Sunday, February 14, 2016



✍राकेश बिहारी


🔴परिधि के पार 🔴

नेहा ने उस रात अपनी डायरी के पन्नों पर लिखने के बजाय कुछ तस्वीरें उकेरी थी... गहरे नीले आसमान की गोद में खूब-खूब चमकता पूरा चांद, भर आकाश जगमगाते सितारे और नीचे फूलों से लदी रातरानी... डायरी के हल्के बादामी सफे पर खिली रातरानी की भीनी सी महक नथुनों के रास्ते हौले-हौले उसके भीतर तक उतर रही थी. वह जैसे ख्वाबों की किसी नई दुनिया में पहुंच गई. उसकी उंगलियों में एक अनोखी सी जुंबिश हुई और उसने पूनम के चमकते चांद के बाजुओं पर दो सुनहरे पंख जड़ दिये... उन पंखों पर जैसे वह खुद सवार हो गई थी... वह नीले आसमान के लगातार करीब होती जा रही थी... लाल और गंदुमी रंगों के विरल संयोग से बना कोई अदृश्य सूरज अपनी पूरी आभा के साथ उसकी नसों में किसी मीठे संगीत की तरह उतरने लगा था... वह एक अनाम रोशनी से नहा सी गई थी....

...अभिनव अपनी हर अगली बातचीत में उसे चौंका सा जाता है और हर उस चौंकाने वाली बात के बाद जैसे वह थोड़ी और सरक कर उसके कुछ और करीब हो जाती है... उस शाम जब फोन पर वह उसे अपनी ताज़ा पे स्लिप पढ़ कर सुना रहा था, नेहा के भीतर जैसे स्नेह और अधिकार की एक गुनगुनी सी नदी बह उठी थी... मंद, मंथर लेकिन एक अनोखे सुकून से भरी हुई..... कितना मूल वेतन, कितना डी. ए.,  कितने दूसरे पर्क्स, कितनी अन्य कटौतियां.... और अंत में एक मासूम सी ईच्छा... "नेहा, इन दिनों मेरा मन एक रेकरिंग डिपोजिट शुरु करने का हो रहा है, जिन्हें मैं कभी खर्च न करूं... भगवान न करें कभी ऐसी जरूरत पड़े लेकिन यदि कभी कोई मुसीबत आई तो वह तुम्हारे काम आ सके..." नेहा के लिये यह अप्रत्याशित था. वह जानती है उसे किसी के पैसों की कोई जरूरत नहीं. उसके हिस्से की पिता जी की सम्पत्ति और उसके गहने-जेवर पर्याप्त हैं उसे किसी मुसीबत से उबारने के लिये लेकिन कोई है जो उसके लिये ऐसा सोचता है, इस सोच भर ने उसे भीतर तक भर दिया था... नरेन की आमदनी कितनी है उसे आजतक नहीं मालूम, न कभी उसने बताया और न हीं कभी उसने अपनी तरफ से जानने की कोशिश ही कि.. उसकी आंखों ने जैसे उसकी आवाज़ पर अपनी  पकड़ मजबूत कर ली थी और भर्राइ सी आवाज़ में उसने बस इतना ही कहा था... " तुम मेरी खातिर इतना सोचते हो मेरे लिये यही बहुत है..."

चांद का रथ तेज गति से दौड़ रहा था. सितारे अपनी पूरी ताकत से चमक रहे थे और रातरानी अपनी खुश्बू से उसे लगतार मदहोश किये जा रही थी. उसके भीतर संगीत की लय और एक चिरपरिचित दर्द की लहरें एक ही साथ उठ-गिर रही थीं. नरेन ने जो उसे बीस सालों में नहीं दिया, अभिनव चंद दिनों में ही जैसे वह सब अपनी हथेलियों में लिये उसके आगे खड़ा था. अब तक तो वह मानो हर पल, हर क्षण अपनी आसन्न मृत्यु के इंतजार में थी. लेकिन एक मात्र उसके होने के अहसास भर ने जैसे सबकुछ बदल सा दिया था. ज़िंदगी नये सिरे से उसके भीतर दस्तक देने लगी थी.  अब वह जीवन की प्रतीक्षा में खुशियों के सिंगारदान के आगे सजती-संवरती... उसे तो पता भी नहीं था कि उसकी मांस-मज्जा में एक सितार सोया पड़ा है और जिसे जीवन से भरी किन्हीं उंगलियों का इंतजार है. .. अभिनव ने जैसे उसके मन की गहराइयों को थाह लिया था. उसके संस्पर्श भर से वर्षों से सोया पड़ा वह प्रतीक्षातुर  सितार पूरे आवेग के साथ एक झंकार से भर उठा था. उसके भीतर एक मीठी सी कंपन हुई थी, एक पुलक भरी सिहरन सी और उसका रोम-रोम जैसे एक आदिम नशे से थिरक उठा था... अपने तन-मन पर पड़े नख-दंतों के अनगिनत खरोंचों पर वह अभिनव की मुलायम, उष्ण और अपनी सी आवाज़ को रूई के नर्म फाहों की तरह रख लेना चाहती थी... उसकी आवाज़ में एक अद्भुत सी लय है. वह महज आधे-एक घंटे की बातचीत में जैसे बीते चौबीस घंटों का एक-एक पल उसके साथ फिर से जी लेना चाहता है... शुरु-शुरु में उसे अजीब-सा लगा था यह सब. लेकिन अब तो जैसे सारा दिन उसे उसी एकाध घंटे का इंतजार रहता है. जीवन में कोई ऐसा हो जिसके साथ अपना हर पल साझा किया जा सके, यह उसका बहुत ही पुराना सपना था. लेकिन पिछले बीस वर्षों में ज़िंदगी की जो हकीकतें उसने देखी है उसके बाद तो ऐसे ख्वाब उसे किसी प्रवासी पंछी की तरह ही लगते है... खूबसूरत, मनमोहक लेकिन बहारों के बाद चले जाने वाले... लेकिन नहीं, अभिनव ने धीरे-धीरे उसकी शिराओं में  भरोसे की मजबूत लकीरें खींच दी है... भरोसा इस बात का कि न तो वह प्रवासी पंछी की तरह है और न हीं किन्हीं बहारों के मौसम का मेहमान... उसकी बातें उसकी नसों में जैसे आश्वस्ति बनकर उतरती है.

