Tuesday, December 3, 2019

अनुदित कविताएँ
एमिली डिकिन्सन 

अनुवादक 
 कंचन जायसवाल 
कंचन जायसवाल 



मैं

मैं कुछ नहीं हूं ! तुम कौन हो?
क्या तुम भी कुछ नहीं हो.
तब हम एक युगल की तरह हैं-मत कहो!
वे हमें निर्वासित कर देंगें-तुम जानते हो।

कुछ होना कितना अकेला कर देता है
एक मेढक की तरह साधारण
सारा जीवन तुम अपना नाम लेते रहो
आत्म मुग्धता के दलदल में धंसे हुए.


एमिली डिकिन्सन



दर्द के रहस्य---

दर्द में खालीपन का एहसास होता है
इसे सहेजा नहीं जा सकता
जब यह शुरू होता है,
या फिर एक ऐसा भी दिन था
जब यह नहीं था।

इसका कोई भविष्य नहीं होता है लेकिन खुद मे
इसकी अनन्त मौजूदगी बची रहती है
इसका अतीत, दर्द के नये युगों को
जानने की समझ बनाती है.

एमिली डिकिन्सन



मृत्यु में आनंद

यदि अंतिम घंटा बजता है मैं कारण पूछती हूं।
एक आत्मा ईश्वर के पास जा चुकी है;
मुझे उदास स्वर में जवाब मिलता है;
क्या स्वर्ग,    यह दुखद है।
ऐसी घंटियों के पास कहने का खुशनुमा तरीका होना चाहिए
एक आत्मा जो स्वर्ग जा चुकी थी
मेरी समझ से सही तरीका होगा
एक खुशखबरी जैसी दी जानी चाहिए.

एमिली डिकिन्सन




 निकासी---

मेरी नदियां नीले सागर की ओर
दौड़ती हैं,  क्या वे मेरा स्वागत करेंगी?
मेरी नदियां जवाब का इंतजार करती हैं
ओ समन्दर, सुख से देखते हुए!
मैं तुम्हारी जलधाराएं लाऊंगी
चिन्हित कोनो से
बोलो सागर, तुम लोगे मुझे?

एमिली डिकिन्सन





सादगी

नन्हा पत्थर कितना खुश है
जो सड़क पर अकेला लुढ़कता रहता है
और तरक्की के बारे में नहीं सोचता है
और मजबूरियों से कभी नहीं डरता है
 जिस मौलिक भूरेपन की परत
गुजरते ब्रम्हांड ने पहन रखी है।
और इतना आजाद जैसे कि
सूरज मिले चाहे अकेला खिले
निरपेक्ष आदेशों को पूरा करते हुए
इत्तफाकन सादगी मे ं।

एमिली डिकिन्सन

   
एमिली डिकिन्सन 



परिचय 
कंचन लता जायसवाल

प्रधानाध्यापक प्राइमरी शिक्षा मे.

विभिन्न पत्रिकाओं में कविता एंव कहानियां प्रकाशित. यथा,- कथाक्रम, रेवान्त,स्वतंत्रता पत्रिका  ।
राजनीति शास्त्र में ph.d.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका विषय पर.


Thursday, October 3, 2019


 पूनम सूद की कविताएं 

पूनम सूद 


कविवर अज्ञेय के सांप


कविवर अज्ञेय को सादर वंदन
आपको करना था सूचित
आप के समय के सांप
अब सभ्य हो चुके हैं
उन्हें नगर में बसना आ गया है
शहरी रहन सहन का तरीका भा गया है
इच्छा धारी बन घूम रहे हैं वे सरेआम
सभा, सोसायटी, बाजार, पार्टी में
उन्होंने डसने का नया तरीका अपना लिया
वो फुंफकारते नहीं अब
न ही फन फैलाते हैं
सालों का एकत्रित विष मुस्कुराते हुए
प्रेम जज्बातों भरे दिल के प्यालों मे

सलीके से उगल
भीड़ में खो जाते हैं.




 पेन्सिल

जिन्दगी भाग्य के पन्नों पर मुझे घिसती रही
वक्त कटर बन अपनी धार से छीलता रहा
नाप पट्टी मेरी सीमा रेखाये बांधती रही
रबर मेरे किए को मिटाता रहा
समाज में लेखनी रुप में पूज्य थी मैं
घर-पेन्सिल बाक्स के सदस्यों द्वारा शोषित
पेन्सिल हूँ या भारतीय स्त्री
सोचती हूँ अक्सर..




 टिशू नैपकिन

कैन्टीन मे काफी पीते हुए 
वहां टेबुल पर रखे
टिशू नैपकिन पर तुम
अपने बालपेन से
अक्सर मेरा स्केच बनाया करती थी
तब मैं तुम्हारी कोख में पड़ा
तुम्हारी बेतरतीब ड्राइंग देखकर
खूब हंसता था.।
मेरे जन्म पर मुझे अपने
स्केच जैसा असामान्य पा कर
तुम हो गई निराश
और टिशू नैपकिन की तरह
वहीं छोड़ गई
मुझे ऐबस्ट्रेक्ट पीस आफ आर्ट समझकर,
घर तो ले जाती..
शायद...
कभी तुम्हें समझ में आ जाता मैं...





 चविइंग गम

मां
तुमने यह कौन से संस्कारों का चविइंग गम
मेरे मुंह में डाला था
जब मैं होश संभाल रही थी.....?
शुरू में मीठा
फिर फीका
अब है बेस्वाद..
आदतन करती हूं जुगाली
थक चुकी हूं
मुंह चला के..बेवजह मुस्कुरा के
व्यवहार निभा के
पर यह चुइंगम गम जहाँ रखो वहीं चिपक जाता
नहीं गले के नीचे उतर पाता
चाहती हूं थूकना
तुम्हारा ये दुनियादारी का चुइंगम गम
कूड़े के ढेर में..
या गुब्बारा बना कर फोड़ देना चाहतीं हूं...फट्ट...
दिखावटी समाज के मुंह पर..
पर न जाने कौन से आउट डेटिड
संस्कारों का चविंगम गम है यह
पुराना,लिसलिसा,चिपका हुआ
न फूलता है न फूटता
न ही थूका जाता है
मां.. संस्कारों का चविइंग गम.

पूनम सूद


परिचय:
पूनम सूद का जन्म16मार्च1965को कानपुर में हुआ।पूनम की पहली कविता अंग्रेजी के अखबार द पायनियर मे प्रकाशित हुई. आपने मराठी लेखक डॉक्टर भगवान महाजन की पुस्तक मित्र जिवाचे का अंग्रेजी में अनुवाद सोलमेट्स के नाम से किया है. आप फैजाबाद शहर की गुलजार साहित्य समिति की संस्थापक सदस्य रही हैं.

