Monday, March 14, 2016




"साहब, दीदी और गुलाम " 
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मूल मराठी कहानी – दया पवार
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अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे
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उदासी की हालत में सड़क से चल रहा था। कलम घिसाई करते पीठ में दर्द होने लगा था। सोच रहा था कि कब घर पहुंच जाऊंगा। इतने में एक टैक्सी मेरे सामने आकर हठात् रुक गई। पिछली सीट से आवाज आई, "हाय, अबे वामन, कितने बरसों बाद मिल रहा है रे तू!"

मैंने पीछे मुड़कर देखा। मोहन था। इतना बदल गया था कि पहचानना मुश्किल हो रहा था। उसकी आवाज से ही मैं उसे पहचान सका। वह पहले छरहरा था अब कबूतर जैसे फुल गया था। चेहरे पर से मानो ताजगी टपक रही थी। सुंदर रोबदार पोषाक में आकर्षक दीख रहा था। उसने टैक्सी का दरवाजा झट से खोल दिया और मुझे बैठने का अनुरोध करने लगा। मैं भूल गया था कि मुझे घर लौटना है। किसी कठपुतली की तरह मैं उसके पास सिट पर जाकर बैठ गया। टैक्सी सरपट दौड़ने लगी। मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, "अबे वामन, अच्छा हो गया कि तू मिल गया। मुझे भी कंपनी की जरूरत थी।"

"तुम्हारा बिझनेस कैसे चल रहा है।" मैंने ऐसे ही कुछ पूछना चाहिए इसलिए पूछ लिया।

अब उसने सिगरेट सुलगा दी। धुआं छोड़ते हुए बोला, "इमरजंसी में डाऊन हो गया था, अब तेजी है। नई मुंबई में दूसरी फैक्ट्री लगा रहा हूं।" अपने कारोबार के बारे में वह काफी उत्तेजना के साथ बताते जा रहा था। सरकारी टेंडर, रॉ मटेरिअल ऐसे कई शब्द उसके होठों से झर रहे थे। टैक्सी ने अब रफ्तार पकड़ी थी। इमारतें, लोग पीछे छूटते जा रहे थे। और मेरे दिमाग में कॉलेज के दिनों के मोहन की याद ताजा हो रही थी। अमीर बाप की इकलौती औलाद। कॉलेज आता था तो बिल्कुल साफ-सुथरा, टकाटक। उसके सामने हम बड़े भौंड़े और गंवार लगते थे। लेकिन उसने हमारे सामने कभी अमीर होने की शेखी दिखाई नहीं। हमारे साथ वह काफी घुलमिल गया था। वैसे हमारी हालत हमेशा खस्ता रही थी। लेकिन मोहन को रोज उसके घर से पांच-दस रुपए पॉकेटमनी के तौर पर मिला करते थे और इन्हीं रुपयों को वह खुले दिल से हम पर खर्च करता था।

उसके मन में हमारे प्रति कभी एहसान या उपकार का भाव नहीं रहता था। मुझ पर उसकी अन्यों की अपेक्षा ज्यादा मर्जी रहा करती थी। कॉलेज के दिनों में एक-दो बार पिकनिक के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे, मोहन ने दिए और बड़े प्यार के साथ मुझे अपने साथ लेकर गया था। फिर हम राष्ट्र सेवा दल में जाने लगे। हममें से कई तो इस आशा से बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी लेते थे कि किसी ब्राह्मण लड़की को पटाने का आसान मौका मिल जाएगा। मोहन भी हमारे साथ रहता था। राष्ट्र सेवा दल के गीतों की धून उसके सर पर चढ़कर बोल रही थी। वह बहुत अच्छा गा लेता था। राष्ट्र सेवा दल में बौद्धिक पाठ हुआ करते थे। नई चेतना मिल रही थी। शायद, यहीं वजह थी कि मोहन में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। ठाटबाट वाले कपड़े पहनना उसने छोड़ दिए। वह खादी के कपड़े पहनने लगा। हाथ में झाडू लेने लगा। अपने बेटे की भिकारियों जैसी हरकतों को देखकर उसके पिता जी नाराज हो गए। बातों-बातों में जब उसके पिता का जिक्र होता तो मोहन चिढ़ जाता था। "साला, अपना बाप तो महाचोर है। मजदूरों के साथ ऐसे पेश आता है जैसे मुर्गी को दाने डाल रहा हो। उन्हें आपस में लड़वाता है। इसलिए टेंपररी और परमानेंट मजदूरों की कभी पटती नहीं है। दस-पंद्रह बरस नौकरी करने के बावजूद भी टेंपररी रखा गया मजदूर चूं नहीं कर सकता।" बाप की यह तोड़-फोड़ की नीति मोहन को पसंद नहीं थी। बाप के प्रति उसका यह विद्रोह देखकर हम चकित होते थे।

