Thursday, December 15, 2016


एक ज़माना था, जब कवि खुद संपादक होते थे, और ख़ुद ही प्रकाशक होते थे, |तब लेखकों में संपादक का और प्रकाशक का किरदार भी गुंथा होता था, उस ज़माने में साहित्य विशुद्ध व्यवसाय न होकर साहित्य की स्थापना के लिए होता था, पर आज ऐसा कोई ही प्रकाशक होगा जो स्वयं रचनाकार भी हो, माया मृग के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह ऐसे ही रचनाकार हैं, कहना न होगा कि माया मृग की कविताएँ, आमद की ज़्यादा  लगती हैं, सायास कम लगती हैं| वह जैसे कविता की ऐसी नदी बहा पाते हैं जिसमें भाषा - पानी, धार - कथ्य, संदेश-, रंगों की तरह होता है और पाठक किनारे पर खड़ा हुआ कविता की इन गहराईयों को समझ संवेदित होता हुआ नज़र आता है| आज वाटस एप समूह साहित्य की बात यानि साकीबा में, बोधि प्रकाशन के संचालक, और सुकवि, माया मृग की कविताएँ प्रस्तुत हुईं थीं , जिन पर जानदार चर्चा हुई| साथ ही मधु सक्सेना, एवं प्रवेश सोनी के साथ साकीबा के संचालक ब्रज श्रीवास्तव ने बातचीत की. 
*ब्रज श्रीवास्तव *
प्रस्तुत है यह सब, आपके प्रिय इस रचना प्रवेश ब्लॉग में...



"कविता में जरा सी कविता जरूर हो। वट का पेड़ न सही बीज भर तो हो"
यह कहना है  कवि ,सम्पादक  ,प्रकाशक श्री माया मृग  जी का ,जिन्होंने साहित्य की बात समूह में दिए सदस्य मित्रो के सवालों के जवाब ......



❇साक्षात्कार ❇
प्र0:1  आपका सृजन कब और कैसे शुरू हुआँ,लेखन की प्रेरणा कहाँ से मिली ?

उ0:   ठीक से कहना मुश्किल है पर लिख्‍ाित रुप में मेरी पहली डायरी में पहली कविता 25 जनवरी 1980 को दर्ज है। उससे पहले कुछ कुछ इधर उधर कागजों पर ीिखा होगा या स्‍कूल की कापियों के पिछले पन्‍नों पर--- जिनका अब कुछ अता पता नहीं।
घर में लिखने पढ़ने का माहौल था, पिताजी की अच्‍छी खासी घरेलू लाइब्रेरी थी--- जिनकी ि‍कताबों की धूल झाड़ने का काम अक्‍सर मेरे हिस्‍से अाता था घर में सबसे छोटा होनेके कारण---। किताबों से प्रेम शायद वहीं से शुुरु हुआ होगा। गीताप्रेस गोरखपुर की किताबों से शुरु हुुआ और हिन्‍द पाकेट बुक्‍स की किताबों के जरिये साहित्‍य से जुड़ाव---। इसी के बीच कहीं ीिलखना भी शुरु होगया---


प्र0:2  बोधि प्रकाशन आज शीर्ष पर है ,सफ़र  की शुरूवात से इस मक़ाम तक पहुँचने में कोई बड़ी कठिनाई?

उ0:  सबसे पहले तो यहां संशोधन जरुरी। शीर्ष जैसा कुछ नहीं है, बोधि प्रकाशन केवल अपनी ओर से प्रयास कर रहा है और उसमें व्‍यवसाय भी शामिल है। मुकाम तक पहुंचने की कठिनाई तो हर कदम है ही-- किताबों के हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में जगह ना मिलने या कि क्रम में नीचे जगह मिलने से। यात्रा है, जारी है, कोई बड़ा पड़ाव अभी नहीं आया इसलिए यह कहना मुश्किल है कि सफल होने का रास्‍ता कया है--। एक रास्‍ता जो समझ आया, उस पर चल पड़े हैं--- कहीं तो पहुंचेंगे--- इस यकीन के साथ।


प्र0:3  कवि होते हुए प्रकाशक होना, कुछ विरोधाभासी नहीं लगता आपको...?


उ0: कविता लिखना पहले शुरु हुआ 1980 से ही मान लूं तो-- प्रकाशन शुरु किया 1995 में। इस तरह कविता से प्रेम पहला प्रेम है-- प्रकाशन उसी प्रेम का विस्‍तार भर है। इसमें विरोधाभासी तो कुछ है ही नहीं-- पूरक जैसा ही भले हो कुछ। प्रकाशक होकर हर समय कविताएं पढ़ने सुनने का अवसर मिलता है, खुद को भी बेहतर करने का मौका मिलता है, अच्‍छा ही है यह। व्‍यावसायिक रुप ेस कभी कभी कविसुलभ संवेदनाएं आड़े आ जाती हैं तो आर्थिक रुप ेस नुकसान के काम भी कर बैठते हैं--- पर चलता है इतना तो---। दिया भी तो प्रकाशन ने ही है, जरा सा इसमें लग जाए तो क्‍या दिक्‍कत।


प्र0:4  आपकी कविताओ में प्रेम और दर्शन का मिश्रण है तो कविता लिखते समय कैसा महसूस करते है ? क्या कोई ध्यान की अवस्था होती है वो ...?

