Friday, May 24, 2019

भाषायी विद्रूपता और मानसिक नियंत्रण
बनाम संचार माध्यम
  डॉ. संजीव कुमार जैन
  सह प्राध्यापक हिन्दी
 डॉ संजीव जैन 


भाषा ही संचार है और वह मानवीय इतिहास का उत्पाद है। वह संस्कृति और मूल्यों, संवेदनाओं और बोधात्मकता की संवाहक और संसार को रचने का काम करती है। जिसे हम संसार कहते हैं वह मानवीय प्रयत्नों और भौतिक पदार्थों के बीच बने संबंधों और संरचनाओं का नाम है।
ये संबंध और संरचनायें भाषा की संचरणशीलता के कारण ही निर्मित होती हैं और इन्हें समझने अर्थात् बोधात्मक बनाने का काम भी भाषा ही करती है। मानवीय संरचना की सबसे बड़ी विशेषता है विचार करना, सोचना। बिना भाषा के मानव सोच नहीं सकता और अकेला एक मानव भी नहीं सोच सकता।

‘‘इस प्रकार संप्रेषणीयता और संस्कृति के रूप में भाषा एक दूसरे का उत्पाद है। संप्रेषणीयता से संस्कृति का निर्माण होता है: संस्कृति संचार का एक साधन है। भाषा संस्कृति की वाहक है और संस्कृति अपने मौखिक और लिखित साहित्य के जरिए मूल्यों के उस समूचे पुंज को लेकर चलती है जिसके जरिए हम स्वयं से साक्षात्कार करते हैं और विश्व में अपनी स्थिति का एहसास करते हैं। लोग किस तरह खुद से साक्षात्कार करते हैं यह बात इस तथ्य से प्रभावित होती है कि लोग किस दृष्टि से अपनी संस्कृति, अपनी राजनीति और प्रकृति और अन्य चीजों के साथ अपने समूचे संबंध को देखते हैं। इस प्रकार मानव समुदाय के ऐसे समूह के रूप में जिसका एक खास स्वरूप, खास इतिहास और विश्व के साथ खास संबंध है, हमारे साथ भाषा का एक अविभाज्य संबंध है।’’1.

व्यक्ति का सोचना दूसरों के सोचने से जुड़ा हुआ है इसी तरह एक व्यक्ति का ‘होना’ दूसरों के होने से जुड़ा हुआ है - ‘‘मैं प्रामाणिक तौर पर नहीं सोचता जब तक दूसरे न सोचें। मैं दूसरों के सोचने का काम या दूसरों के बिना सोचने का काम कर ही नहीं सकता। यह दावा अपने अंतर-निहित संवादमूलक चरित्र के कारण निरंकुश मानसिकता को डिगा देता है।’’2





मनुष्य की सोचने की क्षमता और स्वतंत्रता की भावना उसे निरंतर संरचनाओं को तोड़ कर उनके परे जाने के लिए उकसाती है। यही कारण है कि आधुनिक वर्चस्वी ताकतों ने उसकी इस क्षमता को पंगु बनाने के लिए सोचना आरंभ किया। देह पर नियंत्रण तो सैनिक ताकत से संभव हो सका पर बिना मन पर नियंत्रण के उसे हमेशा के लिए गुलाम बना कर नहीं रखा जा सकता था। विचारों पर नियंत्रण के लिए उनकी दिशा को बदल दिया, स्वतंत्र सोचने के लिए स्वतंत्र समय ही उसके पास नहीं रहने देने के प्रयत्न आरंभ हुए। उसकी मानसिक क्षमता का लाभ कुछ लोगों को मिलता रहे इसके लिए उसे अनेक तरह से नियंत्रित किया गया। मानसिक नियंत्रण के लिए किए गए प्रयत्नों में सबसे सशक्त प्रयत्न संचार के आधुनिक माध्यमों के विकास के रूप में सामने आया है। हम पाते हैं कि संचार के तमाम माध्यमों पर विश्व के लगभग सौ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व है और तमाम तरह के कार्यक्रम और नीतियाँ ये कारपोरेट तय करते हैं किस तरह उनके उत्पादों के पक्ष में विश्व जन मानस को अनुकूलित किया जाए।
इस संबंध में नाम चॉम्स्की ने लिखा है कि -‘‘यह जनतंत्र के लिए विशेष रूप से नुकसानदेह है कि मीडिया तंत्र निजी निरंकुश तंत्रों के हाथों में है....यह एक विशाल तंत्र है, जो सार्वजनिक खर्चों के सहारे खड़ा किया गया है। ज्यादातर मीडिया विश्लेषण कर्ता यह देख पा रहे हैं तथा लिख रहे हैं कि अंततः समूचा मीडिया तंत्र, दुनिया के पैमाने पर कोई आधा दर्जन अतिमहानिगमों के हाथों में सिमट जाने वाला है। यह इस्पात तथा कंप्यूटर जैसे क्षेत्रों के संचालित कर रहे अल्पतंत्रों से भी भयानक मामला होने जा रहा है, क्योंकि यहाँ हम सूचना तथा संचार की एक नई पद्धति के, निजी सत्ता के हाथों में सौंपे जाने की बात कर रहे हैं।’’3 

संचार माध्यमों में प्रिंट मीडिया सबसे प्राचीन है। यह तंत्र भी इन्हीं निगमों के हाथों में कैद है और वह भी मानसिक नियंत्रण और अनुकूलन के लिए कार्य कर रहा है। इसके लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा - ‘‘संस्कृति और सूचना क्षेत्र के उत्पाद व्यक्तिगत उपभोक्ता सामानों की परंपरागत इकाइयों के उत्पादों की तुलना में बहुत ज्यादा मूल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं: वे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की वैचारिक विशिष्टताओं के मूर्त रूप भी होते हैं। वे व्यवस्था के मूल्यों या कम से कम उसके उपकरणों और औजारों के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने और बढ़ाने में अत्यंत प्रभावी ढंग से सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए, एक शक्तिशाली विज्ञापन एजेंसी, ओगिल्बी एंउ मैथर, के संस्थापक डेविड ओगिल्बी ने रीडर्स डाइजेस्ट की उन्मुक्त प्रशंसा करते हुए टिप्पणी की: ‘पत्रिका अमेरिकी जीवन के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों का निर्यात करती है। मेरे विचार से जनमानस को जीतने की लड़ाई में डाइजेस्ट उतना कुछ कर रही है जितना संयुक्त राज्य की सूचना एजेंसी।’’4 

