Monday, July 30, 2018

उपन्यासनामा:- भाग चार ,शेष यात्रा 
उषा प्रियम्वदा 

उषा प्रियम्वदा 






“वस्तु में बदली जाती स्त्री के प्रतिरोध की : शेष यात्रा”
               
उषा प्रियंवदा का यह उपन्यास स्त्री जीवन की अनोखी यात्रा का दस्तावेज है। ‘रुकोगी नहीं राधिका’ की राधिका जो विदेश से वापस आती है और अपने ‘होने’ को पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बरक्स प्रूफ करती है। जबकि शेष यात्रा की अनुका एक सीधी-साधी परंपरागत स्त्री जो अपने ‘होने को’ व्यवस्था और पुरुष के संदर्भ में ही पाती है और खोती है। इस पाने खोने के साथ एक ऐसी यात्रा करती है जो स्त्री के भौतिक और बौद्धिक विकास की यात्रा बन जाती है। वह स्त्रीपन के ‘होने’ और अपने ‘होने को पति द्वारा नकार दिए जाने के बीच अपने होने का अर्थ और संदर्भ स्वयं अपने बूते पर न केवल अर्जित करती है, बल्कि पति और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अहं और अकड़ को धराशायी भी कर देती है।
‘‘पति द्वारा त्याग दिये जाने पर वह नारी की परंपरागत सामर्थ्यहीनता को अनुकरणीय रूप में तोड़ती है। वस्तुतः उच्चमध्यवर्गीय प्रवासी भारतीय समाज इस उपन्यास में अपने तमाम अंतर्विरोधों, व्यामाहों और कुठाओं सहित मौजूद है। अनु, प्रणव, दिव्या और दीपांकर जैसे पात्रों का लेखिका ने जिस अंतरंगता से चित्रण किया है, उससे वे पाठकीय अनुभव का अविस्मरणीय अंग बन जाते हैं।’’1
इस उपन्यास की कहानी का प्रारंभ अनुका के इस अन्तर्द्वंद्वपूर्ण कथन से होता है - ‘‘क्या किया जाए इस अनुका नाम की औरत का, जिसकी जिंदगी एक बेबुनियाद इमारत की तरह उसके अपने पैरों के पास ढही पड़ी है। जिसकी पूर्णता, जिसका पत्नीत्व, स्त्रीत्व, सबकुछ नकार दिया गया है, जिसकी पूरी आइडेंटिटी, पूरा अनु-पन एकदम झकझोर दिया गया है। लहरों ने उसे कूड़े की तरह रेत पर लाकर पटक दिया है और जैसे अनेक आवाजें उसे चिढ़ा-चिढ़ाकर कहती रहती हैं-तुम कुछ नहीं हो, तुम कुछ नहीं हो।’’2 

अनुका के इस द्वंद्व का कारण है उसके पति द्वारा उसे मझधार में छोड़ दिया जाना। प्रणव जो उसे विवाह करके अमेरिका ले गया था और उसे एक आरोपित जिंदगी दी थी। इस जिंदगी में प्रणव उसके जीवन को वस्तुओं से भर देता है और उसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करता है। अनुका वस्तुओं के जंजाल में प्रणव के इंतजार में अपना  वक्त व्यतीत करती है। एक दिन उसे पता चलता है कि प्रणव किसी और से प्रेम करता है। इसके बाद अनुका की जिंदगी बदल जाती है और वह अपनी सहेली दिव्या के साथ रहने लगती है और अन्त में डॉक्टर बनकर दिपांकर के साथ सेटल हो जाती है।





अतः इस उपन्यास का अन्त होता है अनुका के द्वारा अपनी पूर्ण स्वतंत्रता पा लेने के बाद, पुरुष के रूप में दीपांकर है पर वह बराबरी का साथी है पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतीक नहीं - ‘‘इतने सालों की स्वतंत्रता, अनु सोच उठी। अपने निर्णय अपने आप लेने की जिम्मेदारी, अपनी कमाई का पैसा बचाया जाए या बहाया जाए, कहाँ रहे, कैसे रहे, वह सब अपनी मर्जी से करने का सुख, न किसी का दबाव, न जबावदेही। उसके साथ दीपांकर इस संबंध के लिए उत्सुक है तो वह भी निर्णय ले चुकी है, अब पीछे हटने का सवाल नहीं उठता। दीपांकर उसे हर तरह से सुखी रखने की कोशिश करेगा, वह यह जानती थी। वह अपने लिए महत्वाकांक्षी नहीं था, पर अनु को वह कभी कोई भी निर्णय लेने से नहीं रोकेगा। यह होगी बराबर की साझेदारी, न कोई बड़ा, न छोटा, न सुपीरियर, न इन्फीरियर।’’3 

