Tuesday, May 31, 2016



उपन्यास अंश 


जयश्री राय  के उपन्यास "दर्द्जा "के कुछ अंश ही दिल को दहलाने की काबिलियत रखते है | सम्पूर्ण उपन्यास एक दस्तावेज है  विशेष जातीय समुदाय में स्त्री पर हो रहे क्रूर  कृत्य का जिसे एक रस्म के नाम से नवाज़ा  गया है |जहां आज स्त्री के कदम अन्तरिक्ष में दस्तक दे चुके है ,वहाँ  स्त्री अभी भी अपने क़दमों  को अमानवीयता की जंजीर से छुड़ाने की जद्दोजहद में लगी हुई है |





दर्दजा
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- जयश्री रॉय 



जयश्री रॉय की कृति ‘दर्दजा’ के पृष्ठों पर एक ऐसे संघर्ष की ख़ून और तकलीफ़ में डूबी हुई गाथा दर्ज है जो अफ़्रीका के 28 देशों के साथ-साथ मध्य-पूर्व के कुछ देशों और मध्य व दक्षिण अमेरिका के कुछ जातीय समुदायों की करोड़ों स्त्रियों द्वारा फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफ़जीएम या औरतों की सुन्नत) की कुप्रथा के ख़िलाफ़ किया जा रहा है। स्त्री की सुन्नत का मतलब है उसके यौनांग के बाहरी हिस्से (भगनासा समेत उसके बाहरी ओष्ठ) को काट कर सिल देना, ताकि उसकी नैसर्गिक कामेच्छा को पूरी तरह से नियंत्रित करके उसे महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला जा सके। धर्म, परम्परा और सेक्शुअलिटी के जटिल धरातल पर चल रही इस लड़ाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को जैसी विश्व-संस्थाओं की सक्रिय हिस्सेदारी तो है ही, सत्तर के दशक में प्रकाशित होस्किन रिपोर्ट के बाद से नारीवादी आंदोलन और उसके रैडिकल विमर्श ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है।
                                                                       अपनी समाज-वैज्ञानिक विषय-वस्तु के बावजूद प्रथम पुरुष में रची गयी जयश्री रॉय की कलात्मक आख्यानधर्मिता ने स्त्री की इस जद्दोजहद को प्रकृति के ऊपर किये जा रहे अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का रूप दे दिया है। सुन्नत की भीषण यातना से गुज़र चुकी माहरा अपनी बेटी मासा को उसी तरह की त्रासदी से बचाने के लिये पितृसत्ता द्वारा थोपी गयी सभी सीमाओं का उल्लंघन करती है। अफ़्रीका के जंगलों और रेगिस्तानों की बेरहम ज़मीन पर सदियों से दौड़ते हुए माहरा और मासा के अवज्ञाकारी क़दम अपने पीछे मुक्ति के निशान छोड़ते चले जाते हैं। माहरा की बग़ावती चीख़ एक बेलिबास रूह के क़लाम की तरह है। हमारे कानों में गूँजते हुए वह एक ऐसे समय तक पहुँचने का उपक्रम करती है जिसमें कैक्टस अपने खिलने के लिए माक़ूल मौसम का मोहताज़ नहीं रहता।


अभय कुमार दुबे
          निदेशक, भारतीय भाषा कार्यक्रम, विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली
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दूसरे दिन रात के अंतिम पहर मैं एक बार फिर अनगढ़ पत्थरों के उस स्याह टीले के पास अपनी मां के साथ खड़ी थी और वह कुरुप और डरावनी बंजारन अपनी कालीन के टुकड़ों की पैबंद लगी झोली से तरह-तरह के औज़ार और भोंथरे-नुकीले हथियार निकाल-निकालकर ज़मीन पर तरतीव से रख रही थी. आज हमारे साथ पड़ोस की सामोआ आपा भी थीं. आपा और मां ने मेरे दोनो हाथ दो तरफ से पकड़ रखे थे और मेरे घुटनों में धीरे-धीरे कंपन हो रहा था. पेट के नीचले हिस्से में कुछ घुलाता हुआ. मैं बड़ी मुश्क़िल से सीधी खड़ी रह पा रही थी.

तेज़ी से फैलती रोशनी में मैंने चाकुओं और दूसरे हथियारों पर जमे हुये काले खून के धब्बों को देखा था जिन्हें वह बंजारन औरत जिसे मां जाबरा कहकर सम्बोधित कर रही थीं, अपनी थूक से गीला कर लहंगे से पोंछ रही थी. उसके दोनों हाथ की बड़ी और बीचवाली उंगलियों के नाखून बहुत लंबे थे, मुर्गे के चंगुल की तरह आगे से झुके हुये. उन्हें देखकर मेरे पूरे शरीर में बार-बार झुरझुरी-सी दौड़ जा रही थी.

एक समय के बाद जाबरा ने अपना चेहरा उठा कर मां की ओर अजीब ढंग से देखा था, जैसे कुछ आंखों ही आंखों में कह रही हो और इससे पहले की मैं कुछ समझती या करती, मां और आपा ने मुझे जबरन खींच कर ज़मीन पर लिटा दिया था. मां ने बैठ कर मेरे सर को अपने सीने से लगा लिया था तथा आपा ने मेरे पैरों को दोनों तरफ फैला कर उनपर मां के पैर चढ़ा दिये थे. मां ने भी झट पूरी ताक़त से मेरे पांव अपनी हड़ियल जांघों से चांप दिये थे. इस बीच आपा ने पीठ की तरफ से मेरी दोनों बांहों को मोड़ कर सख़्ती से पीछे की तरफ से पकड़ लिया था. अब मां ने फिर कल जैसी ठंडी आवाज़ में कहा था- "माहरा! ज़रा बर्दास्त करना, सब जल्दी हो जायेगा!"

मैं बिना कुछ कहे अपनी विस्फारित आंखों से जाबरा को देखती रही थी जो मेरे फैली हुयी टांगों के बीच बैठी ठंडी आंखों से मेरा मुआयना कर रही थी. फिर मैंने देखा था उसके हाथ में ब्लेड का वह टुकड़ा जो दूसरे ही पल मेरी नर्म त्वचा में जाने कहां तक उतर गई थी. मेरी आंखों के आगे अचानक बिजली के नीले-पीले फूल-सा कुछ कौंधा था और मैं हलक फाड़ कर चिल्लाती चली गई थी! दर्द का ऐसा भीषण अनुभव मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं ईद-बकरीद के मौकों पर जानवरों को हलाल होते हुये देखती आई थी. अब्बू या कोई और जानवरों के मुंह काबा की तरफ करके उनके गले में ढाई दफा चाकू रेत कर छोड़ देते. उसके बाद वे जानवर देर तक तड़प-तड़प कर अपनी जान देते. उनकी उबली हुई आंखें, खुला हुआ मुंह, गले से भल-भल बहता खून, उनकी छटपटाह्ट के साथ चारों तरफ उड़ते खून के छींटे.... यह सब आमतौर पर हमारे लिये मनोरंजन के दृश्य हुआ करते थे, मगर आज एक तरह से मुझे भी ज़िन्दा ही जिबह किया जा रहा था. जाबरा के उठते-गिरते हाथ के साथ मेरे शरीर में तेज़ पीड़ा की लहरें उठ रही थीं, बिस्फोट-से हो रहे थे. कभी जाबरा के हाथ में चाकू होता, कभी पत्थर के टुकड़े तो कभी ब्लेड... भय, पीड़ा से अवश होते हुये मैंने देखा था, उसने अपने दोनों गंदे हाथों के लम्बे नाखूनों को मेरे भीतर खुबा दिये थे. दर्द के अथाह समुद्र में डूबते हुये मैंने महसूस किया था, वह अपने नाखूनों से मुझे नोंच-खसोट रही है, चीर-फाड़ रही है, कुतर रही है! उस समय आग़ की सलाइयां-सी मेरे जांघों के बीच चल रही थी. लग रहा था, ढेर सारी जंगली, विषैली चिंटियां मेरे अंदर घुस गई हैं और मुझे खोद-खोद कर खा रही हैं! या फिर कोई बिच्छु लगातर डंक मार रहा है. तेज़ जलन हो रही है. मेरे दोनों पैर बुरी तरह थरथरा रहे हैं, पूरा शरीर पसीने से भीग गया है. चिल्ला-चिल्ला कर गला फट गया है. मां का चेहरा मुझ पर झुका हुआ है और उन्होंने मुझे बुरी तरह जकड़ रखा है. उनकी आंखों में इस समय अजीब-सी चमक और मुग्धता हैं! जैसे कोई धार्मिक अनुष्ठान देखते हुये लोगों की आंखों में अक़्सर होती है. मेरे मुड़े हुये हाथ शायद टूट गये हैं और कमर से नीचे का शरीर शून्य पड़ गया है. मुझ से और चिल्लाया नहीं जाता... मेरे गले से घुटी-घुटी आवाज़ें निकल रही हैं. एक समय के बाद खून के बहाव को रोकने के लिये जाबरा मेरे जख़्म पर जानवरों की लीद और मिट्टी डालने लगती है. ऊपर आकाश फटकर धीरे-धीरे सफ़ेद पड़ रहा है... पास ही कहीं सियार हुंक रहा है, ताड़ के नंगे माथे पर एक गिद्ध बैठा है. उसकी नंगी, रोमहीन गर्दन, खून में डूबी पलकहीन आंखें, विशाल डैनों की झपट... सब धीरे-धीरे आपस में गडमड हो जाता है और फिर वह काली, बड़ी चादर आकाश के जिस्म से खिसक कर जाने कब मेरे ईर्द-गिर्द फैल जाती है और मैं उसके तरल, सुखद अंधकार में डूब जाती हूं... आह! मृत्यु... यह इस जघन्य पीड़ा, इस नरक से कहीं बेहतर है. उस क्षण मैं सचमुच मर जाना चाहती थी. यह एक बेहतर विकल्प था. उस ठंडी, काली, निविड़ शून्यता को मैंने किस आवेग से स्वयं में निर्बाध उतरने दिया था...


ना जाने कितनी देर बाद मेरी आंखें खुली थीं. मैं मरी नहीं थी, जिन्दा थी... ओह! यह प्रतीति कितनी भयावह थी मेरे लिये! जीवन यानी पीड़ा और... पीड़ा! मेरे कमर से नीचे का हिस्सा नरक बन गया है. एक धधकता हुआ कुंड! ऐसे जल रहा है कि जैसे किसी ने ताज़े ज़ख़्म पर नमक छिड़क दिया है. अंदर कुछ धप-धप कर रहा है. सारी शिरायें सुलग रही हैं. एक चीरता हुआ दर्द बिच्छु के डंक की तरह रह-रह्कर लहर उठता है...
मेरा चेहरा सूखे हुये आंसुओं से चिटचिटा रहा है, होंठों पर पपड़ियां जम गयी हैं. किसी तरह सर उठा कर मैं अपने आसपास देखने की क़ोशिश करती हूं. मां हाथ में एक सूखी लकड़ी लेकर आस पास झपटते हुये गिद्धों को भगाने की क़ोशिश कर रही हैं. गिद्ध हड़बड़ा कर थोड़ा उड़ते हैं, फिर वापस लौट आते हैं. चारों तरफ अजीब-सी बदबू है. दूर सूखे नाले के पास दो लकड़बग्घे अपनी लम्बी जीभ निकालकर हांफ रहे हैं... गिद्धों की कर्कश चीख, डैनों की झपट, साथ लकड़बग्घों की डरावनी आवाज़- जैसे कई चुड़ैलें नकिया कर एक साथ हंस रही हों!
मैंने सिहर कर उस तरफ से अपनी आंखें फेर ली थी और दायीं तरफ देखा था. सामने पत्थरों और झाडियों में मेरे शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े- चमड़ी, बोटी- बिखरे पड़े थे! धूप में सूख कर काला पड़ते हुये... चारों तरफ खून के छींटे, धब्बे... जैसे अक़्सर किसी वध स्थल में होता है! मांस के कतलों पर नीली मक्खियां भिनभिना रही थीं. एक कौआ मेरे देखते ही देखते चमड़ी का एक टुकड़ा उठा कर टीले के ऊपर जा बैठा. देखकर मेरे अंदर घुलाने लगता है. मुंह में उल्टी से पहले जैसा पानी भर आता है. अपनी ऊबकाई रोकते हुये मैं देखती हूं, मेरे पैरों के पास जाबरा अपने सामने कैकसिया पेड़ के बड़े-बड़े कांटों की ढेर लगाये बैठी थी. उसके हाथ में सफ़ेद धागे का बंडल था. उसके इशारे पर मां और मौसी एक बार फिर मेरे आस पास घिर आई थीं.

इस बार मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया था. मुझ में कोई ताक़त भी नहीं बची थी इसके लिये. पूरा बदन अवश हो चुका था. सीने के दायीं तरफ असहनीय दर्द था, कलाइयां झनझना रही थीं. जांघ टूट-सी गयी थीं. मुझे पकड़ते हुये मौसी ने मां से फुसफुसा कर कहा था - "इसकी दायीं तरफ की दो पसलियां टूट गयी हैं... कलाई में भी मोच है!" सुनकर मां ने उसे चुप रहने का इशारा किया था. जाबरा मेरे कटे हुये जिस्म को कांटे और मोटे धागे से सी रही थी. ताज़े कटे हुये मांस में कांटे से छेदकर उसमे धागा डालती और उसे कसकर सी देती... मेरा गला पूरी तरह से बैठ चुका था. थोड़ी देर गोंगिया कर मैं फिर से अचेत हो गई थी. अचेत होते हुये मैंने प्रार्थना की थी कि इस बार मैं सचमुच मर जाऊं.



इसके बाद एक महीना मैंने उस वीरान जगह में एक घास-फुस की झोपड़ी में अपने दिन बिताये थे. यह छोटी-सी झोपड़ी मां ने मेरे लिये अपने हाथों से बनायी थी. सूखे पत्ते, घास, प्लास्टीक के टुकड़े और जाने क्या-क्या से. बचपन से मां को अकाल यानी घर बनाते हुये देखा है. जानवरों को लेकर हम घास और चारा की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते. साथ में ऊंट की पीठ पर दूसरे सामानों के साथ हमारा घर भी चलता जिसे बड़ी आसानी से तोड़ा और जोडा जा सकता है. बांस और लकड़ियों का एक छोटा-सा खांचा जिसपर घास-फुस, सूखे पत्ते और टीन या कपड़े के पैबंद लगाये जाते हैं. धूप और बारिश, हवा से ज़रा-सी आड़... बस यही होता है हमारे लिये घर का अर्थ!

इस छोटी झोपड़ी के फर्श में पड़ी-पड़ी मैं सियारों की हूक, उल्लू और अन्य रतजगे पंक्षियों की आवाज़, जंगली हाथियों की चिंघार सुनती रहती. मुझे कमर से लेकर टखने तक कस कर बांध दिया गया था ताकि जख़्म ठीक से भर सके. हिलना-डुलना तक संभव नहीं था. मां दलिया या कोई दूसरा नरम और गला हुआ खाना मेरे मुंह में डाल देतीं. टट्टी-पेशाब भी उसी अवस्था में. पहली बार जब अपने ताज़े घाव के साथ मैंने पेशाब किया था, लगा था किसी ने जख़्म में तेज़ाब डाल दिया है! तभी मुझे पहली बार पता चला था, मेरा गुप्तांग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है. बस एक माचिश की तीली की नोंक बराबर छेद- पेशाब और माहवारी के रक्त श्राव के लिये. बड़ी दीदी ज़मीन पर एक छोटा गड्ढा बना देती जिसमें एक करवट लेटकर मुझे पेशाब करना पड़ता. एक-एक बूंद- 15-20 मिनट तक! अंत तक मैं इतनी निढाल हो जाती कि मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता. इन दिनों मैं लगभग हर वक़्त रोती ही रहती थी.

अचानक से मेरी दुनिया कितनी बदल गई थी. बस दर्द, डर, उदासी और अकेलापन... क्या औरत होना इसी को कहते हैं? दर्द से पैदा होना और दर्द में मर जाना...! जिसदिन मेरे जनानंग को पूरी तरह से काटकर मुझे औरत बनाया गया था, उसी दिन दोपहर से मुझे बुखार चढ़ आया था. तेज़ बुखार में पड़ी-पड़ी मैं बड़बड़ाती रहती. मेरी आंखें बकौल दीदी के गुड़हल की तरह लाल हो गई थीं. मेरे घाव पक गये थे. जख़्म से मवाद बहता रहता, खून से कपड़े लिथरे रहते, चारों तरफ दुर्गंध के भभाके उड़ते रहते. भिनभिनाती हुई मक्खियों, मच्छरों के बीच असहाय पड़ी मैं या तो कराहते रहती या अचेत हो जाती. सन्निपात की अवस्था में मुझे कुछ भी साफ़-साफ़ समझ में नहीं आता. सबके चेहरे अजीब-से अजनबी-अजनबी लगते, आवाज़ें जैसे कहीं बहुत दूर से मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह आतीं. किसी की चीख, किसी की पुकार, किसी की हंसी... सब मेरे भीतर गड्मड होते रहते. बेहोशी जैसी नींद में डरावने सपने आते, रात को छोटी-सी झोंपड़ी स्याह परछाइयों से भर जाती... मैं अपने सुलगते-धधकते शरीर की क़ैद में पड़ी रात दिन मृत्यु कामना करती रहती. अगर इस नरक को जीवन कहते हैं तो इससे मौत भली.

एक दिन जब मैं तेज़ बुखार में अचेत-सी पड़ी थी, अपनी बड़ी बहन की चीख सुनकर बड़ी मुश्क़िल से आंख खोल पाई थी और फिर गहरे आतंक में देखा था, मेरे शरीर के नीचले हिस्से में चिंटियां ही चींटियां बड़े-बड़े थक्कों में लगी हुई हैं- लाल, विषैली, गिजबिजाती हुईं... मेरे शरीर से खून बह रहा था, मगर मैं कुछ महसूस नहीं कर पा रही थी. मुझे अब दर्द नहीं होता था. सब कुछ जैसे शून्य हो गया था.

"ऐसे ऑपरेशन के बाद बहुत-सी लड़कियां इनफेक्शन, टेटनस, खून में ज़हर आदि फैल जाने से मर जाती है. पता नहीं ये कैसे जी गई! मैंने तो उम्मीद छोड़ दी थी..." एक महीने बाद जब मैं स्वस्थ होकर अपने घर लौट रही थी, आपा को मां से यह फुसफुसा कर कहते हुये सुना था. "हमारी ज़मीन की औरतों को ज़िंदगी शायद इसलिये मिलती है कि ये मौत से ज़्यादा मुश्क़िल होती है... हब्बा की जाइयों को अपने गुनाहों की सज़ा इसी दुनिया में भुगत कर जाना है. उनके लिये कोई अलग से दोज़ख नहीं है. जो है यही ज़िंदगी है...!" एक बार एक जादूगरनी ने कहा था. वह हमारे गांव कोई खेल दिखाने आई थी. हंसते-हंसते खेल दिखा रही थी मगर जाने क्यों फिर ये कह कर अन्त तक रोने लगी थी. मुझे याद है, उस समय उसके रोने पर भी हम बच्चों ने तालियां बजाई थी.

