Thursday, February 1, 2018

मञ्जूषा मन की कविताएँ




मञ्जूषा मन 


परिचय

नाम - मंजूषा मन
पिता - प्रभुदयाल खरे
माता - ऊषा खरे
जन्म - 9 सितम्बर।
सागर (मध्य प्रदेश)

शिक्षा : समाज कार्य मे स्नातकोत्तर (मास्टर इन सोशल वर्क- MSW)

सम्प्रति/व्यवसाय : कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन (सामुदायिक विकास कार्यक्रम)

लेखन विधाएं - कविता, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, छंद, माहिया, कहानी-लघुकथा आदि।

प्रकाशन - 

"मैं सागर सी" हाइकु-ताँका संग्रह एवं 7 साझा संकलन






कविताएँ 

उपयुक्त बीज
बंजर कहकर पुकारा गया
लानतें भेजीं गईं
अपशगुन माना उसका नज़र आना
दूर रहे सब उस जगह से
जिसे कहा गया बंजर...

वहाँ लगाई नहीं गई ऊर्जा
तोड़ी नहीं गई
यहाँ की जमीन,
चलाये नहीं गए हल
इन बंजर जमीनों पर
जिनमें संचित थी क्षमता
जंगलों को जन्म देने की,
उनके पालन करने की...

पर बंजर कही गई
धीरे धीरे होने दिया
सबकुछ पत्थर सा कठोर...

पर किसने सोचा
कि हर जमीन बंजर नहीं होती

कभी कभी
मिलता नहीं उन्हें
अवसर,
अपनी संचित क्षमता के उपयोग का,
कभी मिलता नहीं उन्हें,
पर्याप्त खाद, पानी, हवा
और न ही
उपयुक्त बीज।



वो पँछी
वो एक पँछी
डाल पर बैठा अकेला
बहुत देर तक चीखकर
अब चुप हो गया है,
अब सामर्थ नहीं बचा
और चौंच फाड़ने का
और चीखने का,

अक्सर ही उसके हिस्से का दाना
चुन लेते हैं कौवे
या उसके की ही बिरादरी के
कुछ ताकतवर पँछी,

शाम ढले लौटने पर
दिख जाता है बाहर ही,
कोटर में रहने वाला नाग
अपने तर थूथन पर
दोनों जीभ फिराते
खाकर उसके अंडे,

बिखेर दिया जाता है
उसका घोंसला
जो बनाता है वो
एक एक तिनका चुन
उसे सलीके से सजा कर,

हरबार की तरह
रोकर, चीखकर, चिल्लाकर
आधा पेट दाने पाकर ही
फिर जुट जाता है
तिनके चुनने....

इस दृण निश्चय के साथ
कि एक बार करके तो देखूं
मुकाबला।



 ज्वालामुखी
जाने कौन सा ज्वालामुखी
फूट पड़ा है मन में
हर तरफ बह निकला लावा
नसों में बहने लगा, तपता हुआ

हरे भरे बाग़ बगीचे,
लहलहाते खेत
भरे पूरे जंगल
सब में से गुजरता
बहा जा रहा है अपनी धुन में...

मन के आसमान में छाया है
गहरा काला धुंआ
इस धुंए में कुछ नज़र नहीं आ रहा
जहाँ नज़र दौड़ाओ बस धुंआ ही धुंआ
और चारों तरफ लावा ही लावा...

मेरे मन से बह रहे लावे के साथ
कई अनमोल रत्न भी बह रहे हैं,
मैं रत्नगर्भा हो गई हूँ
चमक रहे है भावों के रत्न,

भावों के लावे ने मुझे रंग दिया
मैं सिंदूरी हो कर
पूरी धरती पर फैल गई
अपने मन के लावे के रूप में







खगोलीय पिंड

ये करा रहे हैं बिछोह
दो मिले दिलों में,
ये करा रहे हैं
व्यवसाय में लाभ-हानि,

ये जोड़ रहे है
जन्म-जन्मान्तर के नाते
ये ही करा रहे हैं
बेटियों के हाथ पीले
ये तोड़ रहे हैं
घर की दीवारें,