उ0:  कविता हर स्थिति में एक ध्‍यान की ही अवस्‍था है। ध्‍यान का अर्थ आध्‍यात्मिक भी हो सकता है और केन्द्रित होे जाना भी। कविता सघन संवेदनाओं की अभिव्‍यक्ति ही है, ऐसे में ध्‍यान के बिना कविता होगी भी कैसे। प्रेम हम सबके जीवन में है, होता ही है, होना भी चाहिए। यह संवेनदना की सबसे सुखद परिणति है। दर्शन परंपरागत अर्थ में बहुत गूढ़ रहस्‍यों को जानने के लिए की गई परख है, वह सहज रुप में हम सबके जीवन का ि‍हस्‍सा है। इसलिए  कुछ भी अजीब नहीं लगता कि कविता में भी यही सब आए।

प्र0:5  आपकी नज़रों में कविता क्या है?
प्रेम कविता में स्वानुभूति कितनी होती है ?कोई प्रेरणा 😊?

उ0:  कविता की काव्‍य्‍शास्‍त्रीय परिभाषा में नहीं जाउंगा- बस इतना कह सकता हूं कि कविता मेरे तईं संवेदनाओं का सुविचारित प्रवाह है जो पाठक तक जाकर पूरा होता है-- । केवल संवेदना या केवल अभिव्‍यक्ति का कौशल कविता का अधूरा होना है--। पाठक तक ना पहुंच पाना भी कविता मे एक कमी छोड़ देता है-- उसे जरा सा अौर पूरा होना चाहिए। 
कविता का लक्ष्‍य इन्‍सान को बेहतर बनाना है, सब इस पर एकमतहैं। भिन्‍नता यह कि कोई इसे कविता में घुले विचार के माध्‍यम से कोई संवेदना जगाकर तो कोई अन्‍य तरीके से इस बेहतरी के लिए कविता रचता हैं। 
कविता स्‍वानुभूति ही है।जिसे अन्‍यानुभूति कहेंगे वह भी तभी कविता में आ पाती है जब वह आत्‍मसात कर ली जाए--- यानी आत्‍मसात करने के बाद तो वह भी स्‍वानुभूति ही हो गई--।


प्र0:6  एक चुप्पे शख्स की डायरी की भूमिका कैसे बनी ...?चुप्पा शख्स है कौन ?

उ0:  एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी में वह आ सका जो कविताओं से छूट गया। यह डायरी जैसी डायरी नहीं है,  इसमें दिनचर्या भी नहीं बल्कि दिनचर्या के साथ जो भीतर चलता रहता है वह है। हम सबके भीतर एक चुप्‍पा शख्‍स होता है जो कहना चाहता है पर कहता नहीं, सामाजिकता का दबाव कह लो या अभिव्‍यक्ति की सीमा--। वे बेवजह से ख्‍यालात इसमें हैं, कुछ आत्‍म प्रलाप जैसा भी कहीं कहीं।

प्र0:7   आपके संकलन 
शब्द बोलते है ,कि जीवन ठहर न जाए,जमा हुआ हरापन ,कात रे मन...कात, चुप्पे शख्स की डायरी .....
के बाद नए की किस तरह की भूमिका तैयार हो रही है ,गद्य या पद्य ?


उ0: रचना सतत प्रक्रिया है, चलती रहती है। मूल बात है जो उथल पुथल भीतर है, वह कही जा सके। गद्य या पद्य माध्‍यम हैं बस, माध्‍यम का चुनाव संवेदनाएं स्‍वयं कर लेती हैं। पूर्वानुमान कुछ नहीं, क्‍या लिखा जाएगा, क्‍या नहीं। हां कविताएं काफी हैं, एक किताब से अधिक लेकिन अभी किसी किताब की जल्‍दी नहीं-- ।


प्र08  वॉट्सएप के साहित्यिक समूहों के बारे में आपके विचार और साकीबा के नए कवियों और सदस्यों 
को क्या कहना  चाहेंगे ?