क्या हम संचार माध्यमों की नीतियों और उद्देश्यों के आधार पर उसमें प्रयुक्त होने वाली भाषा चाहे वह कोई सी भी क्यों न हो, उसका मूल्यांकन कर सकते हैं? इसके लिए हमें उनके पीछे के ‘क्यों’ और कैसे का पर्दाफाश करना होगा। भाषायी विद्रूपता और विकृति की जो चिन्ता हिन्दी और अन्य भाषाओं को हो रही उसके लिए इस नीति का विखंडन आवश्यक है।

अतः हम कह सकते हैं कि संसार भाषा की निर्मिति है अतः शब्दों को पढ़ने का अर्थ संसार को पढ़ना होता है, और शब्दों को रचने का अर्थ संसार को रचना होता है-‘‘जिसे मैं संसार को पढ़ना और शब्दों को पढ़ना कहता हूँ। मेरी इस बात में केवल शब्द की पढ़ाई करने या केवल संसार की पढ़ाई करने की बात नहीं है। एक द्वंद्वात्मक एक जुटता में दोनों काम एक साथ करने की बात कही गई है।’’5 

प्रसिद्ध शिक्षाविद पाओलो फ्रेरे का यह कथन भाषा और मानव जीवन के अन्तर्संबंधों की सटीक व्याख्या करता है। हम शायद यह अनुभव नहीं कर पाते हैं कि संसार भौतिक वस्तुओं की संरचना मात्र नहीं है। इन भौतिक पदार्थों और उनके प्रकार्यों से मानव का जो संबंध है वह भाषा के बिना असंभव है। भाषा सिर्फ शब्दों के लिखित और मौखिक रूप तक सीमित नहीं है, मनुष्य के अन्य मनुष्यों और प्रकृति के साथ संबंधों की निर्मिति भी भाषा का ही प्रकार्य है। हम जीवन में निरंतर जो कार्य करते हैं, उत्पादन और पुनरुत्पादन करते हैं, इस प्रक्रिया में प्रकृति के पदार्थों और अन्य प्राणियों के साथ हमारा जो संबंध कायम होता है वह भी एक भाषा है। भाषा ही वह तत्व है जिसने वर्तमान विश्व को यह रूप दिया है। ज्ञान और भाषा का संबंध भी बहुत जटिल है। ज्ञान के विस्तार और अनन्त शाखाओं में विभाजन भी भाषा के माध्यम से ही संभव हुआ है। भौतिक वस्तुओं से निर्मित इस संसार और मनुष्यों के बीच प्रकार्यों का जो विशिष्ट संबंध है वह एक संरचना है। यह संरचना भाषायी संरचना के अनुरूप संरचित हुई है।

मानवीय अनुभव और ज्ञान का संचार इस संसार की दूसरी वस्तुओं और मनुष्यों तक भाषा के माध्यम से ही संभव है। इस अर्थ में भाषा सबसे ताकतवर और दीर्घजीवी संचार व्यवस्था है जिसका अविष्कारक आदि मानव है। इतनी विकसित और स्थायी संचार व्यवस्था का अविष्कार दुनिया में दूसरा नहीं हुआ। इस संदर्भ में भाषा संस्कृति की वाहक होती है और जो मूल्य हम निरंतर प्रकृति और अन्य मनुष्यों से द्वंद्वात्मक संपर्क और संघर्ष से अर्जित करते हैं, या जो मूल्य हमें विरासत में मिलते हैं, उनकी वाहक भी भाषा ही होती है। इस अर्थ में भाषा मूल्यों का एक संचित कोष होती है जो निरंतर आगे की पीढ़ियों को संप्रेषित करती रहती है। भाषा बच्चों के मस्तिष्क में संसार का बिम्ब बनाती है। वह रंगों, आकृतियों और प्रकार्यों का सामंजस्य स्थापित करती है जैसा कि न्गुगी और थ्योंगो ने लिखा है - ‘‘इस प्रकार संस्कृति के रूप में भाषा का जो दूसरा पहलू है वह किसी बच्चे के मस्तिष्क में बिंब निर्माण करने का एक माध्यम भी है। व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से एक जनसमूह के रूप में अपने होने की हमारी समूची अवधारणा उन बिंबों और प्रतीकों पर आधारित है जो प्रकृति के साथ हमारे वास्तविक संबंधों के एकदम अनुरूप भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है।’’6  संचार माध्यम भाषा की इस बिंब निर्माण क्षमता को आभासी यथार्थ के माध्यम से कुंद कर रहे हैं।

वर्तमान के संचार के साधन और भाषा की संचार क्षमता के बीच मूलभूत अंतर है। सबसे पहली बात जो ध्यान में रखना चाहिए वह यह कि ये तमाम संचार साधन भाषायी तत्व पर आधारित है। बिना भाषा के किसी भी संचार साधन की कल्पना संभव नहीं है। पशुओं के लिए किसी भी तरह के संचार साधन उपयोगी नहीं है, क्योंकि उनके और संसार के बीच कोई संरचनात्मक संबंध नहीं है। दूसरी बात यह है कि ये तमाम संचार के साधन मानवीय आवश्यकता के लिए नहीं है जैसा की भाषा है। इनके विकास के पीछे जो वर्चस्वी विचारधार काम कर रही है वह मुनाफा कमाने और मानसिक गुलाम बनाने की है जैसा कि नाम चॉम्स्की ने संचार माध्यमों के विकास के संबंध में लिखा है कि ‘‘शुरू से ही, इसका लक्ष्य पूरी तरह खुल्लमखुल्ला तथा सचेत रूप से, जैसा कहते हैं कि ‘जनमानस का नियंत्रण’ रहा है। सदी के शुरू से ही जनमानस को, निगमों के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर देखा जाता रहा है।’’7

