Wednesday, July 12, 2017


कविता भाषा का डंपिंग ग्राउंड नहीं होती ......"दुर्दिनों की बारिश में रंग "बोधि प्रकाशन से प्रकाशित मणि मोहन मेहता जी का तीसरा कविता संग्रह ,जिसकी भाषा पाठक को अपने मोह पाश से अलग नहीं होने देती |शब्द इतने सिमित की एक शब्द से  पूरे  एक वाक्य का काम लेते  है ,ऐसा कहना है प्रकाशक श्री माया मृग जी का |शब्दों की मितव्ययता  कवि का विशेष गुण है और 'भाषा ' शब्द को बिम्ब ,प्रतिक में प्रयोग करके कविता को अनंत आसमां सा विस्तार देना लेखन की कलात्मकता |
                         
"मामूली से बुखार के सिरहाने बैठकर
रतजगे किये उसने
छतरी की तरह तनी रही सिर पर
दुर्दिनों की बारिश में
बीसियों बार

                                                       
मणि मोहन
जन्म : 02 मई 1967 , सिरोंज (विदिशा) म. प्र.
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि
प्रकाशन : देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं ( पहल , वसुधा , अक्षर पर्व , समावर्तन , नया पथ , वागर्थ ,जनपथ, बया , आदि ) में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित ।

वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से
कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित ।
वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक ' एक सीढ़ी आकाश के लिए ' प्रकाशित ।
वर्ष 2013 में कविता संग्रह " शायद " प्रकाशित ।
इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार ।
कुछ कवितायेँ उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित ।
वर्ष 2016 में बोधि प्रकाशन जयपुर से " दुर्दिनों की बारिश में रंग " कविता संकलन तथा तुर्की कवयित्री मुइसेर येनिया की कविताओं की अनुवाद पुस्तक प्रकाशित ।
इसके अतिरिक्त " भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास " , " आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता " तथा " सुर्ख़ सवेरा " आलोचना पुस्तकों सह- संपादन ।

सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन ।

संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221 मो. 9425150346



साहित्य की बात समूह में हुई पुस्तक चर्चा के अंतर्गत दुर्दिनों की बारिश में रंग की प्रतिक्रियाएं और  विस्तृत समीक्षाएं प्रस्तुत है रचना प्रवेश पर |समूह में चर्चा काप्रस्तुतिकरण और  संचालन किया सुश्री मधु सक्सेना ने |


खत्म हुआ शहद एक एक कर उड़ गई
सभी मधु मक्खियां
तलाश लिया
कोई नया दरख़्त
कोई नई शाख़
कोई नई फूलों की बस्ती
एक खाली छत्ता
यहीं छूट गया पीछे

कहते है
इस छत्ते से मोम बनती है
फ़टी बिंवाई की उम्दा दवा
ज़रूर बनती होगी
कई बार स्मृतियां भी तो
दवा का काम करती हैं
|| मणि मोहन ||

मधु सक्सेना:
मणि मोहन मेहता जी की कवितायें अपने छोटे  कलेवर में बड़ी बात छुपाए रखने का कौशल जानती है ।समय की पदचाप से संधि करके मन की भुरभूरी  मिट्टी में से ऐसे सूत्रों का अंकुरण करती हैं कि पाठक चकित हो जाता है ।
आडम्बर रहित कोमल भाषा में कठोर बात भी कह जाती है मणि जी कवितायें । गुलाब के पौधे की  तरह कभी खुशबू से भर देती हैं  तो कभी धीरे से कांटा भी चुभो देती है । आहऔर वाह साथ निकलता है ।
जितनी बार पढ़ी ये कविताये उतने नए आकाश भी मिले । अपने मन के आकाश में अपनी सी लगी है  ।मुझे लगता है हर पाठ के बाद हम कविता के पास खिसकते जाते है और इतने करीब हो जाते हैं कि वे आत्मसात हो जाती है और हमारा विचार और भाव बन जाती है ।
तीखी बात को भी कोमलता से प्रेषित करती परिष्कृत भाषा मणि जी की पहचान है ।बिना हंगामा किये धीरे से बात में से बात निकालती है और  पाठक को विचारों का बिंदु दे जाती है ।सही पहचाना ।भाषा ही तो कविता का आधार है ।
कुछ बन्द पन्ने खुले कुछ अनसुनी भाषा मे से आवाज़ आई ।
हर पाठक की अपना रोशनदान खिड़की और  दरवाज़ा होता है किस रास्ते वो कविता तक पहुंचता है ये उसकी अपनी योग्यता है ।
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ब्रज श्रीवास्तव :
मणि मोहन के मायने हैं एप्रोच का कवि, ऐसा कवि जिसकी कविता ज़रा सी संवेदन की आँच पाते ही पिघलने लगती है और आप सोच भी नहीं पाते कि वह पूरी की पूरी पिघल कर आपके खून में मिल जाती है.फिर क्या होता है..फिर आप कवि के विचार को सतर्क स्वीकार करने लगते हैं और अपना द्रवित मानस लेकर कविता के दीवाने से हो जाते हैं. फिर कविता पर खो चुके विश्वास की कोपल निकलने लगती है.कहना न होगा कवि होने की अंधी दौड़ में नाशुमार मणि कछुए की चाल से मंजिल पर पहुंचे हुए ऐसे युवा हैं जिनको इस हासिल पर कोई इतराहट नहीं है.उनकी तमाम रचनात्मकता और जीवन में एक सुहानी सी स्थैतिकी  है जिसकी गतिज को पहचानने का काम दूसरी ओर का है.भाषा को वह रहस्य से भरी ताकत मानकर फिर फिर चकित होते हैं और फिर फिर पाठक को चकित कर देते हैं....आइये आज हम उनके इस गुलदस्ते *दुर्दिनों की बारिश में रंग*के फूलों को निहारें,उनकी खुशबू को अपने भीतर समाहित करलें, इन गुलों के तल्ख़ -ओ -शीरीं बतियों के मर्म को समझें और अपने शब्दों में बयां कर दें. यह साहित्य की ही बात होगी. हमारे हिस्से की जरूरी बात होगी..!--ब्रज श्रीवास्तव
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ब्रजेश कानूनगो :
दुर्दिनों में बारिश के रंग
मणिमोहन मेहता की छोटी और संवेदनाओं से लबालब कविताएँ

भाई मणि मोहन मेहता की कविताएं अक्सर फेसबुक तथा पत्र पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूँ। दो एक बार देवास के साथियों के आग्रह ,आयोजन के चलते  प्रत्यक्ष सुनने का अवसर भी आया लेकिन कुछ कारणों से देवास नहीं पहुंच पाया। ये मेरा दुर्भाग्य ही रहा।
मणिभाई से सोशल मीडिया पर संवाद बने रहा है। इस माध्यम पर कुछ कविताओं को रचते हुए हम दोनों ने ही अपनी रचनाओं को एकाधि बार संशोधित भी किया है।
बोधि प्रकाशन की खास योजना'बोधि पुस्तक पर्व'  के तहत उनकी कविता पुस्तिका का आना अपने आप में महत्वपूर्ण इस मायने में भी है कि अधिक और प्रबुद्ध पाठकों के बीच वे पहुंची हैं।
छोटी छोटी पंक्तियों में उनकी छोटी छोटी कविताएँ बहुत प्रभावित करती रहीं हैं। 'दुर्दिनों में बारिश के रंग' में भी ऐसी ही खूबसूरत और ह्रदय स्पर्शी सत्तावन कविताएँ हैं।
संग्रह की हार्ड कॉपी वैसे मेरे पास नही है, फिर भी अच्छी कविताओं को पढ़ने के लालच में ब्रज जी द्वारा उपलब्ध कराई पीडीएफ द्वारा संग्रह की कविताओं से गुजर कर मैंने बहुत कुछ पाया ही है।
आमतौर पर अपने आसपास के परिदृश्य और अनुभवों, अनुभूतियों को वे भी अपनी कविताओं के विषय बनाते रहे हैं। लेकिन कविता की उनकी व्यापक समझ और विश्व कविता का सानिध्य और अध्ययन कविता को परिपक्वता की तरफ ले जाता दिखाई देता है।
कविताओं की सहजता,सरलता और कथ्य का सीधा सम्प्रेषण उन्हें पाठकों के बहुत करीब ले जाने में सफल हो जाती हैं।
संग्रह में कविता और कविता की भाषा को लेकर बहुत विशिष्ट प्रयोग मणि की कविताओं में बिखरे पड़े हैं। कविता शीर्षक से कविता में या फिर 'डंपिंग ग्राउंड' कविता में भी उनका डर व्यक्त हुआ है कि कहीं कविता भाषा का डंपिंग ग्राउंड न बना दी जाए। कविता का शिविरार्थी ,इंतजार, अब और नहीं जैसी कविताएँ कवि की ईमानदार भाषाई चिंता और कविता में जीवन को बचाये जाने की जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं।
यों तो कवि मन सामान्यतः जीवन के विभिन्न कोमल पक्षों के इर्द गिर्द घूमता रहता है। एक बच्चा मन सदैव रचनात्मक सृजन की पृष्ठभूमि में धड़कता रहता है। मणि जी भी बादल के पहाड़, शेर, भालू, हाथी,इंद्रधनुष आदि के लिए मचलते हुए 'अपना हिस्सा' कविता में इसकी पुष्टि करते हैं। यह कविता मुझे बहुत पसंद आई।
प्रेम की अभिव्यक्ति भी मणी की कविताओं में खूबसूरती से हुई है। प्रेम कविताओं की एक श्रृंखला में हालांकि  11 छोटी कविताएँ शामिल हैं लेकिन कविता 'एक दिन' जैसी छोटी से प्यारी कविता भी मन मोह लेती है।
‘एकालाप' शीर्षक में कवि अपने विभिन्न मनोभावों, मनः स्थितियों से गुजर कर  टुकड़ों टुकड़ों में 12 छोटी कविताएँ रचकर एक अलग भीतरी द्वंद्व को अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है।
शाम,फूल,लौटना,आंसू जैसी सुंदर कविताओं को शायद मैंने सोशल मीडिया पर बनते हुए,विकसित होते हुए पहले ही देखा और महसूस किया है।
समग्र संग्रह पर यदि एक वाक्य में अपना मत व्यक्त करना चाहूं तो यही कहूंगा मणिमोहन छोटी और प्रभावी  कविताओं के,  संवेदनाओं से लबालब भाषा सम्पन्न,एक प्रयोगधर्मा कवि हैं। बहुत बधाई और शुभकामनाएं मणि मोहन मेहता जी।
ब्रजेश कानूनगो
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सुधीर देशपांडे :
उनकी कविताएं जिस तरह चहल कदमों करती हुई आपके दिलो दिमाग में उतरती है और अपने आकार प्रकार से भी अपनी ओर आकर्षित करती हैं वह अद्भुत है। मणिजी को छोटी कविताओं के सिद्धहस्त कवि के रूप में खासी पहचान मिली है। विषय और वस्तु दोनों का चयन और निर्वहन कुछ ही शब्दों में कर देने का सामर्थ्य चकित कर देता है। संप्रेषणीय चित्ताकर्षक, कविताओं के लिए और इस नये संग्रह के लिए बधाई।
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ओमप्रकाश शर्मा :
साकीबा के  निरंतर सक्रिय और सर्वप्रिय साथी मणि मोहन मेहता जी के कविता संग्रह "दुर्दिनों की बारिश में रंग" पर कुछ भी लिखने के पूर्व मन में यह विचार चल रहा है कि क्या मैं कुछ ऐसा लिख पा रहा हूँ, जो मणि जी की समर्थ कलम से छूट गया हो। उत्तर भी मन ही दे रहा है कि कविता संग्रह का कैनवास बहुत बड़ा है, वहाँ एक पंख, फूल, बिल्ली, बच्चे, बेटी,आंसू, स्कूल, घर, मिट्टी, पानी, उजाड़ गाँव, अलाव, युद्ध, प्रेम, श्रद्धांजलि, प्रार्थना, दुख, अफसोस, इंतज़ार, से लेकर ईश्वर तक सारे विषयों को अपनी कविताओं में पनाह दी है।साकीबा के सुधी सदस्य अच्छी तरह से जानते हैं कि मणि जी की कविताएँ कम से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात पूरी विशेषज्ञता के साथ कहतीं हैं।उनकी भाषा सहज है ,बिंब विधान कविताओं को उत्कृष्टता के साथ विशेष बनाता है। पिता के लिये और बेटी जैसी कविताएँ संवेदना   जगाती हैं।"अपने बच्चों के लिए"कविता में वे लिखते हैं-"ध्यान रखना पीठ पर टंगे अपने बस्ते का
कि कोई झांसा देकर बदल सकता है
इतिहास की किताबें"
छोटी छोटी ग्यारह प्रेम कविताएँ प्रेम के अतल सागर में गोते लगाने छोड़ देतीं हैं।'एकालाप'उपखंड में कविताओं के केप्सूल बड़ा असर करते हैं।
"वह घबराया सा देखता है
कविता की तरफ
और मासूमियत से पूछता है-"यह कुछ बोलती क्यों नहीं!"ऐसी ही कविताओं के संग्रह के लिए मणि मोहन मेहता जी को बहुत बहुत बधाई और संग्रह की पीडीएफ फाइल उपलब्ध कराने हेतु ब्रज जी का धन्यवाद
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अर्चना नायड्यू
कुशल और संवेदनशील सृजन किसी रचनाकार की गहरी कल्पनाशीलता और साधना का परिणाम होता है।कुछ कलमकार अपनी प्रतिभा से स्वयं प्रकाशित होते है कुछ सानिध्य और समय काल से प्रभावित होकर कला साधक बन जाते है।डाक्टर मणि मोहन मेहता उन्ही चुनिंदे साहित्यकारों में से एक है जिन्होंने ो समर्पित भाव से निरंतर सृजन करते हुए कविताओं को नई ऊंचाइयां दी है। दुर्दिनॉ की बारिश में रंग,शीर्षक से डॉक्टर मेहता का नवीनतम कविता संग्रह अपने अनूठे रंग के कारण एक अविस्मरणीय संग्रह बन कर उभरा है। संवेदनशील कवि हॄदय जहाँ भी संघर्ष और अन्याय देखता है वही कविता मुखरित हो उठती है इंतजार,और इसीलिये जैसी कविता में सृजन की धरती को काव्यातिक शब्दों से संवारा है। ईश्वर की दिनचर्या जैसे विषयों पर विरले कवि ही लिख सकते है जहाँ सुंदर रूपक है और भाव अपनी गहराई  के कारण स्थायित्व प्रभाव छोड़ते है। नवरात्रि,मिट्टी,अलाव,ज्ञानीजी जैसी कविता के पीछे कवि का दर्द  और छटपटाहट ,पढ़ने वाले को बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देता है। पिता के लिए भावनाओं का ज्वार अपनी रवानगी से बहता है। वही पर मेहता साब की शायद,अवसान उम्मीद भरी कविताये है। ओ हेनरी की कथा में चिपका हुआ आइवी को लता से ,गहरे हरे रंग का पत्ता बन कर ,जैसी कविता कवि के जीवंतता और सुंदर व्याख्या को दर्शाता है। इतवार की एक सुबह,बेटी ,कन्फैक्शन,ईश्वर और इम्तिहान जैसी कविताओ में कवि ने अपने अनुभवों को सजीव किया है। कुछ छोटी प्रेम कविताओं ने भी अपनी मिसाल छोड़ी है। गागर में सागर की तरह हर शब्द अपनी रोचकता से हर वर्ग को प्रभावित करेगा। दुर्दिन की बारिश में रंग डाक्टर मेहता की एक अनूठी पहल है।जिसमे पाठक को संतुष्ट करने और बांधने की क्षमता है । साहित्यप्रेमी ऐसी कविताओं को लंबे समय तक याद करेंगे।उनके उज्जवल भविष्य के लिए ढेरो शुभकामनाएं।
शेष शुभ।
*ई.अर्चना नायडू ,भोपाल*
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मञ्जूषा मन :
*दुर्दिनों की बारिश में रँग* मणि मोहन मेहता जी का कविता संग्रह
डॉ. मणि मोहन मेहता जी की कवितायें बहुत बार पढ़ीं हैं, ऐसी कविताएँ जिन्हें पढ़कर एक ही विचार आता है कि... हाँ यही तो कहना था मुझे... अर्थात इतनी अपनी सी कि हर पाठक को अपनी बात लगती है... और इतनी सरल और सहज कि... चार बार पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती, न शब्द कोष खंगालने की।
मणि जी के कविता संग्रह *दुर्दिनों की बारिश में रँग* में एक साथ कई कविताएँ पढ़ने मिलीं। मणि जी की कविताओं को पढ़कर बहुत बार उनपर लिखने का प्रयास किया.... पर कहना सहज नहीं रहा क्योंकि ये कविताएँ मन में मिठास सी घुल जातीं हैं और मिठास को कैसे बताया जाए। ये छोटी छोटी कविताएँ अपने भीतर बड़ी और गहरी बात छुपाए हुए हैं।
मणि जी की कविताओं में उनका सहज व्यक्तित्व झलकता है... जितनी सहज कविताएँ उतने ही सहज वे स्वयं हैं। शब्दों की मितव्ययिता उनकी मुख्य विशेषता है... उनके विषय अपने घर, अपने आस-पास के वातावरण, अपने गली-मुहल्ले से लिए गए हैं।