अनुका की इस जीवन यात्रा के दौरान उसने जो अनुभव अर्जित किए, जो थपेड़े खाए, जिन परिस्थितियों की पीड़ा से गुजर कर उसने अपनी राह बनाई, उनका वर्णन उपन्यास में प्रामाणिकता के साथ किया है। इन्हीं परिस्थितियों से गुजर कर ही तो ‘अनु’ ने अपने आपको पाया है, अपने घर, परिवार की सुरक्षा कवच से परे विदेश में जिस पति (पुरुष) प्रणव के सहारे वह गई थी, उसके द्वारा ही त्याग दिए जाने पर ही उसने अपने ‘होने’ की अर्थवत्ता को पाया, जाना और अनुभव किया कि ‘अनु’ भी है और यह अनु वह अनु नहीं जिसे प्रणव विवाह करके अपने साथ अपने सहारे यहाँ लाया था - ‘‘किसी के प्यार में न होना, किसी में अपने को समाहित न करना, इसका भी एक पॉजिटिव पक्ष है। मैं हूँ, अनु, अपने में तुष्ट, अपने स्वत्व बोध में सुखी, अपने सुख-दुख में अकेली, अपने में स्वाधीन। उसे यह अनुभूति प्रिय लगती है। उसने अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व का लक्ष्य पा लिया है। अब आगे जो भी समय और भाग्य दे, पूरे एहसास और जिम्मेदारी से स्वीकार करेगी। अगर कुछ न भी मिले तो भी कोई शिकायत नहीं होगी। अपनी डॉक्टरी की उपाधि तो होगी, सुख-चैन से तो रह सकेगी, काम करने का संतोष तो मिलेगा। स्थाई रूप से पुरुष जीवन में न हो, तो न हो। जरूरत भी किसे है!’’4

 दरअसल अनुका जिस परंपरागत परिवेश और परिवार से आयी है, उसमें स्त्री एक वस्तु की तरह ही इस्तेमाल होती रही। उसकी कोई व्यक्तिगत सत्ता नहीं है। कोई निजी पहचान नहीं है। उसका अपना कोई वजूद नहीं हैं। सज-धज कर बकरे की तरह विवाह वेदी पर हलाल होने के लिए तैयार की जाती रही है। घर की चाहरदीवारी ही उसकी दुनिया होती है। घर में चोके चूल्हे, खाना बनाना, बच्चों और बड़ों की सेवा शुश्रुषा करना, पुरुषों की शारीरिक और मानसिक जरूरतों को पूरा करना, बस इतना ही उनका संसार है  - ‘‘अनु ने बचपन से बही पुराने ढंग का घर देखा और जाना था। उसमें ड्योढ़ी थी, मेहराबदार दालान, मुजरेवाली कोठी, चौकोर कमरे, घुटी-घुटी बंद कोठरियाँ, तहखाने, दुछत्तियाँ, संडास, कहारिन, नाई, बूढ़ी महराजिन। उस घर की एक अपनी गति थी, हर प्राणी उसी गति में अपने को ढाल लेता था, नई-ब्याही बहुएँ, आते-जाते मेहमान। बड़ी मामी घर की मालकिन थीं, छोटी मामी सबकी लाड़ली, सबसे सुन्दर, नखरीली, पढ़ी लिखी अनु की दोस्त। बड़ी मामी दूध और धोबी का हिसाब रखतीं, घर की खाने-पीने की जिम्मेदारी भी उन पर ही थी। छोटी मामी सज-संवरकर बैठी रहतीं, उपन्यास पढ़तीं, जेठ जेठानी को अपने हाथ से पान बनाकर देती; लिपिस्टक लगाकर रात के शो में सिनेमा जातीं। अनु को छोटी मामी बड़ी ग्लैमरस लगतीं - बंबई, कलकत्ता, कहाँ-कहाँ घूमी हुई। अनु के स्कूल में ऊँची-ऊँची चहारदीवारी थी, घर में भी सिर्फ त्योहार या शादी पर ही स्त्रियों का बाहर निकलना होता था।’’5 





इस दमघोंटू माहौल से निकली अनु जब अमेरिका के खुले और बिंदास परिवेश में पहुँचती है तो उसका एक दूसरी ही दुनिया से परिचय होता है। यहाँ यह भी देखने लायक है कि अमेरिका से आया प्रणव अनुका जैसी सीधी-सादी घरेलू गुड़िया को क्यों पसंद करता है?

यहाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था का वह चेहरा उभरकर सामने आता है जिसके तहत पुरुष एक निखालिस जिस्म में तब्दील चेतना वाली स्त्री को चुनना चाहता है ताकि उसकी देह की बर्बर आवश्यकताओं को घर में वह पूरी करती रहे और घर से बाहर की उसकी ऐयाशियों पर भी कोई रोक-टोक न लगे। अतः पढ़ा लिखा उच्चमध्यम वर्ग अपनी विशुद्ध शारीरिक भूख को अपने ज्ञान और विज्ञान की चेतना से विवेकपूर्ण नहीं बनाता बल्कि और अधिक बर्बररूप में उसे पूरी करना चाहता है। प्रणव अनु के जीवन में भौतिक पदार्थों की चकाचौंध को इस तरह भरता है ताकि उसकी चेतना उन भौतिक जड़ पदार्थों के उपभोग में उलझकर जड़ होती जाये और उसका उपभोग निर्बाध चलता रहे। प्रणव की घर के बाहर की ऐयाशियों की और उसका ध्यान ही न जाये।

उसका विवाह प्रणव के साथ तय कर दिया जाता है, पर उससे पूछने या उसे बताने तक की कोई जरूरत नहीं समझी जाती। जब वह प्रणव के साथ अमेरिका जाने के लिए एयरपोर्ट पर बेहोश सी हो जाती है तो प्रणव की पुरानी दोस्त रेखा कहती है ‘‘प्रणव, टेक केयर ऑफ हर; शी इज जस्ट अ किड।’’6

अनु एक बच्ची है, दरअसल बच्ची नहीं गुड़िया है जिसकी देखभाल करना ‘केयर करना’ आवश्यक है।
प्रणव एक सुंदर वस्तु की तरह उसकी देखभाल करता है और ढेर सारी वस्तुओं के बीच उसे भी एक वस्तु में तब्दील करता जाता है - ‘‘अनु खाना गरम करती है, दोनों साथ-साथ खाते हैं। एक सुखद चुप्पी में, सबकुछ साफ-सुथरा-एक अच्छी सी पार्सल की तरह बंधा जीवन। कभी मूड होने पर उसे बाहर ले जाता हैं। अनु जो कहती उसे तुरत खरीद देता। अनु के घर के एक कमरे में चीजों का ढेर लगना शुरू हो गया है। आलमारियों में चीजें सँजोते हुए अनु को अक्सर बेंत का अपना बक्स याद आता है।’’7

 इस वस्तुओं से भरे घर में अनु भी वस्तु में तब्दील होती जा रही थी। उसके आसपास जो अन्य स्त्री पात्र हैं और जो कि एक सखी सम्मेलन में संगठित हैं - ‘‘रूपल, कंचन, कीरत, रानी, विभा और मिनि। वैसे विभा को छोड़कर सभी गृहिणियाँ थीं।’’8 

ये सब की सब वस्तु की तरह व्यवहार करतीं हैं और वस्तुओं के घेरे में ही अपने होने को तलाशती रहती हैं। पश्चिम की औरत अपने होने के बोध को जल्दी महसूस कर लेती है अतः वह घर, पति, बच्चों के सुरक्षा चक्रव्यूह को तोड़कर अपने वजूद की तलाश में भाग जाती है। ‘‘अच्छे घर, मियाँ और बच्चों के बावजूद भी तो एक औरत को कुछ खाली-खाली लग सकता है।’’9





 विभा का यह कथन स्त्री की अस्मिता की तलाश और वजूद को बचाने का अहसास है। भारत जैसे परंपरागत समाजों में इस तरह की प्रवृत्ति को सिर्फ यौन संतुष्टि और असन्तुष्टि के रूप में देखकर स्त्री की चरित्रहीनता से जोड़ा जाता है।
अमेरिका की जीवनशैली में अपने खालीपन को भरने के लिए दावतें, पार्टी, और शॉपिंग, घर में वस्तुओं का अम्बार, शराब पीना, और अपने वजूद को पाने के लिए विवाहेतर सेक्स संबंध बनाना शामिल हैं।
अनु पूरी तरह इस तरह के माहौल में रम गई है। प्रणव की मर्जी और सोच ही उसके जीवन को संचालित करते हैं। वह जो कुछ भी करती है प्रणव के विचारों के अनुसार और अनुकूल ही करती है। वह पूरी तरह प्रणव पर निर्भर है। बिना प्रणव के वह अपाहिज है -‘‘प्रणव से मशविरा किए बिना वह कोई निर्णय नहीं ले पाती, ‘आज क्या खाओगे’ से लेकर मैं शाम को क्या पहनूँ’ सभी कुछ प्रणव की मर्जी से होता है। अनु प्रणव के मूड से चलती है। वैसे ही हँसती है, वैसे ही चुप हो जाती है।..........उसकी दुनिया में किसी चीज की कमी नहीं है, न महँगाई है, न भूख, न अकाल। उनके चारों तरफ एक जुलूस है, बीच में वह दोनों हैं, नंबर वन जोड़ा।’’10 