गढ़ रहे हैं सपनों के महल
ये उजाड़ रहे हैं
बसे बसाए चमन,
कर रहे हैं चोटिल तन मन

जाने कौन उठकर बैठ जाता है
कौन से घर में
देखने लगता है किस को
वक्र दृष्टी से..
और होने लगती है
सारी जोड़ तोड़
होने लगती है
सारी उठा पटक

क्या सबकुछ घट रहा है
इन खगोलीय पिंडों की चाल से

या
घटता है कुछ
हमारी भी चाल से
हमारे चाल चलन से।




 बीतने वाले

बीतने वालों का
यही बुरा है
ये छोड़ जाते निशान
अपने होने के,
अच्छे और बुरे निशान...

पतझड़ छोड़ जाता है
सूखे पत्तों का ढेर
बंजर/ सूखापन..

बारिश छोड़ जाती है
हरा रंग,
बसन्त भी छोड़ता है
फागुनी गन्ध,

जख्म अपने निशान/दर्द,
उम्र ने छोड़ीं चेहरे पर सलवटें

वर्षा ऋतु छोड़ जाती
कपकपाती ठिठुरन
छोड़ जाती ठंड
बेचैन करती भीषण उमस

इसी तरह छोड़ जाता है
वर्तमान अपना इतिहास
और
इतिहास से हर बार
सीख लेता वर्तमान।




तुम चुप रहना...

कितनी बार पूछा तुमसे-
तुम्हारे ख्यालों के जंगल तक
कभी पहुंचे हैं मेरे ख्याल?
वैसे ही जैसे सरसराती फिरती है हवा
या जैसे पत्तों की कोर पर
लटकती है ओस की बूंद

क्या ऐसे ही कभी
तुम्हारे मन के गलियारे से होकर
गुजरी है
मुझे छू कर गुजरने वाली हवा।

तुम बस मुस्कुरा देते हो
कैसे समझूँ तुम्हारा न कह कर भी कहना

जैसे एक दफा तुमने
सिर्फ बारिश की बूंदे उछालीं
बिना कुछ कहे

एक रोज तुमने जब उड़ा दिए थे
फूंक मार कर सेमल के रेशे
जो उड़कर बिखर गये थे दूर दूर तक
तब भी तो तुमने कहा नहीं था कुछ,

और उस दिन
जब बोल रहीं थी तुम्हारी आँखे
तब तुमने पलकें बन्द कर लीं थीं।

मैं पूछती रहूंगी तुमसे,
तुम ऐसे ही चुप रहना।







 इस रात के बाद...

कितने ही सपने
पलकों में तैर कर खो जाएंगे,
इनमें गुल्ली डंडा खेलते तारे
हाथ में गुब्बारा लिए दौड़ता चाँद..
वहीं कहीं किसी बादल पर बैठकर,
मैं लिख रही हूँ कविता...

आज पलकों का आकाश छोटा पड़ जायेगा,

कविता में तुम गा रहे हो गीत
कविता में तुमने पार कर लिए समन्दर
और भंवरा बन घूम रहे हो सारी धरती ।

तुम हाथ हिला कर विदा हो गए...
अब इस रात के बाद
बस सुबह का इंतज़ार है
अब कभी न सोने के लिए

ऐसे सपने अच्छे नहीं लगते,
जिनमें विदा होते हो तुम।




 पेस्ट कंट्रोल

उद्योगपतियों का पैर
पड़ जाता है अकसर
चींटियों/कीड़े-मकोड़ों के झुंड पर
उन्हें पता ही नहीं चलता
अगर कभी कहीं
थोड़ी हिम्मत जुटा
कोई चींटी या कोई कीड़ा
चढ़ गया तलुवे से ऊपर
और महसूस हुई
सरसराहट
या चींटी ने कर दी हिमाकत
डंक मारने की...

तब वहीं
धीरे से मसल दिया उसे
और कराया गया
पेस्ट कंट्रोल।



 सहारा
तुमने कहा - "तुम लता बन जाओ"
मैं हूँ न सहारा देने को,
मेरे सहारे तुम बढ़ना ऊपर
छूना आसमान...

