Tuesday, February 9, 2016


मंच(कहानी ) पर प्रस्तुत प्रियवंद की कहानी "होंठो के नीले फूल " वाट्सअप  समूह पर बड़ी मात्रा  प्रशंसको द्वारा पसंद की गई |इस पर  समीक्षक द्रष्टि से भी विस्तृत चर्चा की गई |प्रतिक्रियाओ  के साथ कहानी यहाँ पर प्रस्तुत है |  भी


होंठों के नीले फूल
 ____________ प्रियंवद ______
 बूबा के होंठ बिलकुल लाल थे और बूबा को मौत बहुत अच्छी लगती थी। बूबा हमेशा बहुत धीरे - धीरे मरना चाहती थी। जाडे क़ी कुनमुनी धूप जैसे पूरे बदन पर रेंगती है, बिलकुल उसी तरह बूबा मौत को छूना चाहती थी। '' तुम मेरा गला दबा सकते हो?'' बूबा मुस्कराकर पूछती। '' दबा सकता हूं।'' मैं अपनी हथेली में बूबा की सफेद नर्म गर्दन दबा लेता। बूबा चुपचाप दीवार से सिर टेके आंखें बन्द किये बैठी रहती। मेरी उंगलियों का कसाव बढता जाता, लेकिन बूबा के चेहरे पर कोई सिकुडन नहीं आती। बूबा के गले की नसें उभरने लगतीं और बूबा के गले का वह हिस्सा नीला पड ज़ाता। मैं अपना हाथ हटा लेता और बूबा के गले का वह नीला हिस्सा चूम लेता। '' तुम मेरी मां हो बूबा।'' मैं फुसफुसाया। और फिर बूबा मेरा सिर अपने सीने में दुबका लेती। '' डरपोक, '' बूबा हंस देती और मेरी गर्दन पर उसके दांत धंस जाते। बहुत पहले एक तपती दोपहर में एक पतंग के पीछे भागता हुआ मैं बूबा के घर में घुस आया और बूबा ने मुझे रोक लिया। मेरे हाथों में चप्पल, धूल से सना चेहरा, पसीने और मिट्टी में डूबा पूरा बदन। '' कौन हो तुम?'' बूबा ने मेरा हाथ पकड लिया था। '' वो पतंग'' मैं बिलकुल सन्न रह गया था तब बूबा को देख कर। कहानी किस्सों के पन्नों से फडफ़डाती जैसे कोई राजकुमारी निकल आयी है। गोरा मुंह, लाल होंठ और लम्बे बाल। हंसती तो फूल झरते हैं। रोती है तो मोती। आंखें उदासी से कढी हुई। '' इतने गन्दे - सन्दे घूमते हो, मां नहीं डांटती?'' '' मां नहीं है।'' '' इतने छोटे हो और मां नहीं है! '' बूबा की आवाज भीग गई थी और बूबा ने मुझे अपने बिलकुल पास खींच लिया था। '' तुम रोज आओगे मेरे पास?'' '' क्यों?'' '' क्योंकि तुम्हारी आंखें बहुत अच्छी हैं, बिलकुल सैटेनिक ब्राऊन।'' '' तुम बिलकुल राजकुमारी लगती हो।'' मेरा डर खत्म हो गया था। '' ओ बाबा'' बूबा खिलखिला कर हंस पडी थी। '' तुम क्या किसी का खून पीती हो?'' '' ओ मां'' बूबा हंसते - हंसते गिर पडी थी। '' मेरा नौकर कहता है, जो किसी का खून पीता है उसके होंठ बिलकुल लाल हो जाते हैं, तुम्हारी तरह। बूबा फिर मेरा हाथ पकड क़र खींचती हुई अन्दर ले गई थी। मेरे हाथ - पैर धोकर उसने मुझे न जाने क्या - क्या खिलाया। सीने से लगाये न जाने कितनी देर दुलराती रही और मैं उस तपती दोपहर में अपने अकेले बचपन को हथेली में बन्द किये धीरे धीरे पिघल कर बूबा के अन्दर सिमट गया था। उसके बाद मैं रोज आता रहा। शाम होती और मैं भागता हुआ बूबा के घर पहुंच जाता। बूबा तभी नौकरी से वापस आती हांफती हुई। बाबा की दवा के पैसे बचाने के लिये एक दो मील पैदल चल कर आती वह। बूबा अपना काम करती रहती और मैं कमरे की दहलीज पर चुपचाप बैठा बूबा को देखा करता। बूबा खाना बनाती, कपडे धोती, बिस्तर लगाती, बाबा को खिलाती, दवा देती और फिर सुलाती भी। न जाने कितनी देर हो जाती। कभी - कभी मैं ऊंघने लगता। चौंकता तब जब बूबा हिलाती। '' सो गया क्या?'' बूबा वहीं बैठ जाती '' मैं जाग जाता।'' इतनी देर कर देती हो, कल से नहीं आऊंगा।'' '' नहीं बाबा।'' बूबा मेरा चेहरा अपने हाथों में भरकर अपने लाल होंठ मेरे माथे पर रख देती, कल से देर नहीं करुंगी बस।'' और फिर मेरा सिर खींचकर अपनी गोद में रख लेती। थोडी देर में बूबा की उंगलियां मेरे बालों में, गले में, सीने पर एक बेचैनी के साथ घूमने लगतीं। साथ ही साथ बूबा हमेशा, चुपचाप कोई किताब भी पढती रहती। अक्सर खलील जिब्रान की कविता - दि ब्यूटी ऑफ डेथ। मेरे गाल पर जब कोई बूंद गिरती तब मैं चौंकता। '' तुम रो रही हो बूबा?'' मैं उठ बैठता। बूबा अपने आंसू पौंछ लेती। '' ऐसा क्यों होता है। सुख आदमी को छूता हुआ क्यों निकल जाता है। उसे अपने में समेट कर जम क्यों नहीं जाता, बर्फ की सिल्ली की तरह।'' मैं कुछ नहीं समझ पाता। बूबा को टुकुर - टुकुर देखा करता। बूबा फिर मुझे अपने सीने में दुबकाकर बडबडाते हुए वहशियों की तरह चूमने लगती, '' सुख केवल कोई क्षण होता है रे। मेरा वह क्षण तू है?'' मेरा दम घुटने लगता और मैं फिर उसी तरह पूरे का पूरा पिघलने लग जाता। '' तुम मेरी मां हो बूबा।'' '' हां मैं तेरी मां हूं! '' बूबा फफक कर रो पडती। मैं वैसे ही बूबा के सीने पर सिर रखे लेटा रहता और मेरा चेहरा बूबा के आंसुओं से भीगता रहता। और तब मैं सोचा करता अपने नौकर की बात। वह राजकुमारी जितना रोती थी उतने ही उसके बाल लम्बे होते जाते थे। बूबा के बाल इसलिये लम्बे हैं, क्योंकि बूबा हमेशा रोती है। जमीन का वह टुकडा बिलकुल लाल हो जाता था। गुलमोहर सारी रात बरसते और उसकी पंखुरी - पंखुरी से जैसे वह टुकडा खून से बीग जाता, बिलकुल बूबा के होंठों की तरह। जमीन के उसी सुर्ख टुकडे क़े ऊपर हम बडे होते रहे थे। मैं, बूबा, मेरे अन्दर का आदमी और बूबा के अन्दर की औरत। '' जानते हो, मुझे और तुमको किस चीज ने जोडा है?'' बूबा पूछती। '' नहीं।'' '' अपने होने के बेमानीपन ने।अपने अस्तित्व की निरर्थकता ने।'' न जाने तब कितनी रात बीत चुकी होती। बूबा हमेशा तब ऐसी ही बातें करती। '' हम दोनों एक दूसरे के कन्धों पर सिर रखकर रोते हैं रे। एक दूसरे के अकेलेपन को चुपचाप कुतरते हुए। यही वह जमीन है, जिस पर हम दोनों मिलते हैं।'' मैं बूबा का हाथ अपने हाथों में ले लेता। बिलकुल सूखी झुर्रियों वाला हाथ। बूबा के पूरे बदन से उसका हाथ बिलकुल अलग था। जैसे किसी बूढी औरत की हथेली काटकर बूबा के हाथों में जोड दी गयी है। '' तुम्हारा हाथ ऐसा क्यों है?'' मैं बूबा के हाथ की उभरी नीली नसों पर उंगली फेरता रहता। '' हाथ हमेशा दिल की तरह होता है।'' बूबा हंस पडती, '' तूने कभी ऋग्वेद का गीत सुना है? '' बूबा मुझे अपने पास खींच लेती। '' कौन सा?'' '' यम और यमी का गीत?'' '' नहीं!'' '' जानता है तू यम और यमी भाई - बहन थे। एक दिन यमी ने यम से पूछा, 'तू मेरा कौन है? भाई यम बोला। तेरा धर्म क्या है? यमी ने पूछा। तुझे सुख देना। यम बोला। मुझे रति सुख दे यमी ने याचना की।'' '' बूबा।'' मेरा हाथ कांप गया। '' डरपोक!'' खिलखिला कर हंस पडी बूबा, '' देहातीत होकर सोच एक बार यमी की इस बात को। फिर जीवन दर्शन बना ले _ अपने जीवन के सारे मूल्यों का आधार।'' '' बूबा।'' '' हां रे, यमी की इस बात से अचानक उसका जीवन कितना बडा हो गया है। कितना उनमुक्त, व्यापक और स्पष्ट! ऐसा नहीं है क्या? यह दृष्टान्त तो स्वयं में एक दर्शन है। यमी की दृष्टि कितनी निर्भीक और विस्तृत है। जीवन के छोटे - छोटे टुकडों में उत्तीर्ण। तुझको इसलिये बता रही हूं कि केवल तुझसे ही तो बोल पाती हूं। फिर तुझे तो अभी बहुत बडा होना है। सत्य का अन्वेषी, तटस्थ दृष्टि अबी से सीख ले'' '' लेकिन