स्त्री के जीवन की पूरी पटकथा दूसरे ही निर्धारित करते हैं। विवाह से पहले की पटकथा को पिता और चाचा, मामा और भाई तथा विवाह के बाद पति - ‘‘जिंदगी की यह पटकथा अनु को बचपन से ही मिली थी। वह किसी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं है, उसकी सारी जिंदगी दूसरों ने निर्धारित की थी, साल में एक बार जब सारे घर के कपड़े सिलते थे, अनु के कपड़े भी बन जाते थे - पसंद नापसंद का सवाल ही नहीं उठता था। जो महराजिन परस देती थी, वह खा लेती थी। स्कूल जाती थी, कॉलेज जाने लगी, वह क्या पढ़े, क्या विषय ले; अनु के लिए कभी प्रश्न नहीं उठा। अनु ने कभी इस बारे में सोचा भी नहीं, जो सब लड़कियों ने लिए, उसने भी ले लिए। उसका भाग्य सराहते हुए जब बिरादरी की औरतों ने कहा - ‘लौंडिया के भाग जगा है। विलायत का डॉक्टर, इतना गहना-कपड़ा’, तब अनु को लगा, हाँ शायद भाग्योदय हुआ है। वह प्रणव के प्रति कृतज्ञ थी, इतना सबकुछ, सिर्फ एक छोटी सी आकस्मिक झलक पाने भर पर ही। दृश्य बदल गया था, पटकथा का रवैया वही था। जो जिम्मेदारी प्रणव ने पकड़ाई थी, जो भूमिका दी गई थी, वही निभा रही थी। खाना बनाना, घर साफ-सुथरा रखना, प्रणव की पोजीशन के अनुसार कपड़े पहनना, पार्टियों में चुपचाप मुस्कराते रहना।’’11

 आधुनिकता की जीवनशैली में बहुत कुछ ग्लैमरस और आकर्षक दिखाई देता है। दूर से। जब उसमें आप अन्दर घुसते हैं तो उसकी एकरसता और वही-वही-वही, दुहराव और एकसापन महसूस होने लगता है और उसमें कहीं भी विविधता नहीं होती। अनु को भी धीरे-धीरे इस एकरसता का बोध होने लगा और उसमें प्रणव के न होने पर बोरियत पैदा होने लगती थी। लेकिन वह सखी सम्मेलन की अन्य स्त्रियों की भांति दूसरे पुरुष के साथ सहवास करने की सोच भी नहीं सकती। यह उसके पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दिए संस्कार हैं। उसके अंदर सेक्स और यौनिकता अपने पति तक ही सीमित है। जब वॉटरमैन उसके साथ एक रात सोने का प्रस्ताव करता है तो वह हक्की-बक्की रह जाती है और कहती है कि ‘‘मैं अपने पति के साथ बहुत सुखी हूँ। किसी दूसरे पुरुष का ध्यान भी मैं पाप समझती हूँ।’’12 






लेकिन दूसरी तरफ प्रणव कई अन्य स्त्रियों के साथ दैहिक संबंध रखता है और उसे कोई अपराधबोध नहीं होता। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दो मुहे संस्कार हैं जो पुरुष के अंदर उसी अपराध के लिए कोई नैतिकता से विचलन का बोध पैदा नहीं करता और एक स्त्री उसी कार्य के लिए सोचना भी पाप समझती है।

आधुनिक जीवन पद्धति और मूल्य व्यवस्था में नैतिक और मानवीय मूल्य से संचालित स्त्री बिल्कुल अनफिट महसूस करती है। वह इस व्यवस्था में अपने को असंगत महसूस करती है। अनु भी जब कीरत के यहाँ सुबह सुबह पहुँचती है, तो उसके घर का माहौल और उसकी लड़की गोगी का व्यवहार उसे अजनबी की तरह महसूस करता है। ‘‘उसे एकदम अपनी उपस्थिति उस कमरे में असंगत-सी लगने लगी।’’13

 कीरत जैसी स्त्रियाँ जो अपने आपको उस आधुनिकबोध की विडंबनात्मक व्यवस्था में ढालने की कोशिश कर रहीं हैं। निरंतर एक वस्तु में तब्दील होती जा रही हैं। बिना शराब के उनके चेहरे पर नॉर्मलटी नहीं आती। वे बिना शराब और मर्द जिस्म के बिल्कुल बेकार की वस्तु में तब्दील होने लगती हैं - ‘‘धनराज के जाने के बाद शाम बीतती ही नहीं, न रात को नींद आती है। मुझे अपने बगल में धनराज का शरीर रोज चाहिए। जब वह नहीं होता तो गोली खाकर सोना पड़ता है।’’14  


