Saturday, January 21, 2017

 ज्ञानेन्द्रपति
जन्म 01 जनवरी 1950
जन्म स्थान ग्राम पथरगामा,     झारखंड, 

प्रमुख कृतियाँ
आँख हाथ बनते हुए (1970); शब्द लिखने के लिए ही यह कागज़ बना है (1981); गंगातट (2000); संशयात्मा (2004); भिनसार (2006), पढ़ते-गढ़ते(कथेतर गद्य),कवि ने कहा(कविता संचयन)
सम्मान
वर्ष 2006 में ‘ संशयात्‍मा’ शीर्षक कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा पहल सम्‍मान, बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्‍मान व शमशेर सम्‍मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।


 ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के एक विलक्षण कवि-व्यक्तित्व हैं। ज्ञानेन्द्रपति की जड़ें लोक की मन-माटी में गहरे धँसी हैं।उनकी काव्य-भाषा उनके समकालीनों में सबसे अलग है। उनके लिए न तो तत्सम अछूत है, न देशज। शब्दों के निर्माण का साहस देखने योग्य है। ज्ञानेन्द्रपति की कविता एक ओर तो छोटी-से-छोटी सचाई को, हल्की-से-हल्की अनुभूति को, सहेजने का जतन करती है, प्राणी-मात्र के हर्ष-विषाद को धारण करती है; दूसरी ओर सत्ता-चालित इतिहास के झूठे सच को भी उघाड़ती है। धार्मिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता वह सब के मुक़ाबिल है।
 तो मित्रों, ये कविताएँ आपको कवि से परिचित कराते हुए बातचीत के लिए भी प्रेरित करेंगी, ऐसा विश्वास है। विवेक निराला














वे दो दाँत-तनिक बड़े

वे दो दाँत-तनिक बड़े
जुड़वाँ सहोदरों-से 
अन्दर-नहीं, सुन्दर
पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण
होंठों के बादली कपाट 
जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते
और कभी पूरा नहीं मूँद पाते 
हास्य को देते उज्ज्वल आभा
मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा
लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य
वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं-
अलकापुरीवासिनी
लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी
गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव
हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या
जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं 
न होमसाइंस का डिप्लोमा
न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना
न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास-
वह सब कुछ नहीं 
बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े
सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से 
दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच
दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर
कौतुल में निर्मल हो आती हैं

वे दो दाँत-तनिक बड़े 
डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं 
एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से 
विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं
कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं
वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं 
वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें 
शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में 
वे चाहते हैं पिघल जायें,
रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में 

रात के डुबाँव जल में डूबे हुए 
वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए 
धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से 
फटती छातीवाले-
जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं
वह कब आयेगा उबारनहार
गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में 
शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे
भूलभुलैया पथों
और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को
लाँघता 
आयेगा न ?
कभी तो !
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खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित

खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से

उस जगह लाल गाल वाले टमाटर बोये जायेंगे
टमाटर ही टमाटर
जैव प्रयोगशालाओं में परिवर्तित अन्त:रचनावाले
स्वस्थ-सुन्दर-दीर्घायु
गुदाज़ होगी उनकी देह
अनिन्द्य होगा उनका रस
बोतलों में सरलता से बन्द होकर
शुष्कहृदयों को रसिक बनायेंगे
रसिकों को ललचायेंगे
और रसज्ञों को भायेंगे
वे टमाटर
इनके खेत और उनके घर भरेंगे
उनके गुण गाते न थकेंगे गुणीजन
उनकी अनुशंसा होगी , प्रशंसा होगी
वे योगानुकूल माने जायेंगे निर्विवाद
मानव-संसाधन-मन्त्रालय के अन्तर्गत
संस्कृति विभाग में
गुपचुप खुला है एक प्रकोष्ठ
कृषि-मन्त्रालय के खाद्य प्रसंस्करण प्रभाग के साझे में
क्योंकि अब लक्ष्य है निर्यात और अभीष्ट है विदेशी पूँजी-निवेश
और यह है निश्चित
कि देसी और दुब्बर खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से
क्योंकि अब
इतिहास की गति के भरोसे न बैठ
इतिहास की मति बदलने की तकनीक है उनकी मुट्ठी में