पाप! '' '' धत्। अगर पाप और पुण्य सत्य हैं तो सुख कुछ भी नहीं होता रे! और अगर सुख सत्य है तो पाप - पुण्य का कोई अस्तित्व नहीं है। सुख की नित्यता तो हम निश्चित ही जानते हैं, इसलिये पाप - पुण्य कुछ नहीं है।'' '' तो यमी की स्थिति।'' '' हां, यमी की स्थिति मान्य है। यमी के जीवन की स्पष्टता मेरा आदर्श है।'' '' और रिश्तों का धर्म?'' '' रिश्तों के नाम जीवन को बहुत छोटे छोटे घेरों में बांध देते हैं। आंखों में कपडा बांधे बैल की तरह आदमी उन्हीं घेरों में घूमता रहता है। यह गलत है। एक बार में आदमी क्या सब रिश्ते नहीं भोग सकता? क्या मेरे और तेरे रिश्ते का कोई नाम है? क्या मैं तेरी सब कुछ नहीं हूं? मां, दोस्त, बहन बोल?'' '' हां, बूबा।'' मैं बूबा की हथेली की नीली नसें चूम लेता। '' तुम मेरी इकलौती आस्था हो, मेरी रक्षिता हो, मेरी कल्याणी।'' मेरी आवाज क़ांपने लगती। बूबा मेरी निगाहों में तब न जाने कितनी ऊपर उठ जाती। ज्ञानी, गंभीर, ममत्वमयी बूबा। '' आ चलें।'' बूबा उठ जाती। गुलमोहर की सुर्ख पंखुरियां बूबा के बालो में उलझी होतीं। '' एक बात पूछूं बूबा?'' मैं ठहर जाता। '' फिर यम ने क्या किया?'' '' उसका कोई महत्व नहीं है रे। देह का अस्तित्व तो कुछ क्षणों का होता है बस।'' '' अच्छा बूबा, तुम जो कुछ कहती हो, क्या सचमुच उतना उनमुक्त होकर कर सकती हो?'' '' शायद,'' बूबा हंस देती, '' अपनी बूबा को समझा नहीं क्या?'' '' समझा तो बिलकल नहीं। रोज नई बूबा को देखता हूं न!'' बूबा खिलखिला पडती, '' यू सेटेनिक ब्राउन? '' और फिर मेरी गर्दन में बूबा के दांत धंस जाते। कभी कभी मैं सोचता कि बूबा इतनी चुप क्यों रहती है, क्यों ऐसी बातें करती है, तो मुझे समझ में नहीं आता। एक दिन बूबा ने मुझे बताया था, '' मेरी पूरी देह मुर्दा ख्वाबों से गुंथी है रे, और जब कभी उन ख्वाबों में से कोई ख्वाब करवट लेता है तो मैं बिलकुल चुप हो जाती हूं। कहीं वह ख्वाब जाग न जाये'' बूबा रो पडी थी फिर, और तब मुझे बूबा के पूरे बदन पर मरे हुए सपने फैले दिखाई पडे थे। मुझे लगा था कि बूबा की देह का कोना कोना हर वक्त कोई न कोई लडाई लडता रहता है और उन्हीं मरे हुए सपनों के बीच, कोने - कोने की लडाई के बीच मेरी बूबा बडी होती रही है। उसके बाद मैं ने कभी कुछ नहीं पूछा। मैं जानता था। बूबा किसी जमीन का कोई ऐसा टुकडा चाहती है, जिस पर बूबा अपने पांव रख सके। थकी हुई हांफती बूबा अब और नहीं लडना चाहती और इसलिये जमीन वह टुकडा कभी यमी की स्थिति होती, कभी खलील जिब्रान की दि ब्यूटी ऑफ डेथ और कभी मैं। बूबा उस रात सर्दी से कांप रही थी। '' अन्दर चलें? '' मैं ने कहा। '' नहीं'' बूबा ने अपना शॉल और कसकर लपेट लिया। बेहद थकी लग रही थी बूबा। न जाने उंगली से क्या - क्या खींचती रही फर्श पर। मैं चुपचाप बैठा देख रहा था। मैं जानता था यही वह क्षण है जब अपने अस्तित्व की निरर्थकता के बोझ से बूबा का दम घुटने लगता है और बूबा सिर्फ मरना चाहती है। बिलकुल धीरे - धीरे। मैं सोच रहा था कि बूबा मुझसे पूछेगी कि क्या मैं उसका गला दबा सकता हूं और मैं बूबा के गले पर अपना हाथ धर दूंगा। '' सुनो'' बूबा बहुत देर बाद बोली। बूबा की आवाज बहुत धीमी थी, '' मैं महसूस करना चाहती हूं कि मैं हूं।'' बूबा सीधे मेरी आंखों में देख रही थी। ''बूबा!'' मैं ने बूबा के चेहरे पर ऐसा तनाव और थकान कभी नहीं देखी थी। बूबा का चेहरा इस सर्दी में भी भीग रहा था। बूबा के साथ हमेशा से चलता हुआ मीलों लम्बा अकेलापन और सन्नाटा भरती हुई शाम की ललछौंही, कुछ ऐसा ही बूबा के चेहरे पर फैला था। '' मैं अपने होने को पूरा, पर जीना चाहती हूं।'' '' मैं समझा नहीं बूबा।'' '' तू मेरे लिये क्या कर सकता है?'' '' कुछ भी।'' '' कुछ भी? सत्य - असत्य से परे, सुख - दु:ख के बिना?'' '' हां बूबा।'' '' मुझे चूमो।'' बूबा ने मेरा हाथ पकड लिया। बूबा की हथेली भीग रही थी। बूबा की आंखें धीरे धीरे बलने लगी थीं। '' बूबा।'' मैं डर रहा था बूबा की सूरत से। उदासी से कढी बूबा की आंखें सिर्फ एक औरत की आंखें रह गई थीं। एक ऐसी औरत जो हमेशा से बूबा के अन्दर थी, बूबा के साथ बडी होती रही, लेकिन बूबा ने उसे कभी अपने से बाहर झांकने नहीं दिया। वह औरत धीरे धीरे बूबा के जिस्म की एक एक नस में फैल गयी थी और आज वही औरत जब बाहर निकलना चाह रही थी तो बूबा की एक एक पर्त एक एक नस चटक रही थी। मैं उठा और धीरे से मैंने बूबा का गला चूम लिया। बिलकुल वही हिस्सा जो मेरे दबाने से नीला पड ज़ाता था। '' मेरे होंठ।'' बूबा फुसफुसायी। बूबा ने अपनी आंखें बन्द कर लीं। मैं ने झुककर बूबा के होंठ चूम लिये। सुर्ख लाल होंठ। एक घूंट भरा हो जैसे मैं ने खून का। '' और'' बूबा की बेचैन उंगलियां मेरी गरदन मेरे सीने पर रेंग रही थीं। '' और'' '' बूबा।'' मैं हांफने लगा। मेरे चेहरे पर पसीना छलछला आया। मेरा बदन कांप रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं अपने आप से छिटक कर अलग हो गया हूं और सिर्फ एक आदमी मेरे अन्दर शेष रह गया है। बहुत पहले मैं ने पूछा था बूबा से कि यम ने क्या किया बूबा ने कहा था, उसका कोई महत्व नहीं है। महत्व है जीवनदृष्टि का, मूल्यों का और मैं ने फिर पूछा था बूबा से कि मूल्यों के लिये तुम जिस तरह से सोचती हो, उतना मुक्त होकर उनको जी सकती हो? '' शायद'' बूबा ने कहा था। मेरी वही बूबा, मेरी इकलौती आस्था मेरे सामने बैठी थी। यमी की जीवन दृष्टि को आदर्श मानने वाली, शाश्वत सत्य की अन्वेषिका, पाप - पुण्य के अनास्तित्व और रिश्तों के धर्म की अध्येत्री, मेरी रक्षिता - मेरी कल्याणी, मेरी मां। '' मुझे सुख दे रे मुझे विस्तार दे।'' बूबा ने खींच लिया। ''बूबा'' मैं कुछ कहना चाहता था। लेकिन अचानक ही बूबा की आंखों में, होंठों पर, सैकडों मरे सपने करवट बदलने लगे। बूबा की हांफती सांसों को किसी ज़मीन का एक टुकडा चाहिये था, जिस पर रुककर बूबा कुछ गहरी सांसें ले सके। मैं सिर्फ बुदबुदा कर रह गया। और मैं, सिर्फ एक आदमी, बूबा के, सिर्फ एक औरत के सीने पर हांफता हुआ गिर पडा। सुबह जब मैं गया तो बहुत सन्नाटा था। बाबा कमरे में सो रहे थे। कमरे की दहलीज पर धूप का एक टुकडा रेंग रहा था। बूबा कहीं नहीं दिखी। मैं वहीं एक कोने में बैठ गया। कुछ देर में बूबा बाथरूम से निकली। वही पुरानी उदासी से कढी आंखें। सूजी हुईं। सारी रात रोई थी शायद बूबा। होंठ भी कुछ छिले हुए और सूज रहे थे। मुझे देखते ही बूबा चौंक गयी। मेरी आंखें झुक गयीं। '' तू आ गया रे!'' देख तो मेरे होंठ कैसे नीले हो गये हैं! बिलकुल जहर में डूबे। सारी रात तो धोया है मैं ने इन्हें, लेकिन यह रंग छूटता ही नहीं।'' बडबडाती हुई बूबा फिर नल पर चली गयी। मैं फूट - फूट कर रो पडा। ''ओ अनामा, अदृष्टा मंत्रकर्ता, तुम्हारी कथा अधूरी थी। आगे क्या हुआ, यह मैं बताता हूं। शाश्वत सत्य की अन्वेषिका यमी देह सत्य को अपने जीवन के स्तर पर जी नहीं पायी और उसके होंठ नीले पड ग़ये। मेरी बूबा की तरह जहर में डूबे दो नीले फूलों जैसे होंठ।''