उ0:  व्‍हासप समूहों की अपनी शक्ति है और अपनी सीमा भी। तकनीक के साथ एक सीमा तक सहयोग संभव है उसके बाद थकान होने लगती है। समूह जिस मकसद से शुरु होते हें उनसे भटकने में भी देर नहीं लगती, अग्रेषित किए जाने वाले रेडिमेड मेसेज से भरने लगते हैं समूह। कुछ समूह अनुशासित हैं जिनमें साकीबा भी है, दस्‍तक, सृजनपक्ष भी। सार्थक चर्चाएं होती हैं बहुधा। कभी कभी अति अनुशासन भी दिखता है, जिससे इस माध्‍यम की सीमा उजागर होती है लेकिन मोटेतौर पर इन तीन चार समूहों से बहुतकुछ सीखने को मिलता है मुझे। साकीबा गंभीर प्रयास है, नए जुड़ने वाले मित्र इसकी गंभीरता को समझकर ही शामिल होते हैं इसलिए अपनी ओर से कुछ कहने की जरुरत मुझे नहीं लग रही। 
अपनी रचना सबको प्रिय होती है, यह हम सब जानते हैं । ऐसे में कभी कभी किसी साथी की आलोचना अखर भी सकती है लेकिन इसे दृष्टि की भिन्‍नता और अनुभव के आधार पर ही स्‍वीकार करना उचित है। अपनी ओर से सफाई देने की बजाय हम अपनी रचना का स्‍वयं पुनर्पाठ करें-- जरुरी लगे तो बदलाव भी करें। बस इतनी सी बात। समूह हमें जोड़ने के लिए हैं--- यह हमेशा ध्‍यान में रहे तो अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता है जो कि कभी कभी नजर आ जाती हैं।


प्र ०...अखिलेश ,
कविता के पाठक लगातार कम हुये है आप किसे दोषी मानते है कवि की, प्रकाशक/संपादक की या स्वयं अकविता की ?
उ ० ...कोई एक तो नही हो सकता। और इनके अलावा भी कारण मौजूद हैं। समय जितना तेजी से बदला है कविता उतनी तेज नही बदल सकती। जीने की लड़ाइयां अधिक हो गई पूरा साहित्य ही प्राथमिकता क्रम में नीचे चला गया है।
प्र०..अखिलेश ,
कविता को पाठकीय दृष्टि से एक मरती विधा मान भी लिया जाये तो भी क्या संपादको की कोई नैतिक जिम्मेदारी नही होनी चाहिए, इंडिया टुडे में समीक्षा हेतु पृष्ठ है पर कविता हेतु नही है ?
उ०,..कविता मरती विधा नही रूप बदलती विधा है। पत्रिकाओं का अपना गणित और नज़रिया है|
प्र०..,Braj Shivastav: एक आसान सा सवाल मेरा भी अपना कवि नाम माया मृग रखने की क्या कहानी है?
उ०... एक आकर्षण था कुछ भिन्न साहित्यिक सा नाम रखने का। 1985 के आस पास। मायामृग इसलिए कि हम सब जो बाहर सोने के हैं, भीतर मारीच से। मारीच रामकथा में सबसे इंसानी पात्र लगा। विवश भी और नैतिक-अनैतिक के द्वद्व में उलझा भी।
प्र०...Jatin: माया जी...कोई रचना एक अर्थ व भाव लेकर लिखी गई पर पाठक तक पहुँचते पहुँचते कई अर्थ व भाव में बंट गई.क्या लेखन सफल रहा?
उ०...कविता में अगर संप्रेषणीयता है तो इतना अधिक पाठान्तर नही होगा। पाठक अपने जीवनानुभव और संवेदना से उसे अपने अर्थ में ग्रहण करे तो रचना का विस्तार ही मानें
प्र०...Suren: मायाजी ,हम कब  कहते है कि कविता सायास हो गयी है ? जबकि हर कविता का सूत्र या विचार हमारे अवलोकन की प्रक्रिया में अनायास ही आता है और उसको प्रेसेंटेबल हम सायास ही कर पाते है ?
उ०....कविता का पहला ड्राफ्ट सहज प्रवाह में होता है। सुधार निखार अनुभव से। 🙏🏼
प्र०...Madhu Saksena: माया जी कविताओं का वर्गीकरण जरूरी है क्या ..जनवादी , मार्क्सवादी प्रगतिशील या कोई और ..?
उ०,.. ये वर्गीकरण केवल कविता को समझने के लिए हैं। समग्र रूप से कविता इंसानियत के हक़ में ही है। विचार की अभिव्यक्ति के आधार पर ये धाराएं प्रवाहित हैं|
Jatin: माया जी....सोशल मीडिया का जमाना है.किंडल हैं..पेपरलैस दुनिया...आने वाले दस साल में क्या किताबें होंगी?
उ०,,किताबें हमेशा रहेंगी। जिन देशों में डिजिटल क्रांति बहुत पहले हो गई वहां आज भी किताब की अपनी जगह बनी हुई है  रूप प्रकार बदलते रहेंगे छपी किताब की अपनी जगह बनी रहेगी। ऐसा विश्वास है
प्र०,,.Sayeed Ayub Delhi: एक आख़िरी सवाल मेरा- नोटबंदी का आपके प्रकाशन पर क्या प्रभाव पड़ा है? 😊 और आपके कवि पर भी?
उ०...डिस्पेच का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। नकदी नही रही तो डाक नही भेज पाये। सरकार सबको सलाह दे रही पर अपने विभाग ही कैशलेस पेमेंट लेने की हालत में नही। 
कवि भी इंसान है और इसी देश का वासी तो प्रभावित हुए बिना कैसे रहता। 


