Thursday, December 8, 2016




वाट्स अप के साहित्यिक समूहों में आजकल नित नए प्रयोग हो रहे है। जिससे नव लेखकों को तो लाभ मिल ही रहा है, पाठक भी नई उर्जा के साथ सक्रीय होता है। आज साहित्य की बात समूह पर "तैरते पत्थर " विषय पर कविताये पोस्ट की गई जिन्हें लेखकों ने कविता की पाठ शाला में लिखा था। कई सदस्यों ने उल्लासित होकर तुरंत कविताये भी लिखी। सबसे ज़्यादा आकर्षण का केंद्र रहा विंग कमांडर अनुमा आचार्य का संचालन, जिन्होंने अपने शब्दों के जादू से सभी को बाँध लिया। प्रत्येक टीप की प्रतीटीप में उनका भाषा कौशल झलक रहा था। रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है आज की कविताये और प्रतिक्रयाए|


मुख्य टीप कविता पाठशाला के  प्रमुख श्री ब्रजेश कानूनगो 
'कविता की पाठशाला' एक ऑनलाइन कार्यशाला की तरह सक्रीय एक वाट्सएप समूह है। जो 'सकीबा' का ही अनुषंगी समूह है।
अक्सर कुछ ऐसे मित्र यहां संवाद करते हैं जिनकी थोड़ी रूचि कविता को लिखने,समझने की होती है और जो कुछ दिशा में आगे बढ़ने को इच्छुक होते हैं।
यह मान्यता है कि किसी को कविता लिखना कैसे सिखाया जा सकता है? यह तो भीतर से,अनुभूतियों के कारण स्वयं निकलकर आती है।ऐसा हो सकता है,लेकिन भीतर से आने वाली हर बात कविता तो नहीं हो सकती।कविता का अपना सौन्दर्यशास्त्र,अपना कहन याने भाषा शैली, और विधान भी होते हैं।
सह्रदय व्यक्ति अपनी संवेदनाओं को,अनुभूतियों को व्यक्त करता है। लेकिन विधागत कला को बेहतर और उसे संवारने की प्रक्रिया तो अनन्त तक चल सकती है।
इसी काम के लिए पाठशाला जैसे समूह की भूमिका निर्धारित और समझी जा सकती है।
एडमिन ब्रज श्रीवास्तव जी ने मुझे भी यहां कुछ सहयोग की अपेक्षा की तो मैं भी चला आता हूँ,दूसरों से बतियाते,सुधारते,खुद को संवारने का लालच बना रहता है।बंधन में कुछ अपनी नई कविताओं का आधार तैयार हो जाता है।
किसी एक तय विषय पर कविता लिखना तो एक बहाना है।इसके बहाने हम अपने विचारों को शब्द देना और किसी अलग दृष्टि से चीजों को देखना भी सीखते हैं।कल्पना और यथार्थ के पंखों से हम कितनी उड़ान और दूरी तय कर पाते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
एक ही विषय अंत में हरेक की अपनी भिन्न कविता बन जाती है। शीर्षक भी बदले जा सकते हैं।
तैरते पत्थर से शुरू हुई कविता,जीवन के दर्शन के सूक्ष्म की कविता भी बन सकती है,और स्त्री विमर्श या प्रकृति का चित्रण भी। पहाड़ के दुःख और पक्षियों के कलरव को भी महसूस किया जा सकता है अंत में।यह कवि की अपनी सामर्थ्य और विवेक पर निर्भर करता है।
कक्षा के कोलाहल के बीच पत्थरों के तैराने के प्रसंग के बीच खीज के चलते मैंने कहा कि ' अब लिखये इसी विषय पर कविता। यह बहुत सुखद रहा की इतनी खूबसूरत कवितायेँ यहाँ आईं।
कुछ पर मेरे सुझावों पर संशोधन भी हुए।लेकिन यह अंत या फसिंल नहीं है।होना भी नहीं चाहिए।यही कविता का विकास है।कवि का विकास है।
सभी रचनाकारों को बधाई।
अनुमा जी ने बहुत मन से आज सत्र संचालन किया,उनको भी बहुत बधाई। अध्यक्षीय जैसा तो नहीं लेकिन पाठशाला के एक संकाय सदस्य के नाते अपनी बात कही है।बातें होती रहेंगी।
बहुत धन्यवाद,आभार और शुभकामनाएं।
ब्रजेश कानूनगो

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 तैरते पत्थर
कहाँ नहीं हैं पत्थर?
पृथ्वी को कंपित कर
अहसास करा देते -                        
पृथ्वी के नीचे अपने अस्तित्व का।
जब फिसलती हैं चट्टाने एक-दूसरे पर
खेल-खेल में अथवा पारस्परिक रोष में।

