Saturday, July 9, 2016

"अपनी देह और इस संसार के बीच "
मुईसेर येनिया
जन्म : 1984 , इज़मिर .

अभी तक दो कविता संकलन ।विश्व के अनेक कवियों के रचनाकर्म का अंग्रेजी , तुर्की और स्पेनिश भाषा में अनुवाद किया ।विश्व की विभिन्न भाषाओँ में कविताएँ अनूदित ।अनूदित कविताओं का एक संकलन " अपनी देह और इस संसार के बीच " हाल ही में बोधि से प्रकाशित । ____________



मुइसेर येनिया
तुर्की कविताओ का हिंदी अनुवाद 

अनुवादक= मणि मोहन मेहता
मणि मोहन 

जन्म  : 02 मई 1967 ,
           सिरोंज (विदिशा) म. प्र.
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
            और शोध उपाधि
प्रकाशन : देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं ( पहल , वसुधा , अक्षर पर्व ,  समावर्तन , नया पथ , वागर्थ ,जनपथ, बया , आदि ) में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित ।
वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित ।वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक  ' एक सीढ़ी आकाश के लिए ' प्रकाशित ।वर्ष 2013 में  कविता संग्रह  " शायद " प्रकाशित ।इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार ।कुछ कवितायेँ उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित ।
इसके अतिरिक्त  " भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास " , " आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता " तथा " सुर्ख़ सवेरा " आलोचना पुस्तकों का संपादन ।
सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन ।
संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com


देह  और संसार के बीच  का एकालाप है यह कविताये | देह किसकी ...!!!
स्त्री ...!! ,जी   , हां
बे शक आज समय बदल गया है ,स्त्रीयो में अत्याचार  के विरुद्ध चेतना जाग्रत हुई है |फिर भी न जाने क्यों स्त्री तन की पीड़ित  स्म्रतियां आकर स्त्री  मन को सिहरा जाती  है |क्यों आखिर क्यों ,स्त्री देह ही सहती है ....इस हद्द तक की सहते सहते उसे अपनी देह से घ्रणा हो जाती है |वो पुरुषों की बात  तक नहीं  करना चाहती ,क्यों ???
श्रृष्टि के  सृजन कर्ता ईश्वर पर सवाल उठाती है ,...कितने दुखों की गाठें बाँधी होगी उसने मन में ,की हर दुःख उसे पत्थर बनाता गया |
उसकी व्यथा  ने ही शायद  कवि को लिखने  के लिए प्रेरित  किया हो ....देह से परे क्या है . और क्या सोचता है संसार उस देह के बारे में .......यह एक अर्थपूर्ण बिंदु है जिसे कवियत्री    ने  विशाल आकाश दिया ...उसमे वेदना का ताप भरा ,और तिक्त भाव से देह के दर्द को  जिसमे ,जीने की विवशता ओर हताशा  है ,देह को रोंधे जाने की अकथ्य पीड़ा है,अकेलापन है .उन्हें शब्दों. में उकेरने की कोशिश की ...आत्मा का नर्तन करती हुई कवितायेँ है यह ......

कभी कभी मनुष्य मरते -मरते भी थक जाता है 
कभी कभी वो उस मुल्क की तरह होता है 
जिसे सबने छोड़ दिया है |

जीवन की हताशा  और अकेलेपन से भरी यह पंक्तियों से कवी जीवन की उकताहट को व्यक्त कर रहा है |

एक स्त्री का दूसरी स्त्री (माँ) से विकल होकर कहना ..
एक स्त्री का अर्थ रोंदा जाना है ,ओ माँ 
एक स्त्री ने मेरा बचपन लिया 
एक पुरुष ने मेरा स्त्रीत्व .....

ईश्वर को स्त्री की रचना नहीं करनी चाहिए 
ईश्वर को जन्म देना नहीं आता ....