इन सारी बातों की याद आने पर मैंने उसे पूछ लिया, "क्यों रे, तेरा सोशल वर्क कैसे चल रहा है?"

मोहन ने जोश के साथ कहा, "मैं रोटरी कल्ब का मेंबर हूं। पिछले हप्ते हमने वरली के मामानगर झोपड़पट्टी वालों को लाश ढोने की एक गाड़ी दी है। डॉक्टर का एक घुमंतू दल बना लिया है। पंद्रह अगस्त को रक्तदान शिबिर का आयोजन किया था।" सोशल वर्क की बातें करते-करते वह फिर बिजनेस की बातें करने लगा, "अब महाराष्ट्रीयन लोगों को बिजनेस करना चाहिए। कलमघिसाई के दिन अब लद गए हैं।"

इन सारी बातों को सुनते वक्त मेरे मन को अंदर से कुछ कुरेदते जा रहा था।

मैंने बाहर झांककर देखा। अलेकजंड्रा सिनेमा के कोने से होते हुए टैक्सी फरोस रोड की दिशा में जा रही थी। मैं सहसा सहम गया। मैंने उसे पूछा, "क्यों रे, हम लोग कहां जा रहे हैं? यह कोई अच्छी बस्ती तो है नहीं।" वह खिलखिलाकर हंसते जा रहा था। उसकी हंसी मेरे लिए अजनबी थी।

"डरो मत! दीदी के पास जा रहे हैं।"

"कौन-सी दीदी।" मेरा दमघोंटू सवाल।

"कोठे वाली है। कमाल का गाती है। ठगे से रह जाओगे। मराठी रंगमंच के कुछ मशहूर अभिनेता भी दीदी के यहां आते हैं।"

मुझसे रहा नहीं गया तो पूछ लिया, "कोठे के गाने सुनने का शौक तू कब से पालने लगा?"

"हमारी सत्रह पीढ़ियों के खून में गाना रच-बस गया है।" उसकी बातों में परंपरा का अभिमान झांक रहा था। मुझे अचरज था कि राष्ट्र सेवा दल के गानों में रममान होने वाली उसकी रुचि में अचानक बदलाव कैसे आ गया?

फरोस रोड के माहौल से मैं पहले से ही परिचित था। मेरा बचपन इसी इलाके में गुजरा था। पूरे दस-पंद्रह बरस के बाद मैं इस तरफ आ रहा था। ऊपर की मंजिलों पर टंगे हुए कई नंबर वाले कमरे थें। नीचे वेश्याओं के लोहे के पिंजड़े। उनकी भूखी नजरें। पुलिस की नजरों से बचकर फुटपाथ के पास, बिखरे चेहरे को रंगों में छिपाकर खड़ी औरतें। सब वैसा ही था। दस-पंद्रह बरसों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ था। अपवाद थी आस-पास उठी कुछ ऊंची इमारतें और उसके नीचे मारवाड़ी दुकान जो नई लग रह थी। मैं जब यहां के स्कूल में पढ़ता था तब मेरे कुछ दोस्त मुझे इस गली मे घुमाने ले आते थे। उन दिनों मैं उन पर बहुत नाराज होकर गुस्सा करता था। कहता था, "मेरे दोस्तों, ताड़ी के पेड़ के नीचे बैठकर छाछ भी पिओ तो लोग कहेंगी कि ताड़ी ही पी रहे हो।" मेरी इन सीधी बातों का वे मजाक उड़ाते थें। मैं चिढ़ जाता था, इसीलिए जानबूझकर वे इन्हीं रास्तों से हमेशा जाया करते थें। यह यादें ताजा होते ही मैं हंस पड़ा। दस-पंद्रह बरसों में मैं भी कितना बदल गया था।