इसलिए आधुनिक संचार साधनों और भाषा का कोई मौलिक या तात्विक संबंध नहीं है जैसा मानव और भाषा के बीच है। इनका उद्देश्य और कार्य कुछ खास लोगों के स्वार्थ और वर्चस्व को बनाए रखना है। यह वह तत्व है जो हमें समझना चाहिए।





भाषा जीवन और जगत के संबंधों और प्रक्रियाओं को कोडयुक्त बनाती है। शिक्षक का काम उसे कोडमुक्त करना है जो बिना संसार को पढ़े संभव नहीं है। इसलिए पहले जिए गए अनुभव का ज्ञान अर्जित किया जाना संचार के लिए आवश्यक है जो संचार के तकनीकी साधनों से संभव नहीं है। जीवन और जगत के संबंधों और प्रक्रियाओं को कोडयुक्त करने और कोडमुक्त करना हर मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत युक्त भाषा में ही संभव है। संचार माध्यमों की भाषा में सांस्कृतिक विरासत का कोई तत्व नहीं होता इसलिए वह जीवन के जिए गए अनुभवों से रहित होती है। संचार के साधन आज के युवा वर्ग की एक ऐसी छवि गढ़ते हैं जो एक विकृत और बेजान भाषा के इस्तेमाल को ही अपनी पहचान मानते हैं और इससे वे सांस्कृतिक विरासत और अनैतिहासिक वर्ग बन जाते हैं। एक ऐसा वर्ग जिसकी जन जीवन में कोई जड़ें नहीं है और जनसामान्य, या उपेक्षित जनों से जिन्हें इस भूमंडलीकरण की योजना से बाहर रखा गया से कोई संवेदनात्मक या वर्गीय संबंध नहीं है।
सैनिक और हथियार मनुष्य के शरीर को गुलाम बनाते हैं और मनुष्य की चेतना और अन्तरात्मा को गुलाम बनाया जाता है उनकी भाषा छीन कर। उपनिवेशवाद और नव उदारवादी साम्राज्यवादी नीतियों ने मनुष्य की मौलिक चेतना को विकृत और विदू्रपित करने के लिए उसकी भाषा को उससे छीनना प्रारंभ किया। इसके लिए औपनिवेशिक ताकतों ने अपनी भाषा और उसके माध्यम से संस्कृति को उपनिवेशित लोगों पर थोप कर उनकी मौलिकता और चेतना की हत्या कर दी।
  ‘‘उपनिवेशवाद का वास्तविक उद्देश्य जनता की संपत्ति पर नियंत्रण रखना था। उन्हें इस पर भी नियंत्रण रखना था कि जनता किस चीज का उत्पादन करती है, किस तरह उत्पादन करती है और इसका वितरण किस तरह होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वास्तविक जीवन की भाषा के समूचे साम्राज्य पर उसे नियंत्रण रखना था। उपनिवेशवाद ने भौतिक संपदा के सामाजिक उत्पादन पर सैनिक विजय के जरिये अपना नियंत्रण रखा और राजनीतिक अधिनायकवाद द्वारा उसे परिपुष्ट किया। लेकिन प्रभुत्व का इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र उपनिवेश की जनता का मानसिक जगत था, जिस पर उसने संस्कृति के जरिए नियंत्रण स्थापित किया। बिना मानसिक नियंत्रण के आर्थिक और राजनैतिक नियंत्रण का मतलब दूसरों के संदर्भ में खुद को कारगर। जनता की संस्कृति पर नियंत्रण का मतलब दूसरों के संदर्भ में खुद को परिभाषित करने के उपकरणों पर नियंत्रण करना है।’’8 

यही कार्य नवउदारवादी ताकतों ने संचार के नए साधनों के माध्यम से आरंभ किया। नव उदारवादी ताकतें यह समझ गईं थीं की आम आदमी के मन और विचारों को नियंत्रति करने के लिए उसकी भाषायी चेतना को विकृत किया जाना आवश्यक है। इसके बिना वे मानव के मन को नियंत्रित नहीं कर सकते थे और बिना मानसिक नियंत्रण के उसे सदियों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। उसके श्रम के द्वारा अकूत मुनाफा कमाने के लिए शरीर पर नियंत्रण की औपनिवेशिक नीतियाँ कारगर नहीं रहीं। औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ हजारों विद्रोह भारत में ही हुए पर नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं हुआ। यही मानसिक नियंत्रण की वह तकनीक है जो नव साम्राज्यवादी नीति निर्माताओं ने अपनायी और उसमें बहुत हद तक वे सफल भी रहे - ‘‘इस प्रकार सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करके उत्पीड़क राष्ट्र और वर्ग एक ऐसी स्थिति सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं जिसमें गुलाम लोग यह मान बैठते हैं कि गुलाम होना एक सामान्य मानवीय अवस्था है।’’9 