 प्रतिक्रियाये

05/02/2016, 09:05 - ‪+91 98974 10300‬: मार्मिक कहानी।मुक्त स्त्री कितनी मुक्त ? जिसे अकुंठ भाव से न जिया जा सके ऐसे सुख को दूर से नमस्कार कर देना ही भला। जीवनमूल्य तोड़ना वस्तुतः स्वयं को तोड़ना है।

05/02/2016, 09:32 - Mukesh Kumar Sinha: उफ़ ऐसी कहानी किसी प्लॉट से नही जनमती इसको लिखने से पहले पता नही कितनी बार इसको कहानीकार ने अपने अंदर जीया होगा !! मेरे लिए बस एक शब्द है - गजब!!
 05/02/2016, 10:26 - shivani sharma Ajmer: बूबा अपने जीवन को अभिशाप की तरह जी रही थी। परिवार के नाम पर बूढ़े बिमार बाबा और उनके इलाज के लिए पैसे बचाने को मिलों पैदल चलती बिना! तो अपनी इच्छाओं को कहाँ जी सकती थी वो? पर इससे इच्छाएं मर तो न जाती हैं! भीतर सुलगती रहती हैं । बूबा पहले मरना चाहती थी वो भी धीमे-धीमे जैसे वो रोज़ महसूस करती थी.... पर नायक के उसके जीवन मे प्रवेश ने बूबा के अंतस्थल में दम तोड़ती नैसर्गिक अभिलाषाओं को जैसे पुनर्जन्म दे दिया था! जब वो बच्चा था तो बूबा ने उसे माँ, बहन,सखी की तरह प्रेम दिया पर प्रेम का ये संबंध संभवतः यौवन की दहलीज पर अपने दूसरे रूप में मुखरित हो कर सामने आया यकायक! जिसकी संभवतः दोनों ने कल्पना भी न की होगी। 05/02/2016, 10:26 - shivani sharma Ajmer: मैं नहीं जानती कि यमि और यम की कथा में कितनी सत्यता है पर बूबा की कथा कही आसपास घटती-सी लगी। ईश्‍वर ने सिर्फ देह नहीं दी है उसके साथ अभिलाषाएँ और एहसास भी दिए हैं .... सामाजिक दायरों में भले ही कहानी सही न उतरती है पर कही न कही सच है। बूबा ने सामाजिक मान्यताओं के कारण ही इतने वर्षों तक स्वयं को किसी भी भटकाव से रोका रखा । अंत में बस इतना ही की मैं बूबा के साथ हूं.....

