी है ,
वे एक साथ खुल-खुल जाती है
यूँ रह -रह कर खुलते केशों से
किसी भी पत्ते का पर्ण हरित
लह लहा के मेरी ओर
ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश करता है
ऐसे में तुम्हे प्यार ना करने की जिद
और तुम्हे जहन से हटाने की सारी कोशिशे ,
तुमसे कहना नहीं चाहता 
और न ही  जताना ....।
            
 ➖➖ *सुरेन*
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4

 *उम्र में जुड़ता बसन्त*
शहर की ऊंची इमारतों 
और कंक्रीट के जंगल में
सेवानिवृत्त हो ,
मल्टी स्टोरी की एकमात्र छत पर टहलता है
मौसम का हरकारा पवन।

वातानुकूलित कार्यगृहों में 
बारह महीने सूट में अकड़े रहते हैं बदन ,
किटी पार्टी में कट कट के 
अतिसभ्य  सुचिता में छोटा हुआ पचरंगी दुपट्टा 
नहीं करता अब  हवा से ठिठोली 

खिलखिलाती मटर, 
फ्रोज़न  हो गई 
लहलहाती गेहूं की बालियां 
पिसे आटे के ब्रांडेड बेग पर 
उदासी का फोटो बन चिपकी रहती है,
पीली सरसों की महक का 
अब कहीं कोई परिचय नहीं है 

बालकनी के अय्याश गमलों में 
मठेठ से मुस्कुराते हैं 
बोनसाई गुलाबी कनेर 
चेतुवे की गुनगुनाहट याद नहीं 
अब दौड़ते-भागते शहर को 

विविध भारती पर गूंजता  फरमाइशी गीत
" केतकी गुलाब जूही चंपा के वन फूले 
ऋतु बसंत अपनो कंत गोदी गरवा लगाए"…
सुनकर जोड़ लिया 
सबने उम्र के सालों में एक और बसंत।

प्रवेश सोनी 
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5
बसन्त!!
पलाश की टहनियों पर
फूटने लगे हो तुम,
कुछ दिनों में
दहक कर पूरे जंगल पे
बुझ जाओगे...
और कहीं कहीं
कुछ भी न बदलेगा,
बना रहेगा सब
जस के तस।

मंजूषा मन
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6
पता नहीं 
कैसा होता है 
सुबह का आलम 
नदी में सूरज की पहली किरण का 
अक्स कैसा होता है पता ही नहीं 

कैसे होते हैं चमकदार शहर
हंसते मुस्कराते हुए लोग कैसे होते हैं खुश
कुछ पता नहीं 
प्रेम का कामयाब रस्ता 
कोई बता दे
मुझे तो नहीं पता 
कैसा होता है. 

यहां तो बस 
काम करने के लिए सुबह होती है 
न थकने के लिए दोपहर और 
बोझ लेकर घर लौटने के लिए 
होती है शाम
रात केवल सोने के लिए ही कैसे होती है नहीं पता हमें 
चटख रंग चिढ़ाते हुए मिलते हैं हमें
शीत ऋतु छोड़ कर जाती है हमारे घर
तब भी हम हिसाब से  ठिठुरते रहते हैं 
कर्ज की मार सहते हुए हम देख ही नहीं पाते खिले चेहरे के नूर
फूलों की खेती की झंझट बड़ी है हमारे गांव में 
हमें नहीं है पता 
बसंत किसे कहते हैं लोग. 
ब्रज श्रीवास्तव 
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7
आम पर बौर
तन पर.मदहोशी
जंगल में टेसू
मन की उमंग
हरी हरी लहराती बालियाँ
जैसे.जीवन की बांछे खिल जाना
शांत नदियाँ
जैसे चुपके से तुम्हारा आना
जीवन में बसंत…..।
संजीव जैन 
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8
अभी अभी पीपल के पेड़ से
गिरा है 
एक निःशब्द पत्ता
लहराते हुये .
पहली और अंतिम दफा 
उठाया है उसने विरक्ति का ये लुफ्त
लहराने पर .
धरा ने लगा लिया
ह्र्दय से
चुंबन पर जड़ दिये
धूल के कुछ कण.
इसका यूं विरक्त होना
छाँह का टूटना अवश्य है 
पर क्या करे 
बसन्त जो आ रहा है ।
   🔵कुंजेश श्रीवास्तव  

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9
 #प्रेमी#
पत्ते उगते हैं
झड़ जाते हैं
फिर उगने के लिए
फूलों का भी ऐसा ही है कुछ
खिलना और मुरझा जाना
रख दो कलम किनारे
वो देखो मेरी चाँदनी
और उसकी लट
हे कवि
अब लिखो बसंत पे कविता
बस इतना सा ख्याल रखना
लिखने में न आए
खुलने न पाए लट
✍जतिन अरोरा 
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10
 बसंत 
कोयल से कहा मैंने सखि ! 
मेरी बोली को दे -दे थोड़ी सी मिठास 
वह झट से मान गई
फूलों ने मुझे दे दी खुश -खुश खुशबू की बहा
कलियों ने फिर भर -भर अँजुरी 
 मुझ पर दी उड़ेल अपनी 
 हँस कर अपनी उन्मुक्त हंसी 
 भौरों से सीख लिए मैंने सब प्यार के गीत 
 भीनी -भीनी गुन -गुन 
 पायल में हवाओं में 
 भर दी रुन -झुन ,रुन झुन 
 और झरनों का
 इठलाना बक्श दिया 
 तितली ने स्वयं मुझ को\ 
 और झील के पानी की उद्दाम तरंगों ने 
 दी अपनी चंचलता 
 रक्ताभ पलाशों ने रंग डाले कपोल मेरे 
 मेहंदी ने हथेली पर रख दी अपनी सुर्खी 
 इक वृद्ध अशोक ने फिर वरदान दिया मुझ को
 जीने का शोक रहित 
 और मुझ में उतर आया मानों कि समूचा वसंत 
 जो रोप गया खुशियाँ 
 मेरे अंतस में अनंत 
 कृष्णा कुमारी 
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11आहट होती है,
मन की चादंनी मे, 

तुम ,आकर कुछ समय बाद ही चले जाते हो.....,
तुम्हारी प्रतीक्षा मे भुल जाती हूं,
श्याम पट की कालिमा 
औऱ
श्वेतपट पर लिख देना चाहती हूं,
ढेर सारे रंगों से 
नई कविता ...

अब तो आ जाओ
प्रिय कंत 
आया है
बसंत.....

राखी तिवारी               
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 12         
मुझको याद तुम्हारी आई अरसे बाद।
नैनों ने गगरी छलकाई अरसे बाद।

मन-वीणा के तारों में झनकार जगी
अंतस में गूँजी शहनाई अरसे बाद।

मेरे मन-मधुबन में प्यार के फूल खिले
कोयल ने भी कूक सुनाई अरसे बाद।

पतझड़ बीता अब मधुमास है आने को
लाई संदेशा ये पुरवाई अरसे बाद।

ख़बर सुनी जब से ऋतुराज के आने की
बौराई सी है अमराई अरसे बाद।

            उदय ढोली

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13
  बसन्त 
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जीवन में बसंत आ रहा है
उतर कर ससरता हुआ
पेड़ों की लचकती 
शाखों से
अमराइयाँ लेने लगी हैं 
उच्छ्वास गहरे
कुहकती कोकिल के
शब्द बेधी बाण बींध रहे हृदय... आग सी लगाता पलाश मैं भी झुलसना चाहती हूँ इस बसन्त में देखा है पहली बार आँखें खोल..... बदलता मौसम देह पर बौराया बसन्त चहकता, महकता, दहकता, लरजता छूकर कलियाँ थिरकते पाँव, बजती झाँझर दौड़ पड़ती हिरनी पलाश वन में झुलसने को सहेज लेना तुम अपने हिस्से के सुख बसन्त कुछ छोड़ जाए तो ... इस तरह आया है अबके बसन्त जीवन में बौराया सा !! मीना सारस्वत !

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14
चलो अब आ गया फिर से अम्मलतास का मौसम 
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ये कैसा गीत है जो गा रही कोयल मगन होकर 
लगी छाने कशिश दिल में,कि है उल्लास का मौसम 
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यूँ लगता है कि जैसे हॅस रहा हो ये चमन ,ये घर
तेरे आने से   बदला है मेरे पास का  मौसम 
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मिटे कैसे समझ आता नहीं जो प्यास दिल में है
कि आया लौट अब तो फिर नज़र की प्यास का मौसम 
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नशा है फाग का छाया ज़मीं से आसमां तक अब
हॅसी फूलों की ,समझो तुम कि है आभास का मौसम 

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
भावना
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15
 "फिर आएगा वसन्त"

हम जो चुपचाप बैठे हैं हताश से
अपनी ही लगाई गाँठों की ऐंठन में जकड़े से
प्रसन्नता से निर्वासित लोग हम
बदलेगा मौसम हमारे लिए भी
देखना फिर आएगा वसन्त चुपके से
डालेगा बसेरा हमारे आँगन में
पीले नीले मिल नारंगी रंगो से
पूर पूर देगा हमारे गलियारे

खेतों में,बागों में,गली कूचों में
हौले से बिखर जायेगा जैसे बिखर जाती है खुशबू
सांसों की सरगम में,राग भोर का गायेगा,चूमेगा वल्लरी से झरती कलियों को
फ़ैल जायेगा वसन्त का जादुई उजाला सवेरे की रेशमी झालर में झिलमिल सा

टेसू के उन्मादी रंग से घुल जायेगी केसर सी
उसके आने की आहट से  समीर बना रही अल्पनाएँ पराग कणों से
कोयल गायेगी मादक गीत
भौरों की गुनगुन में उसकी आमद का संगीत स्वर लहरियों में नाचने लगा है

