Friday, April 13, 2018



कहानी: सईद अय्यूब
अस्तग़फ़िरुल्लाह



सईद अय्यूब 



कहानी 


मौलवियों से भरी एक बस जा रही थी
एक ने कहा जब भी रास्ते में
लड़की नज़र आये तो
अस्तग़फ़िरुल्लापढ़ना
काफ़ी देर बाद एक ने कहा
‘’अस्तग़फ़िरुल्लाह"
बाक़ी बोले
कहाँ है?”
कहाँ है?

मौलाना मुफ़्ती ने जब यह लतीफ़ा सुनाया तो सुनने वालों ने ज़ोर का ठहाका लगाया. मौलाना मुफ़्ती अपनी अधपकी लंबी सी दाढ़ी को सहलाते हुए होंठो ही होंठो थोड़ा सा मुस्काए...अपनी ट्रेड मार्क मुस्कान...कुर्सी पर अपना पहलू बदला और माइक के और पास आते हुए बोले-

आजकल के ज़्यादातर मौलानाओं की जमात इसी तरह की है. लड़की को देखने और अस्तग़फिरुल्लाह पढ़ने की तो मैंने एक मिसाल दी है वर्ना कोई ऐसा काम नहीं है जिसे इस्लाम ने, हमारे ख़ुदा और रसूल ने मना किया हो और हमारे आज के उलेमा उसे न करते हों. मैं सभी उलेमाओं की बात नहीं कर रहा पर ज़्यादातर उलेमा उन सभी कामों में मशगूल हैं जिसकी इजाज़त हमारी शरीयत जो पूरी दुनिया में इस्लामी शरीयत के नाम से जानी जाती है, नहीं देती.






मौलाना मुफ़्ती एक जलसे में ख़िताब कर रहे थे. यह जलसा उनके गाँव में ही आयोजित था. मौलाना मुफ़्ती अब तक अपनी बेबाकी के लिए मशहूर हो चुके थे यह अलग बात है कि उनकी बेबाकी कभी-कभी आस-पास के पक्के-कच्चे मुल्लाओं को नाराज़ कर देती थी. पर आज की बात तो कुछ और ही थी. एक तो वे अपने ही गाँव में लोगों को संबोधित कर रहे थे और गाँव वालों का बस चलता तो ख़ुदा की जगह मौलाना मुफ़्ती की ही इबादत शुरू कर देते और दूसरी बात यह थी कि वह पठानों का गाँव था. लड़ने-भिड़ने में माहिर, मरने-मारने में ख़ुदा से भी ज़्यदा ईमान रखने वाले. चार कोस के गाँव वाले भी उनसे डरते थे. तो आज भला उलेमाओं पर चुटकी लेने का यह सुनहरा अवसर मौलाना मुफ़्ती कैसे छोड़ देते?

मौलाना मुफ़्ती का इस गाँव में आगमन, गाँव के लोगों के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं था. कई तो मुसलमान होने के बावजूद यह मानते थे कि यह उनके पूर्व जन्म में किए गए किसी नेक काम का ही फल था कि मौलाना मुफ़्ती के नेक क़दम इस गाँव में पड़े और ऐसा यक़ीन करने वालों में गाँव के कुजात मियाँ सबसे आगे थे. असल में कुजात मियाँ का असली नाम कुजात मियाँ नहीं था बल्कि अल्लाह रखा ख़ान था और नाम के हिसाब से ही अल्लाह ने उनके खाते में कुछ ज़्यादा ही रख दिया था. हुआ यह कि गाँव ही नहीं पूरे जवार के सबसे अमीर आदमी बुद्धन ख़ान की बीवी तीसरी बार उम्मीद से थीं. दो-दो बार उनका गर्भ ठहर कर गिर चुका था. बुद्धन ख़ान को बीवी या औलाद से भी ज़्यादा फ़िक्र जायदाद के वारिस की थी. उन्होंने गाँव के एक मात्र हाफ़िज़ जी जिन्हें गाँव वाले अपनी भाषा में हाफी जी कहते  थे, को बुलाया और सलाह मशविरे के बाद तय हुआ कि एक मिलाद शरीफ़ करवा दी जाए. और संयोग देखिये कि एक तरफ़ मिलाद शरीफ़ शुरू हुई, दूसरी और बुद्धन ख़ान की बीवी को जचगी का दर्द शुरू हुआ और मीलाद खत्म होते ही जैसे ही हाफी जी ने दुआ के लिए हाथ उठाया, बुद्धन ख़ान की बहन, जो इलाक़े की सबसे ख़ूबसूरत लड़कियों में से एक थी और जिसपर बुद्धन ने सख्त पहरा बैठा रखा था और जिसे बिना परदे के कभी नहीं देखा गया था, बिना किसी परदे के भागती हुई बाहर आयी और चिल्ला-चिल्ला कर बेटा होने की ख़ुशखबरी देने लगी. सबके दुआ के लिए उठे हुए हाथ नीचे गिर गए. बुद्धन बदहवास हो घर के अंदर भागे जबकि हाफी जी कभी उस हूर को देखते थे जिसको लगता था कि अल्लाह ने उनसे ख़ुश होकर जन्नत से भेज दिया था और कभी सामने बैठे हुए गाँव वालों को जो हाफी जी की तरफ़ देखने के बजाए बुद्धन ख़ान की बहन को घूर-घूर कर देख रहे थे और होंठो ही होंठो में मुस्कुरा रहे थे और आज की मीलाद शरीफ़ की इस बरकत का मज़ा ले रहे थे. बहरहाल, जब नाम रखने की बारी आयी तो हाफी जी ने सलाह दी कि चूँकि अल्लाह ने इस बेटे के ज़रिये आपकी इज्ज़त रखी है इसलिए इसका नाम अल्लाह रखा ही होना चाहिए. और बुद्धन ख़ान ने हाफी जी की सलाह मानकर, अपने बेटे का नाम रखा अल्लाह रखा ख़ान.  

अल्लाह रखा ख़ान शुरू से ही तेज़ दिमाग़ के थे और यही वजह थी कि गाँव के मदरसे से निकल कर वे दस कोस दूर के इंटर कॉलेज तक पहुँचने वाले, गाँव के सिर्फ़ तीसरे व्यक्ति थे और यूँ तो इंटर में दो बार फेल होने के बाद, वे बाप के पुश्तैनी खेती-बाड़ी और ज़मीन-जायदाद के धंधे में जुट गए पर गाँव में उनकी इज्ज़त उनके पढ़े-लिखे होने को लेकर ही होती थी. पर न जाने क्या बात थी, बाप के पैसों का घमंड या अपनी अच्छी शक्ल ओ सूरत का या अपनी हैसियत का या अपनी तेज़ दिमागी का या कस्बे में पढ़ने का, नौवी-दसवीं में ही वे बात-बात पर अपने दोस्तों को कुजात कहकर अपने से अलग कर देते थे. कुजात मतलब निचली जाति का, गाँव की भाषा में सीधे-सीधे एक गाली. गाँव की परम्परा में यह बात थी कि अगर कोई व्यक्ति गाँव की मर्यादा के खिलाफ़ कोई काम करता था तो गाँव वाले उसे कुजातबता कर उसका सामूहिक बहिष्कार करते थे. अल्लाह रखा ख़ान अपने जिस दोस्त को कुजात कह कर अपने से अलग कर देते, उनकी पूरी मित्र-मंडली उस दोस्त का बहिष्कार कर देती. पर धीरे-धीरे कुजात किए गए दोस्तों की संख्या बढ़ने लगी और एक समय ऐसा आया कि अल्लाह रखा ख़ान अकेले हो गए और उनके सारे दोस्त एक तरफ़. फिर उन सारे दोस्तों ने मिलकर अल्लाह रखा ख़ान को कुजात घोषित कर दिया और वे जहाँ भी मिलते वहीं उनको कुजात-कुजातकहकर चिढ़ाने लगे. धीरे-धीरे लोग अल्लाह रखा ख़ान को भूलते गए और कुजात नाम ही उनकी पहचान हो गया. बाद में, लोग कुजात के साथ मियाँ लगा कर उन्हें कुजात मियाँ कहने लगे और यूँ साबित करने लगे कि वे उनकी बहुत इज्ज़त करते हैं.