"किसी दिन
डाल दूँगा
एक कटोरी आटे के साथ
अपनी थोड़ी सी भाषा भी....
.....
इस तरह
इंतज़ार करूंगा
नई भाषा का

तब तक
स्थगित रहेगी कविता..."

बहुत सुंदर कविता है। ऐसे विचार... ऐसी कल्पना अद्भुत है।  मणि जी ने बेटी पर कई कविताएँ लिखीं... सभी कविताएँ सीधे मन को छू जातीं हैं।
वहीं एक छोटी सी कविता...

"सुनो ज्ञानी जी
एक ज्ञान की बात
जिस स्त्री के साथ रह रहे हो
तुम पिछले तीस वर्षों से
वह तुमसे प्रेम नहीं करती!"

बस कुछ पंक्तियाँ और रिश्ते को सारी परतें खोल दीं... और शायद ज्ञानी जी की आंखें भी। अद्भुत है यह कविता।
एक कविता "कन्फेशन" कितनी सहजता से कह दी वो बात जिस पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता।

"मामूली से बुखार के सिरहाने बैठकर
रतजगे किये उसने
छतरी की तरह तनी रही सिर पर
दुर्दिनों की बारिश में
बीसियों बार

... जो कहीं दर्ज नहीं
उसकी स्मृतियों में
बहरहाल
इस बार
यह कन्फैशन भी
शुभकामनाओं के साथ।"

यूँ तो हर कविता गहरे प्रभावित करती है, कुछ सोचने पर मजबूर करती है सब पर चर्चा करना कठिन है किन्तु कुछ कविताएँ जैसे "अफसोस", "इस वक्त", "युद्ध", "छत्ता", "कस्बे का एक दॄश्य" "प्रेम कविताएँ" ये कविताएँ पढ़कर आगे पढ़ने के लिए विराम लेना पड़ा मन बहुत देर तक इन से बाहर नहीं निकल पाया।

हम कह सकते हैं कि मणि मोहन जी के काव्य संग्रह *दुर्दिनों की बारिश में रंग* में वाह है, आह है और थाह भी है। एक संग्रहित करने योग्य पुस्तक पाकर, पढ़कर, मन और पुस्तकालय दोनों समृद्ध हुए।

मणि मोहन जी को अनेकों शुभकामनाएं... हार्दिक बधाई।
*मंजूषा मन*
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दिनेश मिश्र
दुर्दिनों की बारिश में रंग की पूरी तो नहीं कुछ कविताएं पढ़ीं, मणि मोहन जी की ये ख़ासियत हैं कि वे बहुत कम लफ़्ज़ों में बहुत बड़ी और गंभीर बात करने में पारंगत हैं, लगता है सुबह से शाम तक और रात से सुबह तक कविता उन तक पहुंचने बैचैन रहती है, और उन तक पहुंचकर कुछ इस तरह व्यक्त होती है जैसे इससे मुकम्मल कुछ हो ही नहीं सकता, उनकी संवरी हुई दाढ़ी और तराशी हुई शख्सियत की ही तरह कविताएं भी बहुत compect और to the point हैं। छोटी छोटी चीज़ों को महसूसते हुए उनकी कविता जन्मती हैं, और फिर एक गंभीर से मुद्दे पर कुछ सवालों पर जाकर विराम लेती हैं, और छोड़ जाती हैं हमारे लिए कुछ दायित्व जिनको निभाने का और जवाब देने का काम हमे करना हैं।
मणि जी से पुनः अनुरोध है कि कुछ ऐसे वर्कशॉप्स का तानाबाना बुने जहां हम अपनी कविताओं की बुनावट की खामियां दूर करने में कामयाब हो सकें।
मणि जी को बधाइयाँ और साकीबा को आभार।
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उदय ढोली :
इस संग्रह रूपी पुष्गुच्छ में सजायी गयी सभी कविताएँ मणिमोहन जी के काव्यकुंज की श्रेष्ठतम सुरभित कलियाँ  हैं जो अपनी सुगंध के ज़रिये सीधे पाठक के मर्म को छूती हैं, छत्ता,अलाव,इम्तिहान और ज्ञानीजी जैसी अद्भुत कविताएँ वाक़ई दुर्दिनों की बारिश में रंग की तरह ही हैं।
मणि जी बड़े संवदेनशील कवि हैं और बिना किसी वैचारिक पूर्वाग्रह के बेलाग  बात कहते हैं और पाठक तक अपनी बात पहुँचाने में पूर्णतः सफल होते हैं वह भी बिना अनावश्यक विस्तार के,कम शब्दों में ज़्यादा कहकर गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करने वाले मणिजी सृजनपथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहें व हम उनके लेखन से लाभान्वित होते रहें ईश्वर से यही प्रार्थना
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राजेन्द्र श्रीवास्तव
आदरणीय मणि मोहन जी का काव्य संग्रह "दुर्दिन की बारिश के रंग की अभी कुछ कविताएँ हिस्सा पढ़ सका हूँ।
लीला, अब और नहीं, शिक्षक से, एक पल मिट्टी रूपान्तरण और छत्ता जीवन के बहुत करीब लगी। कथ्य सामान्य किंतु गहन चिंतन।
उनकी स्पष्टवादिता का गुण कविताओं में भी झलकता है।
कविताओं को दुरूह होने से बचाया है। आमजन की आमकविताएँ। बिम्ब भी आसपास के ही। कैनवास जो अनायास ही बड़ा बन जाता है।
एक पाठक, व प्रशंसक की ओर से बहुत बधाई व शुभकामना।
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संध्या कुलकर्णी
मणि जी की कविताओं में एक प्रकृति प्रेमी,एक पिता ,एक बेटा एक ज़िम्मेदार नागरिक और एक माँ भी दिखाई देता है जो कभी अपने बेबस आक्रोश को आवाज़ देता है और कभी ये बेबसी और कभी प्रेम कभी हताशा और प्रकृति की सोंधी सी महक आपके दिल में उतार देता है ।और इतने सादा तरीके से बिलकुल भी जटिल हुए बिना ये काम अंजाम देता है ,और शायद इसलिए इनकी कवितायें याद भी रह जाती हैं और अपने उद्धेश्य में सफल भी होती हैं ।
खूबसूरत सोद्देश्य कविताओं की बधाई और मणि जी को शुभकामनाए
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अबीर आनंद
ज़िन्दगी को सजीव कर देती हैं कविताएँ। जिस ‘कम्फर्ट जोन’ में आदमी ने अपना नया जीवन तलाश लिया है और जिसे अपना पूरा संसार मान लिया है, उसे एक झटके में निरर्थक कर देती हैं। इस नए कम्फर्ट जोन में पीले पत्ते गिरकर मिटटी के रंग के नहीं होते, किचन की स्लैब से बर्तन गिरने की आवाजें नहीं होतीं और होती भी हैं तो किताब में मग्न आदमी के ज़हन में बर्तन के नाम का अनुमान तो हरगिज़ नहीं होता; इस कम्फर्ट जोन में घरों की छतों पर अपने नीड़ों में वापसी करते परिंदों की परछाइयाँ नहीं गिरतीं। इस कम्फर्ट जोन के घरों पर तो छतें तक नहीं होतीं।
ये कविताएँ उस दिनचर्या से उपजी हैं जिसने हर पिघलते दिन के साथ इनके जीवंत एहसास को जिया है; घर लौटते हुए अपनी पत्नी के लिए वेणी और बेटी के लिए आइसक्रीम खरीदी है। अगर कवि उन तथाकथित ‘मशरूफ’ शहरों में रहता और यही विषय रहे होते तो अनुमान लगाना सहज है कि इन कविताओं का शून्य और गहरा होता, रंग और चटख होते, व्याकुलता और मार्मिक होती। इन ‘मशरूफ’ शहरों में रहने वाले लोग शाम को घरों की ओर चलते ज़रूर हैं पर कितने लौट पाते हैं पता नहीं।
अपने छोटे संसार में जहाँ यह सब  पाषाणकालीन मौलिकता में जीवित है, वहाँ से इन कविताओं का फूटना कवि की मौलिकता और उसकी गहरी जड़ों का, उसके कुलबुलाते मन मस्तिष्क का, प्रश्न उठाने के साहस का, बूँद भर पानी से तृप्त हो जाने के संतोष का, लुप्तप्राय हो चले आम आदमी के खुद में मग्न रहने के पागलपन का, मिट्टी के आशीर्वाद का, परिवार को प्रसन्नता देने की उपलब्धियों का, चीटियों और गिलहरियों के साथ सुख-दुःख बाँटने के सौभाग्य का, किताबों की जिरह में हार जाने के मर्म का, शब्दों को कैद रखने के प्रायश्चित का और फिर उन्हें स्वतंत्र कर देने के उल्लास का.....गहन परिचायक है।
पन्ने करीब-करीब सब पलटे जा चुके हैं। शब्दों के मायने साथ-साथ ज़हन में तैरने लगे हैं, अंत में पाया कि एक भी शब्द कठिन नहीं था, न नया था कि गूगल से व्याख्या मांगने की ज़रुरत पड़े। इन साधारण से शब्दों के ज़रिये एक साधारण सी लगने वाली यात्रा में कुछ असाधारण पड़ाव हैं। एक कविता कभी अर्धविराम की तरह ख़त्म होती है और कहती है ‘तुम खुद सोचो’। कुछ पूर्ण विराम हैं जो कहते हैं ‘ये साधारण किन्तु स्थापित तर्क है, सोचना समय की बर्बादी है’। इन्हीं साधारण से शब्दों और उनमें बिंधी हुई भाषा को बचाने की और इस भाषा से उपजी कविता को अमृत्व देने की जिजीविषा एक सतत परछाईं की तरह हर पूर्णविराम में दिखाई देती है। वह फिर चाहे ‘डंपिंग ग्राउंड’ से ‘किसी तानाशाह की जी हुजूरी अभिनन्दन के बाद ज़हन में बची रह गयी भाषा’ हो, ‘इंतज़ार’ में ‘किसी दिन डाल दूँगा एक कटोरी आटे के साथ अपनी थोड़ी सी भाषा भी’, ‘कविता’ में बहते हुए पसीने और लुढ़कते हुए आंसुओं के साथ ‘कभी-कभी ऐसे ही आ जाती है कविता की भाषा भी होठों तक’,  ‘अब और नहीं’ में ‘आपको पता नहीं इस वक़्त किस कदर बेचैन है कविता मेरे करीब आने के लिए’, ‘शरणार्थी शिविर’ में ‘अपने सिर पर बचे-खुचे अर्थ की गठरी उठाए कुछ शब्द आए’, ‘शायद’ के अलग मायने उभर कर आते हैं जब कवि कहता है ‘भाषा के आसमान का यह टूटा हुआ सितारा है....’ और ‘दुनिया की तमाम भाषाओं के अन्धकार में मौजूद है यह शब्द जुगनू की तरह बुझता-चमकता’, और अंत में ओ हेनरी की ‘लास्ट लीफ’ के गहरे हरे रंग के पत्ते में जड़ दिया भाषा का यह नगीना ‘यह एक छोटा सा शब्द जो बारिश, हवा और बर्फवारी के बीच ओ हेनरी की कथा में चिपका हुआ है आइवि की लता से गहरे हरे रंग का पत्ता बनकर’, ‘घर’ में ‘अब बस घर चाहिए उन्हें, माँ चाहिए, हवा में उछलती गेंद की तरह, जानी पहचानी भाषा चाहिए’।   
इन कविताओं में रिश्ते हैं... ‘एक दिन’ में ‘अपनी नम आँखों से मेरी तरफ देखते हुए तुम जिद करोगी वहाँ चलने की और मैं कहूँगा-उड़ सकोगी इतने प्रकाश वर्ष दूर’, ‘कन्फैशन’ में ‘छतरी की तरह बनी रही सिर पर दुर्दिनों की बारिश में बीसियों बार’, ‘पिता के लिए’ में ‘कहाँ दे पाया इतना प्यार बच्चों को जितना मिला मुझे अपने पिता से’, कई बार यह मन में गुजरा कि मैं पिता की तरह कैसा हूँ, कम से कम अपने पिता की तुलना में। ‘बाप बनकर तेरे करीने से लेटता हूँ तो अक्सर सोचता हूँ, मैं बेटा बुरा था या बाप बुरा हूँ’। अच्छा है कि यह सवाल उठता है...उठता रहे। ‘बेटी’ में भी मुझे अपनी एक कविता का अक्स गहराई से नज़र आता है जब कवि कहता है ‘ज़रा सी आहट पर भागती है बेटी घर का दरवाजा खोलने के लिए’। एक निजी अनुभव से जन्मी उस कविता की अनुगूंज यहाँ भी सुनाई देती है ‘और यह कमबख्त दरवाजा भी अपने आप नहीं खुलेगा’। मेरी पत्नी की पहली प्रेगनेंसी थी जो हमें टर्मिनेट करानी पड़ी क्योंकि बच्चे की धड़कन नहीं थी। हम लोग बेटी की उम्मीद कर रहे थे। तब लिखी थी यह कविता ‘तू मेरे घर जरूर आई होगी, मैंने ही दरवाजा न खोला होगा। थक जाता हूँ, दफ्तर से आकर सो गया हूँगा और तेरी माँ भी दिन भर की थकी अलसाई होगी... तू मेरे घर जरूर आई होगी।’