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*कविताएं *


 पूछते रहना
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कहा था फकीर ने
मेरे पीछे मत आना
मेरे पीछे रास्‍ता मुझ तक नहीं अाता
ना ही मैं चला जाता हूं रास्‍तों के साथ कहीं
चलते रहने से बदलते रहते हैं रास्‍ते----।

किसी के पीछे नहीं रहता कोई रास्‍ता
आगे हो ना हो, होना वहीं होता है रास्‍ते को
कदमों के निशान पर नहीं बनते नए निशान
फकीरों की बनाई लकीरें नहीं समझ्  सकते लकीर के फकीर्----।

मत पूछना कि कहां गया फकीर
पूछना कि किधर जाती है यह राह
टोके जाने का बुरा मत मानना
रोके जाने का बुरा मानना---।

मसखरों के लिए नहीं होती कोई नसीहत
इसलिए संकोच मत करना
हर साथ चलते रहने वाले से पूछने में
किधर जाता है यह रास्‍ता, किधर जा रहे हो---।

पूछते रहना कभी कभी खुद से भी
यह रास्‍ता किधर जाता है, किधर जा रहे हो--- ?


                    
 नीले स्‍वेटर पर चिडि़या
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कितने सारे फंदे, कितने सारे घर
इनसे क्‍या बुनेगी स्‍त्री
क्‍या क्‍या बुनेगी स्‍त्री
कि बुनते बुनते बुना जाएगा स्‍वेटर भर एक...।

घर में फंदे हैं, फंदों में घर
एक फंदे से निकलती सलाई
दूसरे घर को ले आती है अपने साथ
और स्‍त्री बुनती है वह सब,
जो उधेड़ दिया गया है कितनी ही बार....।

नहीं भूली अभी भी
नीले स्‍वेटर के बीचों बीच बुनना चिडि़या
सुनहरी ऊन से
उड़ान न बुनी जा सके भले, बुनी जा सकती है
एक चिडि़या...जो भूली ना हो पंख फड़फड़ाना...।

स्‍त्री घरों के बीच में है
स्‍त्री फंदों के बीच में है
उसकी उंगुलियों को आंख खोलकर देखने की जरुरत नहीं होती
ना फंदे छूटते हैं, ना घर
फंदे घर बन जाते हैं....घर फंदे
बुनना चलता रहता है हर हाल में
सलाइयां रुक जाने के बाद भी...।

उसकी उंगुलियों में बसी है नाप
कितना खुल सकता है गला
और कितने चौड़े हो सकते हैं कन्‍धे
सीवन के टांके बाहर से ना दिखें
इतनी सफाई तो उसने बचपन से सीख ली....।

उसे नहीं पता कि तुम पहन सकोगे कि नहीं नीला रंग
तुम्‍हें पसंद आएगी कि नहीं चिडि़या...सुनहरी पंख वाली
बेमेल रंगों से चिढ़ सकते हो तुम
स्‍त्री नहीं चिढ़ती तुम्‍हारी चिढ़ से
जानती है, जो पसंद ना हो
उसे उधेड़कर बुना जा सकता है दुबारा....कितनी भी बार

(लो इसे पहन लो तुम....उसने शुरु कर दिया है नया कुछ बुनना....)                      


 पीपल के नीचे एक दीया
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इसी अंधेरे रास्‍ते से गुज़रा था फ़कीर
पत्‍थरों पर निशान नहीं हैं भले ही चलने के
पर पैरों पर निशान हैं पत्‍थरों के
तुम पत्‍थर क्‍यूं देखते हो, पैर क्‍यूं नहीं देखते--।

इससे फर्क नहीं पड़ता कि रास्‍ता दिखता है कि नहीं दिखता
फर्क इससे पडता है कि रास्‍ता है, बस है अपनी जगह
ठोकर लगने पर कराहता नहीं है फ़कीर
हर बार कहता है - वाह, सब तेरी मरज़ी---।

जो नहीं दिखता वह भी होता है अपनी जगह
होने पर नहीं असर होता तुम्‍हारे देख सकने का
तुम आंख भर मापते रहोगे दृश्‍य को
तुम्‍हारी परीक्षा अंधेरे और उजाले से आगे क्‍यूं नहीं जाती---।

दूरियों को नजदीकियों से पाटता चलता है फ़कीर
फ़कीरी नहीं मानती दूरी को
जानता है वह, पास आने के रास्‍ते में दूरियां में नहीं होती
तुम दूरियां ही क्‍यूं देखते हो हमेशा इतने पास से---।