तो हुआ यूँ कि जाड़े के दिनों में एक बार कुजात मियाँ को बुख़ार ने आ घेरा. अजीब बुख़ार था. न बहुत तेज़ होता था, न एकदम छोड़ता था. गाँव के सब टोटके आजमा लिए गए. हाफी जी का दिया हुआ ताबीज़ भी पानी में घोल-घोल कर दिन में कई बार पिया गया पर कोई फ़ायदा नहीं. एक दिन दोपहर को, जब गुनगुनी धूप चारो ओर फैल चुकी थी, कई दिनों से घर में बंद कुजात मियाँ ऊब कर अकेले ही गाँव के बाहर, सड़क से लगी हुई छोटी सी पुलिया पर आकर बैठ गए. कई दिनों के बाद घर से बाहर निकलने की वजह से, और कमज़ोरी की वजह से और गुनगुनी धूप की वजह से पुलिया पर बैठे ही बैठे उनको झपकी आने लगी. झपकी के दौरान ही, उन्होंने ख़्वाब में देखा कि एक झक्क सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने, सर पर गोल सफ़ेद टोपी लगाए और कंधे पर चेक वाला रुमाल रखे, एक काली दाढ़ी वाले मौलाना उनसे कुछ पूछ रहे हैं. थोड़ी देर बाद, उनको लगा कि वे मौलाना सच में उनके सामने खड़े हैं. कुजात मियाँ आज तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि वे सच में ख़्वाब देख रहे थे या मामला कुछ और था, मगर यह बात सच थी कि सामने मौलाना मुफ़्ती खड़े थे और उनसे पूछ रहे थे, “कुजात मियाँ का घर कौन सा है?”






दरअसल, मौलाना मुफ़्ती कुछ दूर के एक गाँव में एक काम से आए थे. इस इलाक़े में उनका पहला आगमन था. उसी गाँव में, कुजात मियाँ के जानने वाले किसी ने मौलाना मुफ़्ती को कुजात मियाँ के बुख़ार के बारे में बताया और मौलाना मुफ़्ती अपनी साइकिल उठाये कुजात मियाँ से मिलने चले आए थे. कुजात मियाँ तो इस तरह की शख्सियत को अपने सामने अचानक पाकर हैरान ही रह गए. ख़ैर, जान-पहचान हुई, अलैक-सलैक हुआ और मौलाना मुफ़्ती कुजात मियाँ के घर तशरीफ़ ले गए. आन के आन में पूरे गाँव में मौलाना के आने का शोर मच गया और लगभग पूरा गाँव ही मौलाना को देखने के लिए कुजात मियाँ के घर इकठ्ठा हो गया. मौलाना मुफ़्ती, जैसा कि बाद में लोगों को पता चला कि असल में एक मदरसे में पढ़ते थे और साथ ही मदरसे से कुछ दूर स्थित एक झोला छाप डॉक्टर के दवाख़ाने में कम्पाउंडरी भी करते थे. तबियत से थोड़े लाउबाली थे. कहीं एक जगह टिक कर बैठने की आदत नहीं थी. इसलिए न पढ़ाई पूरी की और न ही कम्पाउन्डरी ठीक से की. जब दीन और दवा दोनों का थोड़ा-थोड़ा इल्म हो गया, उन्होंने मदरसा और दवाख़ाना दोनों ही छोड़ दिया. कहीं से किसी तरह एक साईकिल जुगाड़ कर, एक झोले में कुछ दवाएँ रख कर, इस गाँव उस गाँव, दवा और दुआ दोनों करने लगे.

दुआ करके दम किए हुए पानी में, छिपा कर घोली गयी अंग्रेज़ी दवाओं ने असर दिखाना शुरू किया और कुछ ही दिनों में कुजात मियाँ का बुख़ार ग़ायब हो गया. कुजात मियाँ अल्लाह के भेजे हुए इस फ़रिश्ते से इतना ख़ुश हुए कि उन्होंने गाँव के उत्तर अपने बगीचे के पास की ख़ाली पड़ी हुई ज़मीन पर एक बड़ी सी झोंपड़ी डलवाकर मौलाना मुफ़्ती को एक तरह से ज़बरदस्ती अपने ही गाँव में रहने के लिए मजबूर कर दिया. झोला और साइकिल लेकर इधर-उधर भटक रहे मौलाना मुफ़्ती अंदर से चाहते भी यही थे कि कहीं ढंग से रहने का ठौर-ठिकाना हो जाए. इसलिए थोड़े ना नुकुर के बाद, एक तरह से गाँव वालों और कुजात मियाँ पर एहसान करते हुए वहाँ रहना स्वीकार कर लिया. उनके इस फैसले से हाफिज़ जी को छोड़ कर बाक़ी गाँव वाले बहुत ख़ुश थे. लच्छेदार बोली, दुआ और दवा, तीनों के मिश्रण ने जल्दी ही मौलाना मुफ़्ती को उस पूरे इलाक़े में मशहूर कर दिया. विकास के किसी भी चिह्न से अछूते गाँव वालों के लिए, जिनके लिए बीमार होने की सूरत में दस कोस दूर ब्लॉक के सरकारी अस्पताल जाने या फिर घरेलू नुस्खों से इलाज़ करने के अलावा कोई चारा नहीं था, मौलाना मुफ़्ती का गाँव में आ जाना किसी चमत्कार से कम नहीं था. और आज मौलाना मुफ़्ती उसी गाँव में आयोजित एक धार्मिक जलसे में खिताब कर रहे थे.

जलसे के ठीक एक महीने के बाद, कुजात मियाँ के गाँव में एक सुबह एक भूचाल की तरह आई और यह भूचाल खुद कुजात मियाँ ने पैदा किया था. वैसे तो गाँव और उस तरह के किसी भी गाँव में यह आम बात थी पर कुजात मियाँ जैसे शरीफ़, पढ़े-लिखे लोगों के घर में ऐसी घटना हो तो एक भूचाल आना स्वाभाविक ही था. हुआ यह था कि किसी बात पर कुजात मियाँ का पठानी ख़ून एकदम से खौल गया और आनन-फ़ानन में अपनी बीवी जो उनकी फूफीजाद बहन भी थीं और उनके बाप बुद्धन ख़ान की उसी ख़ूबसूरत बहन की बेटी थीं जो अल्लाह रखा ख़ान उर्फ़ कुजात मियाँ की पैदाइश की ख़बर सुनाने भरी हुई महफ़िल में दौड़ कर आ गयी थीं और जिनको देखकर हाफी जी सहित पूरे गाँव वाले दुआ माँगना भूल गये थे, को तलाक़ दे दिया. करना ही क्या था? कौन से अदालत के चक्कर लगाने थे? तीन बार तलाक़, तलाक़, तलाक़ही तो कहना था और उन्होंने गुस्से में वही किया था. गुस्से में उन्होंने यह भी ख़याल नहीं किया कि उनके और राबिया के दो साल के मासूम बच्चे राशिद का क्या होगा? जल्दी ही यह ख़बर गाँव भर में फैल गयी और लोग कुजात मियाँ के दरवाजे पर इकट्ठे होने लगे. उनमें हाफी जी और मौलाना मुफ़्ती भी थे. कुछ देर पहले तक कुजात मियाँ की बीवी रहीं राबिया ख़ातून, इस सदमें की ताब न लाकर, घर के एक कोने में बेहोश पड़ी थीं और गाँव की कुछ औरतें उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रही थीं. दूसरी तरफ़, घर के बाहर बरामदे में कुजात मियाँ चुपचाप, गुमसुम बैठे थे जैसे इस दुनिया में हों ही नहीं. उन दोनों का दो साल का मासूम बेटा लगातार रो रहा था और गाँव की एक औरत उसे दूधपिलाई से दूध पिला कर चुप करवाने की कोशिश कर रही थी. घर के अंदर पर्दा और सख्त कर दिया गया था. अब अगले तीन महीने राबिया ख़ातून को इद्दत में गुज़ारना था और इन तीन महीनों में उन पर किसी मर्द की छाया भी नहीं पड़नी चाहिये थी. उनको कुजात मियाँ के इस घर से निकाल कर उनकी माँ के घर भी पहुँचाना था क्योंकि शौहर के घर में रहना अब हराम था. लेकिन राबिया ख़ातून की बेहोशी किसी तरह खत्म ही नहीं हो रही थी. फिर किसी बड़ी-बूढी की सलाह पर मौलाना मुफ़्ती को अंदर बुलवाया गया.

चादर के बनाए गए एक अस्थायी पर्दे के इधर से मौलाना मुफ़्ती ने चारपाई पर बेहोश पड़ी राबिया ख़ातून पर एक नज़र डाली. लगभग बाईस साला राबिया ख़ातून के साफ़-शफ्फाफ़ चेहरे से ताज़ा-ताज़ा पानी की बूंदे टपक रही थीं जो औरतों ने उन्हें होश में लाने के लिए उनके चेहरे पर मारा था. उनके सीने को औरतों ने दुपट्टे से ढँक दिया था पर उससे उनके कसे हुए सीने के उभार और स्पष्ट हो गए थे. माँ से मिली हुई बेपनाह हुस्न और मासूमियत की उस मलिका के चेहरे से होकर सीने पर नज़र जाते ही मौलाना के दिल की धड़कनें बेतरतीब होने लगीं. उन्होंने बहुत मुश्किल से अपने को संभाला और चादर के नीचे से हाथ बढ़ा कर उनकी नब्ज़ टटोलने लगे. उस गुदाज कलाई का लम्स उनके अंदर आग लगा रहा था पर उन्हें मौक़े की नज़ाकत भी पता थी. उन्होंने अपने झोले से निकाल कर राबिया ख़ातून को कुछ सुँघाया और कुछ ही देर में राबिया ख़ातून होश में आने लगीं. कुछ देर बाद मौलाना उस कमरे से बाहर आ गए लेकिन वह पुरकशिश और मासूम चेहरा और सीने के वे उभार उनके साथ ही बाहर आ गए थे.