प्रकृति है....‘रूपांतरण’ में ‘कितनी ख़ामोशी के साथ हो रहा है प्रकृति में रंगों का यह रूपांतरण’, ‘फूल’ में भी प्रकृति और दर्शन का प्रभावी संगम देखने को मिलता है ‘दिन निकलते ही आ बैठती है धूप, तितली, भंवरे, मधुमक्खी, दिन भर लगा रहता है किसी न किसी का आना-जाना..फूलों को पता ही नहीं चलता कैसे गुजर जाता है दिन और करीब आ जाती है शाम....जिसकी बाहों में उसे टूटकर बिखरना है’।      
पशु हैं... जो प्रकृति और कवि में एकाकार हो गए हैं। ‘अपना हिस्सा’ में ‘मुझे सिर्फ बादल के कुछ पहाड़, शेर, भालू, हाथी, बादल के कुछ टुकड़े दे दो’, ‘अफ़सोस’ में तोते, बिल्ली और कुत्ते के माध्यम से मनुष्य के दुर्व्यवहार को रेखांकित किया है जो सराहनीय है। ‘बिल्ली’ में मनुष्य की बुद्धिमत्ता को धराशाई कर देने वाला चित्रण है जो कवि की डिग्रियों के वर्णन से प्रभावी बन गया है. ‘और एक हम हैं ढपोर शंख, एम ए, एम फिल, पी एच डी’। करीब दस पंद्रह साल तो ज़रूर गुजर गए होंगे ‘ढपोर शंख’ को पढ़े या इस्तेमाल किए हुए। इस शब्द को पुनर्जीवित करने के लिए आभार।   
दर्शन है...‘अलाव’ में ‘उसे रुकने के लिए पुकारती ही रह गई अलाव की आग’, ‘मिटटी’ में ‘मिटटी से ज्यादा अनमोल कुछ भी नहीं है इस संसार में’, ‘दुःख’ में फलसफा है ‘अब इतनी सी बात पर क्या उठा कर फेंक दें अन्न से भरी थाली, क्या इतनी सी बात पर देने लगें ज़िन्दगी को गाली’।
इन सब के अतिरिक्त ‘प्रेम गीत’ और ‘एकालाप’ में छोटी पर बेहद आकर्षक पंक्तियाँ हैं। संग्रह के !०🎂अंत में ये वैसे ही पेश आती हैं जैसे छप्पन भोग खाने के बाद स्वादिष्ट मुखवास।
एक परिपूर्ण कविता संग्रह है जो न्यौता सा देता है कि यदि जीवन में सामंजस्य बनाए रखना है तो कौन से अवयवों की कितनी मात्र होनी चाहिए। जमीन से जुड़े हुए लोगों के जीवंत सन्देश हैं जो आशा है कि ‘मशरूफ’ लोगों के ज़हनों में पहुँचें।    
कुछ विचार फिसल गए हैं लिखते-लिखते। कभी याद आए तो मना कर भेज दूँगा। मणि भाई को हार्दिक बधाईयाँ। फेसबुक पर उनकी कविताओं और उनके अनुवादों से रू-ब-रू होते रहते हैं। बहुत कुछ सीखने और मनन करने को मिलता है। प्रार्थना है कि ये सफ़र इसी तन्मयता से जारी रहे। मधुमक्खियों, गिलहरियों, चींटियों और बेटियों को जीवन मिलता रहे, पुनर्चक्रण होता रहे। वरना आदमी को खुद कहाँ पता है कि वह क्या कमाने निकला था।
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कनक :
मणि सर का नाम पहली बार मैंने अपने शिक्षक से सुना था  उन्होंने कहा था कि - एक ही शख्स है पूरे बासौदा में जो वाकई कवि कहलाने के लायक हैं वे है मणि मोहन मेहता ।
उनकी यह बात मणि सर को पढ़कर 101 प्रतिशत सत्य साबित होती है।
दूसरी बार बृज चाचा जी और पापा जी से सुना..लेकिन जब स्वयं उनसे बात की उस क्षण महसूस हुआ कोई शख्स इतना ऊँचा कद होने पर भी इतना जमीनी कैसे हो सकता है! वह बहुत ही संवेदनशील,  सरल , आडंबर रहित व्यक्तित्व के धनी हैं।
मैं उनके ही शहर से हूँ यह मेरा सौभाग्य है और अबतक मिल न पाना दुर्भाग्य  यह परीक्षाएं पीछा ही नहीं छोड़ती अभी भी परीक्षाएं चल रही हैं वो तो रविवार का शुक्रिया जो उसने इस बीच आपको पढ़ने का मौका दिया। 
सोशल साइट्स  पर आपकी Photography और भाषान्तर कविता शृंखला नियमित ही पढ़ने व देखने का सुअवसर प्राप्त होता है। प्रकृति के लिए आपका प्रेम देखते ही बनता है।
*दुर्दिनों की बारिश में रंग*  सबसे पहले कविता संग्रह के लिए बधाई  स्वीकार करें सर  आप जिस तरह बड़े -से - बड़े व छोटे -से- छोटे विषय को खास बना देते हैं वह अद्भुत है.. एक-एक कविता रत्नों की तरह दिमाग द्वारा मन की खान से निकालकर भाषा, भावनाओं, चिंतन, अध्ययन व अनुभव द्वारा तराशी गई हैं।
आपको पढ़ते हुए मैंने कविता के बारे में बहुत कुछ जाना, आप कितनी सरल व सहजता के साथ कम शब्दों में अपनी बात कह जाते हैं.. वह सहज ही जुबां से मन का सफर तय कर जाती हैं। फिर चाहे वह प्रेम कविताएं हो या सामाजिक चिंतन पर, एक अनगढ़ सा सपना, अफ़सोस, युद्ध , इस वक्त व एक पिता का अपने बच्चों के लिए चिंतन "अपने बच्चों के लिए, बेटी" । मैंने कभी किसी पंख को देखकर उसकी कहानी जानने की कोशिश नहीं की पर.. कविता "पंख" अब से हर गिरते पंख के साथ याद आएगी।
इसलिए व मिट्टी 

"देखो ..मोल-भाव मत करना
उस गरीब से
जो रोशनी से चमचमाते अंधकार में बैठकर
मिट्टी के दिये बेच रहा है।"
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भवेश दिलशाद 
दुर्दिनों की बारिश में
कवि - मणिमोहन मेहता
समीक्षा - भवेश दिलशाद
इस कृति से पहले मणिमोहन जी के कवि से परिचय सोशल मीडिया के ज़रीये रहा है और गाहेबगाहे उनकी रचनाएं पढ़ता रहा हूं। उनके द्वारा किये गये अनुवाद भी कई स्थानों पर पढ़ने को मिलते रहते हैं। पिछले दिनों सतत साहित्यिक समूह धागा पर उनके द्वारा अनूदित कविताएं भी चर्चाधीन रही थीं लेकिन उस दिन मैं वहां दुर्भाग्यवश उपस्थित नहीं हो सका। उनके अनुवाद से मुताल्लिक कुछ बातें मैं मेहता जी से करना चाहता था, लेकिन ख़ैर फिर कभी सही। यहां इस काव्य संग्रह पर कुछ बातें संक्षेप में करने की चेष्टा करता हूं इस पुनर्निवेदन के साथ कि कविता की इस विधा में मेरा कोई ख़ास दख़ल नहीं है इसलिए बहुत से कथनों को मात्र मेरी जिज्ञासा ही समझा जाये न कि कोई दावा या बयान।

