Saturday, February 13, 2016

00  शरणागत 00
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॥  निरंजन श्रोत्रिय ||
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प्रिय पाठक, यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है। यूँ कहें कि एक घटना का सीधे-सीधे बयान है। वैसे इसे कई लोग दुर्घटना का नाम भी दे सकते हैं जिसकी आशंका है लेकिन मेरे मत में यह केवल एक घटना है। फिर यह जरूरी तो नहीं कि जो दूसरों को दुर्घटना लग रही हो वह मुझे भी दुर्घटना ही लगे। मुझे इसे सुखद घटना मानने की छूट भले न मिले लेकिन कम-से-कम घटना तो मानने दिया जाए खासकर तब, जब दूसरों को इसे दुर्घटना मानने की छूट है।

बात उन दिनों की है जब सुरभि मैके गई हुई थी। मेरी पत्नी! कालेज की छुट्टियाँ हो जाने पर एक-डेढ़ माह के लिये मैके जाना पहले वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती थी,बाद में यह उसकी आदत बन गई। मुझे कभी समझ में नहीं आया कि इतने दिन वह मैके में पड़ी क्या करती है लेकिन मैंने उसे कभी रोका नहीं। इसकी दो वजहें हैं। एक तो यह कि मुझे पूरे डेढ़ महीने अपनी शैली से जीने की छूट मिल जाती है--मसलन सुबह देर तक सोना, अपनी मरज़ी से कोई काम करना या न करना, उन जगहों पर जाना या उन लोगों से मिलना जिन्हें सुरभि नापसन्द करती है, देर रात तक बेरोकटोक पढ़ना या लिखना, बत्रा के साथ बैठकर शराब दो-तीन पैग निश्चिन्त होकर पीना वगैरह! एक प्राध्यापक-लेखक से जो सद्गृहस्थ भी हो और किस अराजकता की उम्मीद की जा सकती है ? दूसरे,इस बीच मैं अपने दाम्पत्य जीवन का विश्लेषण भी करत.....सुरभि और मेरे बीच रिश्तों की गहराई नापता .....जाहिर है इस कार्य को उसकी अनुपस्थिति में ही ईमानदारी के साथ किया जा सकता था।

बत्रा मेरा जिगरी है। लगभग मेरी ही तरह सोचने वाला! अपने विषय का विद्वान्--- शार्प भी। हमारी आम चर्चा भी दो-तीन घण्टों तक चलती। बीवीयों के बाहें पकड़कर घर घसीट लाने की समय-सीमा तक हम बातचीत में मशगूल रहते। इसे गप्प नहीं कहूँगा। कितने विषय---कितने आयाम---कितने कोण---। काॅलेज की इर्ष्यात्मक टिप्पणियों और घरेलू तानों का हमारी बैठकों पर कभी बुरा असर नहीं पड़ा। हालांकि बत्रा के साथ दो दिक्कतें हैं। पहली यह कि उसकी डाक्टर बीवी करुणा अपनी नौकरी की वजह से अधिक दिनों के लिये मैके या कहीं भी न जा पाती। इस कारण उसे सद्गृहस्थ होने का तनाव अधिक झेलना पड़ता। इस डेढ़ महीने महफिल मेरे घर ही जमती लेकिन बत्रा को अक्सर जल्दी ही घर जाना पड़ता। वह झुंझलाते हुए जल्दी-जल्दी एक-दो पैग पीकर अपनी ससुराल को कोसते हुए निकल लेता।  बत्रा के साथ दूसरी दिक्कत यह है कि उसकी ससुराल इसी शहर में है।

हम दोनों की पत्नियों को आश्चर्य होता है कि संसार में आखिर ऐसे कितने विषय हैं जिन पर इतनी बातें की जा सकें! वे कभी-कभार हमारी चर्चाएं सुनती भी लेकिन उन्हें खास आनन्द नहीं आता। कई बार वे इसे महज़ बौद्धिक शगल करार देतीं। इस बात पर हम दोनों मित्रों को आश्चर्य होता क्योंकि दोनों प्रबुद्ध और कामकाजी महिलाएँ हैं। सुरभि मेरे साथ काॅलेज में प्राध्यापक है। लेकिन इन सबसे अधिक वे पत्नियाँ हैं। ऐसी मध्यवर्गीय पत्नियाँ जो अपने घर को सजा-संवार कर रखती हैं, जिनके एक या दो प्रतिभाशाली बच्चे होते हैं जिन्हें वे नियमित होमवर्क करवाती हैं, जिनके घर का खर्च बजट के अनुसार चलता है, जो अपने पतियों को रात नौ बजे घर पर ही देखना चाहती हैं और जिन्हें शराब और सिगरेट से होने वाली हानियाँ अंगुलियों पर रटी होती हैं।

मैंने बत्रा के बारे में इतना बयान नाहक ही कर दिया। वह मेरा जिगरी है शायद इसीलिये। दरअसल बत्रा का इस घटना से कोई सम्बन्ध नहीं है। बल्कि एक नेगेटिव सम्बन्ध हो सकता है कि यदि वह उस रात मेरे साथ होता तो यह घटना नहीं घटती। जून का अंतिम सप्ताह था वह। ऐसा समय जब मानसून मौसम विभाग को मुँह चिढ़ाता धरती से आँख-मिचौंनी खेलता है। सैटेलाइट की ओट में दी गई भारी वर्षा की चेतावनी सुनकर भी आप अपनी बालकनी या छत से तारों भरा आकाश देख सकते हैं।

छब्बीस जून! सुरभि के लौटने के दिन नज़दीक थे। दूरसंचार क्रांति ने हमारे अकेलेपन को अवश्य कम किया है। यह बात दीगर है कि सम्बन्धों की दुनिया में प्रतीक्षा और याद जैसे अनुभव-क्षणों की आँच कम हुई है। सुरभि और चीकू के चले जाने से घर सूना अवश्य लगता लेकिन वे हर पल मुझसे हाथ भर दूर ही तो होते थे। एक कोड नंबर और छः अंकों को दबाकर उनसे किसी वक्त भी मिला जा सकता था। और मैं भी तो उनकी ज़द में था--- मैं ही क्या समूचा घर! ‘‘सुनो----दूध और धोबी का हिसाब ठीक रखना----बिजली-टेलीफोन के बिल और इन्श्योरेन्स की प्रीमियम समय से भर देना---फ्रिज को डिफ्रास्ट करते रहना--- कहीं बर्फ का पहाड़ न बन जाए---कपड़ों में फिनाइल की गोलियां रखना भूल गई थी, रख देना, तुम्हारी अलमारी की लोअर ड्राअर में पड़ी हैं---ठीक-से खाना-पीना--- शराब-सिगरेट के दौरों पर नियंत्रण रखना---देर रात तक मत पढ़ना----।’ मैं अकेले होते हुए भी अकेला कहाँ था ?

छब्बीस जून की रात! आठ-साढ़े आठ बजे होंगे उस वक्त। मैं अकेले ही दो पैग ले चुका था क्योंकि बत्रा ने शाम को ही फोन पर बता दिया था कि उसे करुणा और बच्चों को फिल्म दिखाने ले जाना है इसलिये वह नहीं आ सकेगा। बादल गरज रहे थे, बीच-बीच में बिजली कड़क जाती थी। बारिश के आसार थे। स्टीरियो पर लता मंगेशकर ‘डायमण्ड्स फारएवर’ कैसेट के जरिये मधुरिमा बिखेर रही थीं। कुल मिलाकर वातावरण ऐसा था जिसे ‘एंज्वाय’ किया जा सकता था-- अकेलेपन के बावजूद!

काॅलबेल ने वातावरण में छा रही तंद्रा को भंग किया था। मुझे आश्चर्य हुआ। आम तौर पर इस समय कोई नहीं आता, वह भी ऐसे मौसम में! कहीं बत्रा तो नहीं? सम्भव है फिल्म का कार्यक्रम स्थगित हो गया हो। यहीं जवाहर नगर में तो रहता है बत्रा---लगभग दो फर्लांग दूर। मैंने कुछ उम्मीद और कुछ खुशी से दरवाजा खोला। बाहर तेज हवा चल रही थी। अचानक बिजली कौंधी और सैकड़ों ट्यूब लाइट्स की रोशनी का फ्लैश चमका। बत्रा तो नहीं एक लड़की जरूर खड़ी थी-सिर से पैर तक भीगी हुई। कुछ-कुछ बदहवास-सी नज़र आ रही थी। उसके भीगे बालों, देह और कपड़ों से बारिश अभी भी टपक रही थी। उसने नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़े और भीतर आने की अनुमति मांगी। मैंने देखा बदहवासी के बावजूद आत्मविश्वास के अंश उसकी आँखों में तैर रहे थे। मैंने उसे अन्दर आने के लिये कहा लेकिन दरवाजा खुला ही रहने दिया।
वह बिल्कुल अपरिचित चेहरा था। मैंने कोशिश की कि कुछ याद आ सके। संभव है कोई स्टूडेन्ट हो---या कोई परिचित।
‘‘क्या आप के-एम-पी- काॅलेज की स्टूडेन्ट हैं ? मुझे सुझाई नहीं दिया कि इससे और क्या पूँछू। उसने ‘ना’ में सिर हिला दिया। अब मैं असुविधाजनक स्थिति में था--अपने ही घर में। एक तो दो पैग---ऐसा मौसम और उस पर यह अजनबी लड़की! यह न तो परिचित है और न ही मेरे काॅलेज की छात्रा---तो फिर इस वक्त यहाँ क्यों आई है ? वैसे भी आम तौर पर मैं छात्रों को घर पर आने के लिये कभी प्रोत्साहित नहीं करता हूँ--यहाँ तक कि अपने रिसर्च स्टूडेन्ट को भी। उन्हें जो प्राॅब्लम हो या तो टेलीफोन से पूछ लें या फिर अगले दिन काॅलेज का इन्तज़ार करें। अपनी इस आदत के कारण मुझे ‘ड्राय’ और ‘अनसोशल’ जैसे फिकरों से नवाज़ा भी जाता रहा है लेकिन मुझे इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह मेरी अपनी शैली है-- दैट्स इट!

