Wednesday, February 10, 2016

कहानी
वह जो हसीना थीं

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oo  राजेश झरपुरेoo
      उन चारों की आँखें नम हो चुकी थीं. उनके अन्दर का आदमी अपने ही आँसूओं से सराबोर हो उठा था. वे चारों एक-दूसरे केा दम साधकर देखते. मन सारे तट बंधन तोड़, विलापने को होता पर वे तकदीर ठोंक कर रह जाते. उनके आँसू आँखों तक आकर, अन्दर ही ढुलककर रह जाते.
”कब हुआ यह सब..?“
”मेरी तो नाईट शिफ््ट थी.
  मैंने न हसीना को देखा और न ही उसकी आवाज़ सुनी. मैने सोचा...कहीं आसपास राऊन्ड पर होगी. मैं तो गेट पर ही तैनात था.“
”मुझे भी घर जाने के बाद जैसे ही पता चला, सब कुछ जैसे का तैसा छोड़कर कर दौड़ा चला आया.“
पहले और दूसरे सिक्युरिटी गार्ड की इस गैर ज़िम्मेदारना हरकत पर, तीसरे और चैथे को बहुत गुस्सा आया. उसका मन हुआ कि दोनों के अंजर-पंजर ढीला करके, उनका डंडा उन्हीं के छेक में डाल दे. दोनों  भड़ुये है, सिक्युरिटी गार्ड बने फिरते हैं...साले! हसीना के बल पर पल गये. अब रात में सन-सनाकर पत्थर आयेंगे, तो लफारा माँगेगी. आठ घंटे की ड्यूटी में आठ मिनट, एक जगह खडे़ नहीं रह पायेंगे.
’’तुम गड्ढा खोदो.“
वहाँ खड़े एक बुजुर्ग कामगार ने अपने सहायक मजदूर से कहा.
तत्क्षण उनकी सोच में विराम लग गया. उनका  ध्यान हसीना के निष्प्राण देह की ओर गया. वे चाहते हुए भी न क्रोध कर सके और न ही सिसक सके.
वे जब ड्यूटी पर आते, हसीना गेट के पास से ही उनसे लिपट जाती. कभी-कभार देरी होने पर वह ऐसी गुर्राती, मानों राधोगढ़ कोयला खदानों की वही चीफ़ मैनेज़र हो. क्षमा याचना के अंदाज में जब तक उसकी पीट पर हाथ फेरकर, थपथपाकर, सहलाया न जाये, उसका गुर्राना बंद नही होता था.
वे चारों जब घर से ड्यूटी के लिए निकलते, पत्नी से यह कहना नही भूलते कि ”हसीना के लिए चार रोटियाँ अलग से रख देना. “हाँ! मुझे भी ख्याल है अपनी सौतन का...“ कहते हुए उनकी पत्नियाँ खिल-खिलाकर हँस पड़ती थीं. ऐसा एक बार उन चारों के बीच हुई चर्चा से पता चला था.
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नगर में कुल्हिया मेें गुड़ फोड़ने का दुष्कर्म यानि लोहा, कोयला चोरी की घटनाएं तेजी से बढ़ रही थीं. कभी कभार इस पर थोड़ा अंकुश या प्रशासनिक सक्रियता का प्रर्दशन करने में पाबंदी ज़रूर लगी पर दबाव हटते ही यह पुनः जारी हो जाती. इसका प्रमुख कारण राधोगढ़ की कोयला खदानों में पड़ा हज़ारों टन लावारिस लोहा था. वह जंग लगकर सड़ने और गलने के अभिशाप से बचने के लिए चोरों को आमंत्रित करता. बेरोजगारों की बेरोजगारी को धिक्कारता.
”तुम्हें राधोगढ़ कोयला खदान में नौकरी नहीं मिल पाई तो क्या हुआ..?“
”तुम्हारे नसीब में अनुकम्पा नियुक्ति जैसा ग्रहयोग नहीं है तो क्या हुआ... हम तो हैं.
