Saturday, June 30, 2018


संजीव जैन की प्रेम कविताएँ




संजीव जैन 




 मैं और मेरा लिखना

लेखन एक संघर्ष है। हम अपनी ही जड़ता के खिलाफ जब लगातार संघर्ष करते हैं तो एक सच्ची कविता कहानी बनती है। इसके बाद जब हम जड़ हो चुकी भाषा और चुक चुके शब्दों से संघर्ष करते हैं तब वह रचना जीवंत और मूर्त्त रूप लेती है। चूंकि लेखन मुझे गति देता है और गति हमेशा जड़ता के खिलाफ होती है।
लेखन हमारी चेतना में रची-बसी मूढ़ताओं को, विकृतियों को, अंधत्व को यदि नहीं तोड़ता है तो वह मुक्तिदायी लेखन नहीं हो सकता। 
प्रेम मुझे मुक्त करता है हर कविता के साथ कुछ न कुछ जड़ता को तोड़ देता है, समाज और सत्ता के द्वारा रोपित अंधत्व के कुहासे को पिघला कर मेरी चेतना को निरभ्र बनाता है इसलिए मैं प्रेम कविताएं लिखता हूं।
प्रेम अभौतिक नहीं होता और  भौतिक होने का मतलब मांसल होना ही नहीं होता। प्रेम का सिर्फ रूहानी रूप उसे जीवन विहीन बना देता है और दैहिकता उसे वासना के दल-दल में धकेल देती है।




प्रेम-
एक

बरगद जितना फैलता है बाहर
अपनी जटाओं के साथ
तनों से लटकती जटायें
शिव की तपस्या की तरह लंबी
पार्वती की साधना की तरह
गहरी………
हिमालय के विस्तार की तरह
असीम…..
प्रेम के अगाध विस्तार
का प्रतीक बरगद
अपनी गहरी और उलझी जड़ों को
मिट्टी की गहराई और फैलाव
के रेशे रेशे में
संवेदना की तरह
रखता है ……..
देता है छांव उपेक्षित जीवन को
संवेदनाओं के पक्षी बनाते हैं घोंसला
करते हैं, प्रजनन अपनी संभावनाओं का
प्रेम इस तरह
देता है जीवन
फैलता है…
जीवन की जड़ों में
मिट्टी के भरोसे पर उठता है आसमान की ओर
फैलाता है अपनी शाखाओं प्रशाखाओं को
मिट्टी से रिश्ता तोड़ते संसार के
सामने……...।




 प्रेम-
 दो

आकाश का अनंत विस्तार
गहराई और सतह के बिना महसूस करना
कितना अद्भूत होता है
समय और दूरियों के हमारे पैमाने
नहीं चलते हैं…….
संसार के बीच इंसान का होना
आकाश गंगा में एक तारे
की मौजूदगी……
पर प्रेम की आकाशगंगा
मन के आकाश में
भरती है दूधियारंग
आकाश के गहन अंधेरों को
नहलाती है उजलेपन से
कभी न खत्म होनेवाले
दूधिया प्रकाश से भर देती है
जीवन के अभावों की खाली माँग…
मेरे जीवन को
इस तरह सुहागन बनाकर
तुमने भर दिया है
जीवन को आकाशगंगाओं से..।



                           







प्रेम -
 तीन

हिम का शीतलपन
फैला हुआ है…
ग्लेशियरों की अतल गहराई में
सदियों से
ठंडे पहाड़ों की सतह पर….
इसी तरह
समय ने समाज की आंतरिकता में
और व्यक्ति की चेतना की सतह पर
जमा दी है परत
शीतलता की…….
भयानक शीतलता…..
हड्डियों को गला दे…..
रक्त को जमा दे
संवेदनायें ग्लेशियर की तरह
शिराओं में जम गयीं हैं……
संबंधों पर छा गया है
ठंडापन कडवाहट की हद तक
प्रेम की ऊर्जा
पर्वत में उबलते लावे की तरह
पिघला देती है
सदियों की जमी बर्फ को
इंसानी गर्माहट से भर जाता है जीवन
रोओं से उठी सनसनाहट
शिराओं में जमे रक्त को
दौडने को करती है विवश
इस तरह तुम्हारी छुअन
कराती है अहसास
आदम के द्वारा
हब्बा को किये
प्रथम स्पर्श का...
प्रेम के प्रथम अंकुरण का….।