उस दिन अभिनव को उसने अपनी कुछ पुरानी पेंटिग्स मेल की थी जिनमें से कुछ की तस्वीरें उसने उसके कॉलेज के संग्रहालय में देखी थी और वहीं से खोजता-खोजता उस तक आ पहुंचा था. नेहा को पता है कि वह ठीक-ठाक सी पेंटिग्स कर लेती है लेकिन अभिनव ने जिस आत्मीय तन्मयता के साथ उन पेंटिंग्स के रंग-संयोजन, दृश्य-विधान आदि पर उससे बातें की थी, उसे अपनी पेंटिग्स के नये अर्थों का पता-सा लग गया था. नेहा अभिनव की आवाज़ के ज़ादू से तो उसी दिन परिचित हो गई थी जिस दिन उसका पहली बार फोन आया था लेकिन आज वह उसकी दृष्टि पर भी मुग्ध थी.  वह अचानक पुलक से भर गई..." अभिनव, मैं फिर से पेंटिग करुंगी.’
अभिनव को उसकी आवाज़ में जैसे खुद की सफलता मचलती सी लगी थी... " नेहा मैं भी यही चाहता हूं.. और हां, मैं तुम्हारी हर पेंटिंग का पहला दर्शक और क्रिटीक होना चाहता हूं. तुम अपनी हर पेंटिंग पूरी कर के सबसे पहले मुझे मेल करोगी न? "
अभिनव की बातें नेहा के रोम-रोम में नमक की तरह घुल रही थीं, उसे कतरा-कतरा अपनी आंच से पिघलाती हुई... धीमी से आवाज़ में उसने कहा था- "हां..." अचानक से जैसे उसकी आंखों में कुछ शीशे की किर्चों सा चुभा था... अभी उसने अपनी शादी की पहली सालगिरह भी नहीं मनाई थी. उस दिन अपनी एक पेंटिग पूरी होने के बाद वह नरेन के घर लौटने का इंतजार कर रही थी. और उसके आते ही बहुत उत्साह से उसे उस कमरे तक ले गई थी जिसे वह मन ही मन अपना स्टूडियो कहती थी... नरेन ने अनमने ढंग से उसकी पेंटिग पर नजर दौड़ाते हुये कहा था.. " तो फिर आज एक ही सब्जी बनी होगी... मैडम, आपकी इस पेंटिंग से मेरा पेट नहीं भरने वाला... और पेट किसी तरह भर भी जाय तो मन तो तब तक नहीं भरता जब तक कि खाने की थाली में चार-पांच कटोरियां न शामिल हों..." नेहा के भीतर मिभ्ी का जो घड़ा न जाने कब से आकार ले रहा था... जिसके पकने की सोंधी सी महक न जाने कब से बाहर आने को मचल रही थी, जैसे पलक झपकते ही टूट कर बिखर गया. उसे आश्चर्य हुआ था कोई कलाकार किसी दूसरे की कला वह भी अपनी पत्नी की कला के प्रति इतनी निर्मम उदासीनता भी दिखा सकता है. उस दिन उसके भीतर जो दरका वह फिर कभी नहीं जुड़ पाया. वह आखिरी दिन था जब उसने नरेन से अपनी पेंटिग के बारे में कोई बात की थी. उसके भीतर का कलाकार जैसे खाद-पानी के अभाव में अंदर ही अंदर मुरझाने लगा था. स्टूडियो में लगी इजेल और उसकी कई अधूरी पेंटिंग्स दिनों तक धूल खाने के बाद एक दिन कब-कैसे  चुपचाप वहां से निकल कर स्टोर रूम के विस्थापित कैंप में चली गई उसे भी पता नहीं चला... क्षण भर पहले की पुलक पर जैसे बीस वर्ष पुरानी यादों ने एक कसैलापन फेर दिया था... वह जैसे चुप सी हो गई... अभिनव ने उसकी चुप्पी को धकलने की कोशिश की थी.. " क्या हुआ? कहां गुम हो गई? कुछ बोलो भी?’.."
" नहीं कुछ नहीं.. मैने बोला न, हां.."
"तुम्हारा फैन तो मैं तुम्हारे कॉलेज के संग्रहालय में ही हो गया था, मेल पर तुम्हारी पेंटिंग्स देख कर अब तुम्हारा कूलर हो गया हूं."
नेहा ने हंसने की कोशिश की थी... "हूं, लेकिन ए सी कब बनोगे?"
"मैं तो कब से तैयार बैठा हूं. मौका तो दो... कहा न तुम्हारी हर पेंटिंग मैं सबसे पहले देखना चाहता हूं... और हां, तुम्हारा यह कूलर तुमसे वादा करता है कि तुम्हारा ए सी तुम्हारी हर पेंटिंग पर एक कविता लिखेगा." नेहा ने अपने पोर-पोर में एक अजीब सी थिरकन महसूस की.. उसका रोम-रोम जैसे कूची में बदलने लगा था और न जाने जीवन के कितने रंग उसकी आंखों से बह निकले थे जो न जाने कब से सूखे पड़े थे, पपड़ियाये...

बाहर मौसम बदल रहा था. आसमान में उड़ते बादल जैसे लम्बे तने शीशम की झूमती फुनगियों से गले मिल रहे थे. कोई दूसरा दिन होता तो वह खिड़की दरवाजे बन्द करती, छत पर फैले कपड़े समेट लाती... लेकिन आज उसका मन हुलस रहा था...वह छत तक निकल आई... देखते ही देखते मोटी-पतली बूंदे मूसलाधार बारिश में बदल गई थीं. अलगनी पर पड़े कपड़े भींगते रहे थे और वह देर तक बरसते बादलों से बतियाती रही थी. उसके भीतर वर्षों से फैले मरु का कोना-कोना जैसे इस धार से सजल हो आया था.

