Wednesday, December 13, 2017

 काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस,सत्यनारायण पटेल के  कहानी संग्रह पर समीक्षा 
रमेश शर्मा 




सत्यनारायण पटेल

कहानी संग्रह-
१- भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान,

२- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना

३-काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस

४- तीतर फांद (शीघ्र प्रकाश्य)

उपन्यास-गांव भीतर गांव

पुरस्कार- 
वागीश्वरी सम्मान भोपाल
प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान, बांदा

पता- m-2/199, अयोध्या नगरी
(बाल पब्लिक स्कूल के पास) इन्दौर-452011( म.प्र.)
9826091605
bizooka2009@gmail.com







आदिम और उत्तर आधुनिक समय के मध्य डोलते लोक जीवन का महाआख्यान 


समकालीन हिन्दी कहानी की संरचना, उसके बिषय, कथ्य और शिल्प आधुनिकीकरण की रफ्तार में जिस तेजी से विस्तारित होकर अपनी नई राह पर गतिमान हुए हैं उससे हिन्दी कहानी के पाठकों को लगता रहा है कि अब कहानियों में गाँव,जनपद और लोकजीवन के लिए कोई बहुत स्पेस बचा नहीं रह गया है | पिछले एक दशक में युवा पीढी के कहानीकारों की कहानियों को लेकर जितने भी साहित्यिक पत्रिका के विशेषांक प्रकाशित हुए, उन्हें पढ़ते हुए यह बात बारम्बार लक्षित भी होती रही  है | संभव है देश दुनियां में तेजी से हुए बदलाव इसके कारण हों , पर इस बदलाव के पीछे की कहानियां , कहानी के बिषय बनने से अक्सर वंचित होते रहे हैं  | युवा पीढ़ी ने उत्तर आधुनिकता के रस में डूबे इस संचार क्रांति के युग में आत्मलीन होकर जो देखा और भोगा उसे ही उसकी अच्छाईयों और बुराईयों के साथ अपनी कहानियों का बिषय बना लिया, उनकी कहानियों में एक बृहत्तर ग्रामीण समाज और लोक जीवन का सिरे से इस तरह छूट जाना हिन्दी कहानी आन्दोलन की एक बड़ी घटना की तरह है जिसे हिन्दी कहानी की आलोचना में बहुत तवज्जो नहीं मिली | यह एक तरह से प्रेमचंद , अमरकांत या भीष्म साहनी जैसे कहानीकारों की परम्परा से परे जाने और एक नयी परम्परा विकसित करने की जिद के रूप में भी देखी समझी जा सकती है | ज जबकि ज्यादातर हिन्दी कहानियों में नगर ,महानगर और महानगरों की आधुनिक जीवन शैली से प्राप्त सुविधाएं ,उससे उपजे संघर्ष और जटिलताएं जैसे बिषय अपनी सघनता में समाहित हैं , ऐसे समय में सत्यनारायण पटेल जैसे कुछेक युवा कहानीकारों ने इस बदलाव के पीछे छुपी त्रासद कहानियों को अपनी कहानियों का बिषय बनाकर गाँव ,जनपद और लोक की खुश्बू को एक नये रूप में प्रस्तुत कर उसे बचाने की कोशिश की है | मैंने बहुत पहले कैलाश बनवासी का एक कहानी संग्रह "बाजार में रामधन" पढ़ते हुए लगभग यही बातें महसूस की थीं जो आज सत्यनारायण पटेल का कहानी संग्रह "काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस" पढ़ते हुए महसूस हो रही है |  सत्यनारायण पटेल की कहानियों में गाँव जनपद और लोकजीवन में हुए त्रासद परिवर्तनों को बहुत सूक्ष्मता से न केवल देखा समझा परखा और महसूस किया गया है बल्कि उसे एक वैश्विक धरातल पर विमर्श हेतु पाठकों के सामने रख पाने में भी वे कामयाब हुए हैं  | कहानी की आदिम परम्पराओं में ,जबकि कहानियाँ एक विशिष्ट संरचना में संगुफित होकर दादी नानी से वाचिक रूप में ही लोगों तक पहुंचती रही हैं , कहानी की उस पारंपारिक संगुफन को आज के इस डिजिटल कहानी के युग में भी सत्यनारायण ज़िंदा रख पाने में अगर सफल हुए हैं तो इस बात का यह प्रमाण है कि कहीं न कहीं उस लोकजीवन को संवेदना के स्तर पर उन्होंने