पृथ्वी तो भरी है पत्थरों से-
नींव के पत्थर ,मील के पत्थर
और रास्ते के पत्थर भी ।
टकराते पैरों से ठुकराये गये बार-बार ।

अन्तरिक्ष भी  रिक्त नहीं है पत्थरों से।
तीव्र गति से भागते ,तैरते पत्थर जैसे उल्कापिंड  तत्पर हैं , वहाँ भी ।
 पृथ्वी की ओर आने को आतुर
 राजेंद्र श्रीवास्तव

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 अपराध बोध

ऐसा फिसला कि
संस्कारों की पोटली जा गिरी
लालच की आग में


आँख खुली तो
आत्मा मूसल की तरह
कुचलने लगी अस्तित्व को

पश्चाताप के समुद्र में
आंसूओं का नमक मिला  
तो बिखर गया भारी पत्थर

तैरने लगा दुःख
हल्का होकर।

ब्रजेश कानूनगो                    
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 बोलो राम
सच सच बताओ राम
क्यों तैरे थे पत्थर
तुम्हारे नाम के
श्रद्धा थी या मर्यादा पूजी गई तुम्हारी,
या प्रिया की विरहाग्नि ने
पिघला दिया
उनका पत्थरपन ,
हल्के हो तैर गए

समंदर की छाती पर,

हरण हो रही आज भी सीतायें
बिक रही है मंडियों में
निर्जीव बन
नुचे पंख छितरा देती
बेदम हवा यहाँ से वहा
कोई पुल नही उन तक ..

बोलो राम ,
क्यों जरुरी नही समझते अब तुम
सीताओं को बचाना ???
जबकि पुकारती है वो तुम्हें
विदीर्ण हृदय में पीड़ा के आर्तनाद से

तुम चुप हो
क्यों ?

शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से  ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!!

प्रवेश सोनी                      
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"तैरते पत्थर"

कभी-कभी बन्धनों में जकड़
ऐसी सुलगती है
मन की भट्टी
कि लगता है
झोंक दूँ
सब कुछ इस भाड़ में।
धुआँ कोहरा बन
ढक लेता है
जीवन के रंग।
घुट रही होती है
हर स्वप्न की साँस।

तभी कोहरे को चीर कर
निकलता है सूरज

कहता है बार-बार
जिन्होंने समझा
आकर्षण के
बंधन को त्याज्य
वो पत्थर उल्का बन तैर रहे हैं
अंतरिक्ष  में अब भी
ढूँढ़ते हुए अपनी पहचान।

अनिता मण्डा    
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 |||  तैरते पत्थर  ||||

यादों के पत्थर तेरते रहते है
टकराते हुए .....
टूटते .हुए
बिखरते हुए ......

काश.... इन ...पत्थरों से
बना पाती गिप्पा
और उछाल देती
किसी खाने में
और बना लेती उसे अपना घर

काश ...इन पत्थरों से
बना पाती सतोलिए
और एक पर एक रख
समय की गेंद आने से पहले
बना देती पिरामिड
और जीत जाती ...

काश इन पत्थरो से
तराश पाती
कोई मूरत
रख देती मन्दिर में
प्राण प्रतिष्ठा कर के
कर देती निष्क्रिय ....

यादों के पत्थर
कुशल तैराक की तरह
तैर रहे .....
और मैं जीवन चलन में
अकुशल होती जा रही ।
         
          मधु सक्सेना      
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 स्त्री जीवन एक प्यूमिक स्टोन

जड़ों से फूटीे वे तंतुनुमा बालियाँ
बाहर आयीं
कुछ दिनों बाद दिखने लगी
ललछौंही हरीतिमा
वे इठलाने के दिन थे
नरम नरम उजाले,सुनहरी मुस्कानें
मिट्टी भी हुलसती,देती असीसें

बीतता चला गया
शैशव,बालापन,कैशौर्य भी
होंने लगीं सख़्त,
लाल लाल कोंपलें खा खाकर ठोकरें
घिसाती रहीं बर्तनों सी
फ़ीची गई कपड़ों सी
उलीची जाती रहीं
बावड़ियों सी

सुख झरते रहे भीतर से
सरंघ्र  होते रहे मन के ठोस पत्थर
दुःख का रास्ता साफ होता गया दिनों दिन
मिट्टी की तरह देह
होती चली भुरभुरी

प्यूमिक स्टोन सी
जीवन को उजला बनाती रही
स्त्रियां।
 आरती तिवारी
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तैरते पत्थर :

