Wednesday, October 26, 2016

 ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चहिये


जब ऐसी सोच की स्याही कलम में हो तो साधारण नहीं असाधारण लिखा जाता है |जन चेतना  की अलख जगाने वाले जनकवि गोरख पाण्डे आज हमारे बीच नहीं है ,लेकिन उनकी लिखी गई कविताएं उनकी सोच को ,संवेदना को, आक्रोश को उसी तरह बयां कर रही है जैसे उनके होने पर उनके शब्द चीत्कार करके सुनने वाले को बैचेन कर देते थे |उनकी कविताओं में  सत्ता को ललकारने की  माद्दा है ,जन आंदोलनों में उनके गीतों की लय  है |
वाट्स अप के साहित्यिक समूह
"साहित्य की बात " जिसके व्यवस्थापक श्री ब्रज श्रीवास्तव है ,पर विरासत प्रस्तुति के अन्तर्गत  सुरेन सिंह ने गोरख पाण्डे की कवितायें ,गीत और ग़ज़ल प्रस्तुत की |जागरूक पाठको ने न सिर्फ प्रस्तुत पोस्ट पर बात की बल्कि गोरख पाण्डे के जीवन से जुड़े कई पहलुओं पर भी विस्तृत चर्चा की और उनकी अन्य कविताओं से समूह को  गुलज़ार कर दिया |

रचना प्रवेश पर सपूर्ण विवरण के साथ पंकज दीक्षित के कविता पोस्टर भी है |






साहित्य की बात 
1945 में उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में जन्मे गोरख पांडेय ने अपनी कविताओं और गीतों के जरिए हिन्‍दी साहित्य के साथ ही आम जनमानस में एक विशिष्ट जगह बनाई  । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्‍दी के वह इकलौते कवि हैं, जिनकी रचनाएं सच्चे अर्थों में लोकगीत की तरह पूरे उत्तर भारत में प्रचलित हुईं और जल्द ही अन्य भाषा-भाषी प्रांतों में भी जनांदोलनों में उनके गीत सुनाई देने लगे।


ज्ञानरंजन कहते है कि --  सातवें दशक के उत्तरार्ध में भयावह सामाजिक परिस्थितियों, राजसत्ता की असफलताओं और क्रूरताओं के प्रतिरोध में उभरी लड़ाईयों ने जब देश की चेतना को गुणात्मक स्तर पर बदलना शुरू किया तो एक और तरह की कविता की जरूरत पैदा हुई। इस कथन के आलोक में हम देखते है कि गोरख पांडेय उस एक और तरह की कविता की जरूरत को पूरा करने वाले आलोक धन्वा और कुमार विकल के साथ के कवि है ।
वह क्रन्तिकारी और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित जनकवि थे। उन्होंने हिंदी और भोजपुरी में अपनी कवितायें और गीत लिखे। उनकी कविताओं में समाज के गरीब मजदूर और किसानों पर हो रहा उत्पीड़न ,सम्वेदना और आक्रोश  पाठक को झकझोरने का माद्दा रखता है ।


शमशेर बहादुर  कहते है  क़ि कविता क़ी सबसे बड़ी ताकत उसका लोकगीत बन जाना होता है, और गोरख, उस मुकाम तक पहुंचने वाले कवि हैं । उनकी कविता में हम देखेंगे कि वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर एवं  भाव और बोध, संवेदना और विचार, अर्थवत्ता और प्रासंगिकता, समकालीन और कालजयी क़ी द्वंद्वात्मक एकता को अपनी कविता में घटित करते हैं ।


आम किसान, मज़दूर, छात्र, स्त्री और दलित समाज की जीवन-स्थितियों का जितना सांद्र, मार्मिक और प्रभावशाली चित्रण उन्होंने किया है ,वह उल्लेखनीय है । कला और आन्दोलनधर्मिता, दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरनेवाली अनेक श्रेष्ठ और अविस्मरणीय रचनाएँ उन्होंने संभव कीं।


संक्षिप्त परिचय
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जन्म  --  1945, देवरिया, उ0 प्र0

भाषा --   हिंदी , भोजपुरी

विधाएँ --  कविता, वैचारिक लेख, नाटक

प्रमुख कृतियाँ --

कविता  -- भोजपुरी के नौ गीत, जागते रहो सोने वालो, स्वर्ग से बिदाई, समय का पहिया, लोहा गरम हो गया है
 वैचारिक गद्य -- धर्म की मार्क्सवादी व्याख्या

निधन -- 29 जनवरी 1989

विशेष -- सन 1985 में जन संस्कृति मंच की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और वे उसके संस्थापक महासचिव चुने गए।



अपने  काव्य कर्म के बारे में स्वयं गोरख पांडेयका कहना था कि ---

 “सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है. व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं. व्यक्तिगत समस्याएं जहां तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं. अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके”। 


उनकी डायरीका एक अंश प्रस्तुत है ---- 
कविता और प्रेम - दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है. प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ. क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ-
::
इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ. कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं. हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं.
(6/3/1976 डायरी)


गोरख पाण्डे स्किजोफ़्रेनिया के मरीज रहे थे और इसी बीमारी के चलते रहते उन्होंने आत्महत्या कर ली थी । आलोचक नामवर सिंह ने शोक जताते हुए उन्हें ‘हिंदी का लोर्का’ कहा था। व्यक्ति और आंदोलन- दोनों को सम्‍बोधित करने की दृष्टि से उनकी कविताएं अद्भुत हैं।कहा जाता है कि अलगावों में पड़े हुए लोगों को उनकी कविता जोड़ती है ।



तो आइये साथियों ,गोरख पांडेय जी के काव्य कर्म को याद करते हुए , आज प्रस्तुत कुछ प्रतिनिधि रचनाओं के माध्यम से चर्चा करते है ।
          ------- सुरेन

🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰


बंद खिड़कियों से टकराकर
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

नई बहू है, घर क़ी लक्ष्मी है
इनके सपनों क़ी रानी है
कुल क़ी इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

कानूनन सामान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों क़ी नजरों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चहिये प्यार
चहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना?

घर घर में श्मसान घाट है
घर घर में फांसी घर है घर घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं.



कैथर कला की औरतें
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

 तीज – ब्रत रखती धन पिसान करती थीं

गरीब की बीबी

गाँव भर की भाभी होती थीं

कैथर कला की औरतें

गली – मार खून पीकर सहती थीं

काला अक्षर

भैंस बराबर समझती थीं

लाल पगड़ी देखकर घर में

छिप जाती थीं

चूड़ियाँ पहनती थीं

होंठ सी कर रहती थीं

कैथर कला की औरतें

जुल्म बढ़ रहा था

गरीब – गुरबा एकजुट हो रहे थे

बगावत की लहर आ गई थी

इसी बीच एक दिन

नक्सलियों की धड – पकड़ करने आई

पुलिस से भीड़ गईं

कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ?

इतनी सीढ़ी थीं गऊ जैसी

इस कदर अबला थीं

कैसे बंदूकें छीन लीं

पुलिस को भगा दिया कैसे ?

क्या से क्या हो गईं

कैथर कला की औरतें ?

यह तो बगावत है

राम – राम , घोर कलिजुग आ गया

औरत और लड़ाई ?

उसी देश में जहाँ भरी सभा में

द्रौपदी का चीर खींच लिया गया

सारे महारथी चुप रहे

उसी देश में

मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?

खैर , यह जो अभी – अभी

कैथर कला में छोटा सा महाभारत

लड़ा गया और जिसमे

गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा

मिला कर

लड़ी थीं कैथर कला की औरतें

इसे याद रखें

वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं

और वे भी

जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों

इसे याद रखें

क्योंकि आने वाले समय में

जब किसी पर जोर – जबरदस्ती नहीं

की जा सकेगी

और जब सब लोग आज़ाद होंगे

और खुशहाल

तब सम्मानित

किया जायेगा जिन्हें

स्वतंत्रता की ओर से

उनकी पहली कतार में

होंगी

कैथर कला की औरतें.


नोट  -- सत्तर के दशक में बिहार में चल रहे क्रान्तिकारी किसान आंदोलनों के दौरान जब पुलिस द्वारा जमींदारों के पक्ष में गरीब किसानों पर जुल्म किये जा रहे थे और उनके आन्दोलन को हथियारों द्वारा बलपूर्वक दबाया जा रहा था, तब बिहार के कैथरकलां नामक जगह पर वहाँ की आम औरतों ने पुलिस के साथ उनके ही हथियार छीनकर हथियारबंद संघर्ष शुरू कर उन्हें मार भगाया। कैथर कलाँ के संघर्ष को सलाम करते हुए कवि गोरख ने ये कविता लिखी थी ।



समझदारों का गीत
🅾🅾🅾🅾🅾🅾


हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं

हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं

हम समझते हैं खून का मतलब

पैसे की कीमत हम समझते हैं

क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं

हम इतना समझते हैं

कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं

बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम

हम बोलने की आजादी का

मतलब समझते हैं

टुटपुँजिया नौकरी के लिए

आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं

मगर हम क्या कर सकते हैं

अगर बेरोजगारी अन्याय से

तेज दर से बढ़ रही है

हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के

खतरे समझते हैं

हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं

हम समझते हैं

हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह

सिर्फ कल्पना नहीं है

हम सरकार से दुखी रहते हैं

कि समझती क्यों नहीं

हम जनता से दुखी रहते हैं

कि भेड़ियाधँसान होती है

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं

हम समझते हैं

मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी

हम समझते हैं

यहाँ विरोध ही बाजिब कदम है

हम समझते हैं

हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं

हम समझते हैं

हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं

हर तर्क गोल-मटोल भाषा में

पेश करते हैं, हम समझते हैं

हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी

समझते हैं

वैसे हम अपने को किसी से कम

नहीं समझते हैं

हर स्याह को सफे़द और

सफेद को स्याह कर सकते हैं

हम चाय की प्यालियों में

तूफान खड़ा कर सकते हैं

करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं

अगर सरकार कमजोर हो

और जनता समझदार

लेकिन हम समझते हैं

कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं

हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं

यह भी हम समझते हैं।




उनका डर
🅾🅾🅾🅾

वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे



समाजवाद
🅾🅾🅾🅾

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई

गांधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई

कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई

महँगी ले आई, गरीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
( नवगीत )




कैसे अपने दिल को मनाऊँ
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

कैसे अपने दिल को मनाऊँ मैं कैसे कह दूँ तुझसे कि प्यार है
तू सितम की अपनी मिसाल है तेरी जीत में मेरी हार है

तू तो बाँध रखने का आदी है मेरी साँस-साँस आजादी है
मैं जमीं से उठता वो नगमा हूँ जो हवाओं में अब शुमार है

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर
यूँ जो पर्त-पर्त है जम गया किन्हीं फाइलों का गुबार है

इस गहरे होते अँधेरे में मुझे दूर से जो बुला रही
वो हसीं सितारों के जादू से भरी झिलमिलाती कतार है

ये रगों में दौड़ के थम गया अब उमड़नेवाला है आँख से
ये लहू है जुल्म के मारों का या फिर इन्कलाब का ज्वार है

वो जगह जहाँ पे दिमाग से दिलों तक है खंजर उतर गया
वो है बस्ती यारो खुदाओं की वहाँ इंसां हरदम शिकार है

कहीं स्याहियाँ, कहीं रौशनी, कहीं दोजखें, कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए मेरे पास सिर्फ नकार है
  (ग़ज़ल)

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प्रतिक्रियाएँ                      

                   
                   
