Friday, February 26, 2016


 वह आखिरी चुबंन

संजीव चन्दन



इसे मौत कह कर उनके मरने की इस अदा का अपमान नहीं किया जा सकता.वे प्रस्थान कर गई एक दूसरीभूमिका की ओर.... महाप्रयाण.......! समय इतना लोकतान्त्रिक जरूर हो गया है कि शंकराचार्योंऔर अपने कर्मकांडों के मकडजाल में फंसे कुछ पुरोहितनुमा जीवों और उनके प्रति आस्थावान आस्तिकों,ढोंगियों को छोड़कर एक स्त्री की मौत को महाप्रयाण कहने पर कोई आपत्ति करने नहीं आएगा.वैसे भी महाप्रयाण है यह,पुरुष- आरक्षित मोक्ष नहीं.क्या कोई अपनीमौत को भी इतना उत्सवपूर्ण बना सकता है ! यह तो एक दूसरी यात्रा की शुरुआत के पूर्व का ही उत्सव हो सकता था !! वे महाप्रयाण कर गई.............आजीवन यात्री ही तो रहीं वे,एक पड़ाव से दूसरेपड़ाव तक,कहीं एक-दो पल की झपकी ली तो कहीं सालो साल स्थिर रहीं,लेकिन अगले पड़ाव पर पहुँच कर पीछे छूट गए का अफ़सोस नहीं करती,हाँपीछे छूट गए एक-एक लम्हे की कसीदाकारी उनकी स्मृतियों पर अंकित हैं- यादों के बेल-बूटे !! रात इस डाइनिंग टेबल पर अपना आखिरी तशरीफ रखनेके पहले एक- एक लम्हे में दर्ज होने की अपनी ख्वाहिश पूरी करती रहीं वे.सुबह तडके से ही रसोई मेंदेखकर मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा,यह उनका काम नहीं था,मैं जब से उनके पास आई थी,यह काम प्रायः मालदह से साथ आई‘दुलारी’के जिम्मे था या कुछ अंतराल पर मेरे,जब दुलारी की तबियत ठीक नहीं होती या फिर जब मैं खुद ही अपना मनपसंद बनाना चाहती.‘तुम फटाफट तैयार हो लो,आज तफरी करते हैं,लोधीगार्डन में धूप सेकेंगे और वहीं लंच करेंगे,’उन्होंने मेरे आश्चर्य को भांपते हुए मुझसे कहा.हम दिन भर घूमते रहे,लोधी गार्डन में लंच,खान मार्केट में खरीददारी के नाम पर एक- दो किताबें और कुछ अन्तः वस्त्र.मंडी हाउस में कॉफी और रोहिताश्व के साथ नाटक,जिसने हमें अपने ऑफिस के बाद हमें ज्वाइन कर लिया था.“तुम दोनों घर चलो मैं एक-दो गप्पे मार कर आती हूँ,प्रेस क्लब भी जाउंगी,गलासूख रहा है,’श्री राम सेंटर में‘आषाढ़ का एक दिन‘देखने के बाद उन्होंने कहा.पता नहीं वे क्या चाह रही थी,हमें एकांत देना या फिर स्वयं के लिए एकांत.रोहित ने ऑटो रुकवायातो उसे उन्होंने अपने लिए रोकते हुए अपनी गाड़ी की चाभी हमें दे दी, ‘तुम दोनों इससे जाओ,’उनके आदेशात्मक स्वर से हम संचालित हो गए.उनके देर रात लौटने की आवाज तो हमने सुनी जरूर लेकिन अपने बेडरूम में अपने पहले अभिसार के आगोश से हममें से कोई नहीं उठा और शायद वे वहींडाइनिंग परबैठी-बैठी एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ीं,उन्होंने कुछ खाया नहीं था,खाना वैसे ही पडा था.हाँ,व्हिस्की की बोतल,ग्लास,प्लेट में कुछ काजू जरूर थे वहाँ.हम यदि अपने प्रेम में खलल डाल कर उनकी खटपट की आवाज से बाहर आये होते तो शायद हम उनके महाप्रयाण के साक्षी होते.हमें यहाँ न होने का अफ़सोस तो जरुर है लेकिन वैसा दुःख नहीं जो‘मोहनदास’को अपने पिता की मृत्यु के समय अपनी पत्नी के पास होने का था.यह हमारी पहली मिलन थी और वे स्वयं भी हमारे इस अभिसार मे बाधा से दुखी होतीं,उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती या फिर वे महाप्रयाण को प्रस्थित नहीं होतीं,ऐसा मुझे ही नहीं आपको भी लगेगा,जब आप‘हमारी दीदी’की कहानी जानेंगे.फिलहाल मुझे रोना आ रहा है और मुझे‘निगमबोध घाट’भी जाना है,लोगों को सूचित करना है,लौट कर दीदी और अपनी कहानी आपको बताउंगी.70की हो रही अपनी दीदी को दुल्हन की तरह सजाया था मैंने.उन्हें नहलाते वक्त उनके रोमकूपों से निकलने वाली उर्जा से मैं संचारित होती रही.उनके स्तन.... मुझे रोना आ रहा था....काश मैं फिर से बच्ची हो जाती... उनसे लिपट पाती... उनसे उनके अमृत सोख पाती... किसी देव मूर्ति की तरह मैंने नहलाया उन्हें.दीदी कहीं भी निकलने से पहले अपने स्तनों पर कप्स डालकर उसे आकर्षक बनातीं, 70साल की अपनी दीदीकी इस रुमानियत को,खुद से उनके मुहब्बत को,मैंने आज भी यथावत रखा,अंतिम यात्रा की उनकी तैयारी ठीक वैसी ही की मैंने जैसा वे स्वयं करती.वे अपनीबहन,बेटी,दोस्त के इस सौंदर्यबोध पर जरूर प्रसन्न हुई होंगी अन्यथाजब तक वे मेरे साथ रहीं सौंदर्य के प्रति मेरी बेरुखी पर मुझे कोसती ही रही थीं.पर आज क्या मैंने उनसे सीखकर वह सब किया या स्त्रियों के भीतर सौंदर्य कोई जन्मजात प्रवृति होती है,जोमेरे भीतर मैंने दबा रखा था!‘निगमबोध घाट’पर मैं ज्यादा देर रुकी नहीं,रुक भी नहीं सकती थी.मैं दीदी को जलते देख नहीं सकती थी.मुखाग्नि मुझे ही देनी थी इसलिए मैं घाट तक गई भी अन्यथा मैंने घर से ही उन्हेंअलविदा कहा होता.उनका बेटा स्टेट्स में अपनी कारोबारी व्यस्तता के बीच आने में असमर्थता जाहिर कर गया,‘मैं बहुत दुखी हूँ,तुम नहीं समझसकती कि मैं मम्मी को कितना मिस करूँगा,आय विलट्राय टू रीच सून.परन्तु आप सारे रिचुअल्स में कोई कमी नहीं आने देना.आय विल डिपोजिट द अमाउंट.’वह हर महीने उनके लिए एक निश्चित राशिभेजा करता था.दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः.!!मेरे दादा जी अक्सर कहा करते थे, ‘त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम दैवो न जानति कुतो मनुष्यः.’दीदी में मेरी रूचि उनके विरोधियों के द्वारा उनके लिए अक्सर दुहराए जाने वाले जुमले के कारण ही बनी थी,जो उनके बारे में बातें करते हुए‘त्रिया चरित्रं’पर खत्म होती.उनके कई प्रेम संबंधों की चर्चा तो मैं अपने घर पर अपने दादा जी के मित्र'पाठक दादा'से सुनरखी थी.दीदी की आशिकी के एक पात्रवे स्वयं भी थे.दीदी के दिल में उन्होंने एक नहीं पांच जोड़ बांसुरी तब बजाई थी जब दीदी श्रमिक आन्दोलनों की प्रखर नेता हुई करती थीं और वे उनके राज्य में एक बड़े श्रम अधिकारी.जब गीतकार दादा ने'स्त्रियों की यौनिकता और परम्परा'पर मेरे शोध के विषय में सुना तो उन्होंने दीदी के जीवन को एक केस स्टडी के रूप में पढ़ने के लिए प्रेरित किया और मैं उनकी सिफारिश पर ही अपने छात्रावास से दीदी के यहाँजाने लगी,कई-कई दिन तक उनकेसाथ रहने भी लगी.दादी की उम्र की मेरी दीदी सिर्फ दीदी हो सकती थीं या फिर छोटी बहन.सही मायनों में उनकी रुचियों और मेरी रूचि के हिसाब से वे मेरी छोटी बहन जैसी ही थीं.इससे पहले कि मैं दीदी की कहानी आपको सुनाऊं यह स्पष्ट कर दूं कि आपका कोई भी प्रयास उनकी पहचान करने का व्यर्थ जायेगा,आप उन्हें कहीं भी न तलाशें,कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल,बिहार विधानसभा,लोकसभा,श्रमिक आन्दोलनों में,कहीं भी नहीं,जहाँ-जहाँ आपको उनके जीवन की कथा मेरी कहानी में मिलेगी,वहाँ वे नहीं मिलेंगी.आपकी उत्सुकता को थोडा शांत करने के लिए मैं अपना पता बता दूं,जहाँ से मैं आपको कहानी कह रही हूँ,जहाँ अभी- अभी दीदी को महाप्रयाण के लिए विदा कर लौटी हूँ और जहां से अगले चार दिनों में मैं अपने छात्रावास लौट जाउंगी.मैंअभी रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर में हूँ,वहीँ उसी डाइनिंग टेबल पर सर रख कर बैठी हूँ,जहाँ दीदी ने पिछली रात बिताई थी,रोहित हमारे लिए चाय बना रहा है,चाय के बाद वहअपने ऑफिस चला जायेगा,उसने आधे दिन की ही छुट्टी ले रखी थी.हाँ,एक बात और मेरे छात्रावास का पता आप जान कर भी क्या करेंगे,जब भी मिलना हो तो आ जाइये,गंगा ढाबे पर मैं इत्मीनान से मिल जाउंगी.मैं देख रहा हूँ कि आप मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे कि‘बच्चू अब बचेगी कहाँ‘गंगा ढाबे पर मिलती हो तो रहती होगी वहीँ,कहीं गंगा,गोदावरी,ताप्ती या बहुत से बहुत साबरमती छात्रावास में,कथावाचक का ठौर ठिकाना मिल गयातो कथा की पात्र को भी तलाश लेंगे.'मैं आपको अभी ही सचेत कर दूं कि मेरी कहानी को ठोस यथार्थ की कसौटी पर कसकर आपको कुछ भी हासिल नहीं होगा,आप क्या लैला का पता लगा पाए हैं,मजनू का ठौर जाना है क्या आपने,न सीरी के घर कापता होगा आपको न फरहाद का ठिकाना !लेकिन उनकी कहानी,कहानी तो इतिहास की इबारत सी मजबूत हमारी और आपकी पीढ़ियों से चली आ रही हकीकत है.ऐसी ही हकीकत है दीदी की कहानी,मेरे वजूद मेंदर्ज कहानी.....हाँ,इतना यथार्थ इस कथा में जरूर है जितनामेरे गंगा ढाबा पर होने,गंगा,गोदावरी,ताप्तीया साबरमती छात्रावास में कहीं रहने,रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर से मेरे कहानी कहने से या फिरदीदी के कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल,बिहार विधानसभा,लोकसभा,श्रमिक आन्दोलन आदि किसी राजनीतिक-आराजनीतिक गतिविधि में शामिल होने से यथार्थ बनता है,या फिर......जितना यथार्थ लड़कियों के लिए समानता-स्वतंत्रता के साथ रहने और जीने के सबसे मुफीद सहशिक्षा केंद्र माने जाने वाले जे.एन.यू के पेरियार,कावेरी,झेलम,ब्रह्मपुत्र या ऐसे ही किसी छात्रावास में सहपाठी लड़की की ब्लू फिल्म बनने-बनानेकी घटना है .....उतना यथार्थ जितना जे.एन यू के खंड-खंड,शिला- शिला में,चेतन-अचेतन मेंरचे -बसे‘विद्रोही’के द्वारा आसमान मेंधान के रोपे गए पौधे.खूबसूरत यथार्थ, ‘मीन सी आँखों वाली’,गिलहरी की सी कोमलता वाली नन्ही लड़की का यथार्थ,जिसे उसके पिता ने पुकारा‘मीनाक्षी और माँ नेदुलार से जिसे‘रूही’बुलाया.उसी लड़की से,यानी दीदी से,यानी70साल की मेरी कथानायिका से,मेरे सवाल भी उतने ही बड़े यथार्थ के हिस्से हैं:‘दीदी आप इतनी कहानियों,इतनी फंतासियों,इतने गप्पों,इतने ठहाकों,इतनी फुसफुसाहटो में कैसे दर्ज होती चली गईं!’शीताक्षी-उन्हें मिनाक्षी से अलग करने वाला संबोधन! उनके व्यक्तित्व के अनूठेपन को गढ़नेके लिए मूर्तिकार का पहला छेनी–स्पर्श!! उनकेसपनो को अर्थ देने वाली पहली तरंगें!!! पहली बार अपने क्षेत्र और परिवेश से पहली ग्रेजुएट होती मीनाक्षी के कानों में आज भी उस वाक्य की गूंज अजीब सी फुसफुसाहटके साथ स्पर्श करती है, “तुम्हारी आँखों में बड़ी शीतलता है,तुम्हारा नाम इनकी बाह्यमीन-सुंदरता की जगह इनकी आतंरिक शीतलता को अभियक्त करना चाहिए था --मीनाक्षी से ज्यादा सटीक है शीताक्षी-क्वारकी पूर्णिमा सीठंढक वाली इन आँखों के लिए.’मीनक्षी- यानी शीताक्षी पहली बार आईने में अपनी आँखों में डूबती चली गई,पहली बार लड़की होने का अहसास पोर-पोर में थिरकने लगा.‘हाँ,इसके पहले तक तो मेरे पिता ने,माँ ने,भाइयों ने कभी यह अहसास होने ही नहीं दिया कि मैं लड़की होने या अपने महीने के खास दिनों के कारण लडको से अलहदा हूँ,या उनसे कमतर हूँ - उन दिनों लड़की को कालेज तक भेजना कोई अचानक से लिया गया निर्णय नहीं हो सकता था.मैं सुन्दर थी यह मुझे पता था,परन्तु उस संबोधन के पहले किसी ने मेरी सुंदरता को मेरे सामने आईने में उतार देने का काम नहीं किया था और मैं तब तक सौभाग्यशाली भी थी कि किसी ने,मेरे आस-पास से या मेरे घर के भीतर,कभी भी लड़की होने का बलात अहसास भी नहीं कराया था.’‘वह था कौन दीदी?'‘मेरे बड़े भाई का दोस्त! उस दिन के बाद मैं मीनाक्षी रह नहीं गई थी,मैं शीताक्षी हो गई थी.वह बहुत अच्छा वक्ता था- मेरे भाई के साथ उसकी बातें,जो अक्सर राजनीतिक होतीं,मैं मंत्रमुग्ध सी सुनती थी,उनके बीच घंटो बैठती--नेहरु की आलोचना करती हुई,समाजवाद केसपने देखते हुई,वर्ग संघर्ष में यकीन करती हुई और सर्वहारा की सत्ता कीयूटोपिया रचती मैं भी उनके साथ मजदूरों के संघर्ष में शामिल होने लगी.’‘यह तो विचित्र प्रतिक्रिया थी,आपको तो उस संबोधन के बाद सपनो के जिन रंगीन तरंगों में संचरित होना था उससे अलग आप यथार्थ के संघर्ष की और उन्मुख थी ...’‘हाँ.ऐसा था और ऐसा नहीं भी.मेरी आँखों की क्वार पूर्णिमा में शीतलता पाने वाला मेरा नायक दो समानांतर भूमिकाओंमें था,मुझे एक नई राह पर खींच रहा था और मेरे सपनो में,मेरे क्वारे अहसास पर दस्तक भी दे रहा था.फिर एक दिन,जब घर में,कमरे में,मैं और वह अकेले ही थे,वह भाई की प्रतीक्षा कर रहे थे और घर के लोग बाहर,मैंने कमरे की बत्ती बुझाई और उनके पांवों के पास बैठ कर मैंने उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर कहना शुरू किया कि.... मैं पूरी रौशनी में,आँखों में आँखे डाल कर जो बात नहीं कह सकती,वह इस नीम अँधेरे में कहना चाहती हूँ कि मैं आपसे ......कि तभी मेरे हाथ को झटका लगा और कमरेमें बत्ती जल गई!’‘क्या भाई आ गए थे?’‘नहीं,उनके भीतर का भाई प्रबलहो गया था.  और उन्होंने मेरे गालों को अपनी दोनों हथेलियों में समेटकर मेरी आँखों में आँखे डालकर कहा कि वे मेरे भाई के दोस्त हैं,कि मुझे ऐसे ख्याल भी अपने मन में नहीं लाने चाहिए,कि आँखों में क्वार की पूर्णिमा से उनका मतलब वह सब नहीं था,जो मैं समझ बैठी,कि स्त्री पुरुष के आदिम रिश्तों को समाज ने जिन रिश्तों के भीतर सुरक्षित किया है उसे बनाये रखना हमारा कर्तव्य है और न जाने क्या,क्या.... हाँ यह भी कि वे नैतिक समाजवाद चाहते हैं,वैसा समाज नहीं,जहाँ स्त्री और पुरुष दो देह मात्र हों......’इसके बाद दीदी ने बताया कि उन्हें उस वक्त‘एक भयभीत,भीरु जिम्मेवारी से भागने वाला पुरुष सामने दिखा. लेकिन कामना,जिसका सोता तब फूटा था,उसे बहने से कौन रोकनेवाला था!’राजनीतिक गतिविधियों में उन दिनों शामिल महिलाएं शहर के खास लोगों में शामिल होतीं,गोष्ठियों में,बहसों में,आन्दोलनों में,महिला चेहरे कम ही थे,कुल तीन,जिनमें एक दीदी स्वयं थीं.मजदूरों के आन्दोलनों में शामिल मजदूर महिलाएं भी कुछ खास संख्या में नहीं होती.दीदी सबसे अलग थीं -सबसे अलहदा.कामनाओंके सोते ने उन्हें गढना शुरू किया था.अपनी पढ़ाई की व्यस्तता,बहसों,गोष्ठियों में भागीदारी,घर में गाँधीवादी पिता,मार्क्सवादी भाई के दोस्तों का ख्याल,इन सबकेबीच अपने लिए समय निकालती थीं वे.मुख्यमंत्रीकी ट्रेड युनिअन के नेताओं के साथ बैठक में भाग लेने का अवसर उन्हें महिला प्रतिनिधि के तौर पर मिला.मुख्यमंत्री ने नेताओं से कहा, ‘वहाँ संसद मेंतारकेश्वरी जी बैठती हैं तो संसद का सौंदर्य बढ़ जाता है वैसे सौंदर्य से हमारा विधान भवन ही क्यों महरूम हो,आप कहें तो इन्हें (दीदी को) विधान परिषद में बुला लिया जाए,’कहकर मुख्यमंत्री ने ठहाका लगया और उपस्थित नेताओंके ठहाके कोरस बन कर मुख्यमंत्री कक्ष में गूंज गए.दीदी घटनाओं का कोलाज बनाती चली गई थीं,उन्हें जब कोई संवेदित करता तो घटनाओं के कोलाज सामने होते.26मई1964को हुई थी मुलाकात मुख्यमंत्री से,जिसके बाद प्रतिनिधिमंडल को नेतृत्व दे रहे कॉमरेड के साथ दीदी रिक्शे पर निकली,वे मुलाकात की सफलता से उत्साहित थे,रिक्शे वाले को गाँधी मैदान चलनेको कहा.रास्ते में उन्होंने पूछा,‘तारकेश्वरी जी को देखा है कभी तुमने,सही फरमा रहे थे जनाब मुख्यमंत्री,नेहरु जैसे सौंदर्य और बुद्धिमता के पुजारी भी कायल हैं उनके.. दीदी तारकेश्वरी सिन्हा के शायराना फलसफे मेंजोशीले भाषणों के विषय में तब तक सुन चुकी थी और नेहरु के सौंदर्य प्रेम,मुग़ल गार्डन में लेडी माउंट बेटन के साथ उनकी मुलाकातें मिथकीय गल्पों के साथ प्रेमी युगलों में रोमांच पैदा करती रही थीं.‘तुम हमारे बीच वामपंथी तारकेश्वरी सिन्हा हो,’कामरेड ने दीदी की आँखों में अर्थपूर्ण दृष्टि डाली.वैसी किसी भी दृष्टि या कम्प्लीमेंट के प्रति अबतक (भाई की घटना के बाद से) वे सावधान रहने लगी थीं,लेकिन कामरेड की लरजती आवाज के साथ उनकी दृष्टि से‘शीताक्षी’ने उनके भीतर फिर करवट ली.गांधी मैदान में बातें करते हुए,अशोकराजपथ पर विचरते हुए वे नेहरु के बाद कौन,सी.पी.आई-सी.पी.आई (एम) के विवादों और नई वामपंथी पार्टी के जन्म,दांगे-नम्बूदरीपाद के विचारभेद,रुसी और चीनी मार्क्सवाद सहित कईपहलुओं पर बातें करते रहे,इन राजनीतिक वियाबानों से गुजरते हुए वे राजकपूर-नरगिस केअफसानों के तार भी छेड़ रहे थे.बातें तैर रही थीं,राजनीति,फिल्म,प्रेम,समाज,उसकी बंदिशें,और कालिदास.हाँ कामरेड इन दिनों कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम को खत्म कर कुमारसंभवम पढ़ रहे थे.कामरेड के विचार‘भाई के दोस्त’से अलग थे,वे स्त्री-पुरुष के आदिम रिश्तों के हिमायती थे,सामजिक सम्बन्ध उन्हें कृत्रिम संजाल नजर आते थे.बातों का छोर पटना सिटी के उनके किराये के मकान में खत्म हुआ.दीदी जब उस मकान से बाहर निकलीं तो उनके साथ मीनाक्षी साथ निकली,उससे शीताक्षी भी घुलीमिली थी,मीनाक्षी और शीताक्षी के अंतरद्वंद्व आपस में गुथंगुथ थे.कामरेड उन्हें छोड़ने उनके घर तक गए,रिक्शे पर दोनों साथ रहे लेकिन इस बार कोई कोई भी प्रसंग छेड़ नहीं रहा था.दीदी अपने कमरे के आईने के सामने काफी देर तक खड़ी रहीं,एक नए अहसास से सराबोर, ‘स्त्री-पुरुष के आदिम आपसी गंध'से मदहोश ! माँ एक बार कमरे में आकर लौट गईं,उन्होंने अपनी रूहीको नींद से जगाना नहीं चाहा रूही नींद में थी,रूही रो रही थी,रूही केआसुओं के तासीर निश्चित नहीं थे,दुःख,अनजाना भय या सुख के आंसू.‘नेहरु नहीं रहे’,दोपहर तक आल इंडिया रेडियो ने खबर दी,जिस पर शाम को घर के लॉन में गमगीन चर्चा में शामिल हुए गांधीवादी पिता,मार्क्सवादी भाई,कमरेड और दीदी.नेहरु के प्रशंसक और विरोधियों,सबके लिए यह आघात था और एक सवाल भी, ’हू आफ्टर नेहरु?’दूसरे दिन पार्टी दफ्तर में शोक सभा हुई और दीदी लौटते वक्त अपने घर आने के पहले कामरेड के मकान पर रुकी,दीदी का यह पड़ाव10जनवरी1966तक बना रहा.लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक निधन के6घंटे पहले तक.धोखा !साजिश !!विश्वासघात!!!पूरे देश की फिजां में यही माहौल था,लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु को साजिश मान रहे थे लोग -वे लोग भी,जो एक दिन पहले तक ताशकंद समझौते के कारण शास्त्री जी के खिलाफ थे.11जनवरी की सुबह दीदी के अपने लोक में भी विश्वासघात और धोखा का घना कोहरा छाया था,जो राष्ट्रीय फिजां में व्याप्त विश्वासघात,धोखे और साजिश के माहौल से लिपट रहा था.दीदी अपनी बेचौनी की हालत या विचारों के द्वंद्व की स्थिति में पासके गंगा-घाट पर घंटों बैठी रहतीं.उस दिन भी वेनिकलीं तो पिता समझ गए थे कि शायद उदासी की स्थिति में वे गंगा की ओर जा रही हैं.वे मना करना चाह रहे थे,उस दिन भी ठंढक में कोई कमी नहीं थी,कोहरा यद्यपि पिछले दिनों की तुलना में कम था.भाई ने सदा की भांतिISE  ‘बुर्जुआ व्यवहार’की संज्ञा दी.हालाँकि दीदी अभी भी शास्त्री जी की मृत्यु परकोई राय नहीं बनाना चाह रही थीं,चाह भी नहीं सकती थीं.क्योंकि उनका समय तो कल ताशकंद की त्रासदी के छः घंटे पहले तक ही फ्रीज हो गया था,जब कामरेड ने उन्हें स्पष्ट मना कर दिया था.‘यह नहीं हो सकता’‘क्यों नहीं,क्या हमारे बीच प्रेम नहीं है?’‘हमारे बीच प्रेम कोई शर्त नहीं थी,हम विशुद्धदेह थे.‘मैं मानती हूं कि हमोर बीच सब कुछ देह से शुरूहुआ था,पूरे होश-हवाश में,वैचारिक तौर पर‘देह’की सत्ता को निर्विवाद और आवश्यक मानते हुए,लेकिन एक औरत के लिए देह से शुरू होकर देह तक टिके रहना संभव नहीं होता,मैं आपके साथ‘घर’और‘संसार दोनों के ख्वाब बुनने लगी थी.’‘वह ख्वाब एक तरफा था,जिसे बुनने के लिए तुम स्वतंत्र थी,परंतु मेरे‘घर’में कोई और भी है.’कामरेड की आवाज सख्त थी.'कोई और मतलब...!’‘मेरी पत्नी’‘क्या वह पहले नहीं थी,तब जब आपके‘घर’और‘संसार’में मैं-ही मैं थी.आप एक साथ दो लोगों से धोखा कर रहे थे.......'‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता हूं,तब भी नहीं चाहता था.मेरीशादी लगभग बाल विवाह थी- दो बच्चे भी हैं.हां,तुम मुझ पर धोखे का आरोप भी तय नहीं कर सकती हो. हमारे तुम्हारे बीच पहली बार ही जो कुछ हुआ वह जरूरत हम दोनों की जरूरत जैसा था,अप्रत्याशित तो कतई नहीं.हमदोनों ही विधान भवन से‘सिटी’मेरे घर पर अनायास ही नहीं चले आए थे.’कामरेड तर्क कर रहे थे.'तो क्या वह सब पूर्व नियोजित था?....दीदी लगभगचीखने को आयी.‘मैं कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता उस दिन के बारे में,नियोजित था भी और नहीं भी.लेकिन अब,अब परिवार मेरी जिम्मेवारी है.’गंगा का दूसरा छोर घने कोहरे में छिपा था.कोहरे में कुछ ढूंढ़ती दीदी की आंखें उसी छोर पर लगी थीं या वे सूने में एकटक देखती कुछ सोच रही थीं......'नियोजन!'किसका व्यवहार नियोजित था.क्या वे कुछ सोच कर विधान भवन से टांगें पर बैठी थी पहले दिन!!! खूब याद करने के बाद भी वे तय नहीं कर पा रही थीं कि वे कामरेड के साथ मुख्यमंत्री के कक्ष से निकलकर क्यों चल पड़ी एक साथ.क्या मुख्यमंत्री की प्रशंसा से वे भाव विभोर थीं- आपा खो बैठी थीं.क्या उनका और कॉमरेड का घर पटना सिटी में था इसलिए वे एकसाथ निकलीं?क्याकॉमरेड के व्यक्तित्व ने और उनकी वक्तृता ने उन्हें सम्मोहित कर रखा था?क्या शीताक्षी के भावोद्रेक थे वेकदम?क्या ठेठ दैहिक जरूरतकी दिशा में प्रेरित थे उनके पांव?क्या नियोजित था- समय,भाव और नैरंतर्य में उपस्थितपरिस्थितियों का उद्दीपन याउनसे उम्र अनुभव और वैचारिकी में परिपक्व कॉमरेड का आलंबन......!!गंगा का पानी स्वच्छ था,शांत भी.ठंड के कारण एक दो श्रद्धालु ही स्नान कर रहे थे,दीदी के घाट से कई किलोमीटर दूर‘स्टीमरों’में भी कोई हलचल नहीं था.गंगा शांत बहरही थी,दीदी की आंखें भी अंतःसलीला थीं -शांत बहाव.‘कैसा नियोजन !स्त्रियां कब कर पायीं हैं,अपनी जिन्दगी का निर्णय या निर्धारण!सब कुछ परिवार तय करता है या पुरूष‘घर’संसार हर जगह:15अगस्त1947को नन्हीं मीनाक्षी के हाथों में तिरंगा थमा कर उसकी मां कहां कैद हो गयी थी,कहां सीमित हो गयी थी.