"क्यों हंस रहे हो?" मुझे सहसा हंसते हुए देखकर मोहन ने पूछ लिया।

"मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तू कोठे वाली बाई को दीदी कह रहा है।" यह कहते हुए मैं मेरे मन में उठी बातों को छिपाने की कोशिश कर रहा था।

टैक्सी फुटपाथ के पास एक इमारत के सामने खड़ी हो गई। हमारी बातचीत बीच में ही थम गई। मोहन के साथ मैं भी नीचे उतर गया। मोहन ने टैक्सी वाले को रुकने के लिए कह दिया। मोहन की शिकायत थी कि वापसी के दौरान इस गली में टैक्सी नहीं मिलती है। मैं टैक्सी के बढ़ रहे बिल के लिए चिंतित था।

सामने देखा! इमारत की सूरत बेहाल थी। नजदीकी होटलों से फिल्मी गानों की चीख सुनाई पड़ रही थी, शोरगुल इतना था कि पता ही नहीं चल रहा था कि कौन-सा गाना बज रहा है? मोहन के पीछे-पीछे मैं भी एक गलियारे से होकर अंदर चला गया। शींककबाब की भुनी हुई खुशबू आ रही थी। मैं खुशबू को भूल गया था, दूबारा वह ताजा हो गई। मैंने देखा कि सीढ़ियों के नीचे जलते हुए अंगारों पर लोहे की छड़े सेंकी जा रही थी। सीढ़ी के लकड़ी वाले तख्त टूटी-फूटी हालत में थे। ऊपर चढ़ते वक्त पैर फिसलने का भय था। हम पहले माले पर पहुंच गए। वहां एक से एक जुड़कर गाने वाली औरतों की कोठियां थीं। कुछ कोठियां बहुत छोटी थी। आठ बाई बारह की। साजिंदे, बाजे वाले कोने में सहमकर बैठे थे। उनके सामने कुछ औरतें बैठकर मेकअप कर रही थी, तो कुछ पान के बीड़े लगा रही थी। उनमें से एक चेहरा अच्छे से याद है; उसने एक तरफ से मेकअप किया था, दूसरी तरफ आंखों के आसपास काले धब्बे जमा हो गए थें। एक घनी काली दाढ़ी वाला फकीर अपने हाथ में अंगारे से भरा बर्तन संभालता हुआ उसमें लोबान डालते हुए कोठी-दर-कोठी घूम रहा था। उसके उग्र दर्प से माहौल भरा हुआ था। कहीं से गाने की कोई दर्दभरी तान सुनाई पड़ रही थी। साथ में घुंघरुओं की आवाजें। मोहन शायद हमेशा यहां आता होगा। किसी न किसी कोठी के सामने रुक जाता था, थोड़ी बात करते आगे बढ़ जाता था। मैं भी उसके पीछे-पीछे घसिटते जा रहा था। कुछ मदहोश जवान गदराई हई लड़कियां हंसकर उसे आदाब फर्मा रही थी, ‘साब, गाना सुनके जाना!’ अनुरोध कर रही थी। उनके अनुरोध में मुझे विवशता का भाव दिखाई पड़ रहा था।

ऊपरी मंजिल पर आ गए। मोहन ने रेशमी पर्दे को हटाया। मैंने अंदर झांका, लंबा-चौड़ा हॉल था। दूसरे कोठियों की अपेक्षा यह कोठी बेहतर सजी थी। दीवारों पर हरा रंग था। दीवारों से सटकर भारी कोच लगे थे। बीच में बेहद लाल रंग की कालीन बिछी थी। कोने में साजिंदे अपने साज-सूरों को मिला रहे थे। हमें देखकर तीस-चालीस साल की औरत सामने आ गई। मोहन को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान छाई। हमें कोच पर बैठने के लिए उसने इशारा किया। कोच पर बैठते ही मोहन ने बड़े लाड़ से कहा, "दीदी हम आ गए हैं।"

उसने शरारत भरे लहजे में कहा, "साब, बहुत दिनों बाद आ गए। मैं तो सोच रही थी कि दीवाली पर आ जाएंगे।"