अपने गिटार के तारों को छूकर छेड़ते ही वो उखाड़ फेंकेगा तुम्हारी उदासी की केंचुल
पपड़ाये होंठ हिलने लगेंगे और फिर से जीने लगेंगे 
कब तक आखिर कब तक 
भूख,हमे संत्रास देगी
वसन्त के आते ही होगा एहसास अनोखा तृप्ति का
जी उट्ठेगा जग सारा देखना 
अँधेरे को चीर आयेगा वसन्त
छा जायेगा हमारे दिलो-दिमाग पर वसन्त का मादक नशा
आयेगा वसन्त अपनी पूरी की पूरी जिजीविषा के साथ
@c आरती तिवारी

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16
 बसंत और पतझड़
इसमें है दुनिया के तमाम रंगों की आभा देदीप्यमान 
इसमें है संगीत के सातों सुर की स्वर लिपि  जाज्वल्यमान
ऋतु यह लाजवाब है
बस!
मुझे पसंद नहीं इसकी एक बात
सुख की आदत डाल
दो चार दिनों बाद
दु:खमय दौर 
सौगात हमें
दे जाता 
लेकिन पतझड़--- ?
भावना सिन्हा 
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17
संत बसंत 
बसंत
ऋतुओं का संत
मौसम के सितार पर 
थिरकाता अपनी अंगुलियां
  
स्वप्न में डूबी 
जैसे मन्त्र मुग्ध महफ़िल 
जैसे मोहिनी राग में 
झर रहे सुगंध से सने 
निर्मल शब्द

गुनगुनी मदमस्त बयार से  
बेसुध पूरी बगिया   

झूठ कहते हैं लोग
कि ऋतुओं के महाराज पधारे हैं

ये शिविर आनन्द का कुछ दिन 
प्रेम लुटाकर  लौट जाएगा 
इश्क में डूबा फ़कीर।

ब्रजेश कानूनगो
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18
*फिर इस बसंत में*
फिर बसंत  में होंगी बातें  फूलों की
रंग , खुशबू ,बहार और  झूलों की

पीठ से जा लगे हैं कितने  पेट
बसंत को याद नहीं बुझते चूल्हों की

दरख्तों  का घना साया महलों पर 
अपने हिस्से में है छाँव  बबूलों की

उनकी दरियादिली का  आलम है
पहाड़ों पर बस्ती लंगड़ों - लूलों की

अब नही आता यौवन कलियों पर
नज़रे उन पर दरिन्दे शूलों की

वो ज़खीरा लिये बैठे हथियारों का
सज़ा हवाओं को उनकी भूलों की

मुल्क की पैमाइश का पैमाना क्या
नक्शों में छिड़ी जंग भूगोलों की

जले बदन की बू है बयारों में
बाज़ार में कीमत बढ़ेगी दूल्हों की

शिकायत करें अब हम किससेे
अकाल में सूखी फसल उसूलों की

*शरद कोकास*

19
 *1985 का बसंत*
*संदर्भ भोपाल गैस कांड*

*बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे*

बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गए
देश की हवाओं में घुले 
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गए
अंकुरित होने से पहले
और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिए भी

जाओ उस ओर
तुम देखोगे और सोचोगे
पत्तों के झड़ने का 
अब कोई मौसम नहीं होता
उगते हुए नन्हें नन्हें पौधों की कमज़ोर रगों में इतनी शक्ति शेष नहीं कि वे सह सकें झोंका तुम्हारी मन्द बयार का पौधों की आनेवाली नस्लें शायद अब न कर सकें तुम्हारी अगवानी पहले की तरह खिलखिलाते हुए आश्चर्य मत करना देखकर वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को । *शरद कोकास*
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२०
सोलहवें बसंत की अदायें ''
कमसिन सी ,अल्हड़ तितली सी ,
सतरंगी सपने बुन रही है वो ! मृगया ,मृगनयनी ,मृगमन लिए , बचपने को भूल रही है वो ! चंचलता को बांध चोटी  में ,
शरारतों को छेड़  रही है वो ,
बावरी सी निहारती दर्पण ,
खुद ही इठला रही है वो !
बीते सालों की पतझड़ी पत्तियाँ बीन,
तन -मन बुहार रही है वो !
ओंस से  भींगी कोपल को चूम ,
खुद ही खुद शर्मा रही है वो !
कभी चुरा कर आँखों से काजल ,
मानो कच्ची उम्र ही चुरा रही है वो ,
कभी लगा कर काजल का टीका ,
बुरी नज़रो से खुद को बचा रही है वो ! 
इन मधुमासी मधुर बयार संग ,
महक -बहक जा रही है वो !
देख ,फूलो संग भवरों  का खेला ,
लाज  से लजा रही है वो !
सुनकर यौवन की आहटें ,
अंगड़ाइयाँ ले रही है वो !
सोलहवें बसंत की अदाएं लिए  
पिया की पदचापे सुन रही है वो !
ई अर्चना नायडू 
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21
इस वर्ष बसंत सूना रहेगा , 
हर बयार में ढूँढेंगे उन्हें , 
जो मिल न सकेंगे कभी , 
बयार चलेगी , बादल आयेंगे , 
ओलावृष्टि भी हो शायद ,
हम साझा न कर पायेंगे ।
आम के बौर आयेंगे , 
होली आयेगी , 
हम ये रंग बता नहीं पायेंगे , 
दुनिया जब रंगीन होगी , 
शायद हम रंगहीन नजर आयेंगे, 
अब चूँकि आप ब्रम्हलोक में हैं , 
बिना किसी दृष्टिदोष के प्रत्यक्ष  देख पायेंगे ...

पूज्यनीय पिता जी को समर्पित 
पीयूष तिवारी 
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२२
काँधे तक कंबल सरका कर, सर-से सर्दी भागी
तब थोड़ी-सी राहत आई जब बसंत ऋतु जागी

सूरज करने लगा ठिठोली, लगा ठहरने ज़्यादा
चंदा घर जल्दी जाने की, लांघ रहा मर्यादा

तारों ने भी शुक्र मनाया, घटी जो पहरेदारी
खींचा-तानी में दिन जीता, रात बेचारी हारी

पीले-पीले फूल खिले, सरसों ने ली अंगड़ाई
हल-चल भई बाग के भीतर, अमवा भी बौराई

फागुन खड़ा द्वार के बाहर, राग मल्हार अलापे
कोयल पपिहा बेर-बेर, घर आँगन, झाँके-ताके

गोरी का मनवा अति हर्षित, मन ही मन मुसकाए
जो घर साँवरिया आ जाए, मन मुराद मिल जाए

कहे आज़मी मैं भी अपने दिल का हाल सुनाऊँ
जो बसंत पर पिय माने तो, पीहर तक हो आऊँ

(सरस्वती तिवारी आज़मी)
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23
माली अपनी खुरपी लिए
क्यारियों को रहा है खंगाल 
देखती हूँ मुग्ध रंग बदलना 
मिट्टी का.. सांस खींच भीतर 
अपने होने की सबसे आदिम गंध
से सींचती हूँ ख़ुद को
देखती हूँ टपकते स्वेद को 
मिट्टी का भूरा खारा होता जाता है

खोलती हुँ पति का बटुआ
निकालती हूँ नोट दो सौ के
बीज, खाद, श्रम का मूल्य तय है
पाती हूँ एक बार फिर एक गंध खारी

बसंत के आगमन पर
एक श्रम से दूजे श्रम तक
पुल बन जाती हूँ
मेरी बगीची में आने को है
बसंत....................
अनेकवर्णा
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24
कोंपलें फिर फूटने को है 
स्मृतियां फिर जुड़ने को है 
पलाश फिर दहकने को है 
हल्की सी जुम्बिश ही सही थोड़ा पानी तो हिल जाये कोई चिंगारी तो सुलग जाये हम दोनों के बीच ही नही स्नायु को फड़का जाये मेरे शीत से उनींदे तन मन को झकझोर दे भले धीरे से नर्म है धूप तो क्या कीजे नम्र है हवा तो क्या कीजे चिटकने चाहिए कुछ किल्ले कब तक पुकारूँगा ,तुम्हे कुछ अपनी सांस भी दिख जाए कुंडली में जो बैठा है फन काढ़े कब देखा तुमने कर दे रीढ़ को फिर सीधा
... ...ओ बसंत !
सुरेन के सिंह 
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25
 बसंत : 

सारे पत्ते
पीले पड़ रहे है
जैसे रंग उड़ जाता है पैरहन  का
पुराने हो जाने पर ।

सबसे पहले
ऊंचे पेड़ो की फुनगिंया 
गिराती है धरा
जैसे स्त्री ने हटाया हो माथे का टीका।

धीरे धीरे एक एक पर्ण गिरा रही है 
नग्न हो रही है धरती
ठंड़ से जीर्ण पड़ चुके सूर्य 
उत्तेजना में फिर गर्म हो रहे है 

मलय पवन की सरसराहट संकेत है 
सूर्य ने एक साथ करोड़ो रश्मियां
धरती पर उड़ेल दी है 
बंसत सूर्य का स्खलन है ।

यह सृजन का समय हैं 
सृजन हेतु पैरहन का न होना जरूरी है 
ईश्वर नंगा है ।
अखिलेश
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26
 "बसन्त"
महक उठी जग,घर,मन,फुलवारी
पहने पीत वसन बसंत वसुधा नारी
श्रंगार कर रहीं रसिक फन कारी
ह्रदय हुलास लरज रही धानी बाली

ठुमक चमक नव कपोल मुस्काई
तरुवर हर्षित कलियाँ बिकसाई
मधुर-मधुर मदरिम सुगन्ध बिखराई
भवरों ने सुर साधे कोयल गाना गाई
पवन प्रेंम मैं डूब ओस अँजुरी भर लाई