खदान की अँधेरी काल कोठरी में, खाँसते-खखारते, फेफड़ांे मेें जमी कोयले की महीन परत लेकर रिटायर होने की अपेक्षा नगर के कई गणमान्य ने लोहे के इस आमंत्रण को आम, ईंख,नीबू बाणिक गारे ही रसदेत, की भावना से स्वीकार किया. वे आज धन, वैभव, सभ्यता और संस्कृति को प्राप्त कर सामाजिक और राष्ट्रीय पद प्राप्त कर महिमामय होकर सर्वत्र सम्मान के पात्र हैं.
लोहा सबको नहीं फलता. कुछ बरबाद भी हुए. लेकिन जो रातों-रात आसमान चढ़े, उनकी पृष्ठभूमि में कोयला खदानों का जंग लगा लोहा और कोयला ही प्रमुख रहा...यह राधोगढ़ का निर्विवाद सत्य और कंलकित इतिहास था, इसे सभी जानते थे.    
      श्वेत धवल रंग, चमकीले, थोड़े आकर्षक बाल, पूँछ ऊपर उठी हुई और गर्दन सीधी तनी हुई, जब वह चलती किसी योध्दा के धोड़े की दुलकी चाल का आभास होता था. पूर्ण चैकन्ना और सर्तक. ड्यूटी आते ही वह उन्हें गेट पर मिल जाती. उसकी चाल बड़ी मदोन्मत्त थी। उसके पौर-पौर से ख़ुशी और देह से मादक तरंगें उठती, बिल्कुल वेैसे ही जैसे किसी नव-विवाहिता के अपने पिया से मिलकर लौटने पर उसकी देह से उठती.
वे चारों रात पाली में हसीना के बल पर टाँग पसारकर सोये रहते. आज तक उसी के कारण उनके दिन ईद और रातें शबेरात थीं. वे तो दुम कटाकर पूँछ कटों में शामिल हुए थे। वरन् योेग्य तो वे चपरासी पद के भी न थे.
हसीना के डर से गिरोह के सदस्य ने टट्टी की आढ़ में शिकार करने का एक नया रास्ता ढँूढ़ निकाला था. वे राधोगढ़ कोयला खान की चारों दिशाओं में छुपकर खड़े हो जाते. पत्थरों को इकट्ठा कर उनका ढेर लगाते और क्रमशः एक-एक दिशा से खदान  के अन्दर पत्थर सन्नाना आरम्भ करते. सिक्युरिटी गार्ड और हसीना जब तक किसी एक दिशा की ओर जाते दूसरी दिशा से पत्थर सन्नाने का कार्य आरम्भ हो जाता. इससे पूरी कोयला खदान में आतंक और भय का वातावरण पैदा हो जाता. खदान के सारे सिक्युरिटी गार्ड अच्छे घर बैना देने की जोखिम न उठाकर खदान के पिट आॅफ़िस या टोकन आॅफ़ि़स में अपनी दुम दबाये बैठे रहते. एक हसीना थी, जो पागल शेरनी की तरह चारों दिशाओं में गुर्राते, दहाड़ते हुए उनका पीछा करती और अन्ततः उन्हें खदेड़कर ही चैन लेती.
चोरों के लिए तो और बात खरी खोटी, सही दाल रोटी. हसीना से औघट घाट बचकर चलने का उन्होंने एक नायाब तरीका ख़ोज निकाला. अब वे चारों दिशाओं से एक साथ, एक ही वक्त़ पर, कुछ देर तक पथराव करते, फिर भाग जाते. फिर आते, फिर पथराव करते और भाग जाते. एक-एक, दो-दो घंटे के बाद उनका यह क्रम जारी रहता. दो चार दिन उन्होंने इसी तरह आतंक और भय का वातावरण बनाये रखा पर कोयला या लोहे की चोरी नहीं की.
हसीना एक ही परिवेश में चक्कर लगाकर घूमकर रह जाती. वह सामने से आने वाले पत्थरों की बौछार की ओर भागती तो पीछे से पत्थरों की वर्षा होने लगती. गुर्राकर पीछे भागने की कोशिश करती तो दायें-बायंे से नुकीले पत्थर उसके आसपास आकर गिरते. इस दौरान चोरों की गेंग के कुछ सदस्य खदान की बाउण्ड्री वाॅल लाघंकर रेल लाईन्स,कोलटब पार्टस, राड एवं स्क्रेपर दीवाल से बाहर फेंक देते. उनकी यह योजना सफ़ल रही. वे इसी तरह कुछ दिनों तक लोहा-कोयला चोरी करते रहे.