हमने प्रवाह दिया पत्थरो को
सुझाया कि
इन तैरते पत्थरों पर चलकर
किया जा सकता है
भवसागर पार ।
हम खूब चले इन राहो पर
तुमने पहले हमें पांव कहा
फिर कहा पांव की जूती ।

तुमने स्थापित किया पत्थरों को
लगाया सिंदूर, चंदन, रोली
मठ बनाये और मुडाया सर
फिर लगा लिया
वही सिंदूर,चंदन,रोली
कहा वह पत्थर अब प्राणवान
होकर बन गया है माथा
रखो इस पर मुकुट ।

हम भव सागर पार कर
थके हारे पहुंचे ईश्वर के पास
हम वृद्ध थे
हमारे सर जूती के तलवो की तरह चिकने थे.
उन्होंने गले नहीं लगाया
मल भरी एक खांची
रख दी हमारे सर पर
उस खांची मे एक भी पत्थर नही है
सारे पत्थर मठो मे है
रेशमी परिधानो मे
पुष्पो के बीच,सुगंधित।

अखिलेश    
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खून में पानी

अकसर गिरती बनती हैं
बचपन में दीवारें
भाई भाई में
दोस्त दोस्त में
आहिस्ता आहिस्ता गाढ़े खून में मिलता जाता है पानी
पक जाती है दीवार
पर्वत से भी भारी  रिश्तों पर
कुछ यूँ दीवार बनकर तैरते हैं पत्थर

जतिन अरोरा
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पत्थर

जो लाया था

गुरुडोगमर झील से

तुमने कहा

हाथ में रख

बंद करो मुट्ठी

याद करो उस क्षण को

जब मिले थे पहली बार

तुम तैर जाओगे

उस पल में

उस तन्मयता की ओर

पत्थर की नाव के साथ।

संजीव जैन      
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तैरते पत्थर 

हम बच्चों के लिए
सितोलिये के पत्थर हैं
कैसे मगन हैं वो
ऐसे ही मगन हो जाओ बड़ी उमर के लोगों

और हम कुंए में तलहटी में बैठे
पत्थर हैं
जब कछुआ आकर आराम करता है
हम तो जैसे वात्सल्य से भर जाते हैं
हम पहाड़ पर इस कदर
कि हम विशालकाय
हमारा ही राज है पहाड़ों की बस्ती में
हम पत्थर
बदनाम हैं कठोरता के लिए
जबकि हमारा भी होता है दिल
हमें भी चूरा किया जाता है
हमें हथौड़ा से संवारने के नाम पर
पीटा जाता है
हमारे रोने की आवाज
कौन सुनता है
मूर्ति का भला हो कि
उसके सहारे हम पत्थरों को
मान मिल जाता है

हम ऐसे पत्थर जैसे होना
तुम्हें सिखाया जाता है
कभी कभी,
थोड़ा पत्थर तो अब कवि भी हो गये हैं
हम ही वो जो हथियार बने
हम ही वो जो वजन दार
कि हम नहीं हैं
तैरते पत्थर.

ब्रज श्रीवास्तव    
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पहले मैं,पहले मैं

तालाब किनारे से गुज़रते हुए
मैंने एक पत्थर उठाया
निशाना लगा के फेंका ज़ोर से
हवा में उड़ता हुआ
पानी में टप्पे खाता हुआ
पहुँच गया वो तालाब के उस पार
मैंने पत्थर को उड़ना और तैरना सिखाया
जब आगे बढ़ा तो जिस भी पत्थर पे नज़र पड़ती
वो कहता पहले मैं, पहले मैं।।
दुष्यंत तिवारी

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ऑसू जब बनेगा पत्थर
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तमाम स्त्री जाति के आंसुओ को
धीरे-धीरे इकट्ठा कर 
एक सांद्र विलयन बनाऊंगी
      
फिर आह की ऑच से तपा कर
 धीरे-धीरे कठोर कर....
 एक वज्र सम डली (पत्थर)बनाउंगी
 जो फोड़ देगी दु:ख का कपाल

ऑसू, जो पर्याय कमजोरी का 
इस संघटना के घटने के बाद 
आने को होगा ऑखों मे जब
डर जायेगा दु:ख हर बार 

 सुराग पा गयी है स्त्री 
   उससे पार पाने का।


              -डाॅ अलका प्रकाश 
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इनसान    
यह पत्थर में भगवान।                           
चमड़ी में बसते इंसान ।।।                      
 दूध जिन्हें पिलाते हैं                          
 पत्थर को देते मान ।।।                      
 पाई-पाई को तरसे                                
सब मंदिर में देते दान ।।।              
  भूखाप्यासा फिरता है                       
 जीवित है जो इंसान ।।।                   
 खा न सके जी भर कर                    