खो जाऊँगा
जिस तरह खो गयी है
बटलोई में दाल चुरने की सुगन्ध
अधिकतर घरों में
और अखबारों को खबर नहीं
अख़बारों के पृष्ट पर
विज्ञापनों से बची जगह में
वर्ल्ड बैंक के आधिकारिक प्रवक्ता का बयान होगा
खुशी और धमकी के ताने-बानेवाला बयान
जिसका मसौदा
किसी अर्थशास्त्री ने नहीं
किसी भाषाशास्त्री ने नहीं
बल्कि सामरिक जासूसों की स्पेशल टीम ने
टास्क फोर्स ने
तैयार किया होगा
ढँकने-तोपने-कैमाओफ्लेज-में माहिर
पेन्टागन और सी. आई.ए. के चुनिन्दा युद्धकला-विशारद अफ़सरों के
एक संयुक्त गुप्त दल ने ।

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 ट्राम में एक याद
 चेतना पारीक कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ ख़ुुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?

तुम्हें मेरी याद तो न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी क़द-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो?

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एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ

1
यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है।
इसमें क्या है ? एक बन रहा शिशु-भर ?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना। बस ?

कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की 
तुम क्या जानो
कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह कुत्ता, उछलता वह मेढक
रँभाती गाय, बाड़ कतरता माली, क्षितिज पर का सूरज
सब उसके अंदर चले गये हैं
और तुम भी

2

निरन्तर निर्माण में रत है तुम्हारा उदर
तुम्हारा रक्त, तुम्हारी मज्जा, तुम्हारा जीवन-रस
सब मिल कर जो रच रहे हैं
वह क्या है ? एक
कनखजूरा
जो अकस्मात किसी बूट के नीचे आ जायेगा।
या किसी आदमजाद को डँसने के प्रयास के अपराध में
थुरकुच कर
सफ़ाई के खयाल से सड़क पर से किनारे हटा दिया जायेगा
-वही एक
कनखजूरा ? घेर कर जिसके लिथड़े शव को
खड़े होंगे गाँव के सारे सम्भ्रान्त लोग ईश्वर को धन्यवाद देते
और यदि कोई विद्रोही कवि हुआ वहाँ ईश्वर और सफ़ाई
और स्वयं
पर थूक कर लिख देगा जिस पर एक कविता और
आकर ओढ़ चादर सो जायेगा। वही
एक कनखजूरा रच रही हो तुम ?

किसी अबोध की तरह ताकती हो मेरा प्रश्न। तुम्हें
पता नहीं अपने फूले हुए पेट में सहेजते हुए जिसको 
पिला रही हो अपना रक्त, श्रम, चौकसी
वह क्या है ? मुझे है 
पता
यह न हो वही कनखजूरा
पर हो जायेगा।

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 गमछे की गन्ध

चोर का गमछा
छूट गया
जहाँ से बक्सा उठाया था उसने,
      वहीं -- एक चौकोर शून्य के पास
गेंडुरियाया-सा पड़ा चोर का गमछा
जो उसके मुँह ढँकने के आता काम
कि असूर्यम्पश्या वधुएँ जब, उचित ही, गुम हो गई हैं इतिहास में
चोरों ने बमुश्किल बचा रखी है मर्यादा
अपनी ताड़ती निगाह नीची किए

देखते, आँखों को मैलानेवाले
उस गर्दखोरे अँगोछे में
गन्ध है उसके जिस्म की
जिसे सूँघ
पुलिस के सुँघनिया कुत्ते
शायद उसे ढूँढ़ निकालें
दसियों की भीड़ में
हमें तो
उसमें बस एक कामगार के पसीने की गन्ध मिलती है
खट-मिट्ठी
हम तो उसे सूँघ
केवल एक भूख को
बेसँभाल भूख को
ढूँढ़ निकाल सकते हैं
दसियों की भीड़ में।