हसीना ने उनका यह तुरूप का पत्ता पकड़ लिया. वह चोरों के पत्थर सन्नाने से पहले ही, बाउण्ड्री वाॅल के किनारे हो लेती. पत्थर की मार, स्टोर रूम ब्लेकस्मिथ रूम और स्क्रेपर का जहाँ ढेर लगा होता, वहाँ पड़ती. हसीना अपनी कुषाग्र बुध्दि पर मन्द-मन्द मुस्कुराती रहती. जैसे ही गंेग का सदस्य चोर, पत्थरों के आतंक का आश्रय लेकर बाउण्ड्री वाॅल पार करता, हसीना के जबड़े में उसकी जांध का, कभी नितम्ब का और कभी किसी के बाजू के माँस का बड़ा सा लोथड़ा होता, जिससे गरम-गरम ताजा खून टपक रहा होता.
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एक समय ऐसा आया राधोगढ़ खदान से कोयला-लोहा चोरी होना लगभग बन्द हो गया. यह अंकुश न नगर की पुलिस व्यवस्था और न ही खदान की लाखों रूपये की सिक्युरिटी फ़ोर्स के कारण लग सका बल्कि इसे सम्भव कर दिखाया... एक अकेली हसीना ने. उसके  भय से अच्छे-अच्छे नामीगिरामी चोरों के पैर उखड़ गये. वह राधोगढ़ में सुरक्षा कवच की तरह छा गई थी.
उसकी कर्तव्यपरायणता से चोरों का गिरोह लगभग परास्त हो चुका था. उन्हें नज़दीक ही अपनी परेषानी का कोइ्र्र हल दिखाई नहीं पड़ा. तीन दिनों से वे बिल्कुल बेकार थे. हसीना के हव्वे की गाज गिरने की दुष्चिंताओं से घिरे वे सब राधोगढ़ की ऊँची पहाड़ी पर बैठे दारू पी रहे थे. पूरा वातावरण महुएँ की कच्ची दारू से गमक रहा था.
’’ऐसा लगता है कोल माईन्स का डि-नेषन्लाईज़ेषन हो चुका है और राधोगढ़ कोलमाईन को हसीना ने टेकओवर कर लिया.’’ गिरोह के सर्वाधिक षिक्षित सदस्य ने कहा.
’’ठीक कहा यार! अब सरकारी सम्पŸिा आपकी अपनी हैं... वाली बात भूल जाओ. अब सब प्राईविट और वैयक्तिक हो चला हैं.’’ बेरोज़गारी की मार से जार-जार, दूसरे ग्रेजूएट चोर ने कहा.
’’साली भौंकती है और काटती भी हैं...जैसे यह माईन उसके ख़सम की हो. कोई दूसरा इसकी तरफ़ आँख उठाकर नहीं देख सकता.’’ तीसरे का दुःख भी गहरा गया.
’’इसकी तो...जी में आता है गला घोंट दूँ, साली का. खदान के अन्दर पूरा माफिया गिरोह पल रहा...उन्हें कोई कुतिया नहीं भौंकती.’’ एक ही बार में एक झटके से उसने दारू का दोना खाली कर दिया और दोनों हाथों से अपनी छाती मलते हुए कहा.
’’नेता  हाॅजरी लगाकर घूम रहें हैं. फ़्री की तनख़्वाह लेते हैं.
      नौकरषाह के हाथ दलाली में काले हंै. सत्ताधारी, कम्पनी को बचाने की अपेक्षा अपने विरोधी को डूबाने की जुगत में भिड़े रहते.
’’ठीक! बिल्कुल ठीक!!” नषे में झूमती-झामती आवाज़ का समर्थन उन्हीं में से किसी एक ने किया.
’’हमारे पाँव की ज़मीन तो ये पहले ही पोली कर चुके हैं. नौकरी देना तो पहले से भी बन्द हैं. अब साले हमारी बेरोज़गारी पर एक कुतिया से भूंकवाते हैं.’’  नषे में प्रतिकार सिर चढ़कर बोला रहा था.
