Sunday, December 31, 2017

 
डॉ मालिनी गौतम की कविताएं 



डॉ मालिनी गौतम
नाम                           मालिनी गौतम
जन्म                          20 फरवरी 1972 को झाबुआ (मध्यप्रदेश) में
शिक्षा                          एम.ए., पी-एच. डी. (अंग्रेजी)
लेखन विधाएँ                    मुक्तछन्द कविता,ग़ज़ल,गीत,दोहा, अनुवाद इत्यादि

कृतियाँ                         1 बूँद-बूँद अहसास (कविता-संग्रह)   

                                                       2 दर्द का कारवाँ ( ग़ज़ल-संग्रह)
3  एक नदी जामुनी-सी ( कविता-संग्रह)
4 गीत अष्टक तृतीय ( साझा गीत संकलन)
   5 काव्यशाला ( साझा कविता-संग्रह)
   6 कविता अनवरत ( साझा कविता-संग्रह )
                                                           
सम्मान                        1  आगमन साहित्य सम्मान -2014, दिल्ली
                              2  परम्परा ऋतुराज सम्मान-2015, दिल्ली
   आशा साहित्य सम्मान-2015, भोपाल (म. प्र.)
  4 अस्मिता साहित्य सम्मान-2016,बड़ौदा (गुजरात)
 5  भारतीय साहित्य सेवा सम्मान-2016, अखिल  भारतीय    साहित्य परिषद, इन्दौर
संप्रति                         एसोसिएट प्रोफेसर (अंग्रेजी), कला एवं वाणिज्य
                              महाविद्यालय, संतरामपुर (गुजरात)                               
संपर्क                          ई मेल - malini.gautam@yahoo.in
                            




कविताएं 
 छोटी जगहों के लोग


छोटी जगहों पर
लोग अब भी एक दूसरे को
आँखों से पहचानते हैं,
चेहरे,कपड़े,गाड़ियों के मॉडल नम्बर
अब भी यहाँ मायने नहीं रखते ।
कभी तेज़ धूप तो कभी धूल से
बचने के लिए
चेहरे पर लपेटे हुए दुपट्टे के बावज़ूद
मैं चाहकर भी भीड़ में
अजनबी नहीं हो पाती,
एक्टिवा चलाते हुए संतरामपुर के
किसी भी गली-मोहल्ले में पहुँच जाओ
अरबवाड़ा...भोईवाड़ा....ब्राह्मणवाड़ा
नवा बाजार...मोटा बाजार ...या फिर वणकर वास
हर जगह घरो के बाहर खड़े,आते-जाते
दो-चार विद्यार्थी
चिर-परिचित मुस्कराहट के साथ
नमस्ते करते नजर आयेंगे
यहाँ तक कि उनकी अनुपस्थिति में
उनके माता-पिता भी
"
आइये न"......की गुहार लगायेंगे
बैंक में...पोस्ट-ऑफिस में..दवाखाने में
किराने की दूकान पर
मेडिकल स्टोर पर
फल और सब्जी वालों के यहाँ
कोई भी इंतज़ार नहीं करता
दुपट्टे के नीचे छिपे चेहरे को देखने का..
भरे बाजार अगर ठप्प हो गयी एक्टिवा
तो आस-पास से दस लोग
उसी परिचित अंदाज़ से पहुँच जाएंगे
किक लगाने को,
और कुछ नहीं तो
किसी गली में छोटे-छोटे बच्चे चिल्ला देंगे
व्यापक की मम्मी.......
इन दिनों
जब आदमी की पहचान
उसका चेहरा..कपड़े..और गाड़ी के मॉडल नम्बर
बनते जा रहे हैं
सुकून है कि छोटी जगहों में
लोग अब भी एक दूसरे को
आँखों से पहचानते हैं।