हरित तृणों के लहंगे में
रूप का सागर छलका
देख पलाश दहक प्रेंम में
फूला लाल सुमन सा
टेसू देखें सँवर-सँवर और
बौरें अमुआं झूला झूलें
चलें बसन्ती हवाएं फिर
जो मद में डुबो रहीं हैं

पड़े अटारी कनक बने
विलग हुए जो पात
मैं देखूं और सोचती
ये जीवन का सच बताता 
रेखा दुबे 
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चित्र :गूगल से साभार

Saturday, January 21, 2017

 ज्ञानेन्द्रपति
जन्म 01 जनवरी 1950
जन्म स्थान ग्राम पथरगामा,     झारखंड, 

प्रमुख कृतियाँ
आँख हाथ बनते हुए (1970); शब्द लिखने के लिए ही यह कागज़ बना है (1981); गंगातट (2000); संशयात्मा (2004); भिनसार (2006), पढ़ते-गढ़ते(कथेतर गद्य),कवि ने कहा(कविता संचयन)
सम्मान
वर्ष 2006 में ‘ संशयात्‍मा’ शीर्षक कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा पहल सम्‍मान, बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्‍मान व शमशेर सम्‍मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।


 ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के एक विलक्षण कवि-व्यक्तित्व हैं। ज्ञानेन्द्रपति की जड़ें लोक की मन-माटी में गहरे धँसी हैं।उनकी काव्य-भाषा उनके समकालीनों में सबसे अलग है। उनके लिए न तो तत्सम अछूत है, न देशज। शब्दों के निर्माण का साहस देखने योग्य है। ज्ञानेन्द्रपति की कविता एक ओर तो छोटी-से-छोटी सचाई को, हल्की-से-हल्की अनुभूति को, सहेजने का जतन करती है, प्राणी-मात्र के हर्ष-विषाद को धारण करती है; दूसरी ओर सत्ता-चालित इतिहास के झूठे सच को भी उघाड़ती है। धार्मिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता वह सब के मुक़ाबिल है।
 तो मित्रों, ये कविताएँ आपको कवि से परिचित कराते हुए बातचीत के लिए भी प्रेरित करेंगी, ऐसा विश्वास है। विवेक निराला














वे दो दाँत-तनिक बड़े

वे दो दाँत-तनिक बड़े
जुड़वाँ सहोदरों-से 
अन्दर-नहीं, सुन्दर
पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण
होंठों के बादली कपाट 
जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते
और कभी पूरा नहीं मूँद पाते 
हास्य को देते उज्ज्वल आभा
मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा
लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य
वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं-
अलकापुरीवासिनी
लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी
गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव
हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या
जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं 
न होमसाइंस का डिप्लोमा
न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना
न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास-
वह सब कुछ नहीं 
बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े
सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से 
दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच
दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर
कौतुल में निर्मल हो आती हैं

वे दो दाँत-तनिक बड़े 
डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं 
एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से 
विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं
कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं
वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं 
वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें 
शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में 
वे चाहते हैं पिघल जायें,
रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में 

रात के डुबाँव जल में डूबे हुए 
वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए 
धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से 
फटती छातीवाले-
जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं
वह कब आयेगा उबारनहार
गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में 
शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे
भूलभुलैया पथों
और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को
लाँघता 
आयेगा न ?
कभी तो !
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खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित

खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से

उस जगह लाल गाल वाले टमाटर बोये जायेंगे
टमाटर ही टमाटर
जैव प्रयोगशालाओं में परिवर्तित अन्त:रचनावाले
स्वस्थ-सुन्दर-दीर्घायु
गुदाज़ होगी उनकी देह
अनिन्द्य होगा उनका रस
बोतलों में सरलता से बन्द होकर
शुष्कहृदयों को रसिक बनायेंगे
रसिकों को ललचायेंगे
और रसज्ञों को भायेंगे
वे टमाटर
इनके खेत और उनके घर भरेंगे
उनके गुण गाते न थकेंगे गुणीजन
उनकी अनुशंसा होगी , प्रशंसा होगी
वे योगानुकूल माने जायेंगे निर्विवाद
मानव-संसाधन-मन्त्रालय के अन्तर्गत
संस्कृति विभाग में
गुपचुप खुला है एक प्रकोष्ठ
कृषि-मन्त्रालय के खाद्य प्रसंस्करण प्रभाग के साझे में
क्योंकि अब लक्ष्य है निर्यात और अभीष्ट है विदेशी पूँजी-निवेश
और यह है निश्चित
कि देसी और दुब्बर खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से
क्योंकि अब
इतिहास की गति के भरोसे न बैठ
इतिहास की मति बदलने की तकनीक है उनकी मुट्ठी में

खो जाऊँगा
जिस तरह खो गयी है
बटलोई में दाल चुरने की सुगन्ध
अधिकतर घरों में
और अखबारों को खबर नहीं
अख़बारों के पृष्ट पर
विज्ञापनों से बची जगह में
वर्ल्ड बैंक के आधिकारिक प्रवक्ता का बयान होगा
खुशी और धमकी के ताने-बानेवाला बयान
जिसका मसौदा
किसी अर्थशास्त्री ने नहीं
किसी भाषाशास्त्री ने नहीं
बल्कि सामरिक जासूसों की स्पेशल टीम ने
टास्क फोर्स ने
तैयार किया होगा
ढँकने-तोपने-कैमाओफ्लेज-में माहिर
पेन्टागन और सी. आई.ए. के चुनिन्दा युद्धकला-विशारद अफ़सरों के
एक संयुक्त गुप्त दल ने ।

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 ट्राम में एक याद
 चेतना पारीक कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ ख़ुुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?

तुम्हें मेरी याद तो न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी क़द-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो?

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एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ

1
यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है।
इसमें क्या है ? एक बन रहा शिशु-भर ?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना। बस ?

कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की 
तुम क्या जानो
कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह कुत्ता, उछलता वह मेढक
रँभाती गाय, बाड़ कतरता माली, क्षितिज पर का सूरज
सब उसके अंदर चले गये हैं
और तुम भी

2

निरन्तर निर्माण में रत है तुम्हारा उदर
तुम्हारा रक्त, तुम्हारी मज्जा, तुम्हारा जीवन-रस
सब मिल कर जो रच रहे हैं
वह क्या है ? एक
कनखजूरा
जो अकस्मात किसी बूट के नीचे आ जायेगा।
या किसी आदमजाद को डँसने के प्रयास के अपराध में
थुरकुच कर
सफ़ाई के खयाल से सड़क पर से किनारे हटा दिया जायेगा
-वही एक
कनखजूरा ? घेर कर जिसके लिथड़े शव को
खड़े होंगे गाँव के सारे सम्भ्रान्त लोग ईश्वर को धन्यवाद देते
और यदि कोई विद्रोही कवि हुआ वहाँ ईश्वर और सफ़ाई
और स्वयं
पर थूक कर लिख देगा जिस पर एक कविता और
आकर ओढ़ चादर सो जायेगा। वही
एक कनखजूरा रच रही हो तुम ?

किसी अबोध की तरह ताकती हो मेरा प्रश्न। तुम्हें
पता नहीं अपने फूले हुए पेट में सहेजते हुए जिसको 
पिला रही हो अपना रक्त, श्रम, चौकसी
वह क्या है ? मुझे है 
पता
यह न हो वही कनखजूरा
पर हो जायेगा।

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 गमछे की गन्ध

चोर का गमछा
छूट गया
जहाँ से बक्सा उठाया था उसने,
      वहीं -- एक चौकोर शून्य के पास
गेंडुरियाया-सा पड़ा चोर का गमछा
जो उसके मुँह ढँकने के आता काम
कि असूर्यम्पश्या वधुएँ जब, उचित ही, गुम हो गई हैं इतिहास में
चोरों ने बमुश्किल बचा रखी है मर्यादा
अपनी ताड़ती निगाह नीची किए

देखते, आँखों को मैलानेवाले
उस गर्दखोरे अँगोछे में
गन्ध है उसके जिस्म की
जिसे सूँघ
पुलिस के सुँघनिया कुत्ते
शायद उसे ढूँढ़ निकालें
दसियों की भीड़ में
हमें तो
उसमें बस एक कामगार के पसीने की गन्ध मिलती है
खट-मिट्ठी
हम तो उसे सूँघ
केवल एक भूख को
बेसँभाल भूख को
ढूँढ़ निकाल सकते हैं
दसियों की भीड़ में।


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ज्ञानेंद्रपति जी की कवितायें  चर्चित कवि की श्रेणी  के अन्तर्गत साहित्य की बात समूह में श्री विवेक निराला जी द्वारा प्रस्तुत की गई ,जिन पर सदस्यों ने विस्तृत चर्चा की |समूह के संचालक है श्री ब्रज श्रीवास्तव |

प्रतिक्रियायें 

 ब्रज श्रीवास्तव: ये सचमुच अलग तरह की, बिंब घनत्व की ताजा तरीन कविताएँ हैं, ज्ञानेंद्रपति की ये कविताएँ हमें, हमारे कवि मानस को समृद्ध करतीं हैं, दांत के हवाले से एक लड़की के हाल की कविता पहली बार कहीं पढ़ी, ||बाकी बाद में...