’’पूरा आधा गाँव खाली हो गया. कितनों को कम्पनी ने डिसमिस करके कटोरे से लगा दिया. कितनेक को वी.आर.एस.का सुनहरा धोका देकर चलता किया. खदानों में नौकरी एक सपना बनकर रह गई. अब लगता...इन खदानों से लोहा चोरी कर गुज़र-बसर करना अपने वष की बात नहीं रही.’’ यह गिरोह के किसी सदस्य का चिंताओं से घिरा बेहद दुःखी स्वर था.
’’अब क्या किया जाये? चलंे किसी दूसरे एरिया को देखें.’’ दूसरे ने पहले की तरह दुःखी होते हुए कहा.
’’बेटे! सभी जगह सेट हैं. हम किसी दूसरे के इलाके में नहीं जा सकते.’’ गिरोह के सरगना ने गुस्से में कहा. वह इतनी ज़्ाल्दी हार मानने वाला नहीं था.
’’यार! इस कुतिया को राधोगढ़ कोयला खदान की इतनी फिकर क्यँंू..? आज तक तो कम्पनी ने कभी लोहा-कोयला चोरी की रिपोर्ट लोड्ज नहीं कराई. फिर यह क्यूँ भौंकती हैं..?
’’यस! यू आर राईट.” उसे चढ़ चुकी थी. उसका बेकार पड़ा अंग्रेजी का ज्ञान बगर पड़ा.
’’यू आर ऐबूसॅलूटली राईट. उस वक़्त हम ओनली थ््राी मेम्बर थे-इस ग्रुप में. मैं, ललित और विनोद. नये-नये मुल्ला बने कोलियरी मैनेजर ने अपने सुपीरियर्स के कहने पर रिपोर्ट लोड्ज करवा दी. केस चला. वकील ने ऐसे-ऐसे क्रास क्वेष्चन किये कि उसको पसीना छूट गया.’’ इस जिले में तीस-पंैतीस खदानें हंै. आप कैसे कह सकते है कि यह जब्तषुदा कोयला आपकी कोल माइन का है और लोहा भी ?’’
कोयला तो सभी खदानों का काला होता हैं. लोहा भी सभी खदानों में एक जैसा काम में लाया जाता.
मैनेजर चुप. उसकी बोलती बंद हो गई. उसकी पेषानी से पसीना चू गया. हम बेदाग रिहा हो गये. यह किस्सा सालों पुराना था पर उस मैनेजर का खिसियाया चेहरा याद कर हँसी आ जाती हैं.’’
चोरों के गिरोह में  हँसी का एक समवेत स्वर महँुए की गमक से खिल उठा.
’’लेकिन अब उसका क्या करें. कल उसने इकबाल और समीर को छः और चार दस टांकंे लगवाये हंै. इंजेक्षन अलग टुचेंगें. अब तो हमारी भी टंूई बोल रही हैं.’’
हँसी के समवेत स्वर के बीच पुनः एक व्यग्र और चिंतित स्वर उठा, जिसने उनकेे मुँह पर ताले जड़ दिये.
’’हाँ! कुछ तो करना ही पड़ेगा. कुछ किया भी हैं...मैंने. एक गुट्टी भिड़ाई हैं यदि फिट हो गई तो समझो हसीना हमेषा के लिए हिट.’’
गिरोह के सरगना ने फुल कौनफिडंस के साथ कहा.
अँधेरे घिर आये थे पर उनकी आँखों में चमक थी.
वे पहाड़ की चोटी से नीचे उतर आये.
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      दो वर्ष पूर्व किसी एक दिन सिक्युरिटी गार्ड नम्बर-2, सेकन्ड शिफ्ट में रात्रि के नौ बजे अपना टिफ़िन खोलकर ज्यों ही भोजन करने बैठा, एक कुतिया को अपने बहुत नज़दीक टुकड़गदाई करते पाया. भोजन के समय अपने आसपास किसी कुत्ते, बिल्ली का मंडराना तो दूर, उसे उनकी छाया मात्र से भी धिन होती थी. पर पता नहीं उसमें क्या बात थी, वह उसे दुŸाकार नहीं सका. उसने टिफ़िन से दो रोटी निकालकर उसकी तरफ़़ डाल दिया. कौन जाने कब की भूखी थी वह बे़जुवान. अपने अन्तःकरण से कोटि-कोटि धन्यवाद दिया उसे और चन्द निमेष में दोनों रोटी चट कर गई. फिर तीसरी रोटी या कुछ और जूठन पा जाने की ललक उसने न ही प्रकट की और न वह गार्ड ही टिफ़िन में कुछ बचा पाया था.
