Thursday, August 13, 2020

 


किसी मुल्क पर दुसरे मुल्क का कब्ज़ा करके उसे नक़्शे से मिटा देना सामान्य बात नहीं है विशेषकर वहां के वाशिंदों के लिए तो टूट कर बिखर जाने वाली बात होती है |विस्थापित होकर दूसरी जगह अपनी पहचान को बचा कर रखना सहज नहीं होता |भावनाओं के इसी भंवर को कहानी में रचने की शानदार कोशिश की है प्रसिद्ध  समका लीन कथाकार तरुण भट्नागर ने | और वह इसमें पूर्णतया सफल भी हुए है |

उनके द्वारा लिखित कहानी "भूगोल के दरवाजे पर " सुधि पाठक डॉ कंचन जायसवाल ने अपनी बात रखते हुए समीक्षा लिखी है |

रचना प्रवेश पर पढ़िए कहानी और कंचन जायसवाल की समीक्षा -

                                                                     डॉ कंचन जायसवाल 


 तरुण भटनागर की कहानी “भूगोल के दरवाजे पर" 


यह कहानी ‘तिब्बत' के बारे में है ,एक ऐसा मुल्क जो अब दुनिया के नक्शे में नहीं है. कहानी का एक पात्र मास्टर है, जो गांव में एक स्कूल चलाता है .वह अपने बच्चों को तिब्बत के बारे में बतलाता है, जबकि वह जानता है कि यह विषय अब उनके भूगोल के कोर्स में नहीं है. बच्चे भी छोटी उम्र के हैं. कोर्स के बाहर की चीज को जानना उनके लिए जरूरी नहीं है।

‘ तिब्बत शानदार मुल्क था ,लोग उसे देवताओं की भूमि कहते थे' ।

कहानी छत्तीसगढ़ के मैनपाट जगह से शुरू होती है जहां विस्थापित तिब्बती आकर बसे हुए हैं ।इनकी अपनी एक पहचान है ,शक्लो- सूरत है, भाषा है, गीत- संगीत है, धर्म है, और अपना दर्द है जिसकी टीसें वे कभी भुला नहीं पाते और यह दर्द  पीढ़ी दर पीढ़ी वे अपने वारिसों को सौपते चले जाते हैं। 30 साल हुए उन्हें मैनपाट में बसे पर मैनपाट उनका घर नहीं है, उनकी जगह  नहीं है, उनका मुल्क कहीं और है, बल्कि अब कहीं नहीं है।

“ खुद को यकीन दिलाना एक थका देने वाला काम है। “


“यह जो यकीन नाम की शै है ,उनके बदन पर घाव के निशान हैं।” 

कहानी का एक अन्य पात्र ग्याल्त्सो है ,विस्थापित तिब्बती बुजुर्ग जो कि मास्टर का दोस्त है ।मास्टर मैनपाट आता जाता रहता है। बच्चों ने ग्याल्त्सो को देखा है मास्टर से मिलते- जुलते ।वह उन्हें चीनी जैसा लगता है ।बच्चे उसे चीनी- चीनी कहकर चिढ़ाते हैं। बुजुर्ग ग्याल्त्सो गुस्से में उन्हें दौड़ाताहै ।वह मास्टर से शिकायत करता है कि बच्चे उसे चीनी कहते हैं ,पर शिकायत करते- करते वह रो पड़ता है।

 गुस्सा करना बच्चों के लिए सामान्य बात है पर किसी बुजुर्ग का रो देना उनके लिए बहुत बड़ी बात है। बच्चे सहम जाते हैं ।मास्टर बच्चों को डांटता है और कहता है,-“ वह तिब्बती है चीनी नहीं”.

“ हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग लोग हैं.”

 अब मास्टर के लिए यह जरूरी है कि वह बच्चों को बतलाए तिब्बत के बारे में ।वह अपने बचपन में लौट जाता है ।वह बच्चों को बतलाता है कि जब उसने भूगोल पढ़ा था तब उसकी किताब में तिब्बत का जिक्र एक मुल्क के रूप में होता था ।एक ऐसा मुल्क जो भारत का पड़ोसी था और उसकी सरहदें भारत की सरहदों से लगती थीं। वह बतलाता है कि अब भूगोल की किताब में तिब्बत का जिक्र एक देश के रूप में नहीं है क्योंकि अब तिब्बत नक्शे में कहीं नहीं है। उस पर चीन का कब्जा हो चुका है।

“ देखो बात ऐसी है कि जमीन उसी की होती है ,जो उस पर कब्जा कर लेता है.”

“किसी मुल्क को जीतने के कई तरीके हैं .पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो ।“

बच्चे गौर से मास्टर की बातें सुनते हैं ।मास्टर बतलाता है-“ स्कूल का कोर्स ही क्या दुनिया की किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों का नाम नहीं मिलता ,तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों के गीत और कहानियां नहीं मिलेंगी। तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली ,या उससे भी आगे”.


“  मास्टर एक बात कहता था जो बिल्कुल भी समझ ना आती थी. वह कहता था किहारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है ।इसका मतलब होता है स्मृति में से मिटा दिया जाना।“

बच्चे यद्यपि उम्र में छोटे हैं पर मास्टर की बातें और ग्याल्त्सो के आंसू मिलकर उनके मासूम मन में तिब्बत की ,एक खोए हुए देश की मौजूदगी दर्ज कर देते हैं। ग्याल्तसो को खुश करने के लिए सभी बच्चे अपनी भूगोल की किताब में एशिया के मुल्कों के नाम में तिब्बत का नाम भी जोड़ देते हैं ।