Thursday, July 4, 2019

 आशुतोष सोनी "आशु" की कविताएँ

आशुतोष सोनी "आशु "

एक 
भरी बज़्म में कोई ख़्वार नहीं होना चाहेगा।
रंज में भी मसर्रतों का अश'आर बाकी है।।

ना ठहर, पै-ब-पै हयाते-तजरबा बढ़ाता चल।
तिरे गाम पर खुदा का नाज़-बरदार बाकी है।।

सब्ज़ा-ओ-गुल के खुश्क की हियाकतें जानी।
अहल-ए-जहां से ने'मत ग़म-गुसार बाकी है।।

इंतिक़ामों के बीच तर्बियत की सुध कौन लेगा।
रँगजसी में भी मुसव्विर का ए'तिबार बाकी है।।

शब्दार्थ 
बज़्म : महफ़िल
ख़्वार : अपमानित
रंज : दुःख
मसर्रतें : खुशियाँ
अश'आर :ग़ज़ल के शेर
पै-ब-पै : बार -बार
हयाते-तरजबा : जिन्दगी का अनुभव
गाम : कदम
नाज़-बरदार : one who pampers
सब्ज़ा-ओ-गुल : घांस का फूल
खुश्क : सूखा
हियाकत : tale/story
अहल-ए-जहां : दुनिया
ने'मत : आशीर्वाद
ग़म-गुसार : हमदर्द
इंतिकाम : बदला
तर्बियत : शिक्षा
रंगजसी : चित्रकारी
मुसव्विर : चित्रकार
ए'तिबार : भरोसा





दो फूल...!!!


भविष्य के लिए
उम्मीदें
संजोती हुई
मासूम सी आंखें

उन उम्मीदों के
ताने बाने
बुनने के लिए
कशमकश में है
वृद्ध आवाज

टूटी हुई टहनी
सूखती हुई कली
जैसे
बिन माँ के बच्चे

खिलने दीजिए
नन्ही कली को
जरा खरीदकर
दो फूल...!!!






दीप गीत गाते हैं


हर दहलीज पर गूँजते हुए
दीप गीत के शब्द स्वर
उन दीपों की भांति
जीवन में जगमगाएं
खुशियां और सौभाग्य

उन मधुर ध्वनियों को
अर्पण कर अपने भीतर
अंतस देहरी पर लौ जलाकर
प्रण करता है तम हरने का
गाता हुआ दीप

माटी का दीया
कपास की बाती
दिव्यार्थ करती लौ
छेड़ती है समृद्धि की तान

स्नेह-सूत्र के दीपदान से
खिलखिलाती दीपमालिकाएँ
शाश्वत लौ के सहारे
गाती हैं सामूहिक गीत
आरती उतारता है
मावस का चांद

दीदार करते हुए वे गीत
अज्ञानता के अंधकार में
फैलाते हुए ज्ञान का प्रकाश
गूंजाते हैं वैभव गान

आंतरिक हो या ब्राह्य
अपने हर जगह
उजियारे को आतुर
दीप गीत गाते हैं।




चंद अश-आर 

जा उस आदम-ए-रश्क तक मिरा प़याम पहुंचा दे,
मिरे इल्म का तलबगार हो जहल-ए-मसरूफ हुआ..

मश्वरे करता है आदमी लिबास-ए-रूत बदलकर,
गर मुक़ाबिल जीता है तारीकी में शम्अ बुझाकर..

वे शख्स भी बारिश का तसव्वुर रखते है,
जिनके घर के दर-ओ-दीवार शिकस्ते है..






 नवनिर्माण

जब घर से निकले
नवनिर्माण करने को,
अपने अंतर्मन को
आह्वान करने को,
पले थे दोमुंहे सांप
व्यवधान करने को,
विफल हुए मंसूबे
जब अलख जगी है,
रसपान की जद पर
विषपान करने को...







एक टुकड़ा रोटी 

अमीर हो या गरीब
गुनगुनी धूप हो या
सर्द भरी रात
हर वर्गों को हर मौसम
श्रम परिश्रम के लिए
मजबूर करवा सकती है।
सूरज की किरणें भी
टक्कर नहीं ले पाती
हर श्रम परिश्रम के पीछे
एक ही जिम्मेदार है
एक टुकड़ा रोटी।





रास्ते

रास्ते बदलते गये
पर शख्स ना बदला
कंटीले हो या पथरीले
कोई परवाह नहीं...
जितने दूर के रास्ते
उतना ही ढीठ मुसाफिर
बस वो चलता ही रहा
मंजिले मिलती गयी।







आजा लाल कन्हैया (2013)


सच वो द्रौपदी की पुकार भारी थी,
सुन कन्हैया तुने लाज बचा ली थी।
आज उन हजारों पुकार का क्या हो गया,
आजा लाल कन्हैया तू कहां खो गया।।

(दामिनी रेप काण्ड पर)





 पर्यावरण दिवस (2013)

आज पर्यावरण दिवस पर
तथाकथित बुद्धजीवी
चंद मिनटों के लिए
पेड़ लगाओ
धरा बचाओ चिल्लायेंगे
पौधे लगाएंगे
फोटो खिंचवाएँगे
फिर चले जायेंगे
कल सुबह अख़बारों में
चेहरा देखकर
एसी में बैठे
पल-पल मुस्कराएँगे
इधर ये पौधा
ख्याल के लिए तरसेगा
सुख जायेगा मिट जायेगा
फिर अगले साल
वही नाटक रचाएंगे...



 मेरी कलम की धधकती स्याही.. (2014)

मेरी कलम की धधकती स्याही सोच रही है, क्या लिखूं...
विचारों के जलते अंगारे या कुदरत की बहारें, क्या लिखूं...
देश की हालात कहूँ या राजनीति की बात, क्या लिखूं...
शहीदों के बलिदान या प्यार के मीठे गान, क्या लिखूं...
लेखनी की ज्वलंत धार से मेरी पहचान जाहिर है मगर,
मालूम है "आशु" मेरे जज्बातों से ही हालात बदलते है, क्या लिखूं...






नवगीत 

निकलने लगे हैं फूलों से सुर्ख,
खुशबू भी अपना खो रही है।
खुशबुओं को खोजते-खोजते,
ये हवाएं भी नीरस हो रही है।।
भटकते-भटकते इक खुशबुओं के लिए,
हवाओं ने थककर साथ छोड़ दिया।
सहसा वक़्त आया खुशबुओं के तड़पने का,
उम्मीद लिए फूलों की तरफ रुख मोड़ दिया।।
सूखे फूलों ने इधर कलियों को पुकारा,
आँखे खोल गुञ्जन कर खिल जा जरा।।
सुर्ख को सुला दे आँगन में रास कर,
तितली तू गीत गा शब्द स्वर झरना बहा।।
सजने लगा जहां मधुर कली खिली संग अमित,
तितलियों का समूह आया गाते मंगलगीत।।
खुशबू ने प्रवेश किया तब हुआ नव परिवर्तन,
इक हवाओं ने भी पंख खोल किया नव अभिनन्दन।।
भरकर पंख खुशबुओं से, हवाएं चली सैर के लिए,
सहसा इक धरा की शुभकामना हुई, नव-संदेश लिए।।
चली आई खुशहाली कहीं से, हरियाली की ये आन देखकर,
हर्षाया मन 'आशु' तेरा, सृष्टि की ये मुस्कान देखकर।



परिचय 
नाम : आशुतोष सोनी
पिता : श्री पुरुषोत्तम सोनी
माता : श्रीमती उमा सोनी
जन्मतिथि : 17 जून, 1992
स्थान : कनवास, जिला कोटा
व्यवसाय : राजकीय सेवा (ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज विभाग)
योग्यता : डबल एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य एवं लोक प्रशासन), NET (लोक प्रशासन)
विशेष रुचि : हिन्दी कविताएं, हिन्दी-उर्दू शायरी, फोटोग्राफी
रुचि : लिखना, पढ़ना, घूमना