अंधेरा भय नहीं है, भय है अंधेरे पर संदेह का होना
जो ढंका है वह उघड़े से अलग नहीं है कुछ
ये जानने के लिए तुम ठहरकर इंतजार करते हो
फ़कीर का इंतजार चलता है उसके कदमों के साथ---।

चले अाओ कि देखे जाने को बहुत कुछ आएगा आगे
चले जाने का रास्‍ता इतना ही है
जितना कट जाएगा चलने से
भला हो फ़कीर का कि उसने निशानदेही कर दी है
यहीं से कटना शुरु होगा अंधेरा
पीपल के नीचे जलाकर रख गया है एक दीया, माया मृ
                    
 उस ईश्‍वर का पता
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जब जब लड़खड़ाया
मंदिर की सीढि़यों पर आकर गिरा
विश्‍वास का बोझ अपने सिर से उतार
तुम्‍हारे कन्‍धे पर रख दिया
यह जाने बिना कि तुम उठाओगे कि नहीं.....।

अपने ही भय से भयभीत
बुदबुदाए तुम्‍हारे मंत्र
वे कि जिनका अर्थ कभी न जाना
न जानना चाहा....बताने वालों ने जरुरी भी नहीं समझा.....।

भले ही सिखाया जाता रहा
सिर उठाकर जीना,
पर तुमने सिर झुकाए को ही देखा
मेरी पराजय के क्षणों में मुस्‍कुराए तुम
यह कुटिलता थी कि करुणा, निर्णय न कर सका.....।

रोया तो आंसुओं में तुम्‍हारी छवि देखी
जरा सी मुस्‍कुराहट से
ओझल हो गए तुम
निर्भय हंसी को राक्षस कहती हैं तुम्‍हारी किताबें
सिखाती हैं मौन रहना समाधियों में
अधनींद में जब भी बोला, उच्‍चरित किया तुम्‍हारा नाम.....।

भूख से पराजित भीड़ में सदियों से खड़ा
जयकार करता, प्रयास में रहा कि
तुम भी मुझे भीड़ में एक नजर ही सही, देख तो सको
तुम्‍हें लगा मैं तुम्‍हारा प्रसाद पाकर संतुष्‍ट हूं.......।

तुम मेरे लड़खड़ाने की प्रतीक्षा करते हो
तुम मेरी पराजय में मुस्‍कुराते हो
तुम मेरी भूख पर पिघलते हो
सिर झुकाने पर ही देखते हो मुझे......।

सिर उठाकर भी देख सकूं जिसे....उस ईश्‍वर का पता चाहिए....।

माया मृग
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सुरेन सिंह 
माया जी की कविताओं से फेसबुक के माध्यम से कई वर्षों से परिचित हूँ और आज लगी कविताओं को देखकर कविता पढ़ने का सुकून मिला ।


आज प्रस्तुत कविताओं का स्वर मद्धम है और अपने कहन में कवि के आध्यात्मिक मूल्यों से परिचित कराती हुई पाठक को अपने प्रेममय संसार में इस भांति ले जाती है कि पाठक कविता को घूंट घूंट आस्वादित करते हुए पढता है ,रुकता है ,सोचता है ,मुस्कुराता है और ठंडी सी सांस छोड़ते हुए विचार मग्न हो जाता है ।


पहली कविता  , पूछते रहना और तीसरी कविता , पीपल के नीचे एक दिया  , एक ही जोनर की कविताये है ।इन कविताओं में  कवि  सम्भवतः नीत्शे के दस स्पोक जरथुस्त्र और खलील जिब्रान के प्रॉफेट से प्रभावित होकर फ़क़ीर के माध्यम से पाठक के समक्ष नीति सूत्र को काव्य में उतारना चाह रहा है । इस चाह में वह शब्द के चमत्कारिक उपयोग को साधन बनाता है पर मुझे इन शब्दिक चमत्कारों से वैसी लाक्षणिकता उत्पन्न होती नही प्रतीत होती जैसे की विनोद शुक्ल जी सरलता से कर जाते है ।

दूसरी कविता ,नीले स्वेटर ..  एक सहजता से कही गयी सुन्दर कविता है । यहाँ भी शब्द से कवि के खेलने को पाठक पढ़ मुस्कुराता भर है और कविता के अंत तक आते आते ... स्त्री नही चिढ़ती तुम्हारी चिढ से / जानती है ,जो पसंद न हो /उसे उधेड़कर बुना जा सकता है /दुबारा ...कितनी भी बार
इन पंक्तियों से पूरी कविता का काव्य पाठक के दिलोदिमाग पर छा जाता है । इन चार पंक्तियों में कवि क्या क्या नही समेट देता । सुन्दर कविता ।

चौथी कविता , जब दुबारा पढ़ रहा था तो अनायास ही सर्वेश्वर की प्रार्थना सीरीज की कविताये याद आयी,  नही नही प्रभु शक्ति नही मागूँगा ... यहाँ कवि उस ईश्वर को ढूँढना चाह रहा है जो , दीन दयाल.....  टाइप का न हो । ये कविता की रेशनालिटी को आकाशकुसुम सा कर देता है । मतलब पाठक सोचता है कि ईश्वर हो भी और अपने गुणधर्मो से भिन्न भी हो ,तो वह थोड़ा कंफ्यूज सा हो फिर कविता पढता है पर ...