अब तक वह मेरे भीतर उग आई असुविधा को शायद भांप चुकी थी। उसने तुरंत ही मुझे ‘डिस्टर्ब’ करने के लिये क्षमा मांगी और बताया कि तेज़ बारिश के कारण वह पूरी भीग चुकी है। सड़क पर स्ट्रीट लाइट भी गुल है। उसका घर दूर है। वैसे भी काॅलोनी में इस वक्त आॅटो रिक्शा वगैरह नहीं मिलते। इस मौसम में तो और भी मुश्किल था। उसने मुझे समझाने की कोशिश की कि ग्राउण्ड फ्लोर पर मेरे फ्लैट के वराण्डे की लाइट जलती देख वह शरण लेने चली आई है। स्ट्रीट लाइट गुल हो जाने से वह और भी डर गई है क्योंकि पिछले दिनों शहर में गुण्डा-गर्दी में काफी इज़ाफा हो गया था। उसने समझाने की कोशिश की कि स्ट्रीट लाइट जलते ही वह लौट जाएगी। वैसे भी स्ट्रीट लाइट अधिक  समय तक गुल नहीं रहती।
समझाने की कोशिश की! अरे,यह क्या!! इस पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया अब तक। उसने ये सब बातें मुझे इशारों में समझाई थी। तो क्या----। तभी उसने मेरे चेहरे पर झलक रहे आश्चर्य का समाधान किया। उसने अपने गीले और संभवतः ठंड से काँप रहे होठों पर एक हाथ रखा और फिर हवा में अंगुलियाँ झुला दीं। वह एक गूँगी लड़की थी। जैसे उसने कोई निराशाजनक सूचना दी हो-- मेरे भीतर कुछ बुझ-सा गया। अपने को टटोला अंदर तक। सहानुभूति का कोई प्रांकुर उग आया था या हल्के-से आघात से कुछ दरक गया था भीतर,कुछ कह नहीं सकता।

मैंने उसे ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठने के लिये कहा। साथ में सोफे की ओर इशारा भी किया। वह मुस्कराई। उसने फिर इशारे से बताया कि वह सुन सकती है। मुझे झेंप-सी आई। मैंने सुना था कि जो लोग गूँगे होते हैं वे अक्सर बहरे भी होते हैं। उसके कपड़ों से बारिश का टपकना कम हो चला था लेकिन ड्राइंगरुम के कारपेट का एक कोना भीग गया था जिसे वह संकोच से देखे जा रही थी। वह सोफे पर बैठने से झिझक रही थी क्योंकि गीले कपड़ों से वह खराब हो सकता था। मैंने ‘कोई बात नहीं’ वाले अंदाज़ में उसे फिर से बैठ जाने का इशारा किया। मुझे फिर झेंप आई। यह बात तो मैं बोलकर भी कह सकता था। यह मेरी आवाज़ को क्या हुआ ? वह सिमट कर सोफे के एक कोने पर बैठ गई थी--गीलेपन के विस्तार को रोकती हुई।

ग्राउण्ड फ्लोर के फ्लैट का वराण्डा कई बार कड़कती धूप और तेज बारिश से बचने के लिये कई प्राणियों की शरणस्थली बन जाता है। मैंने अपना वराण्डा वैसे भी खुला रख छोड़ा था, हालांकि सुरभि इसे ‘क्लोज्ड’ करवाने के लिये मुझ पर जोर डालती रहती थी। कई बार आवारा कुत्ते, बछिया वगैरह शरण तो लेते ही, इसे गंदा भी कर जाते। परेशानी सुरभि को ही उठाना पड़ती। मैं हर बार ‘हाँ-हूँ’ कर टाल देता। ओपन वराण्डा मुझे इस कंक्रीट-जंगल में एक खुलेपन का अहसास देता था। देश के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में इस शहर की गिनती होने के बावजूद मुझे न जाने क्यों यकीन था कि ओपन वराण्डा में मौजूद हवा में आॅक्सीजन की मात्रा अधिक होती है।

एक बार बारिश के दिनों में एक कबूतर इस ओपन वराण्डे में आ गिरा। उसकी सांसें तेज-तेज चल रही थीं--पंख भीगे और नुचे हुए थे। सुरभि ने बताया कि वह कबूतरी है और यह उसके अण्डे देने का समय है। हो सकता है किसी चील ने उस पर झपट्टा मारा हो। उस कबूतरी ने वराण्डे के रोशनदान पर अपना डेरा जमाया था-- लगभग एक हफ्ते तक। खूब आवभगत हुई उस कबूतरी की। गेहूँ के दानों से लेकर कटोरी में दूध तक पेश किया गया उस प्रसूता को। चीकू के लिये तो एक खेल हो गया था। घोसले से गिरे तिनकों और बीट के कारण एक हफ्ते तक वराण्डे में गन्दगी रही। सुरभि भुनभुनाती रही लेकिन घोसला नहीं हटाया। कैसे हटाती!

जाने क्यों मुझे वह कबूतरी याद आ गई। मैंने देखा लड़की ठंड से उठी कंपकंपी को सायास छुपा रही है। पंखा भी चल रहा था--भीगे कपड़ों में ठंड तो लगेगी ही। मैंने सोचा इसे तौलिया देना चाहिये। भीतर से तौलिया लेकर आया तो देखा कि वह बुकशेल्फ में रखी किताबों के टाइटल्स पढ़ रही थी। तौलिया देते समय मैंने ध्यान से उसे देखा--थोड़ा करीब से भी। बहुत सुंदर न होने पर भी उसमें एक शब्दातीत आकर्षण था--ऐसा जो तेज कदमों को धीमा कर दे। एक ऐसा वृत्त जिसमें लगातार परिक्रमा का बंधन नहीं है---मुक्ति का आमंत्रण है।

पता नहीं मैंने इस लड़की के बारे में इतना कैसे सोच लिया। लड़कियों के प्रति मेरा रूखा व्यवहार चर्चा एवं आश्चर्य का विषय रहता है। मेरे रिसर्च स्काॅलर्स भी अधिकांशतः छात्रा ही होती हैं। मैं बिला वजह कोई स्कैण्डल खड़ा नहीं होने देना चाहता। मैं जानता हूँ कि इन मामलों में तिल का ताड़ कैसे बनता है। न तो मैं अपनी लेखकीय प्रतिष्ठा पर कोई आँच आने देना चाहता हूँ और न ही मेरे पास इन बातों के लिये समय है। लोग कैसे इन चीजों के लिये फुरसत निकाल लेते हैं। वही चौबीस घण्टे ही तो होते हैं एक दिन में। सुरभि भी मज़ाक कर देती है--‘‘यार, कभी तो थोड़ी लिफ्ट दे दिया करो लड़कियों को भी।’’ लेकिन मैं जानता हूँ कि इस मज़ाक के पीछे एक आश्वस्ति भाव है। सुरभि के विश्वास का यह महल निश्चिन्तता की मज़बूत नींव पर खड़ा है। तभी तो कितनी आसानी से मुझे छेड़ देती है वह--‘‘जितना समय किसी लड़की को फुसलाने में लगता है उतने समय में तुम बमुश्किल दो आर्टिकल लिख पाओगे।’’

मैंने उस लड़की की उम्र पर गौर किया। वह इक्कीस के लगभग होगी। बाईस से अधिक तो कतई नहीं। वह अब सहज हो चली थी। मैंने पूछा कि उसका घर कहाँ है। उसने स्टडी टेबल पर रखी ‘डिस्कवरी आॅफ इण्डिया’ पुस्तक पर छपे ‘नेहरू’ पर अंगुली रख दी--याने नेहरू नगर। इस जवाहर नगर से तीन किलोमीटर दूर। शहर तेजी से बढ़ रहा था और कालोनियों के नामकरण के लिये महापुरुषों के हिज्जे किये जाने लगे थे। जवाहर नगर अलग था और नेहरू नगर अलग, लोकमान्य नगर शहर के पूर्व में था और तिलक नगर पश्चिम में! इसे नेहरू नगर तक पैदल पहुँचने में एकाध घण्टा तो लग ही जाएगा। रात के नौ बज रहे थे। मेरी असुविधा बरकरार थी। मैंने खिड़की से बाहर झांक कर यह देखने का असफल प्रयास किया कि बारिश थमी या नहीं। बाहर काफी अँधेरा था-- स्ट्रीट लाइट अभी तक गुल थीं।

जब उसने मुझे यह बताया कि वह मुझे जानती है तो मैं चौंका। उसने आगे मुझे समझाया कि वह साहित्य में एम.ए. कर रही है, प्राइवेट तौर पर। उसकी कुछ सहेलियां के-एम-पी- काॅलेज में पढ़ती हैं और उसने उन्हीं से मेरे बारे में बहुत-कुछ सुन रखा है। यही कि मैं अपने विषय का कितना मर्मज्ञ हूँ--- साहित्य के गूढ़ विषयों की भी कितनी सहज-सरस व्याख्या करता हूँ---मेरा लेक्चर मिस करने का अर्थ कुछ खो देना है वगैरह। मुझे भला लगा। उसने यह भी बताया कि ‘रस-सिद्धान्त’ के सम्बन्ध में उसे काफी प्राॅब्लम्स हैं और वह मेरे नोट्स लेना चाहती है--यह जानते हुए भी कि मैं अपने नोट्स किसी को नहीं देता। उसने मेरे लेखन को अपीलिंग बताते हुए समझाया कि वह मेरा लगभग पूरा लेखन पढ़ चुकी है---कहानियां---कविताएं---। उसकी कई दिनों से इच्छा थी कि मुझसे मिले। याने वह मेरी प्रशंसक थी।

ड्राइंगरूम का दरवाजा अभी तक खुला था और रोशनी की वज़ह से बरसाती कीट-पतंगे भीतर घुसने लगे थे। मैं दरवाजा बंद करना चाहता था क्योंकि बरसाती कीड़ों के घर में घुसने पर मुझे रात भर परेशानी उठानी पड़ सकती थी। भीतर की नैतिकता उस प्रशंसिका के रहते मुझे दरवाजा बंद करने से रोक रही थी। अचानक वह उठी और कीड़ों की ओर इशारा करते हुए उसने दरवाजा बंद कर दिया। मुझे अटपटा लगा। मैंने ड्राइंगरूम की खिड़की से बाहर देखा। सामने वाले अपार्टमेंट में दो बूढ़ी औरतें रहती थीं जो दोपहर भर सड़क पर आते-जाते लोगों को ताका करती थीं। लेकिन इस वक्त रात के नौ बजे थे और बूढ़ी औरतें अब तक सो चुकी होंगी। यदि जाग भी रही होंगी तो उन्हें इस  उम्र में मोतियाबिंद अवश्य रहा होगा और आज की पीढ़ी के बच्चे उनके इलाज में टालमटोल कर ही रहे होंगे। कुल मिलाकर इस वक्त उन बूढ़ी औरतों का खतरा न के बराबर था। आस-पास के अपार्टमेंट्स से बीच-बीच में सीरीयल्स और विज्ञापनों के स्वर जरूर आ रहे थे। पूरा मोहल्ला अपने में व्यस्त था।