दुर्दिनों की बारिश में एक ऐसा कविता संग्रह है जिसकी अधिकतर कविताएं पठनीय हैं और इन अधिकतर में से अधिकतर पाठक को प्रभावित करने की सामर्थ्य भी रखती हैं। ये कविताएं पढ़कर शायद कई पाठकों को महसूस हो सकता है कि यह उनके जीवन की ही वह कोई बात है जो किसी हमाहमी या उथलपुथल में कहने से, सोचने से या महसूस करने से छूट गयी थी। इस स्तर पर ये कविताएं बहुत कामयाब नज़र आयीं मुझे कि संग्रह की लगभग सभी रचनाएं लगभग हर शब्द तक संप्रेषित होती हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि इनमें विचारों या भावों की गहनता न हो या किसी किस्म का सतही साहित्य हो, बल्कि इसका अर्थ यह है कि यह मंझे हुए रचनाकार की रचनाएं हैं जो अनुभवों की गूढ़ता को शब्दों के सारल्य में संप्रेषित कर सकता है।
अपनी कलम का भी / रखना पूरा ध्यान / कोई पूरी विनम्रता के साथ / बदल सकता है उसे / चाकू तलवार या खंजर में... अपने बच्चों के लिए शीर्षक कविता में कवि ने स्वयं यह चेतावनी दी है कि कलम को कलम का ही हक़ अदा करना चाहिए। यह पूरा संग्रह पढ़ते हुए कवि की भाषा को एक लेकर अनुभव होता है कि यह अधिकांश स्थानों पर परिष्कृत और एक शिष्ट व्यक्ति की ही भाषा है जिसमें क्रोध, प्रतिरोध, दुख, क्लेश और आर्तनाद सब कुछ व्यक्त हो पा रहा है। इन मनोभावों या विचारों को व्यक्त करने के लिए कवि ने हिंसक भाषा का प्रयोग न के बराबर ही किया है। यह भाषा के स्तर पर कवि की निजता का बोध कराता है।
डंपिंग ग्राउंड, शिक्षक से, ज्ञानी, शरणार्थी शिविर, नवरात्रि, इतवार और तानाशाह, शायद, प्रेम कविताएं, एक लय... इस संग्रह से ये कुछ शीर्षक मैंने चुने हैं और इन्हें पढ़ने का आग्रह मैं हर पाठक से करना चाहूंगा। ये कविताएं आप हमेशा अपने साथ रख सकते हैं। ये कविताएं इस संग्रह से मेरी पसंदीदा भी हैं। कुछ बातें हैं जो मन में आती हैं इस संग्रह से गुज़रते हुए...
क्या वाकई समकालीन कविता के लिए विमर्श आमंत्रित करने वाला होना आवश्यक है? इस संग्रह की अधिकांश कविताएं पाठक को भाव या विचार स्तर पर आंदोलित करने का गुण रखती हैं बजाय इसके कोई विमर्श छेड़ें, कम से कम कोई नया विमर्श छेड़ने में तो इन कविताओं की कोई रुचि नहीं है।
आजकल की कविताओं के बारे में यह भी एक मान्यता हो चली है या धारणा बन गयी है कि विषय के अनुकूल भाषा का चयन किया जाये। प्रतिरोध या व्यंग्य की भाषा आजकल की कविताओं में बेहद उग्र या हिंसक नज़र आती है लेकिन इस संग्रह में जैसा मैंने पहले उल्लेख किया, ऐसा नहीं है।
इस संग्रह की तमाम कविताएं छंद मुक्त होने के बावजूद लयमुक्त नहीं हैं। ये एक सरस एवं गुनगुनाते हुए कवि की रचनाएं हैं जिनमें कवि अपनी लय ताश पाता दिखता है और वह लय पाठक के साथ भी तादात्म्य स्थापित करती है। बात यह है कि छंद मुक्त होने के बावजूद कविता की एक लय हो सकती है तो होना चाहिए भी कि नहीं? यह कविता का गुण है या केवल एक लक्षण विशेष मात्र?

चूंकि मणिमोहन भाई अनुवाद कर्म में बेहद सक्रिय रहे हैं और लगातार इसलिए भ्ज्ञी उन्होंने विश्व साहित्य का अध्ययन किया है। संभवतः इसी कारण से इस संग्रह को पढ़ते हुए मेरी एक जिज्ञासा रही कि मैं उनकी विश्व दृष्टि को समझ सकूं या उसे कहीं इस संग्रह में रेखांकित कर सकूं लेकिन मेरी ही अज्ञानता है कि दो पाठ में मुझे यह हासिल नहीं हुई। इसके लिए मैं इस पुस्तक का एक पाठ कम से कम और करूंगा। फिर भी नहीं समझा तो अग्रज के सामने प्रश्न लेकर उपस्थित हो जाउंगा। फिलहाल, मणि भाई को बधाई और साकीबा को साधुवाद यह आयोजन करने के लिए। शुभकामनाएं।
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जतिन अरोड़ा :
मेरे प्रिय कवि मणि दा....
एक कोने में धूल खाती कलम आपकी कविताएँ पढ़कर फिर मेरे हाथ में आ गई।
बड़ी बात कहने के लिए बड़े शब्द नहीं चाहिए. बिलकुल ही आसान शब्दों की बुनाई के उस्ताद हैं मणि दा. जब भी पढ़ लो तो एेसा ही महसूस होता है कि अरे मैं भी तो यही कह रहा था मेरे मन की बात
आस पास का छोटा सा किस्सा भी जो हमारी आँखों के सामने से गुजर कर भी अनदेखा रह गया है वही से  एक कविता बनकर जब दिलों दिमाग में शीतल जल शीतल पवन की भाँति उतरती है तो बरबस ही हाथ सलामी ठोक देते हैं।
मणि दा की कविता पढ़ते हुए जिनको साँस रुकने और दिल की धड़कन न सुनाई देने की शिकायत है कृपया वे हाथ खड़ा करेेंे



बहुत बहुत शुक्रिया मणि दा..आप से नहीं मुलाकात होती तो  मैं लिखना ही भूल गया होता..
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मनीष वैद्य :
मणिमोहन मेहता की एक -एक कविता और उनकी पंक्तियाँ बड़े चाव से पढ़ता रहा हूँ।उनकी कविताओं की तरह ही उनके अनुवाद भी बेहतरीन होते हैं।उनकी रचनाओं के प्रति मेरे चाव रखने का कारण महज यह नहीं है कि वे मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं बल्कि इसलिए भी कि वे समकालीन हिंदी के उन महत्वपूर्ण कवियों में हैं जो पूरे सरोकारों और अपनी जिम्मेदारियों की गहरी  समझ और विचारों की सान पर अपनी रचनाओं को निरंतर तेज करते हैं।वे जितने उम्दा कवि हैं उतने ही आत्मीय व्यक्तित्व भी।मेरे प्रति उनका स्नेह इतना है कि उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है।दुर्दिनों की बारिश में रंग ही नहीं, उनके पहले संग्रह से लेकर अभी ताज़ा कविताओं तक मेरी प्रिय कविताओं की लंबी फेहरिश्त है।उनके पास अपनी भाषा का मुहावरा है, जो काफी समृद्ध है।अनूठे शिल्प में कॉम्पेक्ट लिखते हुए भी उनका लिखा समग्र ध्वनि देता है।उनके बिम्ब प्रकृति के हैं और वे इन्हें जिस तरह चुनते हैं, बेजोड़ है।

मनीष वैद्य
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अखिलेश श्रीवास्तव :
कविता के मणि : मणि मोंहन
मणि भाई ने एकबार  मुझसे कहा कि मैं आपको अपने अनुज का दर्जा देता हूँ,कविता में मेरे हिस्से आया यही  अबतक का सबसे महत्वपूर्ण सम्मान है ।अग्रज की कविताओं पर लिखने का सौभाग्य उपलब्ध कराने के लिये मैं सबसे पहले ब्रज भाई व मधु जी को आभार देता हूँ ।
समकालीन हिंदी कविता में तीन तरह की कवितायें मुख्य धारा में है पहला प्रतिपक्ष का स्वर रखने वाली कविताएँ, दूसरी दर्शन का विचार रखती कविताएं व तीसरी आम जन के सुख दुख और उनके जीवन  क्षणों को शब्द चित्रों में व्यक्त करती कविताएं ।
मणि मोहन तीसरी धारा के प्रतिनिधि कवि है ।
मणि मोहन के कविता विषय न तो शिखर के विषय है न तो बुरी तरह पीसे जा चुके पाताल के विषय जिसमें हाहाकार समाहित होता है मणि जी अपने कविता विषयों का चयन उन मद्धिम से घटे घटनाओं से उठाते है जिनके घटने में कोई आवाज नहीं है,चित्कार तो एकदम नहीं है फिर भी मणिशब्दों को पढ़ते ही यह आभास होता है कि यह विषय जीवन मे इस कदर गुंथा है कि लगभग हमारे रोज में शामिल है, कोई और नहीं देख पाता पर मणि देख लेते है उस बेहद चुप से विषय को शब्द देते है और उसे इस तरह निभाते है कि उसकी आहट पाठक देर तक सुनता है ।एक पंक्षी के टूटे पंख देख लेना और फिर उस पर बिना विलाप किये उसमें उसकी उडान बतियाना एक दृष्टि मांगता है मणि जी ने यह दृष्टि उपजाई है जिससे कविता के कथ्य में मौलिकता आती है,दुहराव नहीं आता। यदि कवि ऐसा करने में समर्थ हो तो वह पिष्टपेषण के दोष से अपनी कविता बचा लेता है ।
एक कविता पिता के लिये में मणि कहते है कि

उतना भरोसा कहाँ कर पाया
मैं अपने बच्चों पर
जितना मुझ पर मेंरे पिता ने किया ।

इस कविता में पिता के बदलते व्यवहार पर चिंता है यह चिंता की वजह मणि समझते है पर चिल्ला कर नहीं कहते,यही उनका स्टाइल है ।एक औसत कवि इसे पूंजी वाद से जोड़ देता और फिर कविता में विरोध को हावी कर व्यवस्था को खींच लाता पर मणि अपनी परिपक्वता से कविता में यह अनकहा रख वह कहते है जो अबतक अनकहा है ।उनकी कविताएं अपने कदम नयी धरती पर रखती है,पगड़डिया बनाती है और उन राहो पर चलने से मना करती है जहाँ से भीड़ गुजर चुकी हो ।

पूरा संग्रह अभी पढ़ नहीं पाया क्योकि हर कविता पाठ मांगती है, दुर्दिन के दिन वैसे भी पल पल क्षण क्षण जी कर काटे जाते है उनके रंग वक्त के हर रेशे में होते है उन्हें भाग कर या कूद कर जिया नहीं जा सकता । अग्रज मणि मोहन सहेजने लायक कवि है यह मणि हिंदी कविता के मस्तक पर विराजे ऐसी शुभकामनाओ के साथ संग्रह की बधाई ।संग्रह पर विस्तार से लिखूंगा अगर लिंक शेयर किया जाये अमेजान का तो सुविधा होगी संग्रह मगांने में ।
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अविनाश तिवारी :
साकीबा मैं भाई मणि मोहन जी की कविता संग्रह दुर्दिनों की बारिश में रंग को पटल पर रखा गया है संचालक मधु जी और बृज जी से मुझे शिकायत है की PDF में पूरी किताब को पढ़ना और फ़िर लिखना मुझ जैसे साधारण समझ वालों के लिए दुष्कर कार्य है।
आज लिखने का लोभ संवरण करना भी मुश्किल था। अतः मैंने भी सभी विद्वजनों की समीक्षाओं को पढ़ कर समझ कर अपने विचार बना लिये है।बड़े दुःसाहस के साथ अपने विचार पटल पर रख रहा हूं ।बोधि प्रकाशन की स्नेहल दृष्टि मध्य प्रदेश के साहित्यकारों पर पड़ रही है और पुस्तक पर्व के रूप में भी सौ रुपया के न्यूनतम मूल्य में दस-दस बहुमूल्य किताबें उपलब्ध कराकर साहित्य की सेवा की जा रही है इसके लिए साकीबा की ओर से आभार प्रकट करना आवश्यक समझता हूं।
मणी जी की सत्तावन खूबसूरत छोटी बड़ी कविताएं इस पुस्तक में अपने अलग अलग रंगो आकृतियों और संदेशों में छटा बिखेर रही है और कैलेडियोस्कोप देखने का आनन्द दे रहीं हैं। वैसे भी मणि मोहन को देखना मिलना सुनना और पढ़ना सभी सुखद लगता है। संग्रह में लीला से शुरु होकर एक लय तक की सभी कविताएं लयबद्ध है।
"इसीलिए शिक्षक से अपना हिस्सा उजाड़ गांव रुपांतरण बेटी कस्बे का एक दृश्य एक घरेलू दृश्य दुख छता अपने बच्चों के लिए पिता के कंधे पर शातिर आदमी यह संसार अनगढ़ सपना " जिसे दिवास्वप्न भी कह सकते हैं। यह सभी कविताएं यद्यपि छोटी है परंतु अपने आसपास के विराट समाज प्रकृति और चिंतन को समेटे हुए हैं मुझे तो लगता है मणि जी की तरह सहज और आत्मीय है।बाकी तो सबने विस्तार से लिखा ही है। बधाई मणि मोहन जी मधु जी ब्रज जी और सभी गुणी जन जिनकी सारगर्भित समीक्षाओं को पढ़ने का अवसर मिला। आभार आभार।।
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दुष्यंत तिवारी :
दुर्दिनों की बारिश में रंग के पन्ने पलटते हुए आप मणि सर के जीवन से होकर गुज़रते हैं, उनकी कविताएं पढ़कर महसूस होता है कि कैसे अपनी दिनचर्या में आम चीज़ों को हम महसूस ही नहीं करते उनमे कितनी गहराई है। पुस्तक में रोज मर्रह की बातें बारात का, कस्बे का, एक घरेलु दृश्य जैसी कविताओ में है उसके उलट युद्ध , एक पंख, श्रद्धांजलि जैसी कविता अंदर तक झंजोर देती हैं।। हर एक विषय जिसको उन्होंने छुआ उसके साथ पूरा इन्साफ करा है।।अंत में मणि सर से कुछ सवाल
1.इस संग्रह के शीर्षक के पीछे क्या कहानी है, इसका शीर्षक कैसे चुना।
2.आपकी कविताओं में इतनी कसावट है, किसी भी कविता में कोई कमी नहीं निकली जा सकती, क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी विचार को कविता में न ढाल पाने की वजह से आपने उसपर कविता न लिखी हो।
3.आपके पसंदीदा कवि का नाम और आपकी कविता लिखने की शैली में आप किस कवि से प्रभावित रहते हैं।
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मणि मोहन मेहता :
शीर्षक प्रकाशक ने चुना , मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था तो मैंने आदरणीय माया मृग जी निवेदन किया कि आप ही कोई शीर्षक चुन लें ....तो the credit goes to him 
विचार मेरी कविता में बहुत बाद में शामिल होते हैं या कहूँ तो उन्हें बाद में साधता हूँ । सम्वेदना ही मुझे महत्वपूर्ण लगती है । हां ऐसी कई स्थितियों से रूबरू हुआ हूँ जीवन में , जिन पर कोई कविता न लिख पाया , वे आज भी मन के अंधेरे कौंने में पसरी हुई हैं , देखें उन पर कब लिख पाता हूँ
पहली किताब - कस्बे का कवि और अन्य कविताएं
दूसरी किताब - शायद
इन दोनों के शीर्षक राजेश जोशी ने रखे थे ।
तीसरा प्रश्न बड़ा जटिल है दुष्यन्त
पसंदीदा बहुत से कवि हैं , पर अपनी कविता की बात करूँ तो प्रभावित नहीं किसी से भी ....
अरुणकमल, आलोक धन्वा, केदारनाथ सिंह , राजेश जोशी, नरेंद्र जैन , नरेश सक्सेना सबको पढ़ा है , पर इतना भी नहीं कि खुद को प्रभावित कर लूँ।
कविता के अलावा थोड़ी बहुत समीक्षा , अनुवाद , डायरी आदि लिखी हैं , अब भी लिखता हूँ ।
बस अब कुछ कहानियां लिखना चाहता हूँ मधु जी ।
आलोचकों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया तो उनसे क्या डरना  मधु जी । मेरे लिए सबसे ऊपर पाठक है ।