घर लौटकर भी मेरा जीवन सहज नहीं हो पाया था. धीरे-धीरे  समझ पाई थी, मैं सिरे से बदल दी गई हूं, शायद हमेशा के लिये ही. शरीर से भी और मन से भी. अपने विगत जीवन की निश्चिंतता, छोटी-छोटी खुशियां, निर्दोष सपने... सब मेरी देह के कोमल हिस्सों के साथ ही मुझसे अलग हो गये हैं. सब कहते हैं, अब मैं मुकम्मल औरत हो गई हूं, मेरा दर्ज़ा समाज और अपने लोगों में ऊपर उठ गया है. मगर मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं अधूरी हो गई हूं, अपंग हो गई हूं, कहीं से कम हो गई हूं! बहुत गहरे कहीं एक क्षोभ है, एक टीसता हुआ अपमानबोध. रह-रहकर ठगे जाने का अहसास होता है. लगता है, एक साजिश, एक छ्ल हुआ है मेरे साथ. विशेष कर मां के प्रति मन में शिकायत है. अब तक उनकी गोद, उनका आंचल ही दुनिया का सबसे निरापद, सबसे सुंदर आश्रय प्रतीत होता आया था. मगर इस घटना के बाद भीतर कुछ बहुत सुदृड़, बहुत पवित्र एकदम से टूट गया था. लगता था, मां ने इस अमानवीय कृत्य में दूसरों का साथ देकर अपमी ममता को, मुझे, मेरी अगाथ आस्था को नष्ट कर दिया है, छीन्न-भिन्न कर दिया है. अब शायद कभी मैं मां की गोद में निश्चिंत होकर पहले की तरह सो ना सकूंगी!

मां मेरी ख़ामोश आंखों में सवाल पढ़ती हैं. कभी उनसे नज़रें चुराती हैं तो कभी कुछ जवाब देने की भी क़ोशिश करती हैं - "एक नेक औरत का फर्ज़ बनता है कि वह दीन के बताये हुये रास्ते पर चले, अपनी औरत होने की जिम्मेदारी को समझे... ऊपर वाले ने हमें औरत बनाया है, इसलिये हमारे जिस्म में जो मर्दाना हिस्सा है, उससे हमें पूरी तरह से निज़ात पा लेना चाहिये, जैसे मर्द अपने जिस्म से ख़तना के ज़रिये औरत वाला नाज़ुक हिस्सा अलग करवा लेता है और मुकम्मल मर्द बन जाता है."
"मर्दोंवाला हिस्सा...! कौन-सा?" मुझे मां की बातें समझ नहीं आतीं. मुझे किसी तरह समझते ना देख आपा मां की मदद के लिये बातों का सिरा सम्हालतीं - "औरतों के जिस्म को नहीं समझती! अरे, गुप्तांग के जो बाहरी हिस्से हैं वे सब मर्दाना हिस्से हैं. जो अंदरुनी कोमल हिस्सा है वही जनाना हिस्सा है! वही ऊपरवाले ने औरत को मां बनने के लिये दिया है. हमें हमारे जिस्म का इस्तेमाल सिर्फ़ मां बनने के लिये करना चाहिये, ना कि यौन का विकृत आनन्द उठाने के लिये..."
"और नहीं तो क्या..." बीच में एक और प्राचीन महिला कूद पड़तीं - "छोरी! जाने किस गुनाह की वजह से क़ुदरत ने हमारे टांगों के बीच यह गंदी-सी चीज़ डाल दी है! जितनी भद्दी दिखती है उतनी खतरनाक भी है. औरत का शरीर ही उसका पाप. जाने कब आबरु में धब्बा लग जाय. ये दो अंगुल की चीज़ सारे ईमान पर भारी... जबतक देह से जुड़ी है, किसी को चैन नहीं. तो पाप को जड़ से ही ख़त्म कर दिया जाय! ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी!
उनकी बातें जाने क्यों मुझे बहुत अपमान जनक लगतीं. औरत के शरीर को इस तरह जलील किया जाना, उसे शक और हिकारत से देखा जाना. जिसे क़ुदरत ने इस खूबी से रचा है, उसे नष्ट कर देने वाले हम कौन होते हैं? मेरा सर सुनते हुये भारी हो उठता. मगर मेरे ख़्यालों से अंजान औरतें आपस में बतियाती रहतीं - "फिर छोटी उमर में इससे छुटकारा पा लेना अच्छा... वर्ना जानती भी है क्या होता है? ये गंदा, बदबूदार मांस का लोथड़ा बढ़ते-बढ़ते घुटनों तक लटक आता है! फिर ज़रा सोचो क्या हालत होती होगी औरत की! मेरी दादी कहती थी कि एक लड़की ने इससे मना किया तो उसका यही हाल हुआ. आगे चलकर दो टांगों के बीच इतना बड़ा डेढ़ मन का झुलता अवयव लेकर ना चलते बने, ना बैठते बने. ऊपर से जग हंसाई अलग से."


सुन कर मेरा जी घिनाने लगता. पता नहीं ये कहानियां सच भी थीं या नहीं! मुझे मुंह बनाते देख मां के चेहरे पर गुस्सा तैर आता - "लड़की! हम अपने पवित्र पिता समाल की संताने हैं! तुम्हें याद है ना समाल कौन थे? खुद मुहम्मद साहब के अपने गांव और कुरैश जाति के व्यक्ति! ऐसे महान इंसान की संतानें हैं हम! हमें अपने खून की पवित्रता और जाति की पहचान बनाये रखनी है और हमारा जातीय परिचय हमारे रीति-रिवाज़ों और मज़हबी कायदे-कानूनों में है. इनका हम किसी भी तरह बेइज्ज़ती नहीं कर सकते. हमारी इज्ज़त, कायदे-कानून, मज़हब हमारी जान से भी ज़्यादा कीमती हैं. इसपर हम किसी भी तरह आंच आने नहीं दे सकते. जिस्म के इस गंदे हिस्से से निज़ात पाकर हम औरतें पाक और खूबसूरत हो जाती हैं, एक नेक बीवी और मां बनने के काबिल हो जाती हैं. ये तकलीफें नहीं, नियामतें हैं जो हम औरतों को अता की गई है!" कहते हुये भावावेश में आकर मां झर-झर रोने लगतीं. दूसरी औरतें भी अपनी गीली आंखें पोंछने लगतीं. ऐसे मौकों पर सबके चेहरों पर अजीब-सी दीप्ति और गरिमा के भाव होते. सब देख-सुन कर मैं अजीब दुविधा में पड़ जाती. एक तरफ मेरी अकल्पनीय तकलीफें थीं, मन का आक्रोश था और दूसरी तरफ घर की बड़ी-बूढ़ियों की ये आस्था और भक्ति की बातें. तय नहीं कर पाती थी क्या सही है और क्या ग़लत. इन सबके बीच मेरी पीड़ा मेरा सबसे बड़ा सच थी जो रात दिन मेरे जिस्म में सुलग-सुलग कर मुझे याद दिलाती थी कि मेरा आप कही बहुत पीछे छूट गया है, मैं आधी-अधूरी हो गई हूं...

मैंने देखा था, मेरे शरीर के निचले हिस्से को बाहर से बिल्कुल सपाट कर दिया गया था. अब बहां एक बड़े घाव के चिन्ह के सिवा कुछ नहीं था जिस पर धागे के आड़े-तिरछे दाग़ थे. जैसे बोरे के मुंह को मोटे धागे से सी दिया जाता है. हमारी संस्कृति के सौन्दर्य बोध में स्त्री के शरीर के इस हिस्से के लिये कोई स्थान नहीं. यह बस सूखा, सपाट और साफ़ होना चाहिये. बाकि चीज़ें गंदी और त्याज्य. मेरे लिये अपने शरीर की तरफ देखना ही अब मुश्क़िल हो गया था. साथ में दूसरी परेशानियां. माहवारी के दौरान मैं दर्द से नील पड़ जाती. मुझ से उठा-बैठा तक नहीं जाता. महीने के ये पांच दिन मृत्यु-यंत्रणा में बीतते. हर बार जी चाहता ऐसी तकलीफ झेलने से अच्छा मर जाऊं. फिर रोज़ की असुविधायें तो थीं ही. हर बार पेशाब करने के लिये मुझे देर तक बैठी रहना पड़ता. एक-एक बूंद टपकती और मेरे भीतर आग़-सी लग जाती!...................

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चित्र गूगल से साभार 

Wednesday, May 25, 2016



"शब्बे रात  का हलवा "लेखक सईद अय्यूब ....यह कहानी धर्म के आडम्बर की पोल  खोलते हुए युवा होते मन के  परस्पर दैहिक आकर्षण  की बेहतरीन कहानी है |वाट्स अप ग्रुप "साहित्य की बात "जिसके एडमिन श्री ब्रज श्रीवास्तव  जी है , उस पर   प्रस्तुत की गई |वहा पर इस कहानी के प्रत्येक पहलु पर विषद चर्चा हुई |

साहित्य की बात से साभार यह कहानी चर्चा के साथ इस ब्लॉग पर  प्रस्तुत है |











 शबेबरात का हलवा


सईद अय्यूब

हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ जिस जगह क्रिकेट खेल रहे थे, वह उसी मदरसे का हाता था, जिसमें उन्होंने छह महीने पहले एडमिशन लिया था. मदरसा गाँव और शहर दोनों के ठीक बीच में था. एक तरफ़ निकल जाइए तो गाँव, दूसरी तरफ़ निकल जाइए तो शहर. उत्तर की तरफ़, सड़क से लगे हुए एक बड़े से गेट से मदरसे की शुरुआत होती थी. गेट से अंदर घुसते ही एक बड़ा सा खाली मैदान था जो हस्बे ज़रूरत कई तरह के कामों में इस्तेमाल होता था. अहमद मियाँ के लिए उसका मनपसंद इस्तेमाल था– शाम को क्रिकेट खेलना. मैदान के दूसरे किनारे पर, एक आलिशान बड़ी सी मस्जिद, मदीना के ‘मस्जिद-ए-नबुई’ के तर्ज़ पर बनी हुई. मस्जिद के दोनों किनारों पर शानदार ऊँची-ऊँची मीनारें. चूँकि अल्लाह ऊपर रहता है, इसलिए जितनी ऊँची मीनार, उतनी ही अल्लाह की कुर्बत. मस्जिद और उस मैदान को चारों तरफ़ से घेर कर बनाये गए क्लासेस के लिए कुछ बड़े-बड़े हॉल, उस्ताद और बच्चों के रहने और सोने के लिए कुछ कमरे और कुछ कमरे दफ़्तरी कामों के लिए. एक किनारे पर सीमेंट के चबूतरों से घिरे हुए दो हैंडपम्प जहाँ वज़ू बनाने के लिए कुछ बधने हमेशा रखे रहते थे. कुछ दूरी पर छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिये बने हुए चार टायलेट, जिन्हें मदरसे के लोग ‘बैतुलखला’ कहते थे. मदरसे के मेन गेट से लगी हुई, अज्जू खान की टूटी-फूटी हवेली.

दरअसल, मदरसे की सारी ज़मीन अज्जू खान की ही थी जिसे मदरसे वालों ने अज्जू खान के बेटे बिस्मिल्लाह खान से, मजहब के नाम पर, बहुत सस्ते में ले लिया था, एक तरह से मुफ़्त में. कहते हैं कि अज्जू खान बहुत रोब-दाब वाले आदमी थे और जब तक ज़िंदा रहे, पूरी दबंगई के साथ ज़िंदा रहे. दरवाजे पर, उस ज़माने में दो-दो ट्रक खड़े रहते रहे और एक हाथी झूलता रहता था. ख़ूब पैसा कमाया और ख़ूब उड़ाया. शराब और रंडीबाजी, उनके दो प्रिय मश्गले रहे. और जब बाप ऐसा, तो बेटे...वे तो दो हाथ और आगे. न अज्जू खान को बेटों को कुछ बनाने कि फ़िक्र, न बेटों को कुछ बनने की फ़िक्र. दौलत का नशा, जिसके सर चढ़ कर न बोले, वह इस दुनिया का आदमी नहीं. सो, अज्जू खान के मरने के बाद, सारी जायदाद-ज़मीन उनके दोनों बेटों- बिस्मिल्लाह खान और उस्मानुल्लाह खान के बीच बंटी. दोनों ट्रक बंटे, हाथी बेचकर उसका पैसा बंटा, सबसे बड़ी बात कि दिल भी बँट गया और उससे भी बड़ी बात कि माँ नहीं बंटी, क्योंकि दोनों बेटो ने उसे क़बूल करने से इंकार कर दिया. होती होगी माँ के पैरों के नीचे जन्नत, अभी तो बीवियों और रंडियों की जाँघो के बीच जन्नत बस रही थी. बेचारी माँ, जब तक जीती रही, दोनों बेटों को असीसती रही, अपनी बहुओं को गरियाती रही और गाँव वालों के रहमोकरम पर पलती रही. तो, कमाई ढेले की और शौक नवाबों के. आखिर कितने दिन चलता? पहले ट्रक बिके, फिर ज़मीन से लेकर बर्तन-भांडे तक. कुछ लोग तो कहते हैं कि बाद में बहुएँ तक बिकीं. खुदा जाने इसमें कितनी सच्चाई है? खैर...मदरसे की ज़मीन इसी बिस्मिल्लाह खान के हिस्से की थी. जवानी ढल जाने पर और पैसों की तंगी हो जाने पर, बिस्मिल्लाह खान, कुछ-कुछ अल्लाह वाले हो गए. नमाज़-रोज़ा तो कभी सीखा न था और करना भी थोड़ा मुशिकल था, इसलिए दाढ़ी बढ़ा ली और एक दो दाढ़ी वालों से सलाम-दुआ करने लगे और लोगों ने यह मान लिया कि बिस्मिल्लाह खान को अल्लाह ने नसीहत फरमा दी है और अब वे सुधर गए हैं. लेकिन गाँव का कल्लू, जिसके बारे में चर्चा थी कि बिस्मिल्लाह की जोरू का असल पति वही था, का कहना था कि बिस्मिल्लाह अपनी माँ का यार है, कुत्ते की पूँछ है, बारह साल नहीं, उसे क़यामत तक सीधा नहीं कर सकते. लोगों को कल्लू की बात में भी कुछ दम दिखाई देता था, क्योंकि दाढ़ी बढ़ा कर और सलाम-दुआ के बहाने बिस्मिल्लाह कुछ अल्लाह वालों से अल्लाह के नाम पर पैसे माँगने लगे थे और अल्लाह वालों को बिस्मिलाह की यही बात सबसे बुरी लगी. खैर, कुछ अल्लाह वालों के दिमाग में एक दीनी मदरसा खोलने की बात समायी और सड़क से लगी हुई बिस्मिल्लाह खान की यह ज़मीन उसके लिए सबसे मौजूँ जान पड़ी. फिर क्या था, बिस्मिल्लाह की थोड़ी मदद करके और कुछ दीन-दुनिया का डर दिखा कर लोगों ने यह ज़मीन एक तरह से बिल्कुल मुफ़्त लिखवा ली और मदरसा ज़ोर-शोर से शुरू हो गया और गाँव की इज्ज़त में चार चाँद लगाने लगा.

लेकिन बात तो हो रही थी हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ की. पूरे गाँव में हाफी जी के नाम से मशहूर अहमद मियाँ इस मदरसे में दाखिला लेने वाले पहले छात्र थे. कुछ दूर के एक गाँव के अमीर प्रधान माजिद खान के सबसे बड़े सुपुत्र और बाप से भी बड़े बिगड़ैल. बाप का इरादा उन्हें किसी अंग्रेजी स्कूल में डालने का था लेकिन माँ कुछ धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. उन्हें यकीन था कि बेटा अगर हाफ़िज़-ए-कुरान हो गया तो कयामत के दिन अल्लाह के सामने पूरे परिवार को माफ़ करवा देगा. पति ने अपनी प्रधानी के बल पर तो दुनिया बन ही दी थी, अब बेटा आखिरत भी बना दे तो चैन से मर सकें. इसलिए बेटे को दीनी तालीम हासिल करने और हाफ़िज़-ए-कुरान और अपना आखिरत बनाने के लिए उन्होंने गाँव के ही मदरसे में दाखिल करवा दिया. लेकिन जब पिछले चार साल में भी अहमद मियाँ कुरान याद नहीं कर पाए तो माँ को कुछ फिक्र हुई कि शायद गाँव के मदरसे में ठीक से पढ़ाई नहीं हो रही है. अत: उन्होंने अपने होनहार पुत्र को गाँव के मदरसे से निकाल कर शहर के किनारे इस नए और बड़े मदरसे में दाखिल करवा दिया. अहमद मियाँ जब इस मदरसे में आये तो कुरान तो याद नहीं कर पाए थे लेकिन रंग-ढंग सब हाफिजों वाल ही था. लगभग उन्नीस वर्ष की आयु, नई-नई आई दाढ़ी, गोरे-चिट्टे, लंबे-छरहरे, कुर्ते-पाजामे से लैस अहमद मियाँ को गाँव वालों ने हाफी जी कहना शुरू कर दिया और कुछ दिनों के बाद तो अहमद मियाँ ने बाकायदा गाँव की मस्जिद में इमामत शुरू कर दी. पढ़ना-लिखना तो खैर चलता ही रहता है, लेकिन अहमद मियाँ को जिस चीज़ से हद से बढ़कर लगाव था वह चीज़ थी क्रिकेट. पढ़ाई और इमामत से फुर्सत मिलते ही वे मदरसे के खाली मैदान में अपनी टीम को लेकर पहुँच जाते थे और बताने वाले बताते हैं कि वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे.

तो पिछले महीने की बात. जुमे का दिन था. जुमे की नमाज़ के बाद अहमद मियाँ और उनकी पूरी टीम मैदान में जमा हो गयी. छुट्टी का दिन, न कोई पढ़ाई का झंझट न कोई और काम. सो, पूरे जोश-खरोश से क्रिकेट शुरू हो गया. अहमद मियाँ बैटिंग कर रहे थे. अचानक उन्होंने गेंद को इतनी तेजी से हिट किया कि गेंद पलक झपकते ही मदरसे की बाउंड्री से बाहर और बिस्मिल्लाह खान के मकान जो कि मदरसे से सटा हुआ था, के पीछे वाले हिस्स्से में जा गिरी. असल में उस पुरानी हवेली के इस पिछवाड़े वाले हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बड़े बेटे सब्बू मियाँ, उनसे अलग होकर अपनी बीवी और दो बेटियों के साथ रहते थे. वे स्वभाव में बिस्मिल्लाह खान से थोड़ा अलग थे और खुद से कुछ पढ़-लिख कर, एक छोटी सी सरकारी नौकरी में लगकर किसी दूसरे शहर में रहते थे और घर पर उनकी बीवी और दो जवान होती बेटियाँ रहती थी. बड़ी लगभग सत्रह साल की और छोटी लगभग पन्द्रह साल की...तो गेंद अंदर गिरते ही दूसरे लड़को ने शोर मचाना शुरू कर दिया क्योंकि शर्त यह थी कि जो भी गेंद को मदरसे के बाहर मारेगा, वही उसे वापस लाएगा. अहमद मियाँ झल्लाते हुए, बैट पटक कर मदरसे से बाहर निकले और बिस्मिल्लाह खान के घर के उस हिस्से की तरफ बढ़े जिस हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बेटे का परिवार रहता था और जिसके पीछे वाले हिस्से में गेंद गिरी थी. लेकिन यह क्या, दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था. अब क्या करें? खेल और छुट्टी का सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया. लेकिन अहमद मियाँ भी अहमद मियाँ ही थे. अपने गाँव में ना जाने इस तरह के कितने मैदान उन्होंने मारे थे. वे मदरसे में वापस आये और उस दीवार के पीछे पहुँचे जो उस घर को मदरसे से अलग करती थी. उन्होंने बाहर की तरफ उखड़ी हुई ईंटों का जायजा लिया और फिर कुछ ही देर में वे दीवार की मुंडेर पर थे. मुंडेर से उन्होंने नीचे झाँक कर देखा. ज़मीन पर फैली हुई लौकी की बेलों के बीच उन्हें अपनी गेंद कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. वे कुछ देर सोचते रहे और फिर दीवार के ही सहारे दूसरी और उतरने लगे. सावधानी से उतरने के बाद, जैसे ही वे मुड़े, तो देखा कि सब्बू मियाँ की बड़ी बेटी फरीदा, सामने खड़ी उन्हें टुकुर-टुकुर देख रही थी. वह अभी-अभी अंदर से नहा कर निकली थी. गोरी, सुडौल नव-यौवना, बालों से पानी टपक-टपक कर उसके गालों को भिगो रहा था. एक हाथ में अंगिया पकड़े जो वह सुखाने के लिए बाहर डालने आई थी, अहमद मियाँ को अपने घर के पिछले हिस्से में दीवार के सहारे उतरते देख कर हैरानी से पलकें झपका रही थी. उसे देखकर अहमद मियाँ के तो होश उड़ गए. वह घबराते हुए बोले-

“वो...वो...इधर बाल...”