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ज्ञानेंद्रपति जी की कवितायें  चर्चित कवि की श्रेणी  के अन्तर्गत साहित्य की बात समूह में श्री विवेक निराला जी द्वारा प्रस्तुत की गई ,जिन पर सदस्यों ने विस्तृत चर्चा की |समूह के संचालक है श्री ब्रज श्रीवास्तव |

प्रतिक्रियायें 

 ब्रज श्रीवास्तव: ये सचमुच अलग तरह की, बिंब घनत्व की ताजा तरीन कविताएँ हैं, ज्ञानेंद्रपति की ये कविताएँ हमें, हमारे कवि मानस को समृद्ध करतीं हैं, दांत के हवाले से एक लड़की के हाल की कविता पहली बार कहीं पढ़ी, ||बाकी बाद में...

सुरेन: चेतना पारीक कैसी हो ... यह कविता तो ज्ञानेंद्र पति जी की ऐसी कविता है जो बहुत पहले जब पहली बार पढ़ी थी ,तब से ही मन में बस गयी । क्या गज़ब कविता है

Saiyad Ayyub Delhi: ज्ञानेंद्रपति कविता को जीने वाले कवि हैं, कविता लिखने वाले नहीं। कविताएँ उन पर वैसे ही नाज़िल होती हैं जैसे पैग़म्बरों पर 'वही' नाज़िल हुआ करती थीं। बड़ा कवि वह है जिसकी कविताएँ उसके नाम से बड़ी हो जायें। चेतना पारीक वाली कविता ऐसी ही कविता है। बहुत सारे लोगों को इस कविता का शीर्षक नहीं पता है। कवि का नाम नहीं याद है पर इस कविता की याद उन्हें हैं क्योंकि अपने पहले पाठ से ही यह कविता उनके मानस पटल पर अपने निशान छोड़ जाती हैं। उनकी कई कविताएँ ऐसी ही हैं। शुक्रिया विवेक भाई उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये।

 Dinesh Mishra: ज्ञानेन्द्र पति जी की कविताएँ बहुत अच्छी और अद्भुत लगीं,  छोटी छोटी सी चीजों पर गहन अनुभूति की शानदार अभिव्यक्ति हैं ये कविताएँ, इन कविताओं को एक बार उन लोगों को ज़रूर पढ़नी चाहिए,  जो समकालीन कविताओं को कवितायें ही नहीं मानते, उन्हें भी एक बार सोचना पड़ेगा की क्या इतनी असरदार अभियक्ति लयबद्ध या छन्दबद्ध रचनाओं में मुमकिन भी है की नहीं।
अच्छी कविताओं के लिए बधाइयाँ और समूह में प्रस्तुति का धन्यवाद।

कविता वर्मा: चेतना पारीक गमछे की गंध और दो दांत अद्भुत कविताएँ हैं। जिस बारीकी से इन्हें बुना गया है वह हैरान करता है। आभार इन्हें पढवाने के लिये।

918720802790: ज्ञानेंद्र पति की खेसाड़ी दाल कीतरह कविता का बिंब विस्मित करता है कितने सहज उपमान से कवि इतनी गहराई तक जाकर तथ्यों  की पड़ताल करते हैं।उनकी निर्भीकता  सदैव आकर्षित करती है।कविता की  ही तरह सहज उनका व्यक्तित्व भी  है,लगभग एक दशक पूर्व भिलाई के एक प्रतिष्ठित मंच हे उनकी  कविताएॅ सुनने और प्रत्यक्ष मिलने का मौका मिला उस वक्त भीउनके सहज व्यक्तित्व ने आकर्षित किया था ।

 संध्या कुलकर्णी: कनखजूरा मुझे कभी अच्छी नहीं लगी और पहली कविता गर्भवती औरत के प्रति संवेदनाओं को जुगुप्सा से भर देती हैं इतने कोमल एहसास की ऐसी कल्पना नहीं लुभाती 💥

 Rekha Dubey: ज्ञानेंद्र पति जी की कविताएं  चिंतन करती हुई सी प्रतीत होती है  सारगर्भितऔर मन के गहरे तक पैठ बनाती हुई पैने व्यंग से भरी हैं कहीं कहीं