Ghanshym Das Ji: आज प्रस्तुत कविताओं में कवि ने स्त्री की लाचारी तथा शक्ति , गरीब , सत्ता की निरंकुशता ,मध्यम वर्ग की विवशता , राजनैतिक दलों के खोखले वादों को बहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से प्रभावकारी रूप में व्यक्त किया है । उनका डर रचना तो बहुत ही शानदार है । जो बताती है जब तक डर बना रहता है सत्ता बनी रहती है डर के ख़त्म होते ही सत्ता का पतन शुरू हो जाता है । प्रस्तुतकर्ता सुरेन जी को विरासत में शानदार चयन के लिये धन्यवाद ।                      
                   
Naresh Agrawal : कविताएं सचमुच अच्छी हैं  इनके बारे में सोचते-सोचते मन को विराम नहीं मिल रहा है.👌👌                      
 Aanand Krishn: गोरख पांडेय का नाम पहली बार सुनीता शानू की एक कविता में पढ़ा था । फिर और तलाश किया, पढ़ा, गुना और ये शर्मिंदगी भी हुई की इतना महत्वपूर्ण कवि मुझसे कैसे नज़रअंदाज़ रह गया ।                      
 Mukesh Kumar Sinha: लाजवाब करती ग्रामीण परिदृश्य व स्त्री विमर्श  को दिखाती बेहद सुन्दर रचनाएँ ! हम नौसिखिये के लिए सीखने लायक है ! शुक्रिया सुरेन जी !                      
                      
 Chandrashekhar shrivastav : गोरख पाण्डेय को पहले कभी नहीं पढ़ा.. यहाँ प्रस्तुत सामाजिक चेतना पर उनके विचार और डायरी के अंश अद्भुत हैं
उनका डर बहुत प्रभाव छोड़ती है।
सुरेन जी के श्रम को सलाम।                      
 Bhavna Sinha: गोरख पाण्डेय को पहली बार पढ़ रही हूँ ।  स्त्री विमर्श पर अद्भुत कविताएँ ।
 डर कविता ने भी बहुत प्रभावित किया ।
प्रस्तुतकर्ता सुरेन जी को शानदार चयन के लिए  धन्यवाद।
Shaahnaaz: गोरख पांडेय हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिनके जीवन और रचनओं में अन्तर नहीं है उनका जितना मूल्यांकन होना चाहिए था उतना नहीं हुआ उनके जैसी संवेदना हिन्दी कविता में दुर्लभ है । गोरख पान्डेय की कविताओं में मेहनतकशों की आवाज़ सुनाई देती है उनकी कविताओं की कई पंक्तियाँ हमारी यादों का हिस्सा बन चुकी हैं । गुगल में बेशुमार कविता पोस्टर मिल जाते हैं ।
सुरेन्द्र जी आभार आपका बहुत बढ़िया कविताएँ साझा की और विरासत को धन्यवाद ।
गोरख पान्डेय की स्मृति को सलाम ।

दंगा
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुईं थी
ख़ून की बारिश 
अगले साल अच्छी 
होगी फ़सल 
मतदान की ।

गोरख पान्डेय                      
                                           
                     
 Sanjiv Jain :
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफ़रत
मैं तो सिर्फ़ 
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि 
आग भड़का रहा हूँ                      
                   
 Madhu Saksena: आदरणीय गोरख पाण्डेय की रचनाये चेतना के स्वर में बात करती हैं ।
पहली कविता में स्त्रियों की जकड़न की बात हो रही है ।व्यंग्यात्मक लहजे में नारी पीड़ा का सटीक चित्रण किया है ।
" हम सब अपराधी है " कह कर अपने को जागृत सिद्ध कर दिया ।आशा पूर्णा देवी ने भी अपनी कहानी में ये बात कही है कि  "किसी  भी अन्याय का जिम्मेदार पूरा समाज होता है।"

कैथर कला की औरतें से चिपको आंदोलन की औरतें याद आ गई ।राहबोहरे जी की भी यह कहानी है ऐसी ही ।स्त्री शक्ति का अंत नही जरूरत है एक बार उभरने की ।

समझदारों का गीत ..समाज के मुखोटे को निकाल कर फेंक दिया हो मानों ।हम भी तो यही करते है ।सब कुछ समझकर ना समझी का  नाटक पहचान लिया कवि ने ।बहुत बढ़िया कविता ।

उनका डर ...  बलशाली और सत्ता पर काबिज़ आदमी का डर । वहां से हटने का डर ।सबसे डरपोक है वो ।
शेष रचनाये भी अच्छी है ।पहली बार पढ़ा गोरख पाण्डेय जी को।
उनकी बीमारी और आत्महत्या से प्रश्न भी उठे ।क्यों ? दूसरों को राह दिखाने वाले खुद चल  दिए  ।ठीक नहीं लगा ।
आज की विरासत बहुत बढ़िया ।
आभार सुरेन ।                      
 Vivek Nirala: गोरख पाण्डेय हिन्दी के एक्टिविस्ट कवि थे। नक्सलबाड़ी की वह पीढी कविता की बेहद उर्वर पीढी थी जिसमें आलोक धन्वा, कुमार विकल, कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह, गोरख पाण्डेय और वीरेन डंगवाल थे। कैथर कलाँ की औरतें जैसी कविताएँ हिन्दी की उपलब्धि हैं। सचमुच, उनकी कविताओं के अंशों ने सूक्तियों का रूप धारण कर लिया मसलन, 'समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई'। गोरख पाण्डेय उस परम्परा के कवि हैं जो महज़ कलम से नहीं सड़कों पर आन्दोलनों से मनुष्य के पक्ष में लड़ाई लड़ते हैं। ऐसे कवि को नमन।                      
Sanjiv Jain :
समय का पहिया चले रे साथी 
समय का पहिया चले 
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन 
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से 
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से 
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर 
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से 
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले                      
                     
Arunesh Shukla: गोरख पाण्डेय की रचनाएँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं की मार्क्सवादी चेतना से लैस होने के बावजूद बौद्धिकता से आक्रांत नही करती।वो मार्क्सवाद को लेकर कमरे मे बैठ के सोचने वा लिखने वाले नही थे।सीधे लोक से जुड़ कर उसमे राजनैतिक चेतना लाने का प्रयास करने वाली jnu की उस धारा से तालुक रखते थे जो किसानों वा मजदूरो के बीच गयी।उनके साथ काम किया।इसलिए गोरख कविता मे लोक का इस्तेमाल खूब करते।जिसके लिए लिख रहे वो समझे इसलिए लोक भाषा की लय वा गीतात्मकता का सहारा लिया।भोजपुरी का असर साफ दिखता।खासकर भोजपुरी की लय का।यह जानते थे की समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई।और जहां से आना है कविता को वहां लेकर गए                      
Sayeed Ayub Delhi: गोरख को हीरावल पटना ने अद्भुत गाया है। आप लोग यू ट्यूब पर हीरावल गोरख पाण्डेय टाइप करके पा सकते  हैं। हीरावल ने बहुत से जनवादी कविताओं को स्वर देकर उसे जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है                      
 Sanjiv Jain :
 चैन की बाँसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप                      
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।

2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है।

3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी।

4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।

5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया।

6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह 
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है।

7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक।

8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है।

9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है।                        
                        
                   
 Akhilesh: देवरहवा बाबा के धरती के कवि गोरख पांडेय की भाषा उस माटी के अनुकूल ही है चौरी चौरा के कवि को पुश्तैनी अधिकार है विद्रोह के स्वर की अगुवाई करने का । सत्तर व अस्सी का दशक जनता के मोहभंग का दशक भी था ,इमरजेंसी की पीडा ने उसे और आग दे दी यह न भी होता तो गोरख की शैली शुरुआत से ही हा हूं वाली शैली नही थे वो सीधे जनता से संवाद करते थे और अक्सर सत्ता के प्रतिपक्ष मे ।इस काम के लिए जबर्दस्त संप्रेषणनीयता चाहिए थी जिसके लिए उन्होंने लोक के शब्द जो जबान पर तो थे पर कोश मे नही को खुल कर अपनाया । वैसे भी उनकी कविताओं को एडीडास के जूते पहनकर अकादमी का चक्कर तो लगाना नही था न ही उन्हें बात बात मे हे हे कर के सत्ता के मुह के आगे पीकदान रखने की महती जिम्मेदारी मिली थी सो उनकी कविताओं मे खट खट की आवाज आती है ये दर असल खढाऊं की आवाज है जिसे पहन ये कविताएं कभी किसानो के चौपाल मे घुस जाती है या फिर मजूरो के भेली पानी टाइम मै एक आवाज बन उभरती है जो शाम होते होते ठेकेदार के कान मे खट से टकराती है कि' बताव काहे नाही देब मजूरी लाट साहब ' ।
शरद जी ने उस दिन संप्रेषणनीयता पर बात की थी उस दिन मै गोरख जी  याद आ रहे थै ।
उस दिन न सही आज सही जन के बीच फैले कविताई वट वृक्ष को सलाम । मन कर रहा है इसी वृक्ष के नीचे   मै भी उगूं बरसाती मशरूम बनकर ।                      
Sandhya Kulkarni: समालोचन पर उनकी डायरी पढी थी तब भी बहुत बेचैनी हुई थी अबभी उनकी कवितायें निशब्द करती हैं ,एक श्रीज़ोफ्रेनिअक ही ऐसा लिख सकता है सामान्य आदमी शायद नहीं ।
जैसा जिया वैसा ही लिखा ये उनकी कविताएँ का सार है ।
बहुत अच्छी उद्वेलित करती हुईं कवितायें ।
                     
Dr Dipti Johri: गोरख पांडेय ने मेहनतकश जनता के संघर्ष और उनकी संस्कृति को उन्हीं की बोली और धुनों में पिरोकर वापस उन तक पहुंचाया । उन्होंने सत्ता की संस्कृति के प्रतिपक्ष में जनसंस्कृति को खड़ा किया था । जैसा कि प्रस्तावना में ज्ञान रंजन जी  के कथन के संदर्भ में कहा गया , कि उस माहौल में  गोरख पांडेय जैसा काव्य निकल कर आया ।

ये महत्वपूर्ण है कि कवि अपने माहौल को कितनी गहनता से पकड़ता है और फिर उसे रिफ्लेक्ट करता है और रिफ्लेक्शन भी ऐसा कि वो लोक का हिस्सा बन जाए । कुछ समय पहले किसी न्यूज़ चैनल पर पुण्य प्रसून वाजपेयी एक आंदोलन को रिपोर्ट कर रहे थे और बैक ग्राउंड में -- समाजवाद धीरे से आये बज रहा था जिसे वो भी गुनगुनाने लगे .. ये कविता की ताकत है जिसका अहसास जब यूँ होता है तो कवि के प्रति एक गहरा सा ग्रेटिट्यूड स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है ।

सभी प्रतिनिधि कविताएं बेहतरीन और कवि की रेंज को पकड़ने में सफल सिद्ध होती है । हाँ ,समझदारों का गीत  बहुत अच्छी लगी । सत्य को बयां करती एक एक पंक्ति ।समझदारों की hypocricy का पर्दाफाश करती ।                      
                     
 अपर्णा: ये कुछ प्रतिभाएँ विश्व भर में धूमकेतु की तरह कम समय में ही बहुत कुछ कह जाती हैं, कर जाती हैं। सिक्ज़ोफ्रिनिया भी और आत्महत्या भी कॉमन दिखता है। जैसे अपने भीतर और बाहर की दुनिया के बीच का सामंजस्य साध नहीं सके। ब्लैक और वाइट के बीच के सहूलियतों के ग्रे में जहाँ सब रहते हैं वो वहाँ नहीं रुकते।
ये कविताएँ सच और सरोकार से भरी हैं इसलिए ये लोक-गीत बन सकीं। ये जन की, जन के लिए, जन द्वारा बनी हैं।
कविताओं का चयन हमेशा की तरह बेहतरीन है। और आज इस कवि का चुनाव भी सामयिक है। संभवतः हमेशा ही रहेगा। ये स्वर अपनी प्रासंगिकता कभी नहीं खोते।
शुक्रिया सुरेन जी
शुक्रिया साहित्य की बात

टी वी पर 'मिसीसिपी बर्निंग' देख रही हूँ। अमेरिका में अश्वेतों पर हुए अत्याचार पर बनी कल्ट फ़िल्म है। गोरख पाण्डे की प्रासंगिकता सार्वभौमिक लग रही है।                      
 Akhilesh: कवि आत्म हत्या कर सकता है पर कई कविताओ को अमरत्व मिला होता है क्योंकि इन कविताओं का बास मष्तिक मे नही जन की नाभि मे होता है । गोरख बाबू की ऐसी ही एक कविता पढवाता हूं ।                      
 गण मन अधिनायक जय हे  !
जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेज़ी के गायक जय हे ! जन...
जय समाजवादी रंग वाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे ! जन...
जय हे ज़मींदार पूंजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतन्त्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे ! जन...
जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुन्दरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे ! जन...