सुरेन: चेतना पारीक कैसी हो ... यह कविता तो ज्ञानेंद्र पति जी की ऐसी कविता है जो बहुत पहले जब पहली बार पढ़ी थी ,तब से ही मन में बस गयी । क्या गज़ब कविता है

Saiyad Ayyub Delhi: ज्ञानेंद्रपति कविता को जीने वाले कवि हैं, कविता लिखने वाले नहीं। कविताएँ उन पर वैसे ही नाज़िल होती हैं जैसे पैग़म्बरों पर 'वही' नाज़िल हुआ करती थीं। बड़ा कवि वह है जिसकी कविताएँ उसके नाम से बड़ी हो जायें। चेतना पारीक वाली कविता ऐसी ही कविता है। बहुत सारे लोगों को इस कविता का शीर्षक नहीं पता है। कवि का नाम नहीं याद है पर इस कविता की याद उन्हें हैं क्योंकि अपने पहले पाठ से ही यह कविता उनके मानस पटल पर अपने निशान छोड़ जाती हैं। उनकी कई कविताएँ ऐसी ही हैं। शुक्रिया विवेक भाई उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये।

 Dinesh Mishra: ज्ञानेन्द्र पति जी की कविताएँ बहुत अच्छी और अद्भुत लगीं,  छोटी छोटी सी चीजों पर गहन अनुभूति की शानदार अभिव्यक्ति हैं ये कविताएँ, इन कविताओं को एक बार उन लोगों को ज़रूर पढ़नी चाहिए,  जो समकालीन कविताओं को कवितायें ही नहीं मानते, उन्हें भी एक बार सोचना पड़ेगा की क्या इतनी असरदार अभियक्ति लयबद्ध या छन्दबद्ध रचनाओं में मुमकिन भी है की नहीं।
अच्छी कविताओं के लिए बधाइयाँ और समूह में प्रस्तुति का धन्यवाद।

कविता वर्मा: चेतना पारीक गमछे की गंध और दो दांत अद्भुत कविताएँ हैं। जिस बारीकी से इन्हें बुना गया है वह हैरान करता है। आभार इन्हें पढवाने के लिये।

918720802790: ज्ञानेंद्र पति की खेसाड़ी दाल कीतरह कविता का बिंब विस्मित करता है कितने सहज उपमान से कवि इतनी गहराई तक जाकर तथ्यों  की पड़ताल करते हैं।उनकी निर्भीकता  सदैव आकर्षित करती है।कविता की  ही तरह सहज उनका व्यक्तित्व भी  है,लगभग एक दशक पूर्व भिलाई के एक प्रतिष्ठित मंच हे उनकी  कविताएॅ सुनने और प्रत्यक्ष मिलने का मौका मिला उस वक्त भीउनके सहज व्यक्तित्व ने आकर्षित किया था ।

 संध्या कुलकर्णी: कनखजूरा मुझे कभी अच्छी नहीं लगी और पहली कविता गर्भवती औरत के प्रति संवेदनाओं को जुगुप्सा से भर देती हैं इतने कोमल एहसास की ऐसी कल्पना नहीं लुभाती 💥

 Rekha Dubey: ज्ञानेंद्र पति जी की कविताएं  चिंतन करती हुई सी प्रतीत होती है  सारगर्भितऔर मन के गहरे तक पैठ बनाती हुई पैने व्यंग से भरी हैं कहीं कहीं

Akhilesh: ज्ञानेन्द्र जी उन सूक्ष्म संकेतो को कविता का विषय बना उसे एक बड़ी फलक की कविता में तब्दील कर देते है जहाँ अनूमन उनके समकालीनो की नजर नहीं पडती ।उनके लिये बड़े विषय उतने महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण है किसी भी विषय में कविता की संभावना । उन्हीं उपेक्षित व बिखरे विषयों से एक बिम्ब तैयार कर उसे कविता में खड़ा कर देना जो किसी बड़े संदर्भ को व्याखित कर एक समाधान की संभावना पैदा कर दे ,ज्ञानेन्द्र जी की रचना कर्म का उत्स है ।
एक गर्भवती औरत के प्रति जो दूसरी कविता है उसमें ज्ञानेन्द्र जी जो कनखजूरे का बिम्ब रचते हैं उसमें एक अति साधारण मानव भ्रूण है जिसे ताकते कभी भी दर किनार कर देती है,वो कभी भी बूट से कुचला जा सकता है ध्यान से सुने तो यह आवाज किसी गरीब शोषित पर काटने को अभिशप्त विद्रोही की भी हो सकती है जिसे हम,आप या सरकारे नक्सल कहती है और जिनके लिए सरकारों के पास बस बूट है ,हमारी जरूरत बस तमाशाई जितनी है ।
वह इतने आशा वादी है कि उन्हे विरोध के स्वरो पर चाहे वह कविता के शब्द रूप में ही क्यों न हो पूरा भरोषा है ।उन्हें इस व्यवस्था को चेताते रहते हेतु कनखजूरो की जरूरत है भले ही वो विरोध के किसी भी मार्ग का स्वर रखते हो ।
यह इस कविता का मेरा पाठ है कोई और दृष्टि हो जिससे इस कविता को पढ़ा या समझा गया हो तो स्वागत है ।

 संध्या कुलकर्णी: आपका पाठ आपका विज़न दिखाता है अखिलेश मैंने इसे स्त्री के नज़रिये से  देखा हर पाठक का अपना पाठ होता है और विस्तार भी ।किसी भी कवि की सभी रचनाएं सरवोत्कृष्ट नही होतीं और सम्भवत:अनुभूति के स्तर पर जैसा भाव आये वही कविता को विश्लेषित करता है ज्ञानेन्द्रपति जी मेरे भी प्रिय कवि हैं ।आपका विश्लेषण बहुत बढ़िया है 👌💥

भावना जी: ज्ञानेन्द्र पति उन दुर्लभ कवियों में से एक हैं जिन्हें पढ़ते हुए हम एक अलग दुनिया में होते हैं ।इनकी कविताओं में देसज शब्दों का इस्तेमाल इतनी खूबसूरती से होता है कि हम भौचक रह जाते हैं ।ट्राम में एक याद ...एक बेहतरीन कविता है ।पूरी कविता में एक लय है जो हमें बाॅधे रखती है ।
कवि से मैं मिली हूँ ।अपने कविता की तरह बेहद सहज , सरल ।मैंने उन्हें अपनी किताब भेंट की तो ......सीट से खड़े हो गए और बड़े आदर के साथ लिया ।बनारस लौट के न केवल उसे पढा अपितु विस्तृत टिप्पणी दी ।
मैं उनके व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हूँ ।बड़े रचनाकार जो वाकई बड़े होते हैं वो उतने ही विनम्र होते हैं ।
मंच पर प्रस्तुत सभी रचनाएँ बेहतरीन हैं ।रचनाकार एवं चयनकर्ता दोनों को बधाई ।🙏🙏

Dushynt .: अद्भुत कविताएँ। लेखन नयापन लिए है, कविताओं में नाम का प्रयोग बिलकुल अनोखा और साहसिक है। दो दांत तनिक बड़े ऐसा विषय चुनना , खेसाड़ी दाल की तरह ऐसे शीर्षक ही उत्सुकता जागते हैं कि आखिर क्या लिखा होगा।ट्राम की एक याद और गमछे की गंध भी बहुत कम में बहुत कुछ कहती हैं। कवी ने अपने व्यक्तिगत तजुर्बे को परोसा है और पाठक अपने अपने तरह के ज़ायके कविताओ में धूड़ सकते हैं।। बहुत बढ़िया प्रस्तुति।।🙏🙏
 Dipti Kushwah: मुझे लगता है, ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी  विशेषता इस बात में है कि उनकी जैसी विषय-विविधता अन्य नहीं मिलती । कविता के लिए अनुपयुक्त प्रतीत होने वाले विषय पर भी वे अनुपम कविता रचते हैं ।
साकीबा को धन्यवाद ।
 सुरेन के. सिंह : ज्ञानेन्द्रपति जी की कविताएं अपने कहन में प्रगतिशीलता को इस भांति रखते है कि उनका कथ्य ,संवेदन ,भाषा ,शिल्प , विचार , लय आदि सब एक ऐसा फ्रेम रचते है पाठक के सामने की पाठक दूर से उन्हें पहचान लेता है । वह कविता में अपने समय को व्यक्त करने में आवेग और आवेश से नही बल्कि उसे ऐसे बिंम्ब और सौंदर्य से प्रस्तुत करते है कि पाठक के अपने आस पास का माहौल जीवंत हो उठता है । उस माहौल में पाठक महसूस करता है कि कैसे कवि अपने समय की चिंताओं को धीरे धीरे उकेरता  है ,कैसे उन्हें प्रकृति से कॉरिलेट करता है ,कैसे एक आशा भरी एक किरण भी देता है ,कैसे एक यूटोपिया ऐसा भी हो जो यथार्थ  पर ओढ़ाया जा सके , कैसे उन उम्मीदों का स्वर विनीत होते हुए भी दृढ होता है । ,.....और ये सब  ,  एक कवि के भाषा को लेकर अनुराग के साथ उभरता है ।

 मैथिल: आज पटल पर प्रस्तुत कविताएँ अद्भुत और बहुत मार्मिक है ।
ट्राम में एक याद खासा प्रभावित करती है ।इस कविता में सार्वजनिक वनाम निजी का द्वंद्व है जो नितांत समसामयिकता के इस दौर में इसको और भी प्रासंगिक बनाता है ।
ज्ञानेंद्र पति जी को बधाई और विवेक निराला जी का बहुत आभार ।🙏🙏💐💐

प्रवेश सोनी : आज की कविताओं को पढ़ कर वही लगा जो सभी ने कहा ।अनोखापन है इन कविताओं में ।
अनूठे विषय और उनका अद्भुद विस्तारण ।
कवि की भाषा कविता को जो सौन्दर्य प्रदान कर रही है वो अभी तक पढ़ी गई कविताओं में  नही देखा ।
आज की प्रस्तुति के लिए विवेक निराला जी का बहुत बहुत आभार कि उन्होंने एक विरले कवि के लेखन से परिचय करवाया ।