‘‘कहें तो मैं आपको गाड़ी से छोड़ आऊँ?" मेरे भीतर आशंका उठने लगी थी कि कहीं इस वक्त सुरभि का फोन न आ जाए। घड़ी का कांटा एस-टी-डी- की चौथाई रेट को पार कर चुका था। यदि ऐसा हुआ तो मैं चाह कर भी इस लड़की की उपस्थिति को नहीं छुपा पाऊँगा। मेरी असहज आवाज़ ही बोल देगी। वैसे इसमें छुपाने जैसी कोई बात नहीं है लेकिन रात को नौ बजे किसी अजनबी लड़की की घर में मौजूदगी कितनी अटपटी लगेगी सुरभि को! शायद इसी भय ने मुझसे उसे घर छोड़ने का प्रस्ताव करवाया था। उसने साफ इनकार कर दिया और एक बार फिर क्षमा मांगी कि वह इस तरह मुझे तकलीफ दे रही है। दरअसल वह स्ट्रीट लाइट्स में रोशनी लौटने का इंतज़ार कर रही थी। एक अकेली लड़की को थोड़ा-सा उजाला कितनी सुरक्षा दे देता है-- मैंने सोचा।

अब वह तौलिये से बालों को पोंछने लगी थी। उसके बाल स्टेप्स में कटे थे और काफी चमकदार थे। काॅलेज जाते समय वह इन बालों को बार-बार गरदन झटक कर जरूर पीछे करती होगी या फिर कभी हाथ से पीछे की ओर संवार लेती होगी। उस समय वह काफी खूबसूरत लगती होगी। मैं इस वक्त भावनाओं के स्तर पर अपने को पन्द्रह साल पीछे महसूस कर रहा था।

उसके स्टेप्स में कटे बालों से मैंने अपने को बाहर निकाला तो मुझे अपने दो पैग्स का खयाल आया। मैंने दिमाग पर जोर देकर सोचा कि कहीं मैंने नशे में इस लड़की के साथ कोई अभद्रता तो नहीं कर दी है--मसलन कहीं मैं लड़की को बेवकूफ की तरह घूर तो नहीं रहा हूँ या अनावश्यक रूप से हँस तो नहीं रहा हूँ। मुझे ऐसी अभद्रता कतई गवारा न होती। मुझे ग्लानि-सी हुई। दरअसल सुरभि के लौट आने पर तो शराब पर नियंत्रण लगना ही था, इसी चक्कर में मैं अकेले ही दो पैग उतार गया वरना बत्रा के बगैर मैं कहाँ लेता था! निश्चित ही मैंने ऐसी कोई अभद्रता नहीं की थी वरना वह लड़की अब तक ‘थैंक्स’ कह कर जा चुकी होती। वैसे भी मैंने व्हिस्की के बजाय ‘जिन’ ली थी जिसका नशा अपेक्षाकृत हल्का होता है।

स्टीरियो पर लताजी गा रही थीं--‘‘रहें ना रहें हम---महका करेंगे"----- लड़की गाने में डूबी हुई थी। बीच में वह अचानक गीले कपड़ों में कांप उठती थी। उसने बताया कि संगीत में उसे केवल लता मंगेशकर पसन्द है--स्वर की मिठास के कारण नहीं बल्कि स्वर की निश्छलता के कारण! प्रिय पाठक, आप आश्चर्य न करें। ये सभी बातें उस मूक लड़की ने की थीं। उसकी अँगुलियाँ, आँखे, चेहरे के भाव सभी ने मिल कर एक भाषा का निर्माण किया था--एक समृद्ध भाषा का निर्माण---दिलचस्प यह कि मैं इस भाषा को आसानी से समझ पा रहा था। पारम्परिक भाषा में कहें तो वाग्देवी कंठ से निकलकर लड़की के पोर-पोर में समा गई थी।
‘‘काॅफी पियोगी?" मैंने इस बार उसे न ‘आप’ कहा न ‘तुम’। मेरे इस प्रस्तावनुमा प्रश्न पर उसने ‘हाँ’ में गरदन भले न हिलाई मगर उसकी आँखों में काॅफी के नाम से चमक उभरी। शायद उसने काॅफी की गरमाहट को महसूसा होगा। मैं किचन में काॅफी बनाने चला गया। काॅफी बनाते समय सोच रहा था कि क्यों न इसे सुरभि के कपड़े दे दूं। बारिश थम भी गई तो गीले कपड़ों में तीन किलोमीटर कैसे जाएगी। सुरभि का कोई सलवार सूट तो रखा ही होगा अल्मारी में। कल लौटाने के लिये कह दूंगा। वैसे भी सुरभि को लौटने में अभी तीन-चार दिन बाकी हैं। ----और मान लो कल ही लौट आई तो क्या! इसमें छुपाने की कौन-सी बात है ?

लताजी की आवाज़ थम गई थी। साइड ‘ए’ पूरी हो चुकी थी। मैं किचन में सोच रहा था कि अब साइड ‘बी’ लगाऊँ या स्टीरियो को खामोश ही रहने दूँ! तभी उनकी स्वर-लहरियाँ फिर से वातावरण में तैरने लगीं--‘‘बैंया ना धरो ओ बलमा"---- यह साइड ‘बी’ थी।

मैं काॅफी लेकर ड्राइंगरूम में पहुँचा तो वह ‘रस-सिद्धांत’ के नोट्स की फाइल पलट रही थी। मुझे आते देख उसने फाइल एक ओर रख दी और मेरे हाथ से ट्रे लेकर मेज पर रख दी। काॅफी का पहला घूँट भरते ही उसने मुझे प्रशंसा प्लस कृतज्ञता भरी नज़रों से देखा। काॅफी मैं वाकई अच्छी बना लेता हूँ। काॅफी की गरमाहट उसके भीतर स्थानान्तरित हो चुकी थी--- मेरे भीतर भी।

‘‘देखो, मेरी वाइफ की अलमारी से कपड़े लेकर चेंज कर लो--- दिक्कत की कोई बात नहीं---कल लौटा देना।’ मैं उसे सुरभि की अलमारी तक पहुँचा कर ड्राइंगरूम में आ गया।

लगभग दस मिनट बाद वह बाहर आई। मेरे पास उसे अपलक निहारने के अलावा कोई चारा न था। यदि यह फिल्म का सैट होता तो कैमरामेन किसी भी एंगल से उस खूबसूरती को कैद कर सकता था। उसने पर्पल कलर की साड़ी पहनी थी जिसका बाॅर्डर एवं पल्ला सफेद था। एक सेमिनार में हैदराबाद गया था वहीं से यह साड़ी सुरभि के लिये खरीदी थी। मुझे यह साड़ी पहली ही नज़र में भा गई थी। सुरभि को भी पर्पल कलर पसन्द था मगर पर्पल-व्हाइट काम्बिनेशन पर उसे ऐतराज़ था। हालांकि सुरभि इस साड़ी को कभी-कभी पहनती थी--मेरा मन रखने के लिये। मैं आश्चर्य और उत्तेजना में कुछ बोल नहीं पा रहा था। मुझे इस तरह निहारते देख उसकी गरदन थोड़ी झुक गई थी--संकोच या शर्म से! उसके बाल भी सूख चुके थे जिन्हें उसने कंघी से हल्के-से संवार लिया था। मुझे लगा अब यह लड़की कंधों पर झूलते स्टेप्स में कटे बालों को पीछे की ओर झटक देगी वैसे ही जैसे वह रास्ते में चलते समय करती होगी। प्रिय पाठक, आप विश्वास करें उसने ऐसा ही किया। मैंने महसूस किया कि कंपकंपाहट उसके होठों तक सिमट कर रह गई है।

वह मेरे बेहद करीब थी। सुरभि, उसके विश्वास का महल, चीकू का चेहरा, सभी बारी-बारी से उभरकर पृष्ठभूमि में विलीन हो गये थे। लताजी अंतिम गाना गा रही थीं--‘‘तू जहाँ जहाँ चलेगा मेरा साया"-------


 इसके बाद जो हुआ उसे बताने के लिये बम्बईया फिल्मों के सात्विक प्रतीकों का सहारा लिया जा सकता है मसलन-- समुद्र की लहरों का जोरों से उठना और चट्टानों से टकराना---भौंरे का फूल से रस चूसना---आग की लपटों का ऊँचा हो जाना वगैरह---।

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सुबह नौ बजे नींद खुली। रात का घटनाक्रम एक फास्ट फारवर्ड की तरह घूम गया। मैंने हड़बड़ाहट में पूरा घर छान मारा। लड़की कहीं नहीं थी। तो क्या वह रात को ही चली गई---बगैर बताये ? या फिर सुबह जल्दी---। मैंने ड्राइंगरूम का दरवाजा देखा-वह भीतर से बंद था। मेरा सिर चकराने लगा--यह कैसे सम्भव है! काॅफी के प्याले भी ड्राइंगरूम में नहीं थे। मैंने कारपेट और सोफे का वह हिस्सा देखा जो कल रात उसके शरीर से टपकती बरसात से भीग गया था-- लेकिन वह भी सूखा था। अचानक मेरे दिमाग में कुछ कौंधा और मैंने यंत्रवत् सुरभि की अलमारी खोली। पर्पल कलर की साड़ी बगैर किसी सिलवट के हैंगर पर टंगी हुई थी। अब तक मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था। तो क्या वह सब एक स्वप्न था--- महज़ नींद की एक कल्पना!! नहीं--- यह सर्वथा असम्भव है। कोई स्वप्न इतना जीवंत नहीं हो सकता। मैंने दिमाग पर जोर डाला---बार-बार खोजता रहा---शायद कोई चिन्ह, कोई प्रमाण मिल जाए लेकिन कुछ हाथ नहीं आया था यहाँ तक कि किचन में काॅफी बनाने की पतीली भी अपनी जगह साफ रखी थी। हाँ] एक आश्चर्यजनक बात जरूर हुई थी--स्टडी टेबल से ‘रस-सिद्धांत’ की फाइल नदारद थी।

यह कैसा छलावा है? कितनी अजीब बात है--पिछली रात के कोई चिन्ह न मिल पाना मुझे लगातार बेचैनी और ग्लानि से भर रहा था। जो कुछ घटा वह क्या था आखिर! दिन भर बेचैनी---चिन्ता--- छटपटाहट। न भूख न प्यास!