गांधी जी के द्वारा आह्वान पर घर से बाहर कदम रखने वाली मां-स्त्रियां की कुशल संगठनकर्ता,अपने प्रिय आभूषणों को दान में दे देने वाली‘भामाशाह’,औरपिता के लिए15अगस्त1947के अलग-अलग मायने में-मां उस दिन के बाद से घर में ऐसे सीमित हो गयीं,जैसे पहले कभी निकली ही नहीं थी,नहींदेखा था उन्होंने असहयोग आंदोलन,नहींभाग लिया थानमक आंदोलन में या फिर1942में जेल भी नहीं गयीं थीं;पिता सक्रिय राजनीति में बने रहे.‘क्या होता है पूर्व नियोजन स्त्रियों की जिन्दगी में! कामरेड की चुप्पी,घर-परिवार के बारे में सायास निर्मित रहस्य यदि पूर्व नियोजित नहीं था तो क्या मेरा समर्पण या‘हम दोनों के सुख’पूर्व नियोजित थे.’घंटे भर गंगा की तरंगों में डूब-उतरकर दीदी घरके लिए लौट पडीं.मां की यादों के रास्ते तारीखों-तवारीख में उतरी दीदी को लगा कि10जनवरी1966इतिहास के एक युग के अंत की तारीख है- नेहरू युग का अंत,लाल गुलाबों का वास्तविक प्रस्थान.नेहरू नहीं रहे,लाल बहादुर शास्त्री का असमायिक निधन हो गया,लेडीमाउंट बेटन बहुत पहले ही इंगलैंड लौट चुकी थीं.कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को गद्दी सौंप दी.कांग्रेसी नेताओं की एक ताकतवार जमात इसे‘गूंगी गुडिया’की ताजपोशी मानता था.जिन दिनों इंदिरा गांधी‘गूंगी गुडिया’से‘दुर्गा का अवतार’बनती गयीं,उन्हीं दिनों दीदी पटना से दिल्लीविश्वविद्यालय की अन्तेवासी हो गईं;वहां रहकर छात्र और ट्रेड युनियन की में सक्रिय रहने केपार्टी के निर्देश के साथ.उन्हीं दिनों दीदी की शादी कर दी गयी- पति भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी थे.पति के आग्रह पर वे रूसभी रह आयीं-दीदी के सपनों का साम्यवादी देश,जहां बेटे के जन्म के बाद वापस लौट आयीं फिर से पटना,वे पति के पश्चिमी देशोंकी पोस्टिंग में साथ नहीं जा सकीं,वे विदेश सेवा के अधिकारी के रसाई और शयनकक्ष तक सीमित नहीं रह सकती थीं.जिस दिन,पाकिस्तान से अलग बंगला देश की घोषणा हुई,उस दिन वेपटना सिटी के अपने मकान के लॉन में अपने बेटे की ऊंगली थामे घूम रहीं थीं और उनकी निगाहें सड़क पर टिकी थीं- जहां इंदिरा गांधी के शौर्य और विजयके उल्लास से पूरा वातावरण सराबोर था.पति की चिट्ठियां धीरे-धीरे आनी कम हो गयीं,अब आने वाली हर चिट्ठी में बेटे कीपढ़ाई और उसके भविष्य की योजनाएं साथ आतीं- दीदी तय थी कि  उनका बेटा उनके पास अमानत है,जिसे पहले तो बोर्डिंग स्कूल जाना है,और फिर पिता के पास विदेश.वे अब पार्टी की गतिविधियों में ज्यादा शरीक होने लगीं.उनका सबसे प्रिय मोर्चा था कोयला खदानों के मजदूरों का मोर्चा.सीधे-सादे आदिवासियों की संपत्ति पर कब्जा था शेष बिहार के दबंगों का,जिनकी शासन और सत्ता में पहुंच थी.दीदी इस मोर्चे पर सक्रिय हुईं.‘सरकारें और उसके कारींदे- ठेकेदार,पुलिस और कारखानेदार,बंदूक की ही भाषा समझतेहैं.पूरे ग्रीन बेल्ट की नींद,भूख पर कब्जा करनेऔर उनकी सुकून पसंद जिंदगी पर तथाकथित सभ्यता का मुलम्मा डालने को उतारू सरकारों को उसके आदिवासियों की करूण आंखें और मूक वेदना समझ में नहीं आती.दीदी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के द्वारा‘नक्सलवाद’को देश का सबसे बड़ा शत्रु घोषित करने पर उबल पड़ती थी.कोयला खदानों के मजदूरों के साथ काम करते हुए ही मुलाकात हुई उनकी मेरे दादा जी की मित्र से वे धनबाद में श्रम अधिकारी थे,आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ! उनकी धाक अधिकारियों के बीच कम साहित्यिक मंचों पर ज्यादा थी.मधुर कंठ और सुर साधनाके साथ वे अपने गीतोंकी‘माधुरी’सेमहफिल लूट ले जाते थे.मंचों पर उन दिनों गीत,अगीत,नवगीत,कविता-अकविता,छंद-मुक्तछंद की धूम थी.सरोकारी मुलाकातों और मंचों,महफ़िलोंबीच दीदी कीनयी दोस्ती पनपी-पास्क दादा के साथ:‘एक सुंदर स्त्री,उससे भी अधिक आकर्षक स्त्री यदि आपके सामने की कुर्सी पर बैठकर अपने तेज और अकाट्य तर्कों से आपको कायल कर रही हो तो कौन मूर्ख हथियार डाल देना पसंद नहीं करेगा.’वे अपने स्टाइल में बेवाक थे या फ्लर्ट रहे थे.‘तो मैं मान कर चलूं कि आप हमारी तरफ से सरकार के सामने हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे.’दीदी लक्ष्य से भटकना नहीं चाहरही थीं.‘अपनी बंकिम भृकुटियों से कोई तार-तार कर रहा हो और अपने शब्दों से निरूत्तर तो कानूनी हरफों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है संवेदना.कानूनी हरफो को कई शुष्क हृदयों ने लिपिबद्ध किया है लेकिन पर- दुःख- कातर स्त्री कीउपस्थिति मात्र से उन हरफों कीशुष्कता गायब हो सकती थी’,वे प्रशंसा कर रहे थे,डोरे डाल रहे थे या फिर अपनी सहजता में थे.....दीदी ने बताया कि उनकी यह दोस्ती सबसे अधिक चली.वे घर में‘रूक्मणि’कॉलेज की दिनों में विरही बनीं‘राधा’और कोयला मजदूरों के बीच सक्रिय‘द्रौपदी’के साथ एक साथ सहजहो सकते थे और वे तीनों भीउनके साथ सहज हो सकती थीं.दीदी उनसे सबकुछ शेयर करतीं,व्यक्तिगत- राजनीतिक सबकुछ.उनकी सलाह मानतीं,उन्हें सलाह देतीं.1947में पार्टी से विलगाव,जयप्रकाश जी के आंदोलनों से रिश्ता और सक्रिय भूमिका, 1975में इंदिरा गांधी के द्वारा इमरजेंसी लागू होने पर पार्टी की खुली आलोचना और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा आदि दीदी केसारे निर्णयों में दादा जी केमित्र की सलाह और बहसकी भूमिका रही थी.उनके साथ प्लूटोनिक सुख पाती थी दीदी;इसीलिए वे अपने को रूक्मिणी,राधा और द्रौपदी की त्रयी में द्रौपदी जैसा अनुभव करती थी.उस दिन कोयला मजदूरों के मामलों को लेकर जब वेसूबे की बड़ी नेता से मिली,तो उसके द्वारा बलात् संबंध बनाने की घटना से आहत वेसीधे उनके कंधों पर गिरकर फूट-फूट कर रोयीं:‘क्या औरत देह मात्र होती है,मात्र मांस का लोथड़ा,उसने मुझे मात्र देह में तब्दील कर दिया था’ -वे काफी देर तक रोती रहीं.जी हल्का हुआ तो उन्होंने सुबकते हुए कहा, ‘मैं अपने भीतर ताकत भी महसूस कर रही हूं.इसी देह के आगे सूबे का सबसे बड़ा नेता नंग-धडंग लेटा था.सेक्स की भूख मिटनेके बाद उसके चेहरे पर बच्चों सा संतोष था- मैं भीतर से जल तोरही थी,लेकिन उस क्षण को मेरे भीतर उत्साह दौड़ गया था.’मैं आपकी उत्सुकता शांत करने वाली नहीं हूं कियह नेता था कौन : मुख्यमंत्री-राज्यपाल खानन मंत्री या फिर इन सब मंत्रियों को बनाने-बिगाड़ने वाला शक्तिशाली‘किंग मेकर’ .हां उस‘बलात संबंध’के बाद दीदी की फाइल रूकी नहीं,इतनी सूचना मैं दे सकती हूं.दीदी और गीतकार दादा का प्रेम‘प्लूटोनिक’मात्र नहीं था;दो शरीरों ने इस प्रेम को और अधिक गहन बनाया था.पहली बार दोनों करीब आए थे उनके ऑफिस के कमरे में.ऑफिस स्टॉफस की गैर मौजूदगी में.खूब तेज बारिश,हवा,घिर आयी रात तथापाठक जी केप्रति दीदी के मन के आकर्षण ने उद्दीपन का काम किया था- प्रयत्न या प्रयोजन कहीं नहीं था.वासना रहित आलिंगन...!!उन दोनों ने अंतिम बार जब एक दूसरे को समर्पित किया,उसके बाद‘प्लूटोनिकप्रेम (!) ही बचा-शरीर-संबंध जाता रहा.इसकेपहले वासना रहित प्रेम के बाद हर शरीर संबंध में वासना की अधिकता बढ़ती गयी,शारीरिक प्रेम  गहराता रहा;तब तक,जब यह सब अंतिम बार हुआ.उन्होंने उस दिन दीदी को आलिंगन मेंलिए उनके कानों में फुसफुसाहट डाली,रूक्मिणी से तुम बेहतर हो,राधा तुम से बेहतर.........'दीदी ने उसके बाद उन्हें आश्चर्य से देखा.ऑफिस की तेज बारिश को याद किया,हवा के तेज झोकों को याद किया और प्रत्युत्तर में कहा‘इतिश्री’.इसके बाद दोनों कभी आलिंगनबद्ध नहींहुए.गीतकार दादा ने भी‘इतिश्री’की गरिमा बनाए रखी.बोधि वृक्ष पर टंगा टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट‘मथुरा कहां होगी’‘कौन मथुरा,मथुरा आगरा के पास है.‘मैं मथुरा की बात कर रहा हूं,जिसके रेप के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद पूरे देश मेंस्त्रीवादी आंदोलनों की दस्तक पड़ी थी.’‘तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो’आज मेरी दीदी नहींरही,मैं उन्हें मिस कर रही हूं.‘इसलिए कि मैं वहीं से आ रहा हूं,जहां मथुरा अपने ऊपर राक्षसी बलात्कार के पहले,बाद में और  उसेकेन्द्रित स्त्रीवादी आंदोलनों के दौरान तथाउसके बाद तक पत्थर तोड़ती रही है-मथुरा यानी आदिवासी लड़की’ .उसकी पीड़ाओं की नींव पर ही बने‘कस्टोडियल रेपकानून और शिफ्ट हुआ आनेस ऑफ प्रूफ’.'तो तुम महाराष्ट्र से आ रहे हो’?'‘हां,उसके शहर चंद्रपुर से कोई सौ-एक सौ बीस किलोमीटर दूर आयोजित स्त्रीवादी जमघट से आ रहा हूं- देशभर से जमा सैकड़ोंस्त्रीवादीअकादमिशियन,कार्यकर्ताओं,विद्यार्थियों जमावडाथा वहां.’‘मथुरा भी आयी थी क्या वहां.’‘उसकी सुध लेने वाला कौन है?वहां तो टी.ए.,डी.ए. की मारामारी थी.स्त्रियों को गाली देने वाले,लेखिकाओं को‘छिनाल’संबोधित करने वाले एक पुलिस अधिकारी से संबंध बनाने का आलम यह था कि उसे स्त्री-पुरुष समानता के प्रतीक के तौर पर एक‘पीपल-वृक्ष’यानी'बोधि वृक्ष'समर्पित किया गया.’‘क्या कह रहे हो तुम,क्या किसी ने विरोध नहीं किया.’‘कौन करता विरोध,वह पुलिस अधिकारी सिर्फ पुलिस अधिकारी नहीं रहा वहां शिक्षा के नाम परएक बड़े कोषको कस्टोडियन है,उसकी कलम से ही वहां उपस्थित‘स्त्रीवादियों कोटी.ए.डी.ए मिलना था और भविष्य में अन्य उपकार सुनिश्चित थे ..’‘बोधि वृक्ष तो  दलित अस्मिता का प्रतीक है.’‘हां,इसीलिए कुछ दलित स्त्रीवादियों,ने दलित महिला संगठन के कुछ कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया तो वहां बैठी संभ्रांत भृकुटियाँतन गयीं,नारा लगाती  कार्यकर्ताओं की जमात को विलेन मानती आंखों उन्हें दुत्काररही थीं,पुलिस ने उन्हें निकाल-बाहर किया.’‘फिर स्त्रीवादी सम्मेलनों का आडंबर क्यों?’‘वहां स्त्रीवादी आंदोलनों,अकादमिक गतिविधियों के संभ्रांत प्रतिनिधियों का पुलिस-अधिकारी के साथ कोरस सुनकर आया हूं.मथुरा की कौन याद करे.यह तो टी.ए. डी.ए की कस्टडी में कई-कई मथुराओं को पुनर्जीवित करनेकी घटना थी.’मेरा मन पहले से ही उदास था.मैं अपना मन बदलने के लिए ही गंगा ढाबा आ गयी थी,रोहिताश्व को भी यहीं बुला लिया था,गरम बहसों का केंद्र गंगा ढाबा. निरंजन ने ढाबे पर ही ज्वाइन कर कियाथा मुझे .‘तुम स्त्रीवादी आंदोलनों और विचारों पर पूर्वग्रही वातावरण निर्मित कर रहे हो  न.‘तो क्या करूं ! स्त्रियों को,विदूषी स्त्रियों को,सरेआम गाली देने वाले मर्दवादी अहंकार को तुष्ट करती स्त्रीवादियों को देखनेकी त्रासदी के बाद मैं क्या कर सकता हूं,यह पूर्वग्रह नहीं,तटस्थ आक्रोश है.’‘तुम्हारा आक्रोश स्त्रियों की टी.ए.डीए पर क्यों है?इसलिए की अब वे पुरुषों की बराबरी पर अकादमिक गतिविधियों में शामिल हैं.’‘जी नहीं,पुरुषों के साथ निर्लज्ज बराबरी पर मेरा आक्रोश है,स्त्रीवादी आंदोलन पितृसत्ताके संस्कारों के खिलाफ था,उसके अनुरूप हो जाने के लिए नहीं था.’मैंने बातचीत को वहीं खत्म कर वापस लौटना उचितसमझा.आपको भी लग रहा होगा कि कहानी के बीच यह अवांतर प्रसंग क्यों?लेकिन मैं ढाबे पर चलीआयी,तो उसकी प्रकृति के अनुरूप कुछ बातें आपको शेयर करनीजरूरी समझा मैंने.वैसे ऑटो सेरोहिताश्व के साथ दीदी के घर की ओर लौटते हुए मैं पूरी कहानी बता ही दूंगी आपको.हम घंटो चुप्प,हाथों में हाथ लेकर एक दूसरे को देखते हुए समय में डूबे रह सकते हैं.इस बीच रोहित को धोखा देकर मैं अपनी दीदी की कहानी पर लौट आती हूं:हां तो पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर दीदी जयप्रकाश जी के नेतृत्व में आंदोलनों में और अधिक सक्रिय हो गयी.1975में भारत के महिला प्रधानमंत्री ने इमरजेंसी थोपी,संयुक्त राष्ट्र संघ ने उस वर्ष को‘महिला वर्ष’के रूप में घोषित किया, 8मार्च को‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’बनाने की औपचारिक नींव पड़ी और'टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट'के साथ भारतीय महिला आंदोलन ने अपना चार्टर पेश किया.दीदी छात्र-आंदोलन के दौरान नया जोश,नयी ताजगी से रू-ब-रू हो रही थीं.राजनीतिक लक्ष्य के साथ सामाजिक परिवर्तनों की भी हलचल थी.‘स्त्री-पुरुष संबंधों,अंतरजातीय,अंतर धार्मिक रिश्तों के नए-नए प्रयोग प्रोत्साहित हो रहे थे.दीदी को संबंधों के इन प्रयोगों को देखकर  सुकून महसूस होता- उनके बाद की पीढ़ी भी सक्रिय हो चुकी थी.समय के उसी टुकड़े पर एक जोड़ी नयी आंखों में दीदी को अपने लिए सरहाना के भाव दिखे.वे आंखेंउनकी आंखों में उतरने के लिए आतुर थीं.तेज-तर्रार कार्यकर्ता था वह,प्रखर वक्ता.दीदी के बाद की पीढीका नवयुवक.जे.पी. पर चली लाठियों के बीच-बचाव में कुछ नाम सुर्खियों में आ गए कुछ गुमनामरहे- वह भी उन गुमनाम नामों में से था.इमरजेंसी के बाद‘मीसा'के तहतदीदी  जिस जेल में रखी गयी थीं उसी के पुरुष कार्ड में उसे भी रखा गया था.इमरजेंसी के बाद केंद्र और राज्य,दोनों जगह की सरकारेंबदल गयी थीं.दीदी भी चुनकर बिहार विधानसभा पहुंची.बिहार विधानसभा की‘तार केश्वरी सिन्हा.’लेकिन नेहरू के साथ ही राजनीति का नेहरू युग समाप्त हो चुका था,नेहरू मॉडल का सौंदर्य बोध भी.उन्हीं दिनों मुख्यमंत्री पर किसी महिला नेताने बलात्कार के आरोप लगाए.दीदी ने भी अपने प्रति कई-कई निगाहों में आक्रामकता देखी थी.कई अप्रिय घटनाओं और संवादों से रू-ब-रू हुई थीं.युवा नेता से उनकी दोस्ती किस्से और अफवाहों की शक्ल में सत्ता की गलियों में घूमती.नेताओं केफिकरे हवा में तैरतें, 'जो बात जबान हड्डियों में है,उससे कम इन शुद्ध घीवाली बूढ़ी हड्डियों में नहीं है.'दीदी इन सारे संवादों का प्रत्युतर शालीन मुस्कान से देती.और जरूरत पड़ी तो कठोर दर्प से भी.एक मंत्री की लम्पटता की खबर आलाकमान तक पहुंची -मामला दबा दिया गया.उन दिनों किसी भी अप्रिय घटना के बाद संदेह की पहली सूई‘स्त्री’पर ही जाती थी और यदि स्त्री सार्वजनिक जीवन में हो,सुंदर हो,रिश्तों के प्रति सहज हो,कई-कई अफवाहों,किस्सों की नायिका हो तब तो लंपट पुरुषों कोक्लीन चिट मिलना हीथा,उसेप्रलोभन के बाद सामान्यउच्छृंखलताके खाते में डाल दिया जाना आम बात थी.उन दिनों दीदी को लगने लगा था कि क्यों नहीं  विदेशों में बसे पति से तलाक लेकर‘युवा मित्र से संबंधों को रिश्ते में बदल दिया जाए! लेकिन ऐसे विचार कुछ पल ही टिकते,किसी नई सीमा में बंधने की उनकी इच्छा नहीं थी- फिर बेटे का ख्याल भी उन्हें ऐसा करने से रोकता.नयी सरकार भी जाती रही,पुरानी नए अवतार में बहाल हुई- गरीबी हटाओ के बीस सूत्री कार्यक्रम के साथ.दीदी दुबारा चुनी हुई विधायक के तौर पर किसी राजनीतिक मसले पर मुलाकात के लिए रायसीना हिल्स पर कहीं किसी अतिथि कक्ष में तशरीफ ले गयीं.अतिथि कक्ष से उन्हें निजी कक्ष में चले आने का आमंत्रण मिला.उन्होंने अपने को खुशकिस्मत माना कि कई मुलाकातियों के बीच न मिलकर‘विशिष्ट’ने उन्हें‘अतिविशिष्ट’का दर्जा दिया.निजी कक्ष की कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग ने उनका स्वागत किया.सुबह का समय और काफी...पल भर के लिए वह बुजुर्ग या उनकी छाया हिली.पलभर में ही निजी कक्ष का दरवाजा बंद हो गया.सब कुछ पल भर में घटा,दीदी कुर्सी से पलंग पर,बुजुर्ग की हॉफती-कॉपती छाया बगल में बुदबुदारहा था, ‘क्या यहसब पहले से तय नहीं था?’ ‘तुम्हें बताया नहीं गया था?’ 'मैने सुन रखा था कि तुम उन्मुक्त ख्यालों की आजाद स्त्री हो.'दीदी उस कॉपती बुदबुदाती छाया को वहीं छोड़कर बाहर आयीं- उन पलों को वे भुला देना चाहती थीं,सर्वोच्च के सम्माने में,अपने से भी छिपा लेना चाहती थीं.‘बिहार निवास’जैसे किसी निवास में युवा नेता उनका इंतजार कर रहा था.उन पलों को गहरे रहस्य लोक में डालकर दीदी सहज थीं.दोनों घूमने निकले.घंटो घूमते रहे-शॉपिंग करते रहे.लाल किला में लॉन पर बैठे-बैठे दीदी अचानक से सुबुकने लगीं.उसे कारण समझने में नहीं आया,शायद बेटे की याद,शायद पति की कोई तीखी बात शायद ..... उसके उनके चेहरे को हथलियों में भर लिया.दीदी उसके कंधे पर सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी.जी हल्का हुआ,लाख पूछने पर भी रहस्य लोक का दरवाजा नहीं खुला.दीदी एक नए निश्चय पर पहुंच रहीं थीं,राजनीति से अलविदा करने के निश्चय पर कि एक और घटना घटी,वहीं उसी निवास में निजी क्षणों में.दीदी ने नए साथी,युवा मित्र कोभी राजनीति के साथ हीछोड़ने का निश्चय लिया.घटना केकेंद्र में एक वाक्य था,फुसफुसाहट में निकला वाक्य,जो दीदी के कानों,मन और पूरी चेतना पर गूंज गया.वह‘चरम क्षणों’के दौरान फुसफुसाया था....‘तुम्हारे स्तन थोड़े और बड़े होने चाहिए थे’कई वर्ष लगा दिए थे उसने उन्हें ऐसा कहने में.दीदी केकानों में वाक्य गूंजा,उनकी आंखें उसके चेहरे पर जम गयीं- दीदी के विचारों में कौंध गई‘देह’.‘स्त्री देह’.तब से दीदी ने अपना निजी संसार बना लिया और पीछे छूट गयीं अफवाहें...उनके साथ जुड़ी कहानियां.....सभाओं-गोष्ठियों-पार्टियों और‘रस रंजन’कार्यक्रमों में बुनी जाने वाली फंतासियां.वे अपनी शर्तों और विचारों के साथ समय के कई-कई टुकड़ों में उपस्थित रहने लगीं.31अक्टूबर1984के कुछ दिनों पहले से ही सक्रिय राजनीति छोड़ चुकी दीदी दिल्ली के इसी मकान में शिफ्ट हो गयी थीं,जहां डायनिंग टेबल पर उन्होंने अंतिम सांसें ली- महा प्रस्थान को प्रस्थित हुईं.दिल्ली के इसी घर में रहते हुए पेड़ के गिरने के बाद कांपती धरती उन्होंने देखी:हत्याएं,खून,पड़ोसियों में खौफ,अविश्वास यह सब क्रिया की प्रतिक्रिया वाले खौफ,अविश्वास कत्लेआम से लगभग दो दशक पूर्व की तस्वीर है.तब से दिल्ली और दिल्ली के बाहर राजनीतिक-अराजनीतिक आंदोलनों ने,साहित्यिक-सांस्कृतिक-गोष्ठियों-आयोजनों ने उनकी सक्रिय उपस्थिति देखीऔर असहमतियों के बाद उनका वहाँ सेरूखसकत होना महसूस किया है.दीदी केनए‘निजी संसार’में सौंदर्यबोध,सुरूचिता और विचारों के प्रति साफगोई थी.स्त्री होने का बोध कराती अनेक घटनाओं-दुर्घटनाओं को झेल चुकी दीदी तब भी पुरुषों के बीच ज्यादा सहज और उनकी अच्छी दोस्त थीं.स्त्री-आंदोलनों में पुरुषों की आक्रामकता,यौन-कुंठाओं पर तीखे प्रहार की भूमिकाओं में,पुरुष साथियों के साथ वैचारिक बहसों मेंऔर निजी संबंधों में भीवे एक समान सहज थीं.उन दिनों जब,स्त्री आंदोलनों में शिथिलता आनेलगी थी,अकादमिक संभ्रांतता हावी होने लगी थी,दीदी  स्त्री आंदोलनकारियों के जाति और वर्ग दंभ देखकर आश्चर्यचकित थीं,भयभीत थीं.दलित स्त्रियों के सवाल पर आंदोलनकारियों के बीच असहजता उत्पन्न होती,आपसी फुसफुसाहटें तेज हो जातीं,जोगांवों की ड्योढ़ियों में बैठी‘संभ्रांत स्त्रियों’से कतई भिन्न नहीं होती.आज मथुरा को खोजता महाराष्ट्र से वापस लौटे निरंजन नेजिन स्त्रीवादी समूहों को बोधि-वृक्ष के प्रतीक को एक ऐसे हाथ में सौंपते देखा था,जो सवर्ण मर्दवादी गर्व से चूर स्त्रियों को गाली दे रहा था,उनस्त्रीवादी समूहों की शिनाख्तदीदी ने तब कर ली थी.अपने महाप्रस्थान के पूर्व के कुछ वर्षों में उन्होंने एकांत स्वप्न संसार बना दिया था.उनके स्वप्न का प्रति संसार उनके अनुभवों,उनकी यात्राओं,उनकी सक्रियता से बनाप्रति संसार था.वहीं से प्रेरित होकर वे आजीवन सक्रिय थीं,बिना थके,बिना रूके...उनके स्वप्न संसार में अपनी कामनाओं,अपनी इच्छाओं को जीती सुंदर स्त्री का साम्राज्य था,जिसका पुरुष सहचर उसकी दैहिक उपस्थिति के प्रति अभिभूत और मानसिक लोक का हमसफर था.वे मुझे रोहित के प्रति प्रेरित करतीं :‘रोहित तुमसे प्रेम करताहै.तुम्हारे मानसिक,बौद्धिक अस्तित्व से प्रेम करता है,वरना तुमजैसी सौंदर्यबोध रहित स्त्री की ओर कोई क्यों देखें?’मैं उनके इस कटु चुहलबजी या सत्य पर कोई प्रत्युत्तर नहीं देती.‘तुम दोनों ने अब तक नहीं जाना है कि अभिसार क्या होता है.मैं तुम्हारी जगह होती तो रोहित के प्रति सर्वस्व समर्पित होती-‘सर्वस्व समर्पण ही तो अभिसार है- वरना दैहिक खेल,या देह-विनिमय..'‘पता नहीं तुम नई लड़कियों को क्या चाहिए! मैं आज भी अपने भाई के दोस्त,कॉमरेड,पति,पाठक जी,और‘युवा-साथी’-सबमें से थोड़ा-थोड़ हासिल कर अपने जीवन को एक पूर्ण पुरुष साथी के साथ समर्पित पाती हूं,तभी मुझे अपने ऊपर किसी बलात्कार,अफवाह या फिकरों का कोई अफसोस नहीं,बदलेकाभाव नहीं है.’तो कल  रोहित के साथ मुझे अपने घर भेजनेके पहले जब वे मेरे साथ मंडी हाउस में काफी पी रहीथीं,तभी हमारी टेबल के सामने बैठा एक युवक उन्हें लगातार देख रहा था, 30-35साल का फोटोग्राफर- मानो उनकी आंखों में उतरकर उनकी फोटोग्राफी करना चाह रहा था.हमने जब दूसरे कम कॉफी का ऑर्डर दिया तो वह हमारी टेबल पर‘एक रूप’और कहता हुआ आ धमका.‘मुझे माफ करेंगी मैं काफी देर से एक बात कहना चाह रहा था आपको.’दीदी ने मुसकुराकर उसका स्वागत किया.‘आप बहुत खूबसूरत है.’क्या मैं आपकी तस्वीर ले सकता हूं.दीदी फिर मुसकुराई.....‘आपकी आंखें लाजबाव है...वहां अपूर्व शीतलता है......सही,मैंने वहां पूरी तरह झांककर देखा.’दीदी उसकी आंखोंमेंउतर गईं,मैं अपने आपको उनके बीच से अनुपस्थित पा रही थी.‘क्या मैं आपकी बंद आंखों को चूम सकता हूं.’यह तो धृष्टता की हद थी.दीदी मुसकुरायी,उनकी आंखों में चमक और आत्मविश्वास तैर रहा था,तो क्या तुम तस्वीरेंभीलोगे और मेरी आंखों की शीतलता भी सोखना चाहोगे.’युवा फोटोग्राफर के चेहरे पर एक लालिमा दौड़ी,दीदी के चेहरे पर लज्जामिश्रित तृप्ति......और उस रात को महाप्रस्थान के पूर्व  उस युवा फोटोग्राफर के साथ मंडी हाउस में काफी देर तक घूमती रहीं वे,इंडिया गेट पर काफी देर बैठी रहीं,गप्पे करती रहीं,प्रेस क्लब जाने का ख्याल ही नहीं आया उन्हें.और हां,वहां अपने घर पर आने के लिए ऑटो लेने केपूर्व उन्होंने अपनी आंखें बंद की थी,जिस पर फोटोग्राफर का मीठा चुम्बन लेकर वे,यानी मीनाक्षी,यानी शीताक्षी,ऑटो पर बैठी,फिर डायनिंग टेबल पर और फिर............_