Friday, June 21, 2019


प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में मांडना कला का महत्वपूर्ण स्थान है |इसे चौसठ कलाओं में गिना जाता रहा है |होली, दिवाली ,नौदुर्गा उत्सव ,महाशिवरात्रि ,संझा पर्व और मांगलिक अवसर  पर इन्हें विशेषतौर पर  घर में मंगल चिन्हों के रूप में उकेरा जाता है |

मांडना भारत की बहुत ही प्राचीन परम्परा रही है |सिन्धु घाटी की प्राचीन सभ्यताओं ,मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में इसके चिन्ह पाए गए है |
आज  के अति आधुनिक युग में इस परम्परा को सहेजना अति महत्वपूर्ण कार्य है ,इसमें  अनीता सक्सेना ने महती भूमिका निभाई है |आप ने लोक कला मांडना पर पुस्तक लिखी और प्रत्येक अवसर पर सजाये गए मांडनो के बारे में विस्तृत जानकारी भी दी है |लोक कला प्रेमियों को निश्चय ही यह पुस्तक लाभान्वित करेगी 







माँडणा मालवा की एक लोक कला 

समीक्षा - मधु सक्सेना

 
मधु सक्सेना 

आस्था और विश्वास मनुष्य की शक्ति है । जन्म से ही व्यक्ति इसी के सहारे अपना विकास करता है । सामाजिक प्राणी होने के कारण सम्प्रेषणीयता के साधन खोजता रहा । शुरुआत में गुफाओं की दीवार पर चिन्ह बनाये । विकास की अवस्थाऔर आवश्यकता को भी कलात्मक रूप दे देती है ।कल्पना शक्ति ।मनुष्य की कोमलता ने प्रकृति से सीखा रेखाओं और रंगों का संयोजन और निर्मित किये ज़मीन पर ,दीवार पर । अपने सुलभ साधनों से नए तरीके निकाले ।चित्र बनाये ।उन्हें सजाया सँवारा । जो लोककला के रूप में हमारे साथ है ।







जाने कितने बरसों के विकास की कहानी अपने में छुपाए हुए है ये चित्र जिन्हें हम माँडना कहते है । माँडणा स्त्रियाँ ही बनाती है । स्त्री ने सदा परिवार और समाज का सुख चाहा ,मंगल कामना की । यही मंगल कामना मांडणा के रूप में चित्रित होती है । जन्मजात कलाप्रेमी और कुशल सर्जक की भूमिका कुशलता से निभाती है स्त्रियाँ । उनके लिए माँडणा जीवन है ।जीवन जीने की कला है। सपनो की उड़ान है ।अदृश्य के प्रति आभार है ।
मंगल कामना है ।
अलग अलग क्षेत्र में माँडना बनाये जाते है सदियों से परम्परा के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोक कला हस्तांतरित होती रही । माँडने उनकी जीवन शैली, त्योहार और उत्सव के साक्षी होते है । ऐसे ही माँडनों को खोज निकाला है मालवा के अंचल से अनिता सक्सेना ने। माँडनों को संकलित कर उनपर शोध किया और ये पुस्तक तैयार की जिसका नाम है -
'
माँडणा मालवा की लोककला '

भारत के हृदय स्थल मालवा के बारे में राजबल्लभ ने भोज चरित (1/3 ) लिखा है -
"
भारत देश मध्यस्थो मालव संज्ञकः
अनेकनगरग्रामपत्तनै: प्रविराजित : "

जनकवि कबीर की वाणी भी आज तक फलीभूत है -
"
देश मालवा गहन गभीर , डग डग रोटी पग पग नीर"





तेरह अध्याय में मालवा के परिचय से लेकर माँडणा के हर पहलू को दर्शाया है लेखिका ने ।ये एक शोध ग्रन्थ है । माँडना के इतिहास और अर्थ खोजने अनिता जी अनेक जगह घूमी । इस इस कला को समझने के लिए मालवा के गुफा चित्र ,नदियां , वनस्पति , वनौषधि , रहन सहन ,फसल ,त्योहार आदि को जानना जरूरी था ।लेखिका ने मालवा के कई स्थानों का भ्रमण किया । वहाँ माँडणा के बारे में कलाकरों से बातचीत की ।इस अंचल की महिलाओं ने इस कला के बारे में बताया ।लेखिका ने मांडनों के चित्र , रंग संयोजन ,उनके अर्थ और उपयोगिता पर शोध किया ।


कई गांवों में जाकर बात करना .. बातों को संकलित कर उन कड़ियों को मिलाना, माँडनों में बनाई आकृतियों के नाम और उनसे सम्बंधित समय और स्थान की पड़ताल करना ,विश्लेषण करना ,इतिहास और मिथक को जोड़ना आदि काम आसान नही थे पर लेखिका ने अथक परिश्रम कर ये कर दिखाया और किताब तैयार की । युवा और बुजुर्ग महिलाओं के स्मृतियों के द्वार खटखटाते हुए कई कटु अनुभवों से भी वास्ता पड़ा होगा पर लेखिका ने इस लोककला को सहेजने, संकलित करने ,समझने और बचाने के दृढ़ संकल्प ने हर बाधा को सरल बना दिया।

प्रस्तुत पुस्तक में मालवा की माटी से जुड़ी 'माँडणा लोककला' पर विस्तार से शोधपरक जानकारी समाहित की गई है ।इस कला में 'सर्वमंगल मांगल्ये' का भाव सजोंये हमारी संस्कृति और सभ्यता के मूल तत्व है । माँडना की इन आकृतियों में जहां एक तरफ अद्भुत ज्यामितीय गणित का समावेश है तो साथ ही नक्षत्रों के प्रतीक चिन्ह सूरज चाँद , पर्यावरण का संदेश देते तुलसी ,बड़ पीपल,आंवला,नीम आदि का चित्रण है ।पशु- पक्षियों का चित्रण मावन से उनकी मित्रता के प्रतीक है । सांस्कृतिक प्रतीक चिन्ह स्वस्तिक , शंख ,कलश, वस्त्र ,अलंकार
आदि का चित्रण हमारी धरोहर है । पौराणिक कहानियां, उनके पात्र और दैनिक जीवन के कार्यकलापों का चित्रण मानव की सजगता और सहजता के प्रतीक है ।










पुस्तक का हर अध्याय अपने आप मे सार्थकता और पूर्णता लिए हुए है और अन्य अध्याय का दिशा निर्देश भी । पहला अध्याय 'महि महति मालवा देस ' के नाम से है जिसमे मालवा के बारे में हुआ लेखन , जिलों की जानकारी, वहां का सौंदय , भित्ति चित्र , रंगों के उपयोग , उपजाऊ मिट्टी , आदि का महत्व और जानकारी है । प्रागैतिहासिक काल के सघन गुफा चित्रों से आज तक के माँडणा तक, इस चित्रकला ने जनमानस को आकर्षित किया , अपना प्रभाव बनाये रखा और लोककला का रूप लिया ।

दूसरे अध्याय में नदियां, वनौषधि फसल और भौगोलिक स्थिति की जानकारी है। पारंपरिक जनश्रुति के अनुसार मालवा की सीमा इस प्रकाए बताती है -
'
इत चंबल उत बेतवा मालवसीम सुजान
दक्षिण दिस है नर्मदा ,यह पूरी पहचान '
इसी तरह तीसरा अध्याय त्योहारों और वृक्षों का महत्व और उनका माँडणा में चित्रण मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाता है । पशु पक्षियों का चित्रण में शामिल होना उनका आपसी तालमेल और सहयोग की कहानी कहता है।