मैंने एक बार फिर ठण्डे दिमाग से सोचा। यह तो तय है कि वह आई थी--भीगी हुई। ---मुझे जानती थी---काफी देर सोफे पर बैठी रही थी---हमने काॅफी पी थी---लताजी को सुना था---उसने सुरभि की पर्पल साड़ी पहनी थी---स्टेप्स में कटे बाल----। अचानक मुझे मूक होने का खयाल आया। तो क्या बगैर शब्दों के इतना संवाद सम्भव था? लेकिन उस लड़की का पोर-पोर बोलता था---उसका नाम---। उसका नाम सुप्रिया शर्मा था। प्रिय पाठक, उसने बेडरूम में अपनी तर्जनी से मेरी पीठ पर अपना नाम लिख कर बताया था। लेकिन वे सब तो स्मृतियाँ हैं---महज़ अनुभव!! पदार्थ की शक्ल में कोई प्रमाण क्यों नहीं मिल पा रहा है? मेरी हताशा चरम पर थी।

मैंने इस जंजाल से निकलने के लिये बहुत हाथ-पैर मारे। हो सकता है रात भर में कारपेट और सोफे का गीलापन सूख गया हो---उसने काॅफी के प्याले और बरतन धोकर यथास्थान रख दिये हों---दूसरे दिन साड़ी लौटाने की जे़हमत से बचने के लिये रात को ही या सुबह जल्दी साड़ी प्रेस कर दी हो---घर में प्रेस ढूंढना कोई मुश्किल काम तो नहीं। जरूर वह जाते समय ‘रस-सिद्धान्त’ के नोट्स वाली फाइल भी ले गई होगी वरना वह कहाँ गई? लेकिन ड्राइंगरूम का दरवाजा? हो सकता है उसने जाते वक्त मुझे जगाया हो और मैंने तन्द्रा में ही उसे वराण्डे तक पहुँचा कर दरवाजा बंद कर लिया हो। हालांकि अंतिम बात की संभावना मेरे गले नहीं उतर पा रही थी लेकिन हो सकता है कि ऐसा ही हुआ हो। जब इतनी बातें हो सकती हैं तो यह क्यों नहीं?

इस बीच बत्रा को दो बार फोन कर चुका था। पहले वह स्कूटर की सर्विसिंग करवाने गया था और बाद में बैंक। सोचा बत्रा के घर ही जाकर इंतज़ार करूँ। मैं अपनी उलझन बत्रा से तुरंत शेयर करना चाहता था। उसने कई बार कठिन समय में मेरी मदद की थी---मुझे संकटों से उबारा था।

आखिर शाम को बत्रा का फोन आया। उसने माफी मांगते हुए कहा कि चूंकि काॅलेज खुलने वाले हैं इसलिये कई दिनों से पेंडिंग पड़े काम निपटा रहा था। उसने कहा कि वह आधे घण्टे में पहुँच रहा है। मैंने नमकीन निकाल कर गिलास जमा लिये थे।

‘‘हाँ, तो प्रोफेसर---क्या बात है?" बत्रा ने बड़ा घूंट भरा। पेंडिंग कामों को निपटा लेने की वजह से वह काफी निश्चिन्त और खुश लग रहा था। बत्रा के साथ मुझे किसी भूमिका बांधने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मैंने उसे आद्योपांत वह वाकया सुनाया। जी हाँ प्रिय पाठक---वही सुप्रिया शर्मा वाला अजीबोगरीब वाकया जो अब तक मेरी नींद-चैन छीन चुका था।

बत्रा ने पूरी गंभीरता और तन्मयता से मुझे सुना। वह दो-तीन मिनट तक आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहा। उससे मुझे इस रियेक्शन की उम्मीद नहीं थी।
‘‘हाँ, तो पार्टनर...उस रात कितने पैग लिये थे? जब बत्रा मूड में होता है तो उसके मुँह से ‘पार्टनर’ शब्द निकलता है।
मुझे लगा उसने फूटने की हद तक फूले हुए गुब्बारे को पंक्चर कर दिया है। मुझे यह थोड़ा अपमानजनक लगा।
‘‘डोन्ट टेक इट सो लाइटली बत्रा---इट्स सीरीयस!”
‘‘क्या खाक सीरीयस!! मुझे लगता है सुरभि भाभी को फोन करके अब बुला ही लेना चाहिये---वरना आज तो कल्पना में ही फिसले हो---कल को कहीं---।’’
‘‘बत्रा---यू फूल---यह कल्पना या स्वप्न नहीं एक जि़न्दा और सच घटना है। तुम इस तरह इसे हवा में न उड़ाओ।’’ मैं लगभग झुंझला रहा था।
बत्रा उसी बेशर्मी से मुस्कराए जा रहा था।
‘‘देखो पार्टनर, यह सब तुम लेखकों के अवचेतन में उपजी खुराफातें हैं। अपनी इन खुराफातों की बदौलत ही तुम लेखक लोग हज़ारों-हज़ार पाठकों को एक्सप्लाॅइट करते हो।’’
‘‘देखो बत्रा---इतने अमानवीय तो न बनो। मैंने तुम्हें मदद के लिये बुलाया है।’’ मेरे स्वर में घिघियाहट थी।

‘‘अब क्या मदद चाहते हो, ऐश के समय तो अपने जिगरी दोस्त को भूल गये।’’ बत्रा ने जोरदार ठहाका लगाकर गिलास से एक बड़ा घूँट और भरा। आज वह छक कर पीने के मूड में लग रहा था।

मैंने महसूस किया कि अब मुझे बत्रा से घृणा करना चाहिये। मैं एक मकड़जाल में बुरी तरह फँसा हूँ और इस हरामी को ठट्ठा सूझ रहा है। मुझे अपनी दोस्ती दाँव पर लगती दिखाई दे रही थी। अब तक वह दो बड़े पैग पी चुका था। उसने सिगरेट सुलगाई और पलक झपकते ही उसका चेहरा गम्भीर हो गया।

‘‘देखो दोस्त! क्यों हमारे मुँह से अपनी तारीफ सुनना चाहते हो। सभी जानते हैं कि तुम एक गम्भीर और स्काॅलर व्यक्ति हो। तुम जैसे व्यक्तियों के पास इन बातों के लिये न फुरसत होती है और न ही नीयत। तुम्हारे लिये यह सम्भव हो ही नहीं सकता--कोई तश्तरी में सजा कर दे दे तब भी। इसीलिये यह मामला प्रथमदृष्टया ही खारिज हो जाता है।’’ अंतिम वाक्य पर बत्रा ने विशेष जोर दिया।

‘‘देखो बत्रा, मेरी तारीफ न करो---मुझे पता है जो मैं हूँ। एक जि़ंदा अनुभव को जिसने मेरा व्यक्तित्व---मेरी गृहस्थी हिला कर रख दी, इस तरह खारिज़ कैसे किया जा सकता है?"
‘‘देखो यार, तुम तो लेखक हो। संवेदनों के स्रोत,उनकी बारीकियों को अच्छी तरह समझते हो। क्या तुम्हें पता नहीं कि हमारी रिक्तताएँ लगातार हमारा पीछा करती हैंं। हमारे भीतर की अपूर्णताएँ हमारे अवचेतन पर दस्तक देती रहती हैं। यह अवचेतन मौका पाते ही किसी कल्पना,स्वप्न या फिर दृश्य से अपने को तृप्त करता है। फ्रायड ने----" बत्रा दार्शनिक हो चला था।
‘‘देखो बत्रा, मुझे फ्रायड और अवचेतन मत बताओ। तुम इसे सत्य घटना मान कर दूसरे कोण से क्यों नहीं देखते?"
‘‘भाई मेरे, कैसे मान लूँ इसे सत्य। जो घटनाक्रम तुमने बताया है वह सच हो ही नहीं सकता। इसके दो ठोस कारण हैं।’’
‘‘कौन-से?" बत्रा ने मेरे भीतर उत्सुकता जगा दी थी।
‘‘पहला तो यह कि वैज्ञानिक और व्यावहारिक दृष्टि से इसमें कई त्रुटियाँ हैं। जैसे एक जवान और आकर्षक लड़की का इस तरह फ्लैट में शरण मांगने घुस जाना---बारिश के मौसम में कारपेट और सोफे के गीले हिस्सों का रात भर में सूख जाना---एक मूक लड़की का इस तरह संप्रेषित हो पाना---लड़की का साड़ी प्रेस कर रख जाना और सबसे बड़ी बात--दरवाजे का भीतर से बंद होना। इनमें से कुछ बातें अवैज्ञानिक हैं और कुछ अव्यावहारिक।’’
‘‘क्या तुम लड़की के स्थान पर सुप्रिया नहीं कह सकते?" मैंने बत्रा को टोका।
‘‘हरगिज नहीं।’’ बत्रा ने मुझे लगभग झिड़क दिया।
‘‘और दूसरा कारण?"
‘‘वह अधिक महत्वपूर्ण है। जिस तरह से लड़की तुम्हारे समक्ष समर्पण कर देती है---उससे तो वह चालू किस्म की लगती है जो बाद में तुम्हें ब्लैकमेल भी कर सकती है। तुम जिस अनुभव और तृप्ति की बात कर रहे हो वह ऐसी चालू लड़की से पाया नहीं जा सकता। कम-से-कम तुम तो नहीं पा सकते।’’