भोजनोपरान्त वह पहरेदारी पर डट गया. वह सारी रात उसी के आगे-पीछे घूमती रही. उसे अच्छा लगा. एक अकेला आदमी हाथ में डंड़ा लिये, सिर पर टोपी लगाये, पागलों की तरह, आठ घंटें रात-बिरात, निर्जन स्थलों, दरख़्तों के झंुड में, नाले-डबरों में, झींगुरों के शोर के मध्य अकेला ही पहरेदारी करता-फिरता था, उसे एक साथी मिल गया. वह चाहे जो भी हो, उसका डर और अकबक चैकना बंद हो गया. शिफ्ट की समाप्ति पर जब उसने अपने सह-कामगार गार्ड को चाज़ऱ् दिया तो वह उसके पीछे हो ली. उसने भी दयाभाव दिखलाते हुए भोजन के समय, उसके आगे एक रोटी डाल दी. यह क्र्रम निरन्तर जारी रहा.
उसकी मदमस्त चाल के कारण ही उन चार सिक्युरिटी गार्डों ने उसका नाम हसीना रखा था. कुछ ही दिनों में वह हिलजुल गई थी. वह उनकी कार्यप्रणाली से पूरी तरह अवगत हो चुकी थी. अब वे टोकन डालते और हसीना उनकी ड्यूटी करती. वे कभी पिट आॅफ़ि़स, कभी टोकन आॅफ़ि़स और कभी  बेरियर में बैठे खैनी मलते, गप-सड़ाका लगाते, बीड़ी का धुआँ उगलते-निगलते और तनख़्वाह होने के कुछ दिनों बाद तक ताश की पत्ती फेंटते रहते. हसीना उनकी ड्यूटी बजाती. आपातकाल या विपत्ति में जब स्थिति उसके नियंत्रण से बाहर हो जाती, वह भौंकती, दौड़ती आती. इषारे से उन्हें बतलाती और वह डंड़ा लेकर उसके पीछे हो लेते. परन्तु ऐसी स्थिति बहुत कम आती. हसीना ही सब कुछ सम्भाल लेती थी.
       हज़ारों रूपये माहवारी वेतन पाने वाले, उन गार्डों की इतनी ड्यूटी रह गई थी कि वे अपनी-अपनी पत्नी से कहकर चार-पाँच रोटियाँ टिफ़िन में रखकर अतिरिक्त ले आते. उसे प्यार से दुलारते, उसकी पीट थपथपाते और डाल देते उसके सामने, फिर पालीभर मृदंग बजाते फिरते रहते.
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       हसीना नहीं रही. वह मर चुकी या यूँ कहे वह वीरगति को प्राप्त हो गई . वह वैकुण्ठधाम में जाकर बस गई. बहुत ही तेज प्राणघातक विष भोजन में मिलाकर किसी खान मजदूर की सहायता से उसे दिया गया था. वह चीख भी न सकी, तड़फड़ाकर रह गई...  कूँ-कूँ करती. कोई नहीं आया उसे बचाने. कोई नहीं था...उसके पास, जिसे वह अलविदा कह सके. चोरों के गिरोह ने षड़यंत्र ही ऐसा रचा था.
गड्ढा खुद चुका था. उन चारों ने उसे उठाया और पंचतत्व के हवाले कर दिया. वह राधोगढ़ कोयला खदान में कार्य करने वाले म्ेानपावर की अपेक्षा अधिक ईमानदार, आदर्ष और समर्पित खानकर्मी थी. उसका नाम कम्पनी के सर्विस रिकार्ड में दर्ज़ नहीं था. उसे न कोई टोकन नम्बर एलाट था न पी.एफ. नम्बर. इसके बावजूद वह कम्पनी को सर्वाधिक उत्पादकता देकर लाभ पहँुचाने वाली कर्मी थी.