यात्रा सौर-मंडल की


अपनी कमर से लिपटी हुई
दो छोटी-छोटी बाँहों का,
पीठ पर सटे हुए
नर्म गालों का स्पर्श लिए
सधे हाथो से एक्टिवा चलाती माँ
बच्चे को स्कूल छोड़ने
और लेने जाती है,
बच्चे के हाथ की पकड़
ढीली होते ही
गाल का स्पर्श दूर होते ही
वह सतर्क होकर
बार बार ताकीद करती है
बच्चे को ठीक से बैठने के लिए..
पके हुए घावों-सी रिसती सड़क पर
एक-एक गड्ढे-से पहिये को बचाती,
इधर-उधर से सड़क पर अचानक आती
बकरियों, गायों और कुत्तों के सामने,
कट मारते लोफरों के सामने 
सन्तुलन साधती
वह बचाती है एक-एक झटके से
अपने बच्चे को..
किसी अनिश्चित पल में
बेलेंस खोते वक्त
सेकण्ड के सौवें हिस्से में
वह निर्णय लेती है कि
किस स्थिति में गिरे कि
बच्चे को कम से कम चोट पहुँचे
भले ही उसके हाथ में फ्रैक्चर हो जाए..
चन्द किलोमीटर की इस यात्रा में
उसके ज़ेहन में कभी नहीं आतीं
बेसिर- पैर की बातें,
दवा-दारू
कमर और घुटने का दर्द
मिर्च-मसाले
कलम-कलुछी
दूध का उफनाना
यहाँ तक की प्रेम भी ..
इस छोटी-सी यात्रा में
वह सिर्फ माँ नहीं होती
वह होती है पूरी की पूरी पृथ्वी
जो बिना किसी ग्रह-नक्षत्र से टकराये
करती है यात्रा सौरमण्डल की ...








 ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयां होती है

मणिरत्नम की अंजलिलगी है टाकीज़ में
देखने चलोगी ?
लड़की शेक्सपियर की
सॉलिलोकीज़ में उलझी हुई थी
और लड़का उसकी पेशानी पर 
आती-जाती लकीरों में,
बीच-बीच में बोलकर
सब भुलवा देते हो
लड़की ने झुँझलाकर जवाब दिया,
लड़की सच में बेहद भुलक्कड़ थी
कोर्स की किताबें ही नहीं
रिश्ते-रास्ते सब
बार-बार भूल जाती थी....
हर हफ़्ते जरूरी चीज़ों की लिस्ट बना कर
न जाने कितने ही निशानों को
याद रखते हुए 
साइकिल से दो किलोमीटर दूर 
घंटाघर पहुँच तो जाती
मगर हर बार वापसी में
वहाँ से बाहर निकलते छह रास्तों में
उलझ कर रह जाती,
ये अंबेडकर के पुतले की उँगली वाला रास्ता
नहीं-नहीं...नफीस की बेकरी के
कॉर्नर वाला रास्ता
नहीं....भैरोगढ़ प्रिंट की दूकान वाला रास्ता......
धीरे-धीरे यह बात सब जान गये
होस्टेल की लड़कियाँ ही नहीं
आस- पास के बॉयज होस्टेल के लड़के भी,
अब जब भी वो 
उलझी-उलझी खड़ी रहती
वहाँ घूमता होस्टेल का कोई भी लड़का 
उसे हँसते हुए बाहर तक पहुँचा देता,
दूसरे दिन लड़का हँसते हुए पूछता
कल फिर भूल गयी थी न रास्ता,
लड़की चिढ़कर दूसरी तरफ देखने लगती,
दिन पखेरू थे
होस्टेल, शहर, साथ सब छोड़ 
आगे-आगे उड़ने को बेताब,
शहर छोड़ते समय लड़के ने पूछा
भुलक्कड़ ....तुम एक दिन 
हमारी दोस्ती भी भूल जाओगी न
लड़की चुप रही ...
खामोश लड़की, शहर, रास्तों ,
हॉस्टेल, मन्दिर, नदी-घाट के साथ-साथ
न जाने क्या पीछे भूल आयी थी
कि अब कुछ भूलती ही नहीं थी,
लड़के के हर ठिकाने का पता
मकान-मालिकों के लैंड लाइन नंबर
गाँव के घर का पता,
फोन नंबर,
उसकी गर्ल फ्रैंड का चेहरा
किस्से, ठहाके ...सब 
कोरी स्लेट पर गीले चॉक से लिखी
इबारत की तरह उघड गये थे
बरसों बीते...
समय की धार में बहते-बहते
एक दिन वे फिर आमने-सामने थे
लड़के ने बड़े संकोच से पूछा
मैं याद हूँ तुम्हें..?
लडकी ने हरहराती बाढ़ की तरह
सारे नाम-पते, नंबर,
फिल्में, किस्से, शरारातें सब सुना डाले
फिर अचानक चुप हो गई...
लड़की की आँखों के किनारों पर
बीता वक्त मोती बनकर चमक रहा था
और लड़के की आँखों में सुकून था,
दूर कहीं जगजीत गा रहे थे
ये हकीकत तो निगाहों से बयां होती है ....






 गोल-गोल रानी कित्ता-किता पानी

गोल-गोल रानी
कित्ता-कित्ता पानी !!
फ्रॉक पहनी लड़की 
नन्हें-नन्हें हाथों से
पानी की गहराई मापते हुए चिल्लाती-
इत्ता-इत्ता पानी....और भर लेती बाहों में
बादल-बादल आसमान,
नन्हें-नन्हें पैरों के निशान बन जाते
भाई की कलाई, बहिन के दुपट्टे
माँ के आँचल और बाप के सीने पर,
नदी-नाले,पोखर-तालाब,,मन्दिर-घाट
छलक-छलक जाते नेह से
छोटे-छोटे सपनों से भरी
छोटी-सी काग़ज की नाव
हलक-डुलक तिर जाती पानी में..