यह मेरे पाठ की पाठकीय टिप्पणी है जिससे असहमति की पूरी गुंजाइश है । माया जी को उनके काव्य कर्म के लिए शुभकामनाये 💐💐

सईद अय्यूब 
आज पटल पर माया जी की कविताएँ पाना सुखद आश्चर्य की तरह है। इनमें से अधिकांश कविताएँ स्वयं माया जी से सुनने का अवसर मिला है। अभी लगभग तीन महीने पूर्व माया जी के जन्मदिन पर हमने ग़ाज़ियाबाद में एक गोष्ठी आयोजित की जिसमें माया जी का एकल काव्य पाठ हुआ। माया जी ने छोटी-मँझली-बड़ी कुल मिला कर 62 कविताओं का पाठ किया और श्रोता थे कि और सुनने को उत्सुक थे। फ़क़ीर सीरीज की कविताएँ, नदी सीरीज़ की कविताएँ और ताजमहल सीरीज की कविताएँ तो ग़जब थीं/हैं।

फेसबुक पर माया जी से बहुत पहले से जुड़ाव था पर पहली व्यक्तिगत मुलाक़ात 2012 में जयपुर साहित्य महोत्सव में हुई और वहीं से मित्रता और मिलने मिलाने का वह क्रम शुरु हुआ जो आजतक ज़ारी है। अभी पिछले रविवार को दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में आयोजित कैलिफोर्निया निवासी कवि-चित्रकार दर्शवीर संधु के प्रथम काव्य संग्रह 'पोरों पे जमे सच' के लोकार्पण कार्यक्रम में मंच से लेकर घर के रास्ते तक हमने कई घण्टे साथ गुज़ारे। तो माया जी की नज़दीक़ी ने माया जी को, उनकी कविताओं को और उनके पूरे व्यक्तित्व को समझने के कई अवसर दिये हैं। जयपुर में उनके ऑफ़िस में, अपने मित्रों के घरों पर, जवाहर कला केन्द्र में, दिल्ली एनसीआर की बहुत सारी महफ़िलों में, दूसरों के आयोजनों से लगायत ख़ुद के आयोजनों में माया जी की न केवल कविताएँ सुनने को मिली हैं बल्कि कविता पर आपके अद्भुत ज्ञान व बातों से कविता की समझ विकसित करने में भी सहायता मिली है।

माया जी के व्यक्तित्व का खुलापन उनकी कविताओं के फलक को विस्तृत करता है तो हर वस्तु पर, हर जगह, कभी भी कविता न लिख देने की उनकी तीव्र इच्छा शक्ति उनकी कविताओं की सान्द्रता को अत्यंत तीक्ष्ण बनाती है। जहाँ उनकी संवेदनायें देश-जीवन-जगत की छोटी से छोटी घटना, लघु से लघु वस्तुओं और हाशिये पर पड़े या डाल दिये गये मनुष्यों तक पहुँचती हैं वहीं उनकी भाषा भी उसी के अनुरूप चलती है। वे बिम्ब रचते नहीं हैं बल्कि समाज में मौजूद उन बिम्बों की पहचान करते हैं जहाँ हम-आप की नज़र भी नहीं जाती।

आज प्रस्तुत सभी कविताओं के प्रति यह मेरी समेकित प्रतिक्रिया है। एक बात और कहना चाहूँगा कि माया जी की कविताओं को उनके गद्य के साथ पढ़ना चाहिये। उनका गद्य उनकी कविताओ को समझने में बड़ी भूमिका निभाता है।

और सबसे अंत में आजके प्रस्तुतकर्ता ब्रज जी का शुक्रिया!


अपर्णा 
माया मृग जी से कई बार मिलना हुआ है। दो बार उनका काव्यपाठ सुना है और एक बार अपनी कविताएँ सुनाने का, उनकी टिप्पणी सुनने का सुअवसर भी मिला है। नए स्वर को हमेशा प्रोत्साहन देते देखा है सर को।
चार वर्ष पूर्व हिंदी कविताओं को पढ़ना शुरु किया था तब माया मृग की डायरी पढ़ी। तब से फेसबुक पर कविताएँ पढ़ती रहती हूँ। प्रीता व्यास जी के स्वर में सुनती भी रहती हूँ।

पहली कविता में फ़कीर का, राह का और मंज़िल का ज़िक्र में सावधान करता स्वर है। बिना सोचे समझे अंधअनुसरण किसी काम की नहीं। किसी का भी हित नहीं साधती। स्वंय को सजग रखते आगे बढ़ने की बात करती है ये।