अत्याचार  को सहते हुए कहा जाता है
वो चिडियों के संगीत पर बमबारी करेंगे 
चिड़ियाएँ सिक्को की खनक नहीं पैदा करती ........चिड़ियाएँ यानि स्त्रियायें


पृथ्वी ऐसी ही है 
लोगो के मुहँ में शब्द है 
शब्दों के भीतर अकेलापन है |

शब्द अभिव्यक्त नहीं  कर सकते मेरी अनुभूति को 
शब्द हुकूमत करते है ......उफ्फ्फ शब्द भी शासित 

मै अधूरे कदमों से चल रही हूँ 
उन पहाड़ों पर ,जो कभी थे ही नहीं 
मेरी देह बरसा रही है पत्थरों की आंधी ....

क्या कोई इतना भार भर लेता है अपनी देह में जो  पत्थरों की आंधी में तब्दील हो जाता है ....

कवि  स्त्री है ,वो स्त्री देह की  पीड़ा को शब्द दे रही है ,क्या कोई पुरुष  उसी तरह स्त्री  देह की पीड़ा को समझ कर अभिव्यक्त कर सकता है .....लेखिका ने इस पर लिखा

एक पुरुष कवी नहीं हो सकता 
एक पुरुष कवी के लिए कलम हो सकता है ......


पुस्तक की कुछ कविताये आज whatsapp के समूह साहित्य की बात पर प्रस्तुत हुई ,जिसके मुख्य एडमिन है श्री ब्रज श्रीवास्तव |यहाँ वो कवितायेँ और उन पर आई पाठको की प्रतिक्रियाए प्रस्तुत है |
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तलवार का घाव 
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खुद के सिवा कोई नहीं मेरे पास
एक भी दिन नहीं
इस रात के बाहर मेरे पास

बर्फ़बारी के बीच मैं नींद के आग़ोश में जा रही हूँ
इस देह के साथ जिसे कुत्तों ने
तार-तार कर दिया है

मैं इंतज़ार कर रही हूँ ज़िन्दगी के गुज़रने का
तलवार का एक गहरा घाव है
मेरी जांघो के बीच

मैं यहाँ आई
एक स्त्री की कोख भरने के बाद

मुझे नापसन्द थी यह दुनियां
जिसे मैंने उसकी नाभि से देखा था

खुद से बाहर कोई नहीं मेरे पास
एक दिन तक नहीं
रात से बाहर
मेरे पास ।

विलाप
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एक स्त्री होने का अर्थ
रौंदा जाना है , ओ माँ !

उन्होंने सब कुछ छीन लिया मुझसे

एक स्त्री ने मेरा बचपन लिया
एक पुरुष ने मेरा स्त्रीत्व ....

ईश्वर को स्त्री की रचना नहीं करनी चाहिए
ईश्वर को जन्म देना नहीं आता

यहाँ , सभी पुरुषों की पसलियां
टूटी हुई हैं

हमारी ग्रीवायें बाल से भी ज्यादा पतली हैं

पुरुष उठाये हुए हैं हमें
अपने कन्धों पर ताबूत की तरह

हम उनके पैरों के नीचे रहे

किसी पँख की तरह
हम उड़े एक दुनियां से
एक आदम की तरफ

और मेरे शब्द , ओ माँ !
उनके पदचिह्न हैं .....

मुझसे पुरुषों की बात मत करो
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मेरी आत्मा इतनी दुखती है
कि मैं धरती के भीतर सोये पत्थरों को जगा देती हूँ

मेरा स्त्रीत्व
एक गुल्लक है जिसमे भरे हैं पत्थर
एक घर कीड़े-मकोड़ों का , कठफोडवों का
एक गुफा चढ़ते-उतरते भेड़ियों के लिए
मेरी देह पर , मेरी बाँहों पर
नए बीज बिखेरे जाते हैं
तुम्हारे जीवन के लिए पुरुष तलाशा जाता है
यह बेहद गम्भीर मसला है