संचार माध्यमों के ‘जन’ विशेषण के पीछे के ‘क्यों’ का पर्दाफाश करना और उसके निहित स्वार्थों को ‘जन’ तक पहुँचाना संचार माध्यम और उनमें प्रयुक्त भाषा के अध्ययन का लक्ष्य होना चाहिए। जैसा कि हमने पहले कहा है कि शब्द को पढ़ना संसार को पढ़ना है। संचार माध्यम शब्द और संसार के इस संबंध को विकृत कर रहे हैं। वे शब्द की क्षमता और संसार को अभिव्यक्त करने की उसकी तकनीक के यथार्थ संबंध को आभासी अयथार्थ में बदल रहे हैं। वास्तविक संबंधों को आभासी संबंधों में बदलना संचार माध्यमों का वास्तविक लक्ष्य है। यह लक्ष्य मनुष्य की वास्तविकताओं के जिये गए अनुभव और ज्ञान को विद्रूप कर देता है। यथार्थ और जीवन के समीकरण को आभासी अनुभव और जीवन के समीकरण में बदल कर मनुष्य को अवास्तविक वस्तु में बदल देता। इससे मनुष्य आपसी जीवंत संबंधों से कट जाता है और सोशल मीडिया के अयथार्थ संबंधों में जीवन की सार्थकता को पाने की कोशिश में मानसिक विकृति और जड़ता की ओर बढ़ता जा रहा है।
इस मानसिक विकृति और जड़ता का ही परिणाम है हिंसा, बलात्कार, मानवीय क्रूरता के निठारी कांड, पर्यावरण के विनाश, अनेक प्रजातियों के विलीन होते जाने, जीवन के अक्षत स्रोतों का निरंतर प्रदूषित करते जाने की हद तक तकनीक को बिना किसी हिचक के अपनाते जाने में परिलक्षित हो रहा है। यह मनुष्य के यथार्थ से निरंतर दूर होते जाने का ही परिणाम है जो संचार माध्यमों की भाषा से निर्मित हो रहा है।

संचार माध्यमों में प्रयुक्त होने वाली भाषा चाहे जो हो उसके पीछे काम करने वाली नीति और लक्ष्यों को जाने बिना भाषा की विदू्रपता और विकृति के कारणों और परिणामों को नहीं समझा जा सकता। वे स्थानीय या देशीय भाषाओं को हमेशा दोयम दर्जे पर रखते हैं और उनके प्रति हिकारत की मानसिकता पैदा करते हैं। यह कार्य वे संचार माध्यमों की मूल भाषा या वर्चस्वी सताधारियों की भाषा को श्रेष्ठ और अत्यधिक क्षमताशील बताकर करते हैं। इस मानसिक विकृति का ही परिणाम होता है कि हिन्दी जैसी भाषाओं को दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त करने में हिन्दी भाषा पढ़ालिखा युवा शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी जैसी वर्चस्वी और गैर सांस्कृतिक भाषा के प्रयोग में गर्व महसूस करता है। यह गर्व अपने वजूद की शर्त पर किया जाने वाला गर्व है जो दरअसल इस गुलाम वर्ग की दासता को ही अपना वजूद मानलेने की स्थिति का द्योतक है।

संचार माध्यमों के जरिए जिस उपभोक्तावाद को लादा जा रहा है, वह अपनी निजी भाषा को विद्रूप और विकृत किए बिना संभव नहीं था। एक ऐसी भाषा को समान रूप से स्वीकृत कराया जा रहा मानो उसके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। विकास और अंग्रेजी भाषा का तादात्म्य इस तरह से हिन्दी भाषा-भाषी चेतना पर थोप दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना हम अपने होने की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं। बिना अंग्रेजी के जैसे शिक्षा और आजीविका का कोई रास्ता ही दिखाई नहीं दे रहा है। यह एक पूरी पढ़ी लिखी पीढ़ी को सदियों तक गुलाम बनाये रखने की साजिश है जिसे समझने और तोड़ने का प्रयत्न इसलिए नहीं हो रहा है कि जो वर्ग इसके खिलाफ लड़ सकता था वह तो अपने का धन्य समझ रहा है। अब क्या मजदूर वर्ग से सांस्कृतिक गुलामी के खिलाफ संघर्ष करेगा? शायद ऐसा हो पर यह स्थिति निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं दे रही है।

भाषा हमारी चेतना को मूर्त रूप देती है और हमारे हाथ और मूँह को सार्थक करती है। इसके बिना पशुओं के हाथ और मूँह और हमारे हाथ और मूँह के होने में कोई फर्क नहीं होता। मगर आज हम अपने हाथ और मूँह को गुलामी की सुनहरी जंजीरों में बंधवानें को तैयार हैं। यह गुलामी की निकृष्टतम अवस्था है और गुलाम बनाने वाले की चरम सफलता जब गुलाम गुलामी को खुशी-खुशी स्वीकार कर ले और इसे ही अपने अस्तित्व की, अपने होने की, अपने वजूद की सार्थकता मानने लगे। आजादी के बाद भारत में इसी मानसिक गुलामी की परंपरा इसी स्वीकार के साथ फैलती जा रही है और यह सर्वमान्य स्थिति की तरह स्वीकृत हो गई है। हिन्दी भाषा की अपनी क्षमता और ताकत को इससे बहुत बड़ा झटका लगा है।

हिन्दी सिर्फ एक बोली नहीं है, एक संपूर्ण सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत है इसके पीछे कम से कम एक हजार वर्षों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत काम कर रही है। इससे एक बहुत बड़ा जन समूह अपने अस्तित्व को सार्थक करता है, शेष विश्व के साथ अपने वजूद को संपूर्णता प्रदान करता है। संचार माध्यम इस विशिष्ट पहचान और अस्तित्व को समाप्त करने की राह पर चल रहे हैं। इसका अर्थ है कि हम धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को मिटाते जाने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।






हिन्दी भाषा और संचार माध्यमों के अन्तर्संबंधों को समझने के लिए इन कुछ तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है। चूँकि भाषा एक संरचना होती है और हर भाषा का अपना गठन अलग होता है, उसके प्रतीक और बिंब अलग होते हैं, मूल्यों को वहन करने की क्षमता और उन्हें संप्रेषित करने की तकनीक अलग होती है, उसका व्याकरणिक गठन अलग होता है। प्रत्येक भाषा का यह वैशिष्ट्य उसके प्रयुक्त करने वालों के भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तथा सांस्कृतिक विशिष्टताओं से निर्धारित होता है। जब हम किसी भी भाषा को इन से काट कर प्रयुक्त करते हैं तो भाषा प्राण रहित निर्जीव शरीर की तरह रह जाती है और यही तो इन संचार माध्यमों का लक्ष्य है कि जन मानस निर्जीव होकर जिए, उसमें सोचने विचारने की क्षमता ही न बचे जो उनके स्वार्थों और लक्ष्यों के खिलाफ आवाज उठा सकें। यदि वे सोचें भी तो एक ऐसी भाषा में जो उनके परिवेश के मूल्यों से उपजी न हो। इससे उनका मस्तिष्क उस भाषा के मूल्यों के प्रति अनुकूलित होगा और वे उनके स्वार्थों के हिमायती हो जायेंगे।