“उस जगह हम सब ने लिख दिया- देश तिब्बत ,राजधानी लहासा।“

 बच्चे अपनी किताबें मास्टर को दिखाते हैं मास्टर सबकी किताबें देखता है और चुप रहता है। वह यह तो समझता है कि बच्चों ने तिब्बत का नाम एशिया के मुल्कों के नाम में जोड़ दिया है पर तिब्बत है कहां  । ग्याल्त्सो भी यह जानकर खुश होता हैपर वह बच्चों को हिदायत देता है कि परीक्षा के लिए वे उसे याद  न करें क्योंकि परीक्षा में जो है उसी के बारे में लिखना है ,जो अब बस यादों में है उसके बारे में नहीं, अन्यथा उन्हें नंबर नहीं मिलेगा ।

कहानी आगे बढ़ती है एक चिट्ठी के आने पर जो ग्याल्त्सो के लिए है पर ग्याल्त्सो  जो कि अनपढ़ है उस तक यह चिट्ठी कैसे पहुंचाई जाए ।मैनपाट से एक तिब्बती आकर मास्टर को चिट्ठी के बारे में बताता है, उस पर यह जिम्मेदारी छोड़ देता है कि वह ग्याल्त्सो को बताए मास्टर और ग्याल्त्सो की दोस्ती बहुत पुरानी है। मास्टर बच्चों कोआउटिंग के बहाने मैनपाट लेकर आता है।बच्चे मैनपाट देखने के लिए उत्साहित हैं ।वहां पर जो तिब्बती रहते हैं  उन में से 10 तिब्बतियों को हर साल अपने मुल्क को देखने का मौका मिलता है। तिब्बत देखने के लिए जाने वालों में ग्याल्त्सो का नाम है पर दूसरा तिब्बती जिसकी जिम्मेदारी है कि वह 10 लोगों का नाम चयनित करें वह चाहता है कि ग्याल्त्सो तिब्बत ना जाए, क्योंकि उसे जो चिट्ठी मिली है उसके अनुसार अब तिब्बत में ग्याल्त्सो के परिवार का कुछ भी बचा नहीं है ।5 साल पहले ही उसका सब कुछ खत्म हो चुका है,, उसका बेटा उसका घर,सब कुछ।पर यह सूचना वह ग्याल्त्सो को कैसे दे। जबकि ग्याल्त्सो जाने के लिए बहुत उत्साहित है ।जब मास्टर  ग्याल्त्सोको मना करता है  ,वह कहता है-

“ 25 साल .क्या तुम गिन सकते हो? 25 सालों को कोई नहीं गिन सकता। पर मैंने गिना और रुका रहा। पर फिर भी तुम कहते हो कि वहां जाना बेमतलब है ।अंततः बेमतलब।“

 मास्टर उसे पत्र के बारे में बताता है और कहता है कि अब वहां कुछ भी नहीं है ।ग्याल्त्सो समझ जाता है और दुख के गहरे सागर में डूब जाता है ।उसकी रुलाई पूरे मैनपाट को दुखी कर देती है। अपनों को खोना, अपना सब कुछ खो देना क्या होता है ,एक इंतजार, एक उम्मीद जो ग्याल्त्सो को जिंदा रखती है कि एक दिन वह अपने मुल्क जाएगा ,अपने परिवार से मिलेगा, अपने वतन की मिट्टी को छुएगा ,अपनी हवा, अपना पानी ,अपने आसमान के नीचे खड़ा होगा, सब खत्म हो जाता है।ग्याल्त्सो कि स्मृति में बचा हुआ उसका मूल्य अब पूरी तरह से मिट चुका है।

“तिब्बत एक अनुमान था, अंधेरे में उंगलियों की एक टटोल था तिब्बत“………………

मास्टर उसी रोज अपने बच्चों के साथ अपने गांव वापस लौट आता है। 




कहानी 

भूगोल के दरवाज़े पर                

तरुण भटनागर  


 एक

जब तक हमने वहाँ के बाशिंदों को नहीं देखा था, वह गाँव ठेठ ही लगा. देखने में वह गाँव जिस तरह से गाँव होते हैं उससे अल्हदा दीखता था, उसमें बने मकान, लंबे और चोंगे के आकार का मंदिर और हवा में फरफराती तमाम तरह की चौकोर रंग बिरंगे कपडों की लडों से सजा-धजा वह गाँव एक अलग दुनिया सा दीखता रहता.


बचपन के किसी किस्से में सुनी किसी जगह जैसा. कोई जगह जिसके बारे में बचपन की किसी कहानी में सुना जाना था, कुछ-कुछ वैसा ही. पर फिर भी उसमें एक गाँव पन था, एक ठेठपन जो इस सबके बावजूद उसकी फितरत में था. उसके बाशिंदों को देखते ही उसका यह ठेठपन बिला जाता था. पल भर को लगता कि वह कितनी अल्हदा जगह है, हमारी दुनिया से कितनी मुख़्तलिफ, न कभी देखी, न जानी. यूँ तो यह भ्रम ही था कि अगर लोग अलग से दीखते हों तो वह दुनिया जिसमें वे रहते हैं वह भी अलग सी दुनिया होती है. हम स्कूल जाते बच्चे थे. और इस तरह यह भ्रम हमें बताता रहता था कि वह गाँव कितना तो अलग है. छुटपन के, उन दिनों के आलम में, यह अलग सा दीखने वाला गाँव अजूबेपन की हद तक अल्हदा नजर आता रहता था.

       

यह बात थी उन्नीस सौ अस्सी की. उन लोगों के उस गाँव में  सबसे पहले बसने के तीस साल बाद की. तीस साल पहले उनकी जो पहली आमद हुई थी इस गाँव में उसके बारे में कोई खास मालूमात नहीं हैं. बस इतना ही पता चलता है कि वे आये और बस गये.            