"हम दीवाली भूले नहीं है।" कहते हुए मोहन ने एक ब्रीफकेस खोली और उसमें से एक बक्सा दीदी के हाथ पर रख दिया। बक्सा मिठाई का था। दीदी को दिली खुशी हो गई

उसने बैठे-बैठे बक्सा पास में बैठी बुढ़िया को दे दिया। बुढ़िया काफी गोरे रंग की थी। बुढ़ापे की वजह से चेहरे पर झुर्रियां थी। उसके बाल मेहंदी से रंगे हुए थे। उनमें से कुछ सफेद बाल झांक रह थे। इस उम्र में भी बुढ़िया ने आंखों में काजल लगाया था। उसके सामने पान का डिब्बा था। वह नाखून से पत्तों को साफ कर रही थी। उसकी तुलना में दीदी बहुत सीधी-सादी लग रही है। कुछ सावली-सी भी। मेकअप भी नहीं था। सुंदर भी नहीं थी। बुढ़िया के साथ उसका रिश्ता कौन-सा है पता नहीं चल रहा था! सहसा मेरा ध्यान सामने वाले कोच के नीचे चला गया। वहां किसी छोटे बच्चे के स्कूल का बस्ता पड़ा था। पास में फिरकी और पतंग भी था। मैं अकारण ही अनमना हो गया। माहौल असहनीय लगने लगा।

दीदी बाजे वाले के सामने बैठ गई। सारंगी और तबले की जुगलबंदी शुरू हो गई। अभी तक लोग नहीं आए थे। गाना सुनने के लिए हॉल में बस हम दो ही थे। दीदी ने गाना शुरू कर दिया। दीदी की आवाज बेहद दर्दभरी, कलेजे को चीरने वाली थी –

"हर एक बात पे कहते हो कि तू क्या है।

तुम ही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है?"

मोहन ने मुझे धीरे से बताया कि यह गालिब की गजल है। शायद यह उसकी पसंदीदा गजल हो। अगला अंतरा सुनकर मेरा कलेजा भर आया।

"रंगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल।

जब आंख ही से न टपका तो लहू क्या है?"

दीदी बार-बार इन पंक्तियों को जी जान से गा रही थी। मैं पल भर के लिए गाना भूल गया। लग रहा था बरसात हो रही है। जंगल में शिकारियों की पुकारे सुनाई पड़ रही है। उन आवाजों में सहसा एक चीत्कार उस हीरनी की जो जान बचाने के लिए भागी जा रही है। मैंने मोहन की ओर देखा। उसके चेहरे पर खुशी दौड़ रही थी। वह गाने के रंग में रंग गया था। पीकदान संभाले हुए खड़ी औरत को उसने इशारा किया। दस-दस के नोट तश्तरी में रखे गए। अब मोहन साजिंदों की जुगलबंदी में खो गया। जब अच्छी तोड़ हो जाती थी तब दस के नोट को कागज की तरह गोल–गोल मोड़कर कभी सारंगी वाले को, कभी हारमोनियम वाले को तो कभी तबलची के पास फेंकने लगा। बाजा बजाते हुए वे भी नोट पकड़ रहे थें। दीदी का गाना खत्म हो गया। उसके माथे पर पसीने की बूंदे चमक रही थी। दीदी की सांस फूली हुई थी। वह अपने पल्लू से पसीना पोंछने लगी।

यह सब हो ही रहा था कि कहीं से पांच-छः लड़कियों का एक झुंड़ आ गया। सारी लड़कियां बेहद सुंदर, हसीन और कमसीन थी! गोरा-मुलायम बदन। जरूरत से ज्यादा सजी-संवरी। ऊंची और मंहगी साड़ियां पहने हुई! बाहर सड़कों पर चलें तो लगे कि बड़े-कुलीन घर की लड़कियां जा रही हो। नजरें शोख चंचल। उनमें से एक लड़की ने मेरी नजरों को बांधे रखा था। उम्र होगी कोई सोलह-सत्रह साल की। उसकी और टकटकी लगाए देखते हुए मैं जो सोचे जा रहा था वह ध्यान आते ही मानो झटका लग जाता है। वह लड़की हुबहू मेरे बेटी जैसे दिखाई दे रही थी। चेहरे का रखरखाव, मुस्कुराने की अदा, सारा कुछ उसके जैसा ही। वहां बैठना मुश्किल हो गया। मोहन को अपने मन की बात कैसे बता सकता था? वह तो मुझे मुर्ख और पागल करार देता! मैं बड़ी बेसब्री और व्याकुलता से चाहने लगा कि यह धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं!