आज संपूर्ण भारत और विश्व में संचार माध्यम और बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से इसी तरह की गुलाम मानसिकता को बढ़ाया जा रहा है जो विकास और पैकेज की सुंदर शब्दावली में पेश की जा रही है। हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषी लोग भी इसी षड्यंत्र का शिकार हो रहे हैं जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। संचार माध्यमों की भाषा का स्वरूप् नियंत्रणकारी होता है, वह संचार माध्यमों के उपभोक्ता को निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में स्वीकार करती है। वह मस्तिष्क विहीन समाज और व्यक्ति की अवधारणा को मानकर चलती है, इस अर्थ में वह निरंकुश और तानाशाही से भरपूर होती है। संचार माध्यमों की भाषा का प्रभाव क्षणभंगुर होता है, उसे इस तरह प्रयुक्त किया जाता है ताकि ग्रहणकर्ता तात्कालिकरूप से तो उत्तेजित हो जाता है और कुछ समय पश्चात उसके मस्तिष्क से उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है - ‘‘संचार समामाजिक स्तरीकरण के तमाम खाके को खाली छोड़ देता है और प्राप्तकर्ता के समक्ष मस्तिष्कविहीन समाज की छवि पेश करता है, जिसे वही अनजाना निर्धारणकर्ता निर्देशित करता है। इस तिलिस्म को और ज्यादा मजबूत करने के लिए प्रतीक अपने साथ इससे जुड़ी हुई कई अवधारणाओं को साथ लेकर चलता है, जो सामाजिक भंगुरता को महत्वपूर्ण बनाते हैं जैसे ‘उपभोक्ता समाज’, ‘प्रचुरताशील समाज’, ‘जनसमाज’, ‘आधुनिक समाज’ और ‘जनमत’ इत्यादि।’’10 

संचार माध्यमों की भाषा उसके पीछे की वर्चस्वी ताकतों को शोषणकारी बहुराष्ट्रीय निगमों को अदृश्य बनाती है। वे उनके हितों को छिपाते हैं और स्वयं को जनहित के लिए समर्पित के रूप में पेश करते हैं। यह भाषा की विद्रूपता है। जन सामान्य के जीवन के वास्तविक विद्रूपताओं और उनके कारणों को अदृश्य रखती है और ऐसा वातावरण पेश करती है मानो कहीं कोई समस्या ही नहीं है, सर्वत्र सुख और भोग सामग्री की नदी वह रही है। यह आम आदमी के साथ क्रूरता है, उसकी गरीबी का मजाक है और यह सब संचार माध्यमों की भाषा करती है। वे अत्यंत्र त्रासद स्थितियों में जीने को विवश लोगों की पीड़ा और दुखों की यथार्थभाषा को विलोपित कर देते हैं। ये संचार माध्यम अपनी एक स्तरीय भाषा और रचे गए प्रतीकों एवं बिंबों से एक मायालोक का आभामंडल चारों और फैला देते हैं जिसमें करोड़ों लोगों के यथार्थ का गायब कर दिया जाता है-

‘‘आधुनिक संचार की शब्दावली के ये अहम शब्द उस तथ्य को छिपा देते हैं कि हकीकत की व्याख्या करने के लिए इन शब्दों के अर्थों को एक विशेष सामाजिक वर्ग द्वारा हम पर एकतरफा रूप से थोपा जाता है। दूसरे शब्दों में, इनकी भाषा, जिसे मीडिया द्वारा बार-बार दोहराया जाता और पुनरुत्पादित किया जाता है, एक पर्दे का काम करती है, ताकि अपराधी की स्थिति छुपी रहे और यह क्रूर तंत्र अपना काम जारी रखे। और इस प्रकार एक फार्मूले के बतौर तमाम अवधारणाएं, जैसे आधुनिकता, विज्ञापन, उपभोग, पर्यटन और ऐतिहासिकता, रोजमर्रा की जिंदगी के वाहक बन जाते हैं। जनतम की आड़ में, ये कुछ लोगों  की मुट्ठी में बंद यह प्रेस जनआंदोलनों पर दमन की मांग करता है।’’11 

संचार माध्यम एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जो उत्पीड़नकारी के हितों को साधती है और उनकी वैचारिक ताकत को ही आतंक की तरह थोपती है। यह उन लोगों की भाषा को निरंतर और तीव्रगति से संप्रेषित करती है जिनका उत्पादन, वितरण और मुनाफा कमाने की प्रक्रिया पर पूरा कब्जा होता है। ये संचार साधन उस वर्ग की विचारधारा को ही निरंतर संप्रेषित करते हैं जो पृथ्वी के अधिकांश स्रोतों पर अधिकार जमाये हुए हैं और बचे हुए भागों पर भी कब्जा करने के लिए प्रयत्नशील हैं -‘‘संचार मीडिया फर्जी चेतना की फर्जी चालाकी का द्योतक है। असल में वह सत्ताशील ताकतों और नौकरशाही की वैचारिक सत्ता का मजबूत करता है। अपनी उर्ध्वाधर भाषा के माध्यम से यह नौकरशाही इस व्यवस्था को न्यायोचित करार देती है और इस सामाजिक सौहार्द्रता का दर्जा भी देती है जिसमें कुछ रद्दोबदल तो किए जा सकते हैं मगर पूरी तरह से परिवर्तित नहीं किया जा सकता।’’12 