 मूर्ति को मिलते पकवान ।।।

ओम प्रकाश क्षत्रिय 

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सुरेन सिंह
पत्थर सुनकर ,देखकर  एक ठोस ,ठस और ठहराव का भाव प्रायः आता है मन में । ऐसे प्रत्यय को लेकर जब तैरने की ,तैराने की बात हमारे मन में आती है तो उसमें प्रचलित मिथक और एक वस्तु या भाव में उसके गुणधर्मो से विपरीत जाने को कहते है और इसी निरूपण में काव्य भी व्युत्प्न्न करने की ताब किसी पाठक को कवि में परिवर्तित कर देती है ।

राजेंद्र जी की कविता अपने काव्य में टेक्टोनिक थ्योरी की अवधारणा को उतारते हुए  पत्थर के विविध रूप और रूपको  को  प्रस्तुत करते है । फिर पृथ्बी से अंतरिक्ष में जा गुरुत्वाकर्षण  की अनुपस्तिथि में पत्थर को तैराते है और पत्थर के यत्र तत्र सर्वत्र होने को कहते हुए  ,उन्हें पृथ्वी की ऒर मतलब अपने ही समूह से मिलने , अपने ही जैसे से किसी से मिलने , गति में एक स्थिरता प्राप्त  आदि आदि को जब निरूपित करते है मुझे लगता है इन सारी ऊपर की पंक्तियों  से एक काव्य को निचोड़ देते है । ये अंतिम पंक्ति कविता को कविता बना देती है । इसी पंक्ति से पाठक का मन आज़ाद हो जाता है ,पत्थर में ,उसके रूपको में ,उसके गुणधर्मो में मानवीकरण लाने को
अपराध बोध पर लिखी ब्रजेश जी की कविता -- अपराध के बोध के  होने ,उसमे स्वयं के गिर जाने ,  उसके मन में घर बनाने और उसके सबलीमेशन की ऐसी  कविता है जो संक्षिप्तता में अपनी बात इस तरह कहती है कि पाठक अपनी ग्रंथियों के बारे में सोचता है , मुस्कुराता है ,थोड़ा कसमसाता है और फिर कुछ हल्कापन लिए कविता में उतर जाता है ।
इस कविता की usp ये लगी कि ये सभी से जुड़ जाती है क्योंकि कोई न कोई अपराधबोध हर एक से कही न कही जुड़ा ही रहता है । ये अपराधबोध  कैसे हमारे व्यक्तित्व को भिन्न परिस्थितियों में भिन्न तरह से मोल्ड करता है ये सम्भवतः कवि कहना चाहता है ।
अपराधबोध एक ऐसा विषय है जिस पर दस्तोवस्की जैसे महान उपन्यास कार  क्राइम एंड पनिशमेंट जैसे मोटे उपन्यास लिखते है वही ब्रजेश जी एक छोटी सी कविता में उसे उतारने की कोशिश करते है तो ये कोशिश ,अच्छी लगती है ।
हाँ ,जब वो संस्कार की बात करते है तो  , अगर ये संस्कार ..  कंडीशनिंग का पर्याय है तो ठीक अगर इससे इतर होता है तो आम पाठक इससे जुड़ने में  कठिनाइ सी महसूस कर सकता है ।
कभी न कभी  सभी ने सुनी होगी ये दम्भ भरी आवाज  ,    . ........ हम तो संस्कारी लोग है  । इस दम्भ ,इसकी बू से अधिकांश पाठक अपनी आशनाई नही कर पाते । हो सकता है विषयान्तर हो गया हो ।
पर ये पंक्ति मन में आत्मसात होती है कि तैरने लगा दुःख ,हल्का होकर । ये हल्का होने का जो अभिलाषी भाव है वो इस युग की वाकई एक त्रासदी है । जिसे कवि जिलाये रखता है । भले ही इस कविता में पत्थर तैरा न हो पर अपनी सीमाओं में यह कविता उन्हें अतिक्रमित करने का जज़्बा रखती प्रतीत होती है ।                    