प्रतिक्रियाएँ
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[25/02 19:29] ‪+91 99313 45882‬: संजीव चन्दन जी की कहानी ' वो आखिरी चुम्बन ' बहुत धैर्यपूर्वक पढ़ा ! कहानी पढ़ते हुए लगा वरिष्ट लेखिका रमणिका गुप्ता जी की आत्मकथा " आपहुदरी " पढ़ रहा हूँ ! सारे घटनाक्रम मिलते-जुलते ! वही 1962 , वही मुख्यमंत्री के.बी सहाय , वही कमरे का दरवाजा बंद कर लेनेवाला नेता तत्कालीन कांग्रेस राज्याध्यक्ष राजा मिश्र , वही नायिका के सामने नंग-धरंग हो जाने वाला देश का भावी राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी , बिहार-भवन में नायिका से यौन-सुख पानेवाला युवा नेता , वही धनवाद का कोलियरी , खदान-मजदूरों और ट्रेड-यूनियनों की राजनीति , वही नायिका की राजनीति में सक्रियता , वही उनका विधायक बनना , वही धनबाद का नायिका पर फ़िदा होनेवाला कवि-अधिकारी और उससे नायिका की नजदीकी , वगैरह-वगैरह !
कुल मिलाकर एक सच्ची कहानी को बेहद खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है संजीव जी ने ! एक खूबसूरत महिला राजनितिक कार्यकर्ता की कहानी है यह जो बताती है कि राजनीति में एक महिला को क्या-क्या झेलना पड़ता है ! और अगर वह महिला खुद पढ़ी-लिखी मनोविज्ञान की ज्ञाता हो और साथ ही अपना निर्णय खुद लेनेवाली हो , पति से खिची-खिंची रहती हो , दैहिक संबंधों के प्रति अपने हिसाब से थोड़ी उदार हो तो कहानी और भी रोचक हो जाती है !
एक अच्छी कहानी के लिए संजीव जी को बहुत बहुत बधाई और एडमिन को भी बधाई कहानी पढ़वाने के लिए !

