Tuesday, September 4, 2018

सिद्धेश्वर सिंह की कविताएं


सिद्धेश्वर सिंह


कवि का जाना
( स्मृति : केदारनाथ सिंह )
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कवि के जाने के दुख से 
अगर उबरना है तो 
उसकी कविता में उतर जाओ अकेले और चुपचाप
इसके लिए मत खोजो किसी का संग -साथ
मत पूछो कि हिमालय किधर है?

उसके लिखे शब्दों पर गौर करो
रखो चौकस निगाह
देखो कि उजास के कितने रंग हैं वहाँ
गिनो सको तो गिनो कि कितने -कितने छिद्रों से छन कर
पृथ्वी पर आने को विकल हैं 
सूर्य चंद्र और अन्यान्य अनाम ग्रह नक्षत्र ।

छुओ कविता को
उसका हाथ अपने हाथ में लेकर महसूस करो
कि कितना अंधकार सोख लिया है इस सोख्ते ने
देखो कि यहां वहां  ये जो दिख रहे हैं 
दाग़ धब्बे और बदरंग चकत्ते तमाम
इन्हीं में कहीं दबा है मेरा तुम्हारा और उनका भी दुख
जिनकी कहीं थी ही नहीं कोई आवाज
कि गला खंखारकर पूछ सकें कि गाड़ी अभी कितनी लेट है?

सृष्टि पर लगा है पहरा फिर भी
भाषा का एक पुल है 
मांझी के पुल की तरह ठोस और लोच से भरपूर
इस पर ठहरो
जैसे ठहर जाते हैं पानी में घिरे हुए लोग
अभी बस अभी करो यह एक जरूरी काम
उतरो कविताओं जल में जूते चप्पल और खड़ाऊं उतार कर।

कहीं नहीं जाता है कोई कवि
भले ही वह बताता रहे 
कि 'जाना' हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है !









बनता हुआ मकान
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यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा-अधूरा निर्माण
आधा-अधूरा उजाड़
जैसे आधा-अधूरा प्यार
जैसे आधी-अधूरी नफ़रत ।

यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है -- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा-सा है फ़र्श
लगता है ज़मीन अभी पक रही है
इधर-उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन-टी० वी० की केबिल भी कहीं नहीं दीखती ।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी सम्पूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ़ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज़
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक ख़ामोश सिसकी भी ।

अभी तो सब कुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे-धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आएँगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ाएँगे तिलचट्टे ।

आश्चर्य है जब तक आऊँगा यहाँ
अपने दल-बल छल-प्रपंच के साथ
तब तक कितने-कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान ।








कवि का कुरता
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यह कविता पाठ के मध्यान्तर का
चाय अंतराल था
जिसे कवि नायक कहे जाने वाले
एक दिवंगत कवि के शब्दों में
कहा जा सकता था- 'हरी घास पर क्षण भर'।

वहाँ कई कवि थे सजीव
जिनमें से एक ने पहना था
खूब चटख ललछौंहे रंग का कुरता
उसे घेर कर खड़े थे कुछ लोगबाग
जिनमें से 'कुछ थे जो कवि थे'
जैसा कि शीर्षक है
इधर के एक नए कवि के नए कविता संग्रह का
और कुछ ऐसे भी
जिनकी नेक नीयत थी कवि होने की
(नियति को क्या होगा मंजूर
यह और अलग बात !)
चटख कुरते वाला कवि आकर्षण का केन्द्र था
बोल भी वही रहा था सबसे ज्यादा
क्योंकि वह बड़ा कवि था
वह आया था बड़ी जगह से
उसके होने भर से
हो जाता था हर कार्यक्रम बड़ा
यह एक बड़ी चर्चित बात थी
साहित्य के समकालीन परिसर में
जबकि परिधि पर कुछ न कुछ लिखा जा रहा था लगातार
चर्चा से दूर और उल्लेख से उदासीन
(ओह , फिर याद आया वह दिवंगत कवि
अरे ! यायावर रहेगा याद !)