खो गई में तुम्हारी घनाई में
तुम्हारे घने पत्तों के बीच
दम घुटने लगा था मेरा
पर मेरी नाजुक टहनियाँ उलझ चुकीं थी तुम में,
निकल पाना सम्भव नहीं हुआ
मैं घुट घुट कर मरने लगी,
मेरे पत्ते मुरझाने लगे,
मुझपर छाने लगा पीलापन,

और तुम
दम भरते रहे
मुझे सहारा देने का...

तुम भूल गए
कि मैं अमरबेल हूँ
में कहीं भी जी सकती हूँ
मैं मरती नहीं..



मिन्नतें

मिन्नतें मेरी
सिरे से ठुकरा देता है वो
दिल के बदले
मेरे ही ऐब गिना देता है वो

मैं फिर भी ढूंढती हूँ उसे ही
उगते सूरज की किरणों में
ढलते चाँद की फीकी चमक में,

तमाम दिन भटकती हूँ
उसके मसरूफियत के जंगल में और रात उसकी नींद के रेगिस्तान में
कुलाँचे भरती हूँ मरीचिका के पीछे...

उसकी ही तस्वीर हर पल... हर शै में उभर आती है
बस वो ही वो है हर ओर

पर नहीं मिलता
उसमें ही वो....



क्या है मेरे पास
खोज डाली सब सन्दूकें
टटोल लिए नए पुराने बटुए,
चाहा था आज
अपनी पूंजी का हिसाब,

क्या है मेरे पास??
प्रश्न जाने क्यों उठा मन में

पाये कुछ सिक्के,
कुछ छोटे बड़े नोट
जिन्हें देख बहुत खुशी नहीं हुई...

इनमें मिलीं थीं कुछ कविताएँ
जो असल में पत्र थे प्रेम के,
एक मर्दाना रुमाल भी था
जिसमें लिपटी रखीं थी यादें,
उन पलों की
आँसू पोंछने को दिया था तुमने जब...

एक डायरी में दबे हुए थे
कुछ धूप के टुकड़े
थीं कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ,

कुछ रंगीन कंचे
एक प्लास्टिक की गुड़िया भी थी
जिसका एक हाथ टूट था
इमली के बीज,

कुछ और भी था
जो कीमती हो शायद

कौन कहता है
मेरे पास कुछ नहीं








मनोरंजन

मेहमानों के लिए
चाय और नाश्ते की व्यवस्था
करते हुए ही
कर लेनी होती हैं बातें भी,


रात का खाना बनाते हुए
कड़ाही में करछुल हिलाते
कानों पड़ते
पसंदीदा टी वी सीरियल की आवाज सुन
हाथों की रफ्तार बढ़ जाती है
कि किसी तरह
देखा जा सके सीरियल
भाग कर पकड़ लेती है
सीरियल का अंतिम डायलॉग...


कपड़े धोते हुए
रेडियो सेट करती है
और....
ये है विविध भारती....
सुनकर मुस्कुरा देती है...
चार से पाँच फरमाइशी फिल्मी नग़मों के
पूरा होने तक निपटा लेती है धुलाई...


नल पर पानी भरते हुए
पड़ोसिन से कर लेतीं हैं बातें
कह लेतीं हैं सुख दुख
कर लेतीं हैं कुछ ठिठोली...


गेंहू और चावल
छानते फटकते
गा- गुनगुना लेतीं हैं
दादरे, भजन, फिल्मी गीत...


औरतें क्या क्या करतीं हैं
अपने मनोरंजन के लिए





उड़ान

पैरों में डाल दीं गई थीं
परम्पराओं की बेड़ियाँ
कि तय न की जा सकें
सफलता की राहें...


परों पर चलाईं गई थीं
रिवाज़ों की कैंचियाँ
कि नापी न जा सके
आसमान की ऊंचाई...


फिर भी मैं
पार कर आई
सघन अंधेरे का जंगल
हालांकि आंखों पर अनपट था !