रात के दस बजे के लगभग जब मौलाना अपनी झोंपड़ी के अंदर लालटेन की चिमनी धीमी करके, मन ही मन उस उठे हुए सीने को अपने हाथों में भींच रहे थे, बाहर से कुजात मियाँ की धीमी पुकार सुनाई दी. मौलाना ने झट से अपनी लुंगी सही की, बदन पर कुरता डाला और बाहर की तरफ़ लपके. थोड़ी देर बाद, कुजात मियाँ और मौलाना सर जोड़े एक ही चारपाई पर बैठे थे. कुजात मियाँ का चेहरा आँसुओं में डूबा हुआ था. वे हिचक-हिचक कर रो चुके थे और अब लगभग सुबकते हुए मौलाना से कुछ कह रहे थे जिसका लब्बोलुबाब यह था कि उनसे भारी ग़लती हो गयी है. उन्हें राबिया को इस तरह तलाक़ नहीं देना चाहिये था पर वे गुस्से में अन्धे हो गए थे. अब वे फिर से राबिया को अपनी ज़िंदगी में लाना चाहते थे. उससे माफ़ी माँगना चाहते थे और यह वादा कर रहे थे कि उसे ज़िंदगी भर कभी कोई तकलीफ़ नहीं देंगे.





अगली सुबह पंचायत बैठी. पंचायत क्या, कुजात मियाँ, राबिया ख़ातून के घर से उनके दो भाई, गाँव के पाँच सम्मानित लोग, हाफी जी और मौलाना मुफ़्ती. राबिया के भाई गुस्से में थे और वे मेहर की रक़म, दहेज में दी गयी साइकिल, घड़ी, ट्रांजिस्टर, पीतल और ताँबे के बर्तनों सहित पाँच हज़ार रुपया नकद वापस माँग रहे थे. लेकिन मौलाना ने बहुत ही उचित शब्दों में रात में अपने और कुजात मियाँ के बीच हुई बातों को सबके सामने रखा. उन्होंने कुजात मियाँ के पछतावे के बारे में बताया और यह भी बताया कि कुजात मियाँ राबिया ख़ातून से माफ़ी माँग कर दोबारा निकाह करना चाहते हैं. उन्होंने क़ुरान और हदीस से कुछ उदाहरण देकर कहा कि, “अल्लाह उनको बहुत पसंद करता है जो ग़लती करके माफ़ी माँग लेते हैं और उनको उनसे भी ज्यादा पसंद करता है जो माफ़ कर देते हैं. शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ के बाद, मर्द और औरत दुबारा शादी कर सकते हैं. लेकिन...असली समस्या इस लेकिन के बाद ही थी और यही समस्या मौलाना की रात वाली कल्पना को वास्तविकता में बदल देने की एक बहुत बड़ी संभावना भी थी, “लेकिन, पहले तलाक़ शुदा औरत को, इद्दत की मुद्दत गुज़रने के बाद, किसी और मर्द से शादी करनी होगी. फिर कम से कम एक रात उस मर्द के साथ रहना होगा और हमबिस्तरी करनी होगी. फिर उस मर्द से तलाक़ लेना होगा और दुबारा इद्दत में बैठना होगा. इद्दत गुज़ारने के बाद, वह चाहे तो फिर से अपने पुराने शौहर से शादी कर सकती है.यह नियम बताने के बाद, मौलाना ने सबकी ओर एक भरपूर निगाह से देखा और ख़ामोश होकर शर्बत का वह गिलास ख़ाली करने लगे जो हाफी जी के लिए रखा हुआ था. हाफी जी की बीवी को मरे चार साल हो चुके थे. गोकि अब अधेड़ से बुढ़ापे की ओर जा रहे थे पर बदन अब भी कभी-कभी कसमसाने लगता था. ऐसे में अपने मदरसे में पढ़ने वाली कमसिन लड़कियों को सज़ा देने के बहाने कभी उनके गाल नोचकर, कभी कुछ ख़ास जगहों पर चिकोटी काटकर, कभी सफ़ाई-वफाई के बहाने अकेले में किसी लड़की को बुलाकर उसे अपनी गोद में बैठा कर या पैर दबवाने के बहाने लुंगी के ऊपर से ही उनका हाथ एक ख़ास जगह पर रखवाकर वे अपना काम चला रहे थे. ऐसी स्थिति में नींबू और चीनी के मिश्रण से बने लज़ीज़ शरबत के गिलास को अपने पास से मौलाना के हाथों में जाता देखकर वे अंदर ही अंदर तिलमिला कर रह गए. पर उनकी अपनी मजबूरी थी. उनकी खुद की एक लड़की जवान हो चुकी थी और अगली गर्मियों में वे उसकी शादी की तैयारियाँ कर चुके थे. इसलिए भयानक गर्मी के बावजूद शरबत पीने की अपनी इच्छा को उनको अंदर ही अंदर दबा लेना पड़ा था. पंचायत लंबी चली थी. भाई भी नहीं चाहते थे कि राबिया की ज़िंदगी ख़राब हो. लेकिन सवाल यही था कि राबिया की शादी अब किससे हो? सवाल शादी हो जाने का नहीं था. सवाल उस यक़ीन का था कि जिससे शादी होगी वह दुबारा से तलाक़ देगा या नहीं?

ऐसे में रात को कुजात मियाँ ने एक बार फिर अनजाने में ही, मौलाना को कल्पना की दुनियाँ से बाहर निकाला और उनके सामने राबिया से शादी कर लेने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने मौलाना से कहा कि पूरे इलाक़े में वही एक शख्स हैं जिन पर कुजात मियाँ यक़ीन कर सकते हैं. पहले तो मौलाना ना-नुकर करते रहे पर कुजात मियाँ के ज़्यादा ज़ोर देने पर अंततः वे अपनी कुर्बानी देने को तैयार हो गये. यह अलग बात है कि मन ही मन वे उस आदमी को याद कर रहे थे जिसने कुजात मियाँ के बुख़ार के बारे में उन्हें बताया था और अपने नसीब पर मुस्कुरा रहे थे. और यूँ, इद्दत के तीन महीने पूरे होने के एक ही हफ़्ते के अंदर राबिया ख़ातून का निकाह मौलाना मुफ़्ती से हो गया और वे अपने दो साल के बेटे के साथ मौलाना की झोंपड़ी में आ गयीं. इस निकाह की हक़ीक़त राबिया ख़ातून को बता दी गयी थी कि यह निकाह मौलाना से इसलिए हो रहा है कि वे एक बार फिर से कुजात मियाँ की दुल्हन बन सकें.

शर्त यह थी कि निकाह के अगले दिन मौलाना मुफ़्ती राबिया ख़ातून को तलाक़ दे देंगे लेकिन अगले दिन मौलाना ने लोगों को और ख़ास तौर से कुजात मियाँ को बताया कि राबिया कि तबियत कुछ नासाज़ है. दवा दे दी है. एक दो दिन में उन्हें आराम मिल जाएगा तो तलाक़ दे दूँगा क्योंकि अभी दुबारा से उन्हें इद्दत में बैठाना उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं होगा. चार दिन तक बीमारी के बहाने तलाक़ देने से इंकार करने वाले मौलाना मुफ़्ती जब पाँचवें दिन, दिन भर गाँव में नहीं दिखाई दिए तो लोगों का माथा ठनका. उनकी झोंपड़ी पर पहुँचने पर पता चला कि वहाँ न मौलाना हैं न राबिया ख़ातून. कुजात मियाँ को मौलाना की इस बेवफ़ाई ने तोड़ दिया. राबिया को खोकर वे पहले से ही टूटे हुए थे. एक बड़ा सदमा उनको अपने मासूम बेटे राशिद, जिसे वे अपनी जान से भी ज़्यादा चाहते थे, से बिछड़ने का भी लगा था. ऊपर से गाँव वालों के तंज. वे धीरे-धीरे सबसे कटने लगे और अपने घर तक क़ैद होकर रह गए. गाँव वालों में से ज़्यादातर का ख़याल था कि मौलाना ने दुआ-ताबीज के बल पर राबिया को अपने क़ब्ज़े में कर लिया था पर कुछ लोगों का और ख़ास तौर से औरतों का यह मानना था कि राबिया ने कुजात मियाँ को सबक सिखाने के लिए ही मौलाना को तलाक़ देने से मना कर दिया था.