सुरेन के. सिंह 
कविता अपनी शुरूआत एक आमफहम  प्रेम कविता सी करती है पर एक अद्भुद लय में । इस नई कविता की लय पर भाव कैसे उमड़ते है ,ये महसूस् करने योग्य है ।
फिर कविता  नॉस्टैल्जिक हो जाती है । हर पंक्ति एक प्रश्नवाचक से खत्म होकर भी प्रश्नों से एक ऐसा नॉस्टैल्जिक वितान कवि रचता है जो व्यक्तिगत होकर भी समष्टिगत प्रतीत होता है ।  तदोपरांत इस नॉस्टेल्जिया से कवि निकल अपने समय से दो चार होता है । पाठक को बताता है कि वो किस महानगरीय जीवन के साथ अपने अनुभव को साझा कर रहा है । 
फिर मुड़ता है वो प्रकृति की ओर और अपनी सम्वेदनाएँ उससे जोड़ कर प्रेम के व्यक्तिगत सरोकार को हर व्यक्ति के सरोकारों से जोड़ता हुआ कविता को एक ऐसे संवेद पर छोड़ देता है जहां एक आशा  है ,जहां मनुष्य के होने की सार्थकता का प्रश्न कविता को छोड़ पाठक के मन में कही घुल जाता है ।

Friday, January 13, 2017

 शहंशाहों ने बनवायी मुहब्बत में मज़ारे और
 गरीबो ने वहां बांधे कई धागे मुहब्बत में


ये कहना है हमारे समूह के साथी भवेश दिलशाद जी का । आज हम लोग दिलशाद साहब के चंद अशआर और ग़ज़ल पढ़ेंगे और उस पर चर्चा करते हुए अपने अपने मन की बात रखेंगे ।
दिलशाद जी का काव्य अपने समय को मुखरित करता हुआ काव्य है जो अपने कहन में  बड़ी साफगोई से अपने शब्दों को पाठक तक समीचीन तरह से प्रस्तुत करते है   । इस प्रस्तुतिकरण में कवि भाषा की बंदिशें नही स्वीकारता ,वह काव्य में एक ऐसा कहन देता है जो पाठक तक अपनी बात सरल और चुटीले अंदाज़ में सम्प्रेषित होता रहे । कही कही उनके अंदाज़ में निदा फ़ाज़ली साहब का प्रभाव भी देखा जा सकता है । जो उनकी शायरी को अद्यतम रूप देता है । क्या वाकई उनका इशारा महीन है ? ये आप लोग बताये तफसील से...
           
                    --   सुरेन
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परिचयात्मक लेख - आकांक्षा
परिचय - भवेश दिलशाद
ग़ज़ल के पर्यायवाची, दोहों सी सार्वभौमिकता, काव्य रगों में, साहित्य का मर्म और नज़्मों सा जीवन... भवेश दिलशाद की सम्पूर्ण व्याख्या।
15 बरस से ज़्यादा समय से साहित्यिक पत्रकारिता, प्रमुख हिन्दी अखबारों में सेवाएं, साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन, हिन्दी में स्नातकोत्तर और अंग्रेज़ी में स्नातक और सीखने की तत्परता अब भी...
शिवपुरी में जन्मे, भोपाल में पले-बढ़े, परिवार में बड़े बेटे, बड़े भाई का प्यार, भरोसा और साथ देने का वादा निभाते हुए आगे बढ़े...
ज़िद्दी दिल, समझौता न करता हुआ दिमाग, बहुत गहरी सोच और संतुलित समझ भवेश हैं। भवेश एक चिन्तक हैं। विश्व को देखने का उनका अपना एक दृष्टिकोण है जो शुद्ध है, पवित्र है, छलरहित है। शान्त स्वभाव के दिखने वाले भवेश अगर आपसे ज़्यादा बात कर रहे हैं तो समझ लीजिएकि आपकी सोच उनसे कहीं मिल रही है। वक़्त गुज़ारना, बिताना या व्यर्थ गंवाना उन्हें कतई पसंद नहीं आता...
शेर जब 'हो रहे' होते हैं तो उनके माथे पर एक चंचलता, आंखों में स्थिरता और खालीपन और शरीर की शिथिलता देखना एक अनुभव होता है। शेर या ग़ज़ल होने की प्रक्रिया उनके सामने बैठकर देखना एक रोमांच है। भवेश एक ऐसे पुरुष हैं जिन्होंने मेरे कार्यों को प्राथमिकता देते हुए अपने व्यवसाय में तब्दीलियां कीं, स्थान बदले, मेरी बात परिवार व समाज के सामने सम्मान व दृढ़ता के साथ रखने में संकोच नहीं किया और... मुझे खुशी है कि मैं ऐसे पुरुष के साथ ज़िन्दगी निवेश कर रही हूं।



भवेश दिलशाद के चन्द अशआर -
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ख़्वाहिशें सब ख़त्म ख़ाली दिल ख़ला हो जाएगा
सूफ़ियों से मत मिला कर बावरा हो जाएगा।
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और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।

गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
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शहंशाहों ने बनवायीं मुहब्बत में मज़ारें और
ग़रीबों ने वहां बांधे कई धागे मुहब्बत में।

न मन्नत मांगते हैं अब न करते हैं दुआ कोई
निकल आये हैं हम दोनों बहुत आगे मुहब्बत में।
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मंदिर नहीं मियां किसी पनघट का दो पता
सदियों के प्यासे लोग हैं भटकाओ मत हमें।

हम भूल हैं या दाग़ हैं उजले वरक़ नहीं
इतिहास की कसम तुम्हें दुहराओ मत हमें।

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कुछ ग़ज़लें
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 ग़ज़ल - 1
कभी तो सामने आ बेलिबास होकर भी
अभी तो दूर बहुत है तू पास होकर भी।

तेरे गले लगूं कब तक यूं एहतियातन मैं
लिपट जा मुझसे कभी बदहवास होकर भी।

तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समन्दर हूं प्यास होकर भी।

तमाम अहले-नज़र सिर्फ़ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखायी दिया सूरदास होकर भी।

मुझे ही छूके उठायी थी आग ने ये कसम
कि नाउमीद न होगी उदास होकर भी।



🔵 ग़ज़ल - 2
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कहां पहुंचेगा वो कहना ज़रा मुश्किल सा लगता है
मगर उसका सफ़र देखो तो खुद मंज़िल सा लगता है।

नहीं सुन पाओगे तुम भी ख़मोशी शोर में उसकी
उसे तनहाई में सुनना भरी महफ़िल सा लगता है।

बुझा भी है वो बिखरा भी कई टुकड़ों में तनहा भी
वो सूरत से किसी आशिक़ के टूटे दिल सा लगता है।

वो सपना सा है साया सा वो मुझमें मोह माया सा
वो इक दिन छूट जाना है अभी हासिल सा लगता है।

ये लगता है उस इक पल में कि मैं और तू नहीं हैं दो
वो पल जिसमें मुझे माज़ी ही मुस्तक़बिल सा लगता है।

वो बस अपनी ही कहता है किसी की कुछ नहीं सुनता
वो बहसों में कभी जाहिल कभी बुज़दिल सा लगता है।

न पंछी को दिये दाने न पौधों को दिया पानी
वो ज़िन्दा है नहीं, बाहिर से ज़िन्दादिल सा लगता है।

उसे तुम ग़ौर से देखोगे तो दिलशाद समझोगे
वो कहने को है इक शायर मगर नॉविल सा लगता है।

 ग़ज़ल - 3
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बहुत बरदाश्त कर ली है मियां ये दुनियादारी क्या
जुनूं दिल में कफ़न सिर पर सफ़र की है तयारी क्या।

कोई नमक़ीन ख़्वाहिश क्या कोई मीठी कटारी क्या
समय के कड़वे सच हैं हम किसी की हमसे यारी क्या।

यहीं पर लेनदारी देनदारी सब निबट जाये
वो जब तौले तो चकराये कि हल्का क्या है भारी क्या।

जियूं ये क़श्मक़श कब तक निभाउं ज़िंदगी कितनी
रहेगी यूं ही क़िरदारों की मुझमें जंग जारी क्या।

जवानी हुस्न शोख़ी लोच जलवे सब बहुत दिलक़श
मगर है कोई औरत इस जहां में मां से प्यारी क्या।

  ग़ज़ल - 4
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यूं तो ज़िंदगी भर हम बनते हैं संवरते हैं
कितने हैं जो आख़िर में क़ायदे से मरते हैं।

बजता रहता है भीतर एक तानपूरा सा
सुर नहीं मिलाते क्यूं इतना शोर करते हैं।

देखें तुम भी कितने हो और कितना मारोगे
देखें हम भी कितने हैं हम भी कितने मरते हैं।

आईनों से कितने और अक़्स मांगें अपने हम
आओ अब तो जैसे हैं वैसे ही उभरते हैं।

आसमान काला और इस कदर है ज़हरीला
उड़ के थोड़ा सा पंछी अपने पर कतरते हैं।

सच के हाथ क्या आया बेवफ़ाई मायूसी
न्याय कर नहीं पाये आप जज बशर्ते हैं।

 ग़ज़ल -5
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वो सुना है ज़हीन है, हां है
फिर भी वो नुक़्ताचीन है? हां है।

आख़िरश दिलख़राश निकली, हां
अब भी वो दिलनशीन है? हां है।

अब भी है ऐतबार ख़ुद ने? नहीं
अच्छा उस पर यक़ीन है? हां है।

पड़ गये काले गड्ढे आंख तले
अब भी लेकिन हसीन है, हां है।

आसमां तो हुआ है मटमैला
आसमानी ज़मीन है? हां है।

देखते हैं कहां-कहां तक हम
फ़न कोई दूरबीन है? हां है।

लहजा दिलशाद का है ख़ूब मगर
क्या इशारा महीन है? हां है।


        - भवेश दिलशाद

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भवेश जी से कुछ सवाल -जवाब साहित्य की बाबत अनीता  मंडा के द्वारा 


प्र०....1 अपने जीवन के प्रारंभिक संघर्ष के बारे में कुछ बताइये?