नए गाने का आरंभ होते ही मेरा ध्यान टूट गया। लड़कियां अपने धून में नाचने लगी थी। उनमें से कुछ ने तालियों से ठेका पकड़ा था। हल्का फिल्मी गाना था –

"आएगीS आएगीS आएगीSS

तुमको हमारी याद आएगी।"

गाने के टुकड़े फेंकती हुए वे मोहन के सामने अदाएं कर रही थी। उनकी नजरों में मैं नाचीज था। मोहन दूसरा नोट निकालता तब तक उनमें से एक मोहन के सामने आकर बैठ गई। आंखों से इशारे करते हुए तालियों का संगीत बजाती रही और मोहन ने उसके हाथ में दस का नोट दे दिया। बहुत देर तक इस तरीके से ठुमके लगाए गए। मैंने नोटों को गिनना बंद कर दिया। सहसा मोहन का ध्यान दरवाजे के पास बैठे गजरे वाले की ओर चला गया। उसने गजरे खरीद लिए। लड़कियों की कलाई में बांधे। नाचते-नाचते एक गदराई बदन वाली लड़की का पल्लू पेट से नीचे खिसक गया। मैंने जैसे ही देखा, दंग रह गया। वह लड़की पेट से थी। उसका गोरा पेट मकई की कलगी जैसा फूला हुआ था। शायद पांचवा या छठा महिना चल रहा होगा। मैं मोहन के कान में फुसफुसाया। वह भी सहम गया। उसने उस लड़की को नाचने से मना किया और कोच पर बैठने के लिए कहा। उसको पता नहीं चला कि उसकी क्या गलती हो गई। अतः वह मायूस होकर कोच पर बैठ गई।

फिल्मी गानों के कारण लोग थोड़ी देर के लिए रुक जाते थे, पलभर के लिए बैठ जाते थे और फिर चले जाते थे। एक आदमी के कारण तो वहां का पूरा माहौल ही बदल गया। उसके आते ही लड़कियों ने नाचना बंद कर दिया। उसकी ओर देखकर लड़कियां मुस्कुराई और फिर नाचने लगी। वह आदमी हमारे सामने ही आकर बैठा था। उसने लखनवी कुर्ता पहन रखा था। बुजुर्ग था। तोंद चढ़ी हुई थी, कोयले के समान काला रंग था। हंसते ही उसके दांत जरूरत से ज्यादा चमक उठते थे। शायद कोई बड़ा रईस आदमी था। उसके एक हाथ की उंगलियों में हीरे की तीन-चार अंगूठियां झलक रही थी।

उसने आते ही नाचने वाली लड़की में से एक को इशारे से बुलाया। उसके हाथ में नोट रख दिए। बहुत देर से जो गाना चल रहा था वह तार की तरह टूट गया और उससे मुखातिब होकर लड़कियों ने एक सूर में नया गाना शुरू किया –

"हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने।

गोरे-गोरे गालों ने काले-काले बालों ने।"

मोहन को अब सचमुच गुस्सा आ गया था। गुस्से से उसका चेहरा तन गया। अब तक हम जो पैसे लूटा रहे थे उसकी कोई कीमत नहीं और अब यह कौन न जाने कहां से चला आया है, चंद रुपए देकर हमारा गाना तोड़ रहा है। इन्हीं भावों के साथ उसका चेहरा तमतमाया था। मोहन बहुत गुस्से में था। क्रोध से उसने दीदी की ओर देखा। कहा, "दीदी हमारा गाना पूरा होना चाहिए।" यह वाक्य सुनते ही उस आदमी ने हमारी ओर ठंड़ी नजर से देखा; जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दीदी ने भी मोहन की ओर ध्यान दिया नहीं। गाना बड़े जोश के साथ चलता रहा। ‘हमे तो लूट लिया...’ मोहन अब गैरजरूरी हो गया था। उसका आहत चेहरा मैं ज्यादा देर तक देख नहीं सका।