तुम -

एक

तुम्हारी मुस्कान
मेरे लिये
एक तूफान की तरह है
जो मेरे अंदर की
तमाम बैचेनी
व्यर्थता
और वेदना को
तिनके की तरह
ले जाती है
पहाड़ की दूसरी
ओर……..
तुम जब
देती हो आवाज
मेरी चेतना में
प्रतिध्वनि का खुला आसमां
गूंज उठता है
मेरी देह के शब्दकोश में
संवेदनाओं की तरंगें
लहरों की तरह
उठने लगती हैं….!
तुम जब
आती हो
मेरे करीब
जीवन के पर्यावरण का
‘घना कोहरा’
छंटने लगता है
एक उजला
झकास
दिन
खिल उठता है
मेरी
दलदल से भरी अनुभूतियों
के बीच
तुम्हारी सांसों की
सरगम
रेगिस्तान सी फैली
मेरी रिक्तता में
तरलता के संगीत का नखलिस्तान
बना देती है…….!!!
तुम्हारी देह की सोंधी गंध
कस्तूरी की तरह
फैल जाती है
मेरे मन के जंगल में
और इस तरह
तुम
दैहिक चेतना के साथ
समा जाती हो
मेरे वजूद में।









तुम -

 दो

तुम्हारी
‘देह’
एक ‘देह मात्र’ नहीं है
आकाश की
तरह खुली है
जिसमें उड़ान भरना तो आसान है
पर उसके विस्तार को
पा सकना असंभव
और
समुद्र की तरह गहरी
जिसमें तैरना
आसान नहीं
और गहराई तक पहुँचने के लिये
गहरी और बहुत लंबी
जीवन सांसों की जरूरत होती है ।
तुम्हारी देह
मलयानिल की तरह
प्रवाहित होती है
मेरी चेतना में
जिसे मैं हर वक्त
महसूस करता हूँ
पुलकित होते
रोम रोम से।





तुम - 

तीन

मेरी
देह की भाषा
तुम्हारी देह के
भूगोल से
लेती है
आकार
तमाम ‘शब्द’ बने हैं
दैहिक भूगोल के साथ
मेरे संबंधों से
हर स्पर्श एक ध्वनि की तरह
उठता है मेरी चेतना में
और होंठों तक आते आते
बन जाता है एक
वाक्य “………………’
जिसे ‘मैं’
बोलना चाहता हूँ
कब से.........
तुम्हारे इतने नजदीक से
जिसे सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारी देह रूपी वीणा के
तार ही महसूस कर सकें
तुम्हारे श्रवण यंत्र भी
सुनने में हों असमर्थ
और ईश्वर तो
बहुत कोशिशों के बाद भी
न सुन सके
कि मैंने किस भाषा में
कहा है तुम से
‘वह एक वाक्य’
जिसे मैं ‘सदियों’ से कहने के लिये
उगता रहा
उस मिट्टी की तलाश में
जिस मिट्टी से बनती रही तुम्हारी देह।









तुम - 

चार

तुम
बनाती रहीं
घर ……..
बुनती रहीं दूसरों का जीवन
अपनी संवेदनाओं की सलाइयों से
रिश्तों के धागे
टूटते बिखरते रहे
तुम हर बार उनका सिरा ढूंढती रहीं
कभी नहीं पड़ने दी गांठ
हर बार नये तरीके से बुना जीवन को
फिर भी
छूटता रहा जीवन
तुम्हारी अंगुलियों में पड़ी हुई गांठें
हाथेलियों के छाले
ऐड़ियों की दरारें
पीठ की खरोंचें
मन के छाले कभी नहीं देखे गये
कभी नहीं जाना गया
कि ये कैसे हुए
कभी जब हुआ इनका स्पर्श तो
कहा गया कि “क्या मजदूरों जैसे हाथ” हैं
नरमाई तो है ही नहीं छूने में
और तुमने
हाथों को नरम बनाना कर दिया शुरू….
ताकि इनका स्पर्श उन्हें
“अच्छा” लगे……
तुम
कतरा कतरा, किरचें किरचें
बनती रहीं, बिखरती रहीं
फिर स्वयं को समेट कर
कर देतीं रहीं प्रस्तुत
ताकि वे न जान सकें कि
उनके सुख का साधन
किरचों में बदल चुका है…...
बदलता रहता है जीवन
तुम्हारा
सूखे खेत की तरह
तुमने कभी नहीं कहा
सावन से कि
मुझे हमेशा चाहिए तुम्हारा बरसना
दरकती हुई मिट्टी की तरह
जीवन का सृजन करती रहीं तुम
बिना गिले-शिकवे
और शिकायत।