तीसरे अध्याय में सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार बालकवि बैरागी की माँडणा पर एक रोचक लोककथा है ।

इसी तरह अन्य अध्यायों में माँडनों का वर्गीकरण उनके विषय ,समय और आकृति के अनुसार किया गया है । ,त्योहारों पर बनने वाले माँडनों में सम्बंधित कथाओं और उनके पात्रों को उकेरा जाता है । भूमि चित्र और भित्ति चित्र के सिवाय भी पट चित्र और देह चित्र भी बनाये जाते है ।देह चित्र में मेहंदी ,महावर गोदना आदि का वर्णन है । दीवार और ज़मीन पर बनाये जाने वाले माँडनों के तरीकों का विस्तृत वर्णन सहज भाषा मे किया गया ।





मुख्यतः भूमि चित्र और भित्ति चित्र दो तरह के माँडनों को बनाया जाता है । इनमें भी त्योहार ,विवाह उत्सव ,पर्व आदि पर अलग अलग तरीके और रंगों से माँडने बनाये जाते है । हर त्योहार, पूजा, व्रत आदि पर उनसे जुड़ी कथाओं के अनुसार मांडनों को उकेरा जाता है । मंगल कामना , आशा , उल्लास, विश्वास ,सहयोग, भाईचारा आदि मानवीय संवेदनाओं के वाहक है ये मांडने ।

ज़मीन पर माँडणे गोबर से लीपकर छुई मिट्टी ,गेरू , आदि से बनाये जाते है ।इसी तरह दीवारों को पोतकर तरह -तरह की आकृति बना कर सुंदर भी बनाया जाता है । इनमें प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है । पिसे चावल , गेरू ,हल्दी ,गोबर आदि से रंगों को बनाया जाता है । कपड़ा , रुई , बाल या ब्रश की सहायता से या अंगुलियों की पोरों से माँडने बनाये जाते है ।

कला हमेशा समिष्टि को अपने मे समेट कर अभिव्यक्त करने की क्रिया है । कला आत्मिक आनन्द भी देती है ।प्रकृति और मनुष्य के आत्मिक मिलन का प्रतीक भी है। ज्ञान का खजाना है । आपसी सद्भाव और प्रेम का संवाहक है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सहजता से हस्तांतरित होता रहता है । लिंग ,आयु ,जाति, रंग आदि का भेदभाव नही करती कोई भी कला ।मांडणा भी इन्ही विशेषताओं और विशिष्टताओं को अपने मे समेटे है ।
लगभग एक सो पचास छोटे बड़े मांडनों से सजी ये किताब जिनमे कुछ में कुछ रंगीन भी है आकर्षक लगते हैं ।
हर मांडने का विवरण और बनाने के तरीके लिखे हुए है ।










1976
में मालवा से परिचित लेखिका ने जिस विश्वास और हौसले से वहां की कला और संस्कृति के प्रतीक मांडनों को आत्मसात किया , उसे सहेजा वोअत्यंत प्रशंसनीय कार्य है ।
परिवर्तन के इस समय में कई कारणों से लुप्त होती इस कला को बचाये रखने में अनिता जी ने ये दुष्कर कार्य किया और ये पुस्तक तैयार की है जो वर्तमान और भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगी ।शोध कर रहे विद्यार्थियों , कलाविदों और संस्कृति से विषयो पर अध्ययन से जुड़े लोगो के लिए मददगार होगी ।

पुस्तक का कलेवर ,छपाई ,कागज़ , भाषा और भाव ,रोचकता आदि सभी मिलकर 'माँडणा मालवा की लोककला ' पुस्तक को पठनीय बनाते है ।पाठक इसके साथ चल पड़ता है और इस कला के प्रति उसके मन मे असीमित प्रेम और सम्मान जाग जाता है ।यही लेखिका की सफलता है ।
लोक कला का क्षेत्र असीमित होता है कई रहस्य आज भी अनबूझे रहे होगें ।अनिता जी सतत खोज में लगी है आगे भी इस विषय पर महत्वपूर्ण काम होगा । अनिता जी की लेखन यात्रा सतत चलती रहे इसी मंगल कामना से अपनी बात यहीं समाप्त करती हूँ ।


 अनीता सक्सेना 



संकलन और लेखन -अनीता सक्सेना
प्रकाशन - बुकवेल एवं इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ,भोपाल
ISBN : 987-93-86578-01-3
मूल्य - रुपये 1650 .00मात्र
 


Friday, May 24, 2019

भाषायी विद्रूपता और मानसिक नियंत्रण
बनाम संचार माध्यम
  डॉ. संजीव कुमार जैन
  सह प्राध्यापक हिन्दी
 डॉ संजीव जैन 


भाषा ही संचार है और वह मानवीय इतिहास का उत्पाद है। वह संस्कृति और मूल्यों, संवेदनाओं और बोधात्मकता की संवाहक और संसार को रचने का काम करती है। जिसे हम संसार कहते हैं वह मानवीय प्रयत्नों और भौतिक पदार्थों के बीच बने संबंधों और संरचनाओं का नाम है।
ये संबंध और संरचनायें भाषा की संचरणशीलता के कारण ही निर्मित होती हैं और इन्हें समझने अर्थात् बोधात्मक बनाने का काम भी भाषा ही करती है। मानवीय संरचना की सबसे बड़ी विशेषता है विचार करना, सोचना। बिना भाषा के मानव सोच नहीं सकता और अकेला एक मानव भी नहीं सोच सकता।

‘‘इस प्रकार संप्रेषणीयता और संस्कृति के रूप में भाषा एक दूसरे का उत्पाद है। संप्रेषणीयता से संस्कृति का निर्माण होता है: संस्कृति संचार का एक साधन है। भाषा संस्कृति की वाहक है और संस्कृति अपने मौखिक और लिखित साहित्य के जरिए मूल्यों के उस समूचे पुंज को लेकर चलती है जिसके जरिए हम स्वयं से साक्षात्कार करते हैं और विश्व में अपनी स्थिति का एहसास करते हैं। लोग किस तरह खुद से साक्षात्कार करते हैं यह बात इस तथ्य से प्रभावित होती है कि लोग किस दृष्टि से अपनी संस्कृति, अपनी राजनीति और प्रकृति और अन्य चीजों के साथ अपने समूचे संबंध को देखते हैं। इस प्रकार मानव समुदाय के ऐसे समूह के रूप में जिसका एक खास स्वरूप, खास इतिहास और विश्व के साथ खास संबंध है, हमारे साथ भाषा का एक अविभाज्य संबंध है।’’1.