         

छत्तीसगढ़ में जो जगह समुद्र तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी है, वह यही गाँव है. जैसा कि है ही कि वहाँ के बाशिंदे हमारे यहाँ के से नहीं जान पडते. नहीं दीखते. और यह भी कि लंबे बीते वक्त ने यह जतलाया कि चपटे चेहरे, सीधे खडे बाल और छोटी-छोटी आँखों वाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे अलग दिखते हैं. उनके पास जाओ, उनसे बात करो तो लगता है कि सिवाय इसके कि वे अलग दीखते हैं कुछ भी तो अलग नहीं. अलग दीखना भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि उस गाँव का मुख़्तलिफ सा लगना. वे एक ऐसी जगह से आये थे, तीस साल पहले, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था. तीस साल पहले वह जगह दुनिया के तमाम अखबारों में सुर्खियाँ बनी थी. तब वे सैंकडों की तादाद में उस जगह को छोडकर चले आये थे. टाइम्स मैगजीन से लेकर न्यूयार्क टाइम्स तक और बी.बी.सी. लंदन से लेकर दुनिया के तमाम समाचारों में वे ही वे थे. उन पर बातें थीं. उनकी ही तस्वीरें दीखती थीं. पर वे इन सब से बेखबर चलते-चले थे. वे सैंकडों की तादाद में आये. फिर यहीं रह गये.

                     

उनके बारे में जो नहीं पता था, वह यह था कि बीते तीस सालों में और उस दिन जब हम उनके उस गाँव गये थे तब भी, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, खुद को यकीन दिलाया है कि यह जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, ये तमाम लोग, आसमान के चाँद सितारे सब ... सब उनके ही तो हैं. यह बात समझ न आती थी कि कोई खुद को इस तरह का यकीन क्यों दिलाता रहता है कि सारी कायनात उसकी ही तो है ? चारों ओर देखो तो लगता है सबकुछ अपना ही तो है. हम यहाँ रहते हैं. हमारा मकान है यहाँ. हमारा परिवार. फिर यह बात क्यों ? पर यह सब था ही. इतना ही नहीं बल्कि उन्हें लगता कि खुद को यकीन दिलाना एक थका देने वाला काम है. कब तक और किस तरह से कोई खुद को यकीन दिलाता रहे. आप अगर बार-बार खुद को यकीन दिलायें तो थक जायें. खुद को यकीन दिलाने वाले लोगों के चेहरे पर बेवक्त ही झुर्रियाँ आ जाती हैं. उनके बाल जवानी में ही पकने लगते हैं और उनकी आँखों का नूर बितर जाता है. यह जो यकीन नाम की शै है उसके बदन पर घाव के निशान हैं. यकीन नाम की इस शै के जिस्म से खून रिसता रहता है. पर फिर भी वे खुद को यकीन दिलाते रहते हैं और धीरे-धीरे यकीन पर से उनका यकीन दरकता रहता है. झूठ कोई ऐसी चीज तो नहीं कि कोई खुद से झूठ कहकर खुद को ढ़ांढ़स देता रहे. उनके यकीन के साथ यही गडबड है. उनका यकीन झूठ के ढाँचे पर तना है. इसलिये उनके जेहन में जब-जब उनका यकीन उठकर खडा होना चाहता है, वह इस कोशिश में पलटकर गिरता है. पछाड खाकर भीतर कहीं बेहोश हो गये यकीन की देखभाल करना सबसे कठिन काम होता है. पर कोई क्या करे ? कोई राह नहीं सूझती.





 दो 

मैनपाट. छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का ही एक गाँव है. कहते हैं समुद्र तल से लगभग एक हजार एक सौ मीटर ऊपर. पहाडों पर रहने वालों को यह ऊँचाई कम लग सकती है, पर यकीन करें मैनपाट में आये ये लोग जिस जगह से आये थे वह जगह समुद्र तल से पाँच हजार मीटर की ऊँचाई वाली जगह थी. इतने ऊँचे तो पहाड भी कहाँ होते हैं. पूरे छत्तीसगढ़ में मैनपाट सबसे ऊँचाई पर है. इससे ऊपर कोई और गाँव नहीं है. यह आसमान के सबसे पास है. जिस जगह जो जगह सबसे ऊँचाई पर होती है वही उस जगह आसमान के सबसे पास होती है. यही माना जाता है.                

                           

तारीख गवाह है, कि तीस साल पहले जब उनसे उनकी जमीन, मकान, परिवार, सबकुछ छीन लिया गया था, तब वे हजारों की तादाद में एक अनिश्चित सी उम्मीद के साथ हमारे यहां आये थे. कोई नहीं जानता कि वे अपनी आँखों में जलते मकानों के मंज़र लेकर आये थे. गिराये जाते मकानों के खौफनाक नजारे उनके जेहन से गुजरते रहते थे. उनकी खामोश आँखों में बेगुनाह कस्बों की गलियों में बहते मासूमों के खून का मंजर एक ऐसी चीज थी जिसे वे किसी को बता न सकते थे. उन में से कुछ इतने मजबूर थे कि उन्होंने दरवाजे की ओट से छिपकर देखा था अपने परिवार का कत्ल. इस तरह वे आये थे. वे आये और कुछ जगहों पर बसे. मैनपाट भी ऐसी ही जगहों में से एक है. वे लोग आज भी मैनपाट में है. पर लोग इसे एक घूमने फिरने वाली जगह के रूप में जानते हैं. लफरी घाट और टाइगर नाम के झरनों और उल्टा पानी नाम की एक जगह जहाँ पानी उल्टा बहता है इस जगह की प्रसिद्धी की वजह हुई. यह एक हिल स्टेशन जाना गया. इस तरह इस जगह की तमाम बातों में उन लोगों की कहानियाँ शामिल नहीं हो पाईं