बड़े कवि को मिल चुके थे कई बड़े ईनाम
कई बड़े कवियों के
बड़े अंतरंग और बड़े तरल किस्से थे उसके पास
और वह आजकल
लिखना चाह रहा था संस्मरणों की एक बड़ी किताब
जो कि लिखे जाने से पूर्व ही
हो चुकी थी खासी मशहूर और लगभग पुरस्कृत
सब जन लगभग चुप
सब जन चकित
सब जन श्रोता
वक्ता वह केवल एक
और बीच - बीच में हँसी का एकाध लहरदार समवेत।

यह एक अध्याय था
कस्बे के एक साहित्यिक आयोजन के मध्यांतर का
जिसके बैनर पर लिखे थे
'राष्ट्रीय' और 'कविता' जैसे कई चिर परिचित शब्द
जिसकी सचित्र रपट तैयार कर ली गई थी उसकी पूर्णाहुति से पूर्व
किन्तु जिसे याद किया जाना था आगामी कई वर्षों तक
बड़ी जगह से आए
एक बड़े कवि के
चटख ललछौंहे रंग के कुरते के बावजूद







बोलती हुई बात
 ( स्मरण : शमशेर बहादुर सिंह)
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प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
गलती रही बर्फ़
बनकर नदी
नींद थी
नहीं थे स्वप्न
मैं न था
तुम थे साथ
यह कौन - सी यात्रा थी
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
* *
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
दूब की नोक से सिहरता व्योम
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
किस्से - कहानियों जितना अपना होना
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
कवि तुम
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।







बीच बहस में
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मैं हूँ
तुम हो
और वे हैं जो कि
अनुपस्थित चल रहे हैं लगातार

शब्द हैं
वाक्य हैं
आरोह - अवरोह है वाणी का
नहीं हैं ; बस नहीं हैं विचार

कहाँ है उत्स
किधर है परिणति
इस प्रयोजन का क्या ध्येय
संप्रति एक ही लय झंकृत बारंबार

ज्योतित खद्योत
सहमे सिकुड़े कपोत
सबकुछ विरुद से ओतप्रोत
गुंजित चहुंदिशि जय जयकार

यह बहस है
यही विमर्श
यही है अभिनव संवाद
यही भक्ति यही शक्ति यही मुक्ति का द्ववार !

और अंत में
 ( प्रार्थना की तरह )
इस युग को नमन - नमस्ते - नमस्कार !




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परिचय
सिद्धेश्वर सिंह

जन्म :  11  नवम्बर 1963, गाँव : मिर्चा , दिलदार नगर , जिला गा़जीपुर ( उत्तर प्रदेश )

शिक्षा : एम०ए०( हिन्दी ) , नेट (जे.आरएफ़.),पी-एच० डी०

प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें , कहानियाँ, समीक्षा  व शोध आलेख प्रकाशित।भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण की टीम के सदस्य के रूप में उत्तराखंड की थारू भाषा पर कार्य। विश्व कविता से अन्ना अख़्मतोवा, निज़ार क़ब्बानी, ओरहान वेली, वेरा पावलोवा , हालीना पोस्वियातोव्स्का , बिली कालिंस और अन्य महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद।  कविता संग्रह ' कर्मनाशा' 2012  में प्रकाशित। एक कविता संग्रह व अनुवाद  की दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य।  2007 से 'कर्मनाशा' शीर्षक ब्लॉग का संचालन- संपादन।
फिलहाल : उत्तराखंड प्रान्तीय उच्च शिक्षा सेवा में एसोशिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।  

संपर्क : ए- 03, आफीसर्स कालोनी, टनकपुर रोड, 
अमाऊँ, पो० - खटीमा , 
जिला - ऊधमसिंह नगर  ( उत्तराखंड ) पिन - 262308  
मोबाइल - 09412905632 , 
ई मेल: sidhshail @gmail.com



7 comments:

  1. सभी रचनाएँ बहुत सारगर्भित हैं।

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  2. उत्कृष्ट शव्द क्रीड़ा,,,,,विशद रचना,,,,उत्कृष्ट भावपक्ष

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  3. आपकी रचनायें अलग तरह की होती है, पाठक से संवाद करती हैं । सरल शब्दावली आपकी कविता में चार चाँद लगा देती है और पाठक को अपने समीप लगती है ।

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