मेरा स्त्रीत्व , मेरा ठण्डा नाश्ता
और मेरा वस्ति प्रदेश , खालीपन से भरा एक घर
इसी पर टिकी है यह दुनियां
और तुम ! उस गन्दगी के साथ जी रही हो
जो फेंक  दी गई है तुम्हारे अंदर

जब वह जा चुके , उससे कहना
कि नाख़ून छूट जाते हैं मांस में
कि तुम जीती हो इस टूटन की विज्ञान के साथ
उस गम्भीर बीमारी के बारे में उसे बताना

किसी भेड़ के चमड़े की तरह , मैं ठण्डी हूँ तुम्हारी घूरती निगाह में
मैं तुम्हारी माँ की कोख की कर्जदार नहीं हूँ  , श्रीमान !
मेरा स्त्रीत्व , मेरा अधीनित महाद्वीप

और न मैं खेती वाली जमीन हूँ ...
खरोंच कर मिटा दो उस अंग को जो मेरा नहीं
साँप की केंचुल की तरह , काश मैं उससे मुक्त हो सकती
हत्या के लिए माँ बने रहना तार्किक नहीं

यह टुकड़ों में विभाजित सरज़मीन नहीं
एक स्त्री की देह है
अब मुझसे पुरुषों की बात मत करो !

चलो सोने चलते हैं
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चलो सोने चलते हैं
उस तन्हा अँधेरे में

अच्छा हो कि पैर में पड़े लकड़ी के जूते
सूती वस्त्र में बदल जायें

चलो सोने चलते हैं
उस बन्द पलकों वाले महल में

चलो अपने कन्धों से उतारें अपनी देह
चलो उस घोड़े पर सवार हो जायें
जिसकी पूंछ एक बादल है

जैसे हम पराजित हो चुके हों
आसमान की चमक से

जैसे हमारे पास कोई सिरहाना न हो
सिवा धरती के

अच्छा हो कि गेंहू की हरितमा
हमारे सपनों पर झुक जाये

चलो सोने चलते हैं ।
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प्रतिक्रियाएं 
Anita kardekar
स्त्री विमर्श पर केन्द्रित महत्वपूर्ण कविताएॅ, विचारणीय है कि विश्व भर में नारी देह उसकी निजता और उस पर स्वयं उसके अधिकार के प्रश्न अनुत्तरित हैं।
घनश्याम दास  सोनी 
आज की अनूदित कविताओं को पढ़ कर दिमाग में एक प्रश्न  बार बार उठता है कि क्या सारे विश्व में पुरुषों ने स्त्रियों के साथ अत्याचार ही किया है ? इन रचनाओं से लगता है कि पुरुष जाति सभ्यता से कोसों दूर है । या कविताओं के लिये यह एक सर्वसुलभ विषय है । चूँकि मैं एक पाठक हूँ , अतः दिमाग में यह प्रश्न उठता है । यदि प्रश्न अनुचित लगे तो मैं सम्मानीय साथियों से पहले ही क्षमा मांग रहा हूँ ।
ब्रज श्रीवास्तव 
जी.. चर्चा जारी रहे.. आप लोग मंथन कर रहे हैं. यह अच्छा है. कविता कोई सार्वजनिक उदघोष नहीं होता. उसमें अनेकांत निहित होता है. अनूदित कविताएँ भी एक दृष्टिकोण और स्वानुभूति की बानगी हो सकती हैं. सामान्य तौर पर स्त्री जीवन पुरूषों की तुलना में मुश्किल होता है यही बात इन कविताओं में है..