दूसरी कविता में शब्दों का खेल है। घर, फंदा, बुनना, उधेड़ना, नीला विस्तार और सुनहली चिड़िया, सीवन, टांके, सफाई, पसंद, नापसंद और फिर से उधेड़बुन की वही अनवरत कवायद। सब गहरे बिंब हैं। और सबके बीच में है स्त्री। बहुत अच्छी लगी यह कविता।

पहली कविता का विस्तार तीसरी कविता में प्रतिध्वनित है। सुंदर, दिखते से  बिंब हैं। आध्यात्मिकता और यथार्थ के बीच की राह दिखाती कविता है।

चौथी कविता 'ईश्वर' से संवाद होते हुए भी ईश्वर की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। भय, अभाव और लालसा के बीच खड़ा है ये संबंध।

मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया मात्र। संभव है ये सही न हो। माया सर को नमस्कार। शुभकामनाएँ। 🙏🏽

आभार ब्रज जी। 🙏🏽


 Ghanshym Das Ji: 
आज प्रस्तुत सभी रचनायें बहुत ही शानदार व उच्च स्तरीय हें lस्वेटर बुनने के माध्यम से कवि स्त्री स्वयं को बार बार आपके अनुरूप ढालने के प्रयास करती है तथा कवि उसके त्याग व धैर्य को दर्शा रहा है l पूछते रहना में बहुत ही शानदार शब्दों में उन बातो को बता रहा है जो सभी महापुरुषों ने कहीं हें कि अपना रास्ता खुद बनाओ दूसरों के पद चिन्हों पर मत चलों l आजकल हम लोगों की सबसे बड़ी बिडम्बना ये है कि हमने अलग क्या हमने तो महापुरुषों रास्ते पर चलने के स्थान पर मात्र उनके स्वरुप/ मूर्ति/चित्र को पूजना ही उनका रास्ता मान लिया है l उस ईश्वर का पता मुझे ईश्वर के प्रति विद्रोह की रचना प्रतीत होती है l क्या ये हम,हमारा ही स्वार्थ नहीं की हम अपने अपनी पराजय / दुःख के समय ही उसके सामने पहुचें यानि हमारे अंतर्मन में एक यकीन है जब कोई सहारा नहीं तो उसका सहारा मिलेगा ही ये बात अलग है कि हमको ऐसा नहीं लगता कि तत्काल राहत दी हो और फलस्वरूप हम उसके प्रति विद्रोह दिखाने लगते हें ,पर उसकी मुस्कराहट व्यंग नहीं है l मायामृग जी व ब्रज जी का आभार बहुत ही स्तरीय रचनाओं की प्रस्तुति के लिये l                      

Mani Mohan Ji:
माया जी की बेहतरीन कविताएं ।
बड़े फलक की कविताएं हैं इस मायने में कि यहां न तो किसी विचारधारा का बोझ है और न ही भाषा का बोझ इन कविताओं पर है । बहुत सहजता से इन कविताओं में स्वप्न , यथार्थ , मिथक , बिम्ब सब घुले मिले से जान पड़ते हैं ।बधाई माया जी ।


प्रवेश सोनी 
फकीरों की बनाई लकीरें नही समझ सकते लकीर के फ़कीर
शब्दों की जादूगिरी ...और हर शब्द गूँथ कर  बन जाता हैएक वाक्य जो किसी पाठ से कम नही होता ।
माया मृग जी की कवितायेँ सघन संवेदनाओ  की अभिव्यक्ति है ।
स्त्री नही चिढ़ती तुम्हारी चिढसे ,.... हर फंदे में घर और घर एक फंदा......स्त्री मन की गहरी परत जिसे शब्दबद्ध  करने में महारत हासिल है माया जी को ।एक पुरुष का चिंतन जब स्त्री मन की सम्वेदनाओं तक पहुँचता है तब सृजन होता है ऐसी ही अद्भद कविताओं का ।
दर्शन का अद्भद दर्शन
बोधमयी कवितायेँ
शुभकामनाएं


अखिलेश श्रीवास्तव
माया मृग जी की एकाध कविताओं से मुलाकात पहले भी है पर खजाना यूं हाथ नही लगा था ।इन कविताओं को पढते हुए जड़ खोदने की आवश्यकता ही नहीं, सहज भाषा विन्यास से ये सीधे पाठक से जुडती हैं इन कविताओं की पृष्ठभूमि जल जैसी तरल है जिस पर पाठक मन दूर तक तैर तो सकता ही है, तृप्ति भी होती है
कुछ भवरे है जो समीक्षा की सम्भावना को नकारती नही, पर अक्सर सीधा संवाद करती है ये यात्रा कराती कविताएं है एक फकीर के जैसी ।