 Anuma Aachary:
"तैरते पत्थर" विषय एक धनात्मक विरोधाभास की ओर इशारा है, जहाँ पत्थर के ठोस पन की बात से हट कर, उसके अंदर की तैर पाने की सम्भावनाओं की बात है. ना केवल यह, बल्कि यह भी कि "पत्थर" के घनत्व में भी उनके अंदर हवा और porous होने की गुंजाइशे बाक़ी हैं.....यानी कि पत्थर की जड़ता हावी नहीं है....क्षितिज पर उम्मीदें दिख रही हैं.
लगता है, यह गुरुवार कुछ और सदस्यों की साहित्यिक उर्वरता का प्रतीक बनेगा...
तो निजामत तो नहीं जानती मैं, पर निवेदक भी नहीं हूँ...आपका आह्वान करती हूँ कि
इस "तैरते पत्थर" के अनूठे विषय को अपनी कल्पना और क़लम से कुछ हम सब भी नवाजे 😀                      
इस ठंडी सुबह को गर्मजोशी के पहले प्याले देने वाले Early birds को salute है जी 🙏.
......बाक़ी के हम सब धूप के फैलने तक अपने अंदर के ठोस होते जा रहे हिस्सों से परे   कुछ पल कृतित्व के नाम करें.....शब्दों को, भाषा को खंगाले और एक वह कोशिश कर ही डालें, जो अरसे से मन में है.
राजेंद्र जी...पत्थर की तासीर टकराना तो है ही. लेकिन फिर बदलेंगे मिट्टी में.... मिट्टी से पत्थर और फिर पत्थरों के मिट्टी होने की दास्ताँ जारी रहेगी..सुंदर संयोजन
ब्रजेश जी...एक पूरी जीवन यात्रा ही समा गयी इन कुछ पंक्तियों में. प्रगति की गति, किए समझौतों, अहसासों और फिर उबर आने का सफ़र.
प्रवेश जी, तैरने पत्थरों का राम और आस्था से सीधा सम्बंध है और आपने वहीं भेदन किया है - लक्ष्य भेद 👌
अनिता जी, होने और ना होने के बीच की उहापोह में "होना" और "होने" मे पूरी आस्था, ये पढ़ा मैंने आपकी रचना में.
मधु जी....वक़्त की तेज़ रफ़्तारी शिद्दत से छू  रही है कविता में. एक सरल मन के "छूटते जाने" का अहसास शायद....मेरे अंदर भी बेसाख़्ता ही चला आता है. आपसे बहुत सीखने को  है - संप्रेषण और expression.
आरती जी, केवल आत्म उत्सर्ग का ढोल क्यों पीटे स्त्री !!! प्यूमिक स्टोन बड़ी वांछनीय धरोहर है. कितनी अच्छी बात है कि अंततः "ठस" या "ठोस" नहीं हो जाती स्त्री और सम्भावनाएँ सहेजे रहती है, पारदर्शिता की, समा लेने की, चिरकाल तक...

अखिलेश जी, पूरी कविता सुंदर लेकिन खाँची के कोंटेंट्स मे मार्क्सवाद बचाया भी तो जा सकता है प्रभु 😇                
ब्रजेश कानूनगो
कवि आखिर चाहता भी यही है कि कविता पाठक तक सम्प्रेषित हो।कुछ कठिनाई आती भी है तो समालोचक या टीकाकार सेतु की भूमिका निभाता है।अनुमा जी,इसमें काफी सफल होती हैं।

दुष्यंत तिवारी
तैरते पत्थर विषय पर इतने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से लिखी कविताए पढ़कर आश्चर्य होता है।
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता पत्थर के अस्तित्व का एहसास कराती है और उसके उलतप्रध बोध कविता में ब्रजेश जी ने पत्थर की कहानी लिख दी है। दोनों कविताओ में पत्थर की भूमिका कविता में बिलकुल उलट है।
प्रवेश जी ने तैरते पत्थरो को सहारा लेकर सामाजिक परिस्तिथि पे चोट की है और सवाल उठाया है की आज धर्म मौन क्यों है।
अनीता जी की कविता बार बार पढ़ने में समझ आई, शिल्प की दृष्टि से आज की कविताओ में सबसे उत्कृष्ट।
मधु जी की कविता नॉस्टॅल्गिक है इसलिए आसानी से किसी के भी दिल में जगह बना लेगी, उन्होंने इसको पूरी तरह निभाया भी और कहीं भी कविता में ढील नहीं दी।
आरती जी ने स्त्री जीवन को बहुत अचे से जोड़ा विषय से और अंत में अखिलेश जी की कविता स्वादिष्ट भोजन के बाद मिठाई का काम करती है, उन्होंने विषय की गहराई में जाकर सिम्बोलिस्म का उपयोग किया।।

ये प्रयास एक सोशल एक्सपेरिमेंट भी हो सकता है की कैसे किसी को एक ही विषय पर अपना बचपन याद आया तो किसी को सामाजिक बुराइया।




हरमिंदर सिंह
पत्थर तैरते हैं, उम्मीद की किरणों के साथ, कुछ ख्वाहिशें हैं. शब्दों को यूं नहीं तैराया जाता, वे जानते हैं.
अखिलेश जी की सुंदर रचना.🙏🏼