गाना खत्म होते ही वह उठ गया। पीकदानी संभालने वाली औरत के सामने कुछ फुसफुसाया और चल पड़ा। मैंने खिड़की के बाहर झांककर देखा। कोठे के किनारे एक घोड़ागाड़ी खड़ी थी। मैंने फिर हॉल में देखा। वह सोलह-सत्रह साल की लड़की जिसकी तरफ मैं कब से देख रहा था, झूंड़ में नहीं थी। मेरे मन में अनचाहे संदेह पैदा होने लगे। मेरा मन जैसे सड़ गया हो।

उस आदमी के चले जाने के बाद मोहन दीदी के साथ लगभग झगड़े पर उतर आया। शायद उसे किसी हिंदी फिल्म का सीन याद आया हो। आखिरकार उसने कह ही दिया, "मैं आपको दीदी कहता हूं, हमें क्या आपके यहां ऐसा ही सम्मान मिलेगा?"

दीदी की आवाज भी ऊंची हो गई। "देखिए साब, दीदी का रिश्ता तो घर में होता है। दीदी कहते हो और बाजार में आते हो? यह तो बाजार है। अगर यहां कोई भी अठन्नी फेंकेगा तो हमें इज्जत करनी पड़ती है। पेट के खातिर यह सब करना ही होता है।" एक सांस में दीदी बोले जा रही थी। बोलते हुए लग रहा था उसके होंठ कांप रहे हैं।

मोहन गुस्से से बाहर निकल पड़ा। अपने अपमान को वह सहन नहीं कर सका।

हम सीढ़ियों से होकर नीचे चले गए। टैक्सी वाला सो गया था। दरवाजे के खुलने की आवाज से वह हड़बड़ाकर उठा। मोहन का और मेरा वापस जाने का रास्ता अलग-अलग था। उसने मुझे नजदीकी स्टेशन के पास छोड़ दिया।

अब मुझे होश आया कि रात बहुत हो चुकी है। मैं दौड़ते-भागते स्टेशन पर चला गया। स्टेशन की सीढ़ियों से उतर ही रहा था कि लोकल रेलगाड़ी मेरे आंखों के सामने से गति पकड़कर चली गई। सुनसान प्लेटफॉर्म पर मैं खड़ा था। वह आखिरी लोकल थी। अब तड़के तक कोई गाड़ी नहीं थी। मैंने बेंच पर अपना शरीर फैला दिया। प्लेटफॉर्म की धीमी रोशनी के बावजूद आस-पास का अंधेरा अजगर के भांति निगलते जा रहा था। उस अंधेरे में भी थोड़ी देर पहले देखी लड़की का चेहरा दिख रहा था और मेरी लड़की के चेहरे के साथ घुलमिल रहा था।

अनुवादक – डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)
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(मूल कहानी मराठी के प्रसिद्ध दलित साहित्यकार दया पवार की है। इनका पूरा नाम दगडू मारुती पवार है, साहित्यिक जगत् में दया पवार के नाम से इनकी पहचान बनी हैं। इनका जन्म अहमदनगर जिले के धामणगांव में इ. स. 1935 में हुआ। दलित जाति के भीतर जन्म पाने के कारण बचपन से दलितों के साथ होने वाले अन्याय-अत्याचार से भलिभांति वाकिफ थे। इनके ‘बलुतं’ नामक पहली आत्मकथात्मक साहित्य कृति के कारण मराठी साहित्य एवं दलित साहित्य में नया मोड आ गया। लेखक ने प्रस्तुत कृति में अपने आपको केंद्र में रखा और सारे दलितों के जीवन को वाणी देने का प्रयास किया है। इनकी इस कृति से प्रेरणा पाकर मराठी साहित्य में दलित लेखकों की एक बडी फौज निर्माण हो गई। ‘बलुतं’ आत्मकथन के बाद कहानीसंग्रह - ‘जागल्या’, ‘पासंग’, कवितासंग्रह – ‘कोंडवाडा’ ‘धम्मपद’, अन्य - ‘पाणी कुठंवर आलं गं बाई’, ‘विटाळ’ आदि भी इनकी रचनाएं काफी चर्चित रही है।)