गोरख पांडेय                        
                      
                 
 Dinesh Mishra Ji: गोरख पाण्डेय जी
की कविताएं पहली बार पढ़ी, बहुत अच्छी लगीं, बिलकुल compect और to the point, कहीं कुछ भी ग़ैरज़रूरी नहीं, और ज़रूरी कुछ छूटा नहीं, ये बहुत बड़ी ख़ासियत है।इन कविताओं को पढ़कर एक सुखद अहसास हुआ।   HarGovind Maithil: गोरख पाण्डेय जी को पहली बार पढ़ा ।
गरीब वर्ग, स्त्री विमर्श और ग्रामीण परिवेश की ,कविता के माध्यम से बहुत हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति है ।
आ. गोरख पाण्डेय जी को नमन ।
सुरेन जी का बहुत आभार ।💐💐🙏🙏                      
                     
 Alka Trivedi: वाकई क्रान्तिकारी कवितायें।आज के परिप्रेक्ष्य में कितनी प्रासंगिक                      
 Smita Tiwari: सुरेनजी,आप ने  गोरख पान्डेय जी की कविताओं की प्रस्तुत कीं -अभी पढीं,लोकगीत जनमानस का दर्पण,हर व्यक्ति का अपना व़जूद है,डर आदमी के  भीतर होता है,बाकी  सब ऊपरी तामझाम है,समाजवाद एक व्यवस्था है,प्यार अपने आप में निराला होता है,चुनाव पर कटाक्ष-ये निर्मम सच है....गोरख पान्डेय जी--अद्भुत रचनाएँ                      
 Naresh Agrawal : यह सच नहीं है मेरे भाई, मैं जो भी कह रहा हूं बहुत सोच-समझ कर कह रहा हूं ।आपमें एक बहुत ही अच्छा समीक्षक बनने की प्रतिभा है, लेकिन अपने भीतर घास की तरह उपज रहे या उपज चुके बचकानी  हरकतों को जड़ मूल से काट देना होगा, तभी आपको सफलता मिलेगी। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं । उम्मीद  है उम्र के साथ-साथ आपकी  समझ भी बढ़ती जाएगी।

                     
                 
 Sanjiv Jain  
गोरख पाण्डेय» स्वर्ग से बिदाई »
हत्या की ख़बर फैली हुई है
अख़बार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अख़बार पर ?
ख़ून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा ?                    
 Sayeed Ayub Delhi: आज पटल पर 'विरासत' के तहत गोरख पाण्डेय को पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। सबसे पहले तो सुरेन भाई को बधाइयाँ कि एक बार फिर से उन्होंने 'विरासत' को हम सबके लिये संजोने लायक़ बनाया है और एक बार फिर से मेरे एक पसंदीदा कवि को हम सबके सामने रखा है।

गोरख सच्चे अर्थों में जनवादी कवि थे। जनता के बीच रह कर, जनता के दुख दर्द के कारणों को समझ कर उन कारणों और उनसे निदान के क्रांतिकारी कवि। यूँ तो गोरख पर बहुत सी बातें होती रहती हैं पर गोरख पाण्डेय गोरख पाण्डेय कैसे बने, यह थोड़ा बहुत पता चल सकता है यदि हम गोरख के अभिन्न मित्र रहे प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा का दूसरा भाग 'मणिकर्णिका' पढ़ें। किस तरह से गोरख अपने छात्र जीवन में ही क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े, कैसे कई-कई बार, कई-कई दिनों तक भूमिगत रहे, कैसे उनकी मनः स्थिति आम जन की समस्याओं, मज़दूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों की दुर्दशा देख देख कर बेचैन हो जाने वाली हुई और कैसे उसी मनः स्थिति ने उनकी जान ले ली, इसका बहुत हद तक अंदाज़ा 'मणिकर्णिका' से हो जाता है। कहते हैं कि उनकी मौत (आत्महत्या) वियतनाम युद्ध की विभीषका और अपने कुछ न कर पाने की विवशता की उपज थी परंतु सच यह है कि गोरख अपने छात्र जीवन से ही क़तरा क़तरा मर रहे थे। थोड़ी-थोड़ी आत्महत्या कर रहे थे। उनकी आत्महत्या एक ऐसी आत्महत्या थी जिसे मैं किसी शहादत से कम नहीं मानता।

मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में से हूँ जिन्हें गोरख पाण्डेय के कुछ क़रीबी और कुछ उनसे जुड़े रहे मित्रों से मिलने एवं उनसे गोरख के बारे में बहुत कुछ सुनने-जानने को मिला है। उनके गीत ख़ास तौर से 'हिलेले झकझोर दुनिया...' अपने नाट्य समूह और दूसरे मित्रों के साथ मिलकर जगह-जगह गाने का अवसर मिला है और साथ ही साथ गोरख पाण्डेय के गाँव जाकर परिवार के सदस्यों एवं गाँव वालों से मिलने का अवसर मिला है। लेकिन यह बड़े दुख की बात है उनके गाँव के ही बहुत से लोगों को गोरख के बारे में ठीक से पता नहीं था न कवि के रूप में उनकी कोई पहचान वहाँ थी।

बीएचयू और फिर जेएनयू के छात्र रहे काॅमरेड  गोरख कम्युनिस्ट विचारधारा के उन कवियों में से थे/हैं जिन्होंने बंद कमरों में कविताएँ लिखने के बजाये सीधे आम लोगों के संघर्षों से जुड़ना और उसमें भागीदारी करना पसंद किया। इसलिये गोरख के गीतों एवं कविताओं की भाषा लोक की भाषा बन कर हमारे सामने आती है। उनके प्रतीक लोक के विभिन्न अंचलों से उठकर हमारे सामने आते हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि वही गोरख जब डायरी लिखते हैं या पत्र लिखते हैं तो उनकी भाषा अलग होती है। संभवतः ऐसा इसलिये है कि डायरी और पत्र उनके नितांत निजी जीवन के हिस्से हैं जबकि उनकी कविताएँ और गीत उसी जन का हिस्सा हैं जिसके लिये वे जी रहे थे, मर रहे थे और कविताएँ एवं गीत लिख रहे थे।                      
                                           
Vivek Nirala:
फिलिस्तीन
***
फिलिस्तीन
वे तबाह नहीं कर सकते
तुम्हें कभी भी
क्योंकि तुम्हारी टूटी आशाओं के बीच
सलीब पर चढ़े तुम्हारे भविष्य के बीच
तुम्हारी चुरा ली गयी हँसी के बीच
तुम्हारे बच्चे मुस्कुराते हैं
धवस्त घरों, मकानों और यातनाओं के बीच
ख़ून सनी दीवारों के बीच
ज़िन्दगी और मौत की थरथराहट के बीच।

==============================                   
 कला कला के लिए

कला कला के लिए हो
जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो

मजदूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ मेहनत
पूँजीपति हों मेहनत की जमा-पूँजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानी, जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
गुलाम हों
गुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फौज हो
फौज के लिए फिर युद्ध हो

फिलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए।                      
बंद खिड़कियों से टकरा कर

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अमीरों का कोरस
******
जो हैं गरीब उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं जरूरतें तो मुसीबतें कम हैं
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं


वे नंगे रहते हैं बड़े मजे में
वे भूखों रह लेते हैं बड़े मजे में
हमको कपड़ों पर और चाहिए कपड़े
खाते-खाते अपनी नाकों में दम है

वे कभी कभी कानून भंग करते हैं
पर भले लोग हैं, ईश्वर से डरते हैं
जिसमें श्रद्धा या निष्ठा नहीं बची है
वह पशुओं से भी नीचा और अधम है

अपनी श्रद्धा भी धर्म चलाने में है
अपनी निष्ठा तो लाभ कमाने में है
ईश्वर है तो शांति, व्यवस्था भी है
ईश्वर से कम कुछ भी विध्वंस परम है

करते हैं त्याग गरीब स्वर्ग जाएँगे
मिट्टी के तन से मुक्ति वहीं पाएँगे
हम जो अमीर हैं सुविधा के बंदी हैं
लालच से अपने बंधे हरेक कदम हैं

इतने दुख में हम जीते जैसे-तैसे
हम नहीं चाहते गरीब हों हम जैसे
लालच न करें, हिंसा पर कभी न उतरें
हिंसा करनी हो तो दंगे क्या कम हैं

जो गरीब हैं उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं मुसीबतें, अमन चैन हरदम है
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं 

 गोरख पाण्डेय 
==============================                  
 Meena Sharma:
शानदार, अय्यूब जी ! यही इंतज़ार था, कोई करीब से बताये ,गोरख पान्डेय जी के विषय में !
क्राँन्तिकारी कवि के जीवन का
दूसरा पृष्ठ दुखद पहलू के साथ ही समाप्त हुआ !
कई कविताएँ, संजीव जैन जी लेकर आए ! अखिलेश जी, सकल अमंगल दायक जय हे !जब तक वह जमीन पर था ...
फिलीस्तीन.........
खून सनी दीवारों के बीच
ज़िन्दगी और मौत की थरथराहटके बीच.....
और कला कल के लिए ...फिलहाल कला शुध्द बनी रहे !!
आधी दुनियाँ की फिक्र वाला कवि
सभी कविताएँ ,अमीरों का कोरस...
                   