उस रात उसने खुशी की तस्वीर बनाई थी. काले सफेद बादलों से अटा पड़ा आसमान और उसकी आखिरी ऊंचाई को छू लेने को आतुर किसी परी की तरह उड़ती-लहराती उसकी बेटी, खुशी... श्वेत-श्याम रंगों के अद्भुत संयोजन से बनी उस तस्वीर में खुशी के दाहिने हाथ में उड़ते पतंग की डोर थी...अपनी खुशी को एकटक देखती नेहा ने कूची उठाई और वह सादा पतंग इन्द्रधनुष के सात रंगों से सज गया... देर रात बल्कि भोर से कुछ ही देर पहले पेंटिग पूरी करने के बाद उसने उसकी एक तस्वीर उतारी और उसे अभिनव को मेल करते हुये उसने सोचा... खुशी बिल्कुल मेरी ही तरह है... लम्बे-घने केश, छरहरी काया और गहरे काजल के पीछे से झांकती सपनीली आंखें.. क्या उसकी आंखों में भी वही सपने पल रहे होंगे जो कभी उसकी आंखों में बलते थे... खुशी जब खुश हो कर उसके गले लगती है उसके मन का हर कूल-किनारा तरल हो आता है... वह उसे अभिनव के बारे में बताना चाहती है.. उससे उसकी बातें करना चाहती है... लेकिन एक अनाम सा भय जैसे उसकी जुबान पर ताले सा लटका रहता है हरदम... अब वह बच्ची नहीं रही... कॉलेज जाने लगी है... सबकुछ समझती है... क्या सोचेगी वह... मां और इस उम्र में... उसके किशोर मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका... नहीं, वह कुछ नहीं बतायेगी उसे अभिनव के बारे में... उसकी खुशियां छीनने का कोई हक नहीं है उसे... वह तो दुनिया में सबसे ज्यादा उसी पर भरोसा करती है, शायद भगवान से भी ज्यादा....

नेहा चाहती है कि वह खुशी के आगे नरेन से कभी न झगड़े, लेकिन नरेन कई बार मजबूर कर देता है उसे... ऐसे क्षणों में खुशी अक्सर दूर कहीं देखती रहती है शून्य में और नरेन के जाने के बाद चुपचाप बिलाआवाज़ उसके पास आ उसकी हथेलियों को थाम लेती है जैसे खुद को उसके साथ होने का अहसास दिला रही हो... और उस दिन तो हद ही हो गई थी जब उसने उसके आंसू पोछते हुये कहा था - ‘मां, मैं नौकरी करने के बाद तुम्हें अपने साथ रखूंगी... मैं शादी कर के तुम्हें दुहराना नहीं चाहती...’ नेहा ने उसके होठों पर अपनी ऊंगली रख दी थी - ‘नहीं, खुशी, ऐसा नहीं कहते.’ खुशी की मासूम शक्ल और उसकी भोली बातें याद आते ही वह हर बार अपना इरादा बदल देती है या यूं कहें कि अपने जुबान तक आ चुके अभिनव के नाम को कंठ के नीचे ही घुट जाने देती है... अभिनव का नाम अपनापे का गोला बन कर उसके भीतर चक्कर काटता है... वह चाह-सोच कर भी उसकी बातें किसी और से नहीं कर सकती, उससे भी नहीं जो उसकी सबसे ज्यादा अपनी है, जो उसे जीवन में सबसे ज़्यादा प्यारी है. यदि खुदा न खास्ता अभिनव को कुछ हो गया तो वह सबके सामने दो बूंद आंसू भी न बहा पायेगी. ऐसा सोचकर उसके भीतर का अनुराग आग के गोले की तरह तेजी से उभरता और उसके मन-प्राण को बेरहमी से झुलसा जाता है.... उसके कण-कण से एक चीख-सी निकलती है और उसके भीतर ही घुट कर दम तोड़ देती है... बेचैनी का तेजाब उसके नसों में उबलने लगता है और वह एक बेनाम पीड़ा के खारे समंदर में डूब जाती है...

अभिनव को नेहा की नई पेंटिग बहुत पसन्द आई थी. सपनों का जो इन्द्रधनुष वह उसकी आंखों में तैरते देखना चाहता था उसकी स्पष्ट छाप उसे खुशी की तस्वीर में दिख रही थी... खुशी के लहराते कदमों और बोलती-सी आंखों में जैसे नेहा ने खुद को ही निचोड़ दिया था. उसने मेल पर अपनी प्रतिक्रिया लिखी थी...‘ नेहा, तुम्हारा यह कूलर अब सचमुच ए सी हो गया है. और फिर अपने वादे एक अनुसार उस पेंटिग के मूड को दर्शाती एक खूबसूरत सी कविता..."

खुशी को उसकी तस्वीर दिखाने के बाद उस दिन नेहा ने उसे अभिनव की कविता भी सुनाई थी. अपनी तस्वीर को देख खुशी तो पहले से ही खुश थी, कविता सुनने के बाद तो जैसे वह किलक ही पड़ी..." मां, इतनी सुन्दर कविता किसने लिखी?"
"मेरे एक दो..." नेहा ने बड़ी मेहनत से दोस्त शब्द को गटकते हुये कहा था..."एक परिचित ने."
"क्या नाम  है उनका?’
"अभिनव." नेहा की आवाज़ में एक अतिरिक्त सतर्कता थी और एक अनाम सा संकोच भी. उसने जबरन बातचीत की दिशा बदल दी थी... लेकिन, खुशी को अभिनव की कविता सुना के नेहा को जितना अच्छा लगा था उससे भी ज्यादा अच्छा अभिनव के प्रति उसके कौतूहल को देख कर लगा. उसके भीतर माटी के दीये में जगमगाती-सी एक निष्कंप दीपशिखा लहराई थी... उसके अणु-अणु को एक नई रोशनी से भरती हुई... लेकिन अगले ही पल उसे एक अदृश्य आशंका ने घेर लिया था, बाहर से भीतर तक पता नहीं खुशी ने क्या सोचा हो... कहीं उसने इसका कोई और अर्थ न निकाल लिया हो...