    


वजह चाहे जो भी हो पर दो साल के बाद एक दिन अचानक मौलाना मुफ़्ती और राबिया ख़ातून उस गाँव में नमूदार हुए. राशिद अब चार साल का हो गया था और राबिया ख़ातून की गोद में लगभग साल भर का एक और बच्चा खेल रहा था. मौलाना मुफ़्ती, उस गाँव में आना नहीं चाहते थे पर राबिया को अपनी बूढी हो चुकी माँ की बहुत याद आ रही थी. उसने मौलाना को यह भी समझाया कि उन्होंने कोई गुनाह का काम नहीं किया है जो किसी से डरें. राबिया के आने की ख़बर कुजात मियाँ को भी मिल चुकी थी. यह ख़बर मिलने के बाद वे गाँव वालों से और कट गए और ठीक दो महीने बाद एक सुबह गाँव वालों को पता चला कि कुजात मियाँ अब इस दुनिया में नहीं रहे. पर जाने से पहले वे बाक़ायदा लिखित में अपनी सारी जायदाद अपने बेटे राशिद और राबिया और मौलाना मुफ़्ती के बेटे आरिज़ में बराबर-बराबर बाँट चुके थे और राबिया और मौलाना से आग्रह किया था कि वे दोनों उनके घर में आकर रहें. शायद ऐसा करके वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित्त कर गए थे.

गाँव वापस आने के बाद, और कुजात मियाँ की सारी जायदाद का मालिक बनने के बाद, मौलाना मुफ़्ती ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार और दवा-दुआ के बल पर फिर से इलाक़े में अपनी पैठ बना ली थी. लोग धीरे-धीरे पुरानी बातें भूलते जा रहे थे. दोनों बेटे होनहार थे. वे धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे और अपनी मासूमियत और शरारतों से मौलाना और राबिया की आँखों के तारे बने हुए थे. सब कुछ बहुत अच्छे से चल रहा था कि एक दिन जब राशिद दस साल का था और आरिज़ सात साल का, राबिया ख़ातून रात को खाने के बाद चारपाई पर लेटीं तो फिर नहीं उठीं. गाँव की कुछ औरतों ने बाद में बताया कि वे एक पल के लिए भी कुजात मियाँ को भूल नहीं पायी थीं और अकेले में उन्हें याद करके खूब रोती थीं.

राबिया ख़ातून के जाने के बाद, मौलाना मुफ़्ती की दुनिया अपने दोनों बेटों राशिद और आरिज़ के इर्द-गिर्द सिमट गयी. वे कहीं दवा करने, झाड़-फूँक करने या कहीं किसी मिलाद या जलसे में तक़रीर करने जाते, दोनों बेटों को साइकिल के आगे-पीछे बैठा कर अपने साथ लेकर जाते. उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनके खेल-कूद, उनकी खुराक सब पर बराबर नज़र रखते. अब उनकी उम्र भी पचास के आस-पास पहुँच रही थी. यह अलग बात है कि वे अब भी काफ़ी चुस्त-दुरुस्त और तंदरुस्त थे. उनकी आवाज़ में अब और धार आ गयी थी और आस-पास ही नहीं, दूरदराज तक के जलसों में तक़रीर के लिए उनको बुलाया जाने लगा था. वे बिना लाग-लपेट के बोलते थे और दाढ़ी-बिना दाढ़ी वाले मुसलमान उसको पसंद करते थे. लड़की को देखकर अस्तग़फ़िरुल्लाह पढ़ने वाला उनका लतीफ़ा अब उनका ट्रेड मार्क बन चुका था. लगभग हर जलसे में वे इस लतीफ़े को सुनाते और अगर कहीं भूल जाते तो लोग याद दिला कर उनसे यह लतीफ़ा ज़रूर सुनते...



मौलवियों से भरी एक बस जा रही थी
एक ने कहा जब भी रास्ते में
लड़की नज़र आये तो
अस्तग़फ़िरुल्लाहपढ़ना
काफ़ी देर बाद एक ने कहा
अस्तग़फ़िरुल्लाह
बाक़ी बोले
कहाँ है?”
कहाँ है?

यह सब करते-करते तीन साल और बीते. इधर हाफी जी की चौथी लड़की रुख़साना जवान हो चुकी थी. हाफी जी के घर और कुजात मियाँ के घर जिसमें मौलाना मुफ़्ती अभी रह रहे थे, के बीच सिर्फ़ दो घर और थे. रुख़साना लड़कपन से ही मौलाना के दोनों बेटों के साथ खेलने के लिए आती रहती थी और मौलाना चुपचाप उसे बेटों के साथ खेलते देखते रहते थे. मौलाना के बेटों के साथ खेलते-खेलते कब उसके जिस्म ने आकार लेना शुरू किया यह न तो रुख़साना भाँप सकी न मौलाना मुफ़्ती. पर एक दिन, जब वह अभी-अभी नहाकर मौलाना के घर राशिद और आरिज़ के साथ खेलने आयी थी, मौलाना ने उसे देखा और देखते ही रह गए. चादर के बनाए हुए परदे के उस पार बेहोश राबिया ख़ातून का मासूम चेहरा और तने हुए सीने उनके अंदर एक बार फिर से कोहराम मचाने लगे थे.

चार महीने बाद, जब गाँव में ही आयोजित एक शानदार जलसे में मौलाना अपने उसी लतीफ़े को नए अंदाज़ में सुना कर और लड़कियों और औरतों के जाल में फँस कर गुमराही के रास्ते पर जाने वाले मौलानाओं और उलेमाओं पर लानत भेजकर और अपनी जानदार तक़रीर के लिए वाहवाही लूट कर रात के लगभग एक बजे घर पहुँचें तो राशिद और आरिज़ सो चुके थे और दूसरे कमरे में रुख़साना उनका इंतेज़ार कर रही थी जो हाफी जी के घर से छुपते-छुपाते वहाँ पहुँची थी.

अगले दिन दोपहर तक पूरे गाँव को पता चल चुका था कि मौलाना मुफ़्ती, उनके दोनों बेटे और हाफी जी की चौथी बेटी रुख़साना गाँव में नहीं थे. कुछ मनचले मौलाना के उस लतीफ़े को बार-बार दुहरा थे जो वे अक्सर जलसों में सुनाया करते थे. उधर हाफी जी अस्तग़फ़िरुल्लाह’, ‘अस्तग़फ़िरुल्लाहपढ़ते हुए बार-बार बेहोश हुए जा रहे थे.



नाम : सईद अय्यूब
कवि,कथाकार
निवास :दिल्ली



चित्र: गूगल से साभार 

यह कहानी साहित्य की बात ,वाट्सअप समूह पर चर्चा हेतु प्रस्तुत की गई |कहानी पर आई कुछ चुनिन्दा  प्रतिक्रियाएं सलग्न है |


प्रतिक्रियाएं 


अजय श्रीवास्तव: सईद अयूब जी की कहानी अस्तगफिरुल्लाह

1 - उत्तम शीर्षक ,इसके इर्द-,गिर्द ही सारी कहानी समेट दी गयी है।शायद तौबा से उत्कृष्ट शब्द यही हो सकता है।
2 - मुस्लिम धर्म/समाज की कुरीतियों पर उम्दा तंज है।
3 - शायद नारी मोह न हो तो जीवन मशीनी जिंदगी हो जाएगी।यही दिमाग में डोपामाइन रसायन को अति मात्रा में उत्सर्जित करने का सबब भी है।
4 - बहुगामी/बहुविवाह की समस्या दुनिया के हर कोने में है।पुरुष वर्ग को इसका निशाना आराम से बनाया जा सकता है , क्योंकि शक्ति/बल उसके पास अपेक्षाकृत ज्यादा है।
5 - यह शौध का विषय है ,कि क्या विपरीत लिंग के मोह से क्या केवल पुरुष ही पीड़ित हैं या महिलाएं भी? क्या अल्लाह ने यह नियामत औरतों को नही बख्शी है? शायद यह अपूर्ण है ।इस पर और भी विश्लेषण ,इस विद्वान पटल पर भी होना चाहिए ...इसी बहाने...
6 - तीन तलाक प्रथा समाज में क्यों आयी ..?इसके गुण दोष क्या हैं ..? इस पर काफी चर्चाएँ चलती आयी हैं व प्रस्तुत कहानी सरकारी फरमान/कानून को संबल देने के लिए उपयुक्त है।
7 - ओशो ने विपरीत लिंग आकर्षण को समझा व अपने मत प्रचार में अपने आश्रमों में अच्छा भुनाया भी ...उनका शायद यह मानना था कि इस मोहपाश से मुक्त होने के बाद ,व्यक्ति ज्यादा प्रोडक्टिव हो सकता है ,अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए ...लेकिन लोगों ने अधूरे ज्ञान से संतृप्त होने में ही अपनी तुरत भलाई समझी ..बहरहाल विषयान्तर सा हो रहा लगता है ..
8 - विषय बहुत ज्यादा नया नही है ,किन्तु यह कहानीकार की दक्षता है ,उन्होंने इसे भरपूर निभाया है ,रोचक मोड़ उत्तपन्न करने में सफल रहे हैं ।
9 - पर्दाप्रथा उतनी बुरी नही है ,जितना कहा जाता रहा है ..काश बुरका में बाहर आगमन होता ( राबिया का) तो शायद यह कहानी यह न होती ...