प्रतिक्रियाएँ

[14/03 17:09] jitendra visariya: मराठी दलित साहित्य में दया पवार का नाम है। उनकी आत्मकथा बलूत में भी इस तरह का प्रसङ्ग है। जिसमें वो बताते हैं कि एक बार भद्र सफेदपोश लेखकों के साथ उधर से गुजर रहे थे तो पुलपर उन्हें बचपन में तमाम तरह की मदद करने वाली मुँह बोली मौसी दिखी जो अन्य बाजारू महिलाओं के साथ कहीं जा रही थीं और अब बहुत बूढ़ी हो चुकी थी पर वे  चाहकर भी उसे पुकार न सके थे....इस कहानी में। अपनी बेटी की शक्ल की लड़की का होना और उसके   प्रति असहाय स्तिथि का वर्णन उसी दशा से मेल खाता है। इस कहानी में एक लड़की का गर्भ से होते हुए नाचने की बेवसी गुरुदत्त की सर्वकालिक फ़िल्म प्यासा का स्मरण कराती है,जिसमें बच्चा भीतर रो रहा है और माँ मुज़रा करने को विवश है!!!  बेहद मार्मिक ।
[14/03 17:15] Rajesh Jharpare: धन्यवाद जितेन्द्र भाई ।

"साहब, दीदी और गुलाम " दया पवार की कहानी अब तक आप सभी मित्रो ने पढ़ लिया होगा । सम्भव हो तो अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराये । हालाँकि यह बाध्यता नहीं है । निरंक टिप्पणी भी कहानी पर महत्वपूर्ण टिप्पणी होती है ।