गोल-गोल रानी
कित्ता-कित्ता पानी !!
दो चोटी बाँधे
सपनो की बड़ी-सी गठरी 
कागज की बड़ी सी नाव उठाये लड़की
सधे हुए हाथों से पानी मापती
और धीरे से बोलती
कमर-कमर पानी....
बड़ी-बड़ी आँखों में घुलता
खाली-खाली आसमान
आधे कोरे, आधे भीगे दुपट्टे को सँभालती
सिमटते जाते कदमों के निशान पर 
नजर जमाती 
वह धीरे-धीरे पहुँच जाती
इस पार से उस पार
न जाने किस समुन्दर की तलाश में ...

गोल-गोल रानी
कित्ता-कित्ता पानी !!
सपने अब भीगते नहीं
नाव अब तैरती नहीं
समन्दर से मिलकर खारी होती लड़की
खारे सपनों का वजन उठाती है,
पाँव-पाँव पानी...
लड़की मछली-सी छटपटाती है ...
गोल-गोल रानी
कित्ता-कित्ता पानी !!
लड़की तलाशती है सिर्फ
तलुवा भर मीठा पानी
खुद को नमक होने से बचाने के लिए




  एक लड़की नीलकंठी
  
बिछड़ने के आखिरी दिनों में
लड़की खामोश बैठी थी
क्षिप्रा के घाट पर
पानी में डूबे अपने पैरों को देखते हुए,
लड़का जानता था 
कि शब्दों की एक नदी
करवट बदल रही है उसके गले में
जो किसी भी वक्त
बाहर निकलेगी 
आंखों के रास्ते,
डूबने से भयभीत लड़के ने 
लड़की को छेड़ते हुए कहा
सब क्लासमेट्स कितने ही दिनों से ले रहे हैं
एक दूसरे के ऑटोग्राफ़
तुम कब शुरू करोगी लेना..?
चपटे चेहरे वाली आयशा जुल्का
आर्चीज़ के कलेक्शन में
तुम्हारी मनपसन्द डायरी मिली या नहीं?
लड़की ने झुँझलाते हुए
एक नाजुक सी केसरिया डायरी
अपनी स्कर्ट की जेब से निकाल कर रख दी
लड़के के हाथ में
जो उसने पूरी दोपहर आर्चीज़ कार्ड गैलरी की
ख़ाक छानकर खरीदी थी,
लड़की ने बड़ी बड़ी आँखे तरेर कर कहा
"
हिदी में लिखना"
और एक झटके से उठ खड़ी हुई....
लड़का रातभर डूबता-उतराता रहा 
नदी के केसरिया प्रवाह में
दूसरे दिन चुपचाप 
डायरी थमा दी लड़की के हाथों में,
लड़के ने पहले पन्ने पर 
अंग्रेजी में लिखा था
आई ऑब्जर्वड योर पर्सनैलिटी फ्रॉम माय फर्स्ट मीटिंग एंड टिल नाउ एज़
-
ए डॉल टू लव
-
लीडरशिप एज़ स्ट्रीम
-
डेयरनेस एज़ स्टोन
-
ए वेरी गुड एडवाइजर
-
ए टू काइंड हार्टेड एज़ नीलकंठ......
खामोश लड़की ने कस कर मुठ्ठी में दबा लिया उस केसरिया पन्ने को
और तय करती रही यात्रा बरसों की...
गुड़िया सी वह लड़की
बड़ी बड़ी बातें करती रही
बड़े बड़े फैसले लेती रही
बड़ी बड़ी सलाहें देती रही
और महसूसती रही निःशब्द
गले में करवट लेती नदी के केसरिया रंग को
पहले जामुनी और फिर नीले में तब्दील होते हुए
लड़की नीलकंठ है अब .....