05/02/2016, 10:50 - Pravesh: ललिता जी ,मुकेश सिन्हा ,धन्यवाद अनुराग जी कहानी में बूबा का संघर्ष भी वर्णित है ,बूढ़े बीमार बाबा । शिवानी आपने कहानी के तह तक पहुँच कर अपनी प्रतिक्रया दी ,धन्यवाद । कभी कभी जिम्मेदारी भी जिंदगी को अभिशाप समान कर देती है ।जैसे बूबा का जीवन जिसमे अभिलाषाएं मरे हुए स्वप्न के समान उनकी जिंदगी से लिपटी रहती है । क्या अभिलाषाएं सच में मर जाती है ? बूबा की बूढ़ी काया में किस तरह एक अतृप्त स्त्री रहती थी...? जैसे सवालों से रूबरू कराती, इस कहानी पर मंच के वरीय कहानीकार सर्वश्री नवनीत मिश्रजी , राकेश बिहारीजी , राजनारायण बोहरेजी , राजेन्द्र दानीजी , जयश्री, प्रज्ञाजी, प्रज्ञा पाण्येयजी, जगदीश तोमरजी,निरंजन श्रोत्रिय जी व् राज हीरामनजी से विशेष टिप्पणी की अपेक्षा मंच को है ।

05/02/2016, 12:05 - Sandhya: कितने भी दायरे तोड़े जाएँ एक ग्रंथि पीछा नहीं छोड़ती ।बढ़िया मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है प्रियवंद जी ने 💥 05/02/2016, 12:20 - Saksena Madhu: सहमत हूँ प्रवेश ... मैं भी इंतज़ार कर रही हूँ वे निवेदन भी 🙏 सबकी टीप का ।


05/02/2016, 15:01 - Jaishree Rai: त्याग तपस्या के भव्य मन्दिर के नीचे इच्छाओं की कच्ची कब्र होती है जिसमें दफ़न जिन्दा देह क़यामत तक बेआवाज़ धुआंती रहती है। बसंत के स्वप्न डाकिन चुड़ैले बन हर मौसम हू हू करते फिरते हैं, आसेब बन रूह में उतरते हैं... अभिशप्त कामनाएं कुँवारी जो नहीँ मर पातीं, जीती है मृत्यु की प्रतीक्षा में, पूरे अज़ाब से गुज़रती हैं! और तभी ऐसा विस्फोट होता है। पके घाव-सी दमित इच्छाएं फूटती हैं, मवाद बहता है, दुर्गन्ध फैलती है... जीवित ईप्सा के दमन के ये विकट परिणाम हैं। देह को उसका धर्म निभाना होता है, उसे जीना होता है अपने हिस्से का सुख वरना ऐसी ही विक्षिप्त हो जाती है एक दिन, उसका रगो रेश अपने ही विष से नीला पड़ जाता है... 05/02/2016, 15:05 - Pravesh: आह ,जयश्री जी खूब कहा , त्याग तपस्या के भव्य मंदिर ....आपकी भाषा प्रशंसनीय है ,लगा कहानी का ही अंश है । धन्यवाद ।

05/02/2016, 15:54 - ‪+91 94257 11784‬: ....सुख ही सत्य है , इसके समर्थन में बूबा यम यमी के गीत की चर्चा करती है ।उस गीत में यमी पूछती है , तू मेरा कौन है ?यम ने कहा, भाई ।यमी ने फिर पूछा, तेरा धर्म क्या है ?यम ने उत्तर दिया , तुझे सुख देना । तब यमी ने याचना की , मुझे रति सुख दे । इस चर्चा का आशय यही कि यम अपने धर्म का पालन कर यमी को सुख प्रदान करे । स्थूलतः यह कहानी बूबा और एक पतंग के पीछे पीछे दौडते हुए एक तरुणोन्मुखी किशोर की कहानी है ।वह लडका मां विहीन है ।वे दोनों प्रतिदिन मिलते रहते हैं ।और फिर जैसा कि वह लडका कहता है ,.....जमीन के उस सुर्ख टुकडे के ऊपर हम बडे होते रहे।मैं, बूबा , मेरे अंदर का आदमी और बूबा के अंदर की औरत । और एक दिन बूबा ने बताया , मेरी देह मुर्दा ख्वाबों से गुंथी हुई है । और फिर एक दिन एक ख्वाब ने करवट ली ।बूबा ने कहा-कहा-मै पने होने को पूरा जीना चाहती हूँ ।.... वस्तुतः बूबा की दृष्टि में सुख ही नित्य है, पाप पुण्य कुछ नहीं है । किन्तु नीतिशास्त्री, समाज शास्त्री इस विचार से शायद ही सहमत होंगे।वैसे श्री प्रियंवद जी ने यह प्रेम कहानी इतने सशक्त ढंग से लिखी है कि बहुत संभव है पाठकों की एक बडी संख्या बूबा के पक्ष में खडी दिख पडे । बहरहाल बहुत विचारोत्तेजक और अत्यंत मार्मिक कहानी के लिए श्री प्रियंवद जी को बहुत बहुत बधाई ।मंच नियामक श्री राजेश झरपुरे जी, मधु जी , प्रवेश जी को अत्यंत विशिष्ट कहानी पढने का अवसर प्रदान किए जाने के लिए अनेकशः धन्यवाद ।


05/02/2016, 17:21 - Jaishree Rai: हम मनुष्य हैं मनुष्य ही बने रहना चाहते हैं। देह की भूख में आत्मा को होम नहीँ कर सकते। अगर एक्सट्रीम की बात ना करे तो सिर्फ देहिक भूख के वशीभूत हो कर हम पशुओं का सा आचरण नहीँ कर सकते। भूख में अपने पुत्रवत् पुरुष को भोगना... पढ़ कर जुगुप्सा जागती है, मानसिक यंत्रणा होती है। कथा नायक इस धरा का अंतिम पुरुष नहीँ है, अगर देह की भूख इस चरम पर है तो बुबा कहीं और भी अपना सुख तलाश सकती थी! मगर उसने अपने पुत्र को चुना!! संक्षेप में कहें तो दैहिक भूख से विक्षिप्त एक स्त्री की त्रासद कहांनी जिसके लिए किसी भी सम्बन्ध का कोई अर्थ नहीं रह गया है। वह बस भूख की लपलपाती अग्नि है जिस में सब कुछ् जल कर होम हो जाता है। यह स्थिति मनुष्य समाज और मनुष्यता के लिए किसी दुःस्वप्न की तरह भयावह और रुग्ण है। कथा नायिका अपनी कुंठाओं और ग्रंथियों का एक गुंजल मात्र है जिसके बारे में सोच कर अवसाद ही उपजता है।