मैं कि टूटा हुआ सितारा हूँ
क्या बिगाड़ेगी अंजुमन मेरा
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आभा बोधित्सव :
खुद भी विदा हुआ थोड़ा थोडा उसे अलविदा कहते हुए बेहतरीन। घर, अपने बच्चों के लिए,पुताई के बाद और सभी कविताओं के लिए मणिमोहन जी को बधाई । बहुत कुछ कहना चाह कर कुछ नहीं कह पा रही हूँ,घालमेल के गोते से निकलते हुए फिर -फिर शुभकामनाएँ और ब्रज जी का आभार ।अभी पी डीएफ से इतना ही ।
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माया मृग :
मणि मोहन मेहता मेरे प्रिय कवि हैं। शब्द को उसकी अधिकतम क्षमता के साथ प्रयोग करना उनकी सामर्थ्य है। वे एक शब्द से एक वाक्य जितना काम लेते हैं, कंजूस आदमी हैं 
दुर्दिनों में जब हर रंग धूल जाये  कविता इकलौती उम्मीद है। मणि भाई इस उम्मीद को बचाये रखते हैं।
आभार मित्रों के प्रति बोधि को अपने स्नेह का पात्र बनाये रखने के लिए।
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Sunday, July 9, 2017


रिंगटोन,छोटी बड़ी कहानियों का गुलदस्ता ...श्री ब्रजेश कानूनगो जी का बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह  |
संग्रह की कहानियाँ मन पर छाप छोड़ देती है ,क्योकि इन्हें पढ़ते हुए पाठक के मन की अकुलाहट सहज देखी  जा सकती है |सामाजिक मूल्यों  को अपने कथ्य में समाहित करके सामाजिक विसंगतियों का प्रतिरोध करते हुए अपने मन की बात को पाठक के दिलो दिमाग तक पहुंचाने में सफल रहे कथाकार के संग्रह  की कुछ कहानियां  साहित्य की बात समूह पर हुई चर्चा और समीक्षा सहित प्रस्तुत है रचना प्रवेश पर |

ब्रजेश कानूनगो

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परिचय

ब्रजेश कानूनगो


निवास : इंदौर (मध्यप्रदेश)

जन्मतिथि : 25 सितम्बर 1957 देवास म प्र
शिक्षा : हिंदी और रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर (मास्टर डिग्री)
प्रकाशन: 
व्यंग्य संग्रह - पुनः पधारें,व्यंग्य संग्रह-सूत्रों के हवाले से।

कविता पुस्तिका- धूल और धुंएँ के पर्दे में(वसुधा)कविता संग्रह- इस गणराज्य में।
कविता पुस्तिका- चिड़िया का सितार।
कविता संग्रह- प्रकाशनाधीन- कोहरे में सुबह

छोटी बड़ी कहानियां- 'रिंगटोन' (बोधि)
बाल कथाएं-  ' फूल शुभकामनाओं के।'
बाल गीत- चांद की सेहत'

संप्रति: सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।

संपर्क:
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोडइंदौर-452018
मो 9893944294
ईमेल bskanungo@gmail.com


रिश्तों की ऊष्मा, भावनाओं की कोमलता और मानवता के मूल्यों से स्पंदित ‘रिंगटोन’
रजनी रमण शर्मा


गुजरे समाजों की तुलना में आज का हमारा समाज, बल्कि पूरी दुनिया में जो ग्लोबल समाज विद्यमान है, वह बहुत नया है,यों कहें कि हर दिन वह और भी नया होता जा रहा है. मेरा मानना है कि इस समाज के विराट हिस्से में न थमने वाला कोलाहल है, अकुलाहट है, हलचल है, पर इन हलचलों में कहीं एक ठहराव भी नजर आता है. इस शीतल ठहराव में कवि,कथाकार,व्यंग्यकार, ब्रजेश कानूनगो की छोटी-बड़ी कहानियों की किताब ‘रिंगटोन’, अपने चारों ओर बिखरे परिद्रश्य को पूरी क्षमता के साथ स्थापित करती है. 
रिंगटोंन’ संग्रह में कुल पच्चीस कहानियां हैं. संकलन की अपेक्षाकृत बड़ी कहानियां भी दो-ढाई मुद्रित पृष्ठों से अधिक लम्बी नहीं हैं. यह यह संतोषजनक और आज के पाठक की प्रवत्ति के अनुकूल है. 
वर्त्तमान समय की पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के बीच के अंतर्विरोधों के बीच से उत्पन्न व्यक्तित्व विघटन की समस्या ‘रिंगटोन’, ‘जन्मदिन’, तथा ‘मोस्किटो बाइट’ जैसी कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ सामने आती हैं. अलग हटकर ‘जन्मदिन’ को एन्जॉय करने धनपति सेठ अनाथालय में टी-शर्ट और महंगी टाफियाँ का वितरण करते हैं. बेटे का जन्मदिन जो है. दूसरी ओर शिवकुमार जो अनाथालय का प्रतिभाशाली विद्यार्थी है, अपने दसवें जन्म दिन के लिए हवेली में मनने वाले जन्म दिन का सपना भर देखने को अभिशप्त है. ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसे शक्ति दें ताकि मेहनत करके जीवन में आगे बढ़ सके.
शीर्षक कहानी ‘रिंगटोन’ में लेंडलाइन टेलीफोन से स्मार्ट फोन तक के समय और संवेग को कथा माध्यम से उजागर करने का काम बखूबी किया गया है. आधुनिकीकरण और विकास के साथ नई समस्याएँ भी आती हैं तो साहित्य में भी उनका आना लाजिमी है. इसी तरह ‘माँस्किटो बाइट’ में बेटा सोफ्टवेयर इंजीनियर है, बहू मल्टीनेशनल में वित्तीय सलाहकार, पोता साहित्यकार मधुकर जी के पास. बहू विमेन हॉस्टल में और पुत्र अमरीका में. एक दिन दादा को बेटे का फोन आता है कि वे अपने पोते रूपम को होस्टल में डाल दें क्योंकि घर पर रहकर उसे हिन्दी की आदत पड़ जायेगी तो बाद में उसके कैरियर में बाधक होगी. यहाँ सवाल हिन्दी का नहीं है. अपनी भाषा से दूर हो जाना अपनी संस्कृति से दूर हो जाना है. संस्कृति विहीन समाज का निर्माण करना ही बाजार का उद्देश्य है. भाषा नहीं तो समाज नहीं. सचेत होना होगा. 

भाषा के बाद सवाल आता है ‘सभ्यता’ का. यह वह दौर है जब पहले से चली आ रही परम्पराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं और व्यवहार आदि को नकारने और परिवर्तित भी किया जा रहा है. ‘सभ्यता’ कहानी में मम्मी-पापा के अनपेक्षित आदेश से ताऊ जी के चरण छूने वाली छोटी बच्ची पारुल अपनी पीठ थपथपाने पर बेधडक कहती है-‘लड़कियों की पीठ पर हाथ नहीं रखना चाहिए, बेड मैनर्स ताऊजी!’ सोच के इस समय में वास्तविकताएं तो चालाकियों के आवरण में कहीं दुबक ही जाती हैं. संग्रह की कहानियां ‘विश्वास’,’रोशनी के पंख’,’पिछली खिड़की’, इसकी गवाही देती हैं. बाल श्रमिक नंदू की ‘तस्वीर’ मंत्री को चाय का गिलास थमाते हुए अखबार में छप जाती है, किन्तु दूसरे ही दिन बाल श्रम क़ानून के भय के कारण मालिक उसे दूकान से निकाल देता है.
संग्रह की कई कहानियों में अपनी जड़ों, शहर,बस्ती और अपने परिवेश से दूर होने और अलगाव के दुखों और अतीत की स्मृतियों की अभिव्यक्ति बहुत मार्मिक और उद्वेलित कर देने वाले तरीके से हुई है. ‘संगीत सभा’,’घूँसा’,’भिन्डी का भाव’ आदि ये ऐसी ही कुछ ख़ूबसूरत कहानियां हैं. ये कहानियां माध्यम वर्ग की आडम्बर युक्त सामाजिक संरचना के विरुद्ध सवाल भी उठाने का प्रयास करती हैं. कहानियों में तकलीफों और असामंजस्य की ईमानदार अभिव्यक्ति हुई है.
ज्वार भाटा’,’उजाले की ओर’, प्रेराणास्पद हैं लेकिन ‘समाधि’ और ‘केकड़ा’ कहानियां पाठकों को झकझोर देती हैं.
संग्रह की कहानी ‘रंग-बेरंग’ को रेखांकित किया जाना बहुत जरूरी है. केसरिया और हरे रंग के कपडे का थान खरीदकर उनकी झंडियाँ बनाने वाला बूढ़ा दरजी अपने पोते के लिए दो मीटर सफ़ेद कपड़ा कफ़न के लिए खरीदता है,जो दंगों की चपेट में आ गया है. यह कहानी हमें बैचैन कर देती है.जब तक सामने रहती है राहत की सांस नहीं लेने देती. मन और शरीर रोष और तनाव से भर उठते हैं.
कथाकार ब्रजेश कानूनगो के पात्र वास्तविक जीवन के द्वंद्व,,असंतोष,असहमति,और नकार से उबलते, खीजते,छटपटाते हुए हैं. नए कथ्य, नए जीवनानुभाव, निजी अनुभूतियों, परिवेश और भौगोलिक गंधों की ईमानदार प्रस्तुतियां हैं ‘रिंगटोन’ की छोटी-बड़ी कहानियां. इनमें क्रोध कम है लेकिन शिल्प और कहने का बेहद कारगर तरीका है, जो सीधे कथ्य को दिलो-दिमाग तक पहुँचाने में सफल हो जाता है. ‘रिंगटोन’ संग्रह की कहानियों में सामाजिक विसंगतियों के विरोध में एक प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) भी है. ब्रजेश भावुकता का सहारा नहीं लेते,विवेक और तर्क उनकी कहानियों में मौजूद दिखाई देते है. एक सजग कथाकार के रूप में हमारे सामने एक ऐसे संग्रह के जरिये आते हैं ,जिनमें रिश्तों की ऊष्मा,भावनाओं की कोमलता और मानवता के मूल्यों से हमारा साक्षात्कार होता है.