जिया और भोगा भी जरूर   है , यह संवेदना कागजी नहीं है , शायद इसलिए ही उनकी लगभग सारी कहानियाँ उस लोकजीवन के उत्स से आलोकित होकर जब उनके दुःख दर्द को बयाँ करती हैं तो उनमें एक स्वाभाविकता होती है | उनकी कहानियाँ ,लोकजीवन को आदिम और उत्तर आधुनिक युग के मध्य रखकर ऐसे तथ्यात्मक दृश्य गढ़ती हैं कि परिवर्तन की विभीषिका पाठक की भीतरी दुनियां को अंततः सीधे बेधने लग जाती है | यही बात सत्यनारायण को न केवल युवा पीढी के अन्य कथाकारों से अलगाती है , बल्कि आश्वस्त भी करती है कि कथा कहानी में आज भी गाँव बचे हुए हैं और उन्हें बचाने का एक आग्रह भी हिन्दी कहानी की परम्परा में शेष है |
काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस संग्रह में कुल छः कहानियाँ हैं | संग्रह की पहली ही कहानी "पर पाजेब न भीगे" दो कथाओं को साथ-साथ लिए चलती है | एक कथा जहां नायक जो कि एक बंजारा है और व्यवसायी भी है ,वह नमक इसलिए महंगे दामों में बेचता है क्योंकि शहर से गाँव लाते समय गधे की पीठ पर लदी हुई नमक की बोरी बार-बार नदी में भीग कर आधी गल जाती है | नमक जैसी बुनियादी और जरूरी वस्तु को मुनाफे के तराजू पर तौल कर उसे महँगे दाम पर बेचे जाने को वहां का लोकसमाज कभी स्वीकार नहीं करता , अस्वीकार्यता इस हद तक कि बंजारा को कोई पिता अपनी लडकी ब्याहने को तैयार नहीं | नमक नदी में न भीगे ,उसे महंगे दाम में बेचने की मजबूरी खत्म हो सके, इन समस्याओं का हल खोजती यह कथा एक पुल की संरचना के साथ खत्म होती है|  इस कथा में मनुष्य की बुनियादी जरूरतों की सहज उपलब्धता के लिए मुनाफे से परे जाकर मनुष्य की नैतिकता को बचाए जाने के आग्रह के साथ बंजारा पुल के रूप में जो एक समाधान खोजने की कोशिश हुई है , ऎसी कोशिशें मुनाफे की जमीन पर गहरे जा धंसी आज की सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था  के युग में पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं | कोशिशों की उसी विलुप्तता पर इस कहानी की पहली कथा एक बड़ा सवाल खड़ा करती है | इसी कहानी में साथ चलने वाली दूसरी कथा प्रेम में इस कदर रची पगी है कि बंजारा अपनी प्रेमिका बंजारन के लिए नदी पर ऐसा बाँध बनवाता है कि बंजारन के शर्त अनुसार बाँध पर उसकी पगथली तो भीगे पर पाजेब भीगने से बची रहें | प्रेम और समर्पण मनुष्यता की न केवल पहली शर्त है बल्कि लोक की सबसे बड़ी ताकत भी है जिसे सत्यनारायण अपनी कथा में चीन्हते हैं | इस कथा का बंजारा बाँध दो दिलों को जोड़ने का एक मानुषिक अनुबंध है | आज हम जिस कार्पोरेट युग में जी रहे हैं ,आज का यह दौर ऐसे मानुषिक अनुबंधों को रौंदते हुए मुनाफे का बाँध खड़ा करने का दौर है जहां गाँव के गाँव डूबकर जमीदोंज हो रहे हैं और मनुष्य की सारी नैतिकता धरी की धरी रह जा रही है |  
इस संग्रह की सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली कहानी "न्याय" को पढ़ते हुए मोपासा की एक कहानी  ‘’रस्सी का टुकड़ा" मुझे याद हो आती है ! इस कहानी में एक बूढ़े किसान को मेले की यात्रा करते समय एक रस्सी का टुकड़ा ज़मीन पर पड़ा हुआ मिलता है ! पीठ में अत्यधिक दर्द होने के बावजूद वह उसे उठा लेता है , यह सोचकर कि शायद यह कभी उसके काम आ जाए | उस रस्सी के टुकड़े को उठाते हुए उसका एक पुराना मित्र जो अब उसका शत्रु है देख लेता है ! उसके ठीक दूसरे  दिन  एक अमीर व्यक्ति का रुपयों से भरा बटुआ उसी रास्ते पर कहीं खो जाता है ! अमीर व्यक्ति अपने प्रभाव का बेजा उपयोग करते हुए उस बूढ़े किसान को बुलवाता है , तब किसान को