05/02/2016, 17:53 - ‪+91 94310 49640‬: आज तो हद ही हो गई। क्या हमारे गुणी और परम आदरणीय साहित्यकारों के पास कोई और रिश्ता बचा है जहां दैहिक सुख और अतृप्त इच्छाओं के लिए के लिए नैतिकता की तिलांजलि संभव हो। अभी तक पति पत्नी, भाई बहन और आज माँ बेटे के रिश्ते में? शब्द शिल्प, भाषा प्रवाह और सुन्दर शब्दों के चादर में लिपटी एक बेहद घटिया सोच की कहानी। आज जिस तरह से इस कहानी को महिला सदस्यों की तारीफ़ मिली वो भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। वो दिन दूर नहीं जब जल्दी ही एक कहानी पढने को मिलेगी जिसमें एक लड़की अपने पिता को सम्हालने के लिए आजीवन अविवाहित रहती है। फिर शब्दों के जाल में फंसा कर आदरणीय साहित्यकार बड़े गर्व से ये बताएँगे कि उस लड़की की शारीरिक भूख या so called एक औरत की पूर्णता के लिए पिता उसके साथ हमबिस्तर हो जाता है। हर बार की तरह हमारे माननीय सदस्य कहानी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करेंगे । अगर विवाद हुआ तो कह देंगे "ये तो समाज में बदलाव का द्योतक है" या फिर ये कहेंगे "ये तो घर घर की कहानी है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं"। हे भगवान ये किस तरह की नैतिकता और सोच हम अपने भविष्य के लिए परोस रहे हैं या छोड़े जा रहें है।


05/02/2016, 18:23 - Niranjan Shotriy sir: प्रियंवद की यह कहानी एक स्त्री-मन के आंतरिक संस्तरों, उसकी जटिलताओं, अतृप्त इच्छाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती कहानी है। मैं मधु जी, अनुराग भाई ,जयश्री जी और राज रंजन जी से सहमत हूँ कि यह कहानी हमारे रिश्तों की बुनियाद को दरकाती है। लेकिन यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि कहानी का टेक्स्ट पहली बार में एक औसत भारतीय मानस के लिए स्वीकार्य नहीं। वह इसे एक किस्म की 'अराजक' मुक्ति ही मानेगा--हर स्तर पर। पिछले दिनों ए. असफल की कहानी भी कुछ इसी तरह की अवधारणा पर इसी मंच पर पढ़ी थी लेकिन कहानी की कला, शिल्प, संवेदनों के स्तर पर यह कहानी उस कहानी से बहुत आगे है। दरअसल कई बार हमारे भारतीय मानस में रचा-बसा शुद्धतावादी सोच हमें उन जटिलताओं को स्वीकार नहीं करता जो हमारे इसी समाज की व्याप्ति हैं। यह कहानी किसी अनैतिक सम्बन्ध (वह भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में) की वकालत कर रही हो, ऐसा कथाकार का आग्रह नहीं लगता। मेरा निवेदन केवल यह कि इसे एक सम्भव जटिलता/ मनोविज्ञान की दृष्टि से देखना उचित होगा। हमारे अभ्यस्त मानस को हिला देने वाली घटनाएँ भी हम लोग आए दिन पढ़ते-सुनते हैं। कथाकार ने यदि अवधारणा के स्तर पर यह कथानक चुना है तो हमें उसकी तरफ से भी सोचना चाहिए। यह बात ध्यान में रखें कि यहाँ लेखक एक बहुत ही जटिल सम्बन्ध/स्थितियों/उलझनों की मनोवैज्ञानिक कहानी लिख रहा है। क्या हमने "fathers fixation", "electra complex" जैसी शब्दावलियाँ नहीं सुनी ? मेरा निजी मत यह है कि इसे एक कलात्मक कहानी की तरह देखें। हर कहानी में "मॉरल ऑफ़ स्टोरी" न तलाशें।

 05/02/2016, 19:47 - Rajesh Jharpare Dastak Kahani: प्रियवंदजी की यह कहानी एक अपवित्र पेड़ से ली गई हैं। मुझे आभास होता कि इस कहानी पर इतनी गहन चर्चा होने वाली है तो आज छुट्टी लेकर घर बैठता और आप सब लोगों के साथ विमर्श में भाग लेता। प्रियवंदजी की कहानियाँ तो कहानी की पाठशाला होती हैं। जीवन की विराटताओं को समेटते हुए, मानवीय आस्थाओं को जिस सूक्ष्मता से उनकी कहानियों में चित्रण मिलता हैं, वह अन्यत्र कहाँ...? मंच पर हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार और समीक्षक हैं। आज जिस तरह से कहानी पर शिवानी शर्मा , जयश्री लीना मलहोत्रा जी व अन्य ने अपने विचार रखे मैं एक पाठक के तौर पर उनसे पूरी तरह सहमत हूँ। यहाँ नैतिकता, अनैतिकता का प्रश्न कथानक से परे हैं। यह एक स्त्री के गहरे मनोविज्ञान की कथा है,जिसे लिखते हुए लेखक न जाने किस तरह की विषम परिस्थितियों से गुजरे होगेे। असफलजी की कहानी राधाकृष्ण में भाई बहन के बीच के रिश्ते का सबसे पहले मैंने ही विरोध किया था। वहाँ सम्बन्धों के पीछे न ऐसी कोई परिस्थिति नहीं थी जिसे समाजिक या नैतिक कहा जा सकता था। लगभग वही स्थिति यहाँ भी हैं। बूबा नायक को बचपने में जब चूमती हैं तो कहती हैं ’’सुख केवल कोई क्षण होता है रे। मेरा वह क्षण तू हैं।‘‘ यह वह क्षण थे जब बूबा के अन्दर की माँ उसे चूमकर तृप्त होती हैं। उन दोनों के बीच जो सम्बन्ध थे वह उनके होने के बेमानीपन ने स्थापित किया था। वे दोनों एक दूसरे के अकेलेपन को चुपचाप कतरते रहते थे। बूबा यमी के जीवन को अपना आदर्श मान चुकी थी। अगर सुख सत्य हैं तो पाप और पुूण्य को कोई अस्तित्व नहीं हैं। जो सुख की नित्यता को जानता हैं वह नैतिक और अनैतिक से परे होगा। वह जानती हैं देह का अस्तित्व कुछ क्षणें का होता हैं। नायक की माँ बचपन में मर चुकी थी। बूबा अपने बीमार पिता के साथ अकेली रहती थी। कहानी में स्पष्ट हैं कि बूबा के जीवन में पहले बालक,फिर युवा के रूप में नायक ही आया और नायक के जीवन में पहली स्त्री बूबा ही थी। नायक की युवावस्था में अपने आपको पूरा जीने की इच्छा होना . बूबा की दमित इच्छा की तरफ इशारा तो करती ही हैं साथ ही एक स्त्री के स्त्री होने की अपूर्णता और खालीपन को भी प्रदर्षित करती हैं, जिसके बिना स्त्री होना शापित होने जैसा होता हैं। यह ठीक हैं हमारा समाज अभी इतना विकृत नहीं हुआ है कि इस तरह के सम्बन्ध आम हो। पर अपने जीवन में हर तरह के दवाबों को झेलती हुई स्त्री की कुंठित इच्छा के प्रकटीकरण पर इसे मात्र एक स्त्री विशेष की दमित कुठा ही कहा जा सकता हैं। लेकिन यह कहानी इस तरह के किसी अनैतिक सम्बन्धों की वकालत नहीं करती । बस! एक परिस्थिति विशेष में घटित सम्बन्ध का बड़े ही मनोवैज्ञानिक तौर पर विश्लेषण करती हैं। हम इसे गहरे मनोविज्ञान की कथा कह सकते हैं जिसमें लेखक ने बड़े ही कलात्मक तरीके से गढ़ा हैं। 05/02/2016, 20:37 - ‪+91 98260 44741‬: गहरे मनोवैज्ञानिक स्तर पर लिखी गयी कहानी। औरत की दमित इच्छाओं आकाँक्षाओं का कुंठा के रूप में उसके मन में एक गांठ के रूप में पनपते रहना। रात के गहन अंधकार में जो अमृत लग रहा था वही दिन के उजाले में विष प्रतीत होने लगा। लेकिन उस जमीन को विस्तार देने में वह लड़का मूल्यों के टूटने की ग्लानि में उम्र भर किस तरह झुलसता रहेगा , वो किस कुंठा में आगे जी सकेगा, उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह नहीं सोचा औरत ने। बहुत ही लाजवाब कहानी। लेखक ने निष्पक्ष रहकर दोनों की मानसिक जरूरतों का बहुत गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। आभार 🙏🙏🙏🙏🙏😊😊