बत्रा ठीक कह रहा था। लेकिन मामला केवल तर्क का ही तो न था।
‘‘देखो बत्रा, तुम फिर मेरी साइड लेकर ही सोच रहे हो। एक बार तुम सुप्रिया की ओर से क्यों नहीं सोचते! क्या बारिश से बचने के लिये कोई लड़की ग्राउण्ड फ्लोर वाले फ्लैट में कुछ देर के लिये शरण नहीं ले सकती खासकर जब बाहर स्ट्रीट लाइट भी गुल हो! उसे क्या मालूम कि मैं घर में अकेला हूँ। गीला सोफा और कारपेट रात भर में सूख भी सकते हैं। जिस लड़की को मैंने शरण दी, काॅफी पिलाई, बदलने के लिये कपड़े दिये---और जो लड़की मेरे साथ अलौकिक अनुभव में हिस्सेदार रही---क्या वह लड़की काॅफी के बरतन नहीं धो सकती? एक साड़ी प्रेस नहीं कर सकती---?" मेरा चेहरा उत्तेजना में लाल हो रहा था।
‘‘और जहाँ तक उसके मूक होकर संवाद करने का सवाल है---यकीन मानो बत्रा, उसके आने के बाद एक पल भी मुझे नहीं लगा कि भाषा---बोले गये शब्दों से बनी भाषा की कोई जरूरत है। जहाँ तक उसके चालू होने याने इस तरह समर्पण कर देने की बात है---हमें एक पल भी ऐसा नहीं लगा कि हम एक-दूसरे को पटा रहे हैं---बत्रा, विल यू बिलीव---वह सब इतना सहज---इतना स्पान्टेनियस था कि---"
मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़कर बत्रा की ओर देखा। वह मुझे बहुत ध्यान से सुन रहा था।
‘‘और बत्रा---प्राॅब्लम यह है कि इतना सब हो चुकने के बाद भी मुझे ग्लानि का एक अंश भी छू नहीं पा रहा है---बत्रा, क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मुझे सुरभि से---अपनी इस गृहस्थी से कितना लगाव है? कान्ट यू अंडरस्टैण्ड दिस?"
‘‘लेकिन दरवाजा फिर भीतर से कैसे बंद था?" बत्रा अभी भी तर्क-शास्त्र का तिनका पकड़े हुए था।
‘‘देखो, यह कोई मुश्किल नहीं है। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि शायद अवचेतन की स्थिति में मैंने उठ कर दरवाजा बंद कर दिया हो। यह भी तो हो सकता है कि उसने मुझे जगाना ठीक न समझा हो। याने वह ड्राइंगरूम की खिड़की खोलकर वराण्डे में आ गई हो।’’
‘‘कूद कर?"बत्रा मुस्कुराया।
‘‘हाँ कूद कर--- कौन-सा कुतुबमीनार से कूदना था। ढाई फीट तो है।---और तुम देख रहे हो कि ‘रस-सिद्धांत’ वाली फाइल भी गायब है।’’
कुछ देर हमारे बीच खामोशी पसरी रही।
‘‘फाइल तुम कहीं रख कर भूल भी तो सकते हो या काॅलेज में किसी छात्रा को दी हो। अच्छI यह बताओ पार्टनर कि ऐसा क्या था ‘रस-सिद्धांत’ की उस फाइल में जिसके लिये इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी उस बेचारी को!" बत्रा फिर कुटिलता से मुस्कुराने लगा था। इस बार उसकी मुस्कुराहट से मुझे तकलीफ नहीं हुई। गनीमत है वह तर्क की सीढि़यों से तो नीचे उतर रहा था।
बत्रा ने चौथा पैग खत्म किया। उसमें खासियत थी कि अधिक पी लेने के बावजूद वह शरीर और विचारों से संयत रहता था। कोई लड़खड़ाहट नहीं।
‘‘पार्टनर, बुरा मत मानना। कहीं ऐसा तो नहीं कि पैग के असर में ही तुमने टीवी पर कोई सीरीयल या फिल्म देखी हो जिसकी कहानी कुछ वैसी ही हो जैसा तुम---"
‘‘बत्रा, तुम जानते हो मुझे टीवी से चिढ़ है। फिल्मों का शौक मुझे है लेकिन वह भी थियेटर में ही देखता हूँ, तुम्हें पता है।’’

हम दोनों ने फिर से सिगरेट सुलगाई।
‘‘पार्टनर, चिढ़ मत जाना लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम प्रोग्रेसिव और यथार्थवादी लेखन की एकरसता से ऊब कर कोई रहस्यवादी कहानी लिखना चाहते हो और सुप्रिया शर्मा उस कहानी का प्लाॅट हो?"
‘‘बिल्कुल नहीं।’’ मैंने संक्षिप्त और दृढ़ उत्तर दिया। हाँ, बत्रा का लड़की के बजाय सुप्रिया शर्मा कहना अलबत्ता मुझे अच्छा लगा।
‘‘या फिर अपने जीवन में कोई काल्पनिक सनसनी लाना चाहते हो?"
‘‘अब तुम फूहड़ता पर उतर आए हो बत्रा।’’ मैंने उसे डपटा।

‘‘लो, तुम तो वाकई चिढ़ गये। देखो काॅडवेल ने भी लिखा है कि कविता का उद्भव कवि की सहज वृत्ति और अनुभव के बीच अन्तर्विरोध से होता है। यह तनाव उसे एक भ्रामक फैंटेसी की दुनिया रचने को प्रेरित करता है जिसका उस यथार्थ जगत से एक निश्चित और कार्यमूलक सम्बन्ध है---!"
‘‘देखो बत्रा, तुम एक यथार्थ को फैंटेसी में घसीट ले जाना चाहते हो---क्या तुम जानते हो कि इस घटना के अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक पक्ष मुझे भी बेहद परेशान किये हुए हैं---लेकिन दूसरे ढंग से। मैं देख रहा हूँ कि किस प्रकार एक जि़ंदा यथार्थ एक फैंटेसी में तब्दील हुआ जा रहा है। जैसे हाथों से कोई मूल्यवान वस्तु फिसले जा रही है। बत्रा---सामने के फ्लैट में दो बूढ़ी औरतें रहती हैं जो दिन भर यहाँ से गुजरने वालों का हिसाब रखती हैं। यदि वे आकर कह दें कि उस रात उन्होंने एक लड़की को मेरे घर से निकलते देखा है तो मैं उन बूढ़ी औरतों की गुलामी कर लूं।’’
‘‘लेकिन पार्टनर, यदि तुम्हारा अनुभव इतना जीवंत और सच्चा है तो फिर तुम पदार्थ-जगत से उसके प्रमाण क्यों खोज रहे हो?"
मैं थक चुका था। मुझे नींद आने लगी थी। मेरे पास इतनी ताकत नहीं बची थी कि बत्रा को यह कन्विन्स कर सकूँ कि स्वप्न यथार्थ के चाहे जितना करीब क्यों न हो उसकी याद धीमे-धीमे कमज़ोर पड़ जाती है। काश, मैं चित्रकार होता तो पर्पल साड़ी पहने एक लड़की का चित्र बनाता जिसके बाल स्टेप्स में कटे हुए कंधों पर झूल रहे हैं।
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शाम को घर लौटा तो पाया कि सुरभि और चीकू लौट आये हैं। मैं दोनों से देर तक लिपटे रहा मानो बरसों बाद मिले हो। सुरभि थोड़ा मुटिया गई थी---देह में गुलाबीपन भी बढ़ गया था--मैके में निश्चिन्तता ---खाते और सोते रहने का प्रतिफल!
‘‘क्योंजी, यह सुप्रिया शर्मा कौन है?" सुरभि मेरे कान में फुसफुसाई। मैंने देखा वह एक शरारत भरी मुस्कान फेंक रही थी।
मैं जोरों से उछला।
‘‘चौंको नहीं, बत्रा ने मुझे फोन पर सब बता दिया है।’’
‘‘ओह---बत्रा ने!" मैं फिर हताश हो गया था।
‘‘डार्लिंग, यह सब सचमुच भी होता तो कम-से-कम एक सौत को बरदाश्त कर सकने वाला जिगर बंदी के पास है।’’
सचमुच के क्या मानी! मुझे एक बार फिर से घेरा जाने लगा था। इतनी गम्भीर बात पर भी चुहल करने के पीछे क्या था? विश्वास का अतिरेक या औरत के मन में समाया हुआ एक डर जिससे कतराने की कोशिश की जा रही थी! लेकिन सुरभि तो ऐसी नहीं है। वह प्रबुद्ध है---सुलझी हुई---लेकिन है तो एक औरत---अपनी अनुपस्थिति में भी टेलीफोन के रिमोट कंट्रोल से घर को नियंत्रित करने वाली महज़ एक औरत---।

उस रात मैंने सुरभि को बाहों में लेकर कहा था कि वह चाहे तो मुझे छोड़ सकती है। मेरे मन में भले ही कोई अपराध-बोध न हो लेकिन मैं उसका अपराधी तो हूँ ही। सुरभि ने मुझे अपनी बाहों में कस लिया था--शायद घर को ही। उसकी आवाज़ बहुत गहरे से आती जान पड़ी थी--‘‘देखो डार्लिंग, रेगिस्तान में हिरण पानी की छाया के पीछे बेतहाशा भागता रहता है---उसे प्यास और फिर निराशा के अलावा क्या मिलता है? हम भी दूसरों की अपूर्णता को भरने के भ्रम में वही करते हैं। इस दौड़ से क्या हासिल होता है? यदि तुम बाहर की अपूर्णता को अपने भीतर की अपूर्णता के बरक्स देख सको तो शायद इस अंधी दौड़ से मुक्त हो सकते हो---जैसे कि---" सुरभि अचानक खामोश हो गई थी।
‘‘जैसे कि---जैसे कि क्या---?---सुरभि बोलो----जैसे कि----?" मैंने उसे झिंझोड़ा। लेकिन सुरभि कुछ नहीं बोली। एकटक छत को घूरती रही---अँधेरे में।

दो महीने बीत चुके थे। जीवन फिर से अपनी रफ्तार पकड़ रहा था। वही कॉलेज...घर...लेखन...-बैठक---। हाँ, बत्रा को जब-तब मुझे छेड़ने का बहाना जरूर मिल गया था। और तो और सुरभि और करुणा भी उसकी ठिठौली में शरीक हो जातीं। ‘‘चलो, इस शांत और सूखते तालाब में किसी ने ढेला तो फेंका।’’ बत्रा कहता और ठहाका लगाता--- सुरभि मुझे चिकोटी भरती। कभी सुरभि अपने बालों को बिखेर कर हाथों को फैलाकर फिल्मी अंदाज़ में गुनगुनाने लगती--‘अब  तो दरस दे दे सौतन---।’ एक बार तो हद हो गई जब चीकू ने भोलेपन से पूछा--‘‘ये सुप्रिया आंटी कौन है?" बत्रा, सुरभि और करुणा का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया था। सबके सब दुष्ट कहीं के! काश,ये लोग मुझे इस कदर प्यार न करते!!
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सितम्बर का महीना था वह। काॅफी और पकोड़ों के बीच गप्पें चल रही थी। बत्रा को पकौड़े बहुत पसन्द हैं। बत्रा को अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो। अपने हाथ के पकौड़े को प्लेट में छोड़कर वह खड़ा हो गया।
‘‘सुनो पार्टनर, प्राॅब्लम इज़ साॅल्व्ड।’’
‘‘देखो बत्रा, अब कोई बदतमीजी नहीं।’’ मैंने उसे टोका।
‘‘नहीं यार, आइ एम सीरीयस।’’ वह वाकई गम्भीर था।
‘‘तुम कहते हो न कि छब्बीस जून की रात साढ़े आठ बजे वह बारिश में भीगते हुए आई थी। मुझे अभी अचानक याद आया कि उस रात हम लोग एक कन्सर्ट में गए थे। हम लोग करीब सवा नौ बजे लौटे, इसी रास्ते से। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस रात जवाहर नगर में एक बूँद बारिश नहीं हुई थी। हाँ, बादल जरूर गरज रहे थे। तुम चाहो तो करुणा से पूछ लो---।’’
डाॅक्टर करुणा ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। बत्रा की मेमोरी पर सवाल उठाया ही नहीं जा सकता था।
इससे पहले कि मैं सुरभि की ओर देखता, काॅलबेल बज उठी। सभी खामोश हो गये। सुरभि ने दरवाजा खोला।