मैं दौड़ पड़ी साहस समेट
बेड़ियाँ घसीटते हुए
दूर तक ..
बस दौड़ती ही चली गई। !


छू ही आई एक दिन
आसमान की ऊँचाइयाँ,
लहू से सराबोर परों से !


फिर एक सुबह देखा
जगमगा उठा था आसमान
मेरी आँखों में जीत की चमक देख !


हार की काली रात
ठीक उसी सुबह ढली ।

मंजूषा मन


कविताओं पर बात 
प्रदीप मिश्र 
मंजूषा जी की इन कविताओं में भारतीय स्त्री अपनी संपूर्णता के साथ उपस्थित है। कविता का दायित्व है कि वह अपने समकाल को ठीक से दर्ज करे। यह काम मंजूषा जी बखूबी किया है। सारी कविताएँ स्त्रियों के इर्द गिर्द हैं। इसलिए इसमें दुहराव के संकट हैं। कवियत्री ने इस संकट से बचने का प्रयास किया है और सफल भी हुई हैं। यह उनके कविताई के कौशल को रेखांकित करता है। कविताओं में शब्दों के वर्ताव एवं चयन में और प्रवीणता की जरूरत है। कविताओं में अभी अपने मुहावरे को प्राप्त करना है।

अपर्णा अनेकवर्णा
ये आज बहुत बड़ी बात मानती हूं क्योंकि लिख तो हम सब ही रहे हैं। अब कितनी कविता लिख रहे हैं ये बिल्कुल ही अलग बात है।


इन कविताओं में स्त्री मन है और उसकी दृष्टि है। ये एक 'मध्यमवर्गीय घरेलू स्त्री' है जैसा राजेंद्र जी ने अपनी टिप्पणी में कहा है। तो ये हर स्त्री की कविता न होकर भी एक बहुत बड़े वर्ग की स्त्री की कविता है।

मुझे ये स्त्री, रूढ़ीवादी परम्पराओं से जकड़ी स्त्री और आज़ाद स्त्री के बीच की कड़ी लगी। इसकी सोच विकसित है, यह स्व को पहचानने लगी है, उसकी आकांक्षा करती है पर अभी उसे पा नहीं सकी है। ये कविताएं अपने इस टोन इस व्यग्रता के लिए महत्वपूर्ण हैं।

शरद कोकास
मंजूषा बहुत अच्छे दृश्य बुनती हैं । स्त्रियों के जीवन को इतने करीब से देखना और उसकी साधारणता में स्थित असाधारणता को लक्षित कर उसे कविता का विषय बनाना वास्तव में कवि कर्म है । कैशलेस जैसे विषय पर कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है ।
कविता में यदि द्रश्यों के साथ कुछ बिम्बों को और पिरोया जाए तो कविता बहुत परफेक्ट हो जाएगी
तीसरी कविता उड़ान स्त्री के दुर्दम्य आशावाद की कविता है , यह कविता भी अंत तक ब्यौरों के साथ चलती है और अंत मे अपने निर्णय तक पहुँचती है । वस्तुतः एक स्त्री के संघर्ष का अंत इतना आसान नही होता । काली रात का सुबह में ढलना चिरपरिचित बिम्ब है । वस्तुतः यह कविता का प्रस्थान बिंदु होना चाहिए ।

अबीर आनंद
बहुत अच्छी लगीं कविताएँ। सबसे अच्छी बात ये कि एक को छोङकर बाकी सब कविताएँ सकारात्मकता लिए हुए हैं।
जमीन से जुङी हुई कविताएँ हैं, जिनमें आम सी जिंदगी के ठहराव में से रस, आशा और स्वाद दुहने का प्रयास किया गया है। स्त्री विमर्श की टिपिकल कविता भी है, कोई बात नहीं, अच्छी बन पङी है। उङान की भावना में दोहराव है, इसी भाव की कई कविताएँ पढ़ी हैं। यहाँ मौलिकता का न होना थोङा खलता है। बाकी, सच कहूँ तो आपकी कविताएँ  लय में लगीं। पाठक से सीधा सरल संवाद करती हुई नजर आईं।


चित्र गूगल से साभार

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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