05/02/2016, 22:36 - ‪+91 99313 45882‬: " होठों के नीले फूल " सार्त्र के अस्तित्ववाद से प्रभावित कथा है जहां नीले फूल जीवन के दुःख और संत्रास का प्रतीक है ! गौर करनेवाली बात है कि बूबा को मौत बहुत अच्छी लगती है और मौत उसी को अच्छी लगती या लग सकती है जिसके लिए existence purposeless हो गया हो ! लाल होठोंवाली बूबा एक किशोर-वय लड़के को यम-यमी की कथा सुनाती है ! क्या बूबा के पास दूसरी कोई कथा नहीं है ? नहीं ऐसी बात नहीं है ! यमी की जीवन-दृष्टी के माध्यम से बूबा स्त्री की दैहिक-मुक्ति का आख्यान रचती है ! बूबा को यम की जीवन-दृष्टि से कोई मतलब नहीं है ! वह स्त्री-जीवन का सम्पूर्ण सुख चाहती है ! जीवन का हर क्षण भोगना चाहती है ! बूबा अनजाने ही सार्त्र के क्षणवाद से प्रभावित है और साथ ही सार्त्र की प्रेमिका सीमोन के स्त्रीमुक्तिवाद से ! द्रस्तव्य है कि यम-यमी की कथा आर्य -वांग्मय की वह कथा है जहां से दैहिक-नैतिकता की शुरुआत होती है लेकिन देह की महत्ता के साथ ! क्योंकि ऋग्वेद में वर्णित कथा के अनुसार यम सगी बहन यमी की यौन-याचना का इनकार तो करता है लेकिन साथ ही यह भी कहता है कि " यमी तुम जवान हो , तुम्हे मेरे जैसे कितने ही पुरुष मिल जाएंगे ! तुम्हे उन पुरुषों से सम्बन्ध बनाना चाहिए ।" ( इस अंश को प्रियंवद जी ने अप्रासांगिक मानकर छोड़ा है ) ।कथा में खलील जिब्रान के जिस सूफियाना गीत का जिक्र है उससे भी अस्तित्ववाद की ही झलक मिलती है ! प्रियंवद एक सधे हुए कलमकार रहे हैं ! हिंदी के सर्वोच्च आधुनिक कथाकारों में उनका स्थान है ! वर्षों से उनकी ढेरों खूबसूरत कहानियां पढ़ीं हैं ! मैं प्रियंवद जी के सुदीर्घ जीवन की कामना करता हूँ ! और राजेश जी को एक बेहद खूबसूरत कहानी के प्रस्तुतिकरण के लिए धन्यवाद् देता हूँ !

05/02/2016, 22:47 - Rakesh Bihari Ji: प्रियंवद जी की यह संभवतः तीसरी कहानी है। लगभग 35 वर्ष पहले की लिखी हुई। कहानी की तराशी हुई भाषा, कथानक का बहाव, कहानी की सम्पूर्णता में रचा-बसा सम्मोहन, कहानी के पात्रों के भीतर उठती-गिरती द्वंद्व की छोटी-बड़ी लहरें और कहानी ख़त्म होने के बाद पाठकों के भीतर उठने वाला बवंडर... एक कहानी की सफलता के लिए और क्या चाहिए? एक बारगी विश्वास नहीं होता कि यह लेखक की तीसरी कहानी है। एक समाज के रूप में हम आज भी कितने बंद और एकरैखिक हैं, उसका अंदाजा भी आज की बहस के कुछ रंगों को देख कर सहज ही लगाया जा सकता है। क्या कहानी को हमेशा और अनिवार्यतः किसी नीति कथा की तरह ही पेश आना चाहिए? प्रेम और देह के मनोविज्ञान की गुत्थियां क्या इतनी सरल रैखिक होती है कि हम इतनी आसानी से निर्णयात्मक हो जाएँ? नैतिक-अनैतिक, स्वीकार्य-त्याज्य, करणीय-अकरणीय आदि की स्पष्ट खांचेबन्दी से अलग मानव मन के जटिल अवगुंठनों का बनना-टूटना किसी कहानी का कथ्य क्यों नहीं हो सकता? क्या कहानी के लिए कोई विषय त्याज्य या वर्जित हो सकता है? आखिर वह कौन सी नैतिकता है जो यम-यमी, ब्रह्मा-सरस्वती आदि पौराणिक कथाओं को तो तमाम प्रश्नों से ऊपर मानती है लेकिन समाज में घटित होनेवाली ऐसी घटनाओं का जिक्र होते ही अपने नख-दन्त के साथ अवतरित हो जाती हैं? कहानी पर सीधी बात किये बिना इन प्रश्नो से रूबरू होने के पीछे आज की चर्चा में उठाये गए कुछ प्रश्न ही हैं। अब बात कहानी की। बूबा और कथानायक के मानसिक अवगुंठनों के इर्द गिर्द रची गई यह कहानी प्रेम की जटिलताओं के बीच पात्रों के मानसिक अंतर्द्वंद्व को बहुत गहराई से उकेरती है। सामाजिक मूल्यों और नैतिकताओं के सर्वस्वीकृत मानदंडों से इतर दैहिक सम्बन्ध के घटित होने के बाद कथा-पात्रों के मानसिक तनाव और इस सम्बन्ध की पूर्वपीठिका के रेशों से बुनी गई यह कहानी कहीं से किसी विकृत सम्बन्ध के पक्ष में तो खड़ी नहीं होती, लेकिन प्रेम के जिस ताने बाने को प्रस्तावित करना चाहती है, उसमें खुद ही उलझ जाती है। जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से माँ और बेटे का सम्बन्ध कह रहे हैं, वह प्रेम का सर्वोच्च और उदात्त रूप है जहाँ पति पत्नी और प्रेमी प्रेमिका का रिश्ता माँ और संतान के रिश्ते में बदल जाता है। आरम्भ से ही कहानी में मौजूद प्रेम और कामना के मद्धम स्वर को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है। लेकिन प्रेम के उस उदात्त रूप की स्थापना के लिए यम-यमी का प्रसंग यहाँ युक्तिसंगत नहीं लगता। जो लोग ऋग्वेद की उस कहानी से परिचित हैं, उन्हें पता है कि यमी ने उस सम्बन्ध के लिए इंकार कर दिया था, जिसका संकेत कहानी के अंत में भी है। लेकिन इस कहानी में ऐसा नहीं होता। जाहिर है यमी और बूबा के होठों के नीला पड़ने में अंतर है। यमी के होठों का नीला होना जहाँ उसके मानसिक अंतर्द्वंद्व की परिणति है वहीं बूबा के होठों का नीला पड़ना उसके पश्चाताप का प्रतिफल है। मेरी समझ से बूबा और कथा नायक के बीच सम्बन्ध का घटित होना ही कहानी की कमजोरी है। बेहतर होता कहानी कथा पात्रों के भीतर की उलझनों, द्वन्द और संत्रास के साथ ही समाप्त होती। लेकिन प्रियंवद जी की कई कहानियों में ऐसा होता है। प्रेम और देह को लेकर जिस नैतिकता को वे प्रस्तावित करना चाहते हैं, कहानी के अंत तक आते-आते उनके पात्र अपनी उसी प्रस्तावना को ले कर विचलित हो जाते हैं। हो सकता है यह मेरी समझ की सीमा हो, लेकिन उनकी कहानियों का प्रशंसक होने के बावजूद यह बात मुझे हमेशा से परेशान करती है। 