Sanjiv Jain
बिल्कुल मामूली चीज़ें हैं
आग और पानी
मगर सोचो तो कितना
अजीब होता है
होना
आग और पानी का
जो विरोधी हैं फिर भी
मिलकर पहियों को गति देती हैं

मगर सोचो तो अन्धेरे में
चमकते ये हज़ारों हाथ हैं
इतिहास के पहियों को
आगे की ओर ठेलते हुए
इतिहास की क़िताबों में
इनका ज़िक्र न होना भी
सोचो तो कितना अजीब है

ऐसे ही
जो अनाज पैदा करते हैं
उन्हें भरपेट रोटी मिलनी चाहिए
जो कपड़े बुनते हैं
उनके पास कपड़े ज़रूर होने चाहिए
और प्यार उन्हें ज़रूर मिलना चाहिए
जो प्यार करते हैं
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि अनाज पैदा करने वालों को
दो जून रोटी नहीं मिलती
और अनाज पचा जाते हैं चूहे
और बिस्तरों पर पड़े रहने वाले लोग
बुनकर फटे चिथड़ों में रहते हैं
और सबसे अच्छे कपड़े प्लास्टिक की
मूर्त्तियाँ पहने होती हैं
ग़रीबी में प्यार भी नफ़रत करता है
जबकि पैसा
नफ़रत को भी प्यार में बदल देता है

सोचो तो सोचने को बहुत कुछ है
मगर सोचो तो यह भी कितना अजीब है
कि हम सोच सकते हैं
मसलन हम सोच सकते है कि
अगर कल-कारख़ाने मज़दूरों के ही
हाथ से चलते हैं
तो मज़दूरों को ही उनका मालिक
होना चाहिए
खेतों के मालिक खेत जोतने वाले
ही होने चाहिए
और पानी, ख़ून पीकर जीने वाली
जोकों के बिना भी बहता रह सकता है
आग झोपड़ों को जलाने के लिए
नहीं, बल्कि
ठण्ड से काँपते लोगों को गर्मी
पहुँचाने के लिए हो सकती है

सोचो तो सिर्फ़ सोचने से
कुछ नहीं होने जाने का
और करने को पड़े हैं ढेर सारे काम
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि बग़ैर सोचे भी
कुछ होने जाने का नहीं
जबकि
होते हो इसलिए सोचते हो ।                      
 गोरख पांडये 
=========================                     
Vivek Nirala: गोरख की डायरी का एक और अंश


एक बिल्कुल बेहूदा जीवन. पंगु, अकर्मण्य समाज विरोधी जीवन. क्या जगह बदल देने से कुछ काम कर सकूंगा ? मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं . तत्काल . मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं. कुछ भी कर न पा रहा . मुझे कोई छोटी मोटी सर्विस पकड़नी चाहिए. और नियमित लेखन करना चाहिए. यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है. मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस करनी चाहिए . मैं भयानक और घिनौने सपने देखता हूं . लगता है, पतन और निष्क्रियता की सीमा पर पहुंच गया हूं . विभाग, लंका, छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें . राजनीतिक मसखरी. हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है. लेकिन क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए ? जरूर कभी भी शुरू किया जा सकता है. दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए. मैं यहां से हटना चाहता हूं. बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं . मैं जड़ हो गया हूं, बेहूदा हो गया हूं. बकवास करता हूं . कविताएं भी ठीक से नहीं लिखता . किसी काम में ईमानदारी से लगता नहीं. यह कैसी बकवास जिंदगी है ? बताओ, क्या यही है वह जिंदगी जिसके लिए बचपन से ही तुम भागमभाग करते रहे हो ? तुमने समाज के लिए अभी तक क्या किया है ? जीने की कौन सी युक्ति तुम्हारे पास है ? बेशक, तुम्हे न पद और प्रतिष्ठा की तरफ़ कोई आकर्षण रहा है न अभी है. मगर यह इसीलिए तो कि ये इस व्यवस्था में शोषण की सीढ़ियां हैं ? तो इन्हें ढहाने की कोई कोशिश की है ? कुछ नहीं कुछ नहीं. बकवास खाली बकवास. खुद को पुनर्निर्मित करो. नये सिरे से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ.

मैं दोस्तों से अलग होता हूं
एक टूटी हुई पत्ती की तरह
खाई में गिरता हूं
मैं उनसे जुड़ा हूं
अब हजारो पत्तियों के बीच
एक हरी पत्ती की तरह
मुस्कुरा उठता हूं.

मेरे दोस्तो के हाथ में
हथकड़ियां
निशान मेरी कलाई पर
उभरते हैं
हथकड़ियां टूटती हैं
जासूस मेरी निगाहों में
झांकने से डरते हैं. 
==========================                      
Sanjiv Jain :
 तुमने बहुत सहा है

तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन
मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है
सात सुरों में पुकार रहा है प्यार
भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे ? 
हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।
(रचनाकाल : 1980) 
गोरख पाण्डेय 
===============================   
                  
Vivek Nirala: डायरी का एक और अंश

कितना गहरा डिप्रेशन है. लगता है मेरा मस्तिष्क किन्हीं सख्त पंजों द्वारा दबाकर छोटा और लहूलुहान कर दिया गया है. जड़ हो गया हूं. कुछ भी पढ़ने-लिखने, सुनने समझने की इच्छा ही नहीं होती. ठहाके बन्द हो गये हैं. सुबह इन्तजार करता रहा. कोई नहीं आया.
फ़ैज की कविता
 'तनहाई' -
फिर कोई आया दिलेजार ! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा.

मुझे शक हो रहा है कि मेरे देखने, सुनने, समझने की शक्ति गायब तो नहीं होती जा रही है.अगर मेरे पत्र के बाद उन्हें देखा, तो निश्चय ही वे सम्बन्धों को फिर कायम करना चाहते हैं. अगर नहीं, तो हो सकता है कि मैंने भ्रमवश किसी और को देखकर उन्हें समझ लिया हो. यह खत्म होने की, धीरे धीरे बेलौस बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बन्द कर देने वाले इन्तजार की सीमा कहां खत्म होती है ? क्या जिन्दगी प्रेम का लम्बा इन्तजार है ? अगर मैं रहस्यवादी होता तो आसानी से यह कह सकता था. लेकिन मैं देखता हूं, देख रहा हूं, कि बहुत से लोग प्रेम की परिस्थितियों में रह रहे हैं. अतः मुझे अपने व्यक्तिगत अभाव को सार्वभौम सत्य समझने का हक नहीं है. यह एक छोटे भ्रम से बड़े भ्रम की ओर बढ़ना माना जायेगा. मुझे प्रेम करने का हक नहीं है, मगर इन्तजार का हक है. स्वस्थ हो जाऊंगा, कल शायद खुलकर ठहाके लगा पाऊंगा.
                      
 Braj Shivastav: 🔴गोरख पांडेय की कविताएं पढ़ते हुए आश्चर्य होता रहा कि ,कैसे  स्पष्ट और कविता की शैली में क्रांति की बात करने वाले कवि, बाद बाद में अचर्चित से रहने लगते हैं ,मैं भी स्वीकारता हूं आज ही में विस्तारपूर्वक गोरख पांडेय की क्रांति धर्मिता को समझ सका हूं, जब सुरेन ,विवेक निराला ने और संजीव जैन ने ,और सईद अय्यूब जी ने, गोरख की कुछ कविताएं एवं उनसे जुड़े प्रसंग प्रस्तुत किये, वाकई मैं यह कह सकता हूं, कि हम लोग इन साहित्यिक समूहों में कुछ नया और काम का काम करते जाने में सफल होते जा रहे हैं बेशक विरासत नामक स्तंभ में हम किसी कवि को जानकर ना केवल समृद्ध होते हैं बल्कि कविता की शैली से जुड़ी हुई बातों को भी सीख जाते हैं ,आज जिन जिन लोगों ने यहां शिरकत की और टिप्पणी की उनके प्रति आभार के साथ आभार  उनके प्रति भी है जो पोस्ट को पढ़ तो रहे हैं और इस बहाने प्रस्तुतकर्ता को प्रोत्साहन दे रहे हैं सिलसिला चलता रहेगा !!आप लोगों का साथ जिंदाबाद हमारा साकीबा जिंदाबाद*..
                    
 Suren: अखिलेश भाई , मेरा प्रयास था कि कम से कम में कवि की रेंज को आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ । इसलिए में व्याप्त एक लोक भोजपुरी गीत , एक  ग़ज़ल  और चार कविताये जो कवि विचारधारा के विविध पक्ष उजागर कर सके को समाहित किया । निसन्देह जिस  कविता का आपने ज़िक्र किया वह काफी महत्वपूर्ण है ।                    
 भाई आनंद जी ,जहाँ तक मुझे लगता है ... दोनों कवि अपनी वैचारिकता में भिन्नता रखते है । जहां गोरख पांडेय नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में वाम विचारधारा के क्रांति पक्ष से उद्द्वेलित होकर लिखते थे वही धूमिल जी की वैचारिक प्रतिबद्धता वामपंथी नही थी । हाँ उन्हें कठोर यथार्थ वादी खा जा सकता है ।

दोनों की कविता में आवेग और आक्रोश तो समान दीखता है पर  उसका हल जहाँ गोरख को वाम में दिखता है वही धूमिल केवल यथार्थ के धरातल की  विसंगति को जोरदार  तरह से मार्क करते है ।                    

Friday, October 14, 2016

कविता साहित्य की सर्वाधिक प्राचीन विधा है।
कई युगों और साहित्य के कालों में अपने स्वरुप और व्यवहार में कई परिवर्तनों के साथ कई नाम उसे मिले। झंझावत मोड़ आये तब लगा कविता समाप्त हो गयी।

कविता मानव के रग रग में बह रही धार है। मनुष्य का उच्छ्वास है। जीवन की धड़कन है।

भाषाई तिलिस्म और लच्छेदार भाषा का प्रयोग कर कुछ कवि अल्पकाल के लिए भले ही उच्च सिंहासन पर आरूढ़ हो गए  हो पर सहज सरल भाषा में लिखी कविता मानसपटल पर अधिक समय तक स्थायी रहती है।

ब्रज श्रीवास्तव ऐसे ही समकालीन कवि हैं जो सादगी और सहजता से अपने मन के भाव कविता में व्यक्त करते हैं।
वर्तमान में  संचार  का सबसे ज्यादा चर्चित माध्यम  वाट्स अप  साबित हो रहा है ||यहाँ  पर कई साहित्यिक समूहों  में कविता ,कहानियों और भी कई लेखन विधाओं  पर विशद विमर्श होता है |सदस्यों की सक्रियता और रचनाओं पर त्वरित प्रतिक्रिया विमर्श के नए आयाम स्थापित कर रही है |रचना प्रवेश ब्लॉग पर अधिकाँश पोस्ट वाट्स अप समूह की होती है |
आज रचना प्रवेश पर  है साहित्य की बात समूह  के मुख्य एडमिन श्री ब्रज श्रीवास्तव  की कविताएं ,जिन्हें  प्रस्तुत किया है समूह की सह एडमिन  डॉ पदमा शर्मा  ने |

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परिचय 
ब्रज श्रीवास्तव. 


जन्म :5 सितंबर 1966(विदिशा ) 
शिक्षा :एम. एस. सी. (गणित), एम. ए. हिन्दी, अंग्रेजी, बी. एड. 

प्रकाशन :साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं, पहल, हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश, बया, वागर्थ, तदभव, आउटलुक, शुक्रवार, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य,इंडिया टुडे, 
वसुधा, साक्षात्कार, संवेद, यथावत, अक्सर, रचना समय, कला समय, पूर्वग्रह,दस बरस, जनसत्ता, सहित अनेक अखबारों, रसरंग, लोकरंग, नवदुनिया, सहारा समय, राष्ट्रीय सहारा आदि में कविताएँ, समीक्षायें और अनुवाद प्रकाशित. 
कविता संग्रह :पहला संग्रह "तमाम गुमी हुई चीज़ें" म.प्र. साहित्य परिषद् भोपाल के आर्थिक सहयोग से2003में , रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा से प्रकाशित (ब्लर्व, राजेश जोशी) दूसरा कविता संग्रह, "घर के भीतर घर" २०१३ में, शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित. (ब्लर्व:मंगलेश डबराल,)

 हाल ही में "ऐसे दिन का इंतज़ार कविता संग्रह" बोधि प्रकाशन से आया है. 

संपादन :दैनिक विद्रोह धारा के साहित्यिक पृष्ठ का तीन वर्षों तक संपादन. 
काव्य संकलन, दिशा विदिशा.(वाणी प्रकाशन) से प्रकाशित. 
व्यवसाय :स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक( मा. शा.) के रूप में शासकीय नौकरी. विदिशा में ही. 

पता :२३३, हरिपुरा विदिशा. पिन464001 
मो.नं 9425034312. 

प्रसारण :दूरदर्शन भोपाल, और आकाशवाणी भोपाल से कविताओं का अनेक बार प्रसारण





       ✍खबरें.✍


खबरें 
बस खबरों के लिए थीं
कोई असर नहीं था
उनके हृदय में दबी बात का

वहाँ तयशुदा जवाबी जुमले थे
जैसे बधाई की खबर है तो
तुरंत धन्यवाद कहना है
बगैर महसूस किए
बधाई के भाव की शिद्दत

खबरें सिर्फ खबरें थीं
वहाँ किसी की आँख में आँसू 
या चेहरे पर अवसाद नहीं आया
मृत्यु की खबर सुनकर
तुरंत ही श्रद्धांजलि शब्द कह दिया गया
जैसे बहुत जरूरी हो 
जवाबी हमला करना.