मातृत्व के संबंध में अनु का सोचना है कि इसका निर्णय भी प्रणव का ही होगा। उसे माँ बनने से कोई एतराज नहीं और इसकी जल्दी भी नहीं। मातृत्व स्त्री का अधिकार है, परन्तु पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उसके इस अधिकार को अपने अधीन कर लिया। वह कब माँ बने और कब नहीं इसका निर्णय पुरुष के पास है। वह तो एक उपकरण की तरह इस्तेमाल में लायी जाती है। अनु की यह मानसिकता सदियों से स्त्री के मानस को अनुकूलित करने का परिणाम है। बच्चे के संबंध में ‘‘निर्णय प्रणव का होगा और निश्चय ही प्रणव को कोई जल्दी नहीं थी।’’15

मर्द अपनी आकांक्षाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए घर से बाहर जाता है और पत्नी के शिकायत करने पर कि उसका बहुत देर तक घर से बाहर रहना उसे अच्छा नहीं लगता, तो वह उसे घर गृहस्थी के काम गिनाने लगता है। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वार स्त्री को दी गई भूमिका है। ‘‘तुम्हें इससे समझौता करना पड़ेगा अनु। मेरा काम तो फैलता ही जा रहा है। तुम्हें भी तो कितने काम रहते हैं घर की देखभाल, कूकिंग,.... फिर उसने जोड़ा, यह एकाएक असंतोष क्यों?’’

अनु को धीरे-धीरे इस जीवन की एकरसता से बोरियत महसूस होने लगती है और फिर प्रणव का निरंतर बाहर रहना काम के बहाने उससे दूरी बनाना और उसके जीवन को घर की चाहरदीवारी तक सीमित करते जाना। उसे समझ में आने लगता है कि यह जिंदगी बहुत दिनों तक नहीं चल सकती। प्रणव भी अनु से ऊब गया और अपने होने की, ‘मर्द होने’ की सार्थकता कहीं और ढूंढने लगा। चूंकि अनु के पास प्रणव के इंतजार और घर की देखरेख के अलावा कोई दूसरा काम नहीं है। अतः उसके जीवन का विस्तार भारतीय परंपरागत घरों की तरह ही घर तक सीमित हैं। फिल्म डायरेक्टर चंद्रिका राणा जब उसे नाश्ता सर्व करते देख कहती है कि ‘‘आप सिर्फ यही करती हैं? उसका प्रश्न अचानक गोली की तरह निकलता है।’’16 







इस बात को प्रणव सम्हालने की कोशिश करता है और वही पितृसत्तात्मक व्यवस्था की भूमिका निभाने की बात कहता है। ‘‘यही अनु को बहुत व्यस्त रखता है। इतना बड़ा घर, फिर मेरी देखभाल, इतना ही इनके लिए काफी है।‘‘
‘‘आप नहीं चाहते कि यह कुछ करें?’’

मुझे कैरियर गर्ल नहीं चाहिए थी, प्रणव ने कहा, ‘‘मैं चाहता था सरल, स्नेहशील बीबी, जिसके साथ बैठकर मुझे सुख-चैन मिले।’’17 

इसका मतलब है कि जो स्त्री घर से बाहर काम करती है, वह स्नेहशील नहीं होती, सरल नहीं कुटिल होती है, उसके साथ बैठकर पुरुष को सुख-चैन नहीं दुख और बैचेनी मिलती है। चंद्रिका इस बात का विरोध भी करती है। परन्तु प्रणव उसकी बात को टाल देता है और उसे चुप रहने को विवश कर देता है।

इस घटना के बाद प्रणव की प्रतिक्रिया उसके पशुपन और अहं को लगी चोट को अभिव्यक्त करती है। वह अनुका के साथ जिस तरह से संभोग करता है, वह प्यार नहीं बलात्कार है और अनुका भी इस बलात्कार को महसूस करती है।
 ‘‘प्रणव के होंठ क्रूर थे, वह एक हिंसक आक्रोश में अनु को झकझोर रहा था, प्यार में नहीं। अनु ने उसे दूर ठेलना चाहा। वह प्रणव, जो देर तक उसे सहलाता, दुलारता रहता था, इस वक्त कहाँ खो गया था! रह गया था एक पुरुष मात्र, जिसका अव्यक्त रोष, और ऐंठती हुई ताकत वह महसूस कर रही थी, पर जिसका कारण जानने में वह असमर्थ थी। वह देर तक कुचली, टूटी, चुकी हुई पढ़ी रही।’’18

 यह पत्नी के बलात्कार का दृश्य है, इसलिए थोड़ी शालीन भाषा और संवेदनात्मक क्रूरता के साथ लिखा गया है। वरना बलात्कार की पूरी बर्बरता और एक स्त्री के स्त्रीत्व को सिरे से नकारने की, उसके वजूद को पूरी तरह कुचल देने की कार्यवाही है।
पुरुष को रोज रोज वही का अहसास खीझ से भर देता है, पर वह यह नहीं सोचता कि एक स्त्री वही..वही....रोज...रोज... बिना इच्छा-अनिच्छा के कैसे बर्दाश्त करती है? ‘‘रोज-रोज वही परस देती हो, वही दाल-रोटी, वही गोश्त.....’’19 