पता चलता है कि वह व्यक्ति जिसने उसे रस्सी उठाते हुए देख लिया था और जो उसको अपमानित होते हुए देखना चाहता था उसी ने इसकी शिकायत की है ! बूढा किसान तरह तरह की बातों से अपने को निर्दोष साबित करने की कोशिश करता है , अपनी जेब से रस्सी का वही टुकड़ा निकाल कर भी दिखाता है , तरह तरह की कसमें खाते हुए अपनी निर्दोषिता व्यक्त करने की कोशिश करता है , पर उसकी सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं और उसे दोषी करार दे दिया जाता है ! यह बात पूरे गाँव में आग की तरह फ़ैल जाती है और लोग उसे उलाहना देने लगते हैं , उसे कोसते हैं ! चोर का ठप्पा उसके माथे पर चस्पा हो जाता है | वह सिद्ध करना चाहता है कि वो निर्दोष है, पर उसकी बात नक्कारखाने में दब जाती है  ! बाद में वो बटुआ किसी अन्य व्यक्ति को सड़क पर पड़ा मिल जाता है और वह उस अमीर आदमी को सौंप देता है फिर भी लोग उस बूढ़े किसान पर विश्वास  नहीं करते ,उसका मजाक उड़ाते हैं , उससे घृणा करते हैं और अंत में इस हादसे से न उबर पाने की वजह से असमय उसकी मृत्यु हो जाती है | कमजोर,शोषित,और अल्पसंख्यक होना भी आज एक अपराध से कम नहीं है,सत्ता और शासक वर्ग के हाथों की कठपुतली बन चुकी न्यायव्यवस्था  इसे अपराध की नजर से देखती है | मोपासा की कहानी में न्याय व्यवस्था की विद्रूपता शासक और शोषित के संदर्भ में जिस तरह दिखाई पड़ती है , अल्पसंख्यक वर्ग के संदर्भ में वही सत्ता और न्यायव्यवस्था की विद्रूपता सत्यनारायण के कहानी संग्रह की "न्याय" कहानी में परिलक्षित होती है | आज जिस तरह एक ख़ास समुदाय के निरपराध युवाओं की धरपकड़ आतंकवाद के नाम पर की जा रही है , और उन मासूम और निरपराध युवाओं के जीवन को नारकीय बनाने में सत्ता , पुलिसिया आतंक के साथ-साथ  समाज की शंकाएं और अविश्वास की धारणाएं खाद पानी का काम कर रही हैं , न्याय कहानी इस अन्याय पर सघन रूप में एक बड़ा सवाल उठाती है |
आज विकास की अवधारणा को महानगरों में चमचमाती सड़कों ,पुल-पुलियों और वहां की चकाचौंध से ही अंतर्संबंधित कर दिया गया है , जबकि गाँव के गाँव आज भी सड़क, पुलिया ,बिजली जैसी बुनियादी आवश्कताओं से वंचित हैं | "घट्टी वाली माई की पुलिया" कहानी में घट्टी वाली माई इस अव्यवस्था के दंश को भोगी हुई वह लोक नायिका है जो बाढ़ के दिनों में नदी पर पुल न होने की वजह से अपने पति, जिसको सांप ने डस लिया है, को इलाज के लिए गाँव के बाहर नहीं ले जा सकती और उसे खो देती है | सत्ता के बहरेपन से उपजी बुनियादी आवश्यकताओं का अभाव लोकजीवन को कई बार त्रासद स्थितियों में पहुंचा देता है , किसी को खो देने जैसी यही त्रासदपूर्ण घटना कई बार घट्टी वाली माई जैसे लोकजीवन के पात्रों के भीतर प्रेम को नये रूप में सृजित कर देती है और यह प्रेम लोकजीवन की अपनी सांगठनिक ताकत बन जाती है जो उनसे खुद ब खुद ऐसा काम करवा लेती है जिसे सत्ता प्रतिष्ठान हमेशा उपेक्षित करते आए हैं | घट्टी वाली माई द्वारा निर्मित पुलिया लोकजीवन की उसी ताकत की मिशाल है जो सत्ता को कई बार आइना दिखाने का काम भी करती है जिसे सत्यनारायण अपनी कहानी में संजीदगी से रच पाने में कामयाब हुए हैं |
लालच मनुष्य की आदिम बुराइयों में सबसे बड़ी बुराई कही जा सकती है | मनुष्य के भीतर लालच  जिस अनुपात में विस्तारित होता है उसी अनुपात में ठग और फरेबी हो जाने की राह में उसके कदमों को गति मिलती है | "ठग" कहानी मनुष्य के ठग और फरेबी होने का महा आख्यान है जहां वह इस हद तक लालची होने लग जाता है कि जमीन ,नदी, नाले, पहाड़ को बेचकर लाभ कमाने का सपना देखने लगता है | कार्पोरेट युगीन सभ्यता में ऐसे ही बड़े-बड़े ठगों को लोकजीवन को विकास का सपना दिखाकर ठगते हुए जिस तरह हम आज देख रहे हैं , उस देखने को यह कहानी गहरे रंगों से भर देती है | मनुष्य की ठगी को परत दर परत दिखाने वाली यह कहानी पाठक को उसी ठगी से बचने को, आगाह भी करती है |