खुशी को अभिनव की कविता याद हो गई थी. मां की पेंटिग और अभिनव की कविता उसकी मन में बारी-बारी से आ-जा रहे थे. अभिनव को परिचित कहते हुये मां के चेहरे पर जो एक अकबकाहट सी उग आई थी उसकी आंखों में अब भी ताज़ा थी... उसे पापा की याद हो आई... वे दिन रात अपनी फोटोग्राफी में व्यस्त रहते हैं. घर और मां तो बहुत दूर उन्हें उसके लिये भी समय नहीं रहता... टूर... प्रदर्शनी... वर्कशॉप और न जाने क्या-क्या.. हां, वो इतना जरूर चाहते हैं कि उनकी हर प्रदर्शनी में मां उनके साथ जरूर जाये, सज-संवर कर. उसकी आंखों के आगे ऐसी कई तस्वीरें कौंध गई जिसमें पापा दीप जलाते हुये किसे प्रदर्शनी का उद्घाटन कर रहे हैं और सजी-संवरी मां अपना आंचल थामे उनके पीछे खड़ी है... उसकी जुबान पर जैसे एक तीतापन उग आया था... वह जानती है मां को इस तरह शो पीस बन कर कहीं जाना पसंद नहीं. शुरु-शुरु में तो उसने मना करने की भी कोशिश की थी.. लेकिन पापा को उसका मन पढ़ने की फुर्सत कहां थी. वे तो उसे ऐसे ही समझते थे जैसे किसी मैच में जीत कर लाइ गई ट्राफी. और ट्राफी का मन कहां.. उसे तो अपने विजेता के साथ हर जगह जाने को तैयार रहना चाहिये... उसकी जुबान पर तैरता तीतापन अब और कसैला हो कर उसके भीतर तक फैलने लगा था कि इसी बीच अभिनव की पंक्तियां अंधेरे में जगमगाते जुगनू की तरह उसके भीतर जलने-बुझने लगीं...‘उड़ो, कि आकाश तुम्हारे ही इंतजार में है...’ उन पंक्तियों की रोशनी में उसे मां की बुझी-बुझी आंखें दिखी थी... उसे याद आया इधर कई दिनों से घर का माहौल ठीक नहीं दिखता. मां की आंखों में एक अजीब सी उदासी टंगी रहती है... खामोश-सी लेकिन बिना कुछ कहे ही सबकुछ कह जानेवाली... वह उसे देख मुस्कुराने की कोशिश करती है लेकिन इस कोशिश में जैसे उसकी उदासी और उघड़ जाती है... नेहा को हर बार लगता है कि उसने खुद को उघड़ने से बचा लिया और खुशी की आंखे जैसे हर बार उसे देख लेती हैं... उस दिन वह सोने की तैयारी में थी... पापा अस्फुट सी आवाज़ में मां को कुछ कह रहे थे... वह उन्हें मेरे जगे होने का वास्ता दे चुप रहने का इशारा कर रही थी लेकिन उनका गुस्सा जैसे सातवें आसामान पर था... उनकी अस्फुट सी बुदबुदाहट अचानक से तेज हो गई थी... सोने के नाटक में उसने खुद को एक जीवित लाश की तरह बिस्तर से चिपका लिया था... पापा की आवाज़ जैसे उसके कानों में किसी गर्म सलाखे की तरह उतर रही थी... ‘कौन है वह...? बता किसे फोन करती है, तुम इन दिनों...?’ खुशी की पीठ में जड़ी उसकी आंखें देखती हैं... मां की जुबान बन्द है, लेकिन उसकी आंखें अब भी बोल रही हैं... ‘मेरा न सही, बेटी का तो ख्याल करो...’ लेकिन पापा को कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा... वे गुस्से में हैं... कुछ देर यूं ही बोलते रहने के बाद उन्होंने तकिया-चादर उठाया और नीचे के कमरे की तरफ चल पड़े हैं...

धीरे से दरवाज़े की सिटकनी लगाने के बाद नेहा खुशी की बगल में लेट गई थी... उसे मालूम था खुशी सो नहीं रही... उसका मन उस से लिपट कर रोने को हो रहा था लेकिन हिम्मत नहीं हुई... वह दूसरी तरफ मुंह किये लेटी रही... दोनों के बीच झिझक की एक महीन सी दीवर  खड़ी थी जैसे बारी-बारी से उन दोनों का चेहरा देख रही हों इस उम्मीद में कि कोई तो उसे तोड़ने की पहल करेगा... तभी खुशी के भीतर एक हलचल सी हुई और उसने नेहा की हथेलियां अपनी हथेलियों में ले ली...  हमेशा की तरह. अभी उन दोनों के बीच उनकी सांसों के अलावा और कुछ नहीं था... समय भी जैसे चुपचाप  उनके बीच से सरक कर हाशिये की तरफ चला गया था... कि तभी खुशी के सधे हुये शब्द नेहा के कानों से टकराये थे... "तुम्हारी पेंटिंग और अभिनव अंकल की कविताओं की प्रदर्शनी साथ-साथ लगे तो..?" खुशी की आवाज़ में एक अजीब तरह की तटस्थता थी जैसे अनगिनत रिहर्सल के बाद कोई मंजा हुआ अभिनेता रंगमंच पर संवाद बोल रहा हो... बाहर की दुनिया से जितना निर्लिप्त अपने किरदार के भीतर उतना ही डूबा हुआ...  नेहा सकते में आ गई थी, जैसे किसी ने अचानक से उसकी चोरी पकड़ ली हो... उसने खुद को संभालने की एक नाकाम सी कोशिश की... " कैसी बेतुकी बातें कर रही हो... प्रदर्शनी और मेरी पेंटिंग्स की..."
खुशी ने वह भी सुना जो नेहा की जुबान पर आते-आते रह गया था... "... और वह भी अभिनव की कविताओं के साथ...?"
नेहा की आवाज़ अब भी लड़खड़ा रही थी..." तुम्हें जरूर कुछ गलतफहमी हुई है..."
"नहीं, मुझे कोई गलतफहमी नही हुई.. मैं वही कह रही हूं जो समझ रही हूं और मुझे पता है मैं कुछ भी गलत नहीं समझ रही... तुम देखना अब यह प्रदर्शनी जरूर लगेगी... और हां, तुम कहती हो न कि मेरी राइटिंग बहुत अच्छी है, तुम्हारी पेंटिंग के नीचे अंकल की कवितायें मैं अपने हाथों से लिखूंगी..."  नेहा की हथेलियों पर खुशी की हथेलियों की पकड़ मजबूत हो रही थी..." और हां, ऐसा करने से हमें कोई नहीं रोक सकता, पापा भी नहीं." नेहा ने खुशी को जोर से भींच लिया था... उसे लगा खुशी सचमुच बड़ी हो गई है...