उ०.....- बात है साहित्यिक जीवन की। शायद 14 बरस की उम्र की थ्ज्ञी जब काव्य और शायरी लिखने के प्रति रुझान हुआ। पढ़ना तो बचपन से ही था क्योंकि पिताश्री भी कवि थे। तो लिखना शुरू हुआ। ग़ज़ल ने शायद तभी आकर्षित कर लिया था। शुरुआत में ग़ज़ल को लेकर कम या भ्रामक जानकारियां हाथ लगीं। उनके हिसाब से कहा। तीन-चार साल बाद आदरणीय बशीर बद्र साहब से नियमित मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ। सबसे पहले यह पता चला कि पिछले कुछ सालों में जो लिखा है वो ग़ज़ल नहीं है। फॉर्म की तकनीक सीखने के लिए बशीर साहब के पीछे तीन-चार साल लगा रहा लेकिन वो उर्दू और मैं हिंदी बैकग्राउंड से थे इसलिए बहुत सी बातें मैं समझ नहीं सका, कुछ वो समझा नहीं सके।

फिर उस्ताद मरहूम स्वामी श्यामानंद जी से पहली मुलाकात हुई। उन्होंने मेरे ग़ज़ल के सफ़र को नयी और सही दिशा दी। बशीर साहब और स्वामीजी दोनों ने जब कह दिया कि 14 बरस की उम्र से अब तक जो मैंने लिखा वो ग़ज़लें नहीं थीं, तब एक दिन उन 300 रचनाओं को जला दिया और नये जोश के साथ आगे बढ़ा। 2002 में स्वामी जी ने दिलशाद नाम अता किया और अगले 12-13 सालों में उनसे बहुत कुछ सीखा। आज भी सीख रहा हूं।

प्र०.... 2 आपकी पढाई लिखाई कहाँ तक हुई?

उ०....- एमए तक। हिंदी में। पीएचडी करना चाहता था, लगभग आधी थीसिस लिख भी चुका था, ग़ज़ल पर ही लेकिन सही समझ और व्यवहार का गाइड न मिलने और पीएचडी करवाये जाने के कुचक्र को समझते ही इसका इरादा छोड़ दिया। वैसे पढ़ना तो अब भी जारी है, बस अब किसी परीक्षा के लिए नहीं पढ़ता हूं।


प्र०....3 ग़ज़ल  से क्यों और कैसे, कब जुड़ना हुआ?
यही विधा क्यों अपनाई?
उ०....- कुछ तो पहले कह चुका हूं, कुछ ऐसा है कि ग़ज़ल ने ही मुझे अपनाया। विधा बनकर नहीं बल्कि हस्ती बनकर। रग-रग में घुल गयी। सांस-सांस में रम गयी। अन्य विधाओं में कभी-कभी कुछ कहता हूं लेकिन वो कभी सार्वजनिक नहीं किया। मेरा इश्क़, मेरी जान ग़ज़ल ही है।

प्र०,,,,4 शायरी आपके लिए क्या है?
उ०....- शायरी मेरे लिए मेरी हस्ती है, मेरा वजूद है। अगर मुझमें से शायरी निकाल दें शायद मैं कुछ नहीं बचूंगा, कोई पहचान नहीं, कोई वजूद नहीं। एक फ़नकार की हैसियत से कहूं तो शायरी मेरे लिए आवाज़ है, जिसका कोई नाम या चेहरा नहीं बस आवाज़ है, बिना मज़हब की, बिना सरहद की... ये आवाज़ मेरे लिए ज़रूरी है, और मैं मानता हूं जो मेरे लिए ज़रूरी है, वो इस क़ायनात में बहुतों के लिए ज़रूरी है।

प्र०......5 पसंदीदा साहत्यिक व्यक्ति कौन-कौन?
उ०......- ये फेहरिस्त तो बहुत बड़ी है। बहुतों ने अपने समय को अपने शब्दों में बखूबी दर्ज किया है। बहुतों ने समय की सीमाओं से परे जाकर शब्द रचे हैं, वो सभी मेरे पसंदीदा हैं। कुछ नाम लेता हूं, लेकिन जो नाम नहीं ले रहा हूं वो भी उतने ही अज़ीज़ हैं - ख़ुसरो, कबीर, सूर, मीरा, गोरख, वारिस शाह, बुल्ला, मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, फ़िराक़, फ़ैज़, साहिर, अज्ञेय, मुक्तिबोध आदि-आदि।


प्र०....6 आगे क्या करना चाहते हैं साहित्य में?
उ०....- और बेहतर और बेहतर, और ज़रूरी, और कालजयी रचना चाहता हूं। कुछ योजनाएं हैं साहित्यिक सेवाओं के लिए। देखें क्या-क्या कर पाता हूं।


प्र०,,,,,7 ग़ज़ल में नवांकुरों को कोई सन्देश आपका?
उ०.....- बुज़ुर्ग नहीं हूं इसलिए इस तरह का सवाल बहुत जल्दी है फिर भी मुझसे करीब 15 साल जवान पीढ़ी साहित्य में आ रही है इसलिए पहली बात तो यही कि पढ़ना, सीखना कभी न छोड़ें बल्कि जल्दी सीखने की सलाहियत पैदा करें। दूसरी, बाज़ार और सत्ता के पैरोकार बिल्कुल न बनें। तीसरी, अपने आप को खोजने का हुनर तराशते रहें, बस अभी इतना ही।

प्र०......8 साहित्य में ग़ज़ल स्थिति पर विचार?
उ०..- साहित्य में बहुत सी धाराओं, विचारों, खेमों के लोग है। ग़ज़ल अपनी रवानी से जगह बना रही है। हर विधा की तरह इसमें भी बहुत कुछ ऐसा आ रहा है जो नहीं आना चाहिए। बावजूद इसके, ग़ज़ल के सामने बहुत चुनौतियां हैं। कई प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाएं, पत्रिकाएं ग़ज़लों को समुचित स्थान नहीं दे रही हैं। ग़ज़ल पर बहुत से इल्ज़ाम भी लगाये जा रहे हैं और एक वर्ग विशिष्ट ग़ज़ल के व्याकरण व शिल्प को लेकर नित नूतन शिगूफ़े पैदा कर रहा है। फिर भी, कुल मिलाकर अपनी चुनौतियों से जूझते हुए ग़ज़ल बहुत कुछ महत्वपूर्ण कह रही है और उसमें हर स्तर की बात कहने का हुनर है, मेरे ख़याल से। यह भी एक पहलू है कि बड़े-बड़े मंचों से गैर साहित्यिक व्यक्तित्वों द्वारा अपने वक्तव्यों में जितनी संख्या में शेर कोट किये जाते हैं, उतने किसी और विधा के अंश नहीं। मैं ग़ज़ल की सामर्थ्य, संभावना एवं भविष्य को लेकर तनिक भी सशंकित नहीं हूं।


प्र०......9 एक सवाल कुछ अलग सा
कई लोगों का कहना है कि ग़ज़ल ने इश्क़ मुहब्बत पर बहुत वक़्त बर्बाद कियाए अतः अब इस तरह की ग़ज़ल को बीते हुए समय की मान लेना चाहिए।
दूसरा वर्ग यह कहता है कि इश्क़ मुहब्ब्त के बिना ग़ज़ल भी रूखी और अरूचिकर हो जायेगी ।  जैसे अदम गोंडवी साहब की ग़ज़ल में समकालीन समस्याओं पर खूब लिखा गयाए लेकिन 5.7 ग़ज़ल पढ़ने के बाद कहन सामग्री की पुनरावर्ती होती मालूम होती है।
आपका क्या कहना है।
क्या समकालीन सामाजिक विद्रूपताओं को लिखना और समस्याओं को आवाज देना ही साहित्य है
उ......- पहले आख़िरी पंक्तियों पर बात करते हैं। सबसे पहले तो यह मान लें सबका अपना-अपना मानना है। संभवतः सभी सही भी हो सकते हैं। मेरा ख़याल यूं है केवल विद्रूपताओं या समस्याओं को ही बयान करना साहित्य नहीं है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य समाज और सत्ता के आगे चलने वाली मशाल की तरह है। साहित्य अगर रोशनी नहीं देता, राह नहीं दिखाता तो वह समस्याओं को बयान करे या किसी और बात को, वह सजग नहीं कहा जाएगा। इसी तरह द्विवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का आईना है। बहुत बातें हुईं, संवाद-प्रतिवाद भी हुए लेकिन इस वाक्य का अर्थ भी प्रेरित करना ही है। आईना आपको अगर कुरूप चेहरा दिखाये तो आपको उसे बदलने की प्रेरणा मिलना चाहिए।

कुल मिलाकर साहित्यकार को सजग और चैतन्य रहना चाहिए। अब बात ग़ज़ल की - देखिए ऐसा कहते हैं कि दुष्यंत ने ग़ज़ल को वो आवाज़ दी जिसमें समस्या या विद्रूपता या व्यंग्य प्रधान हो गया। इससे पहले भी ऐसा हुआ। दुष्यंत के बाद उनकी लकीर पर चलने वालों की भीड़ लग गयी। अदम गोंडवी को छोड़ दें तो उस लकीर पर कोई जनप्रिय नाम सामने नहीं आता। अदम के तेवरों को भी हम कुछ अलग कह सकते हैं। केवल वही उस लकीर को बड़ा करने में सफल रहे, बाकी तो वही लकीर पीटते दिखे।

ग़ज़ल का मौज़ूं कुछ भी हो, समाज, राजनीति, समस्या या इश्क़, दर्द और दिल, वह अपने निहित सृजन, संवेदना और दृष्टि के कारण ही स्थान बना पाता है। प्यार और दर्द सर्वकालिक विषय हैं इसलिए ये मौज़ूं पुराने नहीं हो सकते लेकिन इन पर इतनी बारीक़ी से इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब शायर कुछ कह रहे हैं तो बड़ी चुनौती का काम है कि कोई नयी या नये ढंग की बात पैदा कर सकें। बहुत कुछ रिपिटेशन होने के कारण यह कहा जाता है जो आपने कहा।

शायर का कनविक्शन और शायर का फ़न ग़ज़ल को बड़े मक़ाम पर ले जा सकते हैं, फिर वो किसी भी मौज़ूं पर हो। फिर भी, यह विषय बहुत बड़ा है, इसके कई पहलू हैं, जिन पर बहुत सी बातें की जा सकती हैं। फ़िलहाल इतना ही।

बहुत शुक्रिया।


प्र०,.....10आज आपकी रचनाएँ सा की बा पटल की शोभा बढ़ा रही हैं। सा की बा के बारे में क्या विचार हैं आपके ?

उ०.......-सबसे पहले तो मम्नून हूं सा की बा का कि मुझे इस तरह नवाज़ा। तरह तरह के समूहों के बीच इस समूह की विशिष्ट पहचान व छवि है। यहां संभवतः हर सदस्य के पास कुछ ग्रहण करने का मौका है, यदि वह सुपात्र है। मुझ जैसे कमअक़्ल और कमइल्म को तो बहुत कुछ मिलता रहता है, जानने समझने को। मेरे लिए एक अच्छा पहलू यह है कि यहां रहते हुए मैं ग़ज़ल के इलावा बहुत सी विधाओं के प्रासंगिक व समकालीन रचनाकर्म से रूबरू हो पाता हूं। बहुत से सार्थक विमर्शों का लाभ ले पाता हूं। अक्सर चुप रहता हूं इसकी वजह यही है कि मैं खुद को उस विमर्श के लायक नहीं समझता। लेकिन, यकीन मानें एक पाठक है जो सब कुछ पढ़ रहा है।

कुछ दिनों पहले माया मृग जी के रचनासंसार के साथ ही उनसे हुई बातचीत मेरे लिए इस पटल से जुड़े रहने का अतिरिक्त लाभ सिद्ध हुई। कथाओं, कविताओं के साथ ही मधु जी द्वारा प्रवर्तित बहसें भी काफी सारगर्भित सिद्ध होती रही हैं। साहित्यिक ऊर्जा का लगातार संचार करने वाले इस समूह के लिए मेरी जानिब से अशेष शुभकामनाएं और दुआ यही कि यह सिलसिला चलता रहे बिना विघ्न-बाधाओं के।
धन्यवाद।                                        
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वाट्स अप समूह साहित्य की बात , जिसके संचालक श्री ब्रज श्री वास्तव जी है  . वहाँ पोस्ट हुई भवेश दिलशाद    की गजलों पर पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियायें   
         
 Anita Manda: वाह !!  वाह !!  और वाह!!
इतने उम्दा अशआर पढ़ कर जबदस्ती वाह कहना नहीं पड़ रहा, खुद ब खुद वाह कहलवा रही है शायरी। बहुत पहुँचे हुए अशआर हैं, क्या सूफ़ियाना रंग है, आत्मा का परमात्मा से बिछोह ओर मिलन की प्यास वाह क्या खूबसूरत कहा है-
मंदिर नहीं मियां किसी पनघट का दो पता
सदियों के प्यासे लोग हैं भटकाओ मत हमें।
ईश से लगन में सूफियों की सत्संग की भूमिका पर और इससे बनी मन की हालत को बयाँ करता ये शेर कहन में कितना उम्दा है, उफ़्फ़्फ़ !!
ख़्वाहिशें सब ख़त्म ख़ाली दिल ख़ला हो जाएगा
सूफ़ियों से मत मिला कर बावरा हो जाएगा।
शायर की पहुँच बहुत दूर  तक है ।
कहन का नया अंदाज ओर जमीन लिए भवेश जी की ग़ज़लें सहजता से ध्यान खिंच लेती हैं।
साहित्य में वक्रोक्ति का अहम स्थान है, कोई बात सीधी साधी उतना असर नहीं रखती जितनी वक्रोक्ति में, और गज़ल में तो यह सबसे उम्दा अलंकार है, कहन में विरोधाभास बात की खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देता है।
तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समन्दर हूं प्यास होकर भी।
तमाम अहले-नज़र सिर्फ़ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखायी दिया सूरदास होकर भी।
आह !! सूरदास होकर भी दिखाई देना, क्या बात है।
दूसरी ग़ज़ल  की बात करें तो मतला ही कितना सुंदर कहा है, ' उसका सफ़र भी मंजिल लगता है'  सही ही तो है , जो मज़ा सफ़र में है मंजिल में कहाँ ?
एक नया प्रयोग यहाँ भी क्या खूब हुआ है-
"वो कहने को है इक शायर मगर नॉविल सा लगता है।"
तीसरी ग़ज़ल के बगावती तेवरों का क्या कहना।
कबीर याद आ जाते हैं पढ़ते पढ़ते।
"जवानी हुस्न शोख़ी लोच जलवे सब बहुत दिलक़श
मगर है कोई औरत इस जहां में मां से प्यारी क्या।"
औरत का सबसे खूबसूरत रूप है माँ, और उतना ही शानदार हुआ है शेर। इस पर मैं यूं कहती हूँ-
लिखा है खूबसूरत यूँ तो औरत को बहुत सबने
मगर ये बात पहले भी किसी ने ऐसे लिक्खी क्या?
चौथी गज़ल का आगाज़ ही बहुत बड़ी बात से हुआ है, कायदे से मरना माने जीने का सलीका आना, बहुत बड़ी बात है अपने आप में।
यूं तो ज़िंदगी भर हम बनते हैं संवरते हैं
कितने हैं जो आख़िर में क़ायदे से मरते हैं।
इसी गज़ल के एक शेर में छल छद्मों से दूर कितना बड़ा सच कहा है
आओ अब तो जैसे हैं वैसे ही उभरते हैं।
देश की न्याय कानून व्यवस्था पर एक व्यंग्य खूब हुआ है इस शेर में
सच के हाथ क्या आया बेवफ़ाई मायूसी
न्याय कर नहीं पाये आप जज बशर्ते हैं।
पाँचवीं गज़ल बिलकुल अलग तरह के रदीफ़ के साथ है, इस तरह के रदीफ़ को निभाते हुए बड़ा शेर निकाल लेना कम चुनोती पूर्ण नहीं, पर कहना पड़ेगा भवेश जी इसे निभा गए, इसी ग़ज़ल के शेर से दाद देना चाहूँगी
लहजा दिलशाद का है ख़ूब मगर
क्या इशारा महीन है? हां है।

 Braj Shivastav: अनेक शेर, ऐसे हैं जिन्हें याद कर लेने का मन हो रहा है, बस यही ताकत है इन गजलों की. हमारी कामना है कि इनके मयार के मुताबिक इन्हें खूब विस्तार मिले. विजय वाते जी के पाठ में बहुत असर है, दूसरा पाठ भी दमदार है.                      

संध्या कुलकर्णी  भवेश की ग़ज़लों से शेरों से पुराना परिचय है ...इन्हें सामने बैठकर सुनने का आनंद भी इस नाचीज़ ने उठाया है इनकी ग़ज़ल की कहन का अलहदा और नया अंदाज़ है लेकिन ख़ास यूँ भी है कि ये उनकी पारंपरिक गढ़त को बरकरार रखते हैं और  दोनों भाषाओं की नाज़ुक शब्दावली का सुनियोजित प्रयोग करते हैं ।अभी एक ग़ज़ल जो पहले कभी fb पर साझा की थी और बहुत बढ़िया लगी थी पेश है ----
ना करीब आ ना तू दूर जा ,जो भी फासला है ये ठीक है
ना गुज़र हदों से ,न हद बता ,ये जो दायरा है वो ठीक है !

न तो आशना ,न ही अजनबी ,ना कोई बदन है न रूह ही ,
यही ज़िंदगी का है फलसफा ,ये जो फलसफा हैये ठीक है !

ये ज़रूरतों का ही रिश्ता है ,ये ज़रूरी रिश्ता तो है नहीं,
ये ज़रूरतें ही ज़रूरी हैं , ये जो वास्ता है ये ठीक है !

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या ,तेरी उलझनों से  मुझे है क्या ,
ये तकल्लुफ़ात से मिलने का, जो   सिलसिला है ये  ठीक है !

हम अलग अलग हुये हैं मगर , अभी कपकपाती है ये नज़र ,
अभी अपने बीच है काफी कुछ ,जो भी रह गया है ये ठीक है !

मेरी फ़ितरतों मे ही कुफ्र है ,मेरी आदतों मे उज्र है ,
बिना सोचे मैं कहूँ किस तरह ,जो लिखा हुआ है ये ठीक है !


Akhilesh: देखते हैं कहां-कहां तक हम
फ़न कोई दूरबीन है? हां है।
फ़न दूरबीन है..वाह
भवेश के पास दृष्टि है वो इस दूरबीन का प्रयोग बखूबी कर पायेंगे ।इस कम्बिनेशन का वितान बहुत दूर तक है ।
बड़ी शागिर्दी से आती है ऐसी शायरी ।                      

श्रद्धा : भवेश दिलशाद जी का लहजा..हाँ है बेहद खूबसूरत .  

Rekha Dube: वाह,भवेश भाई अति सुंदर अशआर

चंद्रशेखर जी ..वाह वाह भवेश जी।
अपनी अलग शैली की शानदार ग़ज़लें,
एक से बढ़ कर एक शे'र..
मगर ये तो सबा-सेर है भाई
न मन्नत मांगते हैं अब न करते हैं दुआ कोई.......    
 निकल आये हैं हम दोनों बहुत आगे मुहब्बत में
बहुत बधाई आपको।
सुरेन जी आभार।


जतिन अरोरा.. गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुँह खुला रह जाएगा
उसे तन्हाई में सुनना भरी महफिल सा लगता है
आसमान काला और इस कदर है ज़हरीला
उड़ के थोड़ा सा पंछी अपने पर कतरते हैं
भवेश भाई कितनी लंबी खुखरी जिगर में उतार दिए.
न भारी भरकम शब्द
 न उलझन कोई
आम आदमी की कलम
बड़ी आसानी से सब शीशे में उतार दिया।
बहुत बहुत बधाई


सुधीर देश पाण्डे... जहेनशीन जहेनशीन भवेश।
तुम्हारी गजल है या कि है वो आग का शोला।
Jyotsana Pradeep: कभी - कभी कुछ पढ़कर लगता है आपका नसीब बहुत अच्छा है जो नायाब चीज़ आपको भी पढ़नें को मिली।
कमाल की  ग़ज़लें है !! एक अलग ही अंदाज़, लहज़ा और उस पर खूबसूरत बेबाकी..हर ग़ज़ल एक खूबसूरत  महल की तरह!!!
किस किस की तारीफ़ करूँ ...कुछ भी छूटा तो नाइंसाफी होगी..
भावेश  जी को बहुत - बहुत बधाई!
सुरेन जी का बहुत शुक्रिया
ऐसी पोस्ट को सलाम !!!!                      
Avinash Tivari: भवेश दिलशाद जी की छै शानदार गजलों का तोहफा आज.मिला।सभी बहुत अच्छीं एक से बढ़कर एक सुरीली हैं इन्होंने भीतर के तानपुरे को झनझना दिया है।संध्याजी ने भी एक गजल नरीब आ न दूर जा का जिक्र किया है भवेश जी से सस्वर पेश करने की गुजारिश है।आज का दिन खुशनुमा करने के लिये भवेश जी एडमिनजी संचालक जी सुरेन्द्र जी का शुक्रिया।👍👌💐🙏🎤                      

Uday Dholi: उस्तादाना कलाम है दिलशाद साहब का,बेहतरीन अश्आ़र से बज़्म रोशन हो गयी आज।
 वाह वाह 🙏🏻🌹🙏🏻🌹  
                  
राखी तिवारी : भावेश जी को बधाई.....
बेहतरीन गज़लो के लिए।
संचालन के लिए आभार, सुरेन जी।                      
 HarGovind Maithil Ji ...आज प्रस्तुत बेहतरीन गज़लों के लिए भावेश दिलशाद जी को बधाई और एडमिन  सुरेन जी का आभार ।

मीना शर्मा    एक शानदार शायर की उम्दा शाइरी के दिलफ़रेब अंदाज़ से रूबरू होना, यानि भवेश जी के रूबरू होना ।
बेहतरीन अन्दाज़े बयाँ, हर शेर पर वाह कहने का दिल करे.....*शहंशाहों ने बनवायी मुहब्बत में मज़ारें और
गरीबों ने वहाँबाँधे कई धागे मुहब्बत में *
दिलशाद जी को पढ़ना जैसे सीखना ग़ज़ल की महीन ,बारीकियाँ ।
मुबारकें......
चश्मेबद्दूर ।
शुक्रिया सुरैन जी , बेहतरीन प्रस्तुति के लिए| !

मनोज  जैन मधुर  ..साकीबा ने आज एक हीरे को प्रस्तुत किया है
भवेश जी मानसर के राज हंस हैं उनकी कहिन का मैं सदैव कायल रहा हूँ वे स्तर से समझौता नहीं करते वे अल्प और मीत भाषी है उनके स्वभाव का पता उनकी ग़ज़लें देती हैं।
भवेश जी के अनेक रूप इन प्रस्तुत ग़ज़लों में देखने को मिलते हैं कहीं दार्शनिक तो कहीं चिंतक एक बात और भवेश दाद की फ़िक्र नहीं करते उन्हें पढ़ने या सुनने के बाद उनके लिए दुआएं दिल से निकलती हैं।


Dinesh Mishra Ji: भवेश जी
बहुत उमदा ग़ज़लें
कई दिनों के बाद जैसे ताज़ा हवा का झोंका आया हो।
मुबारकबाद                      
 Komal Somrwaal: वाह भवेश जी की गजले एक से बढकर एक..👏🏼👏🏼👏🏼
खुद को बार बार पढने से नहीं रोक पा रही.. कुछ शेर तो वाकई इतने उम्दा है कि आने वाले समय में इन्ही के शेरों से हाजिर जवाबी की जायेगी..
गोलमजे जब उठेगी बात कर के प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
वाह वाह शानदार.. 👌🏻👌🏻
हर शेर का अंदाज ए बयां माशल्लाह.. अंतिम शेर खुद ब खुद सब कह जाता है..
लहजा दिलशाद का है खूब मगर
क्या इशारा महीन है? हाँ है..
बेशक है, बकायदा है..पटल हर रोज रचनाओं से सज्जित होता है किन्तु आज की बात तो कुछ और ही है..आपके गजल कहने के अंदाज और चीजों को देखने के नजरिये के हम कायल हुए.. बार बार हजारों बार आपको पढना चाहेंगे.. पटल का बहुत बहुत आभार.. 💐💐  
 गजलों में अर्थों की अभिगम्यता कितनी महत्वपूर्ण है??
क्या पाठक को अर्थ तक पहुँचने के लिए मेहनत करनी चाहिए?? यदि हाँ तो क्यूँ और नहीं तो भी क्यूँ??             भवेश जी आपसे जिज्ञासा का समाधान करने का अनुरोध 🙏🏼                      

Bhavesh Dilshaad: संप्रेषित होना साहित्य की हर विधा का कर्तव्य है। मेरा ख़याल है कि ग़ज़ल में तहदारी होती है, यानी जिसे हम अच्छी कहते हैं। एक सामान्य अर्थ के पीछे भी कुछ होता है, उसके लिए यानी between the lines के लिए पाठक को पहुंचना चाहिए। साहित्य प्रेमचंद के हिसाब से समाज व सत्ता के आगे चलने वाली मशाल है। रोशनी वही दिखाएगा जो ज़्यादा रोशन होगा। उस् ही दिखाएगा जिससे ज़्यादा रोशन है।          

आरती तिवारी...ग़ज़ल को समझना यूँ तो आसान नहीं,.इनकी तकनीकी समझ मुझे नहीं किन्तु दिलशाद भावेश की ग़ज़लें बहुत बारीकी से खुद बयां होती हैं,.वो सुना है ज़हीन है
 फिर भी वो नुक्ताचीन है👌🏼👌🏼इन ग़ज़लों में सूफ़ियाना अंदाज चुम्बक सा खेंचने की ताक़त रखता है। लगता है एक अरसा लगाया उनकी ग़ज़लों ने ये मुक़ाम हासिल करने में हर ग़ज़ल मुक़म्मल है👏🏼👏🏼 आफ़रीन🌹🌹😊
आरती तिवारी             
Manjusha Man: आज भवेश जी की ग़ज़लें पढ़ी बहुत ही अच्छी ग़ज़लें हैं, ऐसी की सीधी दिल में उतर जतिन हैं और जुबान पर चढ़ जातीं हैं। इन ग़जलों का खास कहन है जो प्रभावी है।
भवेश जी को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई                      
सईद अय्यूब ...आपके अ'शार और ग़ज़लों के बारे में क्या कहूँ सिवाय इसके कि वे इतनी दिलफ़रेब और ख़ूबसूरत हैं कि मुझपर अब यह लाज़िम है कि मैं एक दिन उन्हें चुराकर अपने नाम से शाया करवा लूँ। 😊😊 
मैं ख़ुशनसीब हूँ कि हमारे अहद में शायरी की बागडोर आप जैसे शायर के हाथों में है।

 मधु सक्सेना ...मैं ग़ज़ल के बारे में कुछ नहीं जानती ।आपकी ग़ज़लें पढ़ कर यूँ लगा मानो कोई अनजान अचानक आत्मीय बन कर मेरे साथ चल पड़ा ..
शब्दों और भावों का कारवां मेरे जेहन में बस गया  और मैं सोचती रही यूं भी लिखा जा सकता है ? कितने नज़दीक से जीवन को देखा होगा और उसे समझा होगा आपने, आज समझ आ रहा ।
आपके द्वारा आपकी रचनाएँ नष्ट करने वाली बात मुझे पता थी तब से ही सोचती थी अब कहन कितनी दृढ़ता आ गई होगी । बहुत दिनों से इच्छा थी आपको पढ़ने की अब रूबरू सुनना भी चाहती हूँ ।
18 जनवरी से 24तक भोपाल में हूँ ।आपका कोई कार्यक्रम हो तो बताइयेगा ।
आज आपकी ग़ज़लों में कबीर, खुसरो ग़ालिब आदि सभी आ गए हो मानो ।
एक एक शेर वज़नदार और दिलकश ।
सहज भाषा में इतना सुंदर लेखन आसान तो नहीं पर आपने मुमकिन कर दिखाया ।बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।

आभार सुरेन ।
               

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