सत्यनारायण की कहानियों में लोककथा के तत्व अपने सघन रूप में विद्यमान हैं  | लोकजीवन में आसपास के नदी, पहाड़, पशु, पक्षी भी शामिल हैं | नृशंस शहरीकरण से उपजे स्त्री-पुरुष की उत्तर आधुनिक समस्याओं को चिका और चिकी पक्षियों के माध्यम से "एक था चिका एक थी चिकी" कहानी में चित्रित किया गया है | कथा नायिका अपनी भगिनी और भतीजे को चिका और चिकी पक्षियों की कहानी सुनाती है और अंत में वह खुद चिकी पक्षी के एक जगह बंधक होकर रह  जाने के दर्द से अपने दर्द को जोडकर महसूस करा पाने में कामयाब हो जाती है | एक जगह बंद कमरे में औरत के बंधक हो जाने की यह व्यथा पाठकों तक बखूबी इसलिए भी संप्रेषित हुई है क्योंकि सत्यनारायण अपनी ठेठ देशज शब्दों और वाचिक शैली के प्रभाव उत्पादक तत्वों का बखूबी स्तेमाल कर पाने में कामयाब हुए हैं | सत्यनारायण मूलतः लोकजीवन के उत्स से उर्जित कथाकार हैं और साम्प्रदायिक समस्याएं लोकजीवन से परे नहीं हैं | कहीं न कहीं यह समस्या समाज को विघटित करती आ रही है | संग्रह की अंतिम कहानी "काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस" संकीर्ण धार्मिक साम्प्रदायिकता की जमीन पर बुनी गई लम्बी कहानी है ,जहां इस समस्या को देखे जाने के कई आयाम हैं | धर्म की अधकचरी और गलत रूप से व्याख्यायित जानकारियों को स्त्री शोषण में टूल्स की तरह इस्तेमाल करने वाले पढ़े लिखे प्रोफेसर हमजा कुरैशी जैसे चरित्र समाज के लिए कितने खतरनाक हैं एकतरफ उसे इस कहानी में देखा समझा जा सकता है तो प्रेम और साम्प्रदायिक कट्टरता के आदिम संघर्ष में संगसार होती स्त्रियों की व्यथा भी देखी जा सकती है | आम तौर पर बिजूका पशु पक्षियों को डराने वाली एक बेजान संरचना होती है जिससे कोई नहीं डरता पर इस कहानी में फिल्म क्लब के माध्यम से समाज को ग्लोबल ,धार्मिक और साम्प्रदायिक समस्याओं के प्रति सचेत करता हुआ हाड़ मांस का पात्र बिजूका शैतानों के भीतर डर पैदा कर पाने में कामयाब दिखता है जो ध्यातव्य है | धर्म की आड़ में पलकर हट्टे-कट्टे हो रहे  समाज के धार्मिक कठमुल्ले जो अपने को समाज का हितैषी बताने से कहीं नहीं चूकते , वास्तव में समाज के लिए इब्लीस बन जाते हैं और अपनी शैतानियों से हमेशा समाज को नुकसान पहुंचाते हैं | इन धार्मिक शैतानों की चपेट में आकर एक पिता अपनी बेटी के लिए भी कितना क्रूर हो सकता है ,इस बुराई पर भी यह कहानी प्रभावी चोंट करती है ।  सत्यनारायण के भीतर का कहानीकार इन सभी बुराइयों को अपनी इस लम्बी कहानी की सघन बुनावट में परत दर परत उघाड़ता हुआ आगे बढ़ता है और मानवीय प्रेम की पुनर्स्थापना को एक नया स्वर भी देता है | कहानीकार के भीतर मौजूद मानवीय प्रेम और संवेदना की पुनर्स्थापना का यह स्वर कहानी दर कहानी और अधिक मुखर होता हुआ आगे बढता  है । शायद इसलिए भी सत्यनारायण पटेल की इन कहानियों को  अलग से हम पहचान पाते हैं ।









रमेश शर्मा 
92 श्रीकुंज ,बोईरदादर ,रायगढ़, छत्तीसगढ़ 
कहानी संग्रह : काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस 
कहानीकार : सत्यनारायण पटेल 
प्रकाशक : आधार प्रकाशन पंचकुला हरियाणा



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