सुनहरे पंखोंवाला चांद और तेजी से फड़फड़ा रहा था... सुबह की प्रतीक्षा में टिमटिमाते तारों की रोशनी जैसे अचानक से बढ़ गई थी... ढलती रात के साथ रातरानी की महक सबकुछ अपने आगोश में भर लेना चाहती थी... नेहा ने डायरी के हल्के बादामी सफे पर एक जोड़ी आंखें खींची... गहरी, नीली और सपनों से भरी हुई... उसने गौर किया ये आंखें बिल्कुल खुशी की आंखों जैसी थी..




प्रतिक्रियाएं
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[26/01 01:50] ‪+91 98266 95172‬: परिधि के पार क्या?
परिधि के पार अनंत उड़ान।
किस वाहन से?
चाँद के रथ से।
तो सुब्ह से पहले तारों की चमक बढ़ गयी, रातरानी ने अपनी घनी गंध में सकल जगत डुबो लिया। ये है अभिनव ख़ुशी की प्रतीक बेटी जो सहेली बन गयी नेहा की...
ये आज की कहानी है। कल की होती तो बेटी बेड़ी बन जाती!
तो ये इक्कीसवीं सदी की कहानी है।
पति जैसा होता है, वैसा है। प्रेमी जैसा होता है, वैसा है। विवाहित और परकीया नायिका भी जैसी होती है, वैसी है। पर बेटी जैसी होती थी उस जमाने में, वैसी नहीं है। उसके सपने में राजकुमार नहीं, माँ के कलाकार को सुरखाब के पर लगा देने का संकल्प है।
क्या अद्भुत कहानी है, राकेश भाई, बधाई!
आभार चयन के लिए, राजेश जी! प्रवेश जी प्रस्तुतिकरण के लिए... यह सचमुच कहानी मंच की 101 वीं कहानी है!
[26/01 09:22] प्रज्ञा रोहिणी: राकेश जी एक गम्भीर कथाकार और आलोचक हैं । उनकी ये कहानी दरअसल बने बनाये वृत्त के बाहर नई दिशाओं को खोजती एक स्त्री की कहानी है। रूढ़ हो चली परिधियों के पार। और इसके पार संभाव्नाओं का इंद्रधनुषी आसमान और जीने के मुख़्तलिफ़ तरीके खोजने में नई पीढ़ी के रूप में मिली एक संवेदनशील तार्किकता ,नई बनती नैतिकता सामने आती है। पर मुझे जो बात महसूस होती है जो प्रेम के सन्दर्भ में या इस कहानी को पाठक के नज़रिये से ज़रा कुछ और आगे प्रिडिक्ट करने में समझ आई तो ये कि अभिनव आगे भी अभिनव रहेगा इसकी क्या गारन्टी है ? बाद में वो भो नरेन हो सकता है पर कहानी के भीतर से ये आहट भी सुनी जा सकती है प्रेम एक बारगी सबकुछ पाने और देने का नाम नही वह सतत प्रक्रिया है जिसे हरपल सींचना होगा यदि ये प्रक्रिया परिधि में गिरफ्त हो जायेगी तो फिर न नायिका की कला बचेगी न जीवन के विविध रंग फिर बार बार जीत की ट्रॉफी बनना उसकी नियति रहेगी और परिधि के बाहर जाने की संभावनाएं भी धीरे धीरे लुप्त होंगी फिर खत्म। और प्रेम यदि दोनों के लिये सतत प्रक्रिया रहेगा तो गतिशीलता और प्रगतिशीलता दोनों कायम रहेंगी। ये बात कहानी से खुलती नई संभावना के बारे में है। नरेन तो पहले ही इस विचार से परे सरका दिया गया है।  तुलना नरेन और अभिनव की ही नही अभिनव और आगे के अभिनव की भी होनी चाहिए। एक अच्छी कहानी के लिये राकेश जी को बधाई.
राकेश जी की पहले पढ़ी हुई कहानियों में।
आभार राजेश जी।

[26/01 09:45] Saksena Madhu: प्रज्ञा ... कहानी कुछ सवालों के साथ है उत्तर की खोज भी पाठक अपने तरीके से करता है ।आप ने सवाल उठाये जवाब भी होंगे शायद । आभार बहुत बहुत ।

[26/01 09:47] Saksena Madhu: असफल जी ... बेटी तो आज ऐसी ही हो गई है ... धन्यवाद आपका ।
[26/01 10:01] ‪+91 98266 95172‬: प्रज्ञा जी की टिप्पणी पढ़ इरा टाक की कहानी कुछ पन्ने इश्क याद आ गयी।
वहां भी नायिका भविष्य की दुविधा में जीती-मरती है। जबकि प्रेम कोई सुरक्षित करियर नहीं। करियर की तलाश में ही तो स्त्री सदियों से जाती रही है पराये घर! प्रेम तो रिस्क है। जो घर फूंके आपणा चले हमारे साथ। प्रेम में सुरक्षा की तलाश तो होशोहवास है। प्रेम की मदहोशी में इतना होश किसे!