व्यक्ति का सोचना दूसरों के सोचने से जुड़ा हुआ है इसी तरह एक व्यक्ति का ‘होना’ दूसरों के होने से जुड़ा हुआ है - ‘‘मैं प्रामाणिक तौर पर नहीं सोचता जब तक दूसरे न सोचें। मैं दूसरों के सोचने का काम या दूसरों के बिना सोचने का काम कर ही नहीं सकता। यह दावा अपने अंतर-निहित संवादमूलक चरित्र के कारण निरंकुश मानसिकता को डिगा देता है।’’2





मनुष्य की सोचने की क्षमता और स्वतंत्रता की भावना उसे निरंतर संरचनाओं को तोड़ कर उनके परे जाने के लिए उकसाती है। यही कारण है कि आधुनिक वर्चस्वी ताकतों ने उसकी इस क्षमता को पंगु बनाने के लिए सोचना आरंभ किया। देह पर नियंत्रण तो सैनिक ताकत से संभव हो सका पर बिना मन पर नियंत्रण के उसे हमेशा के लिए गुलाम बना कर नहीं रखा जा सकता था। विचारों पर नियंत्रण के लिए उनकी दिशा को बदल दिया, स्वतंत्र सोचने के लिए स्वतंत्र समय ही उसके पास नहीं रहने देने के प्रयत्न आरंभ हुए। उसकी मानसिक क्षमता का लाभ कुछ लोगों को मिलता रहे इसके लिए उसे अनेक तरह से नियंत्रित किया गया। मानसिक नियंत्रण के लिए किए गए प्रयत्नों में सबसे सशक्त प्रयत्न संचार के आधुनिक माध्यमों के विकास के रूप में सामने आया है। हम पाते हैं कि संचार के तमाम माध्यमों पर विश्व के लगभग सौ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व है और तमाम तरह के कार्यक्रम और नीतियाँ ये कारपोरेट तय करते हैं किस तरह उनके उत्पादों के पक्ष में विश्व जन मानस को अनुकूलित किया जाए।
इस संबंध में नाम चॉम्स्की ने लिखा है कि -‘‘यह जनतंत्र के लिए विशेष रूप से नुकसानदेह है कि मीडिया तंत्र निजी निरंकुश तंत्रों के हाथों में है....यह एक विशाल तंत्र है, जो सार्वजनिक खर्चों के सहारे खड़ा किया गया है। ज्यादातर मीडिया विश्लेषण कर्ता यह देख पा रहे हैं तथा लिख रहे हैं कि अंततः समूचा मीडिया तंत्र, दुनिया के पैमाने पर कोई आधा दर्जन अतिमहानिगमों के हाथों में सिमट जाने वाला है। यह इस्पात तथा कंप्यूटर जैसे क्षेत्रों के संचालित कर रहे अल्पतंत्रों से भी भयानक मामला होने जा रहा है, क्योंकि यहाँ हम सूचना तथा संचार की एक नई पद्धति के, निजी सत्ता के हाथों में सौंपे जाने की बात कर रहे हैं।’’3 

संचार माध्यमों में प्रिंट मीडिया सबसे प्राचीन है। यह तंत्र भी इन्हीं निगमों के हाथों में कैद है और वह भी मानसिक नियंत्रण और अनुकूलन के लिए कार्य कर रहा है। इसके लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा - ‘‘संस्कृति और सूचना क्षेत्र के उत्पाद व्यक्तिगत उपभोक्ता सामानों की परंपरागत इकाइयों के उत्पादों की तुलना में बहुत ज्यादा मूल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं: वे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की वैचारिक विशिष्टताओं के मूर्त रूप भी होते हैं। वे व्यवस्था के मूल्यों या कम से कम उसके उपकरणों और औजारों के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने और बढ़ाने में अत्यंत प्रभावी ढंग से सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए, एक शक्तिशाली विज्ञापन एजेंसी, ओगिल्बी एंउ मैथर, के संस्थापक डेविड ओगिल्बी ने रीडर्स डाइजेस्ट की उन्मुक्त प्रशंसा करते हुए टिप्पणी की: ‘पत्रिका अमेरिकी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों का निर्यात करती है। मेरे विचार से जनमानस को जीतने की लड़ाई में डाइजेस्ट उतना कुछ कर रही है जितना संयुक्त राज्य की सूचना एजेंसी।’’4 

क्या हम संचार माध्यमों की नीतियों और उद्देश्यों के आधार पर उसमें प्रयुक्त होने वाली भाषा चाहे वह कोई सी भी क्यों न हो, उसका मूल्यांकन कर सकते हैं? इसके लिए हमें उनके पीछे के ‘क्यों’ और कैसे का पर्दाफाश करना होगा। भाषायी विद्रूपता और विकृति की जो चिन्ता हिन्दी और अन्य भाषाओं को हो रही उसके लिए इस नीति का विखंडन आवश्यक है।

अतः हम कह सकते हैं कि संसार भाषा की निर्मिति है अतः शब्दों को पढ़ने का अर्थ संसार को पढ़ना होता है, और शब्दों को रचने का अर्थ संसार को रचना होता है-‘‘जिसे मैं संसार को पढ़ना और शब्दों को पढ़ना कहता हूँ। मेरी इस बात में केवल शब्द की पढ़ाई करने या केवल संसार की पढ़ाई करने की बात नहीं है। एक द्वंद्वात्मक एक जुटता में दोनों काम एक साथ करने की बात कही गई है।’’5 

प्रसिद्ध शिक्षाविद पाओलो फ्रेरे का यह कथन भाषा और मानव जीवन के अन्तर्संबंधों की सटीक व्याख्या करता है। हम शायद यह अनुभव नहीं कर पाते हैं कि संसार भौतिक वस्तुओं की संरचना मात्र नहीं है। इन भौतिक पदार्थों और उनके प्रकार्यों से मानव का जो संबंध है वह भाषा के बिना असंभव है। भाषा सिर्फ शब्दों के लिखित और मौखिक रूप तक सीमित नहीं है, मनुष्य के अन्य मनुष्यों और प्रकृति के साथ संबंधों की निर्मिति भी भाषा का ही प्रकार्य है। हम जीवन में निरंतर जो कार्य करते हैं, उत्पादन और पुनरुत्पादन करते हैं, इस प्रक्रिया में प्रकृति के पदार्थों और अन्य प्राणियों के साथ हमारा जो संबंध कायम होता है वह भी एक भाषा है। भाषा ही वह तत्व है जिसने वर्तमान विश्व को यह रूप दिया है। ज्ञान और भाषा का संबंध भी बहुत जटिल है। ज्ञान के विस्तार और अनन्त शाखाओं में विभाजन भी भाषा के माध्यम से ही संभव हुआ है। भौतिक वस्तुओं से निर्मित इस संसार और मनुष्यों के बीच प्रकार्यों का जो विशिष्ट संबंध है वह एक संरचना है। यह संरचना भाषायी संरचना के अनुरूप संरचित हुई है।

मानवीय अनुभव और ज्ञान का संचार इस संसार की दूसरी वस्तुओं और मनुष्यों तक भाषा के माध्यम से ही संभव है। इस अर्थ में भाषा सबसे ताकतवर और दीर्घजीवी संचार व्यवस्था है जिसका अविष्कारक आदि मानव है। इतनी विकसित और स्थायी संचार व्यवस्था का अविष्कार दुनिया में दूसरा नहीं हुआ। इस संदर्भ में भाषा संस्कृति की वाहक होती है और जो मूल्य हम निरंतर प्रकृति और अन्य मनुष्यों से द्वंद्वात्मक संपर्क और संघर्ष से अर्जित करते हैं, या जो मूल्य हमें विरासत में मिलते हैं, उनकी वाहक भी भाषा ही होती है। इस अर्थ में भाषा मूल्यों का एक संचित कोष होती है जो निरंतर आगे की पीढ़ियों को संप्रेषित करती रहती है। भाषा बच्चों के मस्तिष्क में संसार का बिम्ब बनाती है। वह रंगों, आकृतियों और प्रकार्यों का सामंजस्य स्थापित करती है जैसा कि न्गुगी और थ्योंगो ने लिखा है - ‘‘इस प्रकार संस्कृति के रूप में भाषा का जो दूसरा पहलू है वह किसी बच्चे के मस्तिष्क में बिंब निर्माण करने का एक माध्यम भी है। व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से एक जनसमूह के रूप में अपने होने की हमारी समूची अवधारणा उन बिंबों और प्रतीकों पर आधारित है जो प्रकृति के साथ हमारे वास्तविक संबंधों के एकदम अनुरूप भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है।’’6  संचार माध्यम भाषा की इस बिंब निर्माण क्षमता को आभासी यथार्थ के माध्यम से कुंद कर रहे हैं।