यहाँ उसकी वेदना रोटी-दाल की अपेक्षा अनु के जिस्म के गोश्त की पुनरावृत्ति की अधिक है और उसकी खीझ भी इसी को लेकर है।
प्रणव के कई स्त्रियों से संबंध हैं, विभा से, शिकागो में परमानेंट गर्ल फ्रेंड, चंद्रिका आदि। इन सबसे संबंधों के बारे में अनु को ज्योत्सना से पता चलता है। पश्चिम की स्त्री की नियति है कि ‘‘यहाँ की सभ्यता में पत्नी को सबसे बाद में पता चलता है, जबकि तरकश से तीर निकल चुका होता है।’’20 

अनुका की इस ‘शेष-यात्रा’ में उसका सामना जीवन के कटु यथार्थ से होता है - उसके ऊपर का साया, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का सुरक्षा घेरा, जिसमें अब तक वह वस्तु, एक गुड़िया बन कर रहती आयी थी, अचानक हट जाता है और वह एकदम बिल्कुल अकेली हो जाती है, तब वह अपने आपको पहचानती है। वह स्वयं को, अपने चारों और की दुनिया-जहान को नई आंखों से देखती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का परदा उसकी आंखों पर से हट जाता है, पुरुष की आंख से दुनिया को देखने की आदत ने उसे अपनी दृष्टि से ही अपरिचित बना दिया था। अब वह नई - अपनी, बिना किसी चश्मे के - आंखों से अन्दर-बाहर की दुनिया को देखने को लालायित है - ‘‘नई आंख से सब कुछ देखना होगा? सब कुछ का मतलब सब कुछ। अंदर, बाहर, अपने को, दूसरों को, प्रणव को। विशेष तौर से प्रणव को।
एक आदमी, एक औरत। प्रणव और अनु। औरत रोती है।






‘‘मैंने क्या कसूर किया है? चोरी की? झूठ बोला? क्या मैं दुश्चरित्र हूँ?’’

झर-झर आँसू। आँसू कि खत्म ही नहीं होंगे। आदमी का चेहरा कड़ा है, वह औरत की तरफ पीठ करके बाहर देखने लगता है।’’

‘‘नई आँख से सब कुछ देखना होगा। अंदर, बाहर अपने को, दूसरे को, प्रणव को। सबसे पहले बाहर, बाहर  से अंदर; फिल्मी कैमरे की आँख की तरह। पहले बाहर का दृश्य।’’21

अनु का यह जो तीसरा नेत्र खुला है, नई आंख और नई दृष्टि के रूप में, उससे अपने चारों और की दुनिया देखी, समझी और अपने वजूद को पहचाना। उसने पहचाना कि ‘वह है’।  उसका होना भी अपने आप में मायने रखता है। वह अब तक हमेशा ही दूसरों के संदर्भ में होती रही थी। अब वह सारे संदर्भों से मुक्त है और अपने आपका संदर्भ खुद स्वयं है।

अनुका को जब अपनी इस विचित्र स्थति का पता चलता है तो अनु के पैरों के नीचे से जमीन निकल चुकी होती है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है। सारे घर में तोड़-फोड़ मचा देती है -
‘‘तो ऐसे टूटता है दिल। अनु जैसे सचमुच अपने दिल का टूटना सुन सकती है। उसके दिल को जैसे कोई पंजे में पकड़कर ऐंठ रहा है। वह मुट्ठियों से अपने बाल कसकर पकड़ लेती है। फिर चीख उठती है। उसके अंदर हजारों ज्वालामुखी फूट पड़ते हैं। सबसे पहले चाय का प्याला फेंका, जाकर खिड़की से टकराता है और खनखनाकर टूटता है। वह मेज से पूरी ट्रे उठाकर पूरे जोर से नीचे पटक देती है, फिर मेज कांच सहित, टेबल लैम्प, टेप रिकार्डर, प्रणव के यत्न से इकट्ठे किए रिकार्ड, उन्हें पैरों से रोंदते हुए उसे वहशियाना सुख मिलता है।
प्रणव की शराब की बोतलें, महँगी बोतलें रसोई में जहाँ तहाँ गिरती हैं। जिस चीज पर हाथ जाता है, उसी को बिना सोचे, तोड़-फोड़, फेंक-फांक, तहस-नहस करती जा रही है। एक बबंडर की तरह। आज कुछ नहीं बचेगा वह अपनी पहनी हुई साड़ी को नोचकर उसकी धज्जियाँ बिखेर देती है। प्रणव सामने पड़ता तो शायद उसका खून कर देती।
 नीरजा के बच्चे का गला दबा देगी। डॉक्टर विभा को गोली मार देगी, फिर खुद भी तर जायेगी। उसके बाल बिखर गए हैं, आँखें लाल हैं। वह दीवार से बार-बार सिर टकराती है। पूरा घर पागल चीखों से गूँज रहा है, चीखों पर चीखें। क्या यह उसकी ही आवाज है? उसे होश नहीं है।’’22  