 Meena Sharma: तैरते पत्थर जिस तरह भी तैेेरे हो्, हर किसी कविता में अलग भाव लिए हुए हैं ।
हर ओर पत्थर हैं,  " तैरते पत्थर"  पर हर ओर से जैसै चित्र खींच लिया हो राजेंद्र जी ने ....और वे चित्र हर साकीबाई कै जे़हन में ठहरे से हैं । विरोधाभासी इशारे बहुत सी अनकही कह रहे हैं ।
बधाई राजेंद्र जी एक अद्वितीय कविता के लिए ।।              
 अपराध बोध
ब्रजेश जी , संस्कारों के मूसल
आत्मा पर भारी हर बोझ को हटाकर, आँसुओं में बहा देनेका माद्दा रखते हैं, दिल पर रखा पत्थर ,हल्का होकर तैर जाए तो ज़िंदगी आसान कर देता है ।
वाह ब्रजेश जी । पत्थर का तैरना 💐💐                      
बोलो राम
आस्था के पत्थरों का तैरना ,कल भी था आज भी है । नाम का गुणगान है वरना क्या दूसरों को तारने वाले💐💐 राम , गर्भवती पत्नि को बनवास भेज देते ?
कविता की बात करें ,सुंदर शब्द संयोजन किन्तु ,तैर ही गई, डूबी नहीं ।। 💐                      
 तैरते पत्थर
एक और नए रंग-रूप के साथ अनिता जी की कविता मेंबंधनों की जकड़ से निकलना, और त्याज्य पत्थरों की कल्पना उल्का के रूप में, खूबसूरत बिंब ।।  💐💐                      
 तैरते पत्थर
यादों के पत्थर और उन्बें सहेज लेने का हुनर कोई मधु जी से सीखे ।
कभी सतोलिया,पिरामिड बना अपनी जीत दर्ज करना,कभी मंदिर की मूरत, कभी कुशल तैराक बनाकर,जीवन चलन की अकुशलता दर्शाना,
मन में उतर जाता है ।
बढ़िया रचना ।। 💐💐                      
 प्यूमिक स्टोन
के रूप में सारा जीवन उतार कैसा अद्भुत बिंब रचा,उलीची जाती बावड़ी, और सुख के झरने से सरंध्र होते मन के पत्थर का प्यूमिक स्टोन बन ,स्त्रीयों का जीवन उजला बनाना ,खूबसूरत कविता ।
बधाई । 💐💐                      
 अखिलेश जी  ने तैरते पत्थरों को प्रवाह देकर ,अद्भुत रंगोंनमें रंग दिया ।
मठों में रेशमी परिधानों में पुष्पों के बीच ,सुगंधित करना ,एक अनूठा प्रयास ।व्यंग्य की झलक के साथ ,बढ़िया प्रयास । वाह 💐💐                      
 अनुमा जी ,आपका सुंदर ,सार्थक प्रयास स्तुत्य कि डूबने वाले पत्थर भी तैरा देने वाली कविताओं से रूबरू कराया ।
सभी की रचनाओं के पत्थर तैर कर ,रामेश्रम का पुल बना गए ।। बधाइयाँ ।।
सभी रचनाधर्मियों को ।। 💐💐💐💐💐💐💐                      
 कुछ यूँ दीवार बनकर तैरते हैं, पत्थर ।। जतिन जी की रचना , 💐



भावना कुमारी
अनिता मण्डा जी की कविता तैरते पत्थर टटके बिंब और अपने कहन के अंदाज़ की वजह से अलग आस्वाद की कविता है ।