 वे अपने साथ बुद्ध को लेकर आये थे. इस गाँव में उन्होंने बुद्ध का एक मंदिर बनाया. उन्होंने बुनने का और खेती का काम किया. उन्होंने लसाप्सा नाम के कुत्तों को पाला और उन्हें बेचा. जीने की एक राह उन्होंने खोजी. वे अपनी जबान में बोलते-बतियाते. अपने मुल्क का गीत गाते, उनका मुल्क, वह मुल्क जो अब धरती के नक्शे में दीखता नहीं. अगर आप दुनिया के नक्शे को देखें तो जिस तरह तमाम मुल्कों के अलग-अलग रंग दीखते हैं. उनकी अलग-अलग सरहदें दीखती हैं. उस तरह से उस मुल्क को अलग रंग और सरहद में नहीं दिखाया जाता है. किसी मुल्क का दुनिया के नक्शे से गायब हो जाना कोई छोटी बात नहीं है. दरअसल हुआ इस तरह था कि पहले तो वह मुल्क नक्शे से गायब हुआ और फिर वह धीरे-धीरे लोगों की बातों से भी गायब होने लगा. लोग उसके बारे में बातें करना भूल गये. नक्शे से गायब हो जाने के बाद लोगों को भी यह बहाना मिल गया था कि उस मुल्क पर बात करने की अब क्या जरुरत ? इस तरह जब बात नहीं हुई तो वह मुल्क फिर आहिस्ते-आहिस्ते भुला दिया गया. कुछ इस तरह कि तमाम लोगों से अगर आप पूछें कि वह मुल्क हिंदोस्तान का पडोसी मुल्क था और आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान जैसे मुल्क से भी काफी बडा तो एकबारगी उनमें से कइयों को लगे कि आखिर यह किस मुल्क की बात की जा रही है ? वह कौन सा मुल्क था जो हिंदोस्तान का पडोसी था, पर आज दुनिया के नक्शों में नहीं है और जो आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान से बडा था ? इतना ही नहीं हिंदोस्तान से मिलने वाली उसकी सरहद किसी भी दूसरे मुल्क से मिलने वाली हिंदोस्तान की सरहद से कहीं ज्यादा लंबी थी. वह सबसे लंबी सरहद वाला हिंदोस्तान का पडोसी था. 


वे उसी मुल्क के लोग थे. वहीं से आये और मैनपाट में बसे.                                     

                                                      

 तीन               


वह इन्हीं लोगों में से एक था. मैनपाट की घाट से साईकिल चलाता आता था. उसका नाम ग्याल्त्सो था. हम सब उसके नाम को ठीक-ठीक बोल न पाते थे. हम लोग याने हम सब बच्चे और स्कूल का मास्टर. उसका पूरा नाम कुछ और था. वह इतना लंबा और अजीब नाम था कि हम बोल न पाते थे. इस तरह हम उसे सिर्फ ग्याल्त्सो कहते थे. हम ठीक से ग्याल्त्सो भी न कह न पाते थे. पर इससे उसे कोई दिक्कत न थी. स्कूल के मास्टर से उसकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि उसने उससे दोस्ती के खातिर किसी भी तरह से कह दिये जाने वाले अपने नाम को, हमारी जबान से मंजूर कर लिया था.


            

उस दिन हम दस स्कूली बच्चे अपने इसी मास्टर और गाइड मास्टरनी के साथ मैनपाट आये थे. वह शाम थी और हमें वहाँ की प्राथमिक शाला के एक भवन में आगे पाँच दिनों तक रहना था. मास्टर ने हमें बताया था, कि इसे ‘आउटिंग’ कहते हैं. उस रात हमें उस गाँव के सिर्फ दो लोग मिले थे, जिन्हें मास्टर और हमारे आने का पता था. वे मुझे अजीब से लगे थे- पीला रंग, छोटी-छोटी आँखें, धँसे हुए गाल, उभरी गाल की हड्डी, चमकता चेहरा, सफाचट और अधकचरी दाढ़ी-मूँछ, ठिगना कद, छोटे-छोटे खड़े काले बाल....... इतनी ठण्ड में भी उन्होंने बहुत कम कपड़े पहन रखे थे. फिर उनमें से एक कुछ देर बाद एक केतली में चाय लेकर आया. मक्खन वाली तिब्बती चाय. जिसकी अजीब खुशबू से मुझे उबकाई आई थी, पर बाकी सब बडे चाव से उसे पी रहे थे.

              


‘तिब्बत एक शानदार मुल्क था. लोग उसे देवताओं की भूमि कहते थे.’


                  

स्कूल का मास्टर हमें बताता. मैनपाट मास्टर की पसंदीदा जगह थी. तिब्बत पसंदीदा विषय. तिब्बत कोर्स में न था. जब वह भूगोल की किताब में मुल्कों की फेहरिस्त में ही न था तो कोर्स में कैसे होता. जब वह नक्शे में ही न दीखता था तो कोर्स में कैसे होता. पर भी मास्टर उसके बारे में बताता था. हम छोटे थे. इस तरह इस बात को न जानते थे कि ऐसे मुल्कों के बारे में बात करने वाले लोग कैसे होते हैं ? कैसे होते हैं वे लोग जो ऐसे मुल्कों के बारे में बातें करते हैं जो दुनिया के नक्शे में नहीं दीखते ? वे लोग जो भूगोल की किताब में न दीख पडने वाले मुल्कों के बारे में बताते हैं ? जो उन मुल्कों के बारे में बात करते हैं जो कोर्स में नहीं हैं ? ऐसे मुल्क जिनके बारे में बताते हुए आउट ऑफ़ द कोर्स जाना पडता है ? ऐसे लोग ? कैसे होते हैं ? इस तरह तिब्बत और मास्टर के बीच की बात समझ न आती थी. पर वह तिब्बत पर बात करता था.