डॉ दीप्ती जोहरी 
 स्त्री अस्मिता के प्रश्न ,देह से शुरू हो के देह के संजाल में समाप्त होने को अभिशप्त है......जैविकीय विशिष्टताएँ किस प्रकार आधी आबादी के जीवन परिदृश्य को आच्छादित किये रहती है इसकी झलक ये कविताये दिखा पाती हैं। अनुवाद एक दुरूह कार्य है और इसमें निजी तौर पर मुझे अंतिम कविता सर्वश्रेष्ठ  लगी   ... चलो अपने कन्धों से उतारे अपनी देह को …में इस संजाल से मुक्ति का एक स्वप्न तो है ही ..और वेणुगोपाल जी के शब्दों में .....न हो कुछ भी ,सिर्फ सपना हो, तो  भी हो सकती है शुरुआत..... मणि जी को अच्छे अनुवाद के लिए बधाई💐
के के श्रीवास्तव 
अनुवादित कविताओं में स्त्री जीवन की हताशा  रेखांकित है हालाँकि पहले सम्पूर्ण विश्व्  में स्त्रियों पर अत्याचार होते आये हैं लेकिन वर्तमान में स्थिति इससे भिन्न है  . महिलाओं को सशक्त बनाने में अनेकानेक गुंजाईशों से इंकार नहीं किया जा सकता साथ ही   इसके चलते समाज में स्त्रिओं के प्रति हमें हमारी सोच को परिवर्तित करना होगा . इस अच्छे अनुवाद के लिए मणि जी को बधाई
मधु सक्सेना 
 मणि जी द्वारा अनूदित मुइसेर येनिया की कविताएँ ......अपने पुरे दर्द और नफरत को लेकर उभरती है और स्त्री पर हुए अत्याचार की सनद है ।
'ईश्वर को स्त्री की रचना नहीं करनी चाहिए ....ईश्वर को जन्म देना नहीं आता ..' इन पंकियों में सदियों की कहानी निहित है । ' मुझसे पुरषों की बात मत करो '..कह कर येनिया ने अपनी नफरत की इन्तहां की बात की ।ये मात्र एक आवाज़ नहीं ....आवाज़ों का समूह है ...चीत्कार है ।ये कविताये दिल दहला देती हैं ...।
एक बात पूछना चाहती हूँ मणि जी से ...इन कविताओं के अनुवाद के समय उन्हें कोई विशेष अनुभूति हुई ? जब उन्होंने पहली बार इन कविताओं को पढ़ा तो हृदय कितना विचलित हुआ ....?
मैं येनिया और पूरी स्त्री जाति की तरफ से मणि जी को धन्यवाद देती हूँ ।इन आवाजों को दूर तक फैलाने में सहायक बनने के लिए । आभार ।

 Mukta Shreewastav: कविताएँ अच्छी लगीं.और जो बातचीत से कविताएँ और महत्वपूर्ण लगीं
सुदिन श्रीवास्तव 
स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री शिक्षा, स्त्री के समाज में बढ़ते महत्व, समाज में कंधे से कंधा मिलाकर चलती स्त्री, अपने पैरों पर खड़ी स्त्री जैसी तमाम चर्चाओं के बीच क्या वास्तव में आज भी कोई स्त्री इतने ही भय से घिरी हुयी रहती है घर से निकलते वक्त । क्या पुरूष समाज के प्रति हरेक स्त्री इसी भय से ग्रस्त रहती है और क्या विश्व भर की महिलायें इसी भय से घिरी हुयीं हैं ।ऐसे सवाल कविताओं को पढ़ने के बाद से लगातार परेशान कर रहे हैं । यदि स्त्री अपने इस भय से मुक्त नहीं हो पा रही है तो हम ये किस भय मुक्त समाज की बात कर रहे हैं और हमारे स्त्री विमर्श का क्या परिणाम निकल रहा है। कविताओं में ऐक स्त्री जो अपना भोगा हुआ यथार्थ दिखा रही है वह बहुत दुखी करने वाला है । आपने अनुवाद नहीं किया मणि भाई शब्द चित्र उकेरे हैं सच । आपकी इस योग्यता और क्षमता का बहुत साधुवाद

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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