जिन्होंने समझा
आकर्षण के
बंधन को त्याज्य
वो पत्थर उल्का बन तैर रहे हैं

गज़ब ।हार्दिक बधाई ।                  

सौरभ शांडिल्य 
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता पढ़ने पर ऐसा लगता है जैसे हम कुछ विशेष शिल्प में गढ़ी कविता पढ़ रहे हों।इस कविता को भूगोल या खगोल विज्ञान की कसौटी पर कस के देखें तो सच में अलहदा कविता है।भूगोल का मनोविज्ञान से गहरा रिश्ता है।अक्सर दोनों के कुछ ख़ास सिद्यांत एक से लगते हैं।कहने कि ज़रूरत नहीं कि यह एक बेहतरीन कविता है।
बृजेश कानूनगो सर की कविता कम शब्दों एवं काम पंक्तियों में पूर्ण कविता है।महज़ 11 पंक्तियों में कविता अपना चमत्कार कर देती है।इस कविता में बहुत स्पेस है,बहुत कुछ कहा जा सकता है।(एडमिन से अनुरोध कि सर की कविताएँ जिस दिन लगाएँ,इस कविता को आवश्य लगाएँ)
प्रवेश सोनी जी की कविता विमर्श खड़ा करती है।जिस आम फ़हम जवान में कविता है वही इसकी ताक़त है।भाषा ऐसी कि सभी समझ जाएँ और विचार करने के लिए मजबूर कि कई कई शताब्दियों से महिलाओं की स्थिति ज्यों की त्यों क्यों?
अनीता मण्डा जी की कविता उम्दा कविता है।इस कविता पर भी अलग से बात होनी चाहिए।कई विशेषताओं से पूर्ण कविता है।काम पंक्तियों की पर अन्त तक बाँधने वाली कविता।अद्भुत भाषा।
मधु सक्सेना जी की कविता स्मृतियों को जीने की अदम्य इच्छा की कविता है।बहुत सघन बहुत ठोस।जहाँ से मधु जी आती हैं वहाँ के खेल का स्थानीय नाम इस कविता में आया है।कविता का लोक से जुड़ाव ऐसे भी होता है।मेरे यहाँ यही खेल दुसरे नाम से जाने जाते हैं।
अखिलेश जी की कविता में गति है।कविता कहीं जा रही है।लय है।एक बेहतर प्रयोग अखिलेश जी।यह कविता अपने में एक यात्रा है।इतिहास से भविष्य की यात्रा।इस कविता में यात्रा के साथ साथ संवाद भी है।


दीप्ती कुशवाह                  
क़माल है कवियों की दृष्टि !! पत्थर भी इठला रहे हैं अपने भाग्य पर...।
इन सारे तैरते पत्थरों को इकठ्ठा कर लिया है । ये फूल बन कर मेरे ख़ज़ाने में जमा हो गए हैं और छाई हुई है इनकी सुगन्ध मेरे आसपास ।

आज कोई द्वितीय पुरस्कार नहीं है, मात्र प्रथम ।
हाँ, विंग कमांडर को विशेष पुरस्कार


घनश्याम दास सोनी 
कुछ विशेष पत्थरों को पानी में तैरते देखा अन्तरिक्ष में सभी प्रकार के पत्थर तैर सकते हें l liइस साकीबा रूपी अन्तरिक्ष में तो संस्कारों, आस्थाओं जीवन की उलझन , बचपन की यादों , महिलाओं की बेबसी तथा मठों मूर्तियों के रूप में पूजते पत्थर को तैरा दिया lll अनोखा है साकीबा जिसमे भाई भाई के बीच रिश्ते में आती दीवार के पत्थरों को  तेरा कर उसे स्थायी नहीं बनने दिया li सभी रचनाकारों को सलाम तथा lइस अनोखे विषय पर रचनाएँ आमंत्रित करने पर साकीबा संचालक समूह को बधाई व आभार, जिनके कारण किसी एक विषय पर इतनी शानदार तथा विविध विचारों की रचनायें पढ़ने मिली l

मधु सक्सेना 
पत्थर ...वो भी तैरते हुए ..
कितने नल और नील हो गए यहां तेरा दिए पत्थर .....हल्के ,भारी ,रंग बिरंगे जाने कितने कितने ....सबके अलग अलग पत्थर ...टूटता बिखरता हुआ , पिघलता हुआ , हंसता और रोता हुआ ।
मूरत बनता हुआ ..।
 जिसने जिस नज़र से देखा वैसा ही बन गया पत्थर ...भावों से भरा ,अपने ही भार से मुक्त तैरता हुआ ...
अलग अलग नज़र ....अलग अलग नज़रिया ..अद्भुत नज़ारा ..
आज पत्थर भी सर झुका लेगें ।जवाब जो नहीं उनके पास ..
सभी की मासूम और बेहतरीन रचनाएँ ..
शुभकनाएं ।

अविनाश तिवारी 
आज बृज जी ने गोटमार मेले.का आयोजन किया है।सब तरफ से अलग अलग अंदाज़ से रंग बिरंगे छोटे बड़े पत्थरों की बौछार हो रही है परन्तु टकराने पर ये फूल का एहसास दे रहे हैं तभी तो सब हस हस कर गन पत्थरों का सितम सह रहे हैं।सबने अपने अपने चश्मे से पत्थरों को देखा है और कल्पनाओं के औजारों से शिल्प तराशे हैं ।सभी संगतराशों का आभार संचालकजी और एडमिनजी का शुक्रिया।👌👍💐 