               

इस सब की शुरुआत एक वाकये से हुई थी. हमें ग्याल्त्सो अजीब लगता था. हम छोटे थे और यह मानते थे, कि हर छोटी आँख वाला और पीली खाल वाला आदमी चीनी होता है. छोटी आँख वाले, ठिगने पीले लोगों के लिए हमारे पास बस एक ही शब्द था- चीनी .... सो हम ग्याल्त्सो को चिढ़ाते थे- चीनी, ऐ चीनी .... और... ग्याल्त्सो आगबबूला होकर हमें मारने को दौड़ता. एक दिन ग्याल्त्सो ने मास्टर से हम सबकी शिकायत कर दी. मास्टर को सबकुछ बताते-बताते वह रुआँसा हो गया. हमें बड़ा अजीब लगा, क्योंकि हमने तब तक पैंसठ-सत्तर साल के किसी बुजुर्ग को हमारे चिढ़ाने पर, इस तरह रुआँसा होते नहीं देखा था. अलबत्ता गुस्सा होते ज़रूर देखा था. ग्याल्त्सो को गुस्सा दिलाने में हमें मजा आता था. इसीलिए हम उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाते थे. ग्याल्त्सो का गुस्से से दुःखी हो गया चेहरा हमें बडा अजीब लगा था. चिढाने से बच्चे रो देते हैं. पर बुजुर्ग भी रो देते हैं यह बात हमें अजीब लगी थी.                     

मास्टर ने हमें सख्त हिदायत दी कि हम उसे चीनी ना कहें. ग्याल्त्सो के जाने के बाद उसने हमसे कहा कि हमने ग्याल्त्सो को तकलीफ पहुँचाई है. हमें इस बात का अफसोस होना ही चाहिए कि हमने एक नेक आदमी के दिल को दुखाया. उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाया. ‘वह तिब्बती है, चीनी नहीं’- मास्टर ने सख़्त लहजे में हमसे कहा. पर फिर शायद उसे लगा कि हम इतने अकलमंद नहीं हैं कि चीनी और तिब्बती के बीच के अंतर को जान सकें. तो फिर उसने हमें समझाया भी- ये दोनों चीजें बिल्कुल अलग हैं. चीनी और तिब्बती में बहुत अंतर होता है. हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग लोग हैं.




 चार 

मास्टर ने यह भी बताया कि जब वह हमारी तरह छोटा था और स्कूल में पढ़ता था, तो स्कूल की भूगोल की किताब आज की भूगोल की किताब से अलग थी. उस वक्त की भूगोल की किताब में लिखा होता था, कि तिब्बत एक मुल्क है. उनके दौर की भूगोल की किताबों में लिखा था, कि हिमालय के उत्तर में एक बहुत सुंदर जगह है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. कि यह एक मुल्क है. बिल्कुल दूसरे मुल्कों की तरह, अलग और अपने आप में रचा बसा. भूगोल की किताबों में यह भी लिखा होता था कि, इस मुल्क की अपनी राजधानी है, जिसका नाम ल्हासा है. पर आज के छात्र यह सब नहीं जानते. क्योंकि वे भूगोल की दूसरी किताबें पढ़ते हैं. उनकी किताबों में तिब्बत का नाम ही नहीं है. मास्टर हमसे पूछता- ‘बताओ बताओ है क्या ? बोलो बोलो’. हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’. 



 मास्टर हमसे पूछता ‘क्या भूगोल की किताबों में हिंदोस्तान के पड़ोसी मुल्कों में तिब्बत का नाम लिखा है?’ हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’.

मास्टर हमारी भूगोल की किताब उठा लेता. उसके सारे पन्ने एक साथ फुरफुराता पलटता- ‘देखो देखो इसमें तिब्बत कहीं भी नहीं है.’ फिर कुछ सोचता. थोड़ा सँभलता फिर कहता -

 ‘देखो. बात ऐसी है कि जमीन उसकी होती है, जो उस पर कब्जा कर लेता है. जमीन ही क्या, रोड, पुल, नाले, नदियाँ, मकान, जंगल, पहाड़...याने वह सब कुछ जो दीखता है उस सब पर भी किसी का कब्जा हो सकता है. इसी तरह कोई भी मुल्क उसका होता है, जो उसे जीत लेता है. किसी मुल्क को जीतने के कई तरीके होते हैं. पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो. फिर वहाँ के लोगों को वहाँ से खदेड़ दो. जैसा कि तिब्बत में हुआ. जैसा कि चीन ने तिब्बत के साथ किया. जो हुआ वह गलत था. ग्याल्त्सो और उसके लोगों के साथ जो कुछ भी हुआ वह गलत था.’

मास्टर बताता कि इस तरह एक मुल्क दूसरे मुल्क को जीत लेता है. जीतने के साथ ही उसे एक और अधिकार मिल जाता है. वह है, किताबें लिखने का अधिकार. कि यह दुनिया का कायदा है, किताबें वही मुल्क लिखेगा जो जीत चुका हो. हर किताब किसी विजेता ने ही लिखी है. जिन लोगों ने तमाम किताबें लिखी हैं वे या तो विजेता लोग हैं, या विजेताओं अपने लोग हैं. जैसे तुम्हारी यह भूगोल की किताब. दुनिया कि तमाम किताबों की तरह तुम्हारे कोर्स की भूगोल की यह किताब भी किसी विजेता ने ही लिखी है. ऐसा नहीं है कि हारे हुए मुल्क किताब नहीं लिखते हैं. दिक्कत यह है कि उनकी किताबें चलती नहीं हैं. कम से कम कोर्स में तो आ ही नहीं सकतीं. कोर्स में जो किताबें हैं वे जीते हुए मुल्कों की किताबे हैं. इसलिए उसमें हारे हुए मुल्कों का जिक्र नहीं. इसलिए इसमें तिब्बत नहीं है.- भूगोल की किताब को फरफराता पलटता मास्टर कहता.