घबराहट में फरीदा अहमद मियाँ की बात ठीक से नहीं सुन पायी. वह गाँव के हाफी जी को इस हालत में अपने घर के पिछवाड़े देखकर चकित थी. उसने सोचा कि लगता है हाफी जी लौकी चुराने के लिए अंदर घुसे हैं. यह सोचते ही और अहमद मियाँ को इस तरह से हकलाते देखकर वह हँस पड़ी और बोली-

“हाफी जी, लौकी ही लेनी थी तो अम्मी को बोल देते. इस तरह से चोरी करने क्यों आये?”

अहमद मियाँ तब तक संभल चुके थे. उन्होंने फरीदा को तनिक गुस्से से देखा और बोले-

“मैं तुम्हें लौकी चोर दिख रहा हूँ. हमारी गेंद इधर आकर गिर गयी है. उसी को लेने आया था, लेकिन तुम कब आई? बाहर तो अभी ताला बंद था.”

“अच्छा, वो...मैं नहा रही थी और अम्मी और वहीदा को थोड़ी देर के लिए बाहर जाना था इसीलिए उन्होंने बाहर से ताला लगा दिया था ताकि कोई आ न जाये. लेकिन उन्हें क्या पता कि ताला लगा होने के बाद भी कोई अंदर घुस सकता है.” यह कहते हुए फरीदा ने एक तिरछी नज़र से हाफी जी को देखा और फिर बोली-

“जल्दी से अपनी गेंद ढूँढिए और बाहर जाइए. अम्मी और वहीदा आती ही होंगी.”

अहमद मियाँ ने घबरा कर इधर-उधर गेंद ढूँढनी शुरू कर दी और अपने हाथ की अंगिया को वहाँ लगी हुई रस्सी पर फैला कर फरीदा भी उनकी इस मुहिम में शामिल हो गयी. अहमद मियाँ ने उसे अंगिया फैलाते हुए एक नज़र देखा और फिर अंगिया पर एक नज़र डाली और ऐसा करते हुए उनकी नज़र फरीदा की नज़र से टकरा गयी. उन्हें एक शर्म सी आई और फिर वे सर झुका कर गेंद ढूँढने में लग गए. फरीदा भी कुछ झिझक सी गयी और चुपचाप सिर झुका कर गेंद खोजने में अहमद मियाँ का साथ देने लगी. लौकी की लतरें पूरी ज़मीन पर फैली हुई थीं और कहीं-कहीं उन लतरों के बीच थोड़ी सफेदी लिए हुए हरी-हरी, छोटी-छोटी, गोल-गोल लौकियाँ दिखायी दे रहीं थीं. बिना दुपट्टे के, झुक कर लौकी की लतरों के बीच गेंद खोजती हुई फरीदा की तरफ अहमद मियाँ ने एक बार चोर नज़रों से देखा और उसकी कुर्ती के नीचे से झाँकती सफेद अंगिया के नीचे भी उन्हें दो छोटी-छोटी लौकियाँ दिखाई पड़ी और उन्हें लगा कि आज पूरी दुनिया ही छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयी है.


उस रात सारी दुआएँ पढ़ने के बावजूद अहमद मियाँ को नींद नहीं आई. कभी उन्हें सफेद अंगिये दिखाई देते थे, तो कभी सफ़ेद और हरी छोटी-छोटी लौकियाँ. कभी टुकुर-टुकुर ताकती फरीदा उनके सामने आ खड़ी होती और तुरंत नहा कर निकलने की वजह से उसके गालों पर ताज़ा पानी चू रहा होता, तो कभी उन्हें तिरछी नज़र से देखती हुई फरीदा दिखाई देती. उनके पूरे शरीर में एक अजीब तरह की ऐंठन थी और ऐसा पहली बार हुआ कि उस सुबह वे मस्जिद में सुबह की नमाज़ पढ़ाने नहीं जा पाए. तबियत कुछ भारी-भारी सी लग रही थी, इसलिए मदरसे के संचालक के पास एक अर्जी भेज कर छुट्टी ले ली और दिन चढ़े तक सोते रहे. सोकर उठने के बाद, ज़रुरियात से फ़ारिग होकर वे टहलने की गरज से मदरसे से बाहर निकल आये और बाहर निकलते ही सामने उन्हें फरीदा दिखाई पड़ गयी. कल वाली ही ड्रेस में लेकिन इस बार दुपट्टा सर पर था और एक हाथ में छड़ी थी जिससे वह कुछ बकरियों को हाँक कर चराने के लिए ले जा रही थी. अहमद मियाँ जहाँ थे, वहीँ जम से गए. उनकी नज़रों में एक बार फिर से फरीदा की अंगिया और गोल-गोल लौकियाँ घूमने लगीं. उन्होंने एक बार चोर नज़रों से फरीदा की ओर देखा. ठीक उसी वक़्त बकरियों को हाँक कर सड़क के किनारे करती हुई फरीदा की नज़र भी अहमद मियाँ पर पड़ी और वह शरमा कर पहले से ही ठीक से ओढ़े गये दुपट्टे को फिर से ठीक करने लगी और ऐसा करते हुए उसकी छड़ी दुपट्टे से उलझ गयी. अहमद मियाँ ने एक बार चारों ओर देखा और किसी को वहाँ न पाकर, आगे बढ़कर फरीदा के दुपट्टे से उलझी हुई छड़ी को अलग कर दिया और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गए. फरीदा थोड़ी देर वहीँ शरमाई हुई, मुस्कुराती खड़ी रही और फिर अपनी बकरियों को घेर कर, उन्हें चराने ले जाने के बजाये, वापस लाकर घर में बाँध दिया.

अब तो लगभग यह उसूल ही बन गया था. इधर फरीदा अपनी बकरियाँ लेकर निकलती, उधर अहमद मियाँ किसी न किसी बहाने से मदरसे से बाहर. अहमद मियाँ को अब तक पता चल चुका था कि फरीदा बकरियों को चराने के लिए रोड के किनारे उगे मूँज और उसके आस-पास के घास वाले मैदान में ले जाती है. उन्हें यह भी पता था कि फरीदा बकरियों को लेकर कितने बजे निकलती है और कब वापस आती है. तो अहमद मियाँ कभी फरीदा और उसकी बकरियों से पहले तो कभी बाद में मदरसे से निकलते और सड़क पर टहलते हुए उसे एक-दो बार देखकर वापस आ जाते. फरीदा जब भी उन्हें देखती, शरमा कर कभी अपने दुपट्टे से खेलने लगती और कभी हाथ में पकड़ी छड़ी को ज़मीन पर टिका कर उसे निहारने लगती. इस तरह से एक दूसरे को देखते हुए कई दिन हो चुके थे. अहमद मियाँ को फरीदा से बात करने का कोई मौक़ा ही नहीं मिल पा रहा था क्योंकि सड़क पर हमेशा ही कोई न कोई मौजूद होता और चूँकि वे हाफी जी थे और गाँव की मस्जिद में इमामत भी करते थे, इलाके के लगभग सभी लोग उनको पहचानते भी थे. और अक्सर फरीदा की छोटी बहन वहीदा भी उसके साथ होती. अहमद मियाँ बहुत देर तक सड़क पर टहल भी नहीं सकते थे क्योंकि अक्सर कोई न कोई मिल ही जाता और सलाम-दुआ के बाद उनसे सड़क पर टहलने के बारे में पूछ लेता और अहमद मियाँ झुंझला कर रह जाते. फिर उन्होंने एक नई तरकीब खोज निकाली और सड़क के किनारे पर स्थित पान की दुकान वाले छोकरे से दोस्ती कर ली. पान की उस दुकान से मूँज वाला घास का मैदान साफ़ दिखाई देता था. अहमद मियाँ पान वाले से कुछ बात-चीत करने के बहाने दस-बीस मिनट तक वहाँ बैठे रहते और फरीदा को अपनी बकरियों के पीछे इधर से उधर भागते देखते रहते. फरीदा भी उन्हें देखती और फिर ज़्यादा बदहवास होकर अपनी बकरियों के पीछे भागने लगती.

लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह...जल्द ही नसीब ने अहमद मियाँ का साथ दिया. उस दिन सुबह से ही बादलों ने अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ आसमान में डेरा डाल रखा था लेकिन अभी ज़मीन पर हमला करने की योजना ही बना रहे थे, हमला किया नहीं था. फरीदा अपने तय समय से बकरियाँ लेकर निकली. वहीदा को पिछली रात से बुखार था, इसलिए वह साथ में नहीं थी. अहमद मियाँ भी, मदरसे में कुरान की तिलावत छोड़ कर जल्दी से बाहर निकले और फरीदा से थोड़ी दूरी बना कर चलने लगे. फरीदा जब अपनी बकरियों के साथ मूँज वाले मैदान में चली गयी, अहमद मियाँ पान वाली दुकान के पास पहुँचे. लेकिन आज दुकान बंद थी और पान वाला छोकरा न जाने कहाँ गायब था. इसलिए अहमद मियाँ वहाँ न रुक कर टहलते हुए आगे बढ़ गए. लेकिन वापसी में जैसे ही वे पान की गुमटी के सामने पहुँचे, ठीक उसी वक़्त बादलों ने पूरे ज़ोर-शोर से धरती पर यलगार कर दिया. बारिश इतनी तेज़ी से और अचानक आई कि कुछ सोचने-समझने का वक़्त ही नहीं मिला. अहमद मियाँ हड़बड़ा कर पान की गुमटी के आगे निकले छज्जे तले भागे. वहाँ पहुँच कर अभी उन्होंने साँस लिया ही था कि फिर साँस जहाँ की तहाँ रुकने लगी. सामने से फरीदा और उसकी बकरियाँ छज्जे के नीचे घुसी चली आ रहीं थीं. बारिश काफी तेज थी और सड़क पर जो इक्के-दुक्के लोग थे, वे भी अब कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. सामने सिर्फ़ बकरियाँ थीं, बारिश थी और फरीदा थी जो बारिश में कुछ-कुछ भीग गयी थी और उसके कपड़े कई जगह से उसके जिस्म से चिपक गए थे. फरीदा ने भी अहमद मियाँ को देखा और देखकर कुछ देर के लिए ठिठक गयी. फिर जैसा कि अक्सर ऐसे अवसरों पर वह करती थी, अपने दुपट्टे के एक सिरे को अपनी उँगलियों से लपेटना शुरू कर दिया. दुपट्टा भी बारिश में भीग चुका था और उससे रह रह कर पानी नीचे टपक रहा रहा था. फरीदा ने एक बार उलझी हुई निगाह से अहमद मियाँ की तरफ़ देखा और फिर अपना दुपट्टा उतारकर उसे निचोड़ना शुरू कर दिया. दुपट्टे को निचोड़ने के क्रम में जैसे ही फरीदा थोड़ी सी झुकी, उसकी अंगिया की सफेद पट्टियाँ और उनके बीच कसे हुए उरोजों की हल्की सी झलक ने अहमद मियाँ को फिर से लौकियों की दुनिया में पहुँचा दिया. अब उन्हें एक बार फिर से चारों ओर गोल-गोल छोटी-छोटी लौकियाँ ही दिखाई दे रही थीं. यहाँ तक कि बारिश की बूंदे भी उन्हीं गोल-गोल, छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयीं और ऐसा लगता था जैसे आसमान से मुसलाधार लौकियाँ बरस रही हों.

यह तो पता नहीं कि उस दिन अहमद मियाँ ने फरीदा से कैसे बातचीत शुरू की, इसके लिए उनको कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी, फरीदा ने उसका क्या जवाब दिया, जवाब देते हुए उसने दुपट्टा ओढ़ लिया था या नहीं, अगर ओढ़ लिया था तो उसके सिरे को अपनी उँगलियों में लपेट रही थी या नहीं, कितनी देर बातचीत हुई, कितनी देर बारिश हुई, जब अहमद मियाँ और फरीदा बात-चीत कर रहे थे तो फरीदा की बकरियाँ क्या कर रही थीं, उनकी बात-चीत के दौरान कोई राहगीर उधर से गुज़रा या नहीं, कोई गाड़ी उधर से गयी या नहीं, बादल कितनी बार और कितने तेज़ी से गरजे, बिजली कितनी बार चमकी, बिजली के चमकने से दोनों को या उनमें से किसी एक को कुछ डर लगा या नहीं, ये सब तो पता नहीं. पता है तो सिर्फ़ इतना कि उसके बाद अहमद मियाँ और फरीदा ने अपने मिलने के कई मौके बनाये, दो बार फरीदा के घर में जब कोई नहीं था, एक बार मूँज वाली घास के मैदान में लंबी-लंबी उगी हुई मूँजों के दरमियाँ गरचे इस बार जितना मज़ा आया, उससे ज़्यादा कष्ट हुआ क्योंकि मूँजें बहुत तीखी थीं और दोनों के शरीर पर जो चीरें आयीं, वह कई दिनों तक उन्हें सिसकाती रहीं. एक-दो बार, मदरसे के पीछे जो जंगल जैसा इलाका था, दोनों चोरी-छिपे रात में वहाँ मिले और इस तरह चोरी-चोरी मिलते-मिलाते शबेबारात का दिन आ पहुँचा.

शबेबारात...यानी मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान से ठीक पन्द्रह दिन पहले आने वाली वह पवित्र रात, जिसमें मुसलमान रात भर जागकर इबादत करते हैं. इस रात अल्लाह सातवें आसमान से उतर कर पहले आसमान पर आ जाता है और देखता है कि उसके बंदे किस तरह इबादत में मश्गूल हैं. इस रात जो भी अल्लाह का बंदा अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता है, अल्लाह उसको माफ़ कर देता है. मुसलमान इस रात को बहुत अकीदत के साथ मनाते हैं. बहुत सारे घरों में तरह तरह के हलवे बनते हैं – सूजी के हलवे, चने के हलवे, गाजर के हलवे, तिल के हलवे, बादाम के हलवे, पिश्ते और दूसरे सूखे मेवों के हलवे आदि-आदि. नज़र व नियाज़ होता है, सौगात के रूप में लोग एक दूसरे के घर हलवे भेजते हैं, खुद भी खाते हैं दूसरों को भी खिलाते हैं, आतिशबाजी करते हैं, अपने घरों, मस्जिदों और कब्रिस्तानों को अपनी औकात भर सजाते-संवारते हैं, पूरी रात जागकर इबादत करते हैं और अपने और अपने पूर्वजों के गुनाहों की माफ़ी माँगते हैं. लेकिन कुछ मुसलमान और उनके धर्मगुरु इस रवायत को नहीं मानते. उनके अनुसार यह रात सिर्फ़ इबादत की रात है, खा-पीकर रतजगा करने की नहीं. उनका आरोप है कि बहुत से मुसलमान पेट भर कर हलवे वगैरह खा लेते हैं और फिर लंबी तान कर सो जाते है. इत्तेफ़ाक की बात थी कि अहमद मियाँ जिस मदरसे में पढ़ते थे, वह मदरसा इसी ख़याल का था और खुद अहमद मियाँ भी हलवे वगैरह बनाने और नज़र व नियाज़ कराने के सख्त खिलाफ थे. मदरसे के संचालक व सबसे बड़े मौलाना ने आज की रात, लोगों को शबेबारात की अहमियत और इस रात को क्या करना चाहिये और क्या नहीं, यह बताने के लिए एक जलसे का आयोजन कर रखा था. इस जलसे में औरतों के बैठने के लिए एक पर्दा लगाकर अलग से इंतजाम किया गया था.

फरीदा की माँ ने फरीदा और वहीदा की मदद से कुछ हलवे तैयार किये और अड़ोस-पड़ोस में उसे बंटवाने के बाद जलसे में जाने के लिए अपनी बेटियों सहित जल्दी-जल्दी तैयार हो गयीं. मौलाना की तकरीर और इस जलसे जैसे पवित्र कार्य में शामिल होकर पुण्य कमाने के अलावा, आस-पास और पूरे मोहल्ले से आने वाली औरतों के साथ गपियाने का महा आकर्षण उनको जल्दी से जल्दी जलसे में पहुँचने के लिए बेकरार कर रहा था. लेकिन अचानक उनको याद आया कि मुहल्ले में ही रहने वाली फरीदा की खाला के घर तो उन्होंने हलवा भिजवाया ही नहीं. उन्होंने तुरंत एक कटोरे में हलवे रखे और उसे फरीदा को देती हुई बोलीं –

“इसे जैनुन खाला को देकर जल्दी से जलसे में आ जाओ. अगर जैनुन तैयार हो तो उसे भी साथ में लेती आना.”

फरीदा का कहीं जाने का मन न था. दिन भर घर की साफ़-सफ़ाई, लिपाई-पुताई करने और फिर हलवे बनाने और उसे घर-घर पहुँचाने में वह हलकान हो चुकी थी. वह तो जलसे में भी जाने की इच्छुक नहीं थी लेकिन वहाँ अहमद मियाँ की एक झलक मिल जाने की उम्मीद थी, इसलिए जाना जरूरी था. लेकिन माँ की बात से इंकार भी नहीं कर सकती थी. थोड़ा झुंझला कर बोली,

“ठीक है वहाँ रख दीजिए और आप लोग जलसे में जाइए. मैं थोड़ी देर में उन्हें दे आऊँगी.”

फरीदा की माँ ने हलवे वाला कटोरा वहीं चूल्हे के पास रख दिया और वहीदा के साथ जलसे में शामिल होने चली गयी. अहमद मियाँ जो मदरसे के गेट पर खड़े होकर हर आने-जाने वाले को देख रहे थे और फरीदा का इंतज़ार कर रहे थे, फरीदा की माँ को वहीदा के साथ आते देखकर निराश हो गए. उन्हें लगा शायद फरीदा जलसे में नहीं आएगी. थोड़ी देर तक वे खड़े सोचते रहे और फिर एक फैसला करके मुस्कुरा उठे.

   फरीदा कुछ देर तक चुपचाप चूल्हे के पास रखे हलवे से भरे कटोरे को देखती रही जिसे उसको जैनुन खाला के घर पहुँचाना था. कुछ देर बाद उसने शीशे में अपने को देखा, मेकअप को एक बार निहारा, दुपट्टे को ठीक किया और हलवे वाले कटोरे को लेकर बाहर निकलने को हुई कि सामने अहमद मियाँ को देखकर गड़बड़ा गयी. न जाने कब, बहुत ही चुपके से अहमद मियाँ फरीदा के घर में घुस चुके थे और उसे एक हाथ में हलवे से भरा कटोरा थामे कहीं जाने को तैयार देख रहे थे. हलके से मेकअप में वह उन्हें आज बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रही थी. थोड़ी देर को दोनों चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे फिर अहमद मियाँ ने आगे बढ़कर फरीदा के दोनों हाथों को पकड़ लिया और सरगोशी के अंदाज़ में पूछा-

“कहाँ बिजली गिराने जा रही हो?”

“खाला के घर, हलवा देने”

“जलसे में नहीं जाना?”

“अब आप आ गए तो वहाँ जाकर क्या होगा?” फरीदा के होंठों पर मुस्कुराहट थी.

“क्यों, मौलाना की तकरीर नहीं सुननी? तुम्हारी अम्मा और बहन तो वहाँ गयीं हैं?”

“मौलाना की तकरीर मुझे तो समझ में आती नहीं. न जाने कौन सी भाषा बोलते हैं. और अम्मा को तो वहाँ गप्प लड़ाना है, तकरीर थोड़े सुननी है.”