🙏
आपने इस कहानी को अच्छी कहानी की श्रेणी में रखा ।कहानी के अंत में आखिरी चुम्बन को आप नायिका के अंतर्मन के भाव  को किस तरह लेते है ।

🙏
[25/02 21:20] Jaishree Rai: इस कहानी पर कोई प्रतिक्रिया देने की मुझमें योग्यता नहीँ। 🙏🏻😊🌹

[25/02 22:27] राजेश झरपुरे जी: सही कहा  जयश्रीजी । आपसे पूर्णतः सहमत हूं  । वास्तव में यह इतनी अद्भुत कहानी  हैं  कि मुझ जैसा  सामान्य  पाठक इस कहानी  की किसी भी तरह से कोई विवेचना नहीं  कर सकता । फिर भी जो समझ सका उसे साझा कर रहा हूँ,,,,
[25/02 22:27] राजेश झरपुरे जी: सब कुछ देह से शुरू हुआ था, पूरे होश-हवाश में, वैचारिक तौर पर ‘देह’ की सत्ता को निर्विवाद और आवश्यक मानते हुए, लेकिन एक औरत के लिए देह से शुरू होकर देह तक टिके रहना संभव नहीं होता,,,,
 यह कहानी  एक समय और  प्रान्त विशेष की एक  महिला  विशेष की सच्ची  कहानी  है । कथा में एक नाम का भी उल्लेख  है - तारकेश्वरी सिन्हा ।कोयला खान में  श्रमिकों का आन्दोलन हो या सत्ता के मंच के जन आंदोलन में सक्रिय रहने वाली महिलाओं की राजनैतिक यात्रा, देह से ही शुरू होती है और देह पर ही खत्म हो जाती है । इससे भला राजनीति  की सामान्य समझ रखने वाला भी इंकार नहीं कर पायेगा । हाँ! यदि वह बलात्कार का सामान करती है तो बलात्कार  करती भी है । ट्रेड यूनियन लीडर व्दारा किया गया बलात्कार और बलात भोगे जिस्म का  अपनी कम उम्र के युवा लीडर के साथ प्रेम प्रसंग उसके व्दारा युवा के साथ किया गया बलात्कार ही हो सकता है । राजनैतिक जीवन में पितृसतात्मक  मानसिकता स्त्री की उपस्थिति  को कहां स्वीकारती है।

भाई शेखर सामंत से सहमति के साथ यह अपने समय और समाज से रूबरू कराती एक सच्ची कहानी । जितना खूबसूरत  कहानी  का प्रारम्भ  है उतना ही अच्छा  अन्त भी ।

आरंभ

इसे मौत कह कर उनके मरने की इस अदा का अपमान नहीं किया जा सकता.वे प्रस्थान कर गई एक दूसरीभूमिका की ओर.... महाप्रयाण.......!
यह महाप्रयाण है,पुरुष- आरक्षित मोक्ष नहीं.
क्या कोई अपनीमौत को भी इतना उत्सवपूर्ण बना सकता है ! यह तो एक दूसरी यात्रा की शुरुआत के पूर्व का ही उत्सव हो सकता था !! वे महाप्रयाण कर गई.............

और अंत

अपने घर पर आने के लिए ऑटो लेने के पूर्व उन्होंने अपनी आंखें बंद की थी,जिस पर फोटोग्राफर का मीठा चुम्बन लेकर वे,यानी मीनाक्षी,यानी शीताक्षी,ऑटो पर बैठी,फिर डायनिंग टेबल पर और फिर.........

इस कहानी  पर मोक्ष,  विप्रयाण और महाप्रयाण जैसे मुद्दों पर भी चर्चा  हो सकती है,,,?

अद्भुत ।
 एक बेहतरीन  कहानी  मंच पर प्रस्तुत करने के लिए प्रवेशजी का शुक्रिया ।

[26/02 02:39] Sanjiv Chandan: आज दिन भर पत्रिका के काम में व्यस्त रहा और कल भी रहूंगा. ग्रूप के ऐडमिन को बहुत- बहुत धन्यवाद मेरी कहानी यहां लेने के लिए. प्रतिक्रियायें पढ़ रहा हूं, मैं अब कहानी कला की कक्षायें लेने से रहा भला.
कुछ ही घटिया- या बढ़िया कहानियां लिखी है मैंने. दो कहानियां ताजा घटनाओं और जीवित चरित्र पर लिखने की कोशिश भी. उनमें से एक कहानी है यह, जो न तो जीवनी है, न आत्मकथा, न संस्मरण. कहानी समय के जिस कैनवास पर लिखी गई है , वह भरपूर मौजूद है- चूकि सामाजिक- राजनीतिक सक्रियता की प्रोटोगनिस्ट है इसलिए तत्समय  समय की राजनीति कहानी की धूरि में है. यथार्थ उतना ही है, जितना रमणिका जी की आत्मकथा से उल्लिखित है, लेकिन सबकुछ न उनकी आत्मकथा में दर्ज है और न उनके जीवन में घटित. इसकी नायिका वही हैं, इसकी नायिका उनसे निकल कर अलग आकार भी लेती है.
शेष उन महान कथाकारों से माफी चाहूंगा, जिनके सामर्थ्य के बाहर चली गई है यह कहानी. वैसे मैं खुद भी इसके कहानी होने के प्रति सशंकित हू़ 😄
पता नहीं यह कहानी अश्लील कहां हो गई. मुझे फिर तो हिन्दी साहित्य की कई कहानियों को ' कोक शास्त्र' की तरह छिपाना पड़ जायेगा. अपनी कुछ कहानियों को भी, जिन्हें पाठकों ने सराहा है और आलोचकों ने भी .

[26/02 06:22] Sandhya: विशुद्ध राजनीति बरास्ता मीनाक्षी उर्फ़ शीताक्षी ...स्त्री राजनीति के केंद्र में लिखी गयी कहानी सिर्फ देह तक सीमित लगी मीनाक्षी का दुःख या सुख केवल आंसूओं के माध्यम से दिखा उसकी मानसिक रूप से समृद्धि समक्ष है फिर भी उसका ऊहापोह या द्वंद्व नज़र ना आया जो इस कहानी को  और समृद्ध बनाता राजनीती में स्त्री की स्तिथि को दिखाती कहानी 💥

[26/02 07:28] shivani sharma Ajmer: नमस्कार 🙏🏼 अश्लीलता शब्द पर आपत्ति हुई है ,मैं क्षमा चाहते हुए शब्द वापस लेती हूं। वयस्क कहानी कह सकती हूं?
पिछली कुछ कहानियां जो कि audio form में भी थीं ,मेरा बेटा जोकि अभी कक्षा 8वीं में है,मेरे साथ सुनता पढ़ता रहा है। तब से हर कहानी उसे पढ़कर सुनाती आ रही हूं। उस दृष्टि से मुझे कहानी वयस्क लगी बस। 😊 😊
[26/02 08:57] Saksena Madhu: सुप्रभात ... शेखर जी कहानी खतरनाक नहीं स्तब्ध करने वाली है ।राजनीति के खेल का एक हिस्सा ।बात करना तो ज़रूरी है ।
[26/02 09:21] ‪+91 99313 45882‬: मुझे तो यह कहानी बेहद सहज, सरल और कहानीपन से भरपूर लगती है ! न तो यह अश्लील है , न स्तब्ध करनेवाली और न ही खतरनाक ! लेकिन जिन मित्रों को लगती है उन्हें अपना तर्क रखना चाहिए !
तर्क-वितर्क से ही साहित्य का विकास होता है !
[26/02 11:46] Sandhya: कहानी अच्छी लगी  नायिका की छोटी बहन कह  रही है लेकिन उसके मन की थाह का पता नहीं चल रहा ।
[26/02 12:07] Sandhya: साथ ही नायिका का चरित्र इस हिसाब से दृढ़ है कि ,कहीं कोई अपराध बोध नहीं है । इसे दृढ़ता कहने से कुवृति को बढ़ावा नहीं है परिदृश्य राजनीति का है ।
[26/02 12:07] Sandhya: कहानी पूरी तरह पितृसत्तात्मक विचार को पोषित करती लगी ।
[26/02 12:11] Pravesh: जी संध्या ,कहानी के आधारित बिंदु ही यही है ।राजनीती जेसे विस्तृत पटल पर  भी एक स्त्री मात्र स्त्री देह ही  समझी जाती है ।
धन्यवाद
[26/02 12:52] ‪+91 99313 45882‬: यौन-विमर्श क्या सिर्फ पितृसत्ता का विमर्श है , मातृसत्ता का नहीं ?
और यौन-चाहना क्या सिर्फ पुरुष-वर्ग की चाहना है , स्त्री-वर्ग की नहीं ?

यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर दिया जाना चाहिए !
आदरणीय संध्या जी🙏🙏
[26/02 12:57] Saksena Madhu: शेखर जी  आपने सही कहा .. पर राजनीति और साजिश की बिछात पर परस्पर सहमति नहीं ... तो उत्पीड़न ही है ।
[26/02 13:08] ‪+91 99313 45882‬: उत्पीड़न तो वहाँ होगा जहाँ नायिका के साथ जोर-जबरदस्ती होगी !
लेकिन जहाँ नायिका की भी सहमति होगी , चाहे जिस रूप में , उसे उत्पीड़न कैसे कहा जा सकता है ?
इस कथा की नायिका के साथ यही बात है🙏🙏🙏

[26/02 14:40] ‪+91 94257 11784‬: श्री संजीव चंदन जी की कहानी,  वह आखिरी चुम्बन मीनाक्षी/शीताक्षी के अनेक प्रेम बासना प्रसंगों का खूबसूरत चित्रांकन है ।पंरी कहानी में अश्लीलता  की हल्की हल्की गंध व्याप्त है ।यदि उसे अश्लीलता न भी मानें तो भी उसे, शिवानी शर्मा जी के शब्दों में वयस्क कहानी तो कहा ही जा सकता है। उसमें जब कोई किशोर मीनाक्षी के यौन प्रसंगों से गुजरता हुआ उसके युवा प्रेमी के शब्दों को पढेगा--तुम्हारे स्तन थोडे और बडे होने चाहिए थे,  तब पता नहीं वह  कैसा अनुभव करे !
 मीनाक्षी मुक्त मन महिला हैं।वह इन सारे प्रसंगों के प्रति संतोष ही व्यक्त करती प्रतीत होती है ।जैसे वह कहती है , आज अपने भाई के दोस्त,कामरेड,, पति , पाठक जी, युवा साथी-साथी-सबमे' थोडा थोडा हासिलकर अपने जीवन को एक पूर्ण पुरुष साथी के साथ समर्पित पाती हूँ । उसका यह कथन एक प्रकार से मुक्त रौन संबंधों का समर्थन ही है ।
  कहानी में मीनाक्षी की सहेली उनके प्रति प्रशंसा भाव से भरी हुई है ।वह उसकी मृत्यु के लिये महाप्रायाण शब्द का प्रयोग करती है और आशा करती है कि शंकराचार्य,कर्मकांडों के मकडजाल में फंसे पुरोहितनुमा....आस्तिक ढोंगी को छोडकर सभी ऐसा ही मानेंगे ।इतना ही नहीं मीनाक्षी के अंतिम संस्कार के समय नीगमबोध पर वह चहती है ...देवमूर्ति की तरह नहलाया उन्हें ।
 इस प्रकार यह कहानी स्त्री विमर्श और नेरी देह की स्वायत्तता को  लेचर लिखी जाजानेवाली एक महत्वपूर्ण कहानी है ।उसमें कथाकार श्री संजीव चंदन के खुले सोच और उनकी अद्भुत सृजन प्रतिभा के दर्शन होते हैं ।एतदर्थ उनका अभिनंदन ।भाई राजेश झरपुरेजी, मधुजी एवं प्रवेश जी को बहुत बहुत धन्यवाद ।

[26/02 18:19] Niranjan Shotriy sir: कहानी के रूप में यह एक अच्छा कोलाज है। एक महत्वपूर्ण सम्मिश्र जो हमारे समय, समाज, राजनीति की जटिलताओं, मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अंतर्द्वद्व को प्रभावी रूप से अभिव्यक्त करता है। लेखक की प्रतिभा असंदिग्ध है। उसने एक "प्रबुद्ध लेकिन तब भी केवल स्त्री" की अवधारणा को अद्भुत शैली में उठाया है। निश्चय ही जब मसला स्त्री देह का हो तो "तुम्हारे स्तन कुछ और बड़े..." जैसे वाक्य इस कहानी को एक कलात्मक क्लाइमेक्स तक ले जाते हैं। कई राजनीतिक घटनाओं का वर्णन तत्कालीन विसंगतियों को उजागर करने के लिए किया गया है। इसे पढ़ने के लिए कायांतरण के साथ समयान्तरण के बोध को भी जागृत करना होगा। दरअसल इस तरह की कहानियाँ हमारी रूढ़ और अभ्यस्त पाठकीय अभिरुचि के लिए भी चुनौती होती हैं। बहुत शानदार कहानी। बधाई संजीव जी। बधाई प्रवेश जी।

[26/02 18:41] ‪+91 94310 49640‬: श्री संजीव चंदन जी की कहानी आज पढ़ी मैंने। पहली बार में कुछ समझ नहीं आया। अपनी समझदानी पे तरस आया। दूसरी बार थोडा concentrate कर के पढ़ा। कुछ हिस्सा ही घुस पाया दिमाग में।हार कर तीसरी बार पढने की कोशिश की। पर इस बार भी वही हश्र। ये ऎसी कहानी है जिस में जैसे जैसे आगे पढ़ता गया पीछे का कुछ भी साथ नहीं चल पाया। जिस कहानी में तथ्य खुद ब खुद लिपटते हुए आगे आठ नहीं चलते वो धीरे धीरे उबाऊ होती जाती है। कुछ ऐसा ही इस कहानी के साथ है। आगे पढ़ते जाने की उत्सुकता कहीं भी उत्पन्न होती नहीं दिखी। जितना पढ़ा और समझा उस से इस निष्कर्ष पे पहुंचा कि अगर कहानियों को किसी सेंसरशिप से गुजरना पड़ता तो नि:संदेह इसे "A" सर्टिफिकेट से नवाजा जाता।न जाने किन तथ्यों पर इसे कहानी, अच्छी कहानी या बेहतरीन कहानी कहा जा रहा है। जिस कहानी में आगे पढ़ते जाने का कौतुहल न हो और अंत में जिस से कोई सन्देश न निकले तो वो और कुछ हो सकती है कहानी नहीं हो सकती। एडमिन त्रोय से विनम्र निवेदन है कि सोम से शुक्र के बीच कोई एक दिन निश्चित कर लें जिस दिन इस तरह की वयस्क कहानी या classic porn story की प्रस्तुति होने की पूर्व सूचना सब को हो और किसी का बेवजह वक्त न बर्बाद हो।

[26/02 18:49] Saksena Madhu: राज  रंजन .. राजनीति का काला पक्ष उजागर करती कहानी है हे ये .... यहां पर सब वयस्क हैं ।कुछ बातें पात्र के चरित्र को उकेरने के लिए उसके मुंह से कहलवाई  जाती है । मुझे भी लगा की कहानी कहीं कही टूटती है ।अचानक विषय परिवर्तन पाठक की एकाग्रता में विध्न डालता है फिर भी कहानी अपनी छाप छोड़ती है और यूं लगता है कहानी सच्ची है । आप  कहानी पर अपनी राय बेहिचक दें । आभार भाई
[26/02 19:35] Sandhya: केवल उम्र में पुरुष का छोटा होना और फिर दोनों की सहमति होने से सम्बन्ध बनाने पर इसे बलात्कार की श्रेणी में किस तरह रख सकते हैं राजेश जी ?नायिका कोइ बलप्रयोग नहीं कर रही है 💥

[26/02 19:52] Niranjan Shotriy sir: राज रंजन जी, जैसा कि मैंने अभी कहा यह हमारी अभ्यस्त पाठकीय रूचि को चुनौती देती कहानी है, तो हमें बार-बार,कई बार, भिन्न कोणों से, भिन्न दृष्टियों से किसी रचना के पास जाना होता है। यदि कोई व्यक्ति/पाठक वहाँ तक नहीं पहुँच पा रहा है तो यह पाठक की समस्या है, लेखक की नहीं। हर बार सम्प्रेषणीयता के नाम पर आपको गुलाब जामुन नहीं परोसे जायेंगे कि आप मुंह खोलें और निगल लें। एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व पाठक पर भी होता है। यहाँ हम जिसे "पाठक" कह कर संबोधित कर रहे हैं वह दरअसल "सहृदय पाठक" जिसके गुण-धर्मों की विवेचना यहाँ ज़रूरी नहीं क्योंकि सभी सहृदय और प्रबुद्ध हैं।

[26/02 20:01] Sandhya: शेखर जी पितृ सत्ता केवल इस दृष्टि से कहा कि ,वहां भी स्त्री द्वित्तीयक स्थान ही पा रही है ,यौन चाहना तो दोनों वर्ग की चाहना है  बेशक 💥

[26/02 20:35] Sanjiv Chandan: सच में व्यस्त हूं, मैगजीन प्रेस जा रही है और ऊपर से संसद में महिषासुर की बहस ,  दरअसल मैं जिस पत्रिका से जुड़ा हूं, उसी पत्रिका ने महिषासुर विमर्श को सेंटर में लाया था, इसलिए कुछ लोगों और प्रेस को रिसोर्स उपलब्ध करवाने में हम भी सक्रिय हैं . २०१४ में पत्रिका पर मुकदमा भी हुआ था, जिसमें मेरे एक लेख का भी हवाला है, इसलिए भी...
खैर , यहां टिप्पणियां देखकर मैं बस इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि घटित और ज्ञात यथार्थ पर मैंने विधा के तौर पर कहानी ही चुनी थी, रिपोर्ताज, संस्मरण या लेख नहीं. सुधी पाठक फतवा देने की जगह कहानी के कुछ तत्व बता जाते , जो छूटे यहां . मेरा दावा महानतम कहानी का भी नहीं है, लेकिन यह जोखिम लिया है मैंने, एक और कहानी में भी लिया है, ज्ञात घटनायें, भंवरी देवी, मथुरा,  हरियाणा की भंवरी , खैरलांजी , जिसकी हर घटना रिपोर्ट के रूप में सामने है , सबको पता है, फिर  भी कहानी ... इस कहानी के प्रेम और कई घटनायें रमणिका जी के हादसे में व्यक्त हैं. हमारे समय की लिजेंड स्त्री का व्यक्त यथार्थ, लेकिन इन वर्षों में इस तरह सक्रिय स्त्री के और भी यथार्थ है, जिसे कहानी समझती- समझाती है, शेष , बलात्कार , न बलात्कार , सहमति , उत्पीड़न पर मैं कुछ नहीं कहूंगा , क्योंकि जो कहना था , कहानी में है ..... अच्छा लगा कि निरंजन श्रोत्रिय जी और अन्य लोगों को कहानी अच्छी लगी. पहली बार यहीं मुझे कहानी में अपाठकीयता की आलोचना झेलनी पड़ी है, अन्यथा समालोचन में और युद्धरत आम आदमी में प्रकाशन के बाद पाठकों को इसका कैनवास और घटते यथार्थ के प्रति उत्सुकता ही इसकी विशेष ता लगी थी.
यह भी कम हास्यास्पद नहीं है रि कहानीकार को पाठकों के न्यायालय में कहानी का वकील बनकर उपस्थित होना पड़ रहा है . इसलिए माननीय न्यायाधीशों से मैं अपनी कहानी वापस लेने की गुजारिश करता हूं . 😜

[26/02 20:49] Rajnarayan Bohare: संजीव जी सही कहा प्रवेश ने।
यार आप तो अपनी कहानी के खुद ही बाकायदा बिलकुल वकील बन गए।
सब सुनो।मज़ा लो।रैफरी बन के देखिये।
एक नया प्रयोग किया आपने। सचाई के ढांचे पर कल्पना की पर्त चढ़ाई है।दरअसल उपन्यास या लम्बी कहानी का कथ्य है ये तो संक्षिप्त करने में यह सब होगा ही।

[26/02 22:28] Rajesh Jharpare: विलम्ब से चर्चा में शामिल होने के लिए  खेद है मित्रो ।  संजीव चंदन की कहानी लम्बी होने के कारण कल विमर्श में सभी भाग नहीं ले सके थे । आज सभी ने अपनी बेबाक राय दी ।
 भाई राज रंजन जी मंच पर पाठकों की सहमति के साथ उनकी असहमति भी उतना ही महत्वपूर्ण रखती है जितना सहमति । मंच पर आपकी प्रतिक्रियायों का तो सदैव इंतजार रहता है ।


राजनैतिक परिपेक्ष में एक स्त्री के अन्तर्व्दन्व्द को जिस तरह कहानी में दिखाया गया है वास्तव  उसे महसूस करने के लिए कायांतरण के साथ समयान्तरण की समझ को विकसित किया जाना जरूरी है ।

रचना  ग्रोवरजी  वास्तव यह अद्भुत कथा है यह  मैंने अपनी पाठकीय समझ के अनुसार अपनी राय बनाई हैं। आप अपने पाठ और मंच पर विमर्श के अनुसार अपनी राय बना सकती है ।

भाई शेखर सामंतजी विमर्श के दौरान आपने एक अच्छा मुद्दा उठाया.....