सईद अयूब जी परिपक्व सोच रखने वाले निहायती शानदार इंसान हैं ...उनको बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाएं

आपकी और भी चर्चित कहानियां पढ़ना चाहेंगे ..

सईद अय्यूब ,उत्तर प्रतिक्रिया 
1) पहले इस कहानी का शीर्षक 'मौलाना मुफ़्ती' रखा था। 'पाखी' में इसी नाम से प्रकाशित हुई थी यह कहानी पर उसके बाद लगा कि शीर्षक 'अस्तग़फ़िरुल्लाह' होना चाहिए क्योंकि यह कहानी के ज़्यादा नज़दीक है और उसे एक अर्थ दे रहा है।

2) कुरीतियाँ कहीं की भी हों, कैसी भी हो, दिखाई दें तो उस पर क़लम चलाना साहित्यकार की ज़िम्मेदारी होती है। चूँकि मैं इस समाज से आता हूँ, मैं इस समाज की अच्छाई और बुराई दोनों को थोड़ा ठीक से समझ सकने का दावा कर सकता हूँ। मेरी दूसरी कहानियों में भी आपको यह चीज़ देखने को मिलेगी।

3) यह अलग विमर्श का विषय है। कभी फिर सही।

4) इस पर भी कभी और चर्चा।
 5) पीड़ित शब्द का इस्तेमाल शायद उचित नहीं है। भावनाएँ स्त्री-पुरुष दोनों की होती हैं, इसे कौन नकार रहा लेकिन एक कहानी सब कुछ नहीं कह सकती, सब कुछ नहीं कर सकती। उसे सब कुछ कहने की कोशिश करनी भी नहीं चाहिए। एक कहानी को किसी समाज शास्त्रीय समस्या को समझने के लिए एक टूल के तौर पर भले ही उपयोग कर लिया जाये पर एक कहानी किसी समाज शास्त्रीय चिंता का हल ढूँढने का दावा कभी नहीं करती।

6) यह कहानी सरकारी फरमान आने से पहले पूरी कर ली गयी थी। वैसे सच यह है कि तीन तलाक़ कुछ राजनैतिक पार्टियों के लिए एक बड़ा राजनीतिक नारा है लेकिन यह भी सच है की इंस्टैंट तलाक़ की प्रथा और हलाला एक निहायत घटिया प्रथा हैं। ये चाहें जैसे भी बंद हों, होने चाहिये। कहाँ से आये, क्यों हैं आदि प्रश्नों पर कभी किसी और चर्चा में।

8) आपकी तारीफ़ के लिए एक बार फिर से शुक्रिया। वैसे मेरी अपनी जानकारी में यह विषय एकदम नया ही है। मैंने अब तक कोई ऐसी कहानी नहीं पढ़ी है। आप कृपया कुछ ऐसी कहानियों के नाम सुझाएँ। मैं निश्चित रूप से पढ़ना पसंद करूँगा।

9) मैं हर तरह के पर्दा प्रथा को निहायत बुरा मानता हूँ और इसका एकदम विरोधी हूँ। अगर यह बुरा नहीं है तो पुरुषों को भी पर्दा करना चाहिए।


ब्रज श्रीवास्तव: एक ऐसी कहानी जिसे अफ़साना कहने को ज्यादा जी कर रहा है। मंटो सहित दीगर अदीब याद आ रहे हैं।

तलाक़ो निकाह की खामियां, मध्यम मुस्लिम परिवारों के बीच चलते जीवन की बारीक बारीक बातें और आदमी की फितरत को ज़ाहिर करती यह कहानी ग़ज़ब की पठनीय है। आप अक्सर अपने तरह के किरदार के साथ हो लेते हैं। तो इस कहानी में भी हम उसी माहौल में समा जाते हैं।
कुजात मियां पर दया आती है। मौलाना मुफ्ती के किरदार में जो गति और बदलाव है,वह मज़ेदार है। कुछ चित्रण ऐसे हैं, जिन्हें सिर्फ स‌ईद अय्यूब ही कर सकते हैं, दरअसल लेखन की कला ऐसी ही जगह पर नमूदार होती है। रुबिया की रानाई और हाफिज़ जी की ज़हनी अय्याशी का बारीक बयान उसी दर्जे का है।वह एक अच्छे लिंग्विस्टिक हैं जिसका सुबूत हैं वर्तनी का एक भी दोष न होना।

तब्बसुम : मैंने अय्यूब जी को आज पहली बार पढ़ा है और कहने से गुरेज़ नही करूंगी कि उनकी लेखनी की क़ायल हो गई। भाषा,तंज़ और बेबाकी ने सचमुच मंटो की याद दिला दी वरना इस सामजिक कुरूतियों पर क़लम चलाने से पहले कोई भी कहानीकार दस बार ज़रूर सोचेगा।
कहानी की बात करें तो एक सच्चाई को सामने लाने की सार्थक कोशिश की गयी है।मुफ़्ती या हाफ़िज़ जैसे किरदार हमारे आसपास भरे पड़े हैं जो लोगों की बेवक़ूफ़ियों का जम कर फायदा उठाते हैं।ये वही किरदार हैं जो आज मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ और हलाला जैसे रिवाजों को कुप्रथा बना डाला है।क़ुरआन चुंकि अरबी में है अधिकांश मुस्लिम अरबी नही जानते और न समझ पाते हैं कि शरीअत क्या है और तीन तलाक़ और हलाला का असली स्वरूप क्या है। मुफ़्ती जैसे लोग इन्ही अज्ञानता का फायदा उठा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं क्यों कि समाज में इनकी बड़ी इज़्ज़त होती है और लोग इनके कहे को सच मानते हैं।तलाक़ ज़्यादातर गुस्से की हालत में दी जाती है और ग़लती का एहसास होते ही सुलह की कोशिशें शुरू हो जाती हैं जिसका फायदा ये मुफ़्ती जैसे लोग उठाते हैं जबकि ऐसा तलाक़ सुलह का ख्याल आते ही खत्म हो जाता है अगर दोनों राज़ी हों।हलाला की ज़रूरत ही नही होती।
तीन तलाक़ और हलाला बहुत गम्भीर मसला है और गहरे विमर्श की मांग रखता है लेकिन अय्यूब जी से एक बात ज़रूर कहूंगी कि कहानी में तलाक़ के बाद फौरन शौहर का घर छोड़ने की बात कह कर एक गलत संदेश दिया है।इद्दत शौहर के घर में ही पूरी करनी होती है और इस दौरान सुलह की पूरी कोशिश भी होती है ।
बहरहाल अच्छी कहानी पढ़वाई आप लोगों ने।अय्यूब जी के साथ सा क़ी बा का भी बहुत आभार ।

जतिन अरोड़ा: हर लिहाज से कहानी.दमदार कहानी. इतनी कसावट से लिखी गई कहानी कि एक एक लफ़ज़ खुद को निगाह से मुलाकात करवाता
है.कहीं
भी एेसा पल
नहीं पेश आता कि
एक दो पंक्तियाँ फांद कर आगे बढ़ लिया जाए।
कहानी जितनी लंबी होती जा रही थी...रस उतना ही बढ़ता जा रहा था। उर्दू लफ़ज़ों का बेमिसाल इस्तेमाल और किस्सागोई के लिए सईद भाई को कोटि कोटि बधाई .कहानी का विषय भी दमदार था और उसे निबाया भी शिद्दत से गया.. शैली ने मुझे बेहद प्रभावित किया। कहानी में गहराई है और अचानक ही यह सच होकर पाठक को साथ ले लेती है। 