फरीदा भूल गयी थी कि अहमद मियाँ उसके घर के अंदर खड़े हैं, कि उन्होंने उसके दोनों हाथों को पकड़ रखा है, कि उसके एक हाथ में अभी भी हलवे का वह कटोरा है जिसे उसको जैनुन खाला के वहाँ पहुँचाना है, कि उसे खाला के घर हलवा पहुँचा कर जलसे में अपनी माँ के पास जाना है. उसे तो बस अहमद मियाँ नज़र आ रहे थे और उनके कुर्ते से निकल कर आने वाली इत्र की महक उसे किसी और दुनिया में पहुँचा रही थी. बाहर जलसा शुरू हो चुका था और मौलाना की तकरीर लाउडस्पीकर पर गूँज रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा के कानों तक पहुँच रही थी –

“आज की नौजवान नस्ल कहाँ जा रही है, हमें इसकी कोई फिक्र नहीं है. लड़के-लड़कियाँ सरे आम एक दूसरे के साथ बदफेलियाँ कर रहे हैं और कोई उनको रोकने वाला नहीं है. हम नौजवान नस्ल को कुफ्र के कुँए में गिरता हुआ देख रहे हैं और बजाए उनको बचाने के, अपनी-अपनी आँखें बंद कर ले रहे हैं.”
 
अहमद मियाँ ने एक हाथ से फरीदा की आँखों को बंद कर दिया और दूसरे हाथ से हलवे के कटोरे को लेकर नीचे रख दिया. सूजी और चने के ताज़ा बने हुए हलवे और उन पर मेवों की कतरनें. फरीदा ने एक शर्माती हुई मुस्कुराहट के साथ अहमद मियाँ की ओर देखने की कोशिश की और धीरे से बोली-

“क्या कर रहे हैं?”

अहमद मियाँ भी मुस्कराए और धीरे से बोले-

“वही जो करना चाहिए”

“लेकिन आज शबेबरात है और सुन नहीं रहे हैं, मौलाना क्या कह रहे हैं?”

“मौलाना की मौलाना जाने. मैं तो अपनी जानता हूँ.”

“क्या अपनी जानते हैं?”

“शायद हम अब जल्दी न मिल पाएँ”

“क्यों?”

“रमज़ान शुरू होते ही छुट्टियाँ हो जाएँगी और मुझे घर जाना पड़ेगा, पूरे डेढ़ महीने.”

“अच्छा तो मैं अपनी बकरियाँ लेकर आपके गाँव के पास आ जाऊँगी.” फरीदा इतने भोलेपन से बोली कि अहमद मियाँ हँस पड़े.

“तुम अपनी बकरियाँ लेकर जब चाहे आना, लेकिन आज शबेबरात है और मुझे शबेबरात मनाना है. हलवा नहीं खिलाओगी?”

“अरे, अभी तक मैंने आपको हलवा भी नहीं खिलाया.” यह कहते हुए फरीदा हलवे के कटोरे की ओर झुकी कि अहमद मियाँ ने उसे बाँहों से पकड़ कर उठा दिया. फरीदा ने सवालिया नज़रों से उनकी और देखा और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, अहमद मियाँ ने नीचे से पकड़ कर उसके कुर्ते को उलट दिया. कुर्ते के साथ-साथ झटके से अंगियाँ भी ऊपर को उठ गयी. एक पल के लिए लगा, जैसे सूजी और चने के मिश्रण से बने शबेबारत के हलवे से भरे दो कटोरे, फरीदा के जिस्म से बाहर निकल आये हो. अहमद मियाँ ने इबादत की नज़रों से उनकी ओर देखा. लाउडस्पीकर पर मौलाना की तकरीर गूँज रही थी-

“यह शबेबारत की मुकद्दस रात है. आज की रात, इबादत के लिए है, न कि हलवा खाने और मज़े लेने के लिए. असल में आज की रात हलवा खाना और खिलाना दोनों हराम है.”

अहमद मियाँ ने मौलाना की तकरीर सुनी, फरीदा की ओर देखकर शरारत से मुस्कुराए और फरीदा की नजरों में रजामंदी देखकर उन्हें लगा कि अल्लाह ने उनकी दुआएँ क़ुबूल कर ली हैं.

बाहर से मौलाना की तकरीर की आवाज़ अभी भी आ रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा हलवा खाने और खिलाने में व्यस्त थे. अल्लाह पहले आसमान पर आ चुका था और शायद उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था.

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प्रतिक्रियायें

[25/05 08:55] Braj Ji: एक बेहतरीन कहानी पोस्ट करने के लिए धन्यवाद. ऐसे विषयों पर कहानी लिखना आसान काम नहीं है. दोस्तों आपके लिए ये पेश की गई है. समय निकाल कर पढ़ कर टिप्पणी करने की कोशिश करिए.

[25/05 13:12] Sudin Ji: बेहतरीन कहानी शुरू से आख़िर तक कसी हुयी और मस्तिष्क में दृश्य उकेरती हुयी जीवन के उस सच को सामने लाती हुयी जिसे सब जीना चाहते हैं सबसे छुपाकर । आपसी प्रेम और लगाव ही सब धर्मों का सार है इस प्रामाणिक सत्य की शानदार प्रस्तुति ।

[25/05 13:16] Aalknanda Sane Tai: क्षमा करें, मुझे इसमें प्रेम नहीं मात्र आकर्षण दिखाई दे रहा है.वैसे कहानी अच्छी है. ब्रज जी से सहमत . ऐसे विषय उठाना और उसका निर्वाह करना आसान नहीं होता.

[25/05 13:37] Aanand Krishn Ji: वाह । बहुत खूब । अय्यूब भाई को बधाई और प्रवेश जी को धन्यवाद।

[25/05 13:40] Aanand Krishn Ji: प्रेम की शुरुआत देह से होती है । कहानी के अंत में अल्लाह की मुस्कान इसकी तस्दीक करती है । अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक मित्र से इसी बात पर बहस हो रही थी ।

[25/05 13:47] Suren: आनंद जी ,कल सईद भाई ने जो शमशेर जी की कविता लगायी थी , सलोना ज़िस्म , उसके बिम्ब विधान की  सुंदरता के परे भी आप देखे तो आपकी बात की पुष्टि हो रही है । आज सईद भाई की ही कहानी है तो वो उनकी रूचि के झलकाव को भी तो बताएगी ही न । कहानी शाम तक पढ़ कर कुछ कहने की कोशिश करूँगा ।

[25/05 13:48] ‪+91 98261 39286‬: सादर प्रणाम करता हूँ आपको । मेरा तात्पर्य यह है हमें कहना तो हमेशा जरूरी होता है , किंतु ध्यान में रख कर , अन्यथा यह लुगदी साहित्य सा प्रतीत होने लगता है ।
[25/05 13:48] Aanand Krishn Ji: पीयूष जी, जिन शब्दों की ओर आपका संकेत है वे चुभने वाले ज़रूर हैं पर उनकी इसी शक्ति के कारण वे परिस्थिति का समर्थ संवहन करने में कामयाब रहे हैं ।
[25/05 13:54] Aanand Krishn Ji: वे शब्द जहाँ इस्तेमाल हुए, वो स्थिति और हाफी जी व फरीदा के सम्बन्ध सरसरी दृष्टि से एक जैसे लगते हैं पर दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है । इसीलिए पहली स्थिति में वो शब्द रखे गए और हाफी जी-फरीद प्रकरण में प्रेम की पवित्र उष्णता है । यहां अय्यूब भाई शानदार तरीके से कामयाब रहे ।
[25/05 13:56] Aanand Krishn Ji: इस कहानी ने मेरी इस धारणा को बल दिया है की दैहिक प्रेम, दैविक प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है ।
[25/05 14:01] Aanand Krishn Ji: देखिये मधु जी, मीरा के बारे में मेरा मानना है की उनको कहीं अतृप्ति तो रही होगी । वे कृष्ण की मूर्ति को हमेशा अपने साथ रखती थीं । ये भी तो एक तरह का दैहिक प्रेम हुआ न !
[25/05 14:03] Aanand Krishn Ji: तो आपकी रचना में एक जैसी दिखने वाली दो परिस्थितियों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा बी बहुत कमज़ोर होती ।
[25/05 14:03] Sudin Ji: ऐक दैहिक आकर्षण तो है जो शुरू में बांधता है फिर शनैः शनैः आपसी समझ आपसी विश्वास, आपसी फ़िक्र,  ऐहसासात जैसी बातें प्रेम को हैहिकता से ऊपर ले जाती हैं
[25/05 14:07] Sudin Ji: मेरी समझ मे मीरा भक्त हैं । प्रेम के लिये दो लोगों का ऐक कालखंड़ मे होना और ऐक दूसरे के संपर्क में होना ज़ुरूरी है

[25/05 14:15] Aanand Krishn Ji: प्रेमी पति न ? दैहिक प्रेम आया न । हमें मीरा के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज़्यादा नहीं मालूम, लेकिन एक अतृप्ति तो रही ही होगी उनमें की मेरा पति कृष्ण के जैसा हो । उनके जीवन में ऐसा कोई ज़रूर आया होगा जिसका साम्य उन्होंने कृष्ण में तलाशा ।
[25/05 14:20] Sudin Ji: आज भी तमाम लोग छवियों की ओर आकर्षित होते हैं  किसी का चेहरा,किसी की आवाज़, किसी की ज़ुल्फ़ें और ऐसी तमाम चीजें ।तो संभव है मीरा ने कृष्ण की काल्पनिक छवि को ही आधार बनाया हो

[25/05 14:39] Aanand Krishn Ji: कोई न कोई पुरुष ज़रूर रहा होगा जिसने किशोरी मीरा को आकर्षित किया होगा । उससे न मिल पाने के कारण मीरा ने उसकी छवि कृष्ण में तलाशी । मेरा अंदाज़ा ये भी है की वो पुरुष मीरा के मायके का कोई सेवक आदि रहा होगा । मीरा से सम्बन्ध खुलने पर उसे मरवा दिया गया हो । ये मेरा अंदाज़ा है, गलत भी हो सकता है ।
[25/05 15:10] ‪+91 87179 10229‬: बहुत सी प्रेम कथायें, जिनमें देह भी है और आत्मा भी ! प्रेम तो है न ? तो क्या है जो हमेशा अपनी ओर खींचता है ? मीरा या श्याम ?   केवल प्रेम !सुन्दर है, ! अय्यूब भाई बधाई !
[25/05 15:12] Aalknanda Sane Tai: आनंद कृष्ण जी दैहिक प्रेम अलग चीज है और दैहिक आकर्षण अलग । इस कहानी में आकर्षण है जो कभी लौकी के रूप में तो कभी हलुए के रूप में सामने आता है । प्रेम में लुका छिपी हो सकती है, चोरी से  कुछ नहीं होता ।

[25/05 15:35] Aanand Krishn Ji: देह सबसे सुलभ उपकरण है जिसके माध्यम से समाधान तक की यात्रा की जा सकती है । इसे शुरू में ही समझ लिया गया था इसीलिए साहित्य में देह के माध्यम से दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने के सफल प्रयास होते रहे हैं ।
[25/05 15:36] Suren: सब कुछ इस देह से ही संचालित होता है , शरद जी की इतनी सारी कक्षाओं के बाद तो ये साथियों को स्पष्ट हो जाना चाहिए ।  क्योंकि जो मस्तिष्क सोचता है , महसूस करता है ,कल्पना करता है , इल्यूजन क्रिएट करता है ,अदिआदि वो भी उसी देह का हिस्सा है ।
इसको ऐसे भी कह सकते है की ज़रा सा हार्मोनिकल असंतुलन हो जाये ,मतलब दिमागी गड़बड़ हो जाये तो सारा ...प्रेम ,अध्यात्म ,भावना   आदि  गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जाता है । मन और देह में द्वैत  खामाख्याली के लिए बढ़िया है , इन रियल सेन्स नही ।

[25/05 15:41] ‪+91 88020 80227‬: 'शबेबरात का हलवा' कहानी बहुत अच्छी कहानी है... सजीव चित्रण किया गया है.. और दीन का चोला पहनकर, लोग क्या - क्या करते हैं, यह भी कहानी में ब्यां किया है.. औरत के अंदर मर्दों को लौकियां ही नजर आती हैं, यह ट्रेनिंग टीनेजर ऐज में ही लड़के लेने लगते हैं... मुहब्बत की बुनियाद बस यह औरत की खूबसूरती, और उसका जिस्म ही तो है, विश्वास, जिम्मेदारी, संवेदना, कुछ भी नहीं.. शराब और शबाब ही दुनिया है, मर्दों की सारी जिंदगी इसी में गुजारती है, और बुढ़ापे में दीन का जामा ओढ़ लेते हैं, सब ऐब छुप गए.. हलवा तो एक गीज़ा है, उसे शबेबरात के दिन खाओ, या न खाओ, या आगे पिछे खाओ.. कोई फर्क नहीं पड़ता है.. महत्वपूर्ण बात है, तकरीर की.. क्या तकरीर करने वाले अपनी तकरीरों पर, अम्ल करते हैं... खुद सुधरते नहीं, दूसरों पर थोपते हैं.. जब मस्जिद के अनुयायी पर तकरीर का असर नहीं तो, आम लड़के क्या करेंगे.. फरीदा में बस लौकियां ही नजर आई, उसके अंदर एक मासूम भोली भाली लड़की नहीं नजर आई...

[25/05 15:45] ‪+91 88020 80227‬: आधुनिक काल में लिखी गई कहानी है.. किंतु कहानी के केन्द्र में मध्यकालीन जकड़ता है.. नारी को केवल उपभोग की दृष्टि से देखा गया है...

[25/05 15:49] ‪+91 88020 80227‬: औरत चाहे जितनी भी तरक्की कर ले कामयाब हो जाए लेकिन मर्दों की नजर उनकी जांघों और लौकियों तक ही सीमित रहती है और औरत में जिस दिन यह खूबसूरती खत्म हो जाती है, मर्द भी उनसे किनारा कर लेते हैं.. फिर दूसरे किसी खेत में लौकियों को तलाश करते हैं, जैसे कोठो पर जाते हैं, दूसरी शादी तक कर लेते हैं..
[25/05 15:52] ‪+91 88020 80227‬: आज क्या है औरत की इकनॉमिक्ल पावर? आजादी? कुछ नहीं बदला... आईपीएल मेच में नंगी औरतें नाचती हुई, रीति काल एक नए तरीके से औरत को बाजार में लाया है.. अभी हाल ही में दिल्ली में, यमुना किनारे एक कार्यक्रम के दौरान.. 1700 सजी धजी कन्याओं ने नृत्य किया, यह भी रीतिकाल की रिन्यू है...
[25/05 16:27] ‪+91 88020 80227‬: मैंने कुछ भी ग़लत नहीं कहा है.. खूबसूरत और जवां औरत के पिछे, दस - दस लड़के घूमते हैं.. अपने खानदान तक को छोड़ दें, करियर तक को दांव पर लगा दें, लेकिन जब यही खूबसूरत औरत, बूढ़ी होती है तो, अपनी औलाद तक नहीं पूछती.. कहानी में भी फरिदा की दादी का क्या हाल हुआ, दर्शाया गया है...
[25/05 17:42] ‪+91 96179 13287‬: सईद अयूब जी कहानी शानदार । दुनिया का सच ऐसा ही है । जिस उम्र की कहानी है, वहाँ तो नजरें जिस्म पर ही टिकती हैं प्राय: । मेहजबीन जी ने शानदार टिप्पणी की, किन्तु कहानी का मुख्य हिस्सा पुरुष ही नहीं स्त्री के भी देह के संसार में डूब जाने की कहानी कहता है । लेकिन यह समस्या भी है । जिन्दगी का भटकाव यहीं से परवान चढ़ता है और नस्लें वापस नहीं लौटतीं । यहाँ प्यार नहीं होता । देह का ही आकर्षण और उन्माद होता है । प्रेम कहीं होता भी हो तो शायद ही ।
बहुत धन्यवाद प्रवेश जी एक कसी हुई, सहज सोच वाली कहानी प्रस्तुत करने के लिए । बधाई आदरणीय सईद अयूब जी बेहतरीन कहानी के लिए ।
[25/05 20:33] Sudin Ji: महजबीं जी आप जिस समझ की आशा कर रही हैं वह परिपक्वता एक समय बाद ऐक दूसरे के प्रति आपसी समझ और विश्वास पनपने से आती हैं
और ये समझ , विश्वास और समर्पण से मनुष्य देह से ऊपर उठ जाता है।
हमारे यहाँ विवाह के लिये सुंदर सुघड़ की जो कामना होती है वह भी तो ऐक प्रकार से दैहिक ही है। जो प्रथम दृष्टि प्रभाव होता है वह तो चेहरे मोहरें का ही होता है न । आंखों को सुंदरता और बर्ताव को गुण प्रभावित करते है
[25/05 20:43] ‪+91 88020 80227‬: प्रेम का आधार.. संवेदना, विश्वास, जिम्मेदारी, हो तो प्रेम स्थाई रहता है... शब्द, और आकर्षण, तिजारत और संभोग, के स्तर पर बना संबंध स्थाई नहीं रहता.. मतलब पूरा होने के बाद, सब ढोते हैं रिश्ते को... रहते तो एक छत के नीचे हैं, पर एक नहीं बन पाते.. और विचारों का मिलना भी जरूरी है..
[25/05 21:01] Sudin Ji: प्रेम बराबर की समझ,ऐक दूसरे पर पूर्ण विश्वास और पूर्ण समर्पण से आता है किसी ऐक ओर से इसमें ज़रा सी भी कमी इसे तहस नहस कर देती है। किसी रिश्ते मे जितनी ज़्यादा क़रीबी आती जाती है वह उतनी ही ज़्यादा देखरेख की उम्मीद करता है
[25/05 21:08] ‪+91 88020 80227‬: प्यार, मुहब्बत बहुत अच्छी, और जरूरी  चीज है.. अहसास है.. लेकिन शादी से पहले ही, और एक-दूसरे को जानें बिना ही, समर्पण.. समझदारी की बात नहीं, बेवकूफी है, बहकना है.. फरीदा जैसी लाखों कमसिन लड़कियां, किसी को जानें बिना ही, आकर्षण के आधार पर, प्यार में अंधी होकर, समर्पण कर देती हैं.. और बर्बाद हो जाती हैं, समर्पण का एक सही वक्त, और दायरा होना जरूरी है...
[25/05 21:13] ‪+91 88020 80227‬: कहाँनी में उस लड़की और लड़के की उम्र देखिए.. आजकल 11/12 क्लास की लड़कियां , और लड़के इस उम्र में आकर्षण के कारण.. सब कुछ त्याग देते हैं... एक-दूसरे को जानें बिना, और शादी के पहले, समर्पण का तो ख्याल ही नहीं आना चाहिए.. इसमें मात पिता की तर्बियत का भी बहुत बड़ा योगदान होता है.. इस उम्र के बच्चों पर, विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है..
[25/05 21:14] Sudin Ji: जिसे आप फ़रीदा का समर्पण कह रही हैं वह वास्तव में समर्पण है ही नहीं वह भी एक प्रकार का पुरूष देह के प्रति आकर्षण है ।समर्पण सम्पूर्ण ता में निहित है उसमें तन मन जैसे शब्द नहीं होते
[25/05 21:21] ‪+91 88020 80227‬: आकर्षण तो उन दोनों को करीब लाने का माध्यम है ही, मैं कब मना कर रही हूँ.. लेकिन पुरुष पात्र में आकर्षण के साथ - साथ दैहिक आकर्षण भी है.. कहानी का अंत देखिये.. कहानी की शुरुआत देखिए.. जहाँ फरीदा के दादाओ का चरित्र चित्रण किया गया है..
[25/05 21:26] Sudin Ji: क्या हमारे परिवार या समाज ने हमे कभी प्रेम करने की इजाज़त दी । या हमने कभी ली क्या
[25/05 21:26] ‪+91 88020 80227‬: लेकिन बात सेक्स तक पँहुच जाना.. इतनी कम उम्र में, इस बात को ध्यान में रखकर.. बच्चों को शिक्षा देना, और सही परवरिश जरूरी है..
[25/05 21:27] ‪+91 98261 39286‬: समाज ही क्या नैतिकता व तमाम मूल्य ही बदल गये हैं आजकल । पिता पुत्री के संबंध और भी न जाने क्या क्या ?
[25/05 21:28] ‪+91 88020 80227‬: समाज की अपनी जकड़ताए हैं, वो तो अभी भी बहुत से मामले में मध्यकालीन ही है.. लेकिन हमें पूरी तरह से, पश्चिमीकरण में भी नहीं जाना चाहिए..
[25/05 21:29] ‪+91 98261 39286‬: आज और आने वाले समय में बच्चों को समझाना असंभव सा होगा कि नैतिकता भी कोई चीज होती है । अतः खतरा सर्वत्र है 🙏🙏🙏
[25/05 21:31] ‪+91 98267 82660‬: उम्र का तो में जिक्र नहीं कर रहा। बच्चे और युवा जानते है उम्र  का प्रभाव। खतरा कुछ नहीं है। सजगता तो सबको देना होगी
[25/05 21:33] ‪+91 98261 39286‬: मैं फिर से शुरू करता हूँ ,  आप सभी का ध्यान चाहूँगा,  कि क्या इस खूबसूरत कहानी में अंगिया , लौकी व जांघों के बीच जैसे शब्द उपयोग में नही लाये गये होते तो क्या कहानी का आनंद समाप्त हो जाता ?  आप सभी से करबद्ध निवेदन , जरूर बताईयेगा  🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[25/05 21:36] ‪+91 88020 80227‬: हर चीज की एक सीमा होती है.. नॉर्मल होना, संतुलन भी जरूरी है.. मेरी खुद दो स्टूडेंट्स ऐसे हैं, जिन्होंने 17 साल की उम्र में, आकर्षण के कारण, करियर खराब कर दिया, घर छोड़कर चली गई.. आज न मात पिता साथ हैं.. न उनके वो जीवन साथी, अकेले ही गोद में बच्चे लिए धक्के खा रही हैं.. पढ़ाई भी अधूरी.. यही काम कोई लड़का करे, घरवालों को कोई फर्क नहीं पड़ता, सौ ऐब लगे लड़कों की भी घर वापसी है, पर लड़की के एक बार कदम बहक जाए, सब किनारा कर लेते हैं..
[25/05 21:37] ‪+91 98267 82660‬: हमारा राधा कृष्ण का प्रेम पश्चिम से आगे है आज भी। पछिम को कुछ जनता ही नहीं हमारे आगे। आप पढ़िए तो वेदिक काल या कथित इतिहास की कुछ जानकारियां।
[25/05 21:38] Sudin Ji: पूरे समय नैतिकता की दुहाइयां देते देते हम एन वक्त पर फिसल जाते हैं शायद इसलिये कि ये नैतिकता वास्तविक नहीं है इसके लिये हम मानसिक रूप से तैयार नही हैं और सबकी तरह ही हमने भी इसे ओढ़ रखा था सो ज़रा से झोंके मे उड़ गया