Akhilesh: ज्ञानेन्द्र जी उन सूक्ष्म संकेतो को कविता का विषय बना उसे एक बड़ी फलक की कविता में तब्दील कर देते है जहाँ अनूमन उनके समकालीनो की नजर नहीं पडती ।उनके लिये बड़े विषय उतने महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण है किसी भी विषय में कविता की संभावना । उन्हीं उपेक्षित व बिखरे विषयों से एक बिम्ब तैयार कर उसे कविता में खड़ा कर देना जो किसी बड़े संदर्भ को व्याखित कर एक समाधान की संभावना पैदा कर दे ,ज्ञानेन्द्र जी की रचना कर्म का उत्स है ।
एक गर्भवती औरत के प्रति जो दूसरी कविता है उसमें ज्ञानेन्द्र जी जो कनखजूरे का बिम्ब रचते हैं उसमें एक अति साधारण मानव भ्रूण है जिसे ताकते कभी भी दर किनार कर देती है,वो कभी भी बूट से कुचला जा सकता है ध्यान से सुने तो यह आवाज किसी गरीब शोषित पर काटने को अभिशप्त विद्रोही की भी हो सकती है जिसे हम,आप या सरकारे नक्सल कहती है और जिनके लिए सरकारों के पास बस बूट है ,हमारी जरूरत बस तमाशाई जितनी है ।
वह इतने आशा वादी है कि उन्हे विरोध के स्वरो पर चाहे वह कविता के शब्द रूप में ही क्यों न हो पूरा भरोषा है ।उन्हें इस व्यवस्था को चेताते रहते हेतु कनखजूरो की जरूरत है भले ही वो विरोध के किसी भी मार्ग का स्वर रखते हो ।
यह इस कविता का मेरा पाठ है कोई और दृष्टि हो जिससे इस कविता को पढ़ा या समझा गया हो तो स्वागत है ।

 संध्या कुलकर्णी: आपका पाठ आपका विज़न दिखाता है अखिलेश मैंने इसे स्त्री के नज़रिये से  देखा हर पाठक का अपना पाठ होता है और विस्तार भी ।किसी भी कवि की सभी रचनाएं सरवोत्कृष्ट नही होतीं और सम्भवत:अनुभूति के स्तर पर जैसा भाव आये वही कविता को विश्लेषित करता है ज्ञानेन्द्रपति जी मेरे भी प्रिय कवि हैं ।आपका विश्लेषण बहुत बढ़िया है 👌💥

भावना जी: ज्ञानेन्द्र पति उन दुर्लभ कवियों में से एक हैं जिन्हें पढ़ते हुए हम एक अलग दुनिया में होते हैं ।इनकी कविताओं में देसज शब्दों का इस्तेमाल इतनी खूबसूरती से होता है कि हम भौचक रह जाते हैं ।ट्राम में एक याद ...एक बेहतरीन कविता है ।पूरी कविता में एक लय है जो हमें बाॅधे रखती है ।
कवि से मैं मिली हूँ ।अपने कविता की तरह बेहद सहज , सरल ।मैंने उन्हें अपनी किताब भेंट की तो ......सीट से खड़े हो गए और बड़े आदर के साथ लिया ।बनारस लौट के न केवल उसे पढा अपितु विस्तृत टिप्पणी दी ।
मैं उनके व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हूँ ।बड़े रचनाकार जो वाकई बड़े होते हैं वो उतने ही विनम्र होते हैं ।
मंच पर प्रस्तुत सभी रचनाएँ बेहतरीन हैं ।रचनाकार एवं चयनकर्ता दोनों को बधाई ।🙏🙏