" उत्पीड़न तो वहाँ होगा जहाँ नायिका के साथ जोर-जबरदस्ती होगी !
लेकिन जहाँ नायिका की भी सहमति होगी , चाहे जिस रूप में , उसे उत्पीड़न कैसे कहा जा सकता है ?" इस रूप में आगे मंच पर सदस्यों की सहमति से विमर्श रखा जा सकता है ।

उम्र में पुरूष  छोटा होने और स्त्री -पुरुष के बीच सहमति होने पर इसे बलात्कार की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है । संध्याजी ने एक सामान्य सा पर पेचीदा सवाल उठाया है। जिसका उत्तर वह मेरी टिप्पणी के प्रतिउत्तर में चाहती है । संध्या जी आपसे सहमत तो हुआ जा सकता है पर इस तरह के सम्बन्धों में भयादोहन, प्रतिष्ठा, राजनीति में सम्बन्ध को सीढ़ी बनाकर प्रयोग करना बल और कुकर्म की श्रेणी में आ सकते है। इसी तरह की समझ के साथ सारी अवदशाओ को मिलाकर हठात्कार की श्रेणी में रख दिया था । आप इसे कोई दूसरा अच्छा नाम दे सकती है ।

संजीव जी आपको अपनी कहानी पाठक मंच  से वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता । अब यह कहानी आपकी कहां रही । यह ढेरों पाठक की पसंद-ना पसंद बन चुकी है ।

आज विमर्श में अपनी सक्रिय उपस्थित दर्ज कराने के लिए प्रवेशजी, निरंजनजी.राज नारायण बोहरेजी,विनयजी राज रंजनजी संध्याजी और अन्य सभी मित्रो का शुक्रिया।

इस बीच मंच पर आकाशवाणी से भी समाचार आये । पद्माजी को बधाई ।

कहानी पर पर्याप्त से अधिक चर्चा हुई ।
सभी का शुक्रिया ।



Tuesday, February 23, 2016




◻  उसे दूसरी दुनिया में भेज दिया गया है..।
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 📝 संध्या कुलकर्णी
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पी टी करते हुये तन्मय को अक्सर अपने सर में कुछ बहता हुआ महसूस  होता  है ।पी टी मिस अमिता जब वन टू  थ्री फोर बोलतीं तो उसे लगता ,जैसे सर से कुछ आवाज़ें आ रही हैं ।इसे वो धूप में बहुत देर से खडा होने के कारण होना ही समझता है ।फोर बोलने से पहले ही विश्राम की मुद्रा में आ जाता है ।हमेशा की तरह अमिता मिस चिलला पड़ती है  ..."मेहरबानी करके अपनी-अपनी पोजीशन ठीक रखिये आप लोग "बाज़ू की लाइन में खड़ा मनुहार बड़ बड़ा उठता है "इन पर कोइ पनिशमेंट नहीं है हिंदी बोलने पर ....अगर हमारे मुँह से निकल जाए तो जान ही ले लेते हैं ...हुंह !!"
जानता है तन्मय ,आज मनुहार को हिंदी में बात करने पर पनिशमेंट मिली है गले में एक मोटे गत्ते पर लिख कर टांग दिया है "आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी"।
तन्मय को लगता है ये सज़ा भी ज़्यादा बड़ी नहीं है, वरना लिजी मिस तो फाइव हंड्रेड टाइम्स यही वाक्य लिखने की सजा देती हैं,रो दिया था विजय ये कहते हुए .......।
 पी टी हो चुकी है ,सब लाइन से क्लास में जा रहे हैं ,पीछे से राहुल बार-बार टिहुंका मारता है ,वो चिढ जाता है "अबे चुप कर यार "।लिजी मिस दो कदम पीछे चल रही थीं  ,कह उठीं "अगेन हिंदी ...!! तन्मय ...!!" ओह सजा सुना ही दी लिज़ी मिस ने !! अब फाइव हंड्रेड टाइम्स लिखना होगा तन्मय को भी "आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी "उसे मतली सी हो आती है वो मुश्किल से नियंत्रित करता है ।उसे अमिता मिस की बड़ी होती हुई आँखें याद आ जाती हैं ,वो डर सा जाता है ।सायास आँखें खोल देखता है ,वो क्लास में है दूर -दूर तक अमीता मिस नहीं है ये सिर्फ डर है उसका .....।   "अरे , ये क्या लिख रहे हो ?होम वर्क ? ये कैसा होम वर्क है तनु ? " "माँ ,मैंने हिंदी में बात की थी न क्लास में तो उसका पनिशमेंट है "लाइनें गिन ली थीं उसने एक पेज पर दस लाइन्स है,पचास पेज लिखना होंगे उसे तब हो पाएंगे पांच सौ ।"बाप रे ...!!पांच सौ टाइम्स ...ये तुम्हारा स्कूल है या पागलखाना ?बात करना होगी तुम्हारी टीचर से "।"ना माँ कुछ बात नहीं करना वरना  स्कूल में सब मुंझसे नाराज़ हो जायेंगे ,प्लीज़ ...
 माँ चुप हो जाती हैं "तुम जानो ,पर बात तो करना ही होगी ये क्या बात हुई भला ...?अपनी भाषा में बोलने में भला क्या पनिशमेंट ?
  माँ को बताया नही है उसने ,माँ नाराज़ होती हैं न स्कूल में आये दिन ऐसी सज़ाएं मिलती रहती हैं ,कल संदीप दो अलग रंगों की जुराबें पहन आया था गलती से तो उसे जुराबें उतरवा कर नंगे पाँव धूप में खड़ा किया था दो घंटे तक ,तभी से ध्यान से जुराबें पहनता है तन्मय ।
तन्मय बैटिंग कर रहा है ....सर में एक बहाव सा महसूस करता है वो ,पर फिर भी बॉल को घुमा कर मार देता है ....सामने से आते सौरभ ने उचक कर कैच कर लिया है । सौरभ बाज़ू वाले अपार्टमेंट में रहता है कॉलेज में पढता है ।"अरे ,आपने क्यों कैच लिया "?झुंझला जाता है तन्मय ।"हटो तुम लोग अब हम खेलेंगे यहाँ
"बस छ सात बॉल हैं उसके बाद तुम लोग खेल लेना"
"अच्छा ,दादागिरी करेगा तू ?हटता है कि,नहीं "?
"नहीं हटूंगा ,क्या कर लोगे?
"अच्छा!!देखते हैं बेटा तुझे बहुत गर्मी चढी है ?"
 कहता हुआ सौरभ बाहर चला जाता है।
 बैट तन्मय के हाथ में है विकेट्स मोनू ने उठा रखी हैं वो लोग ग्राउंड से बाहर जा रहे थे ,सौरभ के हाथ में हॉकी स्टिक है ,और वो अपने चार पांच दोस्तों के साथ सामने खड़ा है ...तन्मय सुन्न हो चला है ,सर पर ,पीठ पर ,हाथों में जांघ पर चोट महसूस करता है लेकिन कुछ भी विरोध नही कर पा रहा है सारे दोस्त उसे पिटता देख रहे हैं .....कोइ कुछ नही बोल रहा है ....वो चिल्ला रहा है...अकेला हो गया है ...सौरभ की आँखे जैसे उबल कर बाहर आती लग रही हैं। सर में कुछ बहाव सा महसूस करता है तन्मय...टी वी स्क्रीन पर निगाहें जमी हैं  उसकी रितिक का गीत बज रहा है..... इक पल का जीना ,फिर तो है जाना ,कुछ पल को खो जाता है तन्मय ....
    "अरे ...तनु....सुन नही रहा ...ले दूध लेजा ..बस कर टी वी देखना ...आज होमवर्क नही करना है क्या ?"
सामने टी वी है माँ की आवाज़ है और वो घर में है ।कराह उठता है तन्मय सर पर माथे पर पीठ पर पैरों पर चोटें हैं उठ नहीं पा रहा है वो , "अरे ये सर पर कैसी चोट है ?तुझे तो चोटें आई हैं....क्या हुआ है लड़ कर आया है क्या ?"
"नहीं माँ ,गिर गया था पतथरो पर ,तो चोट आई है ""सच कह रहां है न ?किसी से मार तो नहीं खाई न"?
"ना माँ झूठ क्यों बोलूँगा भला "झूठ बोल गया था तन्मय ।सौरभ की धमकाती आँखे फिर एक बार कौंध गयी थी उसके आगे "खबरदार ...!अगर किसी से मार के बारे में कहा तो ....।नहीं जानता था तब ये चुप्पी का ज़हर उसके हार्मोन्स का संतुलन बिगाड़ देगा ।
 दबाव ....दबाव.....दबाव....बीस दिन से कमरे में कैद है तन्मय  बस बाथरूम जाता है , कुछ खा लेता है और फिर कमरे में , किताब हाथ में है , नोटबुक सामने है ,पिछले दो महीनों से नींद भी नही आ रही है एक बेचैनी ने उसे जकड रखा है ...उसके आत्मबल को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है ।एक डर ने घेर रखा है उसे सोते जागते सौरभ का चेहरा उसे चौका जाता है ।उसे लगता है वो कभी आवाज़ नही लगा पायेगा ...किसी के लिए भी नहीं ...अपने लिए भी नहीं ......बंद कमरे की दीवारें उसे अपनी और खींचती सी लगती हैं ....वह चीखने की कोशिश करता है ,सब सो रहे हैं रात के तीन बजे हैं ....घिघ्घी बन्ध  जाती है उसकी ...पा की चिल्लाहट उसके कानो ने जैसे बजती सी है "इस बार अगर अच्छे नंबर नहीं लाया तो पी सी ऍम नहीं मिलेगा तुझे ज़िन्दगी बर्बाद हो जायेगी तेरी"
"ज़िंदगी..."?उसे रंग अच्छे लगते हैं ,उनसे खेलना भी अच्छा लगता है .....ख़ास तौर से पेड़ों पर चमकता हरा रंग ...संगीत जो निकलता है गिटार से ...जब वो बजाता है "राग काफी"तब खुद भी मगन हो जाता है भूल जाना चाहता है सारी दुनिया ....उसे खेल अच्छे लगते हैं ...क्रिकेट उसका प्रिय खेल है ....उसे फिर घबराहट हो जाती है ...नहीं नहीं ...क्रिकेट के बैट से तो ख़ौफ़ खाने लगा है वो ....क्रिकेट का बैट देखकर तो उसे जैसे  करंट लगने लगा है उसे ......उसका बस चले तो क्रिकेट बैट को अपार्टमेंट के कोने में बने कचरे के डब्बे में डाल आये वो .....मन करता है पा से पूछे ....".ज़िंदगी के क्या मानी है पा "?सर पर उठा शक्ति की ताकत बताता गूमड़ ...पैरों पर उग आये सिक्के से निशाँ ....सौरभ की डरावनी आँखे...लीज़ा मिस का पनिशमेंट ..या पी सी ऍम ...?क्या है पा "?या ये रुपहले से रंग ...या ये राग काफी .....या ये समय कुसमय सर पर बहता हुआ बहाव .....?
    अभिज्ञान के साथ कोचिंग जाता है तन्मय ..सुमित और उसके पांच छ: दोस्त झुण्ड बनाये  चाय की दुकान पर खड़े हैं ..एक डर उसके ऊपर तारी हो जाता है ..कदम वापस घर की और उठ जाना चाहते  हैं ..जेसे सौरभ और उसके दोस्तों का झुण्ड खड़ा हो ...उफ़ !!ये उसका पीछा क्यों नही छोड़ते  ?तन्मय कोचिंग जाना छोड़ देता है ..स्कूल भी जाना छोड़ देता है....उसका कमरा किताबें और नोटबुक...किसी से बात का मन नहीं रहता उसका..कहीं नहीं जाना चाहता ...भरी दुपहरिया में रज़ाई ओढे पड़ा रहता है वो....आवाज़ें आवाज़ें ...चारों और से उसे परेशान करती हैं.."पढ़ाई कर ""अच्छे नंबर लाना है न "",अरे सोता ही रहेगा क्या ""और सबको काटती एक आवाज़ "खबरदार !!जो किसी को बताया ......"।
     डर उसे घेरे रहता है ...दबाव ....दबाव ....दबाव कोचिंग नहीं जाना चाहता वो अभिज्ञान ने चलते हुए कुछ  मज़ाक किया है।अवश हो गया है तन्मय....उसे ज़ोर का थप्पड़  मार देता है ...उसे कुछ नही पता वो ऐसा नही करना चाहता था ....
कोचिंग क्लास में कुर्सी उठा कर फेक देता है ...अयूब सर नाराज़ हो जाते हैं"अरे कोइ इसके पेरेंट्स को बुलाओ पगला रिया है लड़का.....तन्मय होश खो चुका है ।
     
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अस्पताल का कमरा है माँ सिरहाने बैठी हैं
"कैसा लग रहा ही तनु "?
"ठीक हूँ माँ"
"अब कुछ टेंशन न ले पढ़ाई का समझा न"?
एग्जाम नही दे पाया है वो ....डर ने उसका आत्मबल छीन लिया है ।चार साल एग्जाम नही दे पाता है वो मुश्किल से घर पर रहकर ही हायर सेकंडरी पास कर पाया है उसके सपनों को नज़र लग गयी है ..बी कॉम किया है उसने ...अवसाद में सब रंग फीके लगते हैं उसे रंग जिनमे ज़िंदगी थी, रंग जो उसे पसंद थे  उसके भीतर उत्साह भरते थे अब दीवारें ही बातें करती है और ....एक डर की स्थाई ज़द के भीतर कैद हो जाता है वो ....रात को आसमान में तारों से बातें करता है वो सप्तऋषि कथाएं सुनाने लगते हैं उसे ,ठीक जैसे माँ सुनाया करती थीं बचपन में ...ऑफिस जाती हुई माँ का आँचल पकड़ कर अक्सर रोका  है उसने ..माँ नही रुक पाती थी , बस कारण कुछ अलग थे घर चलाना है दोनों पा और माँ मिलकर काम ना करें तो कैसे चलेगा ...वह कहना चाहता है माँ से बहुत डर लगता है माँ मत जाओ मुझे कुछ नहीं चाहिए ....लेकिन कुछ भी नहीं रुक पाता माँ के कहने में अब दवाओं का खर्च भी जुड़ गए हैं ...अपने दादू के दादी के ...खुद उनके और मेरे भी ...एक ब्लैक होल है जहां की और सारे रास्ते जाते हुए लगते हैं उसे आजकल...।सपनो की दुनिया में वो एक ऊंचाई पर खड़ा है ...सपने देखने होते हैं तभी तो उन्हें प्राप्त किया जा सकता है...लेकिन जैसे एक बड़ी सी खाई है जो पार नही हो पा रही है उससे ...कदम बढानेे की ताकत ही खो चुका है वो अब आवाज़ें हैं पर उनमे नई नई आवाज़ें शामिल हो गईं हैं...बाहर से गुज़रती ट्रक की आवाज़ें ,मोटर सायकल की आवाज़ें कोई फेरी वाला जेसे जान बूझ कर उसे ही परेशान करने को चिल्ला रहा हो ...दवाईया... दवाईयां ...वो नहीं लेना चाहता ,जागे रहना  चाहता है हमेशा ,जीवन सिमट गया है उसका ...सौरभ की आँखें जैसे हर और उग आईं हैं हज़ार हज़ार आँखों  में तब्दील हो गईं हैं... छुप जाना चाहता है वो ...दूर कहीं चले जाना चाहता है ..घर की दीवारें काट खाने दौड़ती हैं उसे...लिफ्ट में रहता है वो वहाँ उसे सुरक्षित लगता है ऊपर जाना नीचे आना ...वही उसके अस्तित्व  की पहचान बन गयी है ।
 अपार्टमेंट के लोग आदी हो गए हैं उसकी वहां खामोश उपस्थिति के,कोइ सर थपथपा देता है ,कोइ हैलो कहता है वो भी मुस्कुरा देता है ।वीणा ऑन्टी को देखकर घबरा जाता है वो ,अक्सर वो उसे लिफ्ट से बाहर निकालने की कवायद कर चुकी हैं ...उन्हें भी डर लगता है ....शायद मुझसे ,एक डरे हुए व्यक्ति से डर ....?वो हंस पड़ता है ,धीरे-धीरे वीणा ऑन्टी की आँखें लिज़ी मिस की आँखों में बदल जाती हैं...अब वो उस समय अक्सर लिफ्ट में नहीं रहना चाहता ।कॉलेज जाने वाले लड़कों का झुण्ड लिफ्ट में चढ़ता है ,उतरता है ,वो घुटनों में सर दे देता है पसीना पसीना हो जाता है...सौरभ की उबलती आँखें उसकी गर्दन में उतर जाती हैं ।