06/02/2016, 07:17 - ‪+91 99313 45882‬: रात में बार बार झपकी आने से आपके आवाजाही वाले प्रश्न से रूबरू नहीं हो सका राकेश जी ! सॉरी !🙏🙏 इस सन्दर्भ में मेरा यह कहना है कि व्यक्ति और समाज के बीच रास्ता हमेशा सँकरा ही रहा है और आगे भी रहेगा ! इस सँकरे रास्ते को चौड़ा करने का प्रयास शुरू से ही दार्शनिकों ने और लेखकों ने किया है हालांकि वे इस प्रयास में लथारे गए हैं , उपेक्षित किये गए हैं ! एक MBBS डॉक्टर फ्रायड को क्या पड़ी थी जो वह Body Anatomy की दुनिया छोड़कर मन की गहराइयों में गोता लगाने मनोविज्ञान व मनोविश्लेषण के क्षेत्र में आता । चाहता तो वह एक अच्छा Physician बनकर आराम की जिंदगी व्यतीत कर सकता था ! एक MBBS डॉक्टर तस्लीमा को क्या पड़ी थी जो वह अपनी अच्छी खासी नौकरी और Practice छोड़कर लेखन में आती ! ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसे लोंगों के पास कुछ ऐसी सच्चाइयाँ थीं जिन्हें वे व्यक्त करना चाहते थे ! लेकिन सँकरे रास्ते पर चलनेवाले लोंगों को यह मंजूर नहीं था ! कीर्केगार्ड से लेकर हैवलॉक एलिस तक ऐसे तमाम दार्शनिकों ने व्यक्ति और समाज के बीच के सँकरे रास्ते को चौड़ा करना चाहा लेकिन---! हिंदी के साहित्यकारों में अज्ञेय , जैनेन्द्र , धर्मवीर भारती , इलाचंद्र जोशी , कृष्ण बलदेव वैद्य से लेकर वर्तमान में प्रियंवद तक ढेरों ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने यथार्थ की जमीन पर कहानियाँ लिखीं ! लेखिकाओं में मृदुला गर्ग , मैत्रेयी पुष्पा , प्रभा खेतान से लेकर वर्तमान में जयश्री रॉय तक ने यथार्थपरक कहानियां लिखीं ! इन सभी लेखकों लेखिकाओं ने व्यक्ति और समाज के बीच के सँकरे रास्ते को चौड़ा करने का प्रयास किया जिससे आवाजाही आसान हो सके ! लेकिन इनपर जब तब उंगलियां उठती रहीं ! इन लेखक लेखिकाओं के पास आदर्शवादियों की तरह कोई मुखौटा नहीं था !--सादर राकेश बिहारी जी🙏