कविता वर्मा 
तैरते पत्थर शीर्षक अपने आप में एक व्यंजना है जिसके गहन अर्थ हैं। आज शामिल कवितायेँ एक शीर्षक के तहत अलग अलग भावों को प्रेषित कर रही हैं।
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता 'पृथ्वी तो भरी है पत्थरों से-' समाज में व्याप्त पत्थर दिलों की मौजूदगी को कितनी आसानी से बयान करती है।

 पृथ्वी की ओर आने को आतुर जैसे यही सबसे माकूल जगह है पत्थरों के रहने के लिए। वैज्ञानिक धरातल पर लिखी कविता मानवीय स्वाभाव फितरत को बयान करती है।
ब्रजेश जी की कविता
पश्चाताप के समुद्र में
आंसूओं का नमक मिला  
तो बिखर गया भारी पत्थर।पत्थर में मौजूद नरमी को बयान करते हुए उसके अंतस के दुःख के बिखर जाने को दर्शाती हुई बेहद खूबसूरत कविता है।
प्रवेश सोनी की कविता पौराणिक सन्दर्भ को वर्तमान तक सम्प्रेषित करती है
शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से  ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!! बड़ी मारक पंक्तियाँ हैं।
अनीता मांडा जी की कविता भटकते मन की कशमकश और उनके कोई मंजिल न पा पाने के दुःख को बयां करती है।
मधु जी की कविता तैरते पत्थरों के बहाने बचपन की सैर करवाते हुए जिव्वेन की गूढता की ओर इशारा करती है और सोचने पर मजबूर करती है।
बहुत अच्छी लगी आज की कवितायेँ बाकि कविताओं पर थोड़ी देर में।



जतिन अरोरा 
बहुत सुंदर रचना है। हर तरफ पत्थर और पत्थर...भूकम्प से लेकर नींव रास्ते के पत्थर. अंतरिक्ष में भी पत्थर...
पाठक के ताैर पर मैं अंत ढूंढ रहा था।  हर पहलू को उजागर करती रचना अंत मैं मुझे लटका गई। गहरी रचनाओं की मुझे कोई समझ नहीं है और शायद मैं अंत नहीं देख पा रहा हूँ।
आँसुओं में बड़े बड़े दुःख हल्के हो जाते हैं। पत्थर का आँसुओं से बिखरना और दुःख का तैर जाना खूब लिखा है..हर जीवन में कुछ एेसा है जो इस कविता में कहा गया है।


तनूजा चौधरी 
अनुमा,आपके पत्थर आज स्पन्दन से भर गये,ऐसे मे पत्थर होना कोई विडम्बना नही एक उपलब्धि लगती है विभिन्न कोणो से देखकर  कविताऐ जीवित लगने लगी है,दर्द का दर्द से गुणा नही किया जा सकता।बस।



संतोष श्रीवास्तव 
आज साकीबा का अद्भुत रूप देखने मिला ।कविताओं की बानगी और विषय तैरते पत्थर। क्या बात है। सब की एक से बढ़कर एक कविताएं। इतनी ज्यादा समीक्षाएं और प्रतिक्रियाएं पढ़कर अब मैं कुछ कहने लायक स्थिति में तो नहीं हूं। वैसे भी समीक्षक नहीं हूं लेकिन हां बस इतना कहूंगी कि मुझे कविताएं बेहद अच्छी लगी और साकीबा का आज का प्रस्तावित रूप भी बहुत अच्छा लगा ।खासकर विंग कमांडर अनुमा जी का मुस्तैदी से डटे रहना। इसी को कहते हैं स्त्री शक्ति जहां छा जाए वहाँ कमाल कर देती है। अनुमा जी बहुत बधाई ।सभी कवियों को भी बहुत बधाई। शुक्रिया।🌹


उदय ढोली 
बहुत अद्भुत उपक्रम रहाआज. पत्थरों में बहुत ख़ूबसूरत कविता के फूल खिले, साकीबा गुलज़ार हो गया विंग कमांडर अनुमा जी व ग्रुप केप्टन ब्रज जी को साधुवाद.
एक शेर
मील के पत्थर पे लिक्खे हर्फ़ सारे मिट गये,
किससे पूछें अपनी मंज़िल और कितनी दूर है.

कोमल सोमरवाल 
तैरते पत्थर विषय पर बेहतरीन सृजन और भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और भाव पढने को मिले.. ब्रजेश जी ने संस्कारों से, प्रवेश जी ने रामायण से तो अनिता जी ने विज्ञान और बन्धनों से और इस प्रकार सभी विद्वान् जनों की उत्कृष्ट लेखनी से इस विषय के हर आयाम को पढने में एक अनूठा आनन्द आया..    


               


              

           

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