Dushynt .: अद्भुत कविताएँ। लेखन नयापन लिए है, कविताओं में नाम का प्रयोग बिलकुल अनोखा और साहसिक है। दो दांत तनिक बड़े ऐसा विषय चुनना , खेसाड़ी दाल की तरह ऐसे शीर्षक ही उत्सुकता जागते हैं कि आखिर क्या लिखा होगा।ट्राम की एक याद और गमछे की गंध भी बहुत कम में बहुत कुछ कहती हैं। कवी ने अपने व्यक्तिगत तजुर्बे को परोसा है और पाठक अपने अपने तरह के ज़ायके कविताओ में धूड़ सकते हैं।। बहुत बढ़िया प्रस्तुति।।🙏🙏
 Dipti Kushwah: मुझे लगता है, ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी  विशेषता इस बात में है कि उनकी जैसी विषय-विविधता अन्य नहीं मिलती । कविता के लिए अनुपयुक्त प्रतीत होने वाले विषय पर भी वे अनुपम कविता रचते हैं ।
साकीबा को धन्यवाद ।
 सुरेन के. सिंह : ज्ञानेन्द्रपति जी की कविताएं अपने कहन में प्रगतिशीलता को इस भांति रखते है कि उनका कथ्य ,संवेदन ,भाषा ,शिल्प , विचार , लय आदि सब एक ऐसा फ्रेम रचते है पाठक के सामने की पाठक दूर से उन्हें पहचान लेता है । वह कविता में अपने समय को व्यक्त करने में आवेग और आवेश से नही बल्कि उसे ऐसे बिंम्ब और सौंदर्य से प्रस्तुत करते है कि पाठक के अपने आस पास का माहौल जीवंत हो उठता है । उस माहौल में पाठक महसूस करता है कि कैसे कवि अपने समय की चिंताओं को धीरे धीरे उकेरता  है ,कैसे उन्हें प्रकृति से कॉरिलेट करता है ,कैसे एक आशा भरी एक किरण भी देता है ,कैसे एक यूटोपिया ऐसा भी हो जो यथार्थ  पर ओढ़ाया जा सके , कैसे उन उम्मीदों का स्वर विनीत होते हुए भी दृढ होता है । ,.....और ये सब  ,  एक कवि के भाषा को लेकर अनुराग के साथ उभरता है ।

 मैथिल: आज पटल पर प्रस्तुत कविताएँ अद्भुत और बहुत मार्मिक है ।
ट्राम में एक याद खासा प्रभावित करती है ।इस कविता में सार्वजनिक वनाम निजी का द्वंद्व है जो नितांत समसामयिकता के इस दौर में इसको और भी प्रासंगिक बनाता है ।
ज्ञानेंद्र पति जी को बधाई और विवेक निराला जी का बहुत आभार ।🙏🙏💐💐

प्रवेश सोनी : आज की कविताओं को पढ़ कर वही लगा जो सभी ने कहा ।अनोखापन है इन कविताओं में ।
अनूठे विषय और उनका अद्भुद विस्तारण ।
कवि की भाषा कविता को जो सौन्दर्य प्रदान कर रही है वो अभी तक पढ़ी गई कविताओं में  नही देखा ।
आज की प्रस्तुति के लिए विवेक निराला जी का बहुत बहुत आभार कि उन्होंने एक विरले कवि के लेखन से परिचय करवाया ।

सुरेन के. सिंह 
कविता अपनी शुरूआत एक आमफहम  प्रेम कविता सी करती है पर एक अद्भुद लय में । इस नई कविता की लय पर भाव कैसे उमड़ते है ,ये महसूस् करने योग्य है ।
फिर कविता  नॉस्टैल्जिक हो जाती है । हर पंक्ति एक प्रश्नवाचक से खत्म होकर भी प्रश्नों से एक ऐसा नॉस्टैल्जिक वितान कवि रचता है जो व्यक्तिगत होकर भी समष्टिगत प्रतीत होता है ।  तदोपरांत इस नॉस्टेल्जिया से कवि निकल अपने समय से दो चार होता है । पाठक को बताता है कि वो किस महानगरीय जीवन के साथ अपने अनुभव को साझा कर रहा है । 
फिर मुड़ता है वो प्रकृति की ओर और अपनी सम्वेदनाएँ उससे जोड़ कर प्रेम के व्यक्तिगत सरोकार को हर व्यक्ति के सरोकारों से जोड़ता हुआ कविता को एक ऐसे संवेद पर छोड़ देता है जहां एक आशा  है ,जहां मनुष्य के होने की सार्थकता का प्रश्न कविता को छोड़ पाठक के मन में कही घुल जाता है ।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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