स्कूल जंगल के बीच था. वह एक बेहद दूर का स्कूल था. छत्तीसगढ के एक ऐसे गाँव का स्कूल जहाँ लाइट न थी, उन दिनों. वह गाँव बारिश के मौसम में सारी दुनिया से कट जाता. उस गाँव के रास्ते उफनाते नालों के भीतर समा जाते. उसके जंगल हरे-भरे होकर और फैल जाते. दो कमरों के उस स्कूल में जिसके बच्चे गाँव से खेत खलिहानों के रास्ते मेडों और पगडण्डियों से चलकर स्कूल पहुँचते थे, उस स्कूल का मास्टर स्कूल के कोर्स के बाहर की एक बात को पूरे मन से और हिदायत के साथ उन बच्चों को बताता रहता था-  स्कूल का कोर्स ही क्या, दुनिया कि किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों का नाम नहीं मिलता. तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों के गीत और कहानियाँ नहीं मिलेंगी. तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली, या उससे भी आगे, 


 तुम्हें भूगोल की एक किताब नहीं मिलेगी जिसमें दुनिया के मुल्कों की फेहरिस्त में तिब्बत का भी नाम लिखा हो. तुम बड़ी से बड़ी लाइब्रेरी में एक भी भूगोल की ऐसी किताब नहीं ढ़ूँढ़ सकते जिसमें लिखा हो कि तिब्बत भी एक मुल्क है और दूसरे मुल्कों की ही तरह उसकी अपनी राजधानी है, अपनी मुद्रा है. तुम भूगोल की एक किताब नहीं ला सकते जिसमें लिखा हो कि भारत की सबसे लंबी सरहद जिस मुल्क से मिलती है, उसका नाम तिब्बत है.- मास्टर न जाने क्या-क्या बताता रहा था. कहता रहता था. मास्टर एक बात कहता था जो बिल्कुल भी समझ न आती थी. वह कहता था कि हारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है, इसका मतलब होता है स्मृति में से मिटा दिया जाना... .


 इन सब बातों का हम पर जो असर पडा वह कुछ इस तरह था कि हमें इस बात का अहसास हो गया था कि हमने जो कुछ ग्याल्त्सो के साथ किया था, उसे चिढाकर, उसका मजाक बनाकर, वह बेहद गलत था. हम उसे एक ऐसे नाम से चिढाते थे जो वह बरदाश्त न कर पाता था. हमने सचमुच किसी बुजुर्ग को चिढाने पर इस तरह रुआँसा होते न देखा था. जिससे यह लगता ही था कि कोई भारी भूल हमसे हुई थी. इस तरह हम यह मानने लगे कि हमने एक भारी गलती की है. ग्याल्त्सो का दिल दुखाकर हमने कोई ऐसा काम किया है जो बहुत गलत और नाकाबिले बरदाश्त है. कि हमें अपनी गलती का कुछ न कुछ प्रायश्चित तो करना ही चाहिए. जो तकलीफ हमने ग्याल्त्सो को पहुँचाई थी उसका प्रायश्चित. हमने सोचा कि हम कुछ ऐसा करें कि ग्याल्त्सो को अच्छा लगे. कोई ऐसा काम जिससे वह और मास्टर दोनों खुश हो सकें. पर ऐसा क्या कर सकते थे हम ? फिर हमारे एक दोस्त को एक तरकीब सूझी. यह तरकीब हम सबको अच्छी लगी.



 पाँच 

हम सब उस दोस्त की सुझाई तरकीब को मानने को तैय्यार हो गये थे. हम सबने अपनी-अपनी भूगोल की किताब में एक तब्दीली कर ली. किताब में एशिया के मुल्कों के नाम लिखे थे. इन मुल्कों की फेहरिस्त थी. फेहरिस्त जहाँ खत्म होती थी उसके नीचे जरा सी जगह थी. उस जगह हम सबने लिख दिया- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. इस तरह हम सब की भूगोल की किताबों में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त के नीचे लिखा गया- देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. फिर हमने सारे दोस्तों की भूगोल की किताबें चैक कीं. हर किताब में लिख गया था- देश-तिब्बत, राजधानी--ल्हासा.


 हम सबमें से एक लडका जो थोडा बोलने में माहिर था और मास्टर से जरा कम ही डरता था उससे हम सबने कहा कि वह मास्टर को बतलाये कि हम सबने भूगोल की हर किताब में लिख लिया है- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. वह बताये कि ठीक है कि इस सरजमीं की भूगोल की किसी भी किताब में नहीं लिखा है- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. ठीक है, कि तिब्बत ग्लोब में नहीं दीखता. भूगोल में जो एटलस होता है, उसमें वह अलग रंग से नहीं दर्शाया जाता है. दुनिया के नक्शों में उसमें कोई अल्हदा रंग नहीं भरा जाता. सब जानते हैं कि नहीं है तिब्बत दुनिया जहान के नक्शों में, अपनी सरहद के साथ कहीं भी. नहीं है देश-दुनिया में. चर्चा में भी नहीं है. वह जो तुम कहते हो मास्टर कि रोज के रेडियो में भी कोई खबर तिब्बत पर नहीं आती है. कि जो तुम्हारा दोस्त ग्याल्त्सो खोजता है, तिब्बत का वह नाम, रोज सुबह पेपरों में, पर वह जो उसे कभी मिलता नहीं. कि वह जो कहता है, उदास, कि तिब्बत पर कहीं कोई फिल्म नहीं देखी. ठीक है कि तुम्हारे मुताबिक तुम जो वह बताते हो कि यू.एन.ओ. की फेरिस्त में भी नहीं है तिब्बत. कहते हो कि नहीं है, ओलंपिक के झण्डाबरदार खिलाड़ियों की परेड में. नहीं है, डाक टिकटों में. कहीं नहीं, किसी मुल्क में नहीं तिब्बत का कोई राजदूत, कोई एम्बेसेडर. संसार में कहीं नहीं तिब्बत का कोई दफ्तर.... पर देखो यह हमारी किताबों में आ गया है. हम सबने लिखा है. हमारे कोर्स की भूगोल की किताबों में- देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. हर किताब में लिखा है. हर छात्र ने लिखा है. यह कोई छोटी बात तो नहीं है न मास्टर जी. 