 (पुस्तक- रिंगटोन (छोटी-बड़ी कहानियां) ,लेखक- ब्रजेश कानूनगो, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन , बाइस गोदाम,जयपुर-302006. मूल्य-रु 100 मात्र) 
रजनी रमण शर्मा 


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ज्वार भाटा

ब्रजेश कानूनगो


तहसील कार्यालय जाते हुए गिरधारी की निगाह अचानक किशनलाल के झोपड़े पर पड़ी।कितनी बड़ी गलती की थी किशनलाल ने। बड़े दफ्तर से आए बैंकवाले साहब ने बहुत समझाया था कि इस बार वह चूके नहीं और वर्षों पुराने अपने कर्ज से छुटकारा पा लेईमानदारी पर लगे निरर्थक धब्बे को ढ़ोते रहने में कोई समझदारी नही है।वैसे भी सरकार कर्ज का अधिकाँश हिस्सा माफ कर रही थी,कुछ राशि बैंकवाले समझौता योजना में छोड़ रहे थेले देकर चौथाई भाग की व्यवस्था अपने पास से करनी थी लेकिन किशनलाल वह भी नहीं कर पाया।


भले आदमी थे बडे अफसर । धौंस-धपट की बजाए दुनियादारी की बाते कीं,कर्ज नहीं चुकाने का ऊँच-नीच समझाया लेकिन उनकी बातों का किशनलाल पर उल्टे घड़े पर पानी जैसा असर हुआ। किशनलाल को तो हर बार जैसे सख्त वसूली अधिकारियों तथा बद-जुबान एजेंटों की फटकार सुनने की आदत सी हो गई थी। धीरे-धीरे कर्ज की राशि ब़ड़ती गई और उसकी चुकाने की क्षमता से बाहर हो गई। अन्ततः वही हुआ जो गए साल मुरारी के साथ हुआ था। फसल के कीड़े मारने वाली दवाई पीकर किशनलाल ऐसा बेहोश हुआ कि बड़े अस्पताल के बड़े डाकटर साहब भी उसे होश में नहीं ला सके 


किशनलाल का किस्सा गिरधारी के मन से हटता ही नहीं था । वह सोंचे जा रहा था।एक बेटा है किशनलाल कान जाने कौनसा दंड मिला है उसेदिन भर घानी के बैल की तरह चबूतरे पर चक्कर काटता रहता है। एक बेटी है जो सयानी हो गई है लेकिन दिनभर पार्वती काकी के साथ घर और खेत पर काम में जुटी रहती है। किशन के जाने के बाद कैसे हो पाएगा उसका ब्याह । चबूतरे पर चक्कर काटते डूंडे बैल को कब तक खिला सकेगी बूढी काकी।


गिरधारी खुद अपने कर्ज को लेकर परेशान रहता है। हर फसल पर किश्त जमा करवाता है लेकिन बात बनती नहीं। मूलधन ज्यों का त्यों मुँह चिढ़ाता रहता है। ऊपर से इस बार फिर पाला पड़ गया है।बरबाद हो गई है फसल। कहीं ऐसा न हो कि मुरारी के बाद किशनलाल और उसके बाद वह़ । ऩ  ऐसा नहीं सोंचना चाहिए।


विचारों मे डूबे गिरधारी को पता ही नहीं चला कि कब तहसील कार्यालय में पहुँच कर वह शुक्ला बाबू के सामने लगी फसल नुकसान पर मिल रहे मुआवजा प्राप्त करने वाले किसानों की लंबी लाइन में खड़ा हो गया था। अपनी बारी आने पर उसने रजिस्टर में दस्तखत किए और चैक लेकर बैंक की ओर चल दिया।


नौ हजार सात सौ रुपयों का चैक मिला था। चलो इतनी मदद तो मिली। इसबार किश्त भी जमा नहीं करनी है। पाला पड़ने के कारण बैंक ने थो़ड़ी राहत देकर किश्त की तारीख आगे बढ़ा दी है। हाल फिलहाल तो ऐसी नौबत नही आई है कि रेल पटरियों पर लेटना पड़े। पर किशनलाल के परिवार का क्या होगा़ ? उनका तो मुआवजा भी खटाई में पड़ा हुआ है और होगा भी कितना़ यही हजार बारह सौ़ , पार्वती काकी क्या करेंगीं ? गिरधारी के अंदर उमड़ते विचार सागर में एका-एक ज्वार सा उफना और एक फैसला निकल कर बाहर आया़ , मुआवजे का अपना चैक वह पार्वती काकी को दे देगा। अब सागर में भाटे की स्थति थी।


गिरधारी ने बैंक से पैसे लिए और पार्वती काकी के घर की और रवाना हो गया।
सागर अब शांत था। मनुष्यता की नाव में सवार गिरधारी के चेहरे पर आनन्द की अद्‌भुत आभा स्पष्ट दिखाई दे रही थी।


ब्रजेश कानूनगो


🅾रंग बेरंग
ब्रजेश कानूनगो

छब्बीस जनवरी से लेकर पन्द्रह अगस्त जैसे त्यौहारों पर वह आशा करता रहता था कि शायद इस बार उसकी दुकान से तिरंगे के कपडों के थान बिक जाएँ, लेकिन ऐसा होता नही था। लोग बने-बनाए झंडे खादी भंडार से खरीद लिया करते थे।

 लेकिन इस बार कुछ विचित्र घटा। एक बूढा व्यक्ति, जिसके बारे में लोग सिर्फ इतना जानते थे कि वह सिलाई वगैरह करके अपना गुजारा करता रहा है , उसकी दुकान पर आया और केसरिया रंग का पूरा थान खरीद ले गया। दुकानदार को बडी खुशी हुई कि उसका बेकार पडा कुछ माल तो बिका।

 कुछ दिनों बाद वही बूढा व्यक्ति पुन: उसकी दुकान पर आया और उसने हरे रंग के कपडे की मांग की और पूरा हरे रंग का थान खरीद लिया। दुकानदार बडा प्रसन्न हुआ। अगले हफ्ते उसने देखा शहर के हर गली-मोहल्ले में हरे और केसरिया रंग के झंडे-झंडियाँ लहरा रहे थे।

 किंतु एक दिन अचानक सारे शहर में लाल ही लाल रंग बिखर गया। दंगे भडक गए थे। कर्फ्यू लगा। सेना आई। राजनीतिक शतरंज खेला गया। और फिर अंतत: शांति के दौरान कर्फ्यू में कुछ समय के लिए छूट भी दी गई।

 दुकानदार ने छूट के दौरान अपनी दुकान भी खोली। वही बूढा पुन: उसकी दुकान पर उपस्थित हुआ। इस बार उसने दुकानदार से दो मीटर सफेद कपडे की माँग की। दुकानदार को आश्चर्य हुआ,पूरा थान खरीदने वाले बूढे से जिज्ञासावश उसने पूछ लिया-‘क्यों बाबा अबकी बार सिर्फ इतना ही? क्या पूरा थान नही खरीदोगे?’

 बूढा फफक कर रो पडा, बोला-‘यह कपडा तो मैं अपने पोते के लिए खरीद रहा हूँ बेटा, जो कल के दंगों की चपेट में आ गया...।’

 कुछ ही घंटों में दुकानदार का सफेद कपडे का थान भी बिक गया,दो-दो मीटर के टुकडों में कट कर।

ब्रजेश कानूनगो


🅾 

कहानी

मस्ती टाइम

ब्रजेश कानूनगो 


लिली में काफी फूल आ गए थे. पानी देने के बाद नीबू के पौधे को सींचने लगा तो मेरे सामने वही सूखा गमला आ गया. यह वही गमला था जिसमें केवल मिट्टी भरी थी. मैं उसमें पानी नहीं डालता था .सोचता था  कोई अच्छे फूल का बीज या कलम लगा दूंगा. यही गमला हमारे ‘मस्ती-टाइम’ का कारण बन गया था. अमोल मेरे साथ छत पर आता तो मेरे हाथ से बाल्टी-मग  झपट लेता. खुद ही नल के नीचे रखकर पानी भरता. यहीं से हमारी थोड़ी झड़प शुरू हो जाती थी. वह बाल्टी को पानी से लबालब तब तक भरता रहता जब तक कि वह बाहर निकलने नहीं लगे. मैं रोकता, नल बंद कर देता, वह हंसता और फिर से नल खोल देता. मुझे चिढाता. उसे पानी से खेलने में बहुत मजा आता. फिर मग से गमलों में पानी देता, तब भी इतना पानी देता जब तक कि वह गमले से ओवर फ्लो न होने लगे. मैं उसे समझाता कि गमले में इतना पानी मत डालो मगर वह नहीं रुकता. यहाँ तक कि जो गमले खाली पड़े थे उनमें भी पानी भर देता. मुझे चिढ भी होती और उस पर प्यार भी उमड़ आता. रोज यही होता. खाली गमलों को वह पूरा पानी से भर देता और शरारत से मेरी और देखता, हंसता..खिलखिलाता. सब गमलों में पानी डालने के बाद थोड़ा पानी बाल्टी में बचा लेता और मेरी ओर उछालते हुए कहता-‘दादा! मस्ती-टाइम’..!! मैं उसे डपटता तो और नजदीक आकर पानी उडाता..’ पूरी छत और मुझे भिगोने के बाद उसका मस्ती टाइम आखिर ख़त्म होता.

जब तक वह रहा घर में टीवी नहीं देखा गया था और अखबार बिना तह खुले रैक पर जमा होते गए थे. सुबह-सुबह अमोल बहुत उत्साह से मेरे हाथ से चाबी छीनकर गेट का ताला खोल  देता और चेन घुमाते हुए सीधे बाहर सड़क पर दौड़ पड़ता था..वह आगे-आगे मैं उसके पीछे-पीछे. सुबह की सैर को निकले कॉलोनी वासी  हमारी इस भाग-दौड़ को बहुत कुतूहल से देखने लगते थे.

पोता आया है शायद शर्माजी का..’ जैसे शब्द मुझे बहुत अद्भुत अनुभूति से भर देते थे.

केनेडा जाने के बाद इस बार बेटे का परिवार लगभग तीन साल बाद ही घर आ पाया था. इसके लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता. परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बनती रही कि वे लोग चाहकर भी न आ पाये. नौकरी की भी अपनी मजबूरियां होती हैं. ये भी सच है कि इस बीच हमारा वहां जाना भी संभव नहीं हो सका. हालाँकि ‘स्काइप’ या ‘जी-टॉक’ के जरिये रोज ही लेपटॉप पर मिलना हो जाता था. लेकिन  अमोल स्क्रीन पर बहुत कम आता.. कुछ झिझक रहती थी .. बहुत कहने पर बस ‘हाय-बाय’ करके अदृश्य हो जाता था.



यह तो उसके यहाँ आने पर ही स्पष्ट हुआ कि हमारे सामने हिन्दी बोलने में होने वाली दिक्कत के कारण वह सामने नहीं आता था. हिन्दी आसानी से समझ लेता था लेकिन टोरंटो के स्कूल में अपने दोस्तों के साथ अंगरेजी में दिन भर बातचीत की आदत के कारण हिन्दी में बोलना उसके लिए कठिन हो गया था.  यह दिक्कत शायद वैसी ही रही होगी जैसे अंगरेजी में सारी पढाई करने के बावजूद गैर हिन्दी भाषी व्यक्ति से सामना होने पर मुझे होती है.  कनाडा जाने से पहले जब वह यहाँ था तब उसकी भाषा  सुनकर हमें बड़ा सुखद आश्चर्य होता था. ‘डोरेमान’ और अन्य कार्टून चरित्रों के हिन्दी में डब संवादों की वजह से हिन्दुस्तानी के इतने बढ़िया शब्द बोलता था कि हम हत-प्रभ रह जाते थे.

अभी दस दिनों में उसने हमसे हिन्दी में बात करने में खूब मेहनत की थी. बात करने में उसकी कोशिश साफ़ दिखाई देती थी. धूल खा रही शतरंज और कैरम के दिन फिर गए थे. मोहरों के अंगरेजी नामकरण से हमारा पहला परिचय हुआ. वरना हमारे लिए तो वजीर, राजा, हाथी, घोड़ा, ऊँट, प्यादे ही हुआ करते थे.

कॉलोनी के हमउम्र बच्चों के बीच भी वह बहुत पसंद किया जाने लगा. आम तौर पर हिन्दी में बात करते बच्चों को भी स्कूल के अलावा अंगरेजी में बतियाने में खूब मजा आ रहा था. शुरू शुरू में जब अमोल कुछ नहीं बोल पा रहा था तो अटपटा लगा लेकिन जब पता चला कि वह केनेडा से आया है तो खुलकर अंगरेजी में बातचीत करने लगे. इधर अमोल की झिझक भी टूटने लगी, वह भी हिन्दी ही बोलने की कोशिश करने लगा. हिन्दी दिवस के दिन जब मैं एक कार्यक्रम के मुख्य आतिथ्य के बाद घर लौटा तो गेंदे की अपनी माला मैंने सहज अमोल के गले में डाल दी.