निष्कर्ष रूप में हम देख सकते हैं कि तमाम संचार माध्यमों की भाषा एक वर्गीय रुझान को संप्रेषित करने वाली होती है, विविधता दिखाने का भ्रम रचती है, हकीकत में एकरूपीकरण के प्रति अनुकूलित करती है, स्वतंत्रता के और चुनने के अधिकार के विकल्प को आजादी के अनुभव के रूप में पेश करती है, पर वास्तव में प्राप्तकर्ता को मानसिक गुलामी की ओर ले जाती है। इस बात को आर्मंड मैतेलार्त के शब्दों में बहुत ही सटीक तरीके से समझाा जा सकता है -
  ‘‘दूसरी तरफ महिलाओं की पत्रिका महिलाओं को नारीत्व की दुनिया के मिथक में बांधे हुए होती है। बेशक यह कितना ही आधुनिक लगे असल में वह उसे मुक्ति के अधिकार से वंचित रखती है और वे ये दिखावा करते हैं कि इत स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रेम पत्रिकायें पाठकों को दिल की बात सुनने के लिए उकसाती हैं। ये तमाम सांस्कृतिक उत्पाद फर्जी सत्ताविरोध को पैदा करते हैं जो बड़े व्यवस्थित ढंग से मौजूदा सामाजिक संबंधों (आध्यात्मिक-भौतिक, काम करने-फुरसत, परंपरागत-आधुनिक, परिवार-राजनीति) को बदलने की इच्छा को ही रोक देते हैं। हमें इस बारे में साफ होना होगा कि यह कोई विविधता नहीं है और न ही यहाँ कोई रुचियों की प्रचुरता का मामला है। ये तमाम चीजें अपने आप में शोषणकारी हैं। ये सभी वे मान्यतायें हैं जिनको आधार बनाकर प्रत्येक पत्रिका और प्रत्येक टेलीविजन चैनल के कार्यक्रम संचालित होते हैं। यह एक विकृति है।’’13 

इस तरह संचार माध्यम न केवल जनभाषा को विकृत कर उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रहें हैं बल्कि जन मानस पर नियंत्रण करके अपनी तानाशाही के अनुकुल उनके विचारों को ढालने के लिए भी प्रयत्नशील हैं। तमाम संचार माध्यम वैचारिक रुग्णता के शिकार हैं और वे मानसिक रुग्णता को ही पैदा करते हैं।


 डॉ. संजीव कुमार जैन
522 आधारशिला, ईस्ट ब्लाक एक्सटेंशन
 बरखेड़ा भोपाल
462022
मो. 09826458553



संदर्भ - 
1. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 76
2. फ्रेरे पाओलो, उम्मीदों का शिक्षाशास्त्र, ग्रंथशिल्पी, पृ. 114
3. पूंजीवाद और सूचना का युग, ग्रंथशिल्पी, पृ. 225
4. संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ले. हरबर्ट आई. शिलर,ग्रंथशिल्पी, पृ. 14
5. फ्रेरे पाओलो, उम्मीदों का शिक्षाशास्त्र, ग्रंथशिल्पी, पृ. 114
6. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 75
7. पूँजीवाद और सूचना का युग, ग्रंथशिल्पी, पृ. 216 
8. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 77-78
9. न्गुगी वा थ्योंगो, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, ग्रंथशिल्पी, पृ. 77-78
10. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 117-118
11. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 118
12. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 132
13. जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, आर्मंड मैतेलार्त ग्रंथशिल्पी, पृ. 134

Friday, May 3, 2019

पुस्तक समीक्षा "तुरपाई "
लेखक:  ओम नागर 
प्रकाशक: कलमकार मंच , जयपुर  ( राज ०)
समीक्षक: सवाई सिंह शेखावत 

सवाईसिंह शेखावत 

परिचय 
श्री सवाई सिंह शेखावत

जयपुर जिले के ललाणा गांव में  संवत 2003  में जन्मे सवाई सिंह शेखावत  ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक कवि के रूप में की। पिछले लगभग तीस वर्षों से रचनाशील शेखावत ने कुछ कहानियाँ और आलोचनात्मक लेख भी लिखे। उन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी में भी कहानियाँ और ग़ज़लें लिखीं। उनकी पहली राजस्थानी कहानी कूँपळ काफ़ी चर्चित रही और तेलुगू तथा हिन्दी में अनूदित हुई।
उनके पहले दोनों कविता–संग्रह पुरस्कृत हुए।

घर के भीतर घर 1987, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुमनेश जोशी पुरस्कार से तथा पुराना डाकघर और अन्य कविताएँ 1994, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत। उनका तीसरा कविता–संग्रह दीर्घायु हैं मृतक अपनी अनूठी व्यंजनात्मकता के कारण साहित्यिक हलके में खासा चर्चित रहा।
शेखावत ने अनियतकालीन साहित्यिक अख़बार बखत तथा राजस्थान सरकार के विकास विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका राजस्थान विकास का भी कुछ वर्षों तक सम्पादन किया। 

सवाई सिंह शेखावत (फरवरी १३, १९४७) के आठवें कविता संग्रह ‘निज कवि धातु बचाई मैंने (२०१७) को इस वर्ष राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार से सम्मानित





ओम नागर  का तीसरा कविता संग्रह “तुरपाई “ ,जिसमे  प्रेम कविताओं के साथ है गद्य में  कुछ मन की बातें....गद्य और पद्य का यह अनुपम समावेश मीठे झरने का संगीत कानों में गुंजाता है तो  गद्य की गहराई  मानो सागर के अतल में ले जाकर छोड़ देती है ....लो चुनलो जो मन भाये और वहाँ कुछ भी छोड़ने का मन नही होता |

पहली बारिश में धरती सी गंध तुम्हारी साँसों में भी आती है .....जैसे भीगा हो पहली बार प्रेम  की बारिश में मन और सुवासित कर दी हो उसने साँसे | यह सौंधी महक धमक के साथ बस जाती है तन मन में और प्रकृति के साथ एक मेक होकर कवि कहने लगता है कविता |
कविता यूँ तो सायास  नहीं लिखी जा सकती ,लिखने के पहले जी जाती है कविता |बूंद –बूंद प्रेमत्व रिसता है उसके ह्रदय के सोतों में ,द्रग के कोरों से फूटती है सतरंगी आभा जिससे सारा भुवन हो जाता सतरंगी |बुरा ,बुरा नहीं लगता ,अच्छा और अच्छा लगने लगता है ...स्पर्श की माया तो  समूचा रंग ही बदल देती है यही प्रेम की नैसर्गिकता है जिससे सराबोर है संग्रह की तमाम कविताएँ|