खिड़कियों वाली लड़कियाँ


बड़े से जंगीले ताले की जकड़न
सीने पर लिए
उसके कमरे का दरवाज़ा बन्द है
सदियों से ...
ताज़ी हवा तक न आती है...न जाती है,
साँस लेने के लिये
वह बार-बार बनाती है
छोटी-छोटी खिड़कियाँ दीवार में,
फिर भी जब-तब घबराहट के भँवर
उठते ही रहते हैं छाती में और वह 
दौड़-दौड़कर
उन खिड़कियों को खोलने की 
कोशिश करती रहती है..
ये....सबसे छोटी और प्यारी खिड़की
परदे के पीछे से झाँकता है
स्कूल में टाटपट्टी पर बाजू में बैठे 
लड़के का मासूम सा चेहरा
लड़का अब भी सुखा रहा है उसकी गीली स्लेट
"
सूख-सूख पट्टी चन्दन गट्टी"
पर उसके पास नहीं है अब 
लड़के का पसंदीदा 
बासी पराठा और मिर्च-खपिया
धड़ाक....खिड़की के दरवाजे मुँह पर बन्द हो जाते हैं
नब्ज़ कुछ कम हो जाती है...
ये दूसरी खिड़की....
इस खिड़की में टँगी हैं 
एक जोड़ी आँखें 
उस तीख़ी-सी नाक वाले लंबे लड़के की
जो सारा दिन अख़बार, पत्रिकाओं और 
बाजार में बिकने वाले पचास-पचास पैसे वाले
ग्रीटिंग कार्ड्स में से 
चुन-चुन कर जितेंद्र की तस्वीरे
सिर्फ इसलिए इकट्ठा करता रहता था
क्योंकि वह दीवानी थी जितेंद्र की
और लड़का दीवाना था......
धड़ाक......लड़के के पिताजी का तबादला हो गया
नब्ज़ कुछ और मद्धिम है
ये एक और खिड़की...
फिर एक और ....

इस खिड़की में गूंजती हैं
मधुर स्वर लहरियाँ
जगजीत और गुलाम अली की गजलें
वह कभी खिड़की देखती है
तो कभी धूप में अपने साये को
खिड़की से अब भी आवाज़ आती है
धूप में है साये का आलम
रौशन चेहरा...काली जुल्फें
संगीत की कोई जात नहीं होती
पर गाने वाले की तो थी न ..
धड़ाक...साँसे और धीमी हैं

ये एक और खिड़की
यहाँ रंग ही रंग बिखरे हैं
कविताएँ आकार लेती हैं कागजों पर
वह रेखाओं के प्रेम में है इन दिनों
मगर रंग दिन पर दिन हल्के होते जा रहे हैं
और कविताएँ मौन
वह अपलक देख रही है 
खिड़की के बन्द होते कपाट...
.
साँसो को चलने के लिए हवा चाहिए
क्योंकि कमबख़्त मौत नहीं आती
बदहवास सी वह
इंतज़ार करती है
एक और खिड़की के खुलने का .....







  
 उजास का रंग


चिड़िया-सा चुगती लड़की के
चेहरे का हल्का पीला रंग
हरसिद्धी के दीप स्तंभ पर
एक के बाद एक
प्रज्ज्वलित होते दीपकों की लौ में
सोने-सा दमक रहा था,
पास ही बैठा लड़का 
ध्यान से देखता रहा
हाथ में मशाल लिये 
स्तंभ पर चढ़ते-उतरते आदमी को,
जैसे ही आखिरी दीया जला
वह लड़की की ओर मुड़कर 
उसे छेड़ते हुए बोला
कब तक बैठी रहोगी यूँ तपते-तपते,
एनिमिकहो तुम
ये मत सोच लेना कि
रंग कुंदन है तुम्हारा... 
साँवले रंग का लड़का
उतना साँवला भी न था
जितना लड़की ने उसे 
कल्लूबोल-बोलकर बना दिया था,
लड़की झल्लाकर बोली
"
कल्लू"..... पूजा-पाठ तो करते नहीं हो
फिर क्यों चले आते हो 
हर रोज़ यहाँ मेरे साथ
इन दीप मालाओं को जलता हुआ देखने के लिये
चश्मे पर छाई धुँए की कालिख
साफ करते-करते
लड़के ने मुस्करा कर कहा
दीप-बाती के बाद
भिक्षुक होने से घबराता हूँ मैं
डरता हूँ कहीं हाथ फैलाकर 
कुंदन ही न माँग बैठूँ
इसलिये यहाँ चला आता हूँ
इन दीयों के साथ तपने के लिए,
तप कर निर्मल होने के लिए
और निर्मल होने के इस प्रयास में
थोड़ा ही सही 
छोड़ता जाता हूँ 
इन दीप-स्तम्भों पर 
अपनी मलिनता, अपनी कालिख,
लड़की एकटक देखती रही
साँवले चेहरे पर उजास का रंग
मन का उजास
आत्मा का उजास
पहली बार लड़की ने जाना
कि तप कर सिर्फ कुंदन नहीं हुआ जाता
लड़की तब से साँवली है....



 मालिनी गौतम
574, मंगल ज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-389260
गुजरात
मो. 09427078711

  







 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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