अबीर आनन्द: पहली पढ़ता सुबह ही हो गई थी। दिल में खलबली सी रही, जी चाहा कि सवाल किया जाए। फिर सोचा शाम तक देखते हैं, कुछ हाजमा दुरुस्त हुआ तो ठीक नहीं तो सवाल तो है ही।
तो सवाल ये था कि अपने आचरण से गिर जाने के बाद भी गाँव वालों ने मौलाना मुफ्ती को 'कुबूल' कैसे कर लिया।
उत्तर कुजात मियाँ के नाम में मिला। और क्या खूब उत्तर मिला है। याद रहे कि एक लतीफ़े को आधार बनाते हुए पूरी कहानी रची गई है। किसी को चुपचाप कुजात कर देना सवाल का जवाब नहीं देता बल्कि सवाल को पलट देता है। कुजात मियाँ होशियार थे और वे अक्सर दूसरों का (संभवतः उनके हिसाब से निम्न आचरण वालों का) बहिष्कार कर दिया करते थे। निम्न आचरण वाले लोग जब बहुसंख्यक हो जाएं तो कुजात होने की बारी सदाचारियों की होती है। मौलाना मुफ्ती का बहिष्कार होना चाहिए था पर वे स्वीकार कर लिए गए क्योंकि उनका आचरण सामान्य हो गया और वे समाज के उस वर्ग का हिस्सा बन गए जहाँ सदाचार की परिभाषा लोगों की गिनती के आधार पर तय होती थी। लतीफ़े से शुरु कहानी यदि पूरी तरह न्यूट्रल होकर देखी जाए तो समझ आता है कि सामाजिक कुरीतियों की दबंगई ने लोगों की पूरी जिंदगी लतीफ़ा बना दी है। तलाक और हलाला का विषय जब पहली बार 'निकाह' में देखा था, आदमी के पागलपन पर बहुत दुख हुआ था।
 हिंदी और उर्दू की मिली जुली गुलाबी तासीर की भाषा न सिर्फ सरल और सुघङ है वरन प्रभावी भी है। अगर कोई कहानी या किताब, आपके आचरण, विचार या भाषा में से किसी भी एक चीज को समृद्ध करती है तो वह कहानी या किताब सफल मानी जाती है। इस लिहाज से कहानी तीनों ही पक्षों को समृद्ध करती नजर आई।
मौलाना से राबिया की शादी तक यदि सीमित रहते तो भी संदेश उतना ही प्रभावी होता, इंटेंसिटी थोङी सी बढ़ जाती। मौलाना के दूसरे निकाह से कहानी में कुछ बनावटीपन सा लगा। एक यही थोङा नकारात्मक पक्ष नजर आया। स्त्री पक्ष कम दिखाई दिया। पर ये कमी नहीं है, लेखक का फोकस मौलाना रहे, राबिया नहीं, इसलिए यह शिकायत वाजिब नहीं है।
बहुत ही बोल्ड और साफगोई से ताने बाने का चित्रण हुआ है। धार पैनी है और सही जगह वार करती है।
बधाई सईद भाई।

मधु सक्सेना: प्रवाह और रोचकता बनी रहती है ।किस्सागोई पाठक को बांध लेती है ।

पहले भी लेखक ने गोल गोल रानी,कित्ता कित्ता पानी  बच्चो के इस खेल को आधार बना कर कहानी रची थी ।कोई एक बात या विषय उठा कर कहानी गढ़ने का कौशल है लेखक में ।ये उनकी तीसरी कहानी पढ़ी है ।अंधविश्वास और अनुचित परम्पराओं के खिलाफ उन्होंने कलम को हथियार बनाया  । प्रस्तुत कहानी में भी कई समस्याओं को एक साथ उठाया ।तीन तलाक ,इद्दत , हलाला आदि रिवाजों के परिणाम सामने आए ।
 किसी महिला कथाकार की कहानी इसी मंच से पढ़ी थी जिसमे नायिका अपनी आपबीती सुनाती है कि उसका पति उसे 6 बार तलाक दे चुका और फिर विवाह भी कर चुका ।तलाक के बाद पछताते हुए वो पैसा और लालच देकर बीबी का निकाह करवाते और तलाक दिलवाते ।(प्रवेश को याद होगी )
 ऐसे समय स्थिति  हस्यसप्रद हो जाती जैसा मुफ़्ती ने किया ।
आदमी की मानसिक स्थिति का वास्तविक चित्रण किया सईद ने ।और चुटकुला ( जो अब हर धर्म के  नाम से घूम रहा वाट्सप पर )
कहानी के पात्रों का चित्रण भी करता है ।घटनाएं तेजी से चलती है ।पाठक को कहीं भी ऊब नही होने देता ।
तलाक के बाद लेखको को खुला  पर भी कहानी लिखनी चाहिए । महिला तो कठपुतली ही बनी रही पूरी कहानी में ।उसकी जीवंतता को आगे लाने का साहस भी करना होगा ।
उम्मीद करती हूँ लेखक की अगली कहानी में किसी कठपुतली में जान आ जाये ।

बहुत शुभकामनायें । ये कहानी लिखने के हौसले को सलाम ।

आनंद सौरभ: नए युग के कथाकार सईद अय्यूब जी की कहानी पढ़कर दिल बाग-बाग हो गया . कहानी की भाषा बड़े रोचक शैली आगे बढ़ रही है,
जो की सरल सपाट और सुस्पष्ट है.
इस कहानी के माध्यम से पुरुष की उस प्रवृत्ति को जो ,वह स्त्री को उपभोग की वस्तु समझता है, और उसका शोषण करता है. वासना से भरे पुरुष के मन को मनोवैज्ञानिक ढंग से दर्शाने का प्रयास किया गया है .कथाकार अपनी संपूर्ण बात कहने में सक्षम है .
कहानी पूरी तरह से वर्तमान परिदृश्य को चरितार्थ करती है. मुस्लिम समाज की औरतों को पूरी तरह से झकझोर देने वाली कहानी उनके जीवन शैली की हकीकत को बयां करती है .
तीन तलाक और हलाला जैसे सोचने पर मजबूर कर देने वाली कुरीतियां समाज में अभी भी व्याप्त है ,लेखक ने बड़े सुंदर और सुदूर सोच के साथ व्यक्त किया है.
जो की बहुत सराहनीय है यह कहानी महिलाओं की वेदना और शोषण को रोकने का रास्ता मुहैया करायेगी .
ऐसा मुझे विश्वास है मैं एक बार फिर से कथाकार परम आदरणीय सैयद अय्यूब जी को बहुत-बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा
पति गुस्से में तलाक दे देता था फिर पछताता रोता था और पैसा देकर पत्नी का उससे निकाह करवाता था तलाक की शर्त रख कर । हर पुरुष ने उसका शोषण किया ।एक मौलवी ने तो 6 माह बाद तलाक़ दिया ।
 इस तरह उस  पति ने पत्नी को 6 बार तलाक़ और 6 बार निकाह किया । इद्दत और अन्य मर्द के साथ निकाह आदि सब रस्मो को  निभाया ।

राजेश झरपुरे: भाई सईद अयूब जी की कहानी अस्तगफिरूल्लाह पढ़ी। बेहतरीन कहानी। कहानी के सभी पक्ष पर मित्रो ने अपनी बात रखी। उन्हें पुनः दोहराना नहीं चाहूँगा। गुस्से में कुजात मियाँ व्दारा हुए गुनाह के खिलाफ धर्म और समाज खड़े नज़र आते है लेकिन  प्रायश्चित में ...?

जबकि राबिया ख़ातून, अपने पहले पति  कुजात मियाँ को कभी भूल ही नहीं पाई थी और उन्हें याद कर अकेले में रोया करती थी। ठीक इसके विपरित मृत्यु पूर्व  कुजात मियाँ का अपनी पूरी जायदाद पूर्व पत्नी,बेटे और यहाँ तक की दूसरे पति मौलान मुफ़्ती और उसके बेटे के नाम कर जाना प्रेम की पराकाष्ठा  हैं। धर्म सम्बन्धों को जोड़ता हैं फिर क्यूँ पति पत्नी के बीच के बेहद व्यक्तिगत मामलों को लेकर धर्म और समाज आड़े आ जाते है,जैसा कुछ सोचना शायद कहानी का विषय न हो।