[25/05 21:41] ‪+91 98267 82660‬: प्रेम होता है या नहीं होता। दगा या वेवफाई नहीं होती वहाँ।
[25/05 21:41] ‪+91 88020 80227‬: आजकल के प्रोफेशनल बच्चे, वैदिक काल, आदिकाल, भक्तिकाल नहीं पढ़ते.. mtv देखते हैं, मडर, जिस्म फिल्म देखते हैं.. फिल्मों के आइटम सांग पर,डांस करते हैं डिजे की भाषा समझते हैं..
[25/05 21:42] ‪+91 98267 82660‬: कहानी अच्छी थी या बुरी इससे काम नहीं चलाये। बताये क़ि क्या अच्छा था या बुरा।
[25/05 21:44] ‪+91 98267 82660‬: देखने दीजिये। ये भी उनका संसार है। और कोई भी चीज जो बच्चे देख या कर रहे है आज महजबीन उनको बच्चों ने तो नहीं बनाया था। बड़े ही बेनाये पहले।
[25/05 21:47] ‪+91 98267 82660‬: भारत का पूरा समाज चुकी मानसिकता का है। न खुद कुछ करता है न उनको जीने देता है। आईटम सांग देखते बच्चों को सजगता दीजियेगा।

[25/05 21:49] ‪+91 98267 82660‬: मेरे पिता ने 13 साल की उम्र में शहर छोड़ दिया था अकेला। शाम को बोले सब चीजे देखना। खूब फिल्म देखना और आखिर में सोचना की इससे क्या हासिल हुआ। और उस बात को  लिख के रखना। ये सजगता देना जरुरी है। नाकि निर्देश की फ़िल्म मत देखना।
[25/05 21:50] ‪+91 98267 82660‬: आज का साफ कपडे पहनने वाला समाज ये चीज बच्चों को नहीं दे रहा। वो अपराध बोध दे रहा है।
[25/05 21:58] ‪+91 88020 80227‬: कोई भी रचना में, सारी समीक्षा.. एकपक्षीय नहीं होनी चाहिए.. वो कोई भी विधा हो, कविता, कहानी कुछ भी.. समीक्षा करते समय.. सकारात्मक, नकारात्मक दोनों पहलुओं को देखना चाहिए... इस कहानी में भी कुछ पहलु सही हैं, स्वभाविक हाव भाव का वर्णन किया गया है.. धार्मिक आडम्बर भी दिखाए हैं.. वेश्यावृत्ति का भी वर्णन किया है.. टीनएजर ऐज में होने वाले आकर्षण का भी वर्णन किया गया है.. और मात - पिता की दुर्गति का भी वर्णन किया गया है.. कहानी बहुत ज्यादा खुला दैहिक आकर्षण का वर्णन भी कर रही है...
[25/05 22:02] ‪+91 88020 80227‬: रविन्द्र जी मेरी टिप्पणी, ध्यान से पढ़िये.. मैंने कई बार दोहराया कि, बच्चों के बनने बिगड़ने में, माता-पिता की परवरिश, तर्बियत का बहुत बड़ा योगदान होता है..
[25/05 22:07] ‪+91 88020 80227‬: आपका सवाल भी सही है अगर कहाँनी में से इन शब्दों को हटा दिया जाता तो, शायद कहानी की मौलिकता ही समाप्त हो जाती.. यथार्थ वर्णन ही नहीं रहता.. पुरुष प्रेम का आधार, और मानसिकता कैसे सामने आएगी..

[25/05 22:09] ‪+91 88020 80227‬: यह शब्द तो, हर स्त्री पुरुष की जाती जिंदगी का हिस्सा हैं.. बस इनकी उपयोगिता, और व्याख्या कौन कैसे करता है, यही तो व्यक्ति निर्माण का आधार हैं...
[25/05 22:12] ‪+91 88020 80227‬: बस इससे ज्यादा चर्चा मैं नहीं करूंगी.. नहीं तो रात को, संपने में.. तरबूज, आम, आइसक्रीम की जगह फरीदा, और उसका प्रेमी ही आएंगे.. 😀
[25/05 22:33] Aanand Krishn Ji: पर दैहिक प्रेम, दैवीय प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है और दैहिक आकर्षण, दैहिक प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है । दैहिक आकर्षण से बचा नहीं जा सकता, बचना भी नहीं चाहिए । हां, उस आकर्षण के रचनात्मक आयामों को ज़रूर स्वीकार कर लेना चाहिए ।
[25/05 22:49] A Asafal: इस पटल पर इतनी उम्दा कहानी पढ़ने को मिलेगी, मुझे इल्म न था। मैं इसे मुख्यत: विचार मंच ही समझ रहा था। पर प्रवेश जी ने "सबेबरात का हलवा" जैसी कलात्मक कहानी का चयन कर प्रमाणित कर दिया कि हरेक विधा के लिए यह एक समृद्ध मंच है।
सईद साब ने कहानी का विषय बड़ी सावधानी से चुना है। दरअसल, लौकिक प्रेम दैहिक आकर्षण से ही उत्पन्न होता है। रामचरित मानस पढने के बाद यह जाना कि लौकिक प्रेम वासना का ही दूसरा नाम है। तो ईश्वरीय प्रेम भक्ति का। प्रेम में होश नहीं, न भक्ति में न वासना में इसलिए मीरा मूरत रखती हैं। वह साकार सगुणोंपासना थी। वासना नहीं। दैहिक आकर्षण से उत्पन्न नहीं, इष्ट की सुन्दरता वहां दैवीय है, लौकिक नहीं। उसके सानिंध्य, दर्शन और स्पर्श से कामोत्तेजना नहीं उत्पन्न नहीं होती, ऐंद्रिक सुख प्राप्त नहीं होता, निर्वेद की प्राप्ति होती है। पात्र आनंद को उपलब्ध हो जाता है। स्खलित नहीं होता, अपने भीतर स्थिर और स्थित हो जाता है।
ज्ञान मार्ग होश का मार्ग है। तकरीर उसका एक हिस्सा। पर कामनाएं वहां टिकती नहीं।
कहानी कलात्मक है और सब कुछ कहती है। स्त्री विमर्श और नैसर्गिक आचरण भी जो फरीदा के दैहिक इस्तेमाल से उठाता है जो अहमद मियाँ की कारस्तानी से उठता है। सर्वश्री पीयूष, आनंद कृष्ण, सुरेन और महजबीं जी की टिप्पणियाँ पढ़कर भी अभिभूत हुआ। मेरी सभी को बधाई। एडमिन ब्रज जी का आभार।
[25/05 22:54] Mukta Shreewastav: 👌🏻 कहानी में लेखक का उद्देश्य समझ में नहीं आता।परन्तु कहानी अंत तक पाठक को जोड़े रखती है.हम जैसे नये पाठक तो ऐसी भाषा और गठन पर ताज्जुब ही करते रह जाते हैं.
प्रवेश जी आप का चयन अच्छा होता है.अभी से अगले बुधवार का इंतज़ार रहेगा.


Tuesday, May 24, 2016



फेसबुक की आभासी दुनियाँ पर सूरज प्रकाश जी की लिखी गई एक शानदार कहानी ,......