[26/01 10:04] प्रज्ञा रोहिणी: नमस्कार असफल जी। मैंने वरण की आज़ादी के विषय में उक्त कहानी के प्रेम की चर्चा के साथ सिर्फ यही कहना चाहा कि प्रेम सतत प्रक्रिया है। आज है कल नहीं ऐसा नहीं प्रेम। 🙏
[26/01 10:06] ‪+91 98266 95172‬: यह और कहिये की एहसास है, प्रेम। मुक्त गगन। कोई घोसला नहीं।
[26/01 10:12] प्रज्ञा रोहिणी: मुक्त गगन के बरक्स अनेक बार घोंसला भी प्रेम रचता और नई दृष्टि से व्याख्यायित करता है। और मुक्त गगन अपनी उच्श्रृंखलता में अनेक बार प्रेम को प्रेम नहीं रहने देता। घर में प्रेम हो नहीं और दुनिया में ढूंढते फिरें। घर का जोगी जोगड़ा आन बाहर का सन्त?
[26/01 11:05] ‪+91 98266 95172‬: कल आपकी ही तो कहानी पढ़ी फ्रेम। कहां था प्रेम फ्रेम में जड़े जतिन के माँ-बाप में?
[26/01 11:15] प्रज्ञा रोहिणी: असफल जी मैं उसी जड़ प्रेम के फ्रेम का ही विरोध कर रही थी। कोशिश तो प्रेम को बचाने की है। सारी जद्दोजहद।

[26/01 11:38] Saksena Madhu: इस कहानी में नेहा और अभिनव की उम्र में अंतर तो होगा ही ।अभिनव की शादी को एक बरस भी नहीं हुआ और नेहा की बेटी शायद किशोर वय को पार करती हुई ।हम ये मान सकते हैं की अभिनव ने नेहा की तूलिका को पुनर्जीवित किया और बेटी उस तूलिका की सक्रियता बनाये  रखेगी ।अभिनव और नेहा का साथ जरूरी तो नहीं है ?
[26/01 11:39] Saksena Madhu: प्रेम की छोटी सी चमक जीवन भर के लिए रौशनी भी बन सकती है ।
क्या कहेगें आप सब ?
[26/01 11:49] ‪+91 98266 95172‬: कहानी का निहितार्थ यही है, शायद! प्रेम ठहरा हुआ सागर नहीं है, बहती हुई मीठी नदी है।
[26/01 12:39] Pravesh: मधु नेहा और अभिनव की उम्र का अंतर कहानी में कही भी दृष्टिगत नही है ।दोनों हम उम्र ही है ।शादी के एक वर्ष का जिक्र नरेन् और नेहा के बीच के वार्तालाप का है ।

[26/01 13:50] ‪+91 94257 11784‬: वरेण्य कथाकार एवं समीक्षक श्री राकेश बिहारी जी की कहानी , परिधि के पार, अद्भुत असाधारण कहानी है ।किन्तु वह हमारे अपने समय की कहानी तो  शायद नहीं ही है । वह वस्तुतः प्रेम के उस धवल विमल  रूप की कहानी है जो किसी भी स्त्री या पुरुष के  चिर काम्य हो सकती है । किन्तु उसके लिये स्त्री और पुरुष दोनों का ही अत्यंत विकसित (highily evolved) मन चाहिए ।उसके लिए नहीं मालूम,  मनुष्य को अभी और कितनी सदियों की लंबी यात्रा तय करनी पडे ।अभी व्यक्ति अपने एकाधिकारवादी आदिम संस्कार से कहाँ मुक्त हो पाया है।
   आदरणीय राकेश बिहारी जी ने हमारे सामने एक  मॉडल रख दिया है जिसमें एक संवेदनशील किशोरी अपनी माँ के विवाहेतर प्रेम संबंधों को  पुष्पित पल्लवित  करने की पहल करती है । ऐसा अपवाद स्वरूप ही संभव है ।वस्तुतः परिधि के पार प्रकृतितः  यूटोपियन  कहानी है । कभी,  उसके अनुरूप  एकबेहतर समाज निर्मित हो और दुनिया के तमाम नरेंद्रो को उदार  मनुजो' में परिणत कर प्रेम का इन्द्रधनुषी रंग सर्वत्र बिखर जाये , अभी एक संकल्प ही है ।पर कल्पनाएं साकार  भी होती हैं ।श्री राकेश बिहारी जी  इस कहानी के माध्यम से इस दिशा में पहल करते दिख पड रहे हैं । उनकी कहानी की प्रायः प्रत्येक पंक्ति किसी सुंदर कविता की सम्मोहकता से परिपूर्ण है ।उससे पाठक का मन कहानी सेआद्योपान्त  जुडा रहता है । ऐसी अत्यंत  कलात्मक और विचारपूर्ण कहानी के लिए श्री राकेश जी का अनेकशः अभिनंदन ।भाई राजेश झरपुरे जी , मधुजी, प्रवेशजी को बहुत बहुत धन्यवाद ।

[26/01 14:01] Pravesh: आदरणीय जगदीश तोमर जी हार्दिक धन्यवाद ।
आप बहुत मेहनत से कहानी की महीन परतों से गुजर कर कहानी के विषय ,भाषा, और शिल्प की गहन मीमांसा करते है ।मैं नतमस्तक हूँ आपके इस साहित्य अनुराग के लिए

राकेश बिहारी जी की कहानीअपने समय की कहानी नहीं है ।लेकिन प्रेम कभी किसी समय  से बाधित नही हुआ ।