उनके वापिस लौटते ही हमारा ‘मस्ती-टाइम’ ख़त्म हो गया. रोज की तरह छत पर गमलों में लगे पौधों में पानी दे रहा था. सब कुछ पहले जैसा हो गया. वही नियमित दिनचर्या हो गयी जो उनके आने के पहले हुआ करती थी. सुबह उठते ही मेन गेट पर लगी चेन और ताला खोलना, दूध के पैकेटों की थैली और अखबारों को भीतर लाकर घूमने निकल जाना. फिर पत्नी और खुद के लिए चाय बनाकर टीवी पर रात को देखे समाचारों को अखबारों में पुनः पढ़ना. छत पर रखे गमलों में पानी डालना, पौधों की देखभाल करना. हुआ तो शाम को किसी साहित्यिक-सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेना और देर रात तक टीवी पर समाचार-बहसें आदि देखते हुए सो जाना.

न जाने क्या सोंचकर मैंने भी अमोल की तरह मिट्टी भरे गमले में पानी डालने को सहज ही मग आगे बढ़ा दिया. अचंभित था सूखे गमले में गेंदे के कुछ पौधों का अंकुरण हो आया था. 






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मधु सक्सेना  :ब्रजेश जी की पहली कहानी किसानों कु आत्महत्या को केंद्र में रखकर लिखी गयी है ...। कर्ज़ के बोझ में दबे किसान द्वारा दूसरे की मदद करना और दूसरे का दर्द समझना अच्छे उद्देश्य को लेकर चलती है कहानी । ये लघुकथा नही लग रही ।छोटी कहानी कह सकते है ।अच्छी है ।
रंग बेरंग ....बहुत ही मार्मिक कहानी है ।जो कहानी है उसके पीछे एक और कहानी है । रंगों के माध्यम से बहुत बड़ी बात कह दी ब्रजेश जी ने  नमन उनकी कलम को ।
मस्ती टाइम ....दादा और पोते के मध्य आत्मीयता को प्रतीक के माध्यम से बहुत बढ़िया उकेरा ...
एक मीठा सा अहसास दे जाती है ये । बधाई ...

अर्चना नायडू:आदरणीय श्री बृजेश जी,की मर्मस्पर्शी लघकथाओको पढ़कर उनकी कलम के कमाल से हम नए पाठक भी अभिभूत हो गए।कथानक और विषय भी मन को छू गए।ज्वार भाटा और मस्ती टाइम जैसे विषय सकारात्मक सोच की उपज है वही रंगबेरंग में आपने गहरी कल्पनाशीलता को आयाम दिया है ।सरल मगर गहरे विषय पर सहज भाव से लिखना आपके अनुभवों का निचोड़ है।अच्छी लगी ,तीनों कहानियां।
प्रवेशजी आपका विशेष आभार ।आप हीरे मोती ढूंढने में पीएचडी कर लिए हो। कविताएँ पढ़िए कविता कोश के इस लिंक पर*
मणि मोहन मेहता :य और प्रभावी हैं । रंग बेरंग बहुत अच्छी लगी । बधाई ब्रजेश जी ।

मीना शर्मा : ,छोटी किन्तु बड़ी कहानियाँ, स्वाभाविकता से बतियाती हुईं ।
रिंगटोन...
मस्ती टाइम
और
रंग-बिरंगी .....हृदय पर  पर दस्तक देती हुई , संवेदना से भरी हुई कहानियों के लिए, ब्रजेश जी को बधाई / प्रवेश का आभार ,कि चयन बहुत बढ़िया रहा ।
वर्षा रावल :त ही सशक्त विषयों को लेकर थी सबसे बढ़िया कहानी ज्वार भाठा थी , जिसमे आत्मा की आवाज़ से नेकी की ओर कदम बढ़े , किसान आत्महत्या जैसे समसामयिक विषय को उठाया गया , बाकी दोनों कहानियां भी अच्छी लगीं ....बधाइयाँ🌹🌹🌹🌹

आरती तिवारी :बृजेश सर की ये छोटी छोटी कहानियाँ अपने विषय चयन को लेकर अलग से ध्यान खींचती हैं *रजनी रमण शर्मा* जी ने बहुत ही उम्दा विवेचना की है ये कहानियाँ पढ़कर संग्रह पढ़ने की उत्सुकता जाग गई है,.जिस माध्यम से भी हो संग्रह की पूरी कहानियाँ पढ़ना चाहती हूँ।
हमारे आधुनिक प्रगतिशील समाज की विचारधारा और विसंगतियों को बहुत सटीक अंदाज में इन कहानियों में कहा गया है और वे पूरी तरह संप्रेषित हुई हैं मुझसे पाठकों तक सर को बधाई👏🏼👏🏼🌺🌺🍀🍀  प्यारी प्रवेश का आभार इन्हें साकीबा पर पढ़वाने के लिए🌹
*आरती तिवारी*

सुनीता जैन : कथाकार ब्रजेश जी को रिंग टोन की बहुत बधाई!
पहली बात यह कहूँगी कि ये लघुकथाएँ नहीं हैं! लघुकथा एक ऐसी विधा है जो, एक ही घटनाक्रम को तीक्ष्णता के साथ समाप्त करती है! उसमें काल नहीं बदलता ! साथ ही गद्य की ऐसी विधा जो सूक्ष्म होते हुए भी गागर में सागर के समान है! सामाजिक विसंगतियों को उठाना भी और समाधान भी सूक्ष्मता के साथ कर पाना ही लघुकथा की विशेषता है!
आज की पोस्ट की बात करें तो कथाएँ उत्कृष्ट भी हैं सशक्त भी!
सार्थक विषयों को लेकर रची कथाओं में शिल्प का आकर्षण देखते ही बनता है!
शीर्षक उत्सुकता बढ़ा ही रहे हैं पढ़ने की! पढ़ना शुरू करते ही बीच में छोड़ पाना पाठक के बस की बात नहीं!
अच्छी ही नहीं बेहतरीन कथाओं को पढ़वाने का प्रवेश जी शुक्रिया!
कथाकार को हार्दिक शुभकामनाएं!💐💐💐

सुधीर देशपान्डे: ब्रजेशजी की कहानियाँ संवेदनाओं से भरी मानवता की कहानियाँ हैं। चाहे वह ज्वारभाटा हो या रंग बेरंग या मस्ती। किसान को मिलने वाला सरकारी मुआवजा कैसा होता है और उस राशि के लिए कितने पापड बेलने पडते हैं वही धार्मिक उन्माद में राष्ट्रीय भावनाओं मे रचे बसे रंग और कपडे किस रूप में टुकडा टुकडा होकर आते हैं बडी शिद्दत से मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। मस्ती आत्मविश्वास और खेल खेल का परिणाम है कि आप जिसे रिक्त मान रहे होते वहाँ भी आशा तो है।
अच्छी संदेश परक यथार्थ पर आधारित कहानियाँ। धन्यवाद प्रवेश। अच्छे चयन के लिए। ब्रजेशजी समर्थ रचनाकार हैं। कविता कहानी व्यंग्य अनुवाद और हर कुछ। वैसे ही है जैसे किसी कुशल स्वर्णकार के हाथ सोना लग जाए तो सुंदर आभूषण तैयार हो जाए। उन्हें बधाई देनी चाहिए क्या। यह तो गुण है। हमारे अहोभाग्य कि वे हमारे साथ हैं।

ए.असफ़ल: बृजेश जी की पहली छोटी कहानी एक आदर्श कथा है। ऐसी कहानियां लगभग बचकानी माने जाने लगी हैं और अब चलन से बाहर हो गई हैं या बाल कथाएं हैं। क्योंकि यथार्थ बहुत कड़वा होता है।
बृजेश जी की तीसरी कहानी कहानी न होकर एक संस्मरण है। जो लोग बाबा और नाती को ही संसार का परम सत्य मानते हैं उनके लिए यह गुदगुदाने वाली कथा हो सकती है। पर इसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।
बृजेश जी की दूसरे नंबर की कहानी एक अच्छी लघु कथा है जो सांप्रदायिक भारत की सच्ची तस्वीर पेश करती है। इस लघु कथा "रंग में बेरंग" में मजे की बात यह है कि जनता ही पहले केसरिया झंडे लहराती है और हरे झंडों को लहराती है। और यही उन्माद लाल रंग के सांप्रदायिक युद्ध में बदल जाता है। जिसे फिर सफेद रंग के कफ़न से ढकना पड़ता है। यह कहानी बताती है कि  हमारी संकीर्णता और नस्लीय स्वभाव में ही सांप्रदायिकता घुली-मिली है जिसे राजनीति और धर्म तो सिर्फ हवा देते हैं।
हरर्गोविंद मैथिली आज पटल पर प्रस्तुत आ. ब्रजेश कानून गो जी की लघुकथा *ज्वार भाटा*  किसानों की हालात का सुन्दर चित्रण है ।साथ ही एक महत्वपूर्ण संदेश भी देती प्रतीत होती है कि जो किसान हमेशा आर्थिक सहायता या मुआवजा आदि के लिए सरकारी की ओर टकटकी लगाये रहते है यदि वे  (ऐसे किसान जिन्हें आर्थिक सहायता सरकार की और से  आर्थिक रूप से अपने आपको सक्षम पाते हैं )अन्य आर्थिक रूप से कमजोर या जरूरतमंद किसान साथियों को आर्थिक सहायता करें तो किसी हद तक उनको आत्महत्या जैसे कदम उठाने से रोकने में सफलता पाई जा सकती है ।
शेष दोंनो लघुकथाएँ भी सार्थक संदेश देती है ।

मुकेश कुमार सिन्हा :जिंदगी कैसे भी जी लें, मानवता और संवेदनशीलता का भाव मन को अंदर तक भिगो देता हैं। तीनों लघु कथाएं बेहद सार्थक कैनवास पर रची गयी है, और पाठक पर शानदार असर छोड़ती है। शुभकामनाएं

राजेन्द्र श्रीवास्तव आदरणीय ब्रजेश जी की तीन छोटी किंतु बहुत प्रभावी कहानी है।
गहरी संवेदना तैर रही है। सामयिक सरोकार को अलग दृष्टि से देखने पर सामान्य लहजा में बहुत बड़ा संदेश कह  दिया गया है।
मस्ती टाइम विशुद्ध पारिवारिक कलेवर में गमले के माध्यम से भावी  पीढ़ी के प्रति पुरानी पीढ़ी आशावान बनाती है । सांस्कृतिक व भाषायी समन्वयन की आवश्यकता इंगित करती है।
ब्रजेश जी व प्रवेश जी धन्यवाद।
इन छोटी कहानियां का आस्वाद मिला।🙏🏻

ब्रजेश कानूनगो :शुक्रिया,हरगोविंद जी। दरअसल अपने बैंक सेवाकाल के अंतिम दिनों में जब मैं ग्रामीण शाखा में प्रबंधक था, तब पाला पड़ा था, फसल नष्ट हो गई थी। किसानों का दुख देखा था, मुवावजे के चेक भी छोटे किसानों को बजट की कमी या अन्य क्षणों से मात्र 225 से लेकर हजार दो हजार से ज्यादा नहीं मिल रहे थे।वे भी एकाउंट पेयी। किसानों के खाते बैंक में नहीं थे। मुवावजा मिलना भी कष्ट दे रहा था। तब उस वक्त मैने कविता 'सोयाबीन की फसल' तथा छोटी सी कहानी 'ज्वार भाटा' लिखी थी। बात 1999 के आसपास की है। वही इस रचना में आया है। विधा के सौन्दर्यशास्त्र की बजाय कथ्य मुझे बहुत जरूरी लगा था।आभार।

मुक्ता श्रीवास्तव  आदरणीय ब्रजेश जी की लघुकथाओं को पढ़कर बिल्कुल समाज की वास्तविक स्थिति का आकलन किया जा सकता है।प्रथम लघु कथा में किसानों की वास्तविक स्थिति का बखूबी चित्रण किया है।दूसरी लघु कथा रंग में बेरंग साम्प्रदायिक हिंसा की सच्ची तस्वीर दिखाती है।तीसरी कथा भी सार्थक संदेश देती है बेहतरीन कथाओं को पढ़ वाने के लिए धन्यवाद प्रवेश जी।
अनीता मंड़ा” ज्वार-भाटा कहानी बताती है कि अच्छाई अब भी कहीं कहीं बची हुई है जिसके सहारे मानवता जीवित है।
रंग बेरंग आज के समय का राजनीतिक सच दिखा रही है।
'मस्ती टाइम' पहले भी पढ़ चुकी हूँ, अच्छी लगी थी। दरअसल अच्छा साहित्य हमेशा अच्छा ही लगता है। तीनों कथाएँ संवेदना के स्तर पर अच्छी हैं। यह बात भी जाहिर है कि दुनिया में जो हो रहा है सब कुछ नकारात्मक ही नहीं है कि सबको उसी चश्में से देखा जाय। अच्छा बाल साहित्य बहुत जरूरी है वर्तमान समय में। अच्छी पोस्ट के आभार प्रवेश दीदी। शुभकामनाएँ आदरणीय ब्रजेश सर ! 💐🙏