 मास्टर ने हमारी किताबों में से एक दो किताबें देखीं. फिर बाकी किताबों को भी देखा. एक के बाद एक. हर किताब में लिखा था- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. मास्टर कुछ कहना चाहता था. पता नहीं क्या तो. पर वह चुप ही रहा और चुपचाप हमारी भूगोल की किताबों को देखता रहा. बाद में यह लगा कि मास्टर भी यह मानता था कि किताबों में यह लिखा जाना-देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा कोई छोटी बात नहीं है. यह ठीक है कि यह बच्चों ने खुद लिखा. कोई कह सकता है कि बच्चे मासूम होते हैं. पर यह भी तो सच है कि बच्चे सच्चे होते हैं. जो जी में आता है कर देते हैं. दिल में जो आता है कर गुजरते हैं. इसीलिए इस बात का मोल है कि उन्होंने लिख लिया- देश- तिब्बत, राजधानी - ल्हासा. हर बात के मायने हैं. हर अच्छे काम की अहमियत है. कोई काम इस वजह से तो कमतर नहीं हो जाता कि वह बच्चों ने किया. ऐसा वह कहता था.

एकाद बार उदास मन से उसने यह भी कहा था कि पता नहीं दुनिया को कभी यह पता भी चले या नहीं कि इस स्कूल में ऐसे बच्चे पढते थे जिन्होंने, सब बच्चों ने, एक साथ, अपनी-अपनी भूगोल की अपनी किताब में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त में यह लिख लिया था-देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. यह जगह जहाँ यह स्कूल है यह दुनिया से कितनी दूर है और यह कितना छोटा स्कूल है. इस गाँव, इस स्कूल के बारे में लोगों को पता ही नहीं है. इस तरह वे कहाँ यह जान पायेंगे कि स्कूल के सब बच्चों ने खुद-ब-खुद लिखा - देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. बिना इस परवाह के कि यह आउट ऑफ़ द कोर्स है. वे बस पश्चाताप करना चाहते हैं. ग्याल्त्सो को यह बताना चाहते हैं कि वे उसके साथ हैं. कि वे भी मानते हैं, जो वह और उसका मास्टर मानता है. पता नहीं कभी दुनिया के लोगों को यह बात पता भी चले या नहीं. मास्टर सोचता था. उसने बच्चों से कहा था-  अगर कोई बडा काम किसी छोटी जगह पर हो जाये तो भी वह बडा काम ही होता है. भले कोई उसके बारे में कोई जाने या न जाने, इससे कोई फर्क नहीं पडता. वह एक बडा काम होता है. बच्चों तुमने जो यह काम किया यह बडी बात है. कोई याद रखे या न याद रखे. किसी को पता चले या न पता चले. कोई तरजीह दे या न दे. पर तुम अपनी पूरी जिंदगी याद रखना कि तुमने लिखा था अपनी भूगोल की किताब में, एशिया के देशों की फेहरिस्त में- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. और यह तुमने किया क्योंकि तुम एक तिब्बती से माफी माँगना चाहते थे. यह बडी बात है. इसे सारी जिंदगी याद रखना. - कहता था मास्टर.


                              

 छह 

 बाद में मास्टर ने ग्याल्त्सो को इस बारे में बताया था. ग्याल्त्सो ने भी भूगोल की उन किताबों को पलटकर देखा था. वह पल भर को किताब में लिखे- देश-तिब्बत, राजधानी - ल्हासा को देखता रहा था. फिर मुस्कुराते हुए उसने बच्चों से कहा था - आज से हम सब दोस्त हुए. और दोस्त की पहली सलाह यह है कि यह जो तुमने लिखा- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा यह तो एक नेक बात है और जो मास्टर कहता है कि इसे याद रखना वह भी ठीक है पर इसे इम्तिहान के लिए याद मत करना. इम्तिहान में अगर तुमने एशिया के मुल्कों के नामों में तिब्बत का नाम लिख दिया तो तुम्हारे नंबर कट जायेंगे. इम्तेहान की तैय्यारी के हिसाब से हिंदोस्तान का कोई ऐसा पडोसी मुल्क नहीं है जिसका नाम तिब्बत हो. इम्तेहान के लिए यह तुम्हें याद रखना होगा. इस बार बोर्ड का इम्तेहान है और इस मामले में मास्टर भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता- मुस्कुराते हुए ग्याल्त्सो ने कहा था. उसकी मुस्कान नकली लगती थी. उसके चेहरे पर दर्द की न जाने कौन सी लकीर थी और वह कहता था कि इम्तिहान के लिए इसे याद मत करना. सिर्फ जीवन के लिए इसे याद रखना. मास्टर भी ग्याल्त्सो की बात पर रजामंद था कि इम्तेहान और जीवन के लिए अलग-अलग बातें याद की जाती हैं. जो बात इम्तेहान के लिए याद की जाती है वह जीवन के लिए नहीं होती और जो बात जीवन के लिए याद की जाती है वह इम्तिहान के लिए नहीं होती. देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा, एक ऐसी बात हुई जो जीवन के लिए याद की जानी है, इम्तेहान के लिए नहीं.