वर्तमान के संचार के साधन और भाषा की संचार क्षमता के बीच मूलभूत अंतर है। सबसे पहली बात जो ध्यान में रखना चाहिए वह यह कि ये तमाम संचार साधन भाषायी तत्व पर आधारित है। बिना भाषा के किसी भी संचार साधन की कल्पना संभव नहीं है। पशुओं के लिए किसी भी तरह के संचार साधन उपयोगी नहीं है, क्योंकि उनके और संसार के बीच कोई संरचनात्मक संबंध नहीं है। दूसरी बात यह है कि ये तमाम संचार के साधन मानवीय आवश्यकता के लिए नहीं है जैसा की भाषा है। इनके विकास के पीछे जो वर्चस्वी विचारधार काम कर रही है वह मुनाफा कमाने और मानसिक गुलाम बनाने की है जैसा कि नाम चॉम्स्की ने संचार माध्यमों के विकास के संबंध में लिखा है कि ‘‘शुरू से ही, इसका लक्ष्य पूरी तरह खुल्लमखुल्ला तथा सचेत रूप से, जैसा कहते हैं कि ‘जनमानस का नियंत्रण’ रहा है। सदी के शुरू से ही जनमानस को, निगमों के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर देखा जाता रहा है।’’7

इसलिए आधुनिक संचार साधनों और भाषा का कोई मौलिक या तात्विक संबंध नहीं है जैसा मानव और भाषा के बीच है। इनका उद्देश्य और कार्य कुछ खास लोगों के स्वार्थ और वर्चस्व को बनाए रखना है। यह वह तत्व है जो हमें समझना चाहिए।





भाषा जीवन और जगत के संबंधों और प्रक्रियाओं को कोडयुक्त बनाती है। शिक्षक का काम उसे कोडमुक्त करना है जो बिना संसार को पढ़े संभव नहीं है। इसलिए पहले जिए गए अनुभव का ज्ञान अर्जित किया जाना संचार के लिए आवश्यक है जो संचार के तकनीकी साधनों से संभव नहीं है। जीवन और जगत के संबंधों और प्रक्रियाओं को कोडयुक्त करने और कोडमुक्त करना हर मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत युक्त भाषा में ही संभव है। संचार माध्यमों की भाषा में सांस्कृतिक विरासत का कोई तत्व नहीं होता इसलिए वह जीवन के जिए गए अनुभवों से रहित होती है। संचार के साधन आज के युवा वर्ग की एक ऐसी छवि गढ़ते हैं जो एक विकृत और बेजान भाषा के इस्तेमाल को ही अपनी पहचान मानते हैं और इससे वे सांस्कृतिक विरासत और अनैतिहासिक वर्ग बन जाते हैं। एक ऐसा वर्ग जिसकी जन जीवन में कोई जड़ें नहीं है और जनसामान्य, या उपेक्षित जनों से जिन्हें इस भूमंडलीकरण की योजना से बाहर रखा गया से कोई संवेदनात्मक या वर्गीय संबंध नहीं है।
सैनिक और हथियार मनुष्य के शरीर को गुलाम बनाते हैं और मनुष्य की चेतना और अन्तरात्मा को गुलाम बनाया जाता है उनकी भाषा छीन कर। उपनिवेशवाद और नव उदारवादी साम्राज्यवादी नीतियों ने मनुष्य की मौलिक चेतना को विकृत और विदू्रपित करने के लिए उसकी भाषा को उससे छीनना प्रारंभ किया। इसके लिए औपनिवेशिक ताकतों ने अपनी भाषा और उसके माध्यम से संस्कृति को उपनिवेशित लोगों पर थोप कर उनकी मौलिकता और चेतना की हत्या कर दी।
  ‘‘उपनिवेशवाद का वास्तविक उद्देश्य जनता की संपत्ति पर नियंत्रण रखना था। उन्हें इस पर भी नियंत्रण रखना था कि जनता किस चीज का उत्पादन करती है, किस तरह उत्पादन करती है और इसका वितरण किस तरह होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वास्तविक जीवन की भाषा के समूचे साम्राज्य पर उसे नियंत्रण रखना था। उपनिवेशवाद ने भौतिक संपदा के सामाजिक उत्पादन पर सैनिक विजय के जरिये अपना नियंत्रण रखा और राजनीतिक अधिनायकवाद द्वारा उसे परिपुष्ट किया। लेकिन प्रभुत्व का इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र उपनिवेश की जनता का मानसिक जगत था, जिस पर उसने संस्कृति के जरिए नियंत्रण स्थापित किया। बिना मानसिक नियंत्रण के आर्थिक और राजनैतिक नियंत्रण का मतलब दूसरों के संदर्भ में खुद को कारगर। जनता की संस्कृति पर नियंत्रण का मतलब दूसरों के संदर्भ में खुद को परिभाषित करने के उपकरणों पर नियंत्रण करना है।’’8 

यही कार्य नवउदारवादी ताकतों ने संचार के नए साधनों के माध्यम से आरंभ किया। नव उदारवादी ताकतें यह समझ गईं थीं की आम आदमी के मन और विचारों को नियंत्रति करने के लिए उसकी भाषायी चेतना को विकृत किया जाना आवश्यक है। इसके बिना वे मानव के मन को नियंत्रित नहीं कर सकते थे और बिना मानसिक नियंत्रण के उसे सदियों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। उसके श्रम के द्वारा अकूत मुनाफा कमाने के लिए शरीर पर नियंत्रण की औपनिवेशिक नीतियाँ कारगर नहीं रहीं। औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ हजारों विद्रोह भारत में ही हुए पर नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं हुआ। यही मानसिक नियंत्रण की वह तकनीक है जो नव साम्राज्यवादी नीति निर्माताओं ने अपनायी और उसमें बहुत हद तक वे सफल भी रहे - ‘‘इस प्रकार सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करके उत्पीड़क राष्ट्र और वर्ग एक ऐसी स्थिति सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं जिसमें गुलाम लोग यह मान बैठते हैं कि गुलाम होना एक सामान्य मानवीय अवस्था है।’’9 