कोमल सोमरवाल: सईद जी की कहानी का विषय सामाजिक शिष्टाचारों और स्थापित नैतिकताओं की वात खिड़की से झाँकता है और सफलतापूर्वक पाठकों में स्पर्शग्राह्य विकलता उत्पन्न करता है।
ये कहानी प्राचीन प्रतिष्ठाओं के शब्द चित्रांकन को नकारती है। सामाजिक मिथ्या प्रतिमानों की असंगतता का प्रदर्शन और एक नये उपागम का सृजन करने की विशिष्टताएँ इस कहानी में निहित है।
कुजात मियाँ के किरदार को मृदुकारी और भद्र पुरुष के शोभाचार प्रदत करने का लेखक का निर्णय कहानी का संक्रान्ति काल साबित हुआ।
ये कहानी सतचरित्रों से नैतिकता का नक़ाब उतारती है। कहानी का मोहक प्रवाह पाठक को बहा ले जाता है।
स्त्री के प्रतिरोध और प्रतिशोध की एक हल्की परत राबिया के किरदार में उभरती है और एक अल्पकालीन रूमानियत का तत्व मौलाना मुफ्ती और राबिया के मध्य पनपता है हालाँकि ये कहानी के अग्रस्तर पर पहुँचते ही पूर्णत: खंडित हो जाता है।
सईद जी इस कहानी में मौलाना मुफ्ती के किरदार से मनुष्य की कुटिलता की सजावटी परत को अपनी कलम की पैनी धार से उखाड़ते चलते हैं और कहानी के अंत तक आते आते इस विकृत निद्राचार को अपने शिल्प से गहरा आघात पहुँचा देते हैं।
सईद जी एक बड़े स्तर के कहानीकार है, उनकी कहानियों का आलोचनात्मक विश्लेष्ण मेरे सामर्थ्य में नहीं है। एक पाठकीय विवेचना समझें । 

रविन्द्र स्वप्निल:  कहानी हिंदुओं के धार्मिक सामाजिक अन्धविश्वासों का मुस्लिम  संस्करण है। अच्छी इसलिए लग रही है कि कहानी अच्छी है। कहन में रवानी है। इसमे राजनीतिक अंधविश्वासों  का संश्लेषण और बनना था। सईद से कहना चाहूंगा के ये कहानी है पर इसमे वो इको किधर है जिससे कोई कहानी  समय और साहित्य की सीमा से पार जाती है। सरल रेखा की ये कहानी सुंदर है लेकिन मुझे इसमे कुछ और भी देखना था कि आख़िर में|


शरद कोकास: सईद भाई , मैंने पूरी कहानी पढ़ी और मुझे बहुत मज़ा आया । ऐसी कहानी कथाकार होने का गुमान पालकर नही लिखी जा सकती । कहानी के तमाम तत्व इस कथा में मौजूद हैं और रोचकता का तत्व सबसे प्रमुख है ।
आपका अंदाज़ भी किस्सा गोई वाला है , मुझे दरअसल कहानियां इसी अंदाज की पसंद आती हैं । बौद्धिक कलाकारी वाली कहानी मुझे पसंद नही ।
अल्लारक्खा उर्फ कुजात मिया का चरित्र चित्रण थोड़ा और विस्तार ले सकता था , उनके पश्चाताप को थोड़ा और मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता था । मौलाना का कैरेक्टर तो इसका केंद्रीय पात्र है जिसका निर्वाह आपने खूब किया है ।
फिर भी धर्म के ठेकेदारों पर इस तरह से लिखना थोड़ा साहस का काम भी है । आजकल खतरे भी बढ़ गए हैं , ऐसे कई मौलाना और आसाराम समाज मे छुपे हुए हैं ।
इन दिनों व्हाट्सएप पर एक जोक चल रहा है एक पंडित जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जाते हुए ताकीद करते हैं कि लड़की दिखे तो हरिओम कहना । बहुत देर बाद एक लड़का कहता है हरिओम तो सब ओर से आवाज़ आती है ...कहाँ है कहाँ है ।
मुझे लगता है ज़रूर यह आपकी कहानी से प्रेरित होकर रचा गया होगा ।

अखिलेश श्रीवास्तव: मैं कथाकार अयूब को नहीं जानता पर अयूब को जानता हूँ थोड़े से वामीं है और फाॅसीवादियो से फेसबुक पर लोहा लेते रहते है यह भी कि महज़बी और अयूब दोनों के ऊपर कोई और चेहरा नही है ये दोनों बिना किसी ख़ौफ के मुस्लिमों से संबंधित मुद्दों पर भी मुखर रहते है ऐसे लोगों की कितनी ज्यादा जरूरत है हम सब जानते है मेरे कुछ दोस्त भी उन्हीं की तरह आजाद ख्याल है पर यह कलम तो हर किसी को मयस्सर नही है ।

 आज की कहानी पढ़ी। उनकी किस्सागोई अच्छी तो है ही पर हम लोगों को और अच्छी लगी क्योंकि हम लोग इतना कम जानते है मुस्लिमों को,उनके रीति रिवाज को, जबकि हजार साल से साथ रहते है मन में जानने की इच्छा भी होती है पर कब कौन इसे टांग अड़ाना मान ले तो इन विषयों पर संवाद लगभग न के बराबर है मैं इस कहानी को झरोखा जैसा पाता हूँ कान लगाकर पूरी बतकही सुना गये अयूब इस कहानी में, दशा भी दिखी और मनोदशा भी ।
 आलोचकों का पता नही (यह भी नही पता कि कहानी को आलोचना की जरूरत क्यों है ) पर पाठक के लिए सबसे अच्छी कहानी वह होती है जिसे वह व्हाट्सअपिया दिक्कतों के बावजूद पढ़ ले जाये,इस कहानी में गज़ब की पठनीयता है इसके लिये अयूब को बधाई ।

तलाक जैसे मुद्दों पर कोई कोर्ट कचहरी तो करनी न थी खाली बोलना ही तो था कहकर कथाकार यह तो बताना चाहता है कि इसे इतना आसान होने से मामले ज्यादा है और मौलवी जैसे लोग जो तहरीरों में नेतागिरी करते है इसका फायदा भेडियों की तरह बोटी नोचने में उठाते है पर राबिया को जब मौका मिलता है  तो वो मौलवी के साथ गायब हो जाती है क्या यह एक महीन समर्थन है रात गुजारने की अनिवार्यता को कि तलाक अपमान है और  यह विकल्प देता है महिलाओं को कि वो अपमान का बदला ले सके । क्या इससे पलटवार करने में मदद मिलती है । अगर कोई एक रात के लिए बीबी पा जाये तो महीनों  उपजी कटुता पर नये पुरुषीया छल व वादे भारी न पड़ते होंगे । कहानीकार इस समस्या को एक महीन समाधान में बदल देता है क्या यह समर्थन है इस प्रथा का कि यह स्त्रियों को विकल्प देती है ।

एक और बात जो लगी कि अंत में हड़बडी सी लगी । बेटी की उम्र की लड़की मौलवी के साथ क्यों भागीदार यह थोड़ा विस्तार चाहता था वो दिखा तो मौलवी को हवसी पर अंत में गाज स्त्री पर गिर गई है पाठक तो उसे ही जिम्मेदार मान लेगा अंत में । वैचारिक स्तर पर कहानी को आदर्श रूप में नहीं लिखना चाहिए पर अच्छे खासे परिवार की लड़की बुड्ढे के साथ भागने से पाठक का गुस्सा मौलवी से हटकर लड़की तक जाता है और चरित्र हनन के बहाने का फायदा उठाकर मौलवी को बरी करता हैं और मजे में डूब जाता है क्योंकि थोड़ा बहुत मौलवी तो सबके भीतर है और कोई खुद रात में आ जाये तो कहानी में भी वही सदियों पुराना तर्क तैर जाता है कि कुलटा थी भाग गई, मेरी क्या गलती । गौर से देखने पर कहानी में मौलवी बरी है लड़की गुनाहगार,मियाँ भी बरी है क्योंकि उन्होंने माफी माँगी,राबिया गुनाहगार क्योंकि उसने माँफ नहीं किया । 

पदमा शर्मा: सईद जी की कहानी में गजब की पठनीयता है। यह कहानी का कथ्य और कहन शैली है जो कहानी को पढ़वा ले जाती है।
जैसा कि सईद जी ने कहा कि उनका मुख्य लक्ष्य मौलवी और कुजात मियाँ थे।
हर पाठक अपने हिसाब से कहानी को आगे बढ़ाना चाहता है। इसलिए उसके अंत व घटनाएँ भी उसी क्रम में चाहता है।
चूँकि सईद जी की यह कहानी 2014 की लिखी है। और आज जबकि तीन तलाक़ अपने संघर्ष पर है हमें कई कमियाँ मिल जाएँगी।और यह अक्सर होता है।
 सामाजिक घटनाओं पर लिखी कहानियाँ कालजयी कम हो पाती हैं।


प्रतिक्रियाओं पर लेखकीय कथन 
सईद अय्यूब 
मधु जी, एक अच्छी आलोचना या समीक्षा से हमेशा यह आशा की जाती है कि वह एक प्रशस्ति न हो। आप जब लिखती हैं (और मैं मन से चाह रहा था कि आप इस कहानी पर लिखें) तो लेखक को एक उचित मार्गदर्शन मिलता है। उसे पता लगता है कि जो उसने लिखा है उसमें सब कुछ 'जय-जय' वाला नहीं है बल्कि कुछ 'ठन-ठन गोपाल' भी है।