अनु की यह प्रतिक्रिया इस बात के लिए महत्वपूर्ण है कि उसने उन सारी वस्तुओं को तहस-नहस किया है जिनके कारण उसे वस्तु में तब्दील क्या गया और घर की तरह उसे भी अकेला निर्जीव समझ कर छोड़ दिया गया। वह इन वस्तुओं के मायाजाल को तहस-नहस करके अपने स्वत्व को पाती है। विक्षिप्त अवस्था में ही अपने निज को पाती है। यह वस्तु से निज तक की यात्रा में वह अपने आप तक पहुँच जाती है।अनु की मैरिज टूट चुकी है। वह अकेली है बिल्कुल अकेली। ‘‘अब सिर्फ वह है, अकेली।’’23

विवाह टूटने की आवाज पश्चिम में बहुत तेज नहीं होती, पर अनुका पश्चिम में रहकर भी भारतीय संस्कारों के अधीन है और बार-बार प्रणव से साथ ले चलने की भीख के बाद भी जब वह नहीं पिघलता तो, वह प्रणव पर भूखी शेरनी की तरह आक्रमण कर देती है।
‘‘तुम? तुम खुद बदचलन हो, गुंडे हो, आवारा हो.... तभी तो रंडियों से फँसे हुए हो....’’ अनु के मूँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे, ‘‘ थूऽऽ तुम पर....’’24 
यह थूंकना पूरी पितृसत्ता पर थूंकना है। यह उस घृणा का प्रतीक है जो इस व्यवस्था ने उसे दी है।
अनु का इस तरह पागल की तरह व्यवहार करना दरअसल आधुनिक पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की बिडंबनात्मक व्यवस्था का प्रतिफल है। 

कीरत, विभा, नीरजा जैसी स्त्रियाँ इस व्यवस्था की विकृति में अपने को ढाल लेती हैं, अतः वे इस तरह का पागलपन प्रकट नहीं करतीं। वे अन्दर से खोखल मात्र हैं, उन्हें अपनी पहचान और वजूद को इसी तरह इस्तेमाल करना आता है। अनु इस व्यवस्था की विकृति को जीवन शैली बनाकर जी नहीं पाती इसीलिए वह पागल हो जाती है। इस पागल के अन्त में वह प्रणव का दिया घर और सामान वहीं छोड़कर अपनी पुरानी सहेली दिव्या के पास चली जाती है। यह उसके नए जीवन का प्रारंभ है।

अनुका प्रणव से अलग होने की पीड़ा और विक्षिप्त स्थिति को भोगने के बाद अपनी सहेली दिव्या के पास जाती है। दिव्या अपने पति के साथ रहती है। स्वाभिमानी और मेहनत-कस इंसान हैं दोनों। छिन्नमस्ता में प्रिया रिचर्ड और जैनी के साथ रहती है। उनकी दोस्ती और समझदारी उससे संबल देती है। ठीक इसी तरह अनुका की यह दोस्त है दिव्या। अनुका उसे बताती है कि प्रणव ने उसे छोड़ दिया है। कारण बताते हुए जो वह कहती है, वह आदर्श पत्नीत्व के मिथक को चकनाचूर कर देता है - ‘‘मैं तो अपने पत्नीत्व में डूबी थी, पर शायद प्रणव का एक ही स्त्री से काम नहीं चलता। शायद मैंने कभी प्रणव को समझा ही नहीं, जाना ही नहीं। कभी यह नहीं सोचा कि दाल-सब्जी और शरीर से परे भी कोई और चाह होती है। प्रणव की वह मानसिक प्यास मैं शायद नहीं बुझा सकी। मैं सहचरी, जीवनसंगिनी थी, मगर सोलमेट नहीं। मुझमें दोष ही दोष दीखने लगे।’’25

अनु सोचती है कि पति के सामने पूरी तरह समर्पित रहकर उनका प्रेम पा लूँगी। मगर यह मनोवृत्ति भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ही देन है जो स्त्री को अपने स्वार्थ के लिए दी जाती है। इसका अर्थ इतना ही है कि स्त्री पति को न छोड़े, यदि पति छोड़ना चाहता है तो उसके यह आदर्श पत्नीत्व के गुण किसी काम के नहीं हैं -‘‘मैं समझती थी के पति-प्रेम एक ऐसी जादू की बूटी है, जिससे सारी आधियाँ-व्याधियाँ दूर हो जाती है। अगर मैं मनसा-वाचाकर्मणा समर्पित रहूँगी तो सबकुछ ठीक हो जायेगा। मेरा प्रेम उन्हें जीत लेगा।’’26 