जो लड़की अंदर आई उसे सभी अपरिचित दृष्टियों से भेद रहे थे और मैं---? मैं तो काठ का बुत बन गया था---। सभी का अभिवादन करने के बाद उसने कंधे पर टंगे बैग में से ‘रस-सिद्धान्त’ की फाइल निकाली और मुझे देते हुए बोली--‘‘आइ एम सुप्रिया शर्मा---दरअसल यह फाइल मेरी रूम-मेट पिंकी ने मुझे लौटाने के लिये दी है---उसे आज अचानक बंगलूर जाना पड़ा---पता नहीं कब लौटे---।’’
‘‘आप बैठिये तो---" सुरभि ने उससे कहा था।
‘‘नो थैंक्स! दरअसल मैं जल्दी में हूँ--- मुझे नेहरू नगर तक जाना है।’’
‘‘क्या आप पहले भी यहाँ---?" अचानक सुरभि के भीतर से एक औरत ने निकलकर उससे पूछा था।
‘‘जी नहीं--- दरअसल आपका फ्लैट ढूंढने में ही मुझे काफी देर हो गई, अब चलूंगी।’’ उसने चीकू के गाल थपथपाये और ओझल हो गई।
काठ के बुत में जान आई। वहाँ मौजूद हर व्यक्ति आश्चर्य से उबर ही नहीं पा रहा था। प्रिय पाठक, आप भी आश्चर्य में डूब जाएंगे यह जानकर कि उस लड़की---सुप्रिया शर्मा की आवाज़ सुरभि की आवाज़ से हू-ब-हू मिलती थी। इतनी कि यदि सुप्रिया शर्मा फिल्म की हीरोइन होती और किसी कारण उसकी आवाज़ चली जाती तो सुरभि की आवाज़ में आसानी से डबिंग की जा सकती थी। लोग यही समझते कि यह सुप्रिया की ही आवाज़ है।

‘‘लगता है उस ‘एक्सीडेंट’ के बाद लड़की की आवाज़ लौट आई है।’’ यह बत्रा था। सम्भव है इसी तरह की और बातों पर बत्रा, सुरभि और करुणा ने देर तक ठहाके लगाये हों। मैं तो वहाँ मौजूद होकर भी वहाँ से गुम था।

माना कि छब्बीस जून की रात को जवाहर नगर में बारिश नहीं हुई थी लेकिन मानसून के बादल तो घिरे ही थे---बिजली भी कड़क रही थी। फिर यह भी तो हो सकता है कि जवाहर नगर के पैरेलल गुजरती रोड पर अचानक तेज बारिश हुई हो---मानसून की पहली बारिशें तो ऐसी ही होती हैं। जरूर सुप्रिया उसी पैरेलल रोड पर होगी क्योंकि वह सीधे नेहरू नगर जाती है। उस रोड के अगल-बगल कोई फ्लैट भी नहीं है। यदि बारिश से बचना है तो अपार्टमेंट्स के बीच बनी संकरी गलियों से इधर ही आना पडे़गा---लेकिन यह बात बत्रा और सुरभि को कैसे समझाई जा सकती है!
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[02/02 05:27] ‪+91 86290 84484‬: बहुत दिनों के बाद कोई जोरदार रचना पढ़ने को मिली है लेखक और मंच का बहुत-बहुत आभार ऐसी उत्तम रचना पढ़वाने के लिए

[02/02 08:57] Sandhya: यह तो पढी हुई है ।इसकी गफलत में ही इस कहानी का आनंद है ।
बहुत खूब कहानी💥

[02/02 11:33] Archana Mishra: पहले भी यह कहानी पढ़ी है।रहस्य से भरपूर कहानी। पाठक भी कहानी के साथ2 चलता है कि अब कुछ पता चलेगा ।नायक के विचारों को, उसकी दुविधा को , बेचैनी को भरपूर उकेरा है श्रोत्रिय जी ने।

प्रवाह पूर्ण और रोचक कहानी श्रोत्रिय जी की। बधाई
[02/02 11:33] Pravesh: फैंटेसी ,अवचेतन पर दस्तक देती हमारे मन की अपूर्णताये ,या रिक्तताये ....क्या है इस कहानी में ।
मित्रों अपेक्षा है आप सबसे इस कलात्मक कहानी पर विस्तृत चर्चा की ।
आइये और अपनी गहन अनुभूति  से इसकी तहे खंगालिए ।
🙏
[02/02 12:06] ‪+91 81205 77422‬: रहस्य लोक की कहानी।भीतर का रहस्य बाहर उभरा है कहानी में।अवचेतन की कुंठा कल्पना को वास्तविक मानती है।फेंटेसी हमारे अधूरे ख़्वाबों का लोक है।लेखक की अधूरी इच्छाएं एक कल्पना लोक को रचती है।अभावों में इस तरह की कल्पना अस्वाभाविक नहीं होती।सुप्रिया का नाम कहीं सुन रखने से ही लेखक के भीतर की कोई अतृप्त इच्छा इस तरह का कल्पना लोक रच लेती है।
[02/02 12:07] ‪+91 81205 77422‬: पर कहानी का गठन उसका शिल्प बेहतरीन
[02/02 12:09] Pravesh: धन्यवाद अनुराग जी ।लेकिन कहानी में  नायक कही भी कुंठित नज़र नही आया ।क्या इसे अदृश्य अतृप्ति कहेंगे ।
[02/02 12:10] ‪+91 81205 77422‬: नजर नहीं आया पर पत्नी के बहुत समय से अनुपस्थित होने से ही अतृप्ति कुंठित करती है

[02/02 12:12] ‪+91 81205 77422‬: पर ये कहानी की सफलता है रहस्यलोक इतना प्रभावी है कि सरल राह ढूंढना कठिन काम है

[02/02 12:13] Saksena Madhu: पर फ़ाइल का गायब होना यांनी कोई आया तो था ?
[02/02 12:16] ‪+91 81205 77422‬: फ़ाइल तो वे कालेज में दे आये थे।जिस लड़की को दी थी उसने कहा होगा कि उसकी सहेली सुप्रिया शर्मा वापस कर जायगी।बस लेखक उस नाम का इन्तजार करते रहे कि हाय!कब आयगी सुप्रिया शर्मा।और पत्नी के जाते ही एक रात आ गई वः

[02/02 12:17] Saksena Madhu: पर सुप्रिया की आवाज़ पत्नी की आवाज से मिलना ये क्या रहस्य

[02/02 12:18] ‪+91 81205 77422‬: पत्नी के प्रति प्रेम और एकनिष्ठा उन्हें पत्नी की आवाज के निकट करती रही

[02/02 12:20] ‪+91 81205 77422‬: अगर रात की घटना में सुप्रिया गूंगी न होती तो उसकी आवाज अवश्य पत्नी जैसी होती।इससे यह रहस्य खुल जाता कि ये कल्पना पत्नी की ही कल्पना है
[02/02 12:21] ‪+91 86290 84484‬: सुप्रिया की आवाज नायक की पत्नी से मिलने का क्या  मतलब..... अगर वह नहीं भी मिलती तो भी कहानी में कोई फर्क ना रहता क्या यह प्रसंग अनावश्यक नहीं लग रहा
[02/02 12:21] Pravesh: अनुराग जी की बात  एक हद्द तक साम्य रखती है
[02/02 12:21] ‪+91 81205 77422‬: पर गूंगी होने से यह सिद्ध हुआ कि रात को पत्नी रूप बदलकर नहीं आई बल्कि सुप्रिया नाम शरीर रखकर आया

[02/02 12:22] ‪+91 81205 77422‬: उससे लेखक ने यह सिद्ध किया है कि कुछ भी हो मन किसी अन्य के प्रति भले ही आकर्षित हो पर व्यवहार में मैं पत्नीनिष्ठ हूँ

[02/02 12:24] ‪+91 81205 77422‬: पाठकों को भरम बना रहे की लेखक पत्नी के प्रति कितना निष्ठावान है असली सुप्रिया का पत्नी की आवाज में होना इसीलिये है पर यह धोखा है अपनी उस मन को छुपाने का जो शोध छात्राओ से दूरी बनाकर भी उनके प्रति आकर्षित है
[02/02 12:26] ‪+91 81205 77422‬: यह एक शोध छात्रा जो किताब ले गई उसके द्वारा किताब वापसी के लिए अवश्य सुप्रिया का नाम लिया होगा।बस नाम का करन्ट अपना काम कर गया
[02/02 12:27] ‪+91 81205 77422‬: सारी शक्ति नाम में होती है व्यक्ति में नहीं इसलिए सारा करन्ट भी नाम का होता है व्यक्ति का नहीं।इस कहानी में सारा खेल उस नाम का ही है जो रूप धर कर रात को आया।
[02/02 12:30] Saksena Madhu: पूरी कहानी मनोविज्ञान पर आधारित ।
[02/02 12:51] ‪+91 86290 84484‬: कहानी एक तिलिस्म रचती है।  सुबह पांच बजे पढ़ ली थी मगर दिलोदिमाग पर हावी है। कहानी को पाठक छोड़कर नहीं जा सकता। यही कामयाबी का पैमाना भी है।
[02/02 12:56] Pravesh: बिल्कुल ,एक पत्नीनिष्ठ पति ,अनुशाषित व्याख्याता लेकिन इन सबके साथ एक पुरुष । जो व्यवहार में  विद्यार्थी छात्राओं से रुखा व्यवहार करे लेकिन ,मन में कही तो आकर्षण का तंतु छुपा हुआ ही है । प्रकट में दिखाया गया रूखापन मन के भीतर के  रोमान को छुपा तो सकता है पर ख़त्म नही कर सकता ।
तभी तो स्टेप कट बाल लुभा रहे है ,उसके सौंदर्य  का रसपान करने सेस्वयं को  नही रोक सकते
यह छुपा मनोविज्ञान ही है जो अवचेतन में जाग्रत होता है ।

कहानी के शिल्प  लाजवाब ढंग से गूँथा हुआ है ।बत्रा से चर्चा ,पत्नी के सामने समर्पित ,सच्चाई सामने आने पर भी गिल्ट की अनुभूति नही होना
फाइल और दरवाजे के जरिये पाठक को विस्मृत करके रोचकता को बनाये रखना ...एक बेहतरीन कथानक प्रस्तुत किया है ।