06/02/2016, 08:29 - Rakesh Bihari Ji: बहुत सही, शेखर जी। कल की पूरी बहस एक रचनात्मक अंत की तरफ अग्रसर है। निश्चित तौर पर व्यक्ति की निजताओं और सामाजिक आचारसंहिताओं के बीच आवाजाही का सिलसिला बहुत आसान नहीं होता। वह भी तब जब संवाद की भूमि मन का वह गोपन कोना हो जिस पर मुंह खोलना अपराध करार दिए जाने की हद तक वर्जित रहा हो। इस सन्दर्भ के सभी लेखकीय, बौद्धिक और दार्शनिक प्रयास हर वक्त उस वर्जित की स्वीकार्यता की लड़ाई ही नहीं लड़ते बल्कि उनका ज्यादा जोर उस पर संवाद शुरू करने से होता है। हमारे संस्कार तब आहत होते हैं जब किसी रचना में वर्णित उस वर्जित यथार्थ को ही एक प्रस्तावित नैतिक निष्कर्ष मान लेते हैं, जैसा कि कल इस सन्दर्भ में भी हुआ। जबकि रचना का मर्म यथार्थ का अंकन या उसकी स्वीकृति के लिए वकालत नहीं होती बल्कि उस यथार्थ के भीतरी परतों में विन्यस्त वो जटिलताएं होती हैं जो सतह पर सामान्यतः नहीं दिखती हैं। यह कहानी भी वैसी ही है। यानी कहानी का मर्म बूबा और कथानायक के बीच घटित देह सम्बन्ध की सामाजिक स्वीकार्यता में नहीं बल्कि उसके उपरान्त उनके भीतर उतपन्न अपराधबोध में है। यदि ऐसा नहीं होता तो कहानी उस घटित के उत्सव में बदल कर रह जाती। पात्रों का गिल्ट ही यहाँ यथार्थ को कहानी में बदलता है। निश्चित तौर पर ऐसे गोपन और जटिल मुद्दों पर बात करना लेखक और पाठक दोनों के लिए असहज करनेवाला प्रसंग होता है। यदि इसी कहानी में पात्रों का जेंडर बदल दिया जाए तो बहस का रुख हो सकता है कुछ और हो जाय। इसीलिए दर्शन और मनोविज्ञान के रचना में उतरते ही उसके सामाजिक सन्दर्भों पर चर्चा जरूरी हो जाती है। इस सार्थक विमर्श के लिए आप सबका बहुत आभार। यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। 🙏🙏🙏 06/02/2016, 08:45 - Rajnarayan Bohare: सारिका पत्रिका ने अरसे पहले "देह विशेषांक" निकाला था पिछले कुछ दिनों की कहानियां देख वह विशेषांक याद आ गया।हम अपने ग्रुप के इस आयोजन को प्रेम कथा केंद्रित आयोजन कहने पर क्यूँ अड़े है इसे देह और प्रेम से जुड़ी कहानियां कह सकते है।अपने तर्क बदलते हुए कभी इस ग्रुप पर रिश्ते बदनाम कर देने वाली कहानियो को लेके हाय तोबा करते है तो कभी मनोविज्ञान के विचारकों की थ्योरियो को बोसीदा किताबो से निकाल के प्रियम्वद की इस कहानी के सन्देश और घटना क्रम को ज़ायज़ ठहराने की कोशिश करते है। जहां तक यम और यमी का प्रसंग है वह इस कहानी के प्रसंग में कतई प्रासंगिक नही।प्रियम्वद हिन्दी में एक विशिष्ट भाव के क्लासिक लेखक है लेकिन कोई भी आख्यान अगर उनका लिखा हुआ है तो हम हॉकी के गोलकीपर की तरह सज धज के गोल नही करने देने या कहे कि विरोध में कुछ भी न कहने देने की कोशिश काहे करने पर अड़े है।इसे न तो आलोचकों की निष्पक्षता कहा जा सकता है और ना ही हिंदी के पाठको को कतई अज्ञानी ।हाँ आज भी हम ऐसे रिश्तों को कई जगह देख सकते है पर उन्हें तर्क और व्याख्या के औज़ारों से चमकदार और दर्शनीय वस्तु की तरह रेखांकित नही किया जा सकता।सूचनार्थ यह भी कि प्रियमवद की अधिकाँश कहानियां हमने पढ़ रखी है। 
06/02/2016, 10:17 - ‪+91 99313 45882‬: सामाजिक सन्दर्भ में किसी रचना की विवेचना एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है राकेश जी ! हर सच्चे रचनाकार को इस प्रश्न से टकराना होता है ! लेकिन विडम्बना यह है कि समाज यथास्थितीवाद पसंद करता है और लेखक को यह यथास्थितिवाद पसंद नहीं ! लेखक उसे तोड़ना चाहता है ! लेखक मनुष्य की मूल प्रवृत्ती , मनुष्य के instinct की खोज-खबर लेता है ! लेखक के लिए जितना महत्वपूर्ण समाज है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य है ! जब मनुष्य ही नहीं तो समाज किस बात का ! मैं बोहरे जी की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि यहां कोई प्रियंवद जी की कहानी या या उसमे यम-यमी के प्रसंग को जायज ठहराने की कोशिश कर रहा है और ऐसी कोशिश करके वह समाज की संरचना को ध्वस्त करने की कोशिश कर रहा है ! ऐसी कोई बात नहीं है ! और ऐसा करके किसी को क्या लाभ मिलनेवाला है ! लेकिन इस कहानी के नाते जो बहस छिड़ी है उससे यह निष्कर्ष तो सामने आना ही चाहिए कि आखिर एक लेखक के लेखन की सीमारेखा क्या है ? क्या सामजिक सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए मनुष्य की मूल वृत्ति को छुपाया जाय या फिर एक लेखक की लेखनी को बंद तालाब में फेंक दिया जाय ! मुझे एक मशहूर वाकया याद आ रहा है , मेरे जन्म से पहले का ! पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र ने एक उपन्यास लिखा--चॉकलेट ! इस उपन्यास को तत्कालीन दिग्गज आलोचक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने " घासलेटी साहित्य " की संज्ञा दी ! और उस उपन्यास को एक अश्लील , वाहयात और समाज के लिए घातक मानते हुए इस सन्दर्भ में एक शिकायती पत्र में महात्मा गांधी को लिखा , साथ में उपन्यास भी भेजा ! कुछ दिनों के बाद महात्मा गांधी का जवाबी पत्र द्विवेदी जी को प्राप्त हुआ जिसमे लिखा था--मैंने उपन्यास पढ़ा ! मुझे इसमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे अश्लील करार दिया जाए ! चॉकलेट हिंदी साहित्य का संभवतः पहला उपन्यास था जो समलैंगिकता के विकट प्रश्न से टकराया था ! बहुत दिनों के बाद , दूसरी बार जब इसी विकट प्रश्न को राजकमल चौधरी ने " मछली मरी हुई " में उठाया तब भी बावेला मचा था ! लेकिन पढ़नेवालों ने इस उपन्यास की प्रसंशा करते हुए इसे समाज की एक भयंकर बुराई से रूबरू करानेवाला उपन्यास बताया था ! राष्ट्रकवि दिनकर ने जब " उर्वशी " लिखी तो कुछ आलोचकों ने कहा--हुंकार और कुरुक्षेत्र का कवि अब उर्वशी लिखने लगा ! खूब हाय-तौबा मची और दिनकर की इसके लिए जमकर आलोचना की गयी ! संयोग देखिये कि दिनकर को इसी पुस्तक पर ज्ञानपीठ पुरुष्कार मिल गया ! पढ़नेवालों ने इसे अश्लील नहीं माना ! सवाल ये है कि लेखक का दायित्व तय करते हुए क्या समाज के अन्तर्द्वंदों और अंतर्विरोधों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए ! कुछ और घटनाएं याद आ रहीं हैं अंग्रेजी साहित्य की ! D.H.Lawrence के उपन्यास ' लेडी चैटर्लिज् लवर ' का ऐसा ही विरोध हुआ ! ' Sons and Lovers ' में लॉरेंस ने माँ और बेटे के प्रेम की ऐसी कहानी बुनी जिसमे एक माँ अपने जवान बेटे का सानिध्य पाने के लिए उसे दूर भेजना मुनासिब नहीं समझती ! और तो और उस जवान बेटे के संपर्क में आनेवाली हर लड़की से ईर्ष्या करती है और अपने बेटे को किसी न किसी बहाने उस लड़की से दूर रखना चाहती है ! अजीब कश्मकश की कहानी है यह ! हर पढ़नेवाले ने इस विवादास्पद विषय वाले उपन्यास को एक साफ़-सुथरा उपन्यास बताया ! नोवोकोव के उपन्यास ' लोलिता ' की कहानी और उसपर उठे विरोध के स्वर से हम सब परिचित हैं ! आश्चार्य यह कि उसी उपन्यास पर उसे नोबेल प्राइज भी मिला ! और अंत में आदरणीय बोहरे जी से यह जानना चाहूँगा कि सारिका ने अगर 'देह विशेषांक' निकाला तो क्या गुनाह किया !--सादर बोहरे जी व राकेश बिहारी जी🙏🙏💐💐 


06/02/2016, 10:31 - ‪+91 99588 37156‬: 👏🏻👏🏻👏🏻 06/02/2016, 10:33 - Rakesh Bihari Ji: आपने बहुत सही प्रश्न उठाये हैं शेखर जी। लेखन या कोई भी रचनात्मक विधा सिर्फ पूर्ववर्ती अवधारणाओं, मान्यताओं और मूल्यों को सींचने का ही काम नहीं करता, उन्हें कई बार चुनौती भी देता है। कई बार इसका लक्ष्य उन कोनों, अंतरों को प्रकाश में भी लाता है जिस पर खुल कर बोलने का चलन नहीं होता। यह काम तब और मुश्किल हो जाता है जब देह आदि की नैतिकताएं सामने आती हैं। देह, प्रेम और विवाह आदि की नैतिकताएं समाज, धर्म और परिवेश सापेक्ष भी होती हैं अतः उन पर सीधे सीधे निर्णयात्मक नहीं हुआ जा सकता। जैसा कि मैंने पहले निवेदन किया है यह कहानी यमी की जीवन दृष्टि को सामने रखते हुए एक असहज यौन सम्बन्ध को घटित होता दिखाते हुए भी उसका उत्सव नहीं मनाती बल्कि तदुपरांत पात्रों के गीत 06/02/2016, 10:36 - Rakesh Bihari Ji: बल्कि तदुपरांत पात्रों के गिल्ट की सघनता को रेखांकित करती है। व्यक्ति और समाज का यही द्वंद्व इस कहानी का मर्म है।जिसके होने से शायद ही किसी को इंकार हो। फिर जो सच है, उस पर चुप रह जाना कोई लेखकीय धर्म तो नहीं। 06/02/2016, 10:38 - Rakesh Bihari Ji: मैं फिर कहूँगा कि यह कहानी अनैतिक को स्थापित नहीं करती बल्कि अनैतिक और वर्जित को चखने की इच्छा या चख लेने के बाद के अंतर्द्वंद्व की जटिल बुनावट को उघाड़ती है। 06/02/2016, 10:43 - Rakesh Bihari Ji: हमें सबसे पहले इस तयशुदा निष्कर्ष से बाहर आने की जरूरत है कि कहानी को हमेशा कोई नैतिक सन्देश ही देना चाहिए। कहानी किसी ख़ास समय, क्षण या कि मनःस्थिति में उतपन्न आवेग की जटिलता और उससे उतपन्न तनाव और संत्रास का विश्लेषण भी तो हो सकती है।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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