खेल खेल में


सूरज प्रकाश



पहले अपना परिचय दे दूं। निधि अग्रवाल। उम्र 24 बरस। रहने वाली पटियाला की हूं लेकिन पिछले एक बरस से पुणे में हूं। साइकॉलोजी में एमए और एचआर में एमबीए हूं। एक बड़ी कंपनी में काम करती हूं। अच्‍छा रुतबा, अच्‍छी सेलरी और ढेर सारे पर्क्‍स। कार, लीज्‍ड फ्लैट, बढ़िया लैपटाप, आइपॉड, शानदार मोबाइल और भी दुनिया भर की ऐयाशियों की चीजें कंपनी के खाते में।
बस ही दिक्‍कत है। मैं बहुत ज्‍यादा आउटगोइंग टाइप की नहीं हूं। ऑफिस से सीधे ही कहीं बाहर निकल जाऊं या कलीग्‍स के साथ कहीं वक्‍त गुज़ार लूं तो ठीक वरना एक बार घर आ जाने के बाद मैं कहीं नहीं जाती। वैसे भी घर आते-आते आठ बज ही जाते हैं। थोड़ा बहुत पढ़ना, एकाध फिल्‍म, कुछ म्‍यूजिक, थोड़ी देर टीवी और मोबाइल पर दुनिया जहान से गप्‍पबाजी। हां, छुट्टी के दिन इस रूटीन में कुछ बदलाव आता है जब कुछ फ्रेंड्स के साथ एकाध मूवी देखने और बाहर डिनर के बहाने चार छ: घंटे घर से बाहर बिता लेती हूं। बेशक कई रिक्‍वेस्‍ट आये लेकिन कोई पुरुष मित्र बना नहीं। बने तो टिके नहीं। वैसे शहर में स्‍मार्ट, अकेले, इच्‍छुक और पसंद आने लायक नौजवानों की कमी नहीं। मेरे ख्‍याल से मेरे जैसी जितनी लड़कियां पुणे में अकेली रहती होंगी इतने ही एलिजिबल लड़के भी ऐसे होंगे जो अपनी शामें अकेले बिताने पर मजबूर होते होंगे। कई बार संयोग भी अपना रोल अदा करते ही हैं।
वैसे मुझे जि़ंदगी से कोई शिकायत नहीं। अपने तरीके से खूबसूरत जीवन जी रही हूं। फिर फेसबुक है ही सही जो दुनिया में खुलने वाली सबसे खूबसूरत खिड़की है। इस खिड़की के सहारे कभी भी कहीं भी आया जाया सकता है।
लेकिन पिछले दिनों फेसबुक के कारण मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी जो मैं न तो किसी से शेयर कर पा रही हूं और न ही उस हादसे से बाहर ही आ पा रही हूं। ये एक तरह का हादसा ही था जो खेल खेल में शुरू हुआ और कुछ ही दिनों में इसने मुझे इतनी गहराई से जकड़ लिया कि न तो मैं उसे अधबीच छोड़ पायी और ही सच बता कर उससे बाहर ही आ पायी। सारा किस्‍सा एक मासूम झूठ से शुरू हुआ और पता ही नहीं चला और मैं सच बोल कर उसे खत्‍म करने के बजाये उसी झूठ को सहलाती पोसती बड़ा करती गयी और आज मेरी ये हालत है कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी उससे बाहर आ ही नहीं पा रही। बेशक एक रास्‍ता सूझा है मुझे लेकिन वह भी उसी झूठ को और और आगे ही बढ़ाता है। एक बात और भी है कि उस उपाय को इस्‍तेमाल करने का सही वक्‍त भी अभी नहीं आया है। कुछ दिन और इसी झूठ को सहलाते दुलराते रहना होगा। इस चक्‍कर में फेसबुक पर अपनी वाल पर कोई मजेदार पोस्‍ट भी नहीं डाल पा रही हूं और न ऑनलाइन ही आ पा रही हूं।  
ये झूठ कुछ वैसा ही है जैसा हम एमए के दिनों में पकाते थे। एसाइनमेंट्स और प्रोजेक्‍ट्स के सिलसिले में कई तरह के सर्वे करने होते थे। अक्‍सर क्‍वश्‍चनेयर बना कर बीसियों लोगों से एक जैसे सवाल पूछने होते थे। हम सब तब एक ही काम करते थे। कौन जाये 100 लोगों के पास और वही वही सवाल पूछे। हम कुल पांच लोगों के पास जाते, उनके जवाब ध्‍यान से नोट करते और उन 5 जवाबों के आधार पर ही ट्रेंड का रुख भांप लेते थे और बाकी 95 जवाब मनगढ़ंत बनाते थे या हम स्‍टूडेंट्स आपस में पूछ पाछ कर बाकी जवाब तैयार कर लेते थे। तब हमारी कल्‍पना शक्ति या किस्‍से बनाने या किस्‍से सुनाने का हुनर हमारे खूब काम आता था। ये मामला भी कुछ कुछ किस्‍सागोई जैसा बनता चला गया है।   
अभी दस ही दिन पहले की बात है। उस दिन शनिवार था। रात के वक्‍त बेडरूम में अधलेटे हुए लैपटाप पर एक फिल्‍म देख रही थी – लव इन द आइम ऑफ कॉलेरा। गैब्रियल गार्सिया मार्कवेज का ये बेहद मजेदार नॉवल मैं पढ़ चकी थी और पता चला था कि इस पर एक खूबसूरत फिल्‍म भी बनी है। वही फिल्‍म उस दिन एक क्‍लीग ने पैन ड्राइव में दी थी। फिल्‍म पूरी हुई तो रात के दो बजे होंगे। उससे पहले टीवी पर क्रिकेट मैच देख रही थी। लैपटाप बंद करने लगी तो देखा फेसबुक खुला है। मुझे याद ही नहीं रहा था कि पीछे फेसबुक ऑन है। देखा तो कुछ मैसेजेस थे, तीन चार इनबॉक्‍स खुले थे और फ्रेंड लोग अपने-अपने हिसाब से खटखटा कर गुड नाइट कह कर जा चुके थे। कुछ निशाचर और निशाचरियां ऐसे भी नज़र आये जिनकी हरी बत्‍ती जल रही थी। कुछ फार्मल मित्र थे और कुछ अंतरंग, कुछ ऐसे भी थे जिनसे कभी हैलो नहीं हुई थी लेकिन वे हमेशा ऑन लाइन ही नज़र आते हैं। वे भी अभी तक मेरी तरह रतजगा कर रहे थे। एक इनबॉक्‍स मैसेज ऐसा भी मिला जिसमें दो तीन बार हाय और हैलो लिखा था। उसमें आखिरी बार जो मैसेज आया था उसने मेरा ध्‍यान खींचा। एक तरह का अनुरोध था ये – कैन आइ चैट विद यू!!! मैंने ध्‍यान से देखा - ये संदेश पचपन मिनट पहले भेजा गया था। जनाब अभी भी ऑनलाइन थे। 
मैं हैरान हुई। नाम देखा - अजित सूद। उनसे कभी चैट नहीं हुई थी। पता नहीं इस शख्‍स को कब और क्‍या सोच के फ्रेंड बनाया होगा या उसी की तरफ से आयी रिक्‍वेस्‍ट को  कन्‍फर्म कर दिया होगा। प्रोफाइल पर डबल क्‍लिक किया – नोयडा निवासी। रिटायर्ड सेंट्रल गवर्नमेंट आफिसर। अबाउट में डबल क्‍लिक किया तो पता चला - उम्र 63 बरस। इंटरेस्‍टैड इन फ्रेंडशिप विद मेन एंड वीमेन। पालिटिकल व्‍यू में ह्यूमैनिटी लिखा था। फोटो में क्‍लिक किया तो अच्‍छी पर्सनैलिटी वाले आदमी की तस्‍वीरें नज़र आयीं। टाइमलाइन में देखा तो ढेर सारे कोटेशंस और दुनिया भर की तस्‍वीरें। इसका मतलब बंदे को प्रोफाइल सेटिंग नहीं आती। मैं हैरान, ये शख्‍स रात के दो बजे मुझसे क्‍यों चैट करना चाहता है! वैसे गाहे बगाहे लोग बाग तंग करते ही रहते हैं और अनफ्रेंड भी होते ही रहते हैं।
सोचा, चलो देखें तो सही, कौन बंदा है और क्‍या कहना चाहता है। कुछ तो ह्यूमन बिहेवियर का पाठ पढ़ायेगा। वैसे भी इतनी जल्‍दी नींद नहीं आने वाली थी।
मैंने उसके मैसेज बॉक्‍स में हाय लिखा और रवाना कर दिया। जैसे वह मेरे संदेश की राह ही देख रहा था।
तुरंत जवाब आ गया - थैंक्‍स फॉर रिप्‍लाई। हाउ आर यू?
- मैं ठीक हूं अजित साहब, आप कैसे हैं और इतनी देर तक जाग कर आप मुझसे क्‍या बात करना चाहते हैं?
- निधि जी, मेरी प्राब्‍लम है कि मुझे देर तक नींद नहीं आती। करवटें बदलता रहता हूं। बार-बार उठता हूं। कभी किताब खोलता हूं, कभी फेसबुक ऑन करता हूं तो कभी टीवी ऑन करता हूं। कहीं भी दिल नहीं लगता। आपका प्रोफाइल देखा तो अच्‍छा लगा। आप ऑनलाइन नज़र आयीं तो सोचा शायद...। वैसे हम कई दिन से फ्रेंड हैं.. !
- सो नाइस आफॅ यू अजित जी, मुझे भी आपसे बात करके अच्‍छा लगेगा। अपने बारे में कुछ बताइये तो बात करने में आसानी होगी। ये लिख कर मैंने एक स्‍माइली चिपका दिया।
अजित साहब का तो दिन बन गया। वे जैसे इसके लिए तैयार बैठे थे। अपने बारे में विस्‍तार से बताने लगे। मैं उनकी चैट में सिर्फ हममम से ही रिएक्‍ट कर रही थी। वही घर घर की कहानी। बच्‍चे बाहर। बीवी तीन बरस पहले गुज़र गयीं तो एकदम अकेला रह गया हूं। बाकी किसी से कम्‍यूनिकेशन रहा नहीं। दिन तो किसी तरह गुज़र जाता है लेकिन कम्‍बख्‍त रात भारी पड़ती है। वगैरह वगैरह। पता नहीं कैसे हुआ कि मैं बीच बीच में ओह एंड यू आर राइट लिख कर घर बैठे आधी रात को एक अनजान आदमी के लिए काउंसलर की भूमिका निभाने लगी। वे फिर मेरे प्रति जैसे थैंक्‍स की बरसात ही करने लगे कि मैं पहली ही बार उनसे इतनी अच्‍छी तरह से पेश आ रही हूं।
इस बीच मैं उनकी फ्रेंड लिस्‍ट देख चुकी थी। लगभग 4000 फ्रेंड थे उनके। हर उम्र के। लड़के और पुरुष कम और लड़कियां ज्‍यादा। मेरी ही उम्र की और कुछ छोटी भी। महिलाएं भी। हर उम्र की।
अपनी या किसी की भी फ्रेंड लिस्‍ट देख कर ये तय करना बहुत मुश्‍किल होता है कि फ्रेंडशिप रिक्‍वेस्‍ट किसने भेजी होगी। अब तक ये समझ में आने लगा था कि ये बूढ़ा आदमी  बेहद अकेला है। जीवन से हताश निराश है और कम्‍यूनिकेशन गैप का मारा है। उसे फेसबुक मिल गया तो जैसे लॉटरी लग गयी। अपने टाइम को क्‍वालिटी टाइम में बदलने के लिए दिन रात फेसबुक से चिपका बैठा रहता होगा। कोई तो उससे बात करे या वही दूसरों के इनबाक्‍स में हाय और हैलो डाल कर इंतज़ार करे कि कोई उससे बात करने को राजी हो जाये। 
मैंने उनसे पूछ ही लिया - अजित जी, मैं आपकी फ्रेंड लिस्‍ट देख रही थी। माशा अल्‍लाह आप तो मुझसे भी ज्‍यादा अमीर हैं। मेरे तो मुश्‍किल से पांच सौ फ्रेंड होंगे और आप तो 4000 की फौज ले कर किसी को भी मात दे सकते हैं। युनिवर्सिटी खोल सकते हैं अपने दोस्‍तों के नाम पर। भला आपको अकेलापन कहां सताता होगा?
- आप सही कह रही हैं निधि जी...।
- आप मुझे निधि कहेंगे तो भी चलेगा।
- थैंक्‍स निधि। ऐसा है कि कहने को तो फेसबुक बहुत फ्रेंडली है और बेशक मेरे इतने सारे फ्रेंड बनते चले गये पर इसमें भी कई तरह के झमेले हैं। अपनी ही उम्र के किसी आदमी से बात करो तो उसके पास भी वही दुखड़े होते हैं तो मेरे पास हैं। तो इसका मतलब हुआ अपने ही दुखड़ों का एक्‍शन रिप्‍ले। हमसे कम उम्र के लोगों या लड़कों को हमसे बात करने में कोई दिलचस्‍पी नहीं होती। रही लेडीज फ्रेंड्स की बात तो कभी तो उनसे अच्‍छी बात हो जाती हैं लेकिन बहुत दूर तक नहीं चलती। बचती हैं निधि, आपकी उम्र की लड़कियां तो वे हमारी बहुत अच्‍छी दोस्‍त तो बनती हैं लेकिन ..
- लेकिन क्‍या?  मुझे भी अब उनसे बात करने में मज़ा आने लगा था। बंदा दिलचस्‍प बातें कर रहा था।
- आपको यकीन नहीं आयेगा, इसमें दोहरा खतरा रहता है। बेशक कुछ लड़कियां बुजुर्गों से ही चैट करने में सेफ महसूस करती हैं और करती भी हैं लेकिन कई बार हमें देर तक पता ही नहीं चल पाता कि हमें जिसने फ्रेंडशिप रिक्‍वेस्‍ट भेजी है वो लड़की है भी या नहीं। बहुत से आवारा लड़के लड़की बन कर हमें छकाते रहते हैं और बेवकूफ बनाते रहते हैं।
- अरे वाह, ये तो मैं भी नहीं जानती थी कि फेसबुक पर इस तरह के लोग भी हैं। हालांकि मैं इस तरह के कैरेक्‍टर्स को अच्‍छी तरह से जानती हूं और आये दिन ऐसे लोगों से पाला भी पड़ता रहता है लेकिन मैं अजित जी के ही मुंह से सुनना चाहती थी। मैंने पूछा - अच्‍छा आप लड़कियों के बारे में बता रहे थे कि वे सीनियर्स से ही चैट करने में सेफ महसूस करती हैं, वो मामला क्‍या है। बेशक मेरी लिस्‍ट में अजित जी जैसे कुछ लोग रहे होंगे लेकिन ये पहली बार हो रहा था कि कोई सीनियर सिटिजन मुझसे चैट कर रहा था। अपनी ओर से मैंने कभी इस तरह की पहल नहीं की थी।
- अब निधि जी, आपसे पहली बार चैट हो रही है वो भी आधी रात को। मैं कैसे बताऊं कि दरअसल..
- अरे अजित जी आप बिलकुल संकोच न करें। हम दो मैच्‍योर लोग आपस में बात कर रहे हैं और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आपको परेशान होना पड़े। मैंने उनकी हिम्‍मत बढ़ायी - आप कहें तो सही।
- दो बातें हैं निधि जी। पहली बात ये है कि लड़कियां समझती हैं कि हम सीनियर सिटिजन लोग लड़कियों से दोस्‍ती इसलिए करते हैं कि कुछ मज़ा मिल जाये, कुछ टिटिलेटिंग, कुछ फन और कुछ एक्‍साइटमेंट। वे समझती हैं कि सारे बुड्ढे सैक्‍स स्‍टावर्ड होते हैं, ठरकी होते हैं, बात करते ही लार टपकाने लगते हैं और न जाने क्‍या क्‍या!!
अरे ये आदमी तो खूब मजेदार बातें बता रहा है! चैट जारी रखने में कोई हर्ज नहीं लगा। 
- और!
- आपको बतायें कि फेसबुक पर कई लड़कियां खुद ही सीनियर लोगों से ठीक इन्‍हीं कारणों से चैट करना पसंद करती हैं और बदनामी हमारे हिस्‍से में आती है।
- अच्‍छा एक बात बताइये अजित जी, आज आप रात के ढाई बजे तक जाग रहे हैं। कम से कम डेढ़ घंटे से तो मुझसे ही चैट करने की राह देख रहे थे। सच बताना, अपनी उम्र से लगभग तिहाई उम्र की लड़की से चैट करने की आस रखना, इनमें से किस कैटेगरी में आयेगा? इसके साथ ही मैंने एक स्‍माइली चिपका दिया।
थोड़ी देर तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। मुझे ही पूछना पड़ा - आर यू देयर अजित जी?
- यस निधि जी, आपके सवाल का सही जवाब ही तलाश रहा हूं। देखिये, ये तो तय है कि यहां पर फेसबुक पर जितने भी जिस उम्र के भी लोग हैं, वे यहां पारिवारिक रिश्‍ते मसलन बेटी, बेटा, भाई, बहन या चाचा ताऊ तो बनाने के लिए नहीं ही बैठे हैं। कोई भी नहीं। मैं भी झूठ ही बोलूंगा अगर मैं कहूं कि मैं यहां इसी तरीके के फैमिली रिलेशंस डेवलप करने के लिए आधी आधी रात तक अपने पीसी के सामने बैठा रहता हूं। 
- वही तो मैं आपसे जानना चाहती हूं। लगा वे अपने असली मकसद पर बस, आने ही वाले हैं।
- देखो निधि, सारे बेहतरीन रिश्‍तों के बावजूद हर आदमी के मन के कुछ खाने खाली रह ही जाते हैं। कई बार तन की भी कुछ हसरतें, कुछ ज़रूरतें पूरी किये जाने की गुहार जैसी लगाने लगती हैं। अच्‍छा साथ किसे अच्‍छा नहीं लगता। बेशक वर्चुअल ही क्‍यों न हो। मैं भी आखिर इन्‍सान ही हूं। अब आपसे बात हो ही रही है तो खुदा झूठ न बुलवाये, कुछ नयी सोच, कुछ नयी बात या कुछ नया सुनने कहने का लालच ही मुझे देर रात तक जगाये रखता है। मैं जानता हूं कि मैं इस तरह करने या सोचने वाला अकेला नहीं हूं। वैसे एक बात बता दूं निधि जी कि मैं उस मायने में ठरकी या लम्‍पट नहीं हूं। आइ एम ए रिस्‍पेक्टेड मैन इन माय सोसाइटी।   
अरे, ये तो अच्‍छा खासा भाषण पिला गये। मैंने हिसाब लगाया - वे मेरे पापा से कम से कम 10 बरस बड़े थे। ये तो उन्‍होंने जतला ही दिया कि वे दूध के धुले नहीं हैं और रामायण की चौपाइयां सुनाने के लिए फेसबुक पर युवा लड़कियों की आधी आधी रात तक बाट नहीं जोहते रहते। मौका मिले तो....। मुझे हँसी आ गयी - इस देश में वही ईमानदार है जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता। मुझे चुप देख कर पूछा अजित जी ने - आर यू ऑन लाइन?
- जी कहिये सर, इस बार मैंने टोन बदली।
- आपको बुरा तो नहीं लगा निधि जी, पहली ही चैट में आपसे इतनी सारी बातें कह गया!
- नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं हैं, आपसे इतनी सारी बातें जानने को मिल रही हैं। मैंने कह तो दिया है लेकिन सोच रही हूं कि यह बहुत बढ़िया मौका है कि इनके जरिये इस तरह के लोगों को नजदीक से जाना जाये। ये तय है कि दो चार चैट में ये अपने मन की बात कह ही देंगे। बस, ट्रिक से हैंडल करने की जरूरत है।
- आपने अपने बारे में तो कुछ भी नहीं बताया निधि! आपके प्रोफाइल पर आपकी कुछ बेहद शानदार तस्‍वीरों के अलावा कुछ भी नहीं है।
- जी सर, थैंक्‍स फार लाइकिंग माई पिक्‍चर्स। वैसे मेरे पास बताने के लिए कुछ खास नहीं है। एक कॉमन गर्ल। बहुत इंट्रोवर्ट हूं। मैंने कह तो दिया है लेकिन मैं साफ-साफ समझ पा रही हूं कि ये बंदा आज ही अपने पत्‍ते खेलने के मूड में है। मैं भी तय कर लेती हूं कि मुझे आगे क्‍या कहना और करना है। ये तो बहुत अच्‍छा हुआ कि मेरे प्रोफाइल पर मेरे जॉब वगैरह के बारे में कुछ भी नहीं दिया हुआ है। मुझे अपने तरीके से खेल खेलने में या यूं कहें बंदे को राह पर लाने में आसानी होगी।
- कुछ तो बताइये अपने बारे में। मैंने तो अपना सब कुछ पहली ही बार में आपसे शेयर कर लिया।
मैं हँसी - वो भी आधी रात को!!!!! लेकिन कहा यही है - सर इस समय सुबह के तीन बजने वाले हैं। मुझसे इतनी देर तक चैट करने के बाद अब तो आपको नींद आ ही रही होगी। मुझे तो खैर आ ही रही है। आपसे बात करके मुझे बहुत अच्‍छा लगा। आपसे फिर लम्‍बी बात करूंगी और अपने बारे में सब कुछ शेयर करूंगी। इस समय बाय!
-    बाय निधि, इट वाज माय प्‍लेज़र टू टॉक टू यू। गुड नाइट।
-    टेक केयर, गुड नाइट।
अब मुझे सोचना था कि इस बेमेल और आधी रात को शुरू हुई फ्रेंडशिप का क्‍या करना है। बिना सोचे समझे अनफ्रेंड कर देना है ताकि रात बेरात उनकी लंतरानियां न सुननी पड़ें या फिर देखना भालना है कि आखिर वह या इस तरह के अकेले बूढ़े जिंदगी से या फेसबुक से ही आखिर चाहते क्‍या हैं।
मैं उस समय तो यही सोच कर सो गयी थी कि जब की तब देखी जायेगी। उन्‍हें ऑनलाइन देख कर अपनी तरफ से मैं हैलो नहीं करूंगी लेकिन अगर उन्‍होंने हैलो कि तो अपने बारे में कोई न कोई ऐसा किस्‍सा छेड़ दूंगी कि वे ही अपनी परतें खोलें।
      अगली दोपहर मोबाइल पर फेसबुक ऑन किया तो जनाब हाजिर थे। मुझे देखते ही हैलो दाग दिया। जैसे वे बस मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे।
मैंने जवाब दिया - हैलो!
-    कैसी हैं निधि जी?
-    मैं ठीक हूं आप सुनाइये, रात नींद तो आ गयी थी आपको?
-    हां आयी भी और फिर टूटती भी रही।
हो गयी मुसीबत। ये तो अभी भी पिछली रात का बखेड़ा शुरू कर देंगे। जल्‍द ही टॉपिक बदलना होगा।
-    ओह सो सैड, आज तो छुट्टी है। कल की कसर आज पूरी कर लीजिये।
-    अजी अपनी तो हर दिन ही छुट्टी होती है। खैर आप सुनाइये..
-    बस, आज संडे है तो .. मैंने जानबूझ कर वाक्‍य अधूरा ही छोड़ दिया।
-    वैसे क्‍या करती हैं आप?
-  मैं एक जिम में मैनेजर हूं। पता नहीं मेरे मुंह से कैसे निकल गया। आज तक मैंने कोई जिम अंदर से नहीं देखा, कैसा होता है। कहीं कुछ उलटा सीधा पूछ न बैठे। उसे अगला सवाल पूछने का मौका दिये बिना पूछ लिया मैंने - आप तो रिटायर्ड आफिसर हैं ना। कहां से रिटायर हुए थे?
-    ग्रेट, तब तो आप हैल्‍थ कांशियस भी होंगी। वे अभी मेरे जवाब पर ही अटके हैं।
-    जी बस यूं। यही समझ लीजिये।
-    आपके प्रोफाइल पर आपके फोटो देख रहा था। नाइस कलेक्‍शन।
-    जी थैंक्‍स।
-  शायद आपको काला रंग ज्‍यादा पसंद है। अरे, ये बुड्ढा तो मेरे पीछे ही पड़ गया है। अभी बारह घंटे भी नहीं बीते परिचय को और जनाब दूसरी ही चैट में अपने से तिहाई उम्र की कन्‍या की तस्‍वीरें भी छांटने लगे। चलो यही सही। कुछ करना पड़ेगा। मैंने थैंक्‍स दागा और साथ में एक गुलदस्‍ते की इमेज भेज दी।
-    आपको लगता है रंगों और फूलों से बहुत लगाव है।
-    जी बस..
-  अपने बारे में कुछ और बताइये ना, बेहतर अंडरस्‍टैंडिंग के लिए। तो जनाब मान कर चल रहे हैं कि ये दोस्‍ती लम्‍बी चलने वाली है।
-  मैंने बताया न कि जिम में मैनेजर हूं। पुणे में मम्‍मी के साथ रहती हूं। आप अपने बारे में बताइये ना। जानना तो मुझे है इन्‍हें।
-  नोयडा में रहता हूं। अकेला। दो बेटे हैं। एक बेंगलूर में और दूसरा बनारस में। मैं डिफेंस मिनिस्‍ट्री से ऑडिट आफिसर रिटायर हुआ।
मतलब जनाब जिंदगी भर दूसरों के खातों में मीन मेख ही निकालते रहे। इसलिए अब बुढ़ापे में कोई दोस्‍त नहीं।
- आज तो संडे हैं। क्‍या खास आज? तो जनाब मेरा शेड्यूल जानना चाहते हैं।
- अभी थोड़ी देर पहले ही आयी हूं लंच के लिए। संडे तो ज्‍यादा टाइम देना पड़ता है हमारे जॉब में।
- ओह हां सो तो है। बहुत बोरिंग होता होगा सब?
- नहीं ऐसा नहीं है। आय एन्‍जाय माइ जॉब। आप ही रोज रोज घर बैठे बोर हो जाते होंगे?
-    होते भी है नहीं भी। आज तो आपसे चैट हो रही है।
-    हां 12 घंटे में दो बार। मैंने एक स्‍माइली भेजा।
वे खुश हो गये। पूछने लगे - आप मोबाइल से बात कर रही हैं क्‍या?
-    हां और आप?
-  पीसी से। फेसबुक के लिए मोबाइल बढ़िया रहता है। हैंडी और कहीं भी, कभी भी। लेकिन शायद मोबाइल से एक बार में एक ही फ्रेंड से चैट कर सकते हैं। पूछा उन्‍होंने।
-  नहीं ऐसा नहीं है। हम एक से ज्‍यादा से भी चैट कर सकते हैं। इस बार मैंने टैडी बीयर की इमेज भेजी।
-    यंग जेनरेशन का जवाब नहीं, हर काम में हमसे दस कदम आगे।
अरे ये तो लम्‍बी पारी खेलने के मूड में लगता है। चलो अब तो मेरा झूठ ही मेरी मदद करेगा। बताती हूं - सर, मुझे खाना खा कर ड्यूटी पर वापिस जाना है। हम बाद में बात करें, इफ यू डोंट माइंड।
-    अरे श्‍योर श्‍योर। मिलते हैं बाद में।   
उस समय तो उनसे जान छुड़वा ली थी लेकिन सोचती रही मैं कि मैं ये क्‍या बेवकूफी कर रही हूं। अब तो ये बंदा मुझे लाइन पर देखते ही लाइन मारना शुरू कर देगा। मैंने भी बैठे बिठाये झुनझुना थाम लिया। लेकिन फिर सोचा मैंने। सब कुछ तो वर्चुअल है। मैंने जो कहानी शुरू की है, उसी में इतने मोड़ डालूंगी कि वे ही गच्‍चा खा जायेंगे कि फेसबुक पर आधी रात को युवा लड़कियों को घूरने का क्‍या मतलब होता है। कहानी तो इसी तरह से आगे बढ़नी चाहिये। ज्‍यादा तंग करेंगे तो ब्‍लाक करना या अनफ्रेंड करना तो अपने हाथ में है।