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अकेलेपन  में ही अच्छा लगता है उसे ...पेड़ पर टँगी फुनागियां उचक कर छु लेना चाहता है तन्मय अपनी इच्छाओ की बनाना चाहता है पतंग ...पतंग जो कहीं खो गयी है ,उसे ढूंढ कर लाना चाहता है वो ...ट्रेन की खिड़की में बैठ यात्रा पर जाना चाहता है ठीक ....
बाईस साल पहले जब आया था इस दुनियां में उस लम्हे में रुक जाना चाहता है ....वो जो उस एक लम्हे में आज तक अपनी ज़िन्दगी का सिरा ...जो ख़्वाबों के जंगल में कहीं उलझ कर छूट गया है, उसे दौड़ कर पकड़ लेना चाहता है तन्मय....रंगों की बौछार में बदल लेना चाहता है अपना चेहरा ...चेहरा जिसमे डर एक स्थाई भाव बन कर रुक गया है..बदल लेना चाहता है।
 "दादी मुझे आज नहीं जाना कोचिंग "
 "दादी ,एक कप दही दो न खाने को ,अच्छा रहने दो "
 "माँ,मत जाओ ना ऑफिस"
 "खबरदार ...!!जो किसी से कहा तो ..."
"पा,नाराज़ मत हो ,अच्छे नंबर लाऊंगा इस बार"
 "माँ,मेरी दवाईयां ख़त्म हो जाएंगी न ?
 "ऐ ,आवले के पेड़ मुझे मेरी शक्तियां लौटा दो न "
"माँ ,मैं सक्सेसफुल हो जाऊंगा न ?"
,तनु,तन्मय....तैनु......ssss ओ ..तन्मय.....
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 ⭐संध्या कुलकर्णी
 A 76 रजत विहार कॉलोनी
 होशंगाबाद रोड
भोपाल (म  प्र  )
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प्रतिक्रियाएं
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[19/02 09:17] Padma Ji: संध्या कुलकर्णी को अच्छी सामयिक के लिए बधाई। वर्तमान में बच्चों पर पढाई का बोझ तो है ही पर इंग्लिश मीडियम स्कूल में इंग्लिश में बात करने का अतिरिक्त बोझ भी है। अनुशासन के नाम पर बच्चों के मन में भय व्याप्त जाता है फिर वे अपने अध्ययन पर पूरा ध्यान नही दे पाते। बच्चे की मनः स्थिति का चित्रण और स्वप्न के समय के प्रतीक कहानी को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं। एडमिन त्रयी को बधाई
[19/02 11:54] ‪+91 94257 11784‬: आदरणीया संध्या कुलकर्णी की कहानी , उसे दूसरी दुनिया में भेज दिया गया है , कथ्य एवं शिल्प दोनों ही द्रष्टियो' से अत्यन्त उत्कृष्ट कहानी है ।हमारे समय की बेहद जरूरी कहानी भी ।
   आज अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल हमारे बच्चों की रचनात्मक ऊर्जा पर तो  वज्राघात  कर ही रहे हैं,  वे हमारी भाषा और संस्कृति के संहार में भी संलग्न हैं । कैसा दुर्भाग्य है कि  इन स्कूलो मेकोमल मन तन्मय जैसे सहस्रों बलक बालिकाओं के लिए विद्यालय परिसर में मातृभाषा का प्रयोग पूर्णतः निषिद्ध रहता है और इस निषेधाज्ञा के तनिक उल्लंघन के परिणामस्वरूप उन्हें घनघोर उत्पीडन से गुजरना पडता है ।
     संध्या जी की यह कहानी वस्तुतः बालक के स्वाभाविक एवं मुक्त विकास में अवरोधक अनेक तत्वों की ओर बडी मार्मिकता से इंगित करती है । कहानी का तन्मय का बडे लडकों के आतंक के साये में रहना दूभर रहता  ।उसके माता पिता भी उसका कैरियर बनाने की धुन में उस पर अनेक आदेश,निर्देश,  चेतावनियां थोपकर उसका तनाव बढाते रहते हैं ।और इस तरह बेचारा बालक लगभग अर्द्ध विक्षेप की स्थिति में पहुंचने लग जाता है ।
  यह बडी भयंकर स्थिति है ।इससे  अपने देश और समाज को उबारना हमारी उच्च प्राथमिकता होना चाहिए । आदरणीया संध्या कुलकर्णी जी  की  कहानी हमारी इस बडी आवश्यकता को बहुत गहरे से रेखांकित करती है।
       अंत में इस अद्भुत और आवश्यक कथा के लिए कथाकार को बहुत बहुत बधाई  , अभिनंदन ।मंच के सुधी नियामकों, श्री राजेश झरपुरे जी , मधु जी , प्रवेश जी के प्रति हार्दिक आभार  ।
[19/02 12:36] Archana Mishra: बालमन पर लगी चोट ,किसी बात का  भय कब  धीरे-धीरे अंदर उथलपुथल कर मनोरोग से बच्चे को ग्रसित कर देता है और जब तक हमें पता चलता है तब तक  बहुत देर हो चुकी होती है।
बाल मन  के मनोविज्ञान पर आधारित, मन को विचलित करती कहानी।
बहुत बधाई संध्या।
[19/02 12:45] Niranjan Shotriy sir: संध्या जी की बहुत अच्छी कहानी।मासूम मन और बाहरी कर्कशता के द्वंद्व की कहानी। इस कहानी का शिल्प अद्भुत है गोया कोई फ़िल्म चल रही हो। Fractured narration के जरिये कहानी गहरे तक उद्वेलित करती है। कॉन्वेंटी संस्कृति पर भी सटीक वार। बधाई संध्या कुलकर्णी,बधाई मंच।
[19/02 13:28] Kavita Varma: युवा पीढ़ी कितने दबाव में जीती है ये आजकल कोई नही समझता । यही कहा जाता है हमारे समय मे    इन्हे तो सब सुलभ है   पर उसकी कीमत   ऐसी कहानियॉ लिखी जाना चाहिये जो मार्गदर्शक बनें । बधाई संध्या जी।
[19/02 13:37] Saksena Madhu: हाँ कविता .....मानसिक दबाव का क्रमबद्ध चित्रण किया लेखिका ने ..लिखी जानी चाहिए ऐसी कहानिया । आभार ।
[19/02 15:14] ‪+91 98260 44741‬: समसामयिक विषय पर लिखी गयी एक सशक्त कहानी। किशोर मन कितने तरह के डर और तनाव में रहता है और इन सबका उनके जीवन पर क्या प्रभाव हो सकता है इसका चित्रण बहुत ही सटीक और भावुकतापूर्ण किया है। स्कूल से लेकर घर, कोचिंग, खेल के मैदान तक रोज़ कितनी जगह कितने तरह के डर और तनाव हो सकते है यह बखूबी बताया है। ऐसी कहानिया किशोरों की मनोव्यथा को समझने में सहायक होती हैं। लेखिका संध्या जी को इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद एक जरुरी विषय पर उन्होंने संवेदनशील तरीके से ध्यान आकर्षित करवाया है। 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼😊😊
[19/02 16:08] Pravesh: "तारे जमीन पे " पिच्चर याद आई आज इस कहानी को पढ़ते हुए ।किशोर से युवा होता मन भी इस तरह की दहशत से मुक्त नही हो पाता,जो अनायास ही उसके बाल मन को भयभीत कर चुकी होती है  ।  इस तरह के बच्चे विशेष योग्यता रखते है ,लेकिन वह योग्यता भय की बलि चढ़ जाती है ।बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन कहानी लगी यह ।

शुभकामनाएं संध्या
🙏💐🙏
[19/02 17:31] Rachana Groaver: बहुत ध्यान से कहानी पढ़ी
1.ये कहानी उच्चमध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है।
2.इस कहानी का मुख्य पात्र कान्वेंट स्कूल में पढता है।
3.जहाँ टीचर सीनियर सब्जेक्ट सबसेे भय हैं।
क्यों?
समस्या भाषा
हमारा इकलौता देश है जिसकी अपनी भाषा होते हुए भी वह दूसरी भाषा पर निर्भर करता आया है। कारण विवास्पद हैऔर लगातार वाद विवाद के पश्चात भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे।
subject PCM?????
क्योंकि हर माँ बाप को बीटा इंजीनियर चाहिए जो करोडो काम सके
और ये माँ बाप कौन हैं???
आप और हम
कसम खा कर बताइए कि आप में से कितनों ने अपने बच्चों को कान्वेंट में नहीं पढ़ाया है???
[19/02 19:32] shivani sharma Ajmer: कहानी भी पढ़ी और आप सब विद्वजन के विचार भी।
शिक्षण कार्य से जुड़े रहने के कारण मैने इसे और भी नज़दीक से देखा है।
अभिभावकों की अतिमहत्वाकांक्षा का फायदा स्कूल वाले उठाते हैं और उसकी कीमत न सिर्फ अभिभावक स्वयं बल्कि बच्चे भी चुकाते हैं । कभी मशीन बनकर कभी अर्द्ध विक्षिप्त बनकर तो कभी जान देकर...
[19/02 20:06] Amitabh Mishra मंच: दबाब बच्चों को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता हैं ये कहानी उसका सठिक वर्णन करती हैं l समाज का मानवीय चेहरा कहीं खो सा गया हैं l स्कूल,घर का मानसिक दबाब और खेल के मैदान की पिटाई उसे मानसिक रुप से तोड़ देती हैं और एक सुखद संभावना का त्रासद अंत होता हैं l इसके जिम्मेदार हमारा समाज हैं l स्कूल से लेकर घर तक माहौल बदलना होगा l जिससे बच्चे असमय मुरझाने ना पायें l याद रखना होगा  आज के बच्चे ही कल के भविष्य हैं l                                      अमिताभ मिश्र
[19/02 21:46] Rajnarayan Bohare: हाँ बहुतेरे पक्ष है इसमें। बस्स ठीक से संवर जाये  तो यादगार कहानी होगी।
[19/02 21:51] shivani sharma Ajmer: सभी पक्ष आपस में मकड़जाल की तरह उलझे हुए हैं । सभी पक्षों को मिलकर ही हल निकालना होता है। शुरुआत अपने आप से, अपने घर से और अपने संस्थान से ही होती है
[19/02 22:20] Sandhya: रचना जी  ,राजनारायण जी प्रज्ञा रोहिणी जी ,पद्मा ,संतोष जी ,जगदीश तोमर जी ,अर्चना ,निरंजन जी ,कविता जी ,विनीता ,भूपेंद्र कौर जी ,शिवानी जी ,अमिताभ जी सभी का बहुत शुक्रिया सकारात्मक टिप्पणियों सेबहुत अच्छा लगा कुछ सलाह भीमिली जिसे मैंने ह्रदय से ग्राह्य किया ।बहुत जल्दी में लिखी गयी कहानी है ।और प्रवाह में ज़रूर ही कुछ कमियांभी रह गयी है जिसे निश्चित रूप से दूर करने की कोशिश करूंगी ।
सभी को एक बार फिर शुक्रिया
विशेष रूप से प्रवेश और मधु का शुक्रिया जिन्होंने कहानी पर सतत अपने विचार रखे ।
राजेश जी और मंच दोनों का शुक्रिया 🙏💥
[19/02 22:22] Rajesh Jharpare: आज आप सभी ने मंच पर संध्या कुलकर्णी जी की कहानी '   उसे दूसरी दुनिया में भेज दिया गया है...'  पढ़ा और  अपनी महत्वपूर्ण  प्रतिक्रिया से अवगत कराया । एक सामयिक विषय पर उनकी कहानी  को बेहतर प्रयास के रूप में देखा जा सकता है । इन दिनों हमारे समाज और परिवार में सबसे अधिक तनाव ग्रस्त अध्ययनरत युवा पीड़ी ही है । यह तनाव कौन केन्द्रित कर रहा जैसी समस्या से रूबरू कराती कहानी के लिए सुधा जी को बधाई और सभी मित्रों का शुक्रिया ।

शनिवार और रविवार को सम्पूर्ण अवकाश के पश्चात सोमवार को अपने सदस्य  मित्रो की कहानी के साथ हभ फिर मंच पर होंगे।

शुभरात्रि मित्रो
[20/02 09:31] Braj Ji: कहानी पढ़ी..उम्दा लगी.कहानी लिखना और उसे मनोविष्लेषण के साथ निबाहना..
[20/02 15:19] ‪+91 95337 18860‬: संध्या जी की कहानी आज पढ़ी , एक दम आज के स्कूलों और जीवनशैली को टक्कर देती कहानी ।
बधाई संध्या जी
[20/02 22:59] Rakesh Bihari Ji: संध्या कुलकर्णी की कहानी कथावस्तु की प्रासंगिकता और शिल्प की सहजता के कारण सहज ही हमारा ध्यान खींचती है। कैसे स्कूल की कुछ व्यवस्थाएं बच्चों से उसका बचपन छीन रही हैं और बच्चे भय से कहीं बहुत आगे एक ख़ास तरह की इमोशनल ब्लैकमिंग का शिकार हो रहे हैं, उसकी बहुत ही प्रमाणिक छवियाँ पेश करती है यह कहानी। पात्र के तनाव को पाठक के तनाव में बदल पाना इस कहानी की बड़ी ताकत है। युवा होने की दहलीज पर खड़े किशोरों के मनोविज्ञान को संध्या ने बखूबी पकड़ा है। मैंने आज उनकी पहली कहानी पढ़ी है, मुझे उनकी आगामी कहानियों का इंतज़ार है।  बधाई और शुभकामनायें!