एक बेहतरीन कहानी लगी मुझे
निरंजन श्रोत्रिय सर को बधाई ।
[02/02 12:57] ‪+91 86290 84484‬: कहानी पाठक के विवेक पर भी बहुत कुछ छोड़ जाती है। संयोग, घटना, दुर्घटना या और भी बहुत कुछ है बाकी तो क्षोत्रिय साहब ही जाने।
[02/02 13:01] Pravesh: बिल्कुल सही विजय जी
लेखक के मन तक पाठक कहाँ तक पहुच पाता है ,यह लेखन पर निर्भर करता है ।
 कोशिश जारी है
देखते है अन्य प्रतिक्रियाएं   किस तरह कहानी के मर्म तक पहुचाती है ।

धन्यवाद अनुराग जी का और आपका  चर्चा में बने रहने के लिए
[02/02 13:01] Pravesh: अनुराग जी
🙏
[02/02 13:13] ‪+91 86290 84484‬: कहानी के छोटे-छोटे दृश्य बहुत ही सरल और सहज भाषा में रचे गए हैं। और शंकाओं का समाधान भी बखूबी किया गया है। उदाहरण के लिए जैसे नायक उस लड़की की मूक भाषा समझ जाता है वह भी गूड़ अर्थों में जो किसी आमजन के वश की बात ही नहीं है।
[02/02 13:15] ‪+91 86290 84484‬: लेखक कहानी में पवित्रता और नैतिकता बनाए रहते हुए भी बड़ी साफगोई से सभी को बताते हुए, स्वीकार करते हुए भी निकल जाता है वाह क्या रचना है।
[02/02 13:17] Pravesh: विजय जी नायक व्याख्याता है ,मूक बधिर की भाषा से अवश्य परिचित होंगे ।
😃
[02/02 13:19] ‪+91 86290 84484‬: जी.... यह कहानी सभी तरह के पाठक के लिए है कोई तो रस लेने में जुटे रहेंगे कई अबूझ पहेलियां बूझते  रह जाएंगे और कथा तत्व के समीक्षकों के समक्ष  तो अनुसंधान का विषय है ही
[02/02 13:22] Pravesh: मतलब कोई भी पाठक वर्ग अछूता नही रहेगा  ।
यह बहुत अच्छी बात कही
तत्व समीक्षकों से विशेष निवेदन

🙏
[02/02 13:26] shivani sharma Ajmer: मुझे लगता है जितनी बार पढूंगी,  कुछ नया समझने को मिलेगा । मनोविज्ञान पर आधारित बहुत से तथ्य छूट गये पहली बार में ।
[02/02 13:27] ‪+91 86290 84484‬: कथाकार का दायरा बहुत विस्तृत होता है उसको समग्र रुप में समझ पाना  आम पाठक के बूते की बात नहीं। कोई कितना समझ पाया यह उस के लेवल पर निर्भर है।
[02/02 13:28] Pravesh: सही है ,विजय जी
[02/02 13:40] ‪+91 86290 84484‬: लेखक का कौशल देखिए कि उन्होंने एक दृश्य को सहज बनाने के लिए फिल्मी बिंबों का बहुत ही सरल और सहज प्रस्तुतिकरण कर बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया......   समुंद्र की लहरों का मचलना, आग की लपटों का उठना, और 70 के दशक की फिल्मों का फूलों से फूलों का टकराना, भंवरे का रस चूसना....... वाह
[02/02 14:20] ‪+91 94257 11784‬: श्री निरंजन श्रोत्रिय की कहानी,  शरणागत साधारण ढंग से लिखी गई असाधारण कहानी है ।श्री श्रोत्रिय ने उसे आरंभ करते हुए एक सच्ची घटना का बयान कहा है और हर किसी को उसे  दर्घटना कहे जाने की छूट दी है ।किन्तु वास्तविकता यह है कि वह न तो  घटना है और न ही दुर्घटना ।और यदि घटना ही है तो वह सीधे सीधे मनजगत की घटना है ।
   वैसे , उस तथाकथित घटना की रात जो हुआ और जो कहानी में पूरी तरह बयां हुआ है,  वह इतना वास्तविक और सजीव है कि डॉ बत्रा का कोई तर्क उसका न होना सिद्ध नहीं कर पाता ।कम से कम कथानायक का समाधान  तो वह नहीं ही कर पाते ।परन्तु कथानायक की पत्नी इस घटना के रहस्य को अनावृत्त करती है ।उसका कहना है ,'देखो डार्लिंग,  रेगिस्तान में हिरण पानी की छाया के पीछे बेतहाशा भागता रहता है..उसे प्यास और निराशा के अलावा क्या मिलता है ?...यदि तुम बाहर की अपूर्णता अपने भीतर की अपूर्णता के बरक्स देख सको तो शायद इस अंधी दौड से मुक्त हो सकते हो....।
  इस तरह इस कहानी के अनुसार , जिस भौतिक संसार में हम रहते हैं उससे जुडा और उस जैसा ही वास्तविक प्रतीत होनेवाला मनोमय जगत भी है और जिसमें हमारी अव्यक्त या दबी पडी या दमित अपेक्षायें  जब तब आकार लेती रहती हैं ।
 इस कहानी का कथ्य मनोविज्ञान या परामनोविज्ञान के अहाते को छू रहा है ।किन्तु वह भौतिक जगत से विछिन्न या दूर नहीं है ।वस्तुतः यह  कहानी हमारे जीवन से जुडे एक सूक्ष्म सत्य को बडी मोहकता से उजागर करती है ।ऐसी अद्भुत और अत्यन्त विशिष्ट कहानी के लिए श्री निरंजन श्रोत्रिय जी का अनेकशः अभिनंदन ।और मंच का बहुत बहुत साधुवाद ।
[02/02 14:23] ‪+91 86290 84484‬: एक 22 साल की स्टूडेंट लड़की नायक की पीठ पर उंगली से अपना नाम लिखते हुए सब कुछ सहज स्वीकार कर आनंदित भी होती है। कहानी का बड़ा ही रोचक पहलू है क्योंकि यह क्षण किसी भी लड़की के लिए पहली वार यंत्रणा भोगने जैसे ही रहते हैं। हम लेखक की चूक का पीछा करते रहे मगर उन्होंने बड़ी ही सफाई से खराब लड़की   बयां कर कहानी को संभाला और प्रकृति सहज चेष्टाओं का निर्वहन कर कहानी को खूबसूरत आयाम दिया।


[02/02 14:36] Pravesh: विजय जी हम पाठक कहानी के चारों और विचरते कई कोणों से उसको समझने की जुगत करते है ।और सबसे सुखद बात यह है की आज आपने  सूक्ष्म से सूक्ष्म तथ्य को भी अपनी दृष्टि से नही छोड़ा ।

धन्यवाद
🙏
[02/02 14:42] ‪+91 86290 84484‬: प्रवेश जी कोई कोई कहानी आती है जो एक मजबूत किले की तरह होती है उसमें पाठक, विश्लेषक सेंध नहीं लगा सकते। मैं ऐसी कहानियों का बहुत मुरीद हूं। आपको याद होगा सृजन पक्ष  में भेड़िए कहानी आई थी। उस पर भी घोर चर्चा हुई थी
[02/02 14:44] Pravesh: वो कहानी विशद चर्चा के काबिल है विजय जी ।
आपने सही कहा ,बहुत ही कम कहानियां है ऐसी
[02/02 14:52] ‪+91 86290 84484‬: निरंजन जी की इस कहानी का बहुत विस्तृत दायरा है कहानी एक साथ कई स्तर पर चलती है। इसे समेट पाना बहुत परिश्रम का काम है।
[02/02 14:54] Aasha Pande Manch: सच में कहानी अभेद्य किल् जैसी है.तह तक जाना सहज नहीं लग रहा है .हां इतना जरूर है कि ये कहानी अवचेतन में जमीं किसी कामना का मूर्तरूप है जो बडी सुघड़ता से घट गई.चमत्कृत करती कहानी.निरंजन जी को बधाई .मंच का आभार.
[02/02 15:12] ‪+91 86290 84484‬: अवचेतन, मन की संश्लिष्टता, मनोविज्ञान, प्रकृति और आस्था की जबरदस्त कहानी है। इस मामले में रचनाकार की सोच समझ बहुत कुछ बयान करती है। परिपक्व गूड़ संवेदनात्मक और कथा रस से सराबोर।
[02/02 15:45] Pravesh: धन्यवाद आशा  पाण्डे जी ।अवचेतन की जमीं पर छुपी कामना ,सही है ।चेतना में जिसके बारे में अनभिज्ञ रहते है वो ही कामना अवचेतन में साकार हो जाती है ।

[02/02 18:04] प्रज्ञा रोहिणी: निरंजन जी एक अच्छी कहानी के लिये मेरा पाठक शुक्रिया अदा करता है। एक बेहतरीन शिल्प की कहानी जहाँ यथार्थ फेंटेसी में घुलता है और फेंटेसी अंत में एक समाधान सरीखा यथार्थ गढ़ने की कोशिश करती है। कॉडवेल ही नहीं मुक्तिबोध ही नहीं मनोविज्ञान और सृजनात्मकता के वे सभी पहलू सामने थे जहां असम्भाव्य संभावनाओं का जन्म होता है। जहां अयथार्थवादी शिल्प अपने बिम्ब अपने प्रतीकों में यथार्थ का नया चेहरा सामने लाता है।
आवाज़ का मिल जाना जहां फेंटेसी के सिरे से समाधान है फ़ाइल का मिलना यथार्थवादी नज़रिया। और फ़ाइल भी रस सिद्धांत की-- जिसमे साधारणीकरण होने पर निज घुलकर समाप्त हो जाता है। ऊपर से रहस्य के आवरण में लिपटी, अलौकिक लगने वाली ठेठ लौकिक कहानी। बधाई आपको।

[
[02/02 18:34] Alka Trivedi: बहुत ही अच्छी मनोवैज्ञानिक कहानी । शुरू से अंत तक बांधे रखने में सफल ।
[02/02 18:53] ‪+91 98260 44741‬: अचेतन की जबरन दबाकर रखी गयी इच्छाओं का दृश्यमय जगत में एकांत में आकर साकार होना। बहुत ही सहज रूप से गूँथी हुई मनोवैज्ञानिक कहानी। उस पर पुरुषोचित अहम क़ि मन में ग्लानि का कोई भाव भी नहीं। जिस अतृप्त इच्छा को तृप्त करना था कर लिया। जी लिया उन क्षणों को पूरी तरह जिन्हें वास्तविकता में नहीं जी पा रहे थे। मनुष्य के मन की छुपी हुई सच्चाई का सुन्दर वर्णन। शुरू से लेकर अंत तक कहानी बांधे रखती है। 🙏🙏🙏🙏🙏
[02/02 18:58] Pravesh: विनीता जी आभार ,पुरुष अहम की ग्लानि भी नही हुई ।