सादर  आभार
🙏
[26/01 14:10] Niranjan Shotriy sir: राकेश बिहारी की एक अच्छी कहानी। मुझे लगता है कि रचनाकार आज के समय में रह कर भी आगामी समय की आहट सुन सकता है, बल्कि उसे सुनना ही चाहिए (जैसा कि इस कहानी में है)। इस तरह के बेमेल साथ के उदाहरणों से हमारा समाज भरा पड़ा है। कथाकार ने बारीक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कथा का निर्वहन किया है।
[26/01 14:14] Pravesh: आभार निरंजन श्रोत्रिय सर
आपकी बात से सहमत हूँ ।
राकेश बिहारी जी ने प्रेम के महीन मनोवज्ञान लिपिबद्ध किया है इस कहानी में ।
बेमेल साथ ही इस प्रेम की उपज है ।

धन्यवाद सर
🙏
[26/01 14:18] Rajnarayan Bohare: सशक्त कहानी । उम्दा प्रेम कहानी। यथार्थ  भरी कहानी। जिसे पढ़ते हुए कभी पवन करण की कविता " प्रेम करती हुई माँ " याद आती रही तो कभी असफल जी की कहानी सुलक्ष्णा
[26/01 14:23] Pravesh: 🙏😊
धन्यवाद बोहरे सर ,  प्रेम  सर्वव्यापक विषय है ,इस पर जितना लिखो ,पढ़ो कम ही प्रतीत होता है ।हर लेखक ने इसे अलग अलग दृष्टि से देखा और अभिव्यक्त किया ।
[26/01 15:34] ‪+91 94535 43238‬: जब से मंच से जुड़े हैं, एक से बढ़कर एक प्रेम कहानी पढ रहे हैं उस पर असफल जी की सफल और सटीक आलोचना मंच को और विशिष्टता प्रदान कर रही है.
[26/01 15:49] ‪+91 94535 43238‬: मंच की पूरी टीम को इस छोटे लगने वाले लेकिन वास्तव में बड़े सृजनात्मक कार्य के लिए बहुत - बहुत शुभकामनायें.

[26/01 18:45] ‪+230 5910 9094‬: मॉरीशस  •••• २६ ०१.१६.
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 प्रेम कहानी की कड़ी की दूसरी कहानी ' परिधि के पार ' कल की कहानी से थोड़ी भिन्न और विकसित है.रचनाकार राकेश बिहारी की सोच में कल की पीढ़ी का प्रेम-रूप नज़र आया है.प्यार बकायदाू मौजूद है. पर प्यार की बंदिशें नहीं  हों ऐसा एहसास होता है. पात्रता का भी सवाल उठ खड़ा हुआ है.
कहानी में एक द्वन्द्व है.चयन की दुविधा के बीच नेहा घर की लिवशताओं एवं परम्पराओं में जकड़ी है.एक तरफ प्यार है तो दूसरी तरफ घर (पति) है.पर नेहा  का मन कहां लगता है ? वह किस के साथ होना चाहती है ? राकेश जी ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है :१.  'तो फिर आज एक ही सब्जी बनी होगी ! '
२. मैं तुम्हारे हर पैंटिंग का पहला दर्शक और क्रिटीक बनना चाहता हूँ.' एक रंगकार को क्या भाए लेखक ने बस वही लिखा है जो logic कहता है.यहां लेखक अपने पात्रों के साथ पक्षपाती संवाद  नहीं लिख रहा ! परंतु अपने पात्रों को बोलते सुन रहा है और चुपचाप बैठ कर कहानी लिख रहा है.
इस युग का प्रेम बदला नहीं है.जायज़ है लेखक का लिखना.'पेंटिंग से पेट नहीं भरने वाला ! ' भला बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ! अर्थात ' थाली में जब तक पांच कटोरियाँ नहीं होती ..' के सामने पेंटिंग का क्या महत्व ? नरेन को पता नहीं कि एक समय में मेहबूबा के घर में घूसने के लिए प्रेमी पहले उस के कुत्ते से दोस्ती करता था ! पर यह तो पत्नी के दिल में नहीं घूस पाया !

 नेहा को राकेश बिहारी ने कभी बहकने नहीं दिया है.वह लहकी है.दहकी है. 'नरेन जो २० साल में नहीं कर पाया वह अभिनव हथेली में लेकर सामने खड़ा था...' ये दोनों ही क्रियाएँ कहानी के दो विरोधी पात्रों के हैं जो सीधे नेहा.नेहा के प्यार से .नेहा के जीवन से जुड़े हैं.नेहा की चाहत और कला -प्रेम को समझने में दोनों पात्र अपना असग२ निर्ण़य देते हैं जो नेहा के पक्ष को मज़बूत करते हैं.यह कहने का ढंग ही बिहारी को एक बड़ा शिल्पकार बना देता है कि नेहा का निर्णय दोनॊं पुरुष पात्र कर लेते हैं या पूरा२ सहयोग करते हैं.
कहानी के अंत ' अगर अभिनव अंकल की कविता और आप का चित्र प्रदर्शनी
एक साथ हो तो !' खुशी खुशी की लहर  का संचार कर देती है.यहां भी नेहा जो ' पेंटिंग मेल कर देना ' के ज़माने की है उस से भी आगे की पीढी की है खुशी ! प्रेम का जसबा दोनों ही पीढ़ियों में belle et bien बखूबी  मौजूद है.पाठक को अपने को कल में ढाल कर देखना  बाकी रह जाता है.
प्रज्ञा जी का सवाल खड़ा करना एक सार्थक बहस को आमंत्रित करना है.'क्या गैरंटी है कि अभिनव, अभिनव रहेगा कि वह भी नरेन होगा ? ' मैडम जी ! गुस्ताखी मुंआफ ! कल आप ने लिखा है ' प्रेम विवाह भी कभी अन्य विवाहों जैसे हो जाता है.'
मैं ने लिखा था कि  'हॉनिमून के बाद आकर्षण घटता ही जाता है😃' आज भी वही दोहराऊँगा क्यों कि कल मैं आप का पाठक था आज भी पाठक हूँ.मगर राकेश बिहारी का !!