Sunday, February 21, 2016


🔷 देह भर नहीं
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🔵नवनीत मिश्र
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‘ आज मन कैसा है? ’ पूछने के साथ ही इनका एक हाथ मेरी एक बांह पर आ जाता है,कुछ ऐसे कोण से कि मुझे लगे कि हाथ मेरी बांह पर रखा गया है,लेकिन तीन अंगुलियों के बाहरी पोर . . . .
मेरा ही शरीर और मेरे साथ ही धोखा- इनकी ‘चतुराई’ पर मन ही मन हंसी आती है।
बेटू ने पहली बार जब मेरी एक बांह के घेरे में मुझसे एकदम सट कर अपने गुलाबी और नरम होठों से छुआ था,उसी दिन से मेरे लिए अपने इन भंडारागारों की भूमिका जैसे बदल गई थी। पहले, इनको अपने मोह-पाश में बांधकर अवश करने के लिए,जिनको अस्त्र की तरह प्रयोग में लाती थी,उनके जरिए मैं बेटू की नस-नस में प्रवहित हो रही थी। मेरे प्राणों का एक हिस्सा बेटू के होठों के रास्ते उसके अंदर खिंच रहा था। जब बेटू एक पर अपना कब्जा जमाए रखते हुए दूसरे को भी अपने नन्हें हाथ से दबोचे रखता तो उसकी इस अधीरता को देख हुलास से भर कर सोचती कि लालच कैसे पैदा होते ही शुरू हो जाता है।
मेरा कद मेरी ही निगाहों में बढ़ गया था। मैं गर्व से छलकती रहती कि एक छोटे से संसार को जीवित रखने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है,कि यह काम मैं और सिर्फ मैं ही कर सकती हूं। और कैसी थी वह अनुभूति कि इतने वर्षों बाद भी वह ज्यों की त्यों ताजा है,मगर देखती हूं कि इनकी बौनी अंगुलियों के लिए जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं है।
‘ क्या?’ पूछकर मैं, ‘मन कैसा है ?’ का जवाब तय करने के लिए जरा देर की मोहलत ले लेती हूं।
यह तो अब हो रहा है कि ‘मन कैसा है’ के जवाब की प्रतीक्षा की जा रही है, नहीं तो कोई और समय होने पर अगर जवाब होता,‘ठीक है’, तब तो इनके लिए जैसे खुला आमंत्रण ही होता और अगर जवाब होता ‘ठीक नहीं है’ ,तो इनके हिसाब से सारी तकलीफों का बस एक ही कारगर इलाज होता है . . . .
अब तो बस जी करता हैकि घंटों चुपचाप बैठकर गुजार दूं। अगर हो सके तो इनका अपने पास होना कुछ उस तरह महसूस कर सकूं ,जैसा कि वास्तव में पास रहते हुए भी कभी महसूस नहीं कर सकती। मैं जहां आ गई हूं ,वहां पहुंचने के लिए मैं देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर चुकी हूं। अब चाहती हूं कि इन्हें देह से परे करके भी देखूं-देह से परे होकर भी इनसे मिलूं। मगर पता नहीं ऐसा कभी होगा या नहीं,या होगा तो कब? ये कभी नहीं समझेंगे कि मेरे पास होने का हर समय सिर्फ एक ही प्रयोजन और एक ही अर्थ नहीे होता। ये कभी समझना ही नहीं चाहते कि मन के ऋतु-चक्र में मधुमास लौटकर नहीं आता,उसकी सुखद स्मृतियों से ही पतझड़ की पीली,सूखी पत्तियों को बुहार कर मन-आंगन चमचमाता हुआ रखना होता है।
पिछले कई अवसरों की तरह एक बार जब मैं मिनट-मिनट गिनकर उस समय के गुजर जाने की प्रतीक्षा कर रही थी,मेरा ठंडापन इनसे छिपा नहीं रह सका।
‘ प्यार में देह ही सब कुछ होती है ,बाकी सब झूठ और आत्मप्रंवचना है . . . शरीर न हो तो प्यार के लिए कुछ भी बचा नहीं रहता। तुम इतनी सी बात भी नहीं समझतीं? मैं तुम्हें जीवन भर इसी तरह प्यार करता रहूंगा,चाहे जितनी भी उम्र के हम क्यों न हो  जाएं . . . .मगर तुम्हारे पास आकर लगता है जैसे मैं कोई पूरंपूर पुरूष न होकर कोई बलात्कारी हूं ’ . . . ये उन्मादी की तरह कह रहे थे और मैं सोच रही थी कि हर समय अपनी ही इच्छाओं की सुगंध की गमक में बेसुध ये,क्यों नहीं सोचते कि देह का पेड़ अब हर रोज,हर समय वसंत से लदा नहीं मिल सकता। इनसे अपनी ययाति आकांक्षा से छुटकारा पाने की विनती करते हुए कहना चाहती थी कि मैं नारीत्व के जितने ऊंचे शिखर पर चढ़ना चाहती हूं ,तुम मुझे उतना ही मांस के पोखर में खीच ले जाना चाहते हो।
मैं जहां से खड़ी होकर इन्हें अपने साथ चलने के लिए आवाज लगाती हूं ,वहां तक पहुंचने का इनको बस एक ही रास्ता मालूम है। ये उसी रास्ते में भटक कर रह जाते हैं और मैं इनकी प्रतीक्षा करती फिर अकेली खड़ी रह जाती हूं। ये जितनी बार मुझ तक पहुंचने में असफल रहे हैं,उतनी बार मेरे हाथ से जैसे कुछ छूट-सा गया है। जब-जब इन्होंने अपने आपको मेरे ‘ निकट हो जाना ’ समझा है,दरअस्ल तब-तब मैं इनसे जरा-जरा दूर होती गई हूं।
बी0एससी के पहले साल मेें ही बेटू का दाखिला मेडिकल कालेज में हो गया था और पढ़ने के लिए उसे बाहर जाना था। उसके जाने के दिन जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे थे,मेरे अंदर से कोई चीज जैसे बाहर को खिंचती जा रही थी। मेरे दिमाग में जैसे  हिसाब-सा चलता रहता कि एम0डी0 या एम0एस0 करके एक सुयोग्य डाॅक्टर बनने में जो आठ-दस साल लगेंगे उनमें तो बेटू हमसे अलग रहेगा ही,फिर शादी हो जाने के बाद हमारे साथ रहा भी तो कितना हमारे साथ का रह जाएगा। मोह से मेरा वह सीधा परिचय हो रहा था। तभी तो कभी-कभी सोच बैठती थी कि इससे तो अच्छा होता अगर बेटू अभी बी0एससी या एम0एससी ही करता रहता। हाॅस्टल के लिए उसका सामान बांधते न जाने कितनी बार बिखरी थी। मेरी सारी दिनचर्या तो बेटू की दिनचर्या के हिसाब से ही निर्धारित हो गई थी। रात-रात भर पढ़ा करने वाले बेटू को चाय बना-बना कर देती,सवेरे उसके यूनिवर्सिटी चले जाने के बाद उसकी बिखरी किताबें और कापियां सहेजती और यहां तक कि दस बजे इनके आॅफिस के लिए निकल जाने के बाद किसी न किसी बहाने रूकी रहा करती थी कि पौने ग्यारह-ग्यारह बजे बेटू लौट आए तब नहाने के लिए गुसलखाने में घुसूं नहीं तो उसे बाहर खड़े रहना पड़ेगा।
बेटू के हाॅस्टल चले जाने के बाद मेरी तो जैसे सारी व्यस्तताएं ही खत्म हो गईं। जैसे करने को कुछ रह ही न गया हो। उसके कमरे में जाती तो डबडबाई आंखों में माइकल जैक्सन और सचिन तेंदुलकर के उतार लिए गए पास्टरों के पीछे दीवार पर छूट गईं आयताकार छायाएं गड्ड-मड्ड होती हुई मुझे याद दिलातीं कि बेटू अपना नया संसार हाॅस्टल के किसी कमरे में बसा रहा होगा। एक बेटू के सूने कमरे की वजह से पूरे घर में सन्नाटा टनकने लगा था। नहाते समय उसका जोर-जोर से गाना याद आने पर मैं विह्वल हो उठती।  छटपटाते मन को एक ही प्रतीक्षा थी कि ये बेटू को छोड़ कर लौटें और मैं उसके राजी-खुशी होने का समाचार सुनूं तो इस उदासी और अकेलेपन से शायद कुछ त्राण मिले।
ये चार दिन बाद लौटे। दरवाजा खोलते ही इनको सामने खड़ा देखा तो लगा जैसे श्रीराम को वन के कठिन रास्तों पर छोड़कर खाली रथ लिए सुमंत अयोध्या वापस लौटे हों। इन्होंने अपनी अटैची एक तरफ रखकर खोली और उसमें से तौलिया निकालकर गुसलखाने में घुस गए। मैंने अनुमान लगाया कि शायद बेटू को लेकर ये भी अंदर से भरभराए हुए हैं और ऐसे में अपने को हल्का करने के लिए बाथरूम से अच्छा स्थान और कौन सा हो सकता है। अब ऐसा भी क्या? आखिर पढ़ने ही तो गया है। क्या लोगों के बच्चे पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं जाते? मैं इनके लिए चाय बनाते हुए सोच रही थी कि इस समय इनको ऐसे ही किसी दिलासे की जरूरत होगी। ये गुसलखाने से बाहर निकले तो मैंने इनको चाय का मग थमा दिया। इन्होंने मग पास की तिपाई पर रख दिया और मुझे अपने से लिपटा लिया। मैं जान गई कि बेटू के विलगाव से अपने अंदर घुमड़ रहे दुःख को अब ये अकेले में बहा देना चाहते हैं।
और ठीक भी है,मैंने सोचा,पुरूष हैं ऐसे कैसे किसी के भी सामने रोने बैठ जाते? औरत का क्या,जहां चाहे टेसुए बहाकर अपने को हल्का कर ले। मैंने सोचा तो इनके ऊपर दया हो आई कि पुरूष बेचारे धैर्य धारण करने के सिवाय और कुछ नहीं कर पाते। कुछ देर पहले दिलासा के तौर पर जो कहने की सोच रही थी,उसे दबा गई। कभी कभी रो लेना भी दिलासा होता है। कई दिनों के गर्द-गुबार के बाद ऐसे ही खाली पानी से भिगो लेने के कारण चीकट से हो गए इनके बालों में अंगुलियां उलझाने-निकालने लगी। इनके दुःख को सहलाने के लिए इनका सिर अपने सीने में छिपा लिया।
तभी एकाएक मैंने जाना कि ये सुमंत  नहीं थे।
जाते समय जरूर ये रथ लेकर गए थे लेकिन लौटे थे एक जर्जर छकड़े पर जिसमें थरथराती टांगों वाले,कामनाओं के मरियल बैल जुते हुए थे। क्या पिछले चार दिनों तक बेटू की सारी व्यवस्था करते हुए इनका मन,यहां घर के अंदर सुलभ हो गए निर्विघ्न एकांत के अवसर को लार बहाता देखता रहा था? अचानक इन्होंने अपने चुंबनों के थूक से मेरी गरदन,मेरे कंधे और मेरे होठों को लसलसा दिया था।
मैं अवाक् रह गई।
‘ प्लीज,मुझे बेटू के बारे में बताओ न . . .’ मैंने इनको अपने पैरों पर सीधे खड़े रहने के लिए कंधों से पकड़कर थोड़ा पीछे किया और कुछ मचल कर कहा।
‘ बेटू के बारे में भी बताऊंगा . . .’ इन्होंने सूख रहे गले से कहा और बेसब्री से ब्लाउज के हुक खोलने लगे।    
‘ तुमको तो हर वक्त बस . . . दुनिया में इसके अलावा और भी बहुत कुछ होता है . . .’ मैंने अपनी उकताहट दबाते हुए कहा और धीरे से इनका हाथ हटा दिया।
‘ दुनिया में इसके अलावा भी कुछ होता है क्या? ’ इन्होंने फिक्क से हंसते हुए ढिठाई से कहा और मुझे अपने से जकड़ने लगे।
‘ मैं चार दिनों से अधमरी-सी घर के इस कोने से उस कोने तक घूम रही हूं कि तुम आओ तो . . छोड़ो मुझे. .’ मैंने विरक्ति से भर कर कहा और इनकी जकड़न से छूटने की कोशिश करने लगी।
‘ जाओ छोड़ दिया। अब छत पर जाकर खड़ी हो जाओ और सबको चीख-चीख कर बताओ कि मैं कितना नीच आदमी हूं जो अपनी बीवी को प्यार करना चाहता हूं। ’ इनका सारा उत्ताप खिसियाहट बनकर पिघल रहा था। इन्होंने नथुने फुलाकर चीखते हुए कहा और लगभग धक्का देकर मुझे अपने से दूर करके अपने कमरे में जाने के लिए मुड़े। मैं जान गई कि नाराज होकर अपने को कई घंटों के लिए कमरे में बंद कर लेने का सीन शुरू होने को है। अब तो बेटू भी नहीं था जिसे मध्यस्थ बना कर जरा देर में स्थिति सामान्य बना लिया करती थी।
‘ देखो नारान मत हो। मैं बेटू के बारे में एक-एक बात जानने के लिए कितनी बेचैन हूं तुम नहीं जानते . . .’ मैंने इनको कमरे में जाने से रोका और इनका एक हाथ अपने हाथ में ले लिया।
‘ तुमसे जरा भी सब्र नहीं होता। मैंने क्या कहा कि बेटू के बारे में नहीं बताऊंगा? ’ इन्होंने मान-सा करते हुए कहा जो उस समय मुझे एक आंख नहीं सुहाया।
‘ तुमको भी तो बिलकुल सब्र नहीं है . . .’ मैंने बात को संभालने के लिए हल्के-फुल्के ढंग से कहा।
‘ हां,नहीं है सब्र। अपनी चीज के लिए क्यों करूं सब्र? ’ इन्होंने मेरे कहने को अपने ढंग से लिया। अचानक इन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और कमरे में ले जाकर बिस्तर पर गिरा दिया।
‘ ये समय जो जा रहा है,लौट कर नहीं आएगा। इसके एक-एक पल में भरे आनंद को निचोड़ लेंगे हम . .देखो तो,इतने बड़े सुख के लिए कितना कम समय मिला है हमें . . .’ मुझे पीसते हुए सन्निपात के किसी रोगी की तरह ये बोले जा रहे थे।
‘ मुझे अपने बेटू की याद आ रही थी कि यह समय उसके यूनिवर्सिटी से लौटने का हुआ करता था और मैं उसके आने तक नहाने के लिए रूकी रहा करती थी। ‘ अब तो बस घर में मैं हूं और तुम हो . .अब तो जब भी जी करे . . .’
मुझे ध्यान आ रहा था कि मेडिकल कालेजों में नये लड़कों की कभी-कभी ऐसी रैगिंग की जाती है कि कभी-कभी एकाध बच्चा तंग आकर आत्महत्या तक कर लेता है। बेटू की याद से पहले से ही बोझिल मैं,उसकी कुशल-कामना के लिए ईश्वर से भीख-सी मांगती हुई कातर ढंग से रो पड़ी।
‘ क्या इसी को कहते हैं रति-विलाप? ’ ये कह कर जरा सा हंसे।
 मैं बेटू के पास से एकाएक कमरे में लौट आई थी और इस बार इनके बोले शब्दों को स्पष्ट सुन सकी थी।
हां,यह भी रति-विलाप ही है। अंतर केवल इतना है कि रति के विलाप करने पर क्रुद्ध शिव ने अपने श्राप को कम करते हुए उसके पति काम को निराकार रूप में मन में जीवित रहने दिया था, पर बेटू की याद और उसकी चिंता के मेरे पवित्र अनुष्ठान को भंग करने के लिए काम को भेजकर तुमने उसके निराकार रूप को भी मेरी घृणा का शिकार बना दिया है। अब वह मेरे मन में भी जीवित नहीं है,जिसके साथ अभी मैं कई वर्षों तक और रहना चाहती थी- मैंने सोचा और सिसक कर रो पड़ी।
‘ आनंद के चरम क्षणों में कभी-कभी रोने का भी मन करता है . . .लेकिन औरत शुरू में इंकार करने के नखरे न करे तो आदमी को पागल कैसे बनाए? ’ इन्होंने किसी विशेषज्ञ की तरह कहा और मेरे गाल पर एक हल्की-सी चपत लगा कर उठ गए।
मैंने चपत वाली जगह पर गाल को हथेली से खूब रगड़ कर साफ किया। जरा-सी  देर में मैं सूखे कुएं जैसी हो गई थी जिसमें सारे अहसास छूंछे बर्तनों की तरह ठन्-ठन् बजने लगे थे। ये जैसे वेश्यागमन करकेे जा चुके थे और मैं इनके पसीने और अपनी देह पर छूट गई खट्टी गंध से पैदा हो रही तेज उबकाई से छुटकारा पाने के लिए वाॅश-बेसिन पर झुकी कै करने के लिए जोर लगाती रही।
‘ आदमी का दिन कैसा बीतेगा यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी पिछली रात कैसी बीती। ’ एक दिन इन्होंने अपने मित्रों और उनकी पत्नियों के बीच तीर-सा छोड़ते हुए कहा। ये तीर उन रातों से पैदा हुए जहर से बुझा हुआ था,जो मैंने इनकी ओर पीठ फेरकर गुजारी थीं। निशाने पर मैं थी,यह बात सिर्फ मैं जान सकी थी क्योंकि बेटू को हाॅस्टल छोड़कर आने के बाद की घटना से मैं सचमुच ही जैसे बुढ़ा गई थी।
‘ हां भई, आप लोग ठहरे पुरूष-समाज के अमीर। आप लोगों के पास ले-देकर करने के लिए वही एक ‘श्रम’ बच रहता है और हम ठहरी स्त्रियां-समाज की गरीब,बेचारी स्त्रियां। हमारे जीवन में तो कहने को वही एकमात्र ‘मनोरंजन’ है। ’ मैंने उस दिन की घटना को याद कर-करके जो खौलता हुआ लावा अपने अंदर इकट्ठा कर लिया था,उसे हंसी में लपेटते हुए इनके चेहरे पर दे मारा।
तिलमिलाकर भी जब ये किसी बात का जवाब नहीं दे पाते हैं तो इनके दाहिने नथुने के किनारे ऊपरी होठ के ठीक ऊपर एक गड्ढा-सा बन जाता है और कनपटी की तरफ आंखों के कोनों पर कौए के पंजों की तरह की लकीरें खिंच जाती हैं।
मेरी बात सुनकर इनके नथुने के किनारे गड्ढा भी बना और आंखों के किनारे लकीरें भी खिंचीं,लेकिन बात को जब इनके मित्रों और खासकर उनकी पत्नियों ने हाथों-हाथ उठा लिया तो ये भी अपनी ‘खेल-भावना’ का परिचय देते हुए हो-हो करके हंसने लगे।
बेटू को हाॅस्टल छोड़कर लौटने के दिन की घटना के बाद कई हफ्ते बीत गए थे। ये देह के संधि-पत्र के नये-नये मसौदे लिए मेरे चक्कर लगाते रहे थे,लेकिन हस्ताक्षर करना तो दूर मैंने किसी प्रस्ताव की तरफ देखना भी मंजूर नहीं किया था। अपमान,दुःख और क्रोध का एक दावानल था जिसने मेरे अंदर की सारी हरीतिमा को जला डाला था।
वे दिन अब स्मृतियों में ही शेष थे जब आफिस जाने से इनको रोकने के लिए इनके सामने ठुनका करती थी। अब तो दिन-भर इनका आफिस में रहना एक छुटकारे जैसा लगने लगा है। पास-पड़ोस की औरतों से घनिष्ठता मजबूरी में ही बढ़ानी पड़ी क्योंकि इतवार और छुट्टियों के दिन सारी दोपहर घर में पंचायत जोड़कर ये पड़ोसिनें ही मुझे इनका चेहरा देखने से बचाती हैं। कैसा विचित्र था कि हम दोनों को संतुलित रूप से चलाए रखने के लिए जो जरूरी बीच की धुरी चिटक गई थी,उसके बारे में ये एकदम बेपरवाह थे तभी तो इनकी कोशिशों में कोई कमी नहीं आई थी। एक-दो बार इन्होंने मुझे ‘युद्ध’ के लिए उकसाया भी लेकिन एक ‘निहत्थी’ पर वार करने का साहस ये शायद खो चुके हैं। मैं देर रात या तो रसोई निपटाने मे ‘व्यस्त’ रहती और इनके सो जाने के बाद ही कमरे में जाती या इनसे पहले आ जाती तो सो जाने का ढोंग करती पड़ जाती। डबल-बेड के एक बेड की पाटी पर पड़ी इनकी एक-एक आहट लेती रहती। ये देर रात तक करवटें बदलते रहते और खांस-खखार कर अपने ‘जागे होने’ की सूचना देते रहते लेकिन मैं ‘जाग नहीं पाती’।
उस दिन ये आफिस जाने के लिए तैयार होकर कमरे से निकले तो मैं नहाने के बादआंगन में सिर आगे को झुकाए तौलिए से अपने बाल झाड़ रही थी। ये जाते-जाते रूक गए और मेरे झुके कंधों के नीचे अंदर की तरफ ललचाई निगाहों से देखने लगे। मैंने बाल झाड़ना बंद कर दिया और तौलिया अपने सामने डाल ली।
वे दिन अब स्मृतियों में ही शेष थे जब ये मुझे सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में कमर हिलाने वाली काठ की गुड़िया बनाकर किसी बल्ब के सामने खड़ा कर दिया करते थे और इनको रिझाने के लिए मैं दीवार पर दीख पड़ती अपनी पतली-कमर  हिलाती रहती। ये मेरी दीवार पर पड़ती छाया को मंत्र-मुग्ध से न मालूम कितनी देर देखते रहते। उस दिन आंगन में ये मेरे सामने ठिठक कर रूके तो ऐसा लगा जैसे असावधानी में घर का दरवाजा बंद करना भूल गई हूं और कोई अजनबी बिना दस्तक दिए अंदर आ गया हो।
‘ तुम्हारी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं।’ मुझे तौलिए से अपने बदन को ढंकते हुए इन्होंने कड़वाहट के साथ कहा चले गए।
धड़ाम की एक तेज आवाज के साथ मेरी पीठ पीछे इन्होंने दरवाजा बंद किया था लेकिन मैं चैंकी अपने अंदर हुए धमाके से।
‘ क्या यह मुझे धमकी दी गई है?’ मैं अपने आप से पूछ रही थी।
किन औरतों के पति घर से बाहर चले जाते हैं ? उनके न जो रोज रात को गंदी होने के लिए सफेद चादर की तरह बिछने को तैयार नहीं होतीं ? या उनके जो इस सारे कार्य-व्यापार का चाहे हल्का-सा ही सही,एक सूत्र अपनी मरजी की अंगुली में फंसाए रखने की जिद किए रहती हैं? या उनके जो अपनी देह को पेड़ की किसी शाख की तरह प्रस्तुत नहीं करतीं जिस पर पति नाम का बंदर अपने नितंब उछाल-उछाल कर जब चाहे भोंडे ढंग से नाच सके?
‘ अगर मेरी जैसी औरतों के पति घर से बाहर चले जाते हैं तो वो घर से बाहर ही रहने के लायक होंगे। ’ मैंने अपने अंदर एक खौलन-सी महसूस की ,जो आंखों के रास्ते बह निकली थी।
जो एक कसैलापन ये मेरे कानों में उंड़ेलकर चले गए थे उसने जीवन के कई ऐसे बेस्वाद क्षणों को मेरे सामने फिर लाकर खड़ा कर दिया था जिनको मैं कुछ समय बाद यही सोच कर भूल गई थी कि पुरूष की अपनी बहुत सीमित सीमा होती है,वह कितना भी सोचे स्त्री तो वह हो नहीं सकता। लेकिन बेटू को छोड़कर आने वाले दिन मालूम हुआ कि वह मां तो नहीं ही हो सकता ,बाप भी पूरा नहीं बन सकता।
जिसे कभी शर्मिंदा होना तक नहीं आया उसे घर से बाहर चला जानेवाला पति बनना कितनी आसानी से आ गया . . .
वह विवाह के शुरू-शुरू के दिन थे। हम दोनों को उन दिनों देह के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। नहीं जानती थी कि देह इतने रंगों में खिलती है। अपने अंदर छिपे संगीत को पहली बार सुन रही थी। ये मेरे अभिमान थे,जिन्होंने मेरे रंगों से,मेरे संगीत से और मेरे छिपे हुए नये रूप से मुझे परिचित कराया था। एक नयी-सी मैं थी,अपने ही सामने खड़ी जिसे मैं पहली बार जान रही थी। मैं इनके साथ मिलकर एक बिलकुल नई और अब तक अपरिचित रही आई भाषा गढ़ने में व्यस्त थी जैसे उस भाषा को जाने बिना हम एक-दूसरे को पढ़ ही नहीं सकेंगे।
उसी दौरान किसी दिन मैंने इनका दिया,उस भाषा का एक अक्षर-बीज अपने पास चुपके से रोक लिया था जो मेरे दिए अक्षरों से मिलकर एक नई इबारत बनने लगा था। वह थी प्यार की इबारत। भाषा की खोज का मेरा मकसद पूरा हो चुका था। एक कथा लिखी जा चुकी थी-बेटू शीर्षक की कथा- जिसका बस सबके सामने आना ही शेष रह गया था।
अक्सर जैसे नई खरीदी गई चप्पलों के दोष दूकान पर उन्हें नापते समय ध्यान में नहीं आते। उस समय तो उनकी चमक और उनका नयापन भरमाता है। दूकान की चिकनी फर्श पर कुछ कदम चलकर देख भर लेने पर वह बड़ी आरामदेह लगती है लेकिन जब उन्हें पहन कर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना होता है और पट्टियों से बंधा पैर अपनी मनचाही जगह बनाने की कोशिश करता है,तब पता लगता है कि वह पैर को कहां-कहां से दबा रही है जिसकी वजह से चाल में हल्की-सी लंगड़ाहट आने लगी है। हमारा नयापन भी जा रहा था और पहली बार मुझे एक हल्की-सी लंगड़ाहट की तरह का कुछ अनुभव हुआ था।
‘ नहीं अब नहीं। डाक्टर ने अब ऐसी हालत में मना किया है।’ इनकी मनुहार पर मुझे आश्चर्य हो रहा था।
क्या मेरे भीतर जो महागाथा अपने अंतिम अध्याय में है,उससे ज्यादा प्रीतिकर है यह? इनकी जिद मुझे जरा अच्छी नहीं लगी,लेकिन इनका मन रखने के लिए मुझे दिखाना पड़ा कि मैं इनके साथ शामिल हूं। लेकिन सच बात तो ये है कि उस दिन पहली बार ये मुझे बहुत भारी लगे।
विवाह के दो वर्षो बाद मैं पूर्ण हो रही थी। जीवन के उस पहले अनुभव को लेकर मैं मगन थी,चकित थी और आशंकित भी। मेरे दिन-रात रोज ही अपने अंदर कुछ नया होने की प्रतीक्षा में बीत रहे थे। सपनों की नन्हीं,गुलाबी हथेलियां मेरे गाल छूती रहतीं,घुटनों के बल खिसकती मेरी कल्पनाएं मेरी गोदी चढ़ने के लिए मचलती रहतीं,पक चुका कोई विचार जैसे कागज पर आने के लिए अंदर से पैर की ठोकरें मारता-सा लगता। उठने-बैठने से लाचार मैं हवा के परों पर सवार आगत वर्षों की मीलों लंबी दूरियां हर पल तय करती रहती। मैं चाहती थी कि ये कभी मुझसे पूछें कि मैंने अपने सपने को बसाने के लिए कौन-कौन सी बस्तियां देखी हैं। मैं अपने मन में एक मूर्तिकार थी,कलाकार थी एक भाषा की अनुवादक थी- लेकिन उस दिन की उनकी अश्लील मनुहार ने मुझे बताया कि वास्तव में मैं कुछ नहीं थी . . .
हर महीने तकलीफ के उन चार-पांच दिनों में,जब औरत को अपने ही शरीर से घिन छूटती है,उसका सारा आत्मबल,सारा आत्मविश्वास थक्के बन कर नाली में बह जाता है- ये कैसे उन दिनों में भी अपनी अघोरी इच्छा लिए सामने आ जाते थे, जो कह कर गए थे कि मेरी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं।
‘ सुनो प्लीज . . .। ’ मैं दिन में डाक्टर के पास गई थी और उन्हें बताया कि शुरू के एक-दो दिन मुझे बहुत दर्द रहता है। मैंने बताया कि दवा लेने से दिन में जरा देर आराम मिला था और इस समय फिर तेज दर्द उठ रहा है।
इन्होंने सुना नहीं क्योंकि इनके कानों में उस समय कोई और ही सनसनाहट बज रही थी।
वह एक प्राणांतक हमला था। आरी के तेज दांते एक के बाद एक दर्द की लकीरें छोड़ रहे थे। पीड़ा की ऊंची लहरों से शरीर कांप-कांप उठता। मैंने दर्द पर काबू पाने के लिए अपने दांत भींच लिए और आंखें बंद करके उस तूफान के जल्द-से-जल्द गुजर जाने की प्रतीक्षा करने लगी।
उस रात पहली बार मुझे अपने स्त्री होने और इनके पुरूष होने से घृणा हुई।
‘ कोई भी आनंद ऐसा नहीं है,जिसमें आंखें खुली रह सकें,ऐसा ही होता है न? ’ ये मेरे कानों में फुसफुसा कर पूछ रहे थे। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही थी,इनके हिसाब से मैं आनंद में थी। आनंद की इनकी अपनी परिभाषा है। रतिविलाप की तरह आनंद शब्द भी सुन लिया होगा कहीं से-क्या जवाब देती?
‘ मेरी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं ’-रसौली की तरह हमारे बीच आ गई थी और लगता था कि रोज उसका आकार कुछ बड़ा हो रहा था।
चुप्पी का एक प्रेत मेरे अंदर आकर बैठ गया था जो दिन-भर मुझसे बातें करता रहता,तब भी जब मैं पड़ोसिनों के साथ बैठ कर बातें कर रही होती। मैं उसी प्रेत से पूछती कि क्या बाहर चले जाने का विचार ही बाहर चले जाना नहीं है? मैं अपने हाथ से कोई चीज पटककर चकनाचूर करना चाहती थी ताकि हम दोनों का आपस में टूटना रूक सके। वह प्रेत जो दिन भर मुझसे बातें करते थकता नहीं था,इनके घर में घुसते ही चुप हो रहता और मुझे टहोके लगाता रहता कि मैं अपनी तरफ से कोई बात चलाऊं और तनाव को समाप्त कर लूं। लेकिन मैं अड़ी हुई थी कि अब तो इन्हें ही अपने आप समझना होगा कि इन्होंने क्या कहा और जो कुछ कहा उसका क्या मतलब होता है . . .
‘ आखिर तुमको हुआ क्या है ?’ महीना पूरा होते न होते आखिर एक रात इन्होंने कहा और मेरा हाथ अपने सीने पर रख लिया।
उन दिनों को गुजरे एक जमाना हो चुका था जब मैं इनके सीने के काले बालों पर अंगुलियां चलाती थी और इनके पूरे शरीर में जैसे किसी मादक संगीत की लहरें मचलने लगती थीं।
‘ मुझे क्या होगा ?’ मैंने अपना हाथ खींचते हुए कहा,जैसे कमरे के अंधेरे में भी इनके सीने के सफेद होने लगे बाल दीख गए हों।
‘ क्या तुम अब मुझे प्यार नहीं करतीं ?’ अंधेरे में इनका कातर सवाल मेरे कानों से टकराया।
कैसा करूण,भीख मांगता-सा स्वर। करूण, लेकिन उसमें मेरे मन के लिए कोई दर्द नहीं था। भीख,मेरे उस शरीर की जो इनकी भूख शांत करने की एक मशीन से ज्यादा कुछ नहीं।
मैं चुप रही।
‘तुमने जवाब नहीं दिया . . .’
इन्होंने बात का आगे की ओर ठेला।
‘ हां-हां करती हूं। सो जाओ अब . . .’
 मैंने कहा और बेड की पाटी के अंतिम सिरे तक खिसक गई।
‘ तो फिर हमारे बीच यह दूरी क्यों ?’
इन्होंने फिर उसी याचक स्वर में कहा जिसे सुन कर मेरा सर्वांग जल उठा।
आखिर आ गए न असली बात पर। यह एक शरीर ही तो है ,जिसके लिए तुम मरे जाते हो। कितने दीन-हीन-से हो गए हो कि मेरे इस तरह बोलने और झिड़कने पर भी तुम्हें जरा गुस्सा नहीं आता-जो घर से बाहर चले जाने वाले होते हैं,वह पति तुम्हारी ही तरह होते हैं? घिघियाने वाले?
मैं चुप रहीं।
‘ अब तुम पहले जैसी नहीं रहीं।’
 इन्होंने मेरा सबसे बड़ा अपराध गिनवाया।
‘ यानी मैं पहले कैसी थी,आपको पता है?’ मैं अपने वैवाहिक जीवन के पिछले पच्चीस वर्षों का हिसाब करने को तैयार थी।
‘ हां,अच्छी तरह पता है। पहले तुम्हारी एक-एक छुअन मुझे अंदर तक दहका देती थी,मगर अब . .’ इससे ज्यादा और ये कहते भी क्या।
‘ पच्चीस बरस तक साथ रहने के बाद तुम्हें मेरी छुअन के अलावा और कुछ याद नहीं और कहते हो कि तुम जानते हो कि मैं पहले कैसी थी? कभी तुमने जाना कि इस शरीर के अंदर एक मन भी होता है? देह का जो ललित प्रसंग संगीत की बढ़त की तरह आलाप से शुरू होता है और क्रमशः जोड़ और द्रुतलय से होता हुआ झाले के आंदोलन तक पहुंचता है,तुम्हारे साथ मुझे उस संगीत का सिर्फ विद्रूप ही देखने को मिला है जिससे मैं बेतरह ऊब चुकी हूं।’ मैंने जैसे सारा कुछ पहले से सोच रखा हो,इस तरह से कहा। नहीं जानती कि मेरी कही बात इनके पल्ले पड़ी या नहीं . . . इसके बाद कमरे में सन्नाटे की सत्ता फिर लौट आई।
पचास-पचपन की उम्र,जो कुछ मिल गया उसे देखने की नहीं ,जीवन में जो नहीं कर सके या जो नहीं हो सका उसके बारे में सोचने की होती है। ये जो बिना किसी विचलन के पीठ घुमा कर लेटे हुए हैं इन्हें अपने आप से कुछ नहीं पूछना,कोई जवाब नहीं देना-पर क्या कभी कुछ सोचना भी नहीं? ठीक भी है,सोचना हो तो क्यों ? इनके अपने खाते में तो फिर अपनी मजबूत पहचान के साथ  दो-दो प्रमोशन हैं,साधन चाहे जैसे रहे हों कहा तो यही जाएगा कि अपने बाहुबल से खड़ा किया गया छः कमरे का मकान और बेटे को डाक्टर बना ले जाने की उपलब्धियां चढ़ी हुई हैं। मगर मेरे खाते के पन्नों में क्या दर्ज है? रोटियां पकाने और पति के लिए ‘पेनकिलर’ बनने के अलावा और क्या लिखा जा सका उनमें ? यह इनकी चिंता के बाहर का विषय है कि एक पूरी उम्र के हिस्से में आया घर के एक-एक बेलन और दरवाजों की आहट याद रखना,सबकी रूचि-अरूचि और फरमाइशों के इशारों पर अपनी ताल और अपनी लय को मिलाए रखना और चावल-दाल की जलती पतीलियों को बर्नर पर से उतारते हुए भी अपनी अंगुलियों को जलने से बचाए रखने का हुनर . . .और ‘नखरे करके’ आदमी को पागल कर देने का कौशल . . .
मैं पहले जैसी नहीं रही। हां,नहीं रह गई। पहले जैसा मुझमें अब है क्या? जब मेरा अपना आप ही नहीं रह गया,तब पहले जैसा और क्या रहता? ये मेरे पति हैं इसलिए मेरी पहचान इनकी पत्नी की है। इनके बच्चे की मां हूं इसलिए बेटू की मां कहलाती हूं। और इन्हीं रिश्तों और संबोधनों के कारण स्वामिनी हूं इस घर की।
मगर इस सारे कुछ में मैं कहां हूं? हां मैं हूं,हर जगह हूं। उपलब्धियों की इनकी बड़बोली अट्टालिकाओं की नींव में झांकिए और मुझे निर्जीव पत्थर की शक्ल में देखिए, या अगर वहां नजर न आऊं तो घर-परिवार के इस महावृक्ष की जड़ों में खाद की तरह सड़ती हुई देखिए . . .
ये भला कब जान पाएंगे कि अपना सितार सीखना जारी रख पाती और एक दिन किसी खचाखच भरे हाॅल में मंच पर बैठी तालियां समेटती-तो वह मैं होती। ये भला क्यों जानना चाहेंगे कि किसी आर्ट गैलरी में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में दरवाजे पर खड़ी सबका स्वागत करती-तो हाथ जोड़े वह मैं होती। ये तो अब भूल भी चुके होंगे कि अगर, शादी के बाद नौकरी और परिवार चलाना मुश्किल होगा, कहकर नौकरी न छुड़वा दी गई होती- तो आज स्कूल के एक अलग कमरे में प्रिंसिपल बनकर जो बैठी होती-वह मैं होती . . .
‘ आज मन कैसा है ?’ कुछ दिनों की चुप्पी के बाद ये लगातार तीसरी रात है,जब मुझसे सहलाती-सी आवाज में पूछा जा रहा है।
अब ये सवाल मुझे अपने सामने अश्लील रूप में खड़ा दिखाई देता है। जैसे मुझे चिढ़ाते हुए,मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा जा रहा है कि,तुम्हारी यही तो शर्त है न कि शरीर से पहले तुम्हारे मन के बारे में भी पूछ लिया जाए। तो लो बाबा,अब तो तुम्हारे मन के बारे में भी पूछ लिया, अब तो खुश?
एकाएक मेरे अंदर कोई तड़पकर उठ बैठी। उसी ने चुपके से मेरा हाथ दबाकर कुछ भी बोल देने से मुझे रोका कि ‘मन’ को लेकर किए गए इस क्रूर और भद्दे मजाक जैसे इनके सवाल के जवाब में कोई जलती हुई बात सोचने के लिए ‘क्या’ पूछ कर जरा-सी मोहलत ले लूं।    