खबरें परेशान थीं
इस जमाने में
कि वे बेअसर हुए जा रही थी
जबकि उन्होंने ने भी अपनी गति में इजाफा कर लिया था

जबकि वे भी
नई भाषा सीख चुकी थीं
जिसे कोई इस्तेमाल करने वाला
कोई आदमी ही होता था
जिसे इनसे व्यवहार करना
एक कौतुक था
और कुछ नहीं.





🤓 ||बगीचे में वृद्ध. ||🤓


शाम हो गई है और 
वृद्ध जन 
लिफ्ट से उतरकर
मल्टीप्लेक्सों
के अहाते में बने बगीचे में.
बैठ गए हैं. 


वे अलग अलग प्रांतों से हैं
अपनी अपनी बोलियों में बोलते हुए 
बहुत मज़ेदार लग रहे हैं. 

देखते हैं चारों ओर, तने ऊँचे भवन
वाहनों की चिल्लपों के बीच 
अपने - अपने कस्बों की 
याद कर रहे हैं 

जबकि जिंदगी भर के तजु़र्बे 
मुँह पर ही रखे हैं उनके
पर फ्लेट की कैद में 
उनसे बतियाने को कोई नहीं है 

बेटा और बहू तो 
बुरी तरह व्यस्त हैं नौकरी में
इन फ्लेटों में रिश्ते नहीं 
मशीनें रहती हैं 

बस ये वृद्ध ही हैं यहाँ 
जिन्होंने संबंधों का जीवन जिया है  
अपने ज़माने में 

आहें भरते हैं ये अक्सर 
अपने संवादों में 
और अपने कस्बों में लौटने के सपने देखते हैं. 







* एम्बुलेंस *


हट जा नाउम्मीदी रास्ते से हट जा,
मौत को मार डालने के लिये
घायल हुई जिंदगी जा रही है.

उसके पास वक्त की कमी है
तेज तेज जाना पड़ रहा है उसे
किसी के हिस्से का वक्त बचाने के लिये.

भूल जाओ अभी कुछ सोचना ,कुछ बोलना
सुनो ये सायरन की आवाज़
और बस दुआ करो

एक जरुरी
बहुत ज़रुरी आशाघोष करती हुई
एम्बुलेंस जा रही है.





   
    

🤔अपना पक्ष 🤔


अन्याय की खबर सुनकर तुम 
मुस्कराते हो

 आखिर तुम किस ओर हो
मानवता की तरफ
या सियासत की तरफ

अपना पक्ष तय करो
तुम्हारे बारे में कुछ तय होने से पहले..





||मित्र||


तुम जैसे कई आये 
मेरे जीवन में 
जिनके अंदर मित्र की 
आत्मा थी

तुम ही नहीं 
ऐसे और भी 
कुछ समय तक रहे 
मेरे प्रेम में 

और भी आये कुछ दिनों के लिए 
अपनेपन का उपहार लेकर 

मैं जब देखता हूँ 
तुम्हारी ओर 
तो सोचता  हूँ 
कैसे निकल गई 
तुम्हारे भीतर से 
मित्र की आत्मा 

और  
तुम खोखले मनुष्य 
रह गये. 
मेरे लिए. 







🙌 ||ऐसा करो || 🙌


इन अदालतों
इन थानों, 
इन मज़हबों, 
इन प्रवचनों, 
इन सत्संगों का
का क्या करें

जिनके होते हुये
भी अपराध होते रहे
क्रूरता अट्टहास करती रही

ऐसा करो
इन्हैं डाल दो कचरे के डब्बे में, 
और अब कुछ ऐसा करो
जैसा दोहाें  में लिखा है कबीर ने.




 ||सांवली ||

क्‍या क्या हुआ. 
अहमदाबाद जाते समय 
रेल में, 

कुछ हटकर नहीं हुआ 
खिड़की में से 
हरियाली दिखाई दी. 

सामने गर्भवती बैठी थी सफेद बुर्के में 
जो अपने पीहर गोदरा तक जाएगी 
शौहर उसकी बहुत परवाह कर रहा था. 

बर्थ पर से जबरन हटाने की 
बहस होती थी 

बिना रिजर्वेशन वालों को
टीटीई भी उपदेश दे रहा था 
एक लड़की ईयर फोन में 
मस्त थी. 

दो सांवली महिलाओं को 
सभी हटा रहे थे 
अपने पास से
पोटलियाँ लिए और एक गंदा सा 
बच्चा लिए गुहार कर रही थीं
बैठने के लिए वे 

वे जा रहीं थीं 
मजदूरी करने के लिए राजकोट. 
जहां से शायद ही वापस 
आ सकें अपने घर. 

यह एक सामान्य घटना नहीं थी
कि वे खानाबदोश थीं. 
इस विकासशील देश में 
और इस ज़माने में. 
हाँ, वे अब शायद ही लौटें अपने घर 
शायद ही रह पायें खुशी से. 





||कबूतर ||


मेरे शहर में नहीं दिखाई देते
कबूतर और कौए 
अलबत्ता अहमदाबाद में 
पांचवी मंजिल पर किचिन तक में
फर फर उड़कर आते जाते हैं कबूतर 


सामने एक गोदाम में बचपन में 
देखे थे


याद आया वो दुर्दिन
बुजुर्ग के लकवा के इलाज के लिए 
ओझा ने कबूतर के खून की 
मालिश की सलाह दी थी. 

इन कबूतरों ने 
पता नहीं प्रेमी-प्रेमिका के पत्र 
पहुंचाये होंगे या नहीं 
पता नहीं इतिहास में 
राजनीतिक  
संदेश भेजे होंगे या नहीं 

अलबत्ता 
इस वक्त ये कबूतर 
स्मृतियों को बांधकर 
लाये हैं अपने परों में 
मेरे लिए कि 
मैं खंगाल रहा हूँ अतीत. 



ब्रज श्रीवास्तव.

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प्रतिक्रियायें 
मणि मोहन  मेहता 
उम्दा कविताएं ब्रज भाई की ।
उनके अपने डिक्शन वाले अंदाज की कविताएं । एम्बुलेंस और बगीचे में व्रद्ध बेहतरीन कविताएं हैं , सम्वेदना से लबरेज ....
कविता क्र. 4 , 5 और 6 ने मुझे प्रभावित नहीं किया , सपाट वक्तव्य भर लगीं । अपना पक्ष कविता में, जो अन्याय की खबर सुनकर मुस्कराता है उसका पक्ष तो पहले से ही तय है ।
सियासत और मानवता को भी बहुत सरलीकृत रूप में प्रस्तुत किया गया है।हो सकता है छोटी कविता की परिधि में वह बात आ नहीं पायी जो कवि कहना चाहता है ।

प्रवेश सोनी 
ब्रज जी की कविताओं का संसार बहुत ही सरल भाषा से रचा हुआ है ।लेकिन उनके अर्थ बहुत गहरी पैठ बनाये हुए है ।

खबरों की समझ पर  औपचारिकता  का सम्वादित होना कवि मन में  एक गूढ़ कविता का प्रारूप निर्मित कर देता है  ।वो सोचते है आखिर क्या हो गया ,वक़्त में  कैसा बदलाव आया की अब खबरों की संवेदनाये और उत्साह बदल गए ।

बगीचे में वृद्ध ,मल्टीस्टोरी  कल्चर  के चमकीले आवरण में  किसी एक कोने में छुपी उदासी को व्यक्त करती कविता है ।
कवि की नज़र हर उस छुपी हुई चीज को तलाश लेती है जो दृश्य में होते हुयें भी सदैव अदृश्य रहती है ।

मौत को मार डालने के लिए घायल जिंदगी जा रही है
एम्बुलेंस कविता का आशाघोष सभी कानों से उतर कर सीधा ह्रदय में पहुँचता है और हाथ उठ ही जाते है दुआ में की मौत की मृत्यु हो ही जाय, घायल जिंदगी जीत जाय ।कवि की संवेदना शब्दों के लिबास में आपसे कह उठती है कि यह मात्र कविता नही एक  प्रार्थना है जो स्वयं प्रस्फुटित हो जाती है जब गुजरती ही सायरन बजाती हुई एम्बुलेंस आपके करीब से ।

अन्याय की खबर पर यदि कोई मुस्कराता है ,उसका पक्ष उसी वक्त तय हो जाता है ।अच्छा चिंतन 

मित्र की आत्मा निकलकर खोखले मनुष्य रह जाना ...मित्रता जैसे रिश्तें पर कुठाराघात होना जैसा ही है ।भाव अच्छा है मगर कथ्य साधारण सा प्रतीत हुआ ।

ऐसा करो .....कवि मन की बैचेनी । क्यों आखिर कबीर के दोहों पर रुक जाता है कवि सारी अर्थ ,धर्म,और न्याय व्यवस्था से विमुख होकर ।सवाल छोड़ती अच्छी कविता ।
सावली और कबूतर  कवितायेँ भी परिवर्तन के गर्भ में छिपी दृश्यात्मक कवितायेँ है ।

घर के भीतर घर पढ़ रही हूँ ।नये संग्रह के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं 
🙏🌹


 Ghanshym Das
 ब्रज जी की पहली कविता ख़बरें आज भोथरी होती जा रहीं संवेदनाओं की सटीक व्याख्या , बगीचे में वृद्ध युवा पीढ़ी के अपनी नौकरी के कारण अन्य शहरों/प्रदेशों में रहने के कारण उनके पालक यदि उनके साथ रहने या कभी मिलने जाते है उनकी स्थिति का सचित्र विवरण क्योंकि मुझे खुद भी इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ता है । एम्बुलेंस जिस के सायरन की आवाज से ही किसी अनहोनी की आशंका होती है  उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से रचना में प्रस्तुत करना ब्रज जी के घटनाओं को सकारात्मक दृष्टि से देखने की आदत को दर्शाता है । अपना पक्ष छोटी पर रचना पर बड़ा व्यंग , मित्र में बढ़ते मित्रों व घटती आत्मीयता को दर्शाती अच्छी रचना । अन्य सभी रचनायें भी समाज के प्रति कवि के सकारात्मक विचारों को दर्शाती हैं । बधाई ब्रज जी व प्रस्तुतकर्ता डॉ पद्मा शर्माजी । 

                        
Rajendr Shivastav Ji
: आज ब्रज जी की कविताएँ पटल पर हैं।अधिकांश पहिले पढ़ चुका हूँ ।अपने आसपास के परिदृश्य से ली गई, कवि की स्वाभाविक शैली में बुनी गई  कविताएँ प्रभावित करती हैं। मेरे पाठक मन की ओर से बधाई ।
पद्मा जी आज के चयन के लिये धन्यवाद ।                         
Dipti Kushwaha:
कविताएँ अगर एडमिन की हों तो हम न्यू ब्रांड कविताओं की अपेक्षा करते हैं । 
यह क्या एडमिन सर ! 😔 आप तो नवा-नवा परोसो हम भूखे आश्रितों को 😊
एकाध को छोड़कर सब हालिया पढ़ी कविताएँ हैं... बहरहाल, अच्छी कविताएँ हैं । दुबारा पाना भी भाया। 
और हाँ, कविताओं के साथ इलस्ट्रेशन्स भी ! एम्बुलेंस के साथ एम्बुलेंस, कबूतर के साथ कबूतर, वृद्ध के साथ चश्मिश अंकल जी, मित्र के साथ जोड़ियां, अपना पक्ष के साथ आपकी विचार-मुद्रा... गज़ब जी !! 😀
ओहो.... और ये साँवली !!! 
पद्मा जी, हमारा विशेष आभार स्वीकार करें । 
ब्रज साहब, अगली बार नये पकवान का वादा करें !  शुभकामनाएं मित्र !!