तुरपाई ,यानि महीन सिलावट |शब्द शब्द ने बारीक़ बखिये के रूप  में साकार की कविताओं पर समीक्षा लिखी है सवाई सिंह शेखावत जी ने



प्रेम में कवि ओम नागर की नफ़ीस 'तुरपाई'
**********************************************सवाई सिंह शेखावत
प्रकाशन की दुनिया में अपनी सार्थक सहभागिता के ज़रिए तेजी से जगह बनाते कलमकार मंच- जयपुर के बैनर तले कोटा,राजस्थान से युवा कवि ओम नागर का तीसरा कविता-संग्रह आया है-'तुरपाई-प्रेम की कुछ बातें,कुछ कविताएँ' शीर्षक से।शीर्षक पढ़ा तो चौंका कि प्रेम विषयक किसी संकलन का तुरपाई से क्या लेना-देना?लेकिन जब संग्रह उल्टा-पलटा तो अचानक मस्तिष्क में लोक की वह पुरानी उक्ति कौंधी कि-जीवन में कैंची-सा मत बनिए, जो काट-पीट का बायस बनती है।बन सके तो सुई-धागा बनिए जो कपड़ों को फिर से जोड़कर जीवन के लिए ज़रूरी पौशाक सींते हैं।
लेकिन इस उद्यम में भी जोड़ने के लिए सिलाई फिर फिनिशिंग टच देने के लिए तुरपाई का काम किया जाता है।सवाल यह है कि कवि ओम नागर ने यहाँ प्रेम की प्रक्रिया के लिए तुरपाई शब्द का ही चयन क्यों किया?
थोड़ा गहराई में जा कर सोचा तो कवि अभिव्यंजना को लेकर कायल हुआ।सिलाई बेशक़ वस्त्रों को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम करती है,लेकिन तुरपाई उस जुड़ाव का सुघर साक्ष्य है।प्रेम में भी किसी से जुड़े होने का सबूत किंचित दृष्टिगोचर होना अपेक्षित है।
ग़ालिब-'रगों में दौड़ते रहने के हीं नहीं,बल्कि आँख से टपकने वाले लहू के कायल थे'।वस्त्र-विन्यास में भी तुरपाई उसी स्नेह-सूत्र का सलौना साक्ष्य है।
इस संग्रह की दूसरी अनूठी विशेषता प्रेम विषयक कविताओं के साथ प्रेम बाबत कुछ आत्मीय जीवन प्रसंगों का गद्यमय समावेश भी है।डायरी और संस्मरण विधा के मिले-जुले स्वरुप वाले ये प्रसंग संग्रह की पठनीयता और आत्मीयता का विस्तार करते हैं।
पहले ही अंश 'एक बात जो कहनी थी तुम्हें' में हम कवि ओम नागर के गद्य-निकष का नमूना देख सकते हैं।जिसमें प्रकृति का सजीव चित्रण,भावों का अनूठा दीप्त-राग,यूकेलिप्टस जैसे पर्यावरण के नाम पर बदनाम दरख्त में भी प्रिया के नयनों का तीखापन देख सकने ,आषाढ़ी जामुन से रची जीभ का दुर्लभ ज़ायका महसूस करने व बारिश की बूंदों के बाद धरती से उठती सौंधी गंध इस संस्पर्श को जिंदा बनाते हैं।