अबीर आनंद :विधा की  तकनीकियों को नजरंदाज कर दिया जाए तो ज्वार भाटा और रंग बेरंग अच्छी लगीं। दोनों ही विषयों में प्रासंगिकता है। मुझे उम्मीद है ब्रजेश जी के पास ज्वार भाटा जैसे विषयों से संबंधित और भी जीवंत कहानियाँ होंगी जो कृषक लोन माफी के कुछ नए बिंदु सामने लाएं। फिलहाल, ज्वार भाटा पसंद आई। रंग बेरंग बहुत सशक्त है। नजरिया थोङा नयापन लिए हुए है। आश्चर्यचकित रूप से रंगों का भाव सामने आया। फिर लगा शायद तिरंगे के तीन रंगों का सही अर्थ यही तो नहीं। कितना बङा झूठ बोला गया? दरअसल तब भी तिरंगे के रंगों का अर्थ संप्रदाय ही रहा होगा मन में। और हम समझते आए कि हरे रंग का अर्थ है, हरियाली। अच्छा व्यंग्य है। मस्ती टाइम नाम से ही कहती है मुझे सीरियसली मत लो। बाकी दोनों कहानियाँ प्रासंगिक भले हों पर दिल को छुआ इसी कहानी ने। पीढ़ियों के बीच की कैमिस्ट्री अच्छी लगी। रिंगटोन की कुछ कहानियाँ पढ़ीं हैं। रिंगटोन एक मीठी सी मुस्कान बिखेरती, बूढ़ों की बच्चोंनुमा हरकतों से गुदगुदाती परिपक्व कहानी है। कहानी छोटी है और कुछ ही पन्नों में पाठक के मन में क्लाइमेक्स रचने में सफल होती है।
दीप्ति कुशवाह : ब्रजेश जी के पास बहुत कुछ है हम लोगों को सिखाने को कहानी, व्यंग्य, सामयिक लेख और कविता भी...। उनकी ऊर्जा और सक्रियता भी अनुकरणीय है।
प्रासंगिक विषयों पर उनकी ये कहानियाँ प्रभावपूर्ण हैं ।
हाँ ब्रजेश जी, आप उपन्यास की ओर कब बढ़ेंगे?
ब्रज श्रीवास्तव :क्या लिखूं.
तीनों कहानियाँ मुतास्सिर करती हैं और एक पारिस्थितिक विडंबना को सामने लाती हैं. चूंकि कहानी एक मिश्र विधा होने की गुंजाइश रखती है तो यहां भी उचित अनुपात में कविता और संस्मरण  ने खुद को  विलेय किया है. लेकिन इन रचनाओं की असर छोड़ने की अदा वैसी ही है जैसे कि कहानी की होती है.
दूसरी कहानी में ज्यादा कुशल निर्वहन है और हर पाठक ज्यादा द्रवित हो जाता है.
रिंगटोन* के लिये बधाई के संग संग यह कहना चाहूंगा कि ब्रजेश जी आप वाकई गंभीर, प्रतिबद्ध और निरंतर के  साहित्यकार हैं. आप हर विधा में मेहनत और समकालीन बोध के साथ लिखते हैं. आज यहां आपकी रचनाओं की ही ताकत थी कि साहित्य की बात इस ऊंचे दरजे के बहस मुबाहिसे के साथ हो सकी.
अनंत शुभकामनायें.

उदय बसंत ढोली :ब्रजेश जी की छोटी किंतु प्रभावी कथाएँ संवेदना से परिपूर्ण हैं ब्रजेश जी की रचनाएँ अख़बार में अक़्सर पढ़ता हूँ उनका विशिष्ट अंदाज़ इन कथाओं भी परिलक्षित होता है उत्कृष्ट चयन हेतु प्रवेश जी को साधुवाद 🙏🏻🌷🙏🏻

मनीष वैदय: ब्रजेश भाई मेरे आत्मीय रचनाकार हैं तथा कई विधाओं में एक साथ सक्रिय हैं।उनकी ये कहानियाँ पढ़ी हुई हैं और परिपक्व समझ तथा समाज के प्रति गहरे जिम्मेदार भाव से लिखी गई है।बीते दिनों उनका संग्रह रिंगटोन हिंदी पाठकों में सराहा गया।
ज्वार भाटा और रंग बैरंग दोनों ही अपने सामयिक और ज्वलंत मुद्दों की ओर बड़ी शिद्दत से हमारा ध्यान खिंचती है।अंडर टोन में चलती ये कहानियां अपने अंत तक पंहुचते हुए हमें अपनी पकड़ में ले लेती हैं।किसानों के भीतर बहते आत्मीयता की सूखी नदी को वे ढूंढ पाते हैं। किसान मुद्दों पर यह अलहदा दृष्टि है।रंग बैरंग अंत में बेहद मार्मिक हो जाती है।
ब्रजेश भाई इन दिनों बेहतर रच रहे हैं।उनका यह सफर आश्वस्ति देता है। उनके लिए बधाई और शुभकामनाएं
साकीबा का आभार
विमल चंद्राकर :साकीबा पर आज ब्रजेश जी की लघुकथायें पढ़ीं।लगभग सभी की प्रतिक्रियाओं पर ध्यानाकर्षण रहा।यहां एक से बढ़कर अव्वल दर्जे के समीक्षकों के बहुत स्तरीय विमर्शन के बीच बहुत लिखने की गुजांईश नहीं रह जाती .......
फिर भी लेखकीय परम्परा का निर्वहन करते हुये लघुकथाओं पर एक सरसरी नज़र भर प्रस्तुत्य है.....

ब्रजेश जी को पहली बार पढ़ना हुआ है।कहानीकार द्वारा लिखी पहली लधुकथा "ज्वार भाटा" निम्नवर्गीय/मध्यमवर्गीय समाज में रह रहे लोगों के रोजमर्रा के जीवन यापन, आर्थिक वैषम्य व कर्जदारी पर लिखी गयी है।
किशनलाल के आर्थिक स्थिति की चरमराहट, कर्ज की सही समय पर अदायगी, और बढ़ते आर्थिक बोध के तले किशनलाल कब जीवन तराजू के पलड़े में हल्के हो चले कि स्वयं को ही हताश होकर मार लिया (जैसा कि आज बहुधा कर्ज के बाद किसानी आत्महत्या होती रहती है)पारिवारिक किशनलाल के पारिवार की समस्याओं से जु़ड़ी घटनाओं को बहुत जींवत वर्णिक होता पाता हूं।वेदना की चरम प्रतीति होती है।
खेती किसानी की वो सभी झकझोर देने वाली यथा- फसली नुकसान, आर्थिक विपन्नता,विपत्तियों से गिरधारी भी अछूते नहीं।कहानी का प्लाट, कहन व घटनात्मक संयोजन काबिले गौर हैं।
देश में पड़ा सूखा, अकाल, बारिश के न होने से फसलों का नुकसान पर देश के सरकारों जो थोड़ा सा राहत का अमृत छिड़कती है।(जैसा कि पहली ही दफा कहूं वर्तमान सरकार में ही प्रत्येक को एक करोड देकर, ऐसा कम ही देखती हूँ)
गिरधारी के भीतर मजबूत किसान के साथ एक सहृदय मदद पसंद व जिंदादिल होने जैसे चारित्रिक वैशिष्टय का संकेतन कहानी में टर्निग मोमेंटो सफलतम दृष्टव्य है।
सुख दुख, हर्ष- विषाद, खुशहाली विपत्ति के बीच उफनाते,गहराते भाव  ज्वार भाटा सम ही तो लगते हैं।गिरधारी के अन्दर व्याप्त, अन्तर्द्वंद्व् के बीच "आत्मसंतोषी कहानी का अनन्तिम फलन बनकर बाहर निकलता है।यह एक चारित्रिक प्रस्फुटन है जहां कहानकार ने कहानी में सफलतम प्रयोग किया।
स्तरीय कहानी हेतु बधाई👏🏻👏🏻👏🏻

नीलिमा :संवेदनशीलता बहुत  तकलीफ देती है  कभी कभी ।कैसे  काल्पनिक पात्रों से अपन जुड़  जाते हैं न !!! क्यों कि पीड़ा से परिचित हैं इसलिए परिणाम का अहसास  तकलीफ देता है  और रचना को पढ़ते समय अपन उस पात्र को जी। रहे  होते हैं
संतोष श्रीवास्तव : ब्रजेश कानूनगो जी की छोटी-छोटी कहानियां बेहद संवेदनशील है ।आज के इस आपाधापी भरे समय में पाठको को छोटी कहानियां ही पढ़ने को प्रेरित करती हैं । बड़ी कहानी के लिए बहुत वक्त निकालना पड़ता है ।लेकिन इन कहानियों को लघु कथा नहीं कहेंगे। यह छोटी कहानियां है जो जहन में त्वरित असर करती हैं। बृजेश जी आपको बहुत बहुत बधाई
अविनाश तिवारी : आदरणीय बृजेश कानूनगो के कहानी संग्रह रिंगटोन की साकीबा पटल पर प्रस्तुत कहानियां ज्वार भाटा,रंग बेरंग,मस्ती टाईम बहुत ही सहज पर गंभीर कहन वाली कहानियां हैं प्रत्येक कहानी सामयिक विषयों पर घटनाओं पर केन्द्र मे रखते हुए प्रहार करती नजर आती है।

आभा बोधित्सवा :ब्रजेश जी की तीनों कहानियाँ अपना सटीक प्रभाव छोड़ गई-ज्वार भाटा,रंग बेरंग और मस्ती टाईम,मार्म को छूकर गुजरते हुए,किसान की उलझनें, जो उनकी किस्मत और सरकारों ने दी,और आपसी सहयोग सद्भाव को दशर्ति कर रही है,तो वहीं -रंग बेरंग में आपसी प्रेम और द्वेष के रंग को रेखांकित करती हुई,अंतिम कहानी मस्ती टाईम ने ब्रजेश जी से परिचय करवा दिया -गमले में गेंदें का फूल उगना और अमोल की याद अद्भुत सामंजस्य और मूल प्रेम भाव को दर्शाता है। साकीबा और ब्रजेश को बधाइयां ।प्रवेश का आभार

अपर्णा अनेकवर्ना *ज्वार भाटा
ये विषय ही सराहनीय और महत्वपूर्ण है। एकरेखिय सी लगती कहानी अंत में अचानक एक मोड़ लेती है जो सब कुछ बदल देता है। ऐसे बैंकों में कितनी ही ऐसी कहानियां चुपचाप घटती हैं जो किसी को कभी पता भी नहीं चलती हैं। और ज़रूरी नहीं कि हर बार उनका अंत सल्फ़ास की गोली या फांसी पर ही हो।
कभी पार्वती काकी पर भी लिखिएगा सर, सादर आग्रह है। 🙏🏽😊
🔸 *रंग बेरंग*
कितनी भयावह कहानी है! Seemingly harmless लगने वाली बातें भी कितनी गूढ़ हो उठती हैं। ये किसी भी समाज के सामान्य माहौल में क्रमशः आते परिवर्तन की धमक है।
बेहद सामयिक कथा है। आज का सच! रंगों की राजनीति में समाज का बंटना, धर्म की सतही समझ का प्रतीक है। अंत मार्मिक है।
इसके नाट्यरूपांतर का मंचन संभव लगता है मुझे।
🔸 *मस्ती टाइम*
आमतौर पर प्रवासी पुत्र/पौत्र की कहानियाँ दु:खद और त्रासदी ही होती हैं।
इस विषय पर इस कथा का सहज, व्यवहारिक और सकारात्मक पक्ष प्रभावित करता है।
कहीं कहीं लगा कि कुछ एडिटिंग हो जाए तो कसाव बेहतरीन हो जाए।
ब्रजेश सर को शुभकामनाएं! 🙏🏽


सिनीवाली शर्मा :ब्रजेश जी के सकारात्मक दृष्टिकोण को सलाम। कहीं न कहीं अच्छाई आज भी जीवित है। साहित्य का एक उद्देश्य जीवन के सकारात्मक पक्ष पर फोकस करना भी है जिसमें ये कहानियाँ सफल हैं।
आभार
पदमा शर्मा : ब्रजेश कानूनगो जी की कहानियाँ समाज के सरोकारों को वर्णित करती हैं।
रंग बेरंग कहानी गहन और गूडार्थ लिए है। रंग भी बेरंग पैदा कर सकता है। लोग बिना सोचे समझे और गहराई तक पहुंचे असामाजिकता और उपद्रव पर उतर आते हैं। तभी तो केसरिया रंग और हरा रंग सभी जगह व्याप्त गया। उसकी परिणति श्वेत रंग में हुई जो कफ़न के काम आया।
बहुत सांकेतिक और शानदार कहानी के लिए ब्रजेश जी को बधाई

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