अलकनंदा साने 
कबूतर नई नवेली लग रही है  । बाकी  पढ़ी हुई लग रही है  । दीप्ति से सहमत होते हुए कहना चाहूंगी कि इन दिनों हम सभी अलग अलग कई माध्यमों और समूहों से जुड़े हुए हैं और इसी वजह से रचना पढ़ी हुई होती है । स्वाभाविक रूप से उस तादाद में सृजन संभव नहीं होता । खैर ।
कविताएं मिला जुला प्रभाव दे रही हैं । अच्छी कविताएं भी बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर पा रही हैं । यह भी हो सकता है कि कोई  नाम पढ़ने के बाद  उसके अनुरूप हमारी अपेक्षा बन जाती है । अनजाने में पहले पढ़ी हुई कविताओं से तुलना होने लगती है । खबरें बेहतर हैं , लेकिन कुल  मिलाकर बहुत मजा नही आया ।     

सईद अय्यूब 
अच्छी कविताओं पर दाद तो कई बार दी जा सकती है। यह क्या पुरानी और नयी की बहस है? यह इस पटल के लिये नई कविताएँ हैं। और अच्छी रचनायें कब पुरानी होती हैं। घनानंद ने सुजान के लिये कभी कहा था, ''रावरे रूप की रीति अनुप, नयो नयो लागत, जयो जयो निहारी।'' अच्छी रचनाओं के संदर्भ में भी यह बात सही है। जितनी बार पढ़ो वे नयी ही लगती हैं। बार-बार पढ़ने पर उसके नये-नये अर्थ भी खुलते हैं। निवेदन है कि यहाँ प्रस्तुत कविताओं पर चर्चा की जाये, नयी की माँग ब्रज जी से अलग से की जा सकती है। मैं ब्रज जी की इन कविताओं पर कुछ देर में उपस्थित होता हूँ।   


अर्चना नायडू 
कविताओं के भीतर रहती है कवितायें, 
आपके शब्दों में  गुंथी हुई है भावनायें,  
  गहराइयों में पैठ  लो दोस्तों, 
   खोजने से ही मिलती है, मोतियों की मालायें। 
सुंदर सोच, गहन चिंतन का परिचय देती है ये कविताएँ।। 🙏   

शरद कोकास 
ब्रज की कविता खबरें इस संवेदनहीन होते समाज की सच्चाई है । सनसनी और सम्वेदना का एक ऐसा समीकरण जो हर बार खबरों से नई भाषा की मांग करता है । कवि का संकेत इसी ओर है।   
बगीचे में वृद्ध महानगर की जीवन शैली और पीढ़ियों के अंतर्द्वंद्व की कविता है । यह भीड़ के बीच उपजी असुरक्षा और अकेलेपन की दास्ताँ कहती है ।  
एम्बुलेंस एक अलग विषय पर लिखी कविता है यहकविता और सशक्त होसकती है अगर इसमें कुछ और पहलू जोड़े जाएँ जैसे गर्भवती माँ को ले जाती हुई एम्बुलेंस ।

लक्ष्मीकांत कालूस्कर 
बृज जी की छोटी छोटी कविताएं कवि की व्यापक दृष्टि का परिचय कराती हुई.कविता हो या कहानी पुनर्पाठ करने पर अर्थों के नये नये आयाम खोलती है.कहा जाता है रोज गीता का पाठ करना चाहिये,हर बार कुछ नया मिलेगा. एक ही कथा के हजार पारायण किये जाते हैं, केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं साहित्य और चिंतन मनन के नजरिये से भी.
मुझे बुजुर्गों को लेकर लिखी रचना बहुत अच्छी लगी.
रचनाओं को पढ़कर यह बात खास तौर पर सामने आती है कि हर छोटी बड़ी घटना कवि को आकर्षित करती है,सोचने को विवश करती है.    

अखिलेश 
खबरे बस बात थी उनका कोई असर नहीं था हृदय में  ।इन पहली पंक्तियों से ही ये कविता मन मस्तिष्क को सोचने के काम पर लगा देतीं है ।सडक दुर्घटना मे घायल पडे व्यक्ति के किनारे व्यवस्था को कोसते हुए चाकलेट खाने की सेल्फि लेने की तरीको पर विमर्श तक पहुचता मानव, दर असल अपने फ्लैट के बाहर किसी समाज को नहीं जानता । वह इतनी जल्दी मे है कि सबसे पहले वो संवेदनशीलता का बोझा उतार फेकता है । वो समय मांगती मानव कर्म पर मौन है परन्तु मानव कहलाने का अधिकार छोडना नही चाहता सो वास्तविक मृत्यु को आभासी श्रृद्धाजंलि देता है और प्रति उत्तर को अनिवार्य हद तक साधता है ।वह उन उत्तरो के दायरे तक मे नही होता पर कर्तव्य श्री पूरा कर अपने आदमी होने का हलफनामा रखता है ताकि समय पलटे तो वक्त बेवक्त काम आये ।अगर वह इतनी जुमलेवाज प्रतिक्रिया न करे तो शायद ज्यादा मानवीय होने का भ्रम पैदा कर सकता था पर तुंरत जबाबी हमला जरूरी है क्यों कि वह आप मे शामिल न होने का मन खबर के पहले शुरुआती दो चार अक्षरों मे ही बना लेता है ।
ब्रज की कविताएँ वास्तव मे वजर् की कविताएं है जो पाताल तक फैली मानव असंवेदना के पठार को कोड़  कर भुरभुरी मांटी बनाती है और उसमे बीज रोप संवेदनशीलता के अंकुर उगा देती है। उन्हे इन कविताओं के लिए बधाई नहीं दूंगा क्योंकि अब इस शब्द मे थाली, चम्मच,ढोल,नगाडो की आवाज छुपी नहीं होती ।     


 Dr Mohan Nagar:
 भाई जी दिक्कत ये है कि ये पुरानी कविताएँ हैं और मुझे नहीं पता कि छप चुकी या नहीं .. छप चुकी तो कुछ संशोधन सुझाने का कोई फायदा नहीं। फिर भी बगीचे में व्रध्द कविता में  - बेहतर हो कि  स्थान - मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट / डुप्लेक्स / फ्लेट से पटी कालोनी लिखा जाए जिसके छोटे से बगीचे में बैठने की बात हो .. कविता ज्यादा विश्वसनीय लगेगी क्योंकि शहर में लोग मल्टीप्लेक्स बूढ़ों को लेकर नहीं जाते  .. ऊपर से आपने स्थान मल्टीप्लेक्स का " अहाता " लिखा .. अहाते के अंदर से ऊंचे तने भवन नहीं देखे जा सकते न ही वाहनों की चिल्लपों सुनाई दे सकती है .. वैसे लिखना भी यही चाहते थे शायद आप क्योंकि अगले ड्राफ्ट में ही  " इन फ्लेटों में रहने वाले पंक्ति है .. पहले ड्राफ्ट में मल्टीप्लेक्स में बैठे बूढ़े अगले ड्राफ्ट में फ्लेट में ?                         
 जहां तक मुझे पता है मल्टीप्लेक्स वो जगह है जहां फिल्म लगती है                         
मैं दिन भर से देख रहा था कि कोई देखता है या नहीं           

आरती तिवारी 
पदमा जी ने अच्छा ही नही बहुत अच्छा किया है,.एडमिन को आप सबकी अदालत में खड़ा करके,..बाअदब बामुलाहिज़ा होशियार कि कवितायेँ छूकर बहुत कुछ कह गईं। जब भी पढ़ीं विटामिन की गोली सी स्वस्थ करती लगीं जी पदमा जी,..थैंकू है जी🌹🌹👏🏼👏🏼🍀🍀💐💐   


मधु सक्सेना 
ब्रज  जी की कविताएँ उनकी तरह ही संकोची है ।धीरे से अपनी महत्वपूर्ण बात को सरका देती है ।मैं इंतज़ार कर रही कोई तो कविता होती जो धमक के साथ अवतरित होती और उसकी आवाज़ कानों में गूंजने लगती ।अंगद के पांव की तरह जम जाती ।जैसे की जमी हुई है "ढोलक "। नही भूली उसे ।उस कविता की माँ भी तो अपनी ही थी ।आज भी उसकी थाप गूंजती है ।
खबरें ..बहुत सच्ची बात कहती है ।टूट पड़ते है बधाई या श्रद्धांजली देने ।भावहीन शब्द फेंकते रहते है ।बारीकी से पड़ताल करके लिखी हुई कविता ।

बगीचे में वृद्ध .... आज हर बड़े शहर की यही कहानी ।शिक्षा को कमाने की नीव मानने की बात इन्ही बुजुर्गों ने पढ़ाई होगी।खुद के अभावों ने यही तो चाहा पर अकेलापन भी सौगात में मिला ।जो भी हो वो अलग समस्या है पर आज का ये सच है ।अतीत की स्लेट पर शब्द लिख कर मिटाते रहते है । अच्छी कविता ।

एम्बुलेंस ...इस कविता में विस्तार होना था ।विषय अच्छा पर प्रभाव कमज़ोर ।

अपना पक्ष .... अच्छी कविता ।सियासत की चालों को चुपके से कहा हो मानों ।
मित्र ... शिकायत मित्र के बदल जाने से ।
हल्के फुल्के तरीके से मित्रता की बात ।

ऐसा करो ...आज की दुनिया की त्रासदी अलग तरह से बयान की ।कबीर को याद करना याने पूरी व्यवस्था में सुधार की उम्मीद करना ।अच्छी कविता ।

सांवली .... शीर्षक कुछ और होना था क्योकि कविता सांवलेपन से विस्थापन पर आ गई और कविता का मुख्य भाव  बन गया । 
"बर्थ से जबरन ......शायद ही रह पाएं ख़ुशी से ।"
ये कविता इतनी ही पूर्ण है ।

कबूतर ...कविता अच्छी है ।कबूतर और कौए की चिंता ,पक्षियों की चिंता है ।

ब्रज जी की कविताएँ ...धीमे से बात करती है और सम्वेदना जागृत करती है।बात करने जैसी कहन हैं । कवि  से कुछ ऐसी कविताओं की उम्मीद करती हूँ जो ऊधम मचा दे ।शुभकामनाएँ  ब्रज जी।
आभार पद्मा ...बहुत बढ़िया भूमिका के साथ सुंदर प्रस्तुतिकरण ।



रविन्द्र स्वप्निल 
ब्रज भाई अच्छी कविताएं लिख कर हमको चिड़ा रहे हो। ख़ासकर मणि और मुझे। बाकि सब लोग तारीफ कर रहे है। चलो किसी दिन विदिशा में घूंसा गोष्टी कर लें। सही बात ये है कि आप की उस दौर की और मेरी भी कविताएं प्रोसेस के बट्टे खाते में गई है, आज् जो कविताएं, घर के भितर से या नई पुराणी है, गजब की हैं। जैसे एम्बुलेंस बहुत अच्छी बनी। बधाइ पर जो है उसमें सामाजिक औपचारिकता को नाक से चने उठवाए है। इस ग्रुप में भी कितनी है, तारीफ कोई करे तो धन्यवाद दे दिया जाता है। नहीं दो तो मुह फूल जाता है, कविता केसी भी हो, इससे कोई मतलब नहीं, 
फ्लैट वाली कविता में आप अगर मानवीयता पर विश्वास के बड़े कवि हैं तो अपने इंसानो पर यकीन नहीं किया। जब इंसान छाल पहन के रहता था तब पहलीबार जिसने कपडे पहने होंगे या गांव बसा कर रहा होगा तो भी किसी ने यही नहीं तो लिखा होगा। ये छुपी हुई सूक्ष्म नाकारात्मकत आपकी कविता में है। 
ये तो कवि खुद की बेंड बजा कर ही पकड़ना सीखता है। खुद की निर्मम कुटाई। 