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चोरों का गिरोह फिर सक्रिय हो गया. वे बेरोकटोक, बेधडक, निर्भय होकर  लोहा- कोयला ढो रहे थे.
’’यहाँ तो हमें छोड़कर, इस कम्पनी को कोई अपनी कम्पनी, अपनी कोयला खदान कहने को राजी ही नहीं हैं. अधिकारी, कर्मचारी कहते हंै-यह बंद हो गई तो दूसरी खदानों में ट्रान्सफ़र हो जायेगा, वहाँ चले जायेंगे. युनियन को मेम्बर चाहिए, चन्दा चाहिए. वह भी पीछे जायेगी.’’  गिरोह के शातिर चोर रहीम ने बाउण्ड्री वाॅल के बाहर लोहे की छड़ और सरिया फेंकते हुए विनोद से कहा.
’’ठीक कहा बाॅस तुमने! यदि हसीना जिंदा होती तो दुःखी हो जाती.’’अपने बाॅस की बात का समर्थन करते हुए उसने रेल की पांत का एक बड़ा सा टुकड़ा उसके हाथ में थमा दिया.
विनोद और उनके दो साथी चोर खदान परिसर के अन्दर से सरिया, राड और अन्य स्क्रेपर उठा-उठाकर बाउण्ड्री वाॅल तक ला रहे थे और रहीम उसे बेखौफ़ बाहर फेंक रहा था.
’’बाॅस! वह भी एक दिन था जब अन्डर ग्राडन्ड दुर्घटना में मजदूर मर जाता था तो खान मालिक उसे अन्दर ही दफ़ना देता था, उसका न टोकन टंगा मिलता और न ही उसकी एटेंडेंस मार्कड हुई होती. कह दिया जाता-वह तो ड्यूटी पर ही नहीं था. नो ग्रेज्यूटी, नो फंड, नो कम्प्नषेसन, नो एम्प्लायमेंट डू डिपेंडेंट, बिल्कुल हसीना की तरह. पर आज इतनी सुविधा और अधिकार प्राप्त हैं कामगारों को फिर भी नहीं समझते की यह उनकी कोयला खदानें हैं.’’ विनोद जो रहीम की बातें सुनकर बाउण्ड्री वाॅल के पास खड़ा बीड़ी सुलगाने लगा था, ने बेहद दुःखी स्वर में कहा.
      रहीम ने उसके हाथ से सुलगती हुई बीड़ी ली और एक लम्बा सुट्टा मारते हुए कहा ’’...हाँ दोस्त! इस ज़मीन की तरह उनकी आत्मा में भी कई-कई सुराख हो चुके हैं.’’
रात्रि पाली का चार्ज़ लिये गार्ड ने दूर कहीं से आवाज़ लगाया “...              जागते रहो, जागते रहो! प्र उसकी आवाज़ कोल बंकर में लोड हो रहे कोयले की गडगड़ाहट में कही दबकर रह गई.
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सम्पर्क: न्यू पहाड़े काॅलोनी,जवाहर वार्ड,गुलाबरा,छिन्दवाड़ा, जिला-छिन्दवाड़ा (480-001)
मोबाइल-9425837377/ईमेल rajeshzarpure@gmail.com
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षिक्षा-   एम.ए.(समाजषास्त्र)
प्रसारण- दूरदर्षन और आकाषवाणी से कविताओं और कहानियों का नियमित प्रसारण
प्रकाषन-प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं/कहानियां प्रकाषित (हंस,कथादेष,पहल,समकालीन भारतीय साहित्य, वसुधा, नया ज्ञानोदय एवम् कादम्बिनी आदि)कुछेक कविताएँ और कहानी का पंजाबी (गुरूमुखीं),उड़ीया व अन्य प्रान्तीय भाषा में अनुवाद।
‘‘तुम नहीं रहे’’, ‘‘दिहाड़ी में प्यार’’ कविता संग्रह, ‘‘विरासत, चिकटबर्री का जंगल, ‘‘पोस्टकार्ड व अन्य कहानियाँ, कहाँ है कुषल, रोषनी पर अँधेरे, ”दराज़ में रख्ीं पेंसिलें“ ... कहानी संग्रह.
”वह आगे निगल गया...“ ”फांस...“ और “कबिरा आप ठगाइये” उपन्यास
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