‘‘तो वह सब झूठ था। झूठ था न दिवी? सारे व्रत, त्यौहार, जप तप, कथा कहानियाँ, सब झूठ थीं न। झूठ हैं। मेरा सारा डिवोशन, प्रणव के चरणों पर निछावर हो जाना, सब कुछ झूठा पड़ गया।’’27 

दिव्या उसे अपने आत्म सम्मान की याद दिलाती है, प्रेरित करती है कि वह प्रणव के आलाव भी कुछ है - ‘‘तुम्हारा आत्मसम्मान कहाँ है अनु? दिव्या का रोष अब छिपता नहीं, ‘‘तुम जिंदगी भर अपने को पायदान बनाए रखोगी कि प्रणव तुम्हें खूँदता रहे?’’28 

अनु अपने आपको इतना भूल चुकी है कि स्वयं को मंगतों की श्रेणी मे रखने लगी। यही दशा पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री के आत्मसम्मान की कर रखी है। इतनी बार इतने तरीके से उसका आत्मसम्मान कुचला गया है कि वह यह भूल ही गई कि वह भी एक स्त्री है, इंसान है, मानवीय गौरव और सम्मान पाने की अधिकारी है। वह कहती है - ‘‘मँगतों में आत्मसम्मान नहीं होता।’’29

 अनु दिव्या और उसके पति के साथ रेस्टौरेंट में काम करने लगती है। श्रम से जुड़कर, पैसा स्वयं कमाकर उसमें एक इंसान होने का गौरव जागता है। प्रणव का घर बिक जाने पर वह उसमें आधा हिस्सा ले लेती है। यहीं से उसका विवेक और आत्मसम्मान जाग जाता है। (यहाँ कठगुलाब की दर्जिन बीबी से तुलना करने पर फर्क समझ में आता है, उसका पति जब उसे छोड़ कर जाता है तो वह उससे पैसे नहीं लेती। उसका आत्मसम्मान पति के आगे झुकने नहीं देता।)

प्रणव से अलग होने पर ही अनु एक परंपरागत स्त्री से विचारशील, कर्मशील स्त्री में बदलती है - ‘‘पर यह सच है कि अगर परिस्थितियों ने मुझे ऐसे ढकेला न होता तो आज मैं भी वही परंपरागत स्क्रिप्ट जीती रहती - पूरी तरह से आप पर निर्भर, एक सफल डॉक्टर की निकम्मी बीबी की ..... जानते हैं, कचहरी में विदा लेते वक्त आपकी उस शार्क मछली-सी वकील ने मुझसे क्या कहा था?...‘आपके भविष्य के लिए शुभकामनायें, ‘तो मेरे मूँह से कड़वा वाक्य निकल गया-‘यह सहानुभूति आप अपने मुवक्किल को ही दीजिए’ - उस दिन के बाद में एक बार भी नहीं रोई। मालूम नहीं मेरे अंदर इतना तेज, इतना करेज कहाँ से आ गया। मुझे लगा, मैं कुछ भी बन सकती हूँ।’’30 
यह कुछ भी बन सकने की सामर्थ्य का बोध अनु जैसी स्त्री को नई स्त्री में बदल देता है। यही नई स्त्री स्वतंत्र और दायित्वपूर्ण जीवन को जी सकती है।

संदर्भ सूची

01. शेष यात्रा, उषा प्रियंवदा के पृष्ठभाग से उद्धृत
02. शेष यात्रा, (पेपर बेक) पृ. 09 
03. वही पृ. 128
04 वही पृ. 115
05. वही पृ. 11
06. वही पृ. 17 
07. वही पृ. 23
08. वही पृ. 23 
09. वही, पृ. 24 
10 वही पृ. 25
11. वही पृ. 25
12. वही पृ. 27
13. वही पृ. 30
14. वही पृ. 32 
15. वही पृ. 36
16. वही पृ. 41
17. वही पृ. 41 
18. वही पृ. 42
19. वही पृ. 42 
20. वही पृ. 55
21. वही पृ. 09-10
22. वही पृ. 55
23. वही पृ. 60 
24. वही पृ. 63 
25. वही, पृ. 69
26. वही, पृ. 70
27. वही, पृ. 70
28. वही, पृ. 77
29. वही, पृ. 77
30. वही, पृ. 11

०००
डॉ संजीव जैन 


डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज 
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553



उपन्यासनामा भाग तीन 
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