ऐसा नहीं की में तारीफ का भयानक विरोधी हूँ , में इस बात की आलोचना करता हूँ कि आपस में ही तारीफ और संतुष्टि रिश्तेदारी में तो ठीक पर हम कवियों के लिए यह प्रज्ञा अपराध है। हम अपने पाठकों के लिए ठगते हैं। 
ब्रज भाई आपकी कविताओं के किये बहुत कुछ है। पर आपसदारी के प्रोत्साहन से असंपृक्त रहना जरुरी है। तुम मुझे भी यूँ अलर्ट करोगे ऐसी उम्मीद है।

उदय ढोली 
बहुत कुछ कहती हुई कविताएँँ हैं ब्रज जी की ।अपनी जडो़ं से कटने का दर्द लिए एक तरह से विस्थापित बुज़ुर्गों की पीड़ा का अच्छा चित्रण ,एम्बुलेंस एक अभिनव प्रयोग


सईद अय्युब 
ब्रज श्रीवास्तव संकोची इंसान व संकोची कवि हैं। संकोच कई जगह पर अच्छा होता है पर कई जगहों पर बुरा। यह ब्रज श्रीवास्तव का संकोच ही है शायद कि इतने अच्छे कवि होने के बावजूद, हिन्दी कविता में उन्हें वह स्थान नहीं मिला है जो मिलना चाहिये था। पर उनका यह संकोच जब कविता में उतरता है तो कविताओं के कैनवास को बड़ा कर देता है। यह देखने और सीखने वाली बात है कि कविता लिखकर कवि उसे सबके सामने रख देने की हड़बड़ी में नहीं है बल्कि संकोच में है कि जो लिखा है वह कविता है भी या नहीं? है तो कैसी है? वह अपनी कविता को कई बार देखता है, माँझता है, शब्दों का चयन बहुत सावधानीपूर्वक करता है और चयन करने के बावजूद उनके इस्तेमाल में प्रयोग भी करता है। यद्यपि, इस चयन में कहीं कहीं कुछ गड़बड़ियाँ भी होती हैं जैसे मोहन नागर भाई ने ऊपर मल्टीप्लैक्स का उदाहरण दिया है। पर फिर भी, ब्रज श्रीवास्तव का कवि पाठकों को यह आश्वस्त करता है कि अच्छी कविताओं का कोई अकाल नहीं है।


Rekha Dube
: ब्रज  भाई की कविताएं पढ़ी ,"खबरें "जिसमें बड़ी ही खूबसूरती से हमारी मरती हुई संवेदनाओं पर कुठाराघात किया है ,जो दफन हो गई है हमारे ह्रदय के मशान में और सीमित रह गईं हैं फर्ज अदायगी तक बहुत मासूमियत से कह गए है ब्रज भाई बहुत बड़ी बात को बहुत सरल शब्दों में ।"बगीचे में वृद्ध " कहीं नियति की या हमारे युवा वर्ग का मजाक उड़ाती सी प्रतीत होती है क्यों की आजकल पुत्र के पास वृद्ध माता- पिता रह ही नहीं पाते वह पाते है तो एकाकी जीवन या वृद्धा आश्रम ,खुश किश्मत है वो लोग जी ब्रज भाई की कविता के बुजुर्गों की तरह जीवनयापन कर पाते हैं।बाकी सभी कविताएं एक व्यंग पुट के साथ बड़े सटीक लहजे में सटीक बात कह गईं हैं बधाई ब्रज जी और प्रवेश जी को                         
 Dinesh Mishra : ब्रज भाई
हमेशा की तरह मुझे आपकी कविताएं अच्छी लगीं, पहली कविता खबरें आज की ज़िन्दगी पर अच्छा ख़ासा तन्ज़ है, जहां औपचारिकता का निर्वाह करना भर ज़रूरी हो गया है, वरना बड़ी से बड़ी बात या घटना किसी को react ही नहीं करती, बृद्धों पर केंद्रित कविता उस अतीत को याद करती है, जो कस्बों में पसरे अपनेपन और लगाव को याद करके दुखी होती है।
ब्रज जी सभी कवितायें सादगी से भरपूर होते हुए भी हम तक पहुँचती हैं, छोटी छोटी सी चीज़ों पर इस तरह लिखना उनके संवेदंशील होने का प्रमाण है।
बधाई ब्रज भाई।

सुरेन
@Braj Shivastav  की कविताये पिछले 8 ,10 माह में काफी पढ़ी और उन सभी कविताओं को पढ़कर एक पाठकीय राय भी बनी । उसी पाठकीय मन से कुछ सामान्य बाते ब्रज जी की कविताओं और काव्य कर्म पर उपजती है ,जिन्हें साझा कर रहा हूँ ।


ब्रज जी की कविताओं पर मैंने पहले भी लिखा है कि वे सर्वेश्वर और कुंवर नारायन के जॉनर में अपना काव्य कर्म अंजाम देते है । अपनी बात को धीरे से कहते है, शब्दों का चयन भी मुलायम सा होता है और वाक्य विन्यास संप्रेषण के जल में डूबे हुए तरल सा  । इसके साथ ही  भाषाई चमत्कार से परहेज़ करते है । 


इन कविताओं के धीमे स्वर में भावो से भरे वाक्य और उन वाक्यों में संप्रेषित होने की क्षमता का आप्लावन सायास नही बल्कि अनायास शैलीगत  बाध्यता से उपजता है । इस प्रकार की कविताओं में एक जो खास बात होनी चाहिए वो ये कि अंततः अपने कहन में पाठक मन में एक मारक सा या कहे  अपने कहन में एक ऐसी प्रभावोत्कट जुम्बिश छोड़ने की क्षमता होनी चाहिए नही तो कविता बस ब्यौरे देने वाली विधा के रूप में पाठक ग्रहण करेगा ।


आज प्रस्तुत कविताओं को उपरोक्त आलोक में देखे  तो  आठ में से दो कविताएं  बागीचे में वृद्ध और एम्बुलेंस कविताये उनके अपने डिक्शन के तहत सुंदर कविताये है । भाषा गत दोष पर कहना  सुहाता नही है पर मल्टीप्लेक्स की जगह मल्टिस्टोरी अपार्टमेंट होना चाहिए ,जिसके सोसाइटी के बागीचे में वृद्ध जन शाम को मिलते है । 


अन्य कविताये विशेषकर 4 ,5 व् 6 क्रमांक की कविताये अपने कहन में कोई प्रभाव नही उत्पन्न करती पाठक मन में , जैसा की ऊपर कहा--  वे मात्र ब्यौरे सी उभरती है । 

कविताओं का स्वर धीमा होना , कविताओं का  पुनर्पाठ में स्वयं को खोल कर रख देना , किसी लाक्षणिकता को उत्पन्न करने की ललक का न होना , शब्द और वाक्य विन्यास का तरल होना , पाठक से पुनर्पाठ में कोई मेहनत न चाहना , कविता के  बिंम्ब और शिल्प को संकोच की हद तक सहज रखना , नारे बाज़ी और उत्कटता का न होना .......आदि आदि अच्छी बातें है परंतु यदि आप इन्हें अपने काव्य में समाहित करते है तो पुनः दोहराना चाहूंगा कि कविता के कहन में अंततः ऐसा प्रभाव लाना होगा जो पाठक मन में एक हल्की सी जुम्बिश छोड़ जाये ।


दरअसल उनको पढ़ पढ़ कर एक बढ़ती हुई  पाठकीय आकांक्षा  के तहत ये सब कहा है । 

अंततः ब्रज जी को हार्दिक शुभकामनायें और पदमा जी का शुक्रिया ।। 💐💐


] HarGovind Maithil : आज प्रस्तुत कवितायें बहुत भावपूर्ण और संप्रेषणीय है तथा कवि हृदय की संवेदनशीलता को व्यक्त करती है ।
ब्रज जी को बहुत बधाई और पद्मा जी का आभार 🙏🙏                         
 Mahendr Gagan Ji: अच्छी कविताएँ हैं । बधाई ब्रज जी                         
 Shaahnaaz: बहुत अच्छी प्रभावशाली और संवेदनशील कविताएँ सरल सीधी भाषा में धीरे से बहुत कुछ कह देती हैं । बधाई ब्रज जी और शुभकामनाएँ आभार पदमा जी का 🙏🏻                         
 Sandhya Kulkarni: पहली कविता आज के समय में बढ़ती हुई संवेदनहीनता की ओर इशारा करती हैं,जो मनुष्य को बस इस्तेमाल करना है खबरों का असर कुछ नहीं होता। बगीचे मेवृद्ध  कविता पढ़कर परसाई जी का वृद्धों पर लिखा व्यंग्य आलेख याद आया ।एम्बुलेंस कविता एक दृश्य सा खींच देती है एक विचार को कविता में बांधती  हुई। अपना पक्ष कविता अपना पक्ष सुदृढ़ रखने का आव्हान कर रही है । मित्र कवीर किसी मित्र की बेवफाई से दुःख प्राप्ति की कविता लगती है लेकिन एक भरे हुए दोस्त की कविता भी लिखना होगी अब । लेखन के उपयोग का कोई असर नहीं होने से दुखी हैं कवि और हताश हैं कुछ हल भी सूझ रहे हैं कि उम्मीद खत्म नहीं हुई है अभी ।
सांवली कविता में विस्थापन की समस्या से रूबरू करा रहे हैं ख़ास बात इनकी कविता की एक दृश्य सा खींच देते हैं ।शायद इसलिए इन्हें किसी ने कहानी लिखने की सलाह दी थी ।कबूतर देख  कर इन्हें अपना बचपन याद आता है जो संवेदना को दिखाता है ।कवि दृश्यत्मक्ता से अपनी बात संप्रेषित करता है ।
कुल मिलकर अपनी बात स्पष्ट रूप से कहती हुईं कुछ ज़रा जल्दबाज़ कवितायें 💥                         
 Dr D. N. Tiwari: आज की कविताएं :
ब्रज जी की सभी कविताओं का अध्ययन किया एक दम  शानदार शब्द संयोजन मगर "बगीचे में व्रद्ध बहुत प्रभावित कर गई ये कविता सवाल उठाती है आज के युवा वर्ग से जिनको कल इसी अवस्था से रूबरू होना है पूरी जिंदगी परिवार के लिये भागनेवाले वरिष्ठ लोगों के अनुभवों को लेने से आज का युवा कतराता है,जो कहीं टेबलेट के रूप में बाजार में नहीं मिलता,आखिरकार उनकी भी तो कुछ इच्छायें बाकी होंगी वे भी नौकरी के चलते रिश्तेदारों से अकारण बुरे बने होंगें ?आज वे सेवा में नहीं है मगर घरेलू खर्च उठाने को विवश हैं ऐसी कुंठा को ये कविता इंगित करती है ,इनकी हर कविता की समीक्षा बनती है पर विस्तार भय से ज्यादा लिखना उचित नहीं जान पडता बहरहाल अच्छी प्रस्तुति का धन्यवाद डॉ पद्माजी ✍🏻फिर होगी मुलाकात साकीबा ऐसे ही जगाते रहना वाहहह वाहहहह ✍🏻                         
Manjusha Man: ब्रज की कविताएं बड़े छू लेने वाले अंदाज़ में होतीं है। इन्हें जितनी बार पढ़ा जाये हर बार और और गहराई तक पहुँचती हैं। ब्रज जी जीवन के ऐसे विषयो को चुनते हैं जो बहुत आम होते हैं हर व्यक्ति  का विषय। 