सबसे पहले तो बहुत-बहुत शुक्रिया कि अपने नाटक से समय निकाल कर मेरी कहानी तक आप पहुँची और इस पर लिखा भी। आपने जो तारीफ़ की है, वह मेरे आगे हमेशा एक रौशनी की तरह रहेगी। 🙏

मालूम नहीं आप किस महिला की कहानी की बात कर रही हैं। शायद किसी वजह से वह कहानी मैं नहीं पढ़ पाया। लेकिन जैसा आप बता रही हैं उस हिसाब से वह कहानी बहुत काल्पनिक सी लग रही है। छः-छः बार तलाक़ और हलाला- मैंने आज तक ऐसा नहीं देखा और अगर किसी औरत के साथ ऐसा होता है तो उसके साथ सहानुभूति के बजाय, ग़ुस्सा ही आएगा कि वह क्यों यह सब बर्दाश्त कर रही थी? हाँ, कुछ मामले ऐसे थे जहाँ एक ही महिला को कई बार ख़रीदा बेचा गया, उसके साथ कई लोगों ने शादी की और फिर बलात्कार किया और जब मन भर गया तो उसे दूसरे को बेच दिया। राजस्थान और हरियाणा में ऐसे कई केसेज सामने आए जहाँ बिहार, झारखण्ड या असम की लड़कियों के साथ ऐसा हुआ। उन्हें नौकरी या एक अच्छे घर में शादी का लालच देकर लाया गया और फिर उनके साथ अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी गईं। बाद में, मामला जब पुलिस तक पहुँचा तो अपराधियों को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन वह विशुद्ध रूप से ह्यूमन ट्रैफिकिंग का मामला था। ख़रीद फ़रोख़्त का मामला था। वहाँ धर्म द्वारा बनाई गये किसी नैतिक पैमाने जैसे तलाक़ या हलाला का कोई इश्यू ही नहीं था। इसलिए मुझे वह कहानी अवास्तविक लग रही है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि भारतीय मुस्लिम समाज में जितना राजीनीतिक रूप से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है, उसकी तुलना में तलाक़ के मामले बहुत कम हैं और हलाला का मामला तो बहुत-बहुत कम लेकिन जितना भी कम हो यह क्रुयल है और अमानवीय और एकपक्षीय है, इसमें कोई दो राय नहीं।

 खुला पर कहानी लिखी जा सकती है पर मैं लिख ही दूँगा ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता। दरअसल, लिखने की प्रक्रिया एक बहुत रहस्यमयी प्रक्रिया है। कम से कम मेरे लिए। मैं समझ ही नहीं पाता कि मैं लिख कैसे लेता हूँ और कब लिख लेता हूँ। कहानियाँ दिमाग़ में चलती रहती हैं, चलती रहती हैं। मुद्दतों बेचैन रहता हूँ और उसे लिख नहीं पाता। फिर कोई दिन, बल्कि दिन का कोई पहर आता है जिसमें एक लहर सी आती है और सब कुछ टाइप होकर चंद घंटों में सामने होता है। रफ ड्राफ़्ट। उस समय बस मैं टाइप करता हूँ। उँगलियाँ अपना काम करती हैं बस। वर्तनी वग़ैरह भी नहीं देखता। शब्द कहाँ से आते हैं, पता नहीं चलता। बस कुछ होता है। जैसे किसी पैग़म्बर पर कोई वही नाज़िल हो रही हो वैसा ही कुछ। एक बार लिख जाए तो फिर महीनों के लिए दिमाग़ ख़ाली। फिर महीनों छूता भी नहीं उस कहानी को। फिर एक दूसरी प्रक्रिया शुरू होती है, उस लिखे को सुधारने की, नोक पलक संवारने की। इसमें में भी कई महीने लग जाते हैं। यह कहानी मैंने नवंबर 2014 में लिख ली थी लेकिन पूरे तीन साल बाद अक्टूबर 2017 में यह कहानी पाखी में प्रकाशित हुई क्योंकि मैंने कहीं भेजी ही नहीं। लिखने की ही तरह कहानी का विषय चुनने की भी समस्या है। मैं कहानी का विषय नहीं चुनता। आज तक नहीं चुना। कहानी के विषय ही मुझे चुनते हैं। कोई घटना, कोई पात्र, कोई चरित्र, कोई समस्या कहीं अचानक से टकरा जाती है और कहानी का विषय मिल जाता है। फिर कुछ वास्तविकता, कुछ कल्पना, कुछ दूसरे कौशल मिलकर कहानी लिखवा ले जाते हैं। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि यदि कभी खुला ने मुझे चुना कि मैं उस पर एक कहानी लिखूँ तो ज़रूर एक कहानी सामने आएगी उस विषय पर। लेकिन जहाँ तक राबिया के इस कहानी में कथपुतली बने रहने की बात है और उसके चरित्र को न उभारने की बात है, पूरी कहानी में मेरा वह उद्देश्य है ही नहीं। कहानी में तो जो समाज में हुआ वह दिखाया जा रहा है। क्या उस समाज में राबिया सिर्फ़ एक कठपुतली नहीं है? राबिया जैसी हज़ारों-लाखों औरतें कठपुतली नहीं हैं? एक कहानीकार उनमें ज़बरदस्ती जीवन क्यों पैदा करे? बल्कि उसको चाहिए कि वह अपनी कहानियों में इन्हें कठपुतली ही दिखाए ताकि वास्तविक जीवन में कोई कठपुतली इसे पढ़कर शायद यह सोच सके कि अभी तक वह कठपुतली ही है और अब उसे अपने अंदर जान पैदा करनी है। हर कहानी की अपनी एक डिमांड होती है। यहाँ राबिया का चरित्र उभारना कहानी की डिमांड ही नहीं है। वह जैसी असली ज़िन्दगी में है, वैसी ही इस कहानी में है। हाँ, उसके पक्ष में और उसके चरित्र पर एक दूसरी कहानी लिखी जा सकती है। जहाँ तक औरत के कठपुतली न होकर समाज के बने बनाये ढाँचे में एक सशक्त हस्तक्षेप की तरह दिखाने की बात है, आप मेरी दूसरी कहानियाँ जैसे भरभितना, मोनालिसा हँस रही है, हुमा आदि पढ़ सकती हैं। मेरी कहानी घुघ्घुर रानी की खुश्बू और दाढ़ का दर्द की सकीना में यह पक्ष देखा जा सकता है। आगे और भी कहानियाँ आएँगी जिसमें स्त्रियाँ बिल्कुल अलग रूप में सामने आएंगी। क्योंकि वहाँ कहानी की डिमांड वही है। एक ही कहानी से सब कुछ की अपेक्षा कहानी के साथ थोड़ा सा अन्याय जैसा होगा।

कोमल, आपकी यह पाठकीय विवेचना किसी आलोचनात्मक विश्लेषण से कम नहीं है। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि आपके पास एक अच्छे आलोचक बनने के तमाम गुण हैं। अच्छी भाषा, किसी रचना के मर्म तक पहुँचने की दृष्टि, उस रचना की गहराई में उतर कर उसकी चीर-फाड़ करने की क्षमता, एक अलग तरह की शैली और वे तमाम शब्द विन्यास और टर्म्स जो कि एक आलोचक के पास एक महत्वपूर्ण हथियार की तरह हमेशा होने चाहिए आपके पास हैं। आप इस विधा में सीरियसली आइये। हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं पर आपकी पकड़ आपको और विशेष बनाती  है और आलोचना में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

कहानी की तमाम तारीफ़ों के लिए आपका शुक्रिया। जहाँ तक कि कुजात मियाँ के किरदार को मृदुकारी और भद्र पुरुष के शोभाचार प्रदत्त करने का प्रश्न है तो मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि मैं अपनी कहानियों में सायास कोई चरित्र नहीं गढ़ता। ऐसा करना कहानी से खिलवाड़ करना होगा। मेरी कहानियों में चरित्र स्वाभाविक रूप से उभरते और निखरते हैं। मेरा प्रश्न है कि कुजात मियाँ भद्र और मृदु क्यों नहीं हो सकते? आपको अपने आसपास कुजात मियाँ जैसे तमाम लोग मिल जाएंगे। हाँ, उनसे एक ग़लती हुई। उन्होंने ग़ुस्से में राबिया को तलाक़ दिया लेकिन उनको अपनी इस ग़लती का एहसास हुआ और वे उस ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं और करते भी हैं। हाँ, धर्म के क़ानून उनके आड़े आते हैं और इसी में वे बर्बाद भी होते हैं। अगर उनको और राबिया को धर्म का डर नहीं होता, तो तलाक़ के बावजूद वे दोनों साथ रह सकते थे। लेकिन धर्म इतनी गहराइयों तक पैठ बनाये रहता है कि उसका अंदाज़ा भी नहीं कर सकते।





 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

पिछले पन्ने