।।राजेश झरपुरे ।।
[14/03 17:19] Alka Trivedi: कहानी हिन्दी क्लासिक मूवी की तरह लगी
[14/03 19:03] ‪+91 97799 02911‬: दया पवार जी इस मर्मान्तक कहानी को पढ़ना बेहद पीड़ादायक और अवसदजन्य है। सच अपने नंगेपन में इतना भयावह और वीभत्स होता है। सच जो हम कालीन के नीचे दबा कर ढक देना चाहते है। मुम्बई, ग्रांट रोड, फरोस रोड एक ऐसी विकट सच्चाई के संज्ञानात्मज बोध है, जो सभ्यता के पीकदान से नवाजे जाते हैँ। अधिकांश नगर वधुएँ (वेश्या शब्द अश्लील मालूम होता है) जबरदस्ती इस पेशे में धकेली जाती है। कहानीकार अत्यंत निरपेक्षता से कहानी में लपेट लेता है और अंत में एक गहरी करुणा और व्यवस्था से गहनतम घृणा के बोध से भर देता है। इस कहानी को पढ़ते वक्त धीरेन्द्र अस्थाना की "उस रात की गन्ध" अनायास याद आती है। सफल कहानी के लिये अनेक बधाईया। 👍
[14/03 20:04] प्रज्ञा रोहिणी: मोहन भले ही जन समिति का हिस्सा हो अंततः उसकी साहबी मानसिकता उभरकर आ ही जाती है। दीदी भले ही कहे पर उस नरक के भीतर क्या वाकई धँसकर देखा उसने? और दीदी से उसका  अपनी फरमाइश पर अड़ना कहानी में वह स्वर पैदा करता है जो सतही तौर पर बाज़ारू व्यावसायिक लगे पर है तो सच जिसके पीछे पीड़ा की अनेक परतें हैं। कितनी स्त्रियों की विडम्बना के चेहरे सामने आ जाते हैं। और साहब दीदी और गुलाम खुलकर सामने आते है। अंत में बिटिया के चेहरे को उन चेहरों में घुलाकर कथाकार ने कहानी को व्यापकता दी है।
मंच का आभार।
[14/03 20:05] प्रज्ञा रोहिणी: दीदी का खण्डन-- बाज़ारू लगे।
सुधार🙏🙏
[14/03 20:15] Sandhya: समाज के दोहरे रूप को दिखाती है कहानी ।पैसे और वृतियों के मद में चूर
व्यक्ति एक और सम्बोधन में शुचिता रखना चाहता है और दूसरी और आनंद का भी वरण करता है मामला केवल मजबूरी और मजदूरी से ही जुड़ा नहीं है बहुत बारीकी से मनुष्य की मनोवैज्ञानिक पड़ताल कर रही है कहानी
अंत में एक पीड़ा से साक्षात्कार कराती है 💥
[14/03 20:56] Rajesh Jharpare: "साहब, दीदी और गुलाम "
बेहद मार्मिक कहानी । एक पिता के सामनै अपनी हमउम्र बेटी का कोठे में नाच देखना और एक गर्भ वती लड़की का नृत्य में साथ होना  गहरी पीड़ा और अवसाद से भर देता है । दीदी औल कोठे में कोई सम्बन्ध नहीं होता । मोहन की चवन्नी पर जब अठन्नी भारी पड़ती है तो पेट बोल उठता है " दीदी का रिश्ता घर में होति है । बाजार में थो बस पैसों से रिश्तेदारी निभाई जाती है । राष्ट्र सेवा दल में अपनी सक्रियता दिखाने के बाद अंततः मोहन का सामन्ती चेहरा सामने आ ही जाता है । पेट से शुरू होकर पेट पर ही आ कर एक  वीभत्स सच्चाई से अवगत कराती कहानी को पढ़ना
आपनी पाठकीयता को समृध्द करना है ।
[14/03 20:56] Hanumant Ji: दगडू मारुति पवार यानी दया पवार नाम ही काफी है
ई पत्रिका रचनाकार मे यह कहानीपहले पढ़ी थी
फ़िर आज पढ़ी
पहली बार मे जितनी समझ आयी थी उतनी ही इस बार भी आयी
दीदी के आवरण के नीचे एक देह का भोक्ता  छिपा है
जो पुरुष lवर्चस्व वादी है
जिसे देह पर सिर्फ अपना अधिकार चाहिये
वहीं  देह की मंडी का अपना अर्थशास्त्र है
जो अठन्नी के इर्द गिर्द घूमता है
दीदी रिश्ते की चालाकी पुरुष से ज्यादा समझती है
और देह की सम्बन्ध निरपेक्षता का निर्वहन करती है
दया पवार का अछूत भी आत्मकथत्म्क था
यह कहानी भ वैसी है
पाखंड को वे सीधे उजागर करते हैं
और अपनी सम्वेदना को भावुकता से बचाते है लेकिन सम्वेदना को दमित भी नही करते
यहाँ भी कहानी मे अंत मे  यही दिखता है
ब्लॉग से ही कहानी का चुनाव करने मे बासी माल का खतरा भी बना रहता है
[14/03 21:22] प्रज्ञा रोहिणी: बिलकुल सही राजेश जी। पहले का साहब जितना अमानवीय था दीखता था पर नया बहुत पर्दे में है। अतिघातक
[14/03 21:54] ‪+91 94251 01644‬: कहानी अपने परिवेश की विद्रूपता को उघाड़ती हुई अंत में मानवीय विवशता   पर आकर अपना गहरा असर छोड़ती है।
[14/03 22:16] ‪+91 98263 27733‬: अनैतिक वृत्तियों की पर्दादारी के लिए नैतिक संबोधनों का पर्दा कितना कितना चीकट अहसास देता है , दोगली मनोवृत्तियों को दर्शाती बेहतरीन कहानी
[14/03 22:34] Pravesh soni: मज़बूरी की मजदूरी ... कितने शब्द दिए गए इसे ,नगर वधु ,वेश्या ,और भी न जाने क्या क्या |कितनी मजबूर होती होगी एक स्त्री देह ,जब वह व्यवसायिक रूप लेती है |पीड़ा ,अवसाद  का गरल  पीकर यह मुस्कराहट का मुखोटा ओढ़े रहती है |आज की कहानी में दीदी की विवशता पर हावी होता साहिब का दोगला चेहरा आखिर मुह की खा ही जाता है |
बेटी की उम्र की लडकियों को देख कर आहत होती पिता की भावनाए गहरा असर छोडती  है |एक मार्मिक कहानी आज आप सबने पढ़ी ,और अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाये दी

आप सभी का हार्दिक आभार
कल मिलते है एक और अनुवादित कहानी के साथ ,तब तक विदा
शुभ रात्रि
🙏
[14/03 22:48] ‪+91 94116 56956‬: बेहतरीन कहानी ।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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