आज की कविताएं भी गजब की हैं, एम्बुलेंस, अपना पक्ष, अहमदाबाद खास अच्छी लगीं। 

हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ब्रज जी     

Sayeed Ayub Delhi: मोहन नागर भाई, आपकी तटस्थता की नितांत आवश्यकता है आजकल। जानता हूँ कुछ लोगों को बातें चुभती हैं पर उसकी परवाह करके सबकुछ मीठा-मीठा करना भी ठीक नहीं होता। अपनी इमानदारी पर भरोसा कीजिये, बाकी चीज़ें गौण हैं, उपेक्षणीय हैं। मैं यह जो कुछ कह रहा हूँ इसका मतलब यह भी नहीं है कि मैं आपकी सारी आलोचनाओं से सहमत ही होऊँगा पर आपकी जो तटस्थता है उसका सम्मान हमेशा रहेगा।                         
Dr Mohan Nagar: अयूब भाई मगर बहुत ज्यादा उदास भी हो जाता हूँ अपने पाठन पर 😞  जैसे कबूतर वाली कविता में कौआ क्यों  ? समझ ही नहीं आया ? क्योंकि बाद में पूरी कविता में न उसका कोई वजूद न तारतम्य .. इस कौए को कायदे से कविता से उड़ जाना चाहिए पर उस पर भी तारीफ पढ़ी । मुझे ही क्यों खटकता है ये सब जिसे जताना मजबूरन पड़ता है डर डरकर .. ऐसा ही बहुत कुछ जो कविता की बेहतरी के लिए देखकर सुझाया जाना चाहिए पाठकों द्वारा जिनमें सभी हैं .. मैं चिंतित हो रहा हूँ अब खुद पर ही 😞                         
 Piyush Tiwari: ब्रज सर की कवितायें , मेरी नजर में 

खबरें 
एक अच्छी कविता ।
जैसे पुलिस के लिए एक्सीडेंट , 
डाॅक्टर के लिए मरणासन्न मरीज आदि सा ।
संवेदना का अभाव  आम आदमी में परिलक्षित होता हुआ ।


बगीचे में वृद्ध 
इस कविता में जात पात , आर्थिक सक्षमता आदि कोसों दूर है । सभी बुजुर्गों की एक सी परेशानी है । यहाँ से वे अपने कस्बों की ओर लौटने की बात कहते हैं मगर जब कस्बों में जाते हों , शायद यहाँ आने की बाट जोहते हों । इस कविता पर मैंने पहले भी अपनी राय दी थी , किन्तु मल्टीप्लेक्स पर ध्यान नही गया था । आज सुधिजनों द्वारा ध्यान दिलाया गया । 
आज की खूबसूरत हकीकत को बयां करती है यह कविता ।


एंबुलेंस 
अहा , बेहद उम्दा कविता । बेहद खूबसूरत ।
मैं कहा भी करता हूँ व्ही आई पी गाडियों के सायरन से डर नही लगता साहब एंबुलेंस के सायरन से लगता है ।
आज भी जब द्रुत गति से सायरन बजाती कोई एंबुलेंस जाती है तो हर संवेदनशील इंसान के मन में कई ख्याल  आते हैं मरीज की स्थिति को लेकर ।


अपना पक्ष
सफेद चेहरे के पीछे स्याह चेहरे । ये वे लोग वे नही हैं जो डांवाडोल होते हैं , बल्कि वे हैं जो होते तो कुछ और हैं किन्तु दिखते कुछ और ।
आज की स्थिति पर अच्छी कविता है । सहज रचना ।



मित्र
अच्छी कविता लगी ।
यहाँ मतलबीपन की बात कवि कहना चाह रहे हैं शायद ।


ऐसा करो 
अच्छी  अभिव्यक्ति है । 
जैसा दोहों में , यहाँ मुझे जमा नही ।



सांवली
जबर्दस्त कटाक्ष किया गया है बंधुआ मजदूरों पर व पलायन करने वाले मजदूरों आदि पर साथ ही बढ़िया चित्रण रेलयात्रा का भी 


कबूतर 
बहुत ही सुन्दर रचना है ।



शुभकामनायें , बधाईयाँ कविवर को ।
आभार डाॅ पद्मा जी का , शानदार संचालन हेतु ।
आभार  साकीबा व शरद सर का , जिन्होंने यहाँ मुझे शामिल करवाया ।
🙏🙏💐💐😊😊🍁🍁🙏🙏                         
 Dr Mohan Nagar: ब्रज भाई जी को सभी जानते हैं और अब तो ग्रुप में कोई आत्म मुग्धता में है या केवल तारीफ पसंद कर सही सुझाव या आलोचना पर कुपित तक हो जाता है ऐसा भी नहीं तो फिर  ? कुछ तो गड़बड़ है .. झिझक ? गंभीरता से पाठन न होना ? सही कहने पर अपमान का भय ? मैं जानना चाहूँगा कि क्या है जो शेष .. दुआ और विनम्र आग्रह भी कि इससे उबरें हम सभी  👏        

मीना शर्मा 
ब्रज जी की कविताओंपर खूब चर्चा हुई है !
कवि पटल पर जब कविता रखते हैं तब यह निर्णय कवि के हाथ होता है कि पटल पर वे,कौ  सी रचना रखना चाहते हैं ....नई या पुरानी या
दोनों ही !
बहरहाल  , एम्बुलेंस और बगीचे में वृध्द , संवेदना से भरी कविताएँ !
सरल शब्दों के साथ संप्रेषणीयता
बहुत खुब ! बधाई ब्रज जी ! आभार पद्मा जी !    


विनीता वाजपेयी 
ब्रज भाई की कविताएं सधे और धीमे कदमों से चलती हैं और छा जाती हैं मानस पटल पर , समय की क्रूर आहट को पहचानती और उसे ईमानदारी से व्यक्त करतीं , गम्भीरता और सादगी इनकी पहचान है , सभी बहुत 

अच्छी सम्भवतः नये संग्रह की हैं , अभी पढ़ा नहीं है मैने ,      

Piyush Tiwari: डाॅ साब , माफ कीजिएगा किंतु अक्सर  आपकी टिपण्णियाँ बेहद तीखी होती हैं । यह तो आप भी मानेंगे शायद कि कोई भी रचना पूरी तरह अच्छी या पूरी तरह बुरी नही हो सकती । बुरी से बुरी रचना में अच्छाई का कुछ तो अंश होता है उसी प्रकार  अच्छी से अच्छी में भी.....सादर 🙏🙏💐💐😊😊                         
 Dr Mohan Nagar: मैं तो बात ही उन्हीं रचनाओं पर करता हूँ पीयूष जिनमें कुछ अच्छाई हो या बहुत अच्छी हो और ये भी कि कुछ जरा बहुत जो बेहतर हो सकता है उसे जता दूं ताकि एक बेहतर रचना श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठ हो जाए .. बुरी रचनाओं की तो बस तारीफ करता हूँ लपक के ( आत्ममुग्ध लेखक हो तो  .. या पीछा छुड़ाना हो ) या फिर उसपर बात ही नहीं करता । 👏                         
 आप कहकर तो देखिये कि किसी रचना की बस तारीफ करनी है .. कसम से .. इतनी अद्भुत करूँगा की शायद ही मार्केट में आई हो .. भले ही रचना गोबर हो 😋         

जीवन एस रजक 
ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताएँ मुझे तो बहुत अच्छी लगीं, मैं तो उनकी कविताओं का पहले से पाठक रहा हूँ, बहुत शुभकामनायें..          


 Bhavna Sinha: ब्रज सर की कविताएँ  हमेशा पढती हूँ । सरल भाषा में  बहुत स्वाभाविक  तरीके से अपनी बात कहते हैं । इसलिए  उनकी कविताएं  मुझे बेहद  पसंद हैं ।
आज प्रस्तुत कविताओं में  बगीचे में वृद्ध, एम्बुलेंस और मित्र तीनों कविताओं ने बहुत प्रभावित किया । 
पद्मा जी का आभार और सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई । ब्रज सर को भी  बधाई ।🌹🌹                         
पदमा  शर्मा 
 आज आप सभी सदस्यों ने बहुत महत्वपूर्ण राय दी। वास्तव में कविता कभी पुरानी नही होती। कई महत्वपूर्ण कवितायेँ समय गुजरने के साथ साथ पुनर्पाठ की माँग करती हैं।

न कवि पुराना हुआ न ही उसकी कवितायेँ। तभी तो सूर,तुलसी कबीर आज भी पढ़े जा रहे और पढाये जा रहे। 

कवि की साधना निरंतर चलती रहती है। कवियों कई कई ग्रन्थ रचे ,कई कहानियाँ उपन्यास रचे। पर लोगों ने किसी किसी रचना को ही पसंद किया।

मुख्य बात है। रचा जाना। लिखा जाना। एक ही माता की संतान में भी भेद होता है - सौन्दर्य और गुण सभी में।


आभार आप सभी का।        




अविनाश तिवारी 


कल साकीबा में ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताऐं पटल पर छाई रहीं।कविताओं के सभी पहलुओं पर साकीबाई मित्रों ने विस्तृत समीक्षा की है।मै कल अत्यधिक व्यस्त रहा और यात्रा के कारण इस चर्चा में शरीक नहीं हो पाया ।यह सही है कि सभी रचनाएं हमसे कई बार मिल चुकी है परंतु हर बार इनमें कुछ नयापन दिखता हैजिज्ञासा रहती है। खबरें बगीचे में वृद्ध एंबुलेंस अपना पक्ष मित्र ऐसा करो सांवली कबूतर यह सभी कविताएं अपने आसपास के अनदेखे अनछुए पहलुओं का रोचक चित्रण करती हैं ।बगीचे में वृद्ध आज के परिवेश में  वृद्धों के एकाकीपन और उनकी व्यथा का सजीव चित्रण है तो एंबुलेंस आशा घोष करती पहियों पर भागती उम्मीद है एंबुलेंस पर भी सोचना यह तो केवल  ब्रज जी के बूते की बात है मित्र भी बहुत अच्छी कविता है पढ़कर लगता है कि वह हमारे बारे में कह रहे हैं कभी लगता है कि वह अपने बारे में  कह रहे हैं हर व्यक्ति कभी न कभी किसी न किसी मोड़ पर मित्र कविता का पात्र नजर आता है ।ऐसा करो मैं कवि अनावश्यक रुप से कबीर का महिमा मंडन करते दिख रहे हैं मुझे लगता है सभी संतों की धर्म की संप्रदायों की  विचारकों की अपनी-अपनी उपयोगिता है सारा श्रेय सारा श्रेय कबीर के खाते में जाता नहीं दिखता क्योंकि उनके फालोअर्स ने समाज में बहुत बड़ा कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया हो ऐसा बहुत ज्यादा नहीं दिखता ।तुलसी का अपना अलग समाजवाद है यदि हम देखना चाहें तो। सांवली बहुत ही अच्छी रचना लगी है जिसमें आर्थिक विषमता मजदूरों का पलायन आरक्षित डिब्बे में आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के यात्रियों में अनायास ही सर उठाती एक अलग ही  मनोवृत्ति देखने को मिलती है अनारक्षित वर्ग के यात्रियों को हेय दृष्टि से देखना उसमें प्रमुख यह सब बातें कवि ने सांवली के माध्यम से कहने का प्रयास किया है कबूतर बड़े शहरों में पाए जाने लगे पता नहीं क्यों कबूतर को महानगर  रास  आने लगे हैं  कवि ने कबूतरों का काफी महत्त्व दर्शाया है सीमापार से भी कबूतर भड़काऊ संदेश लाते पाये गये है अगर प्रेम के संदेश भेजते तो वो ले आते। कबूतरों का फिल्मी गानो मे भी रोल रहा है जिस पर दिनेश मिश्र जी रोचक तरीके से प्रकाश डाल सकते हैं हमारे एक पंजाबी राक सिंगर भी कबूतरबाजी के शिकार  हो चुके हैं।ब्रज जी रचना को और विस्तार दे.सकते है अपने तरीके से। बरहाल मेरा मन नहीं मान रहा था आपलोगों कोअपने विचारों से अवगत कराये बिना।आप मित्रों का बहुत आभार संचालक जी और ब्रज जी अच्छी कविताओं के लिये आप दोनों का आभार।🙏💐
      

                      


       

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