संचार माध्यमों के ‘जन’ विशेषण के पीछे के ‘क्यों’ का पर्दाफाश करना और उसके निहित स्वार्थों को ‘जन’ तक पहुँचाना संचार माध्यम और उनमें प्रयुक्त भाषा के अध्ययन का लक्ष्य होना चाहिए। जैसा कि हमने पहले कहा है कि शब्द को पढ़ना संसार को पढ़ना है। संचार माध्यम शब्द और संसार के इस संबंध को विकृत कर रहे हैं। वे शब्द की क्षमता और संसार को अभिव्यक्त करने की उसकी तकनीक के यथार्थ संबंध को आभासी अयथार्थ में बदल रहे हैं। वास्तविक संबंधों को आभासी संबंधों में बदलना संचार माध्यमों का वास्तविक लक्ष्य है। यह लक्ष्य मनुष्य की वास्तविकताओं के जिये गए अनुभव और ज्ञान को विद्रूप कर देता है। यथार्थ और जीवन के समीकरण को आभासी अनुभव और जीवन के समीकरण में बदल कर मनुष्य को अवास्तविक वस्तु में बदल देता। इससे मनुष्य आपसी जीवंत संबंधों से कट जाता है और सोशल मीडिया के अयथार्थ संबंधों में जीवन की सार्थकता को पाने की कोशिश में मानसिक विकृति और जड़ता की ओर बढ़ता जा रहा है।
इस मानसिक विकृति और जड़ता का ही परिणाम है हिंसा, बलात्कार, मानवीय क्रूरता के निठारी कांड, पर्यावरण के विनाश, अनेक प्रजातियों के विलीन होते जाने, जीवन के अक्षत स्रोतों का निरंतर प्रदूषित करते जाने की हद तक तकनीक को बिना किसी हिचक के अपनाते जाने में परिलक्षित हो रहा है। यह मनुष्य के यथार्थ से निरंतर दूर होते जाने का ही परिणाम है जो संचार माध्यमों की भाषा से निर्मित हो रहा है।

संचार माध्यमों में प्रयुक्त होने वाली भाषा चाहे जो हो उसके पीछे काम करने वाली नीति और लक्ष्यों को जाने बिना भाषा की विदू्रपता और विकृति के कारणों और परिणामों को नहीं समझा जा सकता। वे स्थानीय या देशीय भाषाओं को हमेशा दोयम दर्जे पर रखते हैं और उनके प्रति हिकारत की मानसिकता पैदा करते हैं। यह कार्य वे संचार माध्यमों की मूल भाषा या वर्चस्वी सताधारियों की भाषा को श्रेष्ठ और अत्यधिक क्षमताशील बताकर करते हैं। इस मानसिक विकृति का ही परिणाम होता है कि हिन्दी जैसी भाषाओं को दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त करने में हिन्दी भाषा पढ़ालिखा युवा शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी जैसी वर्चस्वी और गैर सांस्कृतिक भाषा के प्रयोग में गर्व महसूस करता है। यह गर्व अपने वजूद की शर्त पर किया जाने वाला गर्व है जो दरअसल इस गुलाम वर्ग की दासता को ही अपना वजूद मानलेने की स्थिति का द्योतक है।

संचार माध्यमों के जरिए जिस उपभोक्तावाद को लादा जा रहा है, वह अपनी निजी भाषा को विद्रूप और विकृत किए बिना संभव नहीं था। एक ऐसी भाषा को समान रूप से स्वीकृत कराया जा रहा मानो उसके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। विकास और अंग्रेजी भाषा का तादात्म्य इस तरह से हिन्दी भाषा-भाषी चेतना पर थोप दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना हम अपने होने की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं। बिना अंग्रेजी के जैसे शिक्षा और आजीविका का कोई रास्ता ही दिखाई नहीं दे रहा है। यह एक पूरी पढ़ी लिखी पीढ़ी को सदियों तक गुलाम बनाये रखने की साजिश है जिसे समझने और तोड़ने का प्रयत्न इसलिए नहीं हो रहा है कि जो वर्ग इसके खिलाफ लड़ सकता था वह तो अपने का धन्य समझ रहा है। अब क्या मजदूर वर्ग से सांस्कृतिक गुलामी के खिलाफ संघर्ष करेगा? शायद ऐसा हो पर यह स्थिति निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं दे रही है।

भाषा हमारी चेतना को मूर्त रूप देती है और हमारे हाथ और मूँह को सार्थक करती है। इसके बिना पशुओं के हाथ और मूँह और हमारे हाथ और मूँह के होने में कोई फर्क नहीं होता। मगर आज हम अपने हाथ और मूँह को गुलामी की सुनहरी जंजीरों में बंधवानें को तैयार हैं। यह गुलामी की निकृष्टतम अवस्था है और गुलाम बनाने वाले की चरम सफलता जब गुलाम गुलामी को खुशी-खुशी स्वीकार कर ले और इसे ही अपने अस्तित्व की, अपने होने की, अपने वजूद की सार्थकता मानने लगे। आजादी के बाद भारत में इसी मानसिक गुलामी की परंपरा इसी स्वीकार के साथ फैलती जा रही है और यह सर्वमान्य स्थिति की तरह स्वीकृत हो गई है। हिन्दी भाषा की अपनी क्षमता और ताकत को इससे बहुत बड़ा झटका लगा है।

हिन्दी सिर्फ एक बोली नहीं है, एक संपूर्ण सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत है इसके पीछे कम से कम एक हजार वर्षों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत काम कर रही है। इससे एक बहुत बड़ा जन समूह अपने अस्तित्व को सार्थक करता है, शेष विश्व के साथ अपने वजूद को संपूर्णता प्रदान करता है। संचार माध्यम इस विशिष्ट पहचान और अस्तित्व को समाप्त करने की राह पर चल रहे हैं। इसका अर्थ है कि हम धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को मिटाते जाने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।






हिन्दी भाषा और संचार माध्यमों के अन्तर्संबंधों को समझने के लिए इन कुछ तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है। चूँकि भाषा एक संरचना होती है और हर भाषा का अपना गठन अलग होता है, उसके प्रतीक और बिंब अलग होते हैं, मूल्यों को वहन करने की क्षमता और उन्हें संप्रेषित करने की तकनीक अलग होती है, उसका व्याकरणिक गठन अलग होता है। प्रत्येक भाषा का यह वैशिष्ट्य उसके प्रयुक्त करने वालों के भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तथा सांस्कृतिक विशिष्टताओं से निर्धारित होता है। जब हम किसी भी भाषा को इन से काट कर प्रयुक्त करते हैं तो भाषा प्राण रहित निर्जीव शरीर की तरह रह जाती है और यही तो इन संचार माध्यमों का लक्ष्य है कि जन मानस निर्जीव होकर जिए, उसमें सोचने विचारने की क्षमता ही न बचे जो उनके स्वार्थों और लक्ष्यों के खिलाफ आवाज उठा सकें। यदि वे सोचें भी तो एक ऐसी भाषा में जो उनके परिवेश के मूल्यों से उपजी न हो। इससे उनका मस्तिष्क उस भाषा के मूल्यों के प्रति अनुकूलित होगा और वे उनके स्वार्थों के हिमायती हो जायेंगे।

आज संपूर्ण भारत और विश्व में संचार माध्यम और बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से इसी तरह की गुलाम मानसिकता को बढ़ाया जा रहा है जो विकास और पैकेज की सुंदर शब्दावली में पेश की जा रही है। हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषी लोग भी इसी षड्यंत्र का शिकार हो रहे हैं जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। संचार माध्यमों की भाषा का स्वरूप् नियंत्रणकारी होता है, वह संचार माध्यमों के उपभोक्ता को निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में स्वीकार करती है। वह मस्तिष्क विहीन समाज और व्यक्ति की अवधारणा को मानकर चलती है, इस अर्थ में वह निरंकुश और तानाशाही से भरपूर होती है। संचार माध्यमों की भाषा का प्रभाव क्षणभंगुर होता है, उसे इस तरह प्रयुक्त किया जाता है ताकि ग्रहणकर्ता तात्कालिकरूप से तो उत्तेजित हो जाता है और कुछ समय पश्चात उसके मस्तिष्क से उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है - ‘‘संचार समामाजिक स्तरीकरण के तमाम खाके को खाली छोड़ देता है और प्राप्तकर्ता के समक्ष मस्तिष्कविहीन समाज की छवि पेश करता है, जिसे वही अनजाना निर्धारणकर्ता निर्देशित करता है। इस तिलिस्म को और ज्यादा मजबूत करने के लिए प्रतीक अपने साथ इससे जुड़ी हुई कई अवधारणाओं को साथ लेकर चलता है, जो सामाजिक भंगुरता को महत्वपूर्ण बनाते हैं जैसे ‘उपभोक्ता समाज’, ‘प्रचुरताशील समाज’, ‘जनसमाज’, ‘आधुनिक समाज’ और ‘जनमत’ इत्यादि।’’10 