कितना सही है यह भाव ।
विचारनीय है ।
[02/02 19:00] प्रज्ञा रोहिणी: रस सिद्धांत की फ़ाइल का मिलना फेंटेसी के जरिये यथार्थ में रस का संचार हो जाना भी हो सकता है। या फिर जड़ शास्त्र का जीवन में उतरकर गतिशील होना भी। एक कहानी के अनेक पाठ।
[02/02 19:07] Rajesh Jharpare Dastak Kahani: निरंजन श्रोत्रियजी की कहानी शरणागत को पढ़ने के बाद लगातार मैं मनन करता रहा कि यह सत्य घटना है या अवचेतन मन में उठी अतृप्त आकांक्षाओ का मूर्त रूप ।

एक बार इस तरह भी सोचा कि रात को देखे सपने सुबह तक कभी पूरे याद नहीं रहते फिर लेखक ने किस तरह इस घटना का सजीव चित्रण कर दिया । हो न हो यह एक सत्य घटना है । नायक सम्भवतः जो लेखक भी है ने निजानुभव को शब्दों का जाम पहना तो दिया और अन्त में सोचा होगा इस तरह तो उनके व्यक्तित्व और चरित्र का हनन हो रहा है तो एक फैन्टेंसी रच दी की अनुप्रिया की आवाज़ उनकी पत्नी से हूबहू मिलती थी ।

रस सिध्दान्त की फाईल का गुम हो जाना और वापस आ जाने के पीछे कोई ठोस तर्क कहानी में अनुपलब्ध है । इसे पाठक के विवेक पर छोड़ दिया गया जैसा कि अनुराग पाठक जी ने समझा और व्यक्त किया ।

कुछ झूठ ऐसे होते है जिन्हें बेहतरीन अभिनय के साथ कहा जाये तो सच जैसे लगते है । ठीक इसके विपरित कुछ सत्य ऐसे होते है जो कितनी ही ईमानदारी से कहे जाये झूठ ही लगते । इस तरह के सच और झूठ के बीच इतनी महीन रेखा होती है कि चिन्हा ही नहीं जा सकता ।

और अन्ततः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सत्य असत्य से परे यह एक बेहतरीन कहानी है जो मानव की अतृत्व इच्छाओं का उसके अवचेतन मन पर किस तरह हमला करती है कि वह वास्तविक जीवन में तिलमिलाकर रह जाता है जैसे कहानी का नायक...

एक बेहतरीन कहानी के लिए निरंजन भाई साहब को बधाई।

प्रज्ञाजी यह कहानी लेखक के कहानी संग्रह धुन्ध से ली गई है । शिल्पायन से प्रकाशित है ।
[02/02 19:34] Saksena Madhu: एक फ़िल्म आई थी सबको याद होगी ...'नवरंग ' उसमे नायक अपनी पत्नी बहुत प्यार करता है और उसे खुली आखों से स्वप्न में विभिन्न रूपों में देखकर गीत रचता है और पत्नी का नाम भी बदल देता है जबकि उसके हर अहसास में पत्नी ही होती है और गलत फहमी का शिकार हो जाता है पत्नी, पति पर शक करती है और बाद में सारे रहस्य खुलते हैं  ये कहानी भी उसी दिवास्वप्न की तरह है जिन्हें लेखक सत्य मान लेता है ।
कहानी की भाषा ,भाव ,कथानक के साथ लय से चलते है ।उत्सुकता बनी रहती है और अंत भी निराश नहीं करता ।अलग तरह की मनोवैज्ञानिक कहानी खूबसूरती से ताने बाने बुनती है । लेखक की ईमानदारी  अच्छी लगी उससे  भी ज्यादा पत्नी का पति पर विशवास अच्छा लगा ।बेहतरीन कहानी के लिए बधाई लेखक को ।आभार राजेश जी ।
[02/02 19:36] प्रज्ञा रोहिणी: राजेश जी रस सिद्धांत की फ़ाइल का मिलना ही फेंटेसी के पीछे कार्यरत अनेक प्रतीकों की श्रृंखला है।
एक और प्रतीक घुमड़ रहा है। फ़ाइल में बंद पड़े रस का व्यवावहारिक जीवन में उतर आना।
[02/02 19:42] Saksena Madhu: रस सिद्धांत की फ़ाइल भी कुछ कहती है कहानी में ।क्योकि फ़ाइल किसी और विषय की भी हो सकती थी

[02/02 19:49] प्रज्ञा रोहिणी: जी बिलकुल मधु जी। उसके संदर्भ लेखक ने कहानी में कुछ दिए भी हैं नैतिकता का आग्रह और लड़कियों से प्राध्यापक का सायास दूर रहना भी।

[02/02 19:59] राजेश झरपुरे जी: प्रज्ञाजी,,,, और यही दूरी अवचेतनावस्था में उन्हें इतने पास ले आई जहाँ  नैतिकता का कोई प्रश्न नहीं उठा ।
कुछ तो है इस कहानी में जो अबूझ है। लेखक महोदय अपने वक्तव्य में  शायद कुछ कहे।

मधुजी से सहमति के साथ

[02/02 20:01] प्रज्ञा रोहिणी: दरअसल विभ्रम रचने की सफलता यही कि ये एक निष्कर्ष पर कभी नही पहुंचाता
[02/02 20:02] ‪+91 86290 84484‬: रचना का प्लाट कैसे मन में आया....... यह प्रश्न हर अच्छी कहानी पर उछलता है।
[02/02 20:03] Padma Ji: निरंजन सर की बहुत अच्छी कहानी। फेंटेंसी , मनोविज्ञान,यथार्थ सबकी उपस्थिति ने कहानी को ऊंचाई तक पहुँचाया है। फ्रायड की बात प्रतिफलित हुई है- हमारी अतृप्त इच्छाएँ और कामवासनाये दमित होकर पीछे चली जाती हैं और समय मिलते ही वे हमारे स्वप्न और कल्पनालोक में विचरती हैं। संभवतः उस दिन ही उन्हें लड़की ने यह बताया हो कि उनके रस सिद्धांत की फाइल वह सुप्रिया से पहुन्चवाएगी । अकेले में सुप्रिया की कल्पनाशीलता लेखक पर हावी होने लगी।
1 हाँ एक बात और कहानी में शुरू से ही लेखक सुप्रिया नाम कहता रहा जबकि उसने अपना नाम तो बेडरूम में पीठ पर लिखकर बताया था उससे पूर्व नहीं।
2 बाद में वही वह फाइल देने आयी
3 लेखक की नैतिकता खुद पर हावी है जिसे वह कल्पना में भी तिरोहित होते नही देखना चाहता।


[02/02 20:11] Niranjan Shotriy sir: पद्मा जी इस कहानी का लेखक बॉटनी का प्रोफेसर है लेकिन उसकी पहचान यह नहीं है। इस तथ्य को भी कहानी के विश्लेषण के साथ रखा जा सकता है।
[02/02 21:06] Niranjan Shotriy sir: मेरे आत्मीय मित्रो! आज 'मंच'(कहानी) पर कहानी "शरणागत" पर आप सभी प्रबुद्ध मित्रों ने बहुत ही आत्मीय लेकिन गहन विश्लेशणपरक चर्चा की। इसे मैं आज की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूँ। आपकी बेहद ज़रूरी टिप्पणियों ने मुझे अत्यंत समृद्ध किया है और आज मेरा दो चीजों पर विश्वास कुछ और दृढ़ हुआ है:
1- पाठक की भूमिका
2- कहानी
मैं सिलसिलेवार कृतज्ञ हूँ भाई विजय उपाध्याय, मधु सक्सेना जी, संध्या कुलकर्णी जी, प्रवेश सोनी जी, अर्चना मिश्रा जी, भाई अनुराग पाठक, शिवानी शर्मा जी, जगदीश तोमर जी, आशा पांडे जी, प्रज्ञा जी, अलका त्रिवेदी जी, विनीता राहुरिकर जी, पद्मा शर्मा जी और एडमिन राजेश झरपुरे जी कि आप सभी ने इस कहानी पर अपनी मीमांसा दी। ये मेरे लिए धरोहर है और उत्साहवर्धक भी।
मित्रो, मैंने एक मनुष्य के अवचेतन, मन के संस्तरों की संश्लिष्टता, मनोविज्ञान, प्रकृति, आस्था और प्रचलित सामाजिक मूल्यों के जरिये अपनी बात कहने की कोशिश की है, कितना सफल रहा ये आप तय करें।
इस कहानी में विभ्रम भी हैं और अनुत्तरित प्रश्न भी। मुझे भी नहीं पता....मैं अपनी ही कहानी में इन उत्तरों को खोजता हूँ लेकिन जवाब न मिलने पर भी निराश नहीं हूँ क्योंकि कहानी का अभीष्ट केवल चन्द सवालों के उत्तर खोजना नहीं है। मैं प्रज्ञा जी की इस बात से अवश्य सहमत हूँ कि इसके कई पाठ हो सकते हैं। एडमिन राजेश जी का आभार कि उन्होंने इस कहानी पर इतनी सार्थक चर्चा करवाई।
नमस्कार।
निरंजन श्रोत्रिय
[02/02 21:15] Niranjan Shotriy sir: आप लोग सतर्क रहें। यदि आप मित्रों ने इतना ही प्यार दिया तो आपको मेरी कुछ और कहानियाँ पढ़नी पड़ेंगी। 😎
[02/02 21:18] Niranjan Shotriy sir: और अपने एक मित्र (यह मेरी पत्नी की भी राय है) की राय का क्या करूँ जो ये कहते हैं कि मुझे कविता छोड़ कर कहानियाँ ही लिखना चाहिए।😢😢😢😢

[02/02 21:27] Niranjan Shotriy sir: प्रवेश, जागरूक पाठक हैं, तभी तो यहाँ साझा करने का मन हुआ। मेरा दृढ़ मत है कि कोई भी रचना चाहे वो कहानी हो या कविता या नाटक या चित्र या संगीत.....उसे पाठक/दर्शक/श्रोता ही ज़िंदा रखते हैं। बाकी आप प्रायोजित कितना भी करवा लें।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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