कल के राकेश बिहारी को आज की कहानी कल के पाठक के लिए लिखने हेतु  हधाई और शुभकामनाएँ.

rajheeramun@gmail.com

[26/01 19:57] Alka Trivedi: दौनों चरित्र मानव मन के दो ध्रुव जैसे हैं ,हम तो कहीं बीच में आते हैं कभी नरेन तो कभी अभिनव
[26/01 21:14] ‪+91 78384 91696‬: राकेश बिहारी जी की सशक्त कहानी जिसमें रूढ़ पुरुष और नए पुरुष दोनों का प्रतिबिम्ब।दोनों स्त्रियां चाहे माँ हो या बेटी सघन प्रेम की चाहत करती है।पुरानी स्त्री जहाँ सहमती है  नयी वहां उसके साथ को खड़ी हो जाती है।स्त्री की मुक्ति का रास्ता स्त्री से होकर ही गुजरेगा ,न सिमोन ने गलत कहा था न महादेवी ने।राकेश बिहारी जी को बधाई🌹
[26/01 21:26] Archana Mishra: कहानी आज के यथार्थ की झलक दिखाती हुई। प्रेम को नये दायरे में स्थापित करती राकेश बिहारी जी की सशक्त कहानी।बहुत खूबसूरत शब्द विन्यास कहानी को और गति और सुंदरता देते मन में अपना स्थान बनाते  हुये।बहुत खूब....
बधाई राकेश जी।

[26/01 21:46] Rakesh Bihari Ji: कहानी 'परिधि के पार' पर आप सब की प्रतिकियाओं ने मुझे नए सिरे से उत्साहित और आश्वस्त किया है। मुझे अपनी जिस कहानी पर सबसे ज्यादा प्रतिक्रियाएं मिली हैं, यह उनमें से एक है। अभिनव जैसा पुरुष हर स्त्री के सपनों में पलता है, लेकिन अभिनव और नरेन के रूप में प्रेमी बनाम पति का द्वंद्व स्त्री-पुरुष संबंधों की अनिवार्य नियति है। अभिनव कल को नरेन हो जाए तो...  या नरेन अतीत में अभिनव जैसा रहा होगा की बहस के मूल में यही द्वंद्व है, लेकिन यहाँ कहानी नेहा-नरेन-अभिनव के प्रेम त्रिकोण से ज्यादा नेहा और ख़ुशी के संबंधों के बहाने माँ और बेटी के बदलते रिश्तों की युगीन अनिवार्यता और प्रासंगिकता को संबोधित है।

प्रेमी के रूप में पुरुष अमूमन अभिनव-सा ही होता है, इसलिए अभिनव के होने पर संदेह नहीं होना चाहिए। पर पति रूप में भी कभी पुरुष अभिनव-सा हो पाएगा, यह एक जरूरी सवाल है। पारंपरिक समाज में तो स्त्रियों के परस्पर रिश्ते भी इतने समरस नहीं होते। लेकिन स्त्रियों के दुःख पूरी दुनिया में एक-से होते हैं। इसीलिए पीढ़ी और रिश्तों के दायरे से अलग स्त्री और स्त्री के बीच बहनापे के रिश्ते को समझने और पल्लवित होने की जरूरत सबसे पहले है। यदि ऐसा होने लगे तो शायद कल को अभिनव के नरेन बन जाने की संभावनाएं भी कम जाएँ। इस कहानी को लिखते हुए शायद यही वैचारिकी काम कर रही थी। मेरे भीतर के स्त्री पक्ष की सजगता का भी इसमें योगदान है।

अपनी कहानी पर ज्यादा बोलना शोभन नहीं होता। कहानी जिस तरह पाठकों को संप्रेषित हुई वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। अतः मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ। आप सब ने जिस सदाशयता के साथ मेरे इस प्रयास को अपनी अनुकूल प्रतिक्रियाओं से नवाजा है, इसके लिए मैं आप सब का बहुत-बहुत आभारी हूँ।

🙏🙏🙏🙏
[26/01 22:06] Pravesh: धन्यवाद राकेश बिहारी जी ।
आपका लेखकीय व्यक्तव्य भी आवश्यक था इस कहाँ नी के मर्म को समझने के लिए ।त्रिकोणीय प्रेम कथा की बनिस्पत यह माँ बेटी के रिश्ते की समझ का मूल है ।
आपका हार्दिक आभार ।

सभी सदस्यों का अभिनन्दन ।आप सबकी सारगर्भित प्रतिक्रियाएं मंच को गौरवान्वित करती है ।

[26/01 22:07] Aasha Pande Manch: अभी पढ़ पाई ये कहानी.पति कभी प्रेमी की तरह हो पायेगा?ये यक्ष प्रश्न है लेकिन स्त्री के साथ स्त्री हो जाये ये भी कम उपलब्धि नही होगी.अपनी बेटी मां के प्रेम को सहज ले निश्चित रूप से ये युगीन अनिवार्यता है.अच्छी कहानी  के लिये राकेश जी के बधाई.
[26/01 22:08] ‪+91 98266 95172‬: यथार्थ कुछ भी हो, प्रेम का आदर्श रूप ही अच्छा लगता है। प्रेम सचमुच एक पहेली। उसके विविध रूप। कोई पूर्ण नहीं, कोई अपूर्ण नहीं। प्रेम रूहानी भी, मानवीय भी।बलिदान देता भी, लेता भी। टीस देता तो आनन्द भी। कोई बचा नहीं उसके विराट अनुभव से। एक ऐसा भाव जो जागतिक भी पारमार्थिक भी। सर्व व्यापक। सार्वकालिक। तो इस अपराजेय प्रेम को नमन!

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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