Ø   

      रात को फेसबुक खोला तो जनाब फिर हाजिर थे। मुझे देखते ही उनका हैलो आ गया। साथ में पहली बार स्‍माइली भी। मैं मुस्‍कुरायी। जनाब फेसबुक की बारीकियां सीख कर मुझे इम्‍प्रेस करने की फिराक में हैं। मैंने स्‍माइली कैक्‍टस की इमेज भेजी। लिखा कुछ नहीं।
-    थैंक्‍स फॉर चिल्‍ड ड्रिंक।
-    ये ड्रिंक नहीं सर, स्‍माइली कैक्‍टस की इमेज है।
-    हाहा हाहा। बुद्धू बन गये अपन राम।
मैं मुस्कुरायी - बने नहीं आप। अभी बनाये जायेंगे। देखते रहें।
-    मैं समझा गिलास में तरबूज की इमेज है। बहुत शरारती लगती हैं आप।
-    जी मैं फूडी, मूडी और गूडी हूं।
-    दैट्स ग्रेट माय यंग फ्रेंड। गलती मेरी ही है। जल्‍दबाजी में जवाब दो तो इस तरह की बेवकूफियां ही तो होंगी।
-    हममम
-    एक काम करेंगी?
-    जी कहिये!
-    इन इमेजेज के साथ साथ अपनी कुछ तस्‍वीरें शेयर कीजिये ना! मैं भी देखूं कि मेरी दोस्‍त कितनी खूबसूरत हैं। तारीफ करने का मौका तो हमें दीजिये। अगर बुरा न मानें तो!
-    जी मेरे प्रोफाइल में सारी तस्‍वीरें मेरी ही हैं।
-    जानता हूं। आपके पर्सनल कलेक्‍शन में से कुछ और, अगर शेयर करना चाहें।
-  अभी नहीं, जल्‍द भेजती हूं डीयर। ये डीयर शब्‍द तब तक उन्‍हें चैन से बैठने नहीं देगा जब तक खुद मुझे डीयर न कह दें।
-    आप कभी दिल्‍ली आयी हैं?
-    नहीं जी, किसी ने बुलाया ही नहीं। मेरी तरफ से एक उदास चेहरा साथ में। 
-    हम बुलायेंगे आपको दिल्‍ली।
-    कहीं नहीं जा सकती मैं। मम्‍मी बीमार हैं। ये मेरे झूठ की अगली कड़ी।
-    ओह, मैं दुआ करता हूं कि वे जल्‍द ठीक हो जायें। उन्‍हें हुआ क्‍या है?
-    जी, इलाज चल ही रहा है।
-    आपके लिए अफसोस हो रहा है।
इस बार मैंने कुछ न लिख कर एक और इमेज भेज दी है।
-    ये क्‍या है?। अब अंदाजा लगाने की बेवकूफी नहीं करूंगा। हा हा!
-    इसका मतलब है कि मैं थोड़ा अपसेट हूं।
-    ओह!। मेरी मदद की जरूरत है क्‍या निधि? किसी भी तरह की?
- मैं कैसे कहूं! अभी आपसे दो दिन पहले ही तो चैट होनी शुरू हुई है। कहते हुए अच्‍छी नहीं लगूंगी। 
-    बोलो तो सही। पॉसिबल नहीं होगा तो मना कर देंगे।
-    एक्‍चुअली मुझे कुछ कैश की जरूरत है। रेंट देना है और मम्‍मी का ट्रीटमेंट करवाना है।
-    हमममम
-    मैं कैसे मदद कर सकता हूं?
-  वैसे तो मेरी सेलरी से चल जाता था लेकिन मम्मी अचानक बीमार पड़ गयी..। सब खतम हो गये। एक और उदास चेहरा टिकाया।
-    ओह!
-    मेरे पापा भी साथ नहीं हैं।
-    जी!
-    हम सिर्फ मां बेटी ही हैं।
-    ओह!
-    यही है मेरी जिंदगी की कहानी!
-    मैं समझ सकता हूं। देखता हूं कि मैं आपके लिए क्‍या कर सकता हूं।
-    श्‍योर। थैंक यू सो मच!
-    वैसे मॉम को किस तरह के इलाज की जरूरत है?
-  माम को अस्‍थमा है, ब्‍लड शुगर है और सबसे बड़ी बात डिप्रेशन है। कई बार लेवल बहुत बढ़ जाता है तो ...।
-    ओके। एक काम करेंगी निधि?
-    जी!
-  पुणे में मेरा एक डॉक्‍टर दोस्‍त रहता है। उसके पास मम्‍मी को ले जा सकती हैं तो वह मदद कर सकता है। चाहो तो मैं उसे फोन कर दूं?
-    लेकिन दवाइयां?
-    वह दवाइयां भी दिलवा देगा। जब तक जरूरत हो।
-    हम महंगी दवाइयां एफोर्ड नहीं कर पायेंगे।
-  चिंता न करो डीयर। वे दवायें भी देखेंगे और देखभाल भी करेंगे। मेरे बहुत पुराने दोस्‍त हैं। उनका नम्‍बर और क्लिनिक का पता दे रहा हूं।  
तो जनाब डीयर पर आ ही गये। अच्‍छा है, मेरा पता नहीं पूछा। कहीं अपने दोस्‍त को ही मेरे घर भेज दिया मॉम को देखने तो अच्‍छी खासी मुश्‍किल हो जायेगी।   
-    जी सो नाइस ऑफ यू। मैंने एक और स्‍माइली चिपकाया।
-    मैं अपना ईमेल आइडी भी दे रहा हूं। मम्‍मी की सारी डिटेल्‍स भेज दो।
-    ओके श्‍योर!
-    डिटेल्‍स मिलते ही मैं उन्‍हें खबर कर दूंगा। तुम कल ही उन्‍हें दिखा सकती हो।
ग्रेट! जनाब आप से तुम पर आ ही गये!
-    जी जरूर!
-  एक काम करो। अपना ईमेल आइडी और मोबाइल नम्‍बर दे दो। इन केस, कांटैक्‍ट करने की या कुछ और जानने पूछने की जरूरत पड़ जाये तो!
मर गये! ये तो देवदूत बन कर मेरे सारे दुख दलिद्दर दूर करके ही मानेंगे!
- जी आपको ईमेल भेजूंगी तो मेरा आइडी आ ही जायेगा। साथ में मोबाइल नम्‍बर भी दे दूंगी।
-    श्‍योर डीयर।
-    सो नाइस ऑफ यू टू बी सो हेल्‍फुल।
-    डोंट वरी। सब ठीक हो जायेगा। 
-    जी आपने मेरी काफी चिंता कम कर दी।
-    परेशान होने की जरूरत नहीं। कभी भी फोन कर सकती हो!
-    ये आप सोचते हैं डीयर वरना आजकल.. !
-    कम ऑन। नाऊ स्‍माइल।
-    मुझे जाना होगा। मॉम की नींद खुल गयी है। उन्‍हें मेरी जरूरत है।
-    ओह, श्‍योर श्‍योर। प्‍लीज टेक केयर ऑफ हर। सी यू लेटर!

Ø   

ओह गॉड!!! मैंने बैठे बिठाये ये क्‍या मुसीबत मोल ले ली! अब एक के बाद एक झूठ बोलने होंगे मुझे। पता नहीं कितना लम्‍बा चले ये मामला। चलो, देखें ये भी करके। लेकिन बीच बीच में गुम हो जाना बेहतर रहेगा। मॉम की सेवा के नाम पर। इस बहाने उनकी चिंता का ग्राफ भी ऊपर नीचे होता रहे तो बेहतर। कुल मिला कर अब तक तो मजेदार ही चल रहा है। फेसबुक पर ऑफलाइन ही रहना होगा। 

Ø   
-    हैलो निधि कैसी हैं?
-    फाइन डीयर!
-    दो दिन नजर नहीं आयीं फेसबुक पर?
-  हां बस, नहीं आ पायी। अब मैं इन्‍हें कैसे बताऊं कि मैं लगातार फेसबुक पर रही लेकिन ऑफलाइन जबकि जनाब लगातार बने रहे या आते जाते रहे।
-    आपने डिटेल्‍स भेज दी क्‍या?
-  नहीं भेज पायी। मम्‍मी की तबीयत ज्‍यादा खराब हो गयी थी। उसी में उलझी रही।
-    अब कैसी हैं?
-    आज बेहतर हैं। थैंक्‍स डीयर फार केयरिंग।
-    डोंट वरी, सब ठीक हो जायेगा
-    मम्‍मी ठीक हों जायें, घर का रेंट हो जाये बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिये।
-    सब हो जायेगा। धीरे धीरे।
   -  आइ नो। आप इतनी मदद कर ही रहे हैं। मैं ही आपके दोस्‍त से कांटैक्‍ट नहीं कर पायी।
-  मैंने उन्हें तुम्‍हारी मम्‍मी के बारे में बता दिया है। ही विल हेल्‍प यू।
-  जी, थैंक्‍स अगेन डीयर।
   -  मुझे सारी चिंताएं सता रही हैं। समझ नहीं आ रहा कैसे होगा ये सब!
   -  अब सब तो मैं नहीं कर सकता ना! जो मेरे लिए पॉसिबल था, कर ही रहा हूं। देरी तुम्‍हारी ही तरफ से हो रही है।
-    पता नहीं रेंट कहां से दूंगी घर का? हर हालत में परसों तक..।
-    वो मैं कैसे बताऊं?
-    जी!
-  कुछ चीजें पोस्‍ट पोन कर सकते हैं और कुछ नहीं। और फिर रेंट तो एक बार की प्राब्‍लम नहीं है। हर महीने देना होगा।
- नहीं डीयर, रेंट सिर्फ इसी महीने का देने की तकलीफ है। अगले महीने मेरे एक रिश्‍तेदार का घर खाली हो रहा है। हम वहां शिफ्ट हो जायेंगे।
- निधि, मुझसे जो हो सकता था, मैं कर रहा हूं। मम्‍मी की डिटेल्‍स भेज देना जल्‍द।
- श्‍योर!
- मैं पुणे में होता तो ज्‍यादा कर सकता था।
- कोई नहीं यार। मैंने अब उन्‍हें यार कहा और एक स्‍माइली चिपका दी।
- मुझे पता है, तुम कोई न कोई रास्‍ता निकाल ही लोगी। उन्‍होंने भी जवाब में एक स्‍माइली चिपका दी है।
- श्‍योर!
- वैसे तुम्‍हारी मॉम के ट्रीटमेंट के पेपर्स अब तक न मेरे पास आये हैं ना डॉक्‍टर के पास।
..
Ø   

-    गुड मार्निंग. क्‍या हुआ?
-    वही मम्‍मी की तबीयत।
-    कैसी हैं अब?
-    कुछ आराम है?
-    मॉम के डिटेल्‍स भेजे? मेरे फ्रेंड से कांटैक्‍ट किया क्‍या?
-  नहीं कर पायी। सॉरी। अब मैं इन्‍हें कैसे बताऊं कि मॉम मेरे पास हो और बीमार भी हो तो कुछ भेजूं। मम्‍मी को बताऊंगी तो हँस हँस के पागल हो जायेंगी।
- मेरा दोस्‍त कई बार पूछ चुका। तुमने अपना नम्‍बर या ईमेल आइडी भी नहीं दिया। मुझे ही सॉरी कहना पड़ा उससे।
- आयम सो सॉरी यार। मम्‍मी को आधी रात को पास के सरकारी अस्‍पताल में ले जाना पड़ा। अर्जेंट।
- अब मुझे बताओ कि मैं तुम्‍हारी डीयर मॉम के लिए क्‍या कर सकता हूं?
- पहले आप मुझे माफ कर दें।
- ओके किया अब?
- थैंक्‍स फार अंडरस्‍टैंडिंग। मेरी हालत वाकई खराब है। इतनी अकेली हूं। रो भी नहीं सकती।
- हिम्‍मत मत हारो डीयर। सब ठीक हो जायेगा। कहां हैं मम्‍मी इस समय?
- मेरे पास ही सो रही हैं।
- ओके, उनकी केयर करो। मेरे दोस्‍त से जरूर कांटैक्‍ट कर लेना। ही इज जेम ऑफ ए पर्सन।
- ओह श्‍योर डीयर, गुड डे।
Ø   

-    कैसे हैं?
-    मैं ठीक। आप कैसी हैं निधि?
-    मैं ठीक हूं डीयर।
-    और माम?
-    आराम तो है लेकिन लगातार उनके पास ही रहना पड़ता है।
-    ओह तो जॉब?
-    इस चक्‍कर में जॉब भी गया। जान छुटी। हाहाहाह!
-    जॉब गया और आप हँस रही हैं?
-  हँसू नहीं तो क्‍या करूं डीयर? इधर मम्‍मी की हालत खराब। मकान मालिक रोज सवेरे ब्रश करने से पहले सिर पा आ खड़ा होता है। घर का राशन कब का खत्‍म है। ऐसे में मैं फेसबुक पर आपसे चैट कर रही हूं। हँसूं नहीं तो क्‍या करूं? मैं अपना कंधा थपथपाती हूं। क्‍या तो डायलाग मार रही हूं!!
- मैं समझ सकता हूं। इतनी तकलीफों में भी आप नार्मल हैं और बैलेंस बनाये हुए हैं।
- मेरी जाने दें। आपका डिनर हो गया?
- जस्‍ट वेटिंग और आपका?
- कौन बनाता है खाना?
- एक फुल टाइम सर्वेंट है। सब कामों के लिए। आपने खाया?
- मम्‍मी को दे दिया है। मेरा अभी मन नहीं।
- मेरे ख्‍याल से आपको चेंज चाहिये कुछ?
- आप चेंज की बात कर रहे हैं दोस्‍त, यहां सबकुछ उलटा पुलटा है। मम्‍मी को छोड़ कर जा पाती तो जॉब तो रहता।
- यस यू आर राइट। मैंने आपको इससे पहले भी मैसेज भेजे थे। आपके जवाब नहीं आये तो खराब लग रहा था लेकिन अब पता चला  तो....लेकिन इट्स ओके।
- आपको बताया ना। मोबाइल की वजह से फेसबुक ऑन नजर आता है लेकिन होश किसे रहता है? चेक करना इस हालत में?
- चिंता न करें डीयर। सब ठीक हो जायेगा।
- हममम
- मैं हूं ना!! ?
- हाहाहाहा!!
- अब ये हँसी क्‍यों?
- हँसी आ रही है!!
- क्‍यों मैंने कुछ गलत कह दिया क्‍या?
- अब मुझे अच्‍छा लग रहा है!!
- सच?
- जी हां!!
- मुझे भी बताओ अचानक ऐसा क्‍या हो गया?
- हाहाहाहा!!
- अब दोबारा हँसी!!
- कहा ना आय एम फीलिंग गुड। अच्‍छा लग रहा है!!
- मैं समझ नहीं पा रहा?
- आप समझ भी नहीं पायेंगे डीयर!!
- आपकी मम्‍मा की तबीयत जल्‍द ठीक हो जाये। वैसे पूछना नहीं चाहिये लेकिन  आपने डॉक्‍टर से अब तक कांटैक्‍ट नहीं किया है ना?
- सच बताऊं?
- कहिये ना!!
- आप मेरे दोस्‍त हैं। मैं आपसे कुछ कह भी सकती हूं, शेयर भी कर ही रही हूं लेकिन आपके जरिये किसी और की मदद मांगना नहीं हो पायेगा। हो ही नहीं पायेगा। चलो आज दोस्‍त के दोस्‍त से तो जान छूटी। हर बार वही सलाह और वही सवाल।
- वैसी कोई बात नहीं थी लेकिन ओके जैसा आप चाहें!!
- बेशक मम्‍मी की बहुत चिंता है और जरूरत भी है फिर भी .. देखती हूं। आपके दोस्‍त की जरूरत पड़ी तो.. !!
- मेरी दुआ है!!
- थैंक्‍स वंस अगेन। बस घर का कुछ हो जाये तो चैन की बंसरी बजाऊं।
- हो जायेगा कुछ न कुछ!!
- पहली चिंता तो मम्‍मी की ही है।
- चलो, मैं डिनर के लिए चला। आओ आप भी!!
- थैंक्‍स आप लीजिये। मैं आनलाइन ही हूं।
- ओके बाद में बात करते हैं।
- श्‍योर वी विल कंटीन्‍यू।
….
..
Ø   