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 नवनीत मिश्र मो0 94 500000 94
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प्रतिक्रियाएँ
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: इसे कहते हैं कहानी। नवनीत मिश्र की लेखनी का मैं तब कायल हुआ था जब लगभग 30 वर्षों पूर्व 'सारिका' में उनकी अखिल भारतीय प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानी पढ़ी थी। नाम याद नहीं आ रहा लेकिन वह कहानी एक रंगकर्मी पर एकाग्र थी। इस कहानी में स्त्री के देह-विमर्श को इतने कलात्मक और महीन रेशों से बुना गया है कि अचम्भा होता है कि क्या पुरुष कथाकार भी ऐसी कहानी लिख सकता है ? वाह ! निःशब्द कर देने वाली कथा। हेड्स ऑफ़ राजेश द एडमिन।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: स्त्री देह के साथ स्त्री मन की परत दर परत खोलती कहानी। सेक्स भी रूटीन की तरह पुरुष  के तन की जरुरत होती है और स्त्री अपनी उम्र के साथ सभी रिश्तों को जीना चाहती है सिर्फ नारी देह तक सीमित नहीं होना चाहती।उसे एक उम्र में ये सब बेकार की बातें लगने लगती है और शायद पुरुष का भटकाव भी यहीं से शुरू होता  है।ज्यादातर घरों की यही कहानी है।
पुरुष होकर स्त्री मन को बखूबी जानना और उस पर लिखना आसान नहीं है लेकिन नवनीत जी ने इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि मैं हतप्रभ हूँ।
और क्या लिखूं सूझ नहीं रहा।शब्द नहीं प्रशंसा के मेरे पास।
बेहतरीन कहानी नवनीत जी की।
बहुत बहुत बधाई।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: अर्चना जी स्त्री को एक उम्र  में बेकार की बातें लगने लगती है ,क्यों ।
वेसे इसका वैज्ञानिक आधार भी है ।लेकिन  यह कहानी पत्नी मन को पति के द्वारा समझने भर की सोच पर आधारित है ।
एक पत्नी माँ बन कर भी तृप्त हो जाती है ,यह बात इस कहानी में बहुत ही सौंदर्यतापूर्वक  से लिखी गई है ।लेकिन पति सिर्फ एक अतृप्त इच्छा को ही जीता आया है सदा ।
और अतृप्ति सदैव कुंठा को जन्म देती है ,जिससे वो अपनी भूख से इतर सोचने समझने में  असमर्थ रहता है ।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: ओह पच्चीस साल का एक एक पल इतनी बारीकी से गुंथा गया है हर पल सजीव हो गया ।आभार एक खूबसूरत कहानी  पढ़वाने के लिये।

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: स्त्री की देह की परतों में उलझा रहने वाला पुरुष कभी समझ ही नहीं पाता है कि औरत कब अपने महत्तम अर्थों अर्थात माँ होने के अहसास में डूब उतरा रही है। औरत के मन की इतनी गहराई में उतर कर पड़ताल कि कब वह प्रेयसि है और कब देह से ऊपर उठकर मन को पाकर सम्पूर्ण होना चाहती है। एक स्त्री भी अगर यह कहानी लिखती तब भी नारी मन का इतनी गहनता और ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर पाती। इतनी सच्चाई से शायद नहीं लिख पाती। नवनीत जी का हार्दिक आभार। 🙏🙏🙏🙏
मंच का भी बहुत बहुत धन्यवाद एक बहुत ही अच्छी और गहरी कहानी यहाँ देने के लिए। 🙏🙏🙏🙏😊😊

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: राजेश भाई.कहानी में यह खास बात होती है कि जब आप उसमें होते हो तो फिर कहीं और नहीं हो पाते.यह ऐसी ही कहानी है जिसमें से मैं अभी बाहर निकल सका और उस पर लिखते हुये प्रकारांतर से फिर उसी के अहाते में आ गया.
ये कहानी अब शायद ही पीछा छोड़े.दरअसल पति और पत्नी के बीच सैक्स का जो व्यवहार रहता है.वो या तो ऐसा होता है या कभी तो ऐसा होना चाहता है.पर पत्नी कब स्त्री की तरह सोच रही है.यह आवेग से ग्रस्त पति को पता न चल पाता है क्योंकि वो अपने विद्रूप पुरूष की गिरफ्त में जो होता है.

नवनीत जी ने मनोविग्यान का अचछा सहारा लिया.कई बार लगा कि कहानी को गरम रखना सायास तो नहीं.बेटू को केवल दृश्यांतर की तरह तो प्रयुक्त नहीं किया गया.फिर लगा कि कहानी में यह आवश्यक ही रहा.बहुत अच्छी योजना...बहुत अच्छा वाक्य संयोजन
और बहुत जरूरी साहस से बनी ये कहानी याद रह जायेगी.

नवनीत जी को बधाई और मंच के प्रशासकों का आभार.


ब्रज श्रीवास्तव.


विदिशा...म.प्र.

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: निरंजन जी पढ़ते हुए मैने भी यही सोचा था कोई पुरुष स्त्री मन की इतनी सूक्ष्म परतों को इतनी सहजता से शब्द दे वह कितने संवेदनशील हैं ।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: सबसे बड़ी और चमत्कारिक बात यह लग रही है कि पुरुष लेखक ने स्त्री मन की इतनी महीन मनोदशा को चित्रित किया है जिसे वो जीती तो है लेकिन शायद  कह नही पाती ।
नवनीत जी ने तो उसके एक एक तार को उधेड़ कर रख दिया ,कमाल किया है । स्त्री मनोविज्ञान की कहानी है इसलिए ही नही ,बल्कि उनके लेखन की बुनावट की कायल होकर मेने इसे अभी तक की पढ़ी कहानियॉ में से श्रेष्ट कहानी की   श्रेणी में रख कर सहेज लिया है ।
ब्रज जी ने बहुत अच्छा लिखा ,आवेग ग्रस्त पति नही सोच पाता की पत्नी कब स्त्री की तरह सोच रही है ।
धन्यवाद ब्रज जी ।

निरंजन सर सहमत हूँ आपकी बात से ,वाकई अचंभित किया है इस कहानी ने ।देह से परे होकर स्त्री की सोच को शब्द शब्द पढ़ कर ।

पुनः प्रणाम नवनीत जी ,एक  उत्तम कहाँनी पढ़वाने के लिए ।

🙏
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: दाम्पत्य के सभी दृश्यों को एक नारी के दृष्टिकोण और अनुभूत सत्य की तरह चित्रित किया है नवनीत जी ने ।
बहुत सुन्दर💥

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: लाजवाब कहानी ,अभी तो डूब गई हूँ ,निकल पाई तो कुछ लिख सकुंगी ।
नवनीत मिश्र जी को प्रणाम करती हूँ ।
थैंक्स राजेशजी ,बेहतरीन चयन के लिए

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: कल असफल जी की कहानी पढ़ी थी । दोनों कितने अलग अनुभव। दोनों आत्मीय। दोनों सच। एक में देह का स्पर्श दिव्या प्रेम की ओर ले जाता है सारी सीमॉओं के परे।  वही देह पर बलात् स्पर्श उसे घृणित और दयनीय बना देता है।
मन और तन - कितने पूरक हैं

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: राजेश जी बधाई आपको एक से बढ़कर एक कहानियों के लिए🙏नवनीत जी आज की कहानी जिस स्त्री मनोदशा को समझकर लिखी गई है ,विश्वास नही होता कि अनुभव कर नही लिखी गई  । स्त्री का प्रेम मन से शुरू होकर तन तक पहुचता है ,पर मूल मन ही होता है । इसे जो समझ जाए निश्चित ही सच्चा प्रेम उसे मिलता है ताउम्र। बहुत सुंदर कहानी के लिए बधाई ...

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: प्रेम पनपता भले ही देह की जमीन पर हो l पर परवान हमेशा मन की आकाश पर ही चढ़ता हैं l मन और देह के  द्वंद से दो चार होती हुई,बहुत ही बढ़िया कहानी l मिश्र जी  को बहुत बहुत बधाई l

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: कहानी पर इतनी सारी और अभिभूत करने वाली प्रतिक्रियाएं मिलेंगी सोचा नहीं था। कुछ कहना आत्मश्लाघा लग सकता है इसलिए कुछ कहना नहीं चाहता लेकिन एक बात साझा करने का मन है कि स्त्री बन कर सोचना एक नये तरह का अनुभव था।

मैं सभी के प्रति जिन्होंने कहानी पर अपनी राय व्यक्त की हृदय से आभार प्रकट करता हूं।
बहुत बल प्रदान करने वाली थी आप सबकी राय।
धन्यवाद।

नवनीत मिश्र

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: सच में प्रवेश जी ,बहुत अच्छी कहानी.नारी मन के रेशे रेश का बखूबी बयान करती इस कहानी के ले खक को मेरी बधाई.

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: 00 आज आप सभी ने हमारे समय कूे महत्वपूर्ण रचनाकार आदरणीय नवनीत मिश्र की कहानी ‘ देह भर नहीं ‘ पढ़ा और अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया से मंच को अवगत कराया। शुक्रिया मित्रो...

00 इसी के साथ मिश्रजी का विषेश आभार और शुक्रिया, जिन्होंने मंच के आग्रह पर इस कहानी को टाईप करा कर हमें भेजा। पहले यह कहानी हमें स्केन की हुई प्रति में प्राप्त हुई, जिसे मंच पर लगाना सम्भव नहीं था।

00 कल  तीन बजे जब यह कहानी टाईप होकर हमें मिली तो फौरन इसे यूनीकोड में बदलकर मंच पर लगाने का मोह  संवरण नहीं कर पाया।

00 देह की और देह से परे भी एक भाषा होती हैं लेकिन कितने पुरुष इसे पढ़ पाते हैं, समझ पाते हैं... जैसे सवालों से रूबरू कराती बेहतरीन कहानी के लिए लेखक को हार्दिक बधाई।
 लेखक ने अपने स्त्रैण पक्ष को कितनी मजबूती से थामा और संजोये रखा इसका पुख्ता प्रमाण है देह से परे भी।

पुनः सभी को धन्यवाद और शुभरात्रि ।

कल एक बेफ्रिक लड़की की प्रेम कहानी के साथ पुनः भेंट होगी।

राजेश झरपुरे

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