पहली कविता 'यहाँ सारी संख्या सम हैं, तुम्हारा रूँठना विषम' में 'तुम जो साथ चलो' का विनम्र अनुरोध है।ऐसे संग-साथ में रात को भी सूरज उगा लेने का आश्वासन है।प्रेम में चार शब्द सुनने का आत्मीय आग्रह,होठों के दो से चार होने की निर्दोष ख्वाहिश और ऐसा करते हुए दुनियाई गणित का हल होते-होते फिर से मीठा उलझाव कवि की प्रेम विषयक धारणाओं के तरल संस्पर्शी भावानुकूलन को दर्शाता है।
ओम नागर की इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे टॉलस्टॉय द्वारा गोर्की को दी गई वह सीख भी याद आई जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जीवन जैसा है वैसा रचो कोई सिद्धान्तबाज़ी उसमें मत घुसेड़ो!रचना से सिद्धान्त निकले वह स्वस्थ स्थिति है,किसी सिद्धांत की वेदी पर रचना को शहीद मत करो!'
ओम नागर प्रेम के नैसर्गिक कवि हैं,इसलिए वे उसके भावावेग को कहीं सेंसर नहीं करते।यहाँ तक कि रेल के खचाखच भरे तीसरे दर्ज़े के डिब्बे में भी 'नैनन ही नैनन में हुई रजामंदी' को भी ढूँढ लेते हैं।
'यहाँ रोज़ छूट ही जाता है कुछ न कुछ' के ग़म हैं तो 'तुम तो आत्मा में हो/आत्मा तो अजर-अमर है प्रिये' का आश्वासन भी।सूख गई जूड़े में टाँगी गेहूँ की बालियाँ जैसे देशज बिम्ब हैं तो परवीन शाकिर का 'खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी/उसके चेहरे पे लिखा था लोगों' का कयास भी।कोरा कागज़ और नेल पॉलिश लगी अंगुलियों की नूरानी महक के साथ ही 'तुमने कुछ न कहा और मैं हो गया तुम्हारा' वाली मनुहार भरी कवायद भी।
जहाँ कवि हवा-बादल,धरती-आकाश,
नदी-समंदर,देह-साँस,आँख-रोशनी,छाँव-पेड़,प्यास-जल,
स्वाद-नमक,नींद-सपना,रेखाएँ-हथेली,कीचड़-कमल,ईश्वर-अर्चन,फल-दुआ, अँगुलियाँ-मुट्ठी,कान-प्रेम गीत,डोर-पतंग,काजल-पलक, नाक-खुशबू,कली-भँवरा, अंधेरा-दीपक,लोहा-पारस..जैसे 36 युगल रूपकों में जाता हुआ प्रेम का अनुबंध रचता है।
कवि ओम नागर की इस सुघर तुरपाई में फिर-फिर वे ही प्रेम के ढाई आखर हैं।फूल के सही खिलने का अंदाज़ न तितली को पता होता है न भँवरे को
जैसी प्रेम की सूक्ष्म व्यंजनाएँ हैं।एक लंबी साँस जो अभी-अभी भीतर गई/उसी का छोटा-सा उच्छवास है प्रेम-जैसे सूक्त-वचन हैं।'तुम्हारा साथ यूँ ही बना रहे सदा/तो पल में गुज़र जाएँ बरसों जैसे सिद्ध फार्मूले हैं।और कवि का उत्स यहीं से/जो नदी को दिखाता है समंदर की राह,काले तिल वाली लड़की
प्रेम बचा रहे दरम्यां/बची रहेगी पृथ्वी/आकाश भी बचा रहेगा धरती के मोह में,धरती के कान में कुछ कहने के बहाने बारिश की प्रेम पाती भिजवाता आकाश और समंदर से बाँथ भर मिलने को पहाड़ से मैदान की ओर दौड़ पड़ती नदी जैसे उदाहरण भी जिनके ज़रिए कवि ने प्रेम की तरल-सांद्र निगूढ़ व्यंजना को निरूपित किया है।
धुंध छँटने के बाद धूप बुनती अधेड़ महिला,जो
आज भी स्वेटर बुनने के धैर्य को बचाए हुए है, उजाले से अंधेरे को देखते हुए, सुबह जिस भी स्टेशन पहुँचेगी रेल वहाँ उजाला होगा जैसी उम्मीद, दुनिया के विष को कमतर करने की कोशिश में आज भी जुटे नीलकंठ से कवि-लेखक,धूप की फेरी से छँटता अंधेरा और घट-बढ़ रहा उजास,नए साल की रोटी में पुराने साल के नमक का स्वाद, फिर नमक की अधिक दिनों तक न टिकती स्मृति में बावजूद उसे चखने में लगने वाले बरसों के विरल काव्य अनुभवों को आप इस संग्रह गद्य की गली में टहलते पाएंगे।धर्म की बिना पर बंद होते शहर, ऐसे विडंबनाओं भरे समय मे भी होली के सुरंगे दिनों में सतरंगी इंद्रधनुष खिलाने की जिंदा ख्वाहिश,अपनी ही किसी कविता की तारीफ में आये वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी के फोन की आत्मीय स्मृति तक से कविताएँ गूँथने का हुनर जानते हैं कवि ओमनागर।
कवि आज भी 'प्यार पर जब-जब भी पहरा हुआ है/प्यार उतना ही गहरा हुआ है, जैसे यकीन पर यकीन करता है।उसके यहाँ 'तुमने जैसे ही बात भर से छूना चाही मेरी देह/मेरी भुजाओं में उतर आईँ हजारों-हजार मछलियाँ' का जज्बा बचा है। उधड़े हुए दिल को वह आह भी नज़रों से रफ़ू करने के कौशल में विश्वास करता है।प्यार में बंजारा बने रहने की कवि ज़िद उसे फिर बसने,उजड़ने,फिर-फिर बसने के उसी पुराने सिलसिले की ओर ले जाती है।तेरी याद में कोई ख़त न लिखा जाएगा मुझसे अब,गुड्डे गुड़िया का खेल खेलते पड़ोस वाला लड़का और छोटी संदूक वाली लड़की का हँसना-रोना,बाईसा के बीरे से तारों की चूंदड़ी लाने का प्रचलित लोक अनुरोध और धूप की तुरपाई में निगोड़े इश्क वाले नमक की डिबिया को सनम की गली में फिर ले आने का निहुरा,पाँच पतासियाँ खाकर प्यार में दो दूनी पाँच होने का विरल अनुभव प्रेम में गणित न होने के बावजूद सारे का सारा गणित उसीसे सीखने का सलीका जैसा कितना कुछ है प्रेम के इस अनूठे कवि के यहाँ...
कवि ओमनागर के पिछले कविता-संग्रह 'विज्ञप्ति भर बारिश' की भूमिका में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने लिखा था कि-गाँव की जमीनों पर भूमाफिया के कब्ज़े, बाज़ार से गाँव हाट तक पसरते पाँव,उधर
किसानों की आत्महत्याएँ, सूखते जलाशय जैसे हमारे समय में ये ऐसी आत्मीय कविता है जिसे अपनी देशज बोली-बानी से अटूट सम्बन्धों के बिना नहीं पाया जा सकता। लेकिन एक कवि का अनूठापन किसी दे दिए गए समकालीन अथवा पुराने ट्रेक के विरुद्ध जीवन के विविध अनुभवों की गली में गश्त करना और ज्हाँ पहुँच कर वह अपनी तरह से चीज़ों की फिर से शिनाख्त करना है।प्रेम की बारिश में बूंदों का कोरस गाते हुए कवि ओम नागर इस संग्रह में इश्क के समकालीन सेल्फ़ीनामा तक भी गए हैं।जहाँ 'हम न दरिया में डूबेंगे सनम' का अहद है तो 'कभी तेरी जन्नत का अंधेरा हो' कर प्यार का पूरे का पूरा इंद्रधनुध पाने की तलब भी।
कवि की भाषा का अनूठापन यहाँ यूपीयन हिंदी से इतर हाड़ौती के आत्मीय संस्पर्श से कविताएँ रचने में भी है।प्रेम जैसे आदिम आवेग को कवि ओम नागर ने यहाँ जिस ललित ललाम आत्मीय ढंग से रचा-सिरजा है-यक़ीनन वह रश्क करने जैसा है।

  

ओम नागर 
                                           
                      

ओम नागर
मोबा: 09460677638
ई-मेल: omnagaretv@gmail.com


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