भाषा के स्तर पर कविता अनायास चमत्कारो से पाटी नही गई है उन्हे ठहरने को कह, सिर्फ अद्भुत भाव का कलेवर ले ये कविताएं सार में बतियाती है व्यथा का अतिशय प्रलाप भी नही है उतना ही कहा है जितना कवि का सच है । अज्ञेय की बात पर हुहंकारी भरते माया मृग शब्दो से कविता का आखेट नही करते बल्कि उसे निषेध करने की चेतावनी देते है ।

अकविता मे छंद सा प्रवाह देखना हो तो इन कविताओं के तट पर पहुंचे, हाथ अनजाने में ही कागज की कश्ती न बनाने लगे,तो कहियेगा ।

अखिलेश

अनीता मंडा 
पूछते रहना
पंथवाद पर कटाक्ष -लकीर के फकीर।
यही सच है, जिन कुरीतियों से लड़ने को फकीर बने, लकीरवादियों ने उन्हें उसी में कैद कर दिया,  मूर्ति पूजा के धुर्र विरोधी रहे बुद्ध को आखिर मूर्ति बना कर रख दिया, ताउम्र हिन्दू मुस्लिमो को एक करने की जद्दोजहद में लगे कबीर के शव तक भी वो झगड़ा नही मिटा तो नही ही मिटा।
स्व के भीतर की यात्रा को चेताती पंक्ति-
पूछते रहना कभी कभी खुद से भी
यह रास्‍ता किधर जाता है,
बाहर की भटकन पर तो दूसरे भी टोक देते हैं।
भीतर के लिए सावधानी की जिम्मेदारी खुद की ही है।
बहुत अच्छी लगी कविता।  

अर्चना नायडू 
मुददत से मायामृग सर की कविताओं का इंतजार था। अचानक ऐसा सरप्राइज पाकर बहुत अच्छा लगा।
सारी की सारी कविताएँ   मन की गहराइयों में डूब जाती है।  कहा जाता है कि गुरुजनों से जहाँ भी, जैसे भी सीखा जा सकता है।   और सर को तो फेसबुक के जरिये मै बहुत पहले से गुन रही हूँ।
  बृजजी ऐसी बेहतरीन कवितायें भेजने का आपका आभार। 🙏    


रेखा दुबे 
मायामृग जी की,मन को छू जाने वाली कविताएं एक बार पढ़ कर मन भरता ही नहीं है बार-बार पढ़ना और मनन करते हुए लगना इनकी गहराई में पहुँचने में हमारी पकड़ अभी अधूरी है और खोजी निगाहों का एक बार फिर कविता पढ़ने के लिए बेचैन हो जाना ही मायामृग जी की कविताओं की गहराई को दर्शाता है।
इतनी सहज और उच्चस्तरीय कवितायेँ पढ़ाने के लिए ब्रज जी का शुक्रिया  

ज्योत्सना प्रदीप 
उस ईश्वर का पता
एक उच्चस्तरीय कविता...परम  सत्ता को पूर्ण समर्पित रचना..
वो मुझे देख ले  'भीड़ में एक नज़र' या फिर मै  उसे देख सकूं " सिर उठाकर" हर दशा में मिलनें की तड़प है उस परम सत्ता से।
आसक्ति  में या फिर विरक्ति में..चाह उसी की है क्योंकि 'उसका 'सुख में ओझल होना भी  तो ठीक नहीं...मिलना है ...पर सुख में भी..एक विश्वास के साथ ।
बहुत सुन्दर...बहुत गहरी  रचना
माया मृग जी की लेखनी को नमन🙏
आभार बृज जी🙏      


आरती तिवारी 
माया मृग सर की कविताओं को पढ़ना खुद को समृद्ध करना है। हर बार अपनी नई कविता में वे चकित कर देते हैं। उनकी कवितायेँ मैं फेसबुक पर पढ़ती हूँ। बेटे और पिता के द्वंदात्मक अन्तर्सम्बंधों पर उनकी एक कविता मैंने फेसबुक पर ही पढ़ी थी और उसी दिन एक स्थानीय काव्यगोष्ठी में उसका पाठ किया था। मैं प्रायः ऐसे स्थानीय कार्यक्रमों में समूह के साथियों की अच्छी कवितायेँ या आर्टिकल ही पढ़ती हूँ बजाए अपनी कवितायेँ पढ़ने के,और जो भी कवितायेँ अच्छी लगती हैं उन्हें अन्य समूहों पर साझा भी करती हूँ। शरद सर की मस्तिष्क की सत्ता की पिछली बार पोस्ट की सभी कड़ियाँ मैंने मन्दसौर के समूहों में लगाई थीं और वहाँ की टिप्पणियॉ भी साझा की थीं
साहित्य की बात समूह में सभी साथियों का परस्पर अपनत्व इसे पारिवारिक वातावरण देता है।
प्रवेश ने आज बहुत अच्छे से साक्षात्कार के प्रश्न रखे। साकीबा का आभार इतनी सुंदर कवितायेँ पढ़वाने के लिए👍🏼👍🏼👏🏼👏🏼🙏

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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