संचार माध्यमों की भाषा उसके पीछे की वर्चस्वी ताकतों को शोषणकारी बहुराष्ट्रीय निगमों को अदृश्य बनाती है। वे उनके हितों को छिपाते हैं और स्वयं को जनहित के लिए समर्पित के रूप में पेश करते हैं। यह भाषा की विद्रूपता है। जन सामान्य के जीवन के वास्तविक विद्रूपताओं और उनके कारणों को अदृश्य रखती है और ऐसा वातावरण पेश करती है मानो कहीं कोई समस्या ही नहीं है, सर्वत्र सुख और भोग सामग्री की नदी वह रही है। यह आम आदमी के साथ क्रूरता है, उसकी गरीबी का मजाक है और यह सब संचार माध्यमों की भाषा करती है। वे अत्यंत्र त्रासद स्थितियों में जीने को विवश लोगों की पीड़ा और दुखों की यथार्थभाषा को विलोपित कर देते हैं। ये संचार माध्यम अपनी एक स्तरीय भाषा और रचे गए प्रतीकों एवं बिंबों से एक मायालोक का आभामंडल चारों और फैला देते हैं जिसमें करोड़ों लोगों के यथार्थ का गायब कर दिया जाता है-

‘‘आधुनिक संचार की शब्दावली के ये अहम शब्द उस तथ्य को छिपा देते हैं कि हकीकत की व्याख्या करने के लिए इन शब्दों के अर्थों को एक विशेष सामाजिक वर्ग द्वारा हम पर एकतरफा रूप से थोपा जाता है। दूसरे शब्दों में, इनकी भाषा, जिसे मीडिया द्वारा बार-बार दोहराया जाता और पुनरुत्पादित किया जाता है, एक पर्दे का काम करती है, ताकि अपराधी की स्थिति छुपी रहे और यह क्रूर तंत्र अपना काम जारी रखे। और इस प्रकार एक फार्मूले के बतौर तमाम अवधारणाएं, जैसे आधुनिकता, विज्ञापन, उपभोग, पर्यटन और ऐतिहासिकता, रोजमर्रा की जिंदगी के वाहक बन जाते हैं। जनतम की आड़ में, ये कुछ लोगों  की मुट्ठी में बंद यह प्रेस जनआंदोलनों पर दमन की मांग करता है।’’11 

संचार माध्यम एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जो उत्पीड़नकारी के हितों को साधती है और उनकी वैचारिक ताकत को ही आतंक की तरह थोपती है। यह उन लोगों की भाषा को निरंतर और तीव्रगति से संप्रेषित करती है जिनका उत्पादन, वितरण और मुनाफा कमाने की प्रक्रिया पर पूरा कब्जा होता है। ये संचार साधन उस वर्ग की विचारधारा को ही निरंतर संप्रेषित करते हैं जो पृथ्वी के अधिकांश स्रोतों पर अधिकार जमाये हुए हैं और बचे हुए भागों पर भी कब्जा करने के लिए प्रयत्नशील हैं -‘‘संचार मीडिया फर्जी चेतना की फर्जी चालाकी का द्योतक है। असल में वह सत्ताशील ताकतों और नौकरशाही की वैचारिक सत्ता का मजबूत करता है। अपनी उर्ध्वाधर भाषा के माध्यम से यह नौकरशाही इस व्यवस्था को न्यायोचित करार देती है और इस सामाजिक सौहार्द्रता का दर्जा भी देती है जिसमें कुछ रद्दोबदल तो किए जा सकते हैं मगर पूरी तरह से परिवर्तित नहीं किया जा सकता।’’12 

निष्कर्ष रूप में हम देख सकते हैं कि तमाम संचार माध्यमों की भाषा एक वर्गीय रुझान को संप्रेषित करने वाली होती है, विविधता दिखाने का भ्रम रचती है, हकीकत में एकरूपीकरण के प्रति अनुकूलित करती है, स्वतंत्रता के और चुनने के अधिकार के विकल्प को आजादी के अनुभव के रूप में पेश करती है, पर वास्तव में प्राप्तकर्ता को मानसिक गुलामी की ओर ले जाती है। इस बात को आर्मंड मैतेलार्त के शब्दों में बहुत ही सटीक तरीके से समझाा जा सकता है -
  ‘‘दूसरी तरफ महिलाओं की पत्रिका महिलाओं को नारीत्व की दुनिया के मिथक में बांधे हुए होती है। बेशक यह कितना ही आधुनिक लगे असल में वह उसे मुक्ति के अधिकार से वंचित रखती है और वे ये दिखावा करते हैं कि इत स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रेम पत्रिकायें पाठकों को दिल की बात सुनने के लिए उकसाती हैं। ये तमाम सांस्कृतिक उत्पाद फर्जी सत्ताविरोध को पैदा करते हैं जो बड़े व्यवस्थित ढंग से मौजूदा सामाजिक संबंधों (आध्यात्मिक-भौतिक, काम करने-फुरसत, परंपरागत-आधुनिक, परिवार-राजनीति) को बदलने की इच्छा को ही रोक देते हैं। हमें इस बारे में साफ होना होगा कि यह कोई विविधता नहीं है और न ही यहाँ कोई रुचियों की प्रचुरता का मामला है। ये तमाम चीजें अपने आप में शोषणकारी हैं। ये सभी वे मान्यतायें हैं जिनको आधार बनाकर प्रत्येक पत्रिका और प्रत्येक टेलीविजन चैनल के कार्यक्रम संचालित होते हैं। यह एक विकृति है।’’13 

इस तरह संचार माध्यम न केवल जनभाषा को विकृत कर उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रहें हैं बल्कि जन मानस पर नियंत्रण करके अपनी तानाशाही के अनुकुल उनके विचारों को ढालने के लिए भी प्रयत्नशील हैं। तमाम संचार माध्यम वैचारिक रुग्णता के शिकार हैं और वे मानसिक रुग्णता को ही पैदा करते हैं।


 डॉ. संजीव कुमार जैन
522 आधारशिला, ईस्ट ब्लाक एक्सटेंशन
 बरखेड़ा भोपाल
462022
मो. 09826458553



संदर्भ - 
1. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 76
2. फ्रेरे पाओलो, उम्मीदों का शिक्षाशास्त्र, ग्रंथशिल्पी, पृ. 114
3. पूंजीवाद और सूचना का युग, ग्रंथशिल्पी, पृ. 225
4. संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ले. हरबर्ट आई. शिलर,ग्रंथशिल्पी, पृ. 14
5. फ्रेरे पाओलो, उम्मीदों का शिक्षाशास्त्र, ग्रंथशिल्पी, पृ. 114
6. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 75
7. पूँजीवाद और सूचना का युग, ग्रंथशिल्पी, पृ. 216 
8. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 77-78
9. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 77-78
10. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 117-118
11. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 118
12. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 132
13. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 134

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