-    कैसी हैं निधि?
-  मैं ठीक हूं, आप कैसे हैं? फेसबुक खोलते ही हातिम ताई हाजिर। लगता है वाशरूम में भी एक डेस्‍क टाप रखा होगा इंटरनेट कनेक्‍शन के साथ। दिन रात का साथ। 
-    आपकी चिंता रहती है!!
-    सो नाइस ऑफ यू फार केयरिंग। आप एक बात बतायेंगे?
-    जरूर पूछिये!!
-    फेसबुक पर फ्रेंडशिप रिक्‍वेस्‍ट आपने भेजी थी या मैंने?
-  ये तो पता नहीं जी लेकिन संजोगों की बात है, इतने दिन से अच्‍छी ही निभ रही है। वैसे आपके मन में ये सवाल क्‍यों आया?
- मैं वैसे ही सोच रही थी कि आज के जमाने में भी आप जैसे लोग होते हैं जो बिना जान पहचान के भी इतना करते हैं, केयर करते हैं, मदद भरा हाथ बढ़ाते हैं।
- हाहाहाहा!!
- अब आप क्‍यूं हँसे?
- अरे निधि डीयर, शुक्रगुजार तो मुझे तेरा होना चाहिये। तुमसे फ्रेंडिशप के बाद बहुत अच्‍छा लगने लगा है। हर बार लगता है कि कोई अपना सा है जिससे मुझे कुछ पूछना है बताना है, कोई है जिसे मेरी मदद की जरूरत है और जो मुझ पर भरोसा करती है। बेशक मैं तुमसे उम्र में तीन गुना बड़ा हूं, मेरे लिये ये क्‍या कम है कि तुम देर रात तक मुझसे बात करती हो। अपना कीमती टाइम देती हो और सबसे बड़ी बात मुझ पर भरोसा करती हो।
- हममम।
- अब ये तुम पर है निधि कि इस बूढ़े आदमी के साथ कब तक दोस्‍ती निभाती हो! हाहाहाहा।
- श्‍योर डीयर, मेरी तरफ से कभी नहीं टूटेगी। तो जनाब जनम जनम का साथ निभाने की बात पर बस, आने ही वाले हैं।
-  सच!!
-  जी, सच और सच के सिवा कुछ नहीं।
-  निधि, होता है ऐसा कि इस उम्र तक आते आते हम अपने आपको कई बार अपने ही घर में, सोसाइटी में और दोस्‍तों में इग्‍नोर महसूस करने लगते हैं। बहुत तकलीफदेह होता है ये। ऐसे में फेसबुक हमारे लिए एक वरदान की तरह आया है जहां तुम जैसे प्‍यारे लोग हमारी केयर करते हैं।
- आप तो सेंटी हो गये डीयर। ऐसा कुछ नहीं हैं। सारे रिश्‍ते म्‍युचुअल अंडरस्‍टैंडिंग पर टिके होते हैं। अब आपने मुझे खोजा या मैंने आपको खोजा ये मायने नहीं रखता। बात सिर्फ इतनी सी है कि जब तक निभे शानदार निभे।
- सो नाइस ऑफ यू निधि!!
- वैसे भी आपकी उम्र ज्‍यादा है या कम है इससे हमें क्‍या!! हमें कौन सा मैराथन में दौड़ लगानी है आपस में।
- हाहाहाहा!!
इस बार मैंने उन्‍हें आइसक्रीम के कप की इमेज भेजी है।
-    ये क्‍या है?
- मेरी तरफ से दोस्‍ती के नये मतलब समझाने के लिए मेरी तरफ से आइसक्रीम पार्टी।
- वाह जी बल्‍ले बल्‍ले। आइसक्रीम तो ले ली लेकिन आप मुझे अपनी एक फोटो भेजने वाली थीं?
- फोटो किसलिये?
- अपनी मित्र को देखना है!
- हां कहा तो था लेकिन फेसबुक पर कितनी सारी हैं।
- नहीं आपकी एक एक्‍सक्‍लूसिव फोटो।
- आपको इंतजार करना पड़ेगा।
- क्‍यों?
- अरे बाबा मैं ड्रेस चेंज करके अपनी फोटो खींचूंगी, डाउन लोड करूंगी, फिर अपलोड करूंगी। इस सबमें टाइम तो लगेगा ना!!
- ओह समझा। आइ विल वेट!!
- ओके।
..
..
Ø   
-    कैसी हैं निधि जी?
-    मैं बढ़िया। आप बतायें!
-    भई मेरा तो हाल बेहाल है!
-    ऐसा क्‍या हो गया जी?
-    रात तीन बजे तक तो जाग रहा था। बाद में पता नहीं कब नींद आयी होगी!
-    अरे 11.30 तक तो मुझसे बात की आपने?
-    हां, उसके बाद सोया कई बार लेकिन नींद नहीं आयी तो नहीं ही आयी।
-    क्‍या करते रहे इतनी देर तक?
-    देर रात को करने लायक क्‍या होता है? आप ही बतायें!
-    मैं क्‍या बताऊं! हो सकता है आदमियों के पास कुछ खास होता हो करने के लिए!
-    ऐसा कुछ नहीं होता, बस, रात तो खराब होती ही है, अगला दिन भी बेकार जाता है।
-    तो कितने बजे सोये?
-    पता नहीं, आखिरी बार साढ़े तीन बजे घड़ी देखी थी।
-    मुझे तो तभी नींद आ गयी थी जब आपको गुड नाइट कहा था।
-    आप फोटो भेजने वाली थीं?
-    अरे हां!!
-    रुकें!
-    जी!
..
-    इतनी देर से भेजी, लेकिन अच्‍छी है।
-    सर, अभी क्‍लिक की, डाइनलोड की, अपलोड की। इतना टाइम तो लगता ही है!
-    अच्‍छी है, आपने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई। घर पर हैं क्‍या?
-    जी जनाब तभी तो फोटो खींची।
-    ओह!
-    और बतायें।
-    क्‍या?
-    अपने प्रेम संबंधों के बारे में।
-  उम्र बीत गयी अब तो उन गलियों से गुजरे हुए। ऐसी बातें तो आपको बतानी चाहिये। हमें भी पता चले कि हमारी दोस्‍त के कितने फ्रेंड हैं?
- कभी था एक। अभी कोई नहीं।
- सो सैड!
- हमम आपने छोड़ा?
- जी!
- उसने कुछ किया था इसलिए छोड़ा या उसने कुछ नहीं किया था इसलिए छोड़ा? हाहाहा।
- नाइस। कुछ किया तो नहीं था लेकिन छोड़ने का यही कारण नहीं था।
- जाने दो। ये बेहद पर्सनल मामला है। कुछ और बात करें।
- जी!
- जानता हूं कुछ यादों को भुलाना ही बेहतर होता है।
- एक बात कहूं आपके बाल बहुत लम्‍बे और सुंदर हैं। जानता हूं निधि इस तरह की बचकानी बातें करने की मेरी उम्र नहीं रही।
- लेकिन ये बचकानी बात तो नहीं। आप तारीफ ही तो कर रहे हैं।
- अरे भई, मुझे अपनी सीमा जाननी चाहिये। मैं 63 पार कर चुका और दो दिन बाद तुम्‍हारा 24वां जनमदिन है।
- अरे आपको याद है?
- अभी से बधाई लें।
- क्‍या करूं बधाई ले कर जबकि जानती हूं कि जो आज है वही परसों रहने वाला है। कहीं कोई लाटरी नहीं लगेगी दो दिन में।
- मैं तुम्‍हारे साथ आजकल इतना समय गुजारता हूं। आपको तो अपनी हमउम्र कंपनी में होना चाहिये।
- हां होना तो चाहिये पर नहीं हूं। वैसे आप इतना क्‍यों सोच रहे हैं?
- होता है कई बार।
- कैसे?
- कि आपको कुछ देर के लिए अपनी पसंद का हमउम्र पार्टनर नहीं मिलता।
- हमम
- लेकिन जब ऐसा दोस्‍त मिलता है तो वह भरपूर प्‍यार देता है। देखना आपके साथ भी ऐसा ही होगा।
- हमम
- जो आपको समझेगा, प्‍यार करेगा, आपकी सुनेगा, आपसे शेयर करेगा और ..।
- फिलहाल तो जो भी मिलता है बस, एक ही बात चाहता है। आप समझ रहे हैं ना?
- जी समझ रहा हूं।
- और वही बात मुझे पसंद नहीं आती।
- आप संस्‍कार वाली हैं कैसे पसंद आयेंगे ऐसे लड़के!
- जी, बेशक अकेली हूं, कोई नहीं है आसपास लेकिन कोई गलत भी नहीं है मेरी जिंदगी में।
- जी।
- और आप हैं ना हमारे दोस्‍त।
- बेशक, आधी रात को भी हुकम करेंगे हाजिर हो जायेंगे।
- हाहाहाहा क्‍या कहा?
- ओह, रात में नहीं, गलत कह गया किसी लड़की के घर रात को नहीं.. हहाहाहा।
- हाहाहाहा ओके दिन में कभी।
- ओके ओके, निधि एक बात बताओ।
- जी?
- तुम्‍हारा सपना क्‍या है?
- एक गरीब लड़की का सपना क्‍या हो सकता है! एक अदद अमीर लड़का!!
- वाह जरूर मिलेगा। और?
- और क्‍या। बस, यही इकलौता सपना।
- आपका ये इकलौता सपना ज़रूर पूरा होगा और शानदार तरीके से होगा।
- थैंक्‍स जी
- जरा बाहर तक जा रहा हूं। थोड़ी देर में मिलता हूं।
- जी मैं वेट करूंगी।
- हेहेहेहे वेटिंग हाहाहा।
...
...
Ø   
- कैसे हैं आप?
- मैं ठीक आप?
- बस ठीक हूं, कुछ नहीं बस लेटी हूं।
- आज का शेड्यूल?
- कुछ नहीं।
- घर पर ही?
- जी और आप?
- मेरा भी होम स्‍वीट होम। 
- गुड।
- मॉम कैसी हैं?    
- आराम है अभी। सोयी हैं।
- अच्‍छा लगा जान कर।
..
..
..
- आज चुप क्‍यों हैं आप?
- ऐसा कुछ नहीं। बात करो आप।
- दिन कैसा रहा?
- बेकार।
- ऐसा क्‍यों ?
- क्‍या बताऊं यार आपको? 
- जानता हूं निधि लेकिन..बेशक मैं मदद भी करना चाहता हूं ..।
- रेंट की प्राब्‍लम है यार। आज फिर दो बार धमकी दे गया है मकान मालिक।
- ओह।
- आप जानते ही हैं कि मम्‍मी बीमार, मेरा जॉब गया, ऊपर से ये रेंट सिर पर ..।
- मम्‍मी की बीमारी इन सारी बातों से और बढ़ रही है।
- मैं तुम्‍हारे लिए बैंक लोन का इंतजाम करवा सकता हूं।
- लेकिन डीयर यहां जमानत पर देने के लिए चार बरतन भी नहीं है। घर का कुछ पुराना सामान और ले दे कर पुराने दिनों की निशानी ये मोबाइल, बस यही है।
- चाहो तो मुझे इस नम्‍बर पर कॉल कर सकती हो।    
- नोट कर लिया है। कल करूंगी फोन आपको। थैंक्‍स अगेन
- समझ सकता हूं तुम्‍हारी तकलीफ। मां बीमार और हाथ में कुछ नहीं। चलो एक छोटी सी स्‍माइल शेयर करो।
- स्‍माइल।
- सब ठीक हो जायेगा।
- आपने खाना खाया?
- अभी खाऊंगा और तुमने?
- मन नहीं है।
- ऐसा न कहो। खाने से क्‍या दुश्‍मनी?    
- यार ऐसी टेंशन में कहां भूख लगती है?
- धीरज धरो। रास्‍ता मिलेगा।
- पता है मुझे।
- मेरी दोस्त हो ना?
- पूछने की बात है क्‍या
- तो थोड़ा सा खा लो?
- सच में यार भूख नहीं है।
- मेरा कहा मानो और बताओ कि खा लिया।
- नहीं हो पायेगा।   
- ठीक है, मैं तुम्‍हारे खाने के बाद ही खाऊंगा।
- प्‍लीज यार आप खा लो।
- नो हनी।
- मुझसे नहीं खाया जा रहा।
- मेरी दोस्‍त भूखी रहे तो भला मैं कैसे खा सकता हूं?
- प्‍लीज आप खा लो।
- नहीं।
- मेरे लिए प्‍लीज।
- नहीं।
- यार मुझसे नहीं खाया जा रहा।
- तुम..।
- सच्‍ची आप खा लो, मुझे लगेगा मैंने भी खा लिया है।
- मैं सोने जा रहा हूं।
- क्‍यों?
- तुम भूखी सो सकती हो तो मैं भी।
- मेरी प्राब्‍लम है यार।
- क्‍या?
- खाना बनाया नहीं। घर में कुछ खाने को ही नहीं है।
- ओह माय गॉड, फिर?    
- फिर क्‍या?
- मॉम कैसे रहेंगी? अब तक क्‍या कर रही थी? कोई रिश्‍तेदार जानकार?
- कोई नहीं है यहां।
- तो जहां जॉब करती थी?
- वह भी कितना देगा? जब जॉब ही नहीं रहा?
- कोई अड़ोसी पड़ोसी?
- कोई नहीं देता पैसे।
- फिर?
- बस, सुबह ही खाया था, ब्रेड चाय।
- ओह!!
- क्‍या करूं समझ नहीं आ रहा!!
- घर का कोई पुराना सामान बेच कर?
- क्‍या बेचें? बस घर में जरूरत का ही सामान है। कोई गोल्‍ड भी नहीं है।
- मम्‍मी भूखी सोयी हैं क्‍या?
- हमम।
- सो सैड। दिन में बताया होता तो। इस समय रात के साढ़े ग्‍यारह बज रहे हैं  ..ब्रेड वगैरह?
- सुबह लायी थी। अब तो घर में सिर्फ 25 रुपये हैं। कहीं जाना पड़ गया तो।
- ओह।
- सोच रहा हूं। .. तुम्‍हारा एकांउट है क्‍या?
- हां है।
- एकांउट की डिटेल्‍स दो। मैं कुछ पैसे ट्रांसफर करता हूं।
- ओके वेट। चेक बुक ढूंढती हूं।
..
- ये रही डिटेल्‍स।
- खाता तुम्‍हारे ही नाम पर है ना?
- जी।
- एटीएम कार्ड है?
- जी है।
- अभी तुम्‍हारा नाम एकाउंट फंड ट्रांसफर के लिए रजिस्‍टर कर रहा हूं। सुबह बैंक खुलने पर कुछ रकम भेजता हूं। अपना मोबाइल नम्‍बर दे दो। इन केस जरूरत पड़े तो..।
- नोट कीजिये और आप अपना नम्‍बर दोबारा दे दीजिये। पहले सेव नहीं कर पायी थी।
- अभी फोन करूं क्‍या?
- नहीं मम्‍मी पास में सो रही हैं। कल सुबह मैं ही आपको फोन करूंगी।
- ओके।
- आप फोन पर बात करने के बाद ही एकाउंट में पैसे डालना।
- सो सैड यार, पहले बताना चाहिये था ना।
- क्‍या बताती यार?
- अब मैं क्‍या बोलूं?
- आपने मजबूर किया इसलिए बताया।
- हद है, तुम्‍हारा कोई सगा, कोई अपना, कोई दोस्‍त, कोई सहेली?
- अब क्‍या कहें जनाब ये दुनिया है ...।
- इतना बड़ा दर्द सीने में छुपाये..।
- क्‍या करती यार? हमें यहां शिफ्ट हुए ज्‍यादा अरसा नहीं हुआ। इसलिए आसपास या दूर दूर तक कोई नहीं।
- पहले कहां थे?
- लम्‍बी कहानी है। बाद में आराम से बताऊंगी।
- अरे फेसबुक बता रहा है कि तुम्‍हारा बर्थ डे आ गया है। मेनी हैप्‍पी रिटर्नंस आफ द डे।
- थैंक्‍स। जनम दिन भी आया तो कैसा?
- हममम।
- सुबह पांच बजे मंदिर जाना है। अब सोना चाहूंगी। थैंक्‍स फार ऑल गुड थिंग्‍स डीयर।
- गुड नाइट।
- देखा, आपको चाकलेट भी वर्चुअल भेज रही हूं। असली चाकलेट खरीदने की हैसियत भी नहीं रही।
- आइ विश, सब जल्दी ही ठीक हो जायेगा।
- कल बात करते हैं।
- चलो आराम करो। बाय फार नाइट।
- ओके बाय गुड नाइट।
Ø   

- गुड मार्निंग जी।
- कैसी हो हैप्‍पी बर्थडे अगेन।
- थैंक्‍स अगेन।
- आपको 5000 रुपये ट्रांसफर कर दिये हैं। ए बर्थ डे गिफ्ट फ्राम एननोन फ्रेंड।
- सो नाइस ऑफ यू लेकिन आप अननोन कहां है। यू आर ए वेरी स्‍पेशल परसन फार मी। रीयली।
- अब जा के बैंक से पैसे निकालो। कुछ खाने का इंतजाम करो और रिलेक्‍स करो ..
- जी जरूर।
- अभी जाती हूं। जरा धूप कम हो जाये।
- निधि मैंने तुम पर भरोसा किया है। मेरा भरोसा मत तोड़ना।
- कैसी बात कर रहे हैं डीयर। आप ये सोच भी कैसे सकते हैं। आपने तो मुझे गुलाम बना लिया है अपना। वरना ...।
- अब मुझे पूरी बात बताओ।
- बात आपको सारी पता तो है।
- खुद बताओ अभी।
- जी मां बीमार, इलाज का जरिया नहीं। मकान मालिक आज फिर सुबह से दो बार चक्‍कर काट चुका। रसोई खाली पड़ी है और जॉब का कोई ठिकाना नहीं।
- हममम लेकिन ये सब हुआ कैसे? परिवार में और कौन हैं?
- मैं और मम्‍मी।
- और पापा?
- मम्‍मी पापा का तलाक हो गया है। उसी चक्‍कर में तो ये सब..।
- कारण?
- दूसरी औरत।
..
- कोई एलिमनी नहीं दी पापा ने। पता नहीं सब कैसे होता चला गया और हम बेघरबार हो गये।
..
- मां तलाक को सहन नहीं कर पायी। वैसे पहले भी बीमार थी लेकिन सारी बातों को दिल से लगा बैठी और ये हालत हो गयी है उसकी।
..
- अब सारा दिल कलपती रहती है और उस औरत को गालियां देती रहती है।
- अब क्‍या सोचा?
- मैं क्‍या सोचूं। कुछ समझ ही नहीं आता। एक दिन की बात हो तो कोई सामने भी आये।
..
- किसी से कहते भी शरम आती है।
- जॉब?
- जॉब मिले तो भी पहले ही दिन तो कोई सेलेरी नहीं दे देगा।
- आइ नो यू आर ऐ ब्रेव गर्ल।
- ब्रेव गर्ल तो ठीक जी लेकिन घर चलाने के लिए मेरी ब्रेवरी क्‍या करे।
- कोई ठीक ठाक जाब देखो शायद बात बने।
- बुलाया तो है एक ज्‍वेलरी शॉप ने शाम को।
- पढ़ाई कितनी की है?
- बी काम हूं।
- ओके तुम पैसे निकालो बैंक से तब तक मैं भी कुछ काम करूं। आज की पूरी सुबह तुम्‍हारे नाम हो गयी।
- जी जानती हूं। मैं जल्‍द फोन करती हूं। टेक केयर एंड लवली थैंक्‍स अगेन।
- ये क्‍या भेजा था? फेसबुक ने ब्‍लाक कर दिया है।
- अरे, दो स्‍वीट चेरीज़ भेजी थीं अपने स्‍वीट दोस्‍त के लिए।
- हाउ नाइस। लगता है अब खुश हो?
- बहुत मैं बता नहीं सकती।
- ओेके बाय।
- बाय।

Ø   

- क्‍या कर रहे हैं?
- बस बैठे हैं?
- किसके साथ?
- अकेले जी।
- हा हा हम तो सोने चले।
- पैसे निकाले क्‍या?
- नहीं जा पायी।
- आप तो कह रही थीं कि घर में पैसे नहीं हैं। मैंने भेजे तो निकालने की फुर्सत नहीं?
- तबीयत ठीक नहीं है मेरी। बिस्‍तर से उठा ही नहीं गया। नहीं जा पायी।
- अब क्‍या करेंगी! खाना खाया?
- जी
- मम्‍मी की दवा?
- लायी थी।
- आप फोन करने वाली थीं?
- नहीं कर पायी। तबीयत ..।
- ओके आराम करो।
Ø   

      तो जनाब, ये है किस्‍सा। तब से उनके लगातार संदेश और फोन आ रहे हैं। जब भी फेसबुक खोलती हूं, हर आधे घंटे में एक नया मैसेज और वही तीन सवाल नजर आते हैं। अब मैं ऑफ लाइन ही रहती हूं। पैसे निकाले क्‍या? खाना खाया? और मम्‍मी की दवा? मैंने भी बैठे बिठाये एक मुसीबत ले ली। न सच बोलते बनता है न झूठ को आगे बढ़ाते। मैं न उनसे चैट कर पाने की हिम्‍मत कर पा रही हूं न ही उनका फोन उठा पा रही हूं। बस, बीच में एक बार उनका फोन उठा लिया था। तब तक मैंने उनका नम्‍बर सेव नहीं किया था। मेरी आवाज सुनते ही नाराज होने लगे कि मैं उन्‍हें इतनी जल्‍दी भूल गयी। मेरे पास मां की बीमारी का स्‍थायी बहाना था ही। उन्‍हीं का रोना ले कर बैठ गयी। अब तो वे मेरे ईमेल पर भी मेल भेज रहे हैं। मैं कभी फोन खराब होने का बहाना बना रही हूं तो कभी मां की या अपनी तबीयत खराब होने का। बेशक उन्‍हें बता दिया है कि बैंक से पैसे निकाल लिये हैं और उन पैसों से मेरी बहुत मदद हो गयी है लेकिन अब उनसे पहले जैसी मजेदार चैट नहीं कर पा रही। हिम्‍मत ही नहीं होती। इस बीच तीन दिन के लिए सिंगापुर जाना पड़ गया तो उनसे क्‍या किसी से भी बात नहीं हो पायी।
आज इस बात को चार दिन बीत गये हैं। इस बीच उनके पचास मैसेज आ चुके। मैं समझ नहीं पा रही। क्‍या करूं कि खुद को भी कनविंस कर सकूं और उन्‍हें भी। अभी थोड़ी देर पहले ही देखा चैट बाक्‍स में उनका ये मैसेज था। भाषा से ये मैसेज कम आडिट आब्‍जेशन ज्‍यादा लग रहे थे।
-    निधि जी, मेरी तरफ से कुछ बातें- 1. अब आप फोन करने पर फोन नहीं उठाती। न कॉल बैक करती हैं। 2. मैंने इतने सारे मैसेज भेजे, किसी का जवाब नहीं।   3. ऑन लाइन नज़र आती हैं लेकिन बात नहीं करतीं। 4. लगता है अब आपकी या मम्‍मी की तबीयत ज्‍यादा खराब हो गयी है। 5. लगता है आपका फोन खराब हो गया है मिलता ही नहीं। 6. आखिरी बात- मैंने एक अनजान दोस्‍त की मदद की थी। बिना जाने कि वो सच कह रही है या नहीं। इससे फर्क नहीं पड़ता। ये मामूली एमाउंट तुम्‍हारे काम आया या नहीं, या तुम्‍हें इसकी जरूरत थी या नहीं, मुझे इसकी परवाह नहीं। मैं सच पर विश्‍वास करता हूं। सच पर विश्‍वास किया और सच पर विश्‍वास करता रहूंगा। कोई और भी मदद मांगेगा तो करता ही रहूंगा। बी हैप्‍पी। बाय फॉर एवर।

ऐसा नहीं है कि मैं इन 6 सवालों के या उनके जितने भी सवाल हैं, उनके जवाब नहीं दे सकती या नहीं देना चाहती। मैं मानती हूं कि वे मेरे लिए बेहद परेशान हैं। उनकी नीयत में तो कोई खोट नहीं था। मैं ही इतने दिन उनके सेंटीमेंट्स से खेलती रही और उन्‍हें भरमाती भटकाती रही। अब मैं उनके पांच हजार रुपये दाबे बैठी हूं और अब उनसे बात करना भी बंद कर दिया है।
दरअसल, बात दूसरी है। सच कहूं तो मुझे ही नहीं सूझ रहा कि अब मैं इस नाटक का क्‍या करूं। सच है कि मैं अब तक झूठ बोल कर उन्हें बेवकूफ बनाती रही। लेकिन ये बात उनसे कह नहीं सकती। वे ये सुन कर जीते जी ही मर जायेंगे। ये ऑप्‍शन बचा नहीं। अब कहने को यही बचता है कि फिलहाल उनके फोन पर एसएमएस भेजूं या चैट में ऑफलाइन मैसेज डालूं कि मां अस्‍पताल में भरती हैं और मैं वहीं उनके साथ हूं। बीच बीच में हाल चाल पूछने वाला एकाध मैसेज डालने के बारे में भी सोचा जा सकता है।   
हां, कुछ दिन बाद मैं उन्‍हें ये ऑफलाइन मैसेज देने की बात भी सोच