इस तरह ग्याल्त्सो से हमारी भी दोस्ती हुई थी. हमने उसे चीनी,चीनी कहकर चिढाना छोड दिया. स्कूल में जब भी वह आता हम में से कई उसे घेरकर खडे हो जाते. वह हमें दुनिया जहान के किस्से सुनाता. न जाने कहाँ-कहाँ की बातें. वह हमें अजीब-अजीब चीजों के बारे में बताता और हम उसे गौर से सुनते. वह बताता कि उसका गाँव ग्यान्त्से शहर के पास था. कि उसके पास एक सुंदर थांगका याने तिब्बतियन तस्वीर जैसा कुछ है. कि साल का पहला दिन लोजार होता है. कि उसने अनि त्सान्खुंग नुनेरी और चान्गझू के मंदिर देखे हैं. कि सबसे अच्छा गोम्पा जोखांग है और इसके बाद कुम्बुम और दोरजे द्रक. कि हम सब बच्चों को अच्छे हीरो, याने गेजार के माफिक होना चाहिए. कि.... फिर वह कहता कि मैनपाट में खूबसूरत झरने हैं. वहाँ एक जगह है उल्टा पानी. क्या तुम लोगों ने कभी उल्टा बहता पानी देखा है ? किसी नदी में जहाँ वह नीचे से ऊपर को बहता है. मैनपाट में है वह. उसे उल्टा पानी कहते हैं. - वह बताता, बताता कि वहाँ एक मंदिर है बुद्ध का मंदिर, इस इलाके का और दूर-दूर का ऐसा इकलौता बुद्ध का मंदिर.....फिर कहता- तुम सब एक दिन मैनपाट आओ, मैं तुम सबको मोमो खिलवाऊँगा, स्वादिष्ट मजेदार मोमो- वह कहता.


तुम्हारा नाम ग्याल्त्सो क्यों है ग्याल्त्सो ?’


उसी बच्चे ने पूछा जिसने सबसे पहले मास्टर को भूगोल की किताबों में लिखा हुआ- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा दिखाया था. जो मास्टर से बेखौफ अपनी बात कहता था.

‘जैसे हर नाम के मतलब होते हैं वैसे ही ग्याल्त्सो का भी मतलब है. ग्याल्त्सो माने समुद्र.’ ग्याल्त्सो ने बताया.

मास्टर अक्सर मैनपाट जाता ही रहता था. वह साईकिल से मैनपाट जाता था. इस तरह सबकी बातों से यह तय हुआ कि इस बार स्काउट की आउटिंग के लिए मैनपाट चलेंगे. सब चलेंगे. सारे बच्चे, मास्टर और गाइड वाली मास्टरनी. ग्याल्त्सो तो वहाँ मिलेगा ही. इस तरह हम सब साइकिलों से मैनपाट गये थे. सुबह चले और शाम को पहुँच गये.

                              

 सात  

तो यह था ही कि बचपन में तिब्बत एक बात थी. एक पाठ था. पाठ जो कि आउट ऑफ़ द कोर्स था. पर जिस पर मास्टर बात करता था. जिस पर बात कर हर किसी को अच्छा लगता था. तिब्बत एक अनुमान था, अँधेरे में उँगलियों की टटोल था तिब्बत, मास्टर की उन बातों का जो कहीं खो जाती थीं, अचानक छूटकर खत्म हो जाती थीं. उन दिनों तिब्बत एक अनिवार्यता थी, मास्टर को सुनने की अनिवार्यता,जो मास्टर के डर से उस गाँव की उस क्लास में फैल जाती थी. तिब्बत का मतलब था भूगोल की किताबों में लिखा- देश -तिब्बत, राजधानी - ल्हासा - जिसके मार्फत ग्याल्त्सो से दोस्ती हुई, जिसके मार्फत मास्टर को लगता था कि उसके बच्चे दुनिया की सबसे जरुरी पढाई कर रहे हैं.

इस तरह उस दिन मास्टर हमें ग्याल्त्सो की वजह से ही मैनपाट आउटिंग के लिए ले गया था. ग्याल्त्सो से हम सब की दोस्ती के साथ ही कुछ और भी था जिसके लिए वह हम सबको मैनपाट ले आया था. इस काम में उसे गाइड वाली मास्टरनी की मदद की जरुरत भी थी. यह काम न होता तो हम फिर कभी मैनपाट जाते. पर काम इतना जरुरी था कि मास्टर ने जल्दी ही मैनपाट जाने की योजना बना ली थी. हमें बस इतना ही पता था, कि मास्टर को ग्याल्त्सो से कुछ बात करनी थी. और उस बात को करने के लिए वह सबसे पूछ रहा था कि वह, कब और कैसे उससे वह बात करे ? मास्टर की ग्याल्त्सो से दोस्ती बड़ी पुरानी थी, लगभग पंद्रह साल पुरानी और करीब दो दिन पहले से एक दूसरा तिब्बती उससे कहता फिर रहा था कि, वह ग्याल्त्सो से वह बात करे. कि वह उसका सबसे अच्छा दोस्त है. ग्याल्त्सो अकेला है. उसका कोई और है भी नहीं. इसलिए यह बात उसे ही ग्याल्त्सो से करनी चाहिए. बस वही वह बात कर सकता है. कि उसकी बात का असर होगा. कहते हैं बस वही बात मास्टर को ग्याल्त्सो से करनी थी. इसीलिए वह हम सबको अपने साथ मैनपाट ले आया था. ताकि ग्याल्त्सो से उसकी वह बात भी हो जाये और आउटिंग भी हो जाये.

उस रात जब मक्खन की चाय और बिस्कुट खाने के बाद हम सब सोने की तैयारी कर रहे थे, तब वह दूसरा तिब्बती आया था. फिर मास्टर, गाइड वाली मास्टरनी और वह तिब्बती काफी देर तक बात करते रहे. कमरे में पुआल बिछी थी और पुआल पर दरी पड़ी थी, हम सब दरी में अपने-अपने कंबलो में घुसे थे और वे तीनों लालटेन के किनारे बैठे बात कर रहे थे. उन दिनों मैनपाट में लाइट नहीं थी.

‘तुम्हें कब से पता है ?’




                                                                         तरुण भटनागर 

          






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