तुम -

 पांच

‘तुम्हारे
आगोश की गंध से
गंधाती रही
उम्र भर
मेरी देह
जीवन की मूल्यवत्ता के लिए
बस
इतना ही काफी था
कि तुमने
अपने अस्तित्व को चुनौती देते हुए
मेरी चेतना को
प्रेम की सोंधी-सोंधी गंध से
भर दिया….
तुम्हारा इस तरह
मुझमें समा जाना
मुझे अपने वजूद में
मिला कर
मेरी अस्मिता को
नयी पहचान से भर देना
अद्भुत था…...
ईश्वरीय सत्ता के लिये
एक चुनौती बना
चेतना और गंध का यह सम्मिश्रण
तेल और पानी के सम्मिश्रण की तरह
सुबह और शाम के मिलन की तरह
असंभव संभावना को
कर दिया संभव
तुमने।









तुम - 

छह

तुम सुनो!!!
कानों से नहीं
सिहरन से
कंपन से
रोओं के खड़े होने से
सरसराती हुई लहर के
चलने से उठी
नि:शब्द ध्वनि को
जो हर वक्त तुम से
कुछ कहना चाहती है
कभी सुनो अपनी देह की आवाज
देह की धुन को
धड़कनों की लय को
अगर नहीं सुनोगे
तो पखावज की तरह बजने लगेगी
देह की वीणा
ये बेआवाज बजने वाली धुनें
तुम से कहतीं हैं
बहुत कुछ
तुम करती हो लगातार अनसुनी
पेट जब कुलबुलाता है
तो सुन ली जाती है
उसकी आवाज
पर दिल और देह जब
कुनमुनाती हैं तो
अनसुनी की जाती है उनकी कुनमुनाहट
तब देह लगातार होती है
उपेक्षित
जंग लगने लगती है
अंगुलियों के स्पर्श से
उठने वाले सिहरन भरे संगीत में
देह रूपी सितार के स्वरों में
दौड़ते हुए
संगीत में
इसलिए
सुन ही लेना चाहिए
देह तंतुओं से उठी हर
आवाज को।



तुम -

 सात

तुम
एक विदेह
की तरह हो
जिसे मैं महसूस करता हूं
अपने आसपास
अमूर्त वैक्रियक* देह की तरह
हवा के प्रत्येक स्पर्श में
तुम ही तो
लिपट जाती हो
मुझसे
रात रानी, वेला के फूलों की
महक के साथ
तुम्हारी देह की गंध ही तो
करती है प्रवेश मेरे अस्तित्व में
शरद की पूर्णिमा को जब में
खुले आसमां के नीचे
तुम्हें कर रहा होता हूं
महसूस
तुम्हारा विदेह होना
ओस की बूंदों की तरह
बरसता है
और बर्फ के छोनों की तरह
पसर जाता है मेरी देह पर
चुपचाप…..
तुम्हारा विदेह होना
मेरी चेतना के रेगिस्तान पर
ठंडी हवा की तरह बहना है
गर्म रेत की तलहटी में
चुपचाप सोती हुई नमी की तरह है
जीवन के अंकुरण
की प्रक्रिया है…….
तुम्हारा होना।

*वैक्रियक शब्द जैन दर्शन में एक ऐसी देह के लिये प्रयोग किया जाता है जो भौतिक है पर बाधित नहीं है किसी भी भौतिक वस्तु से। वह एक सूक्ष्म शरीर होता है जो कहीं भी कभी आ जा सकता है।



                    संजीव जैन

2 comments:

  1. Heartiest congratulations Sanjiv ji. you have unfolded masterpieces. The expression is undeniably convincing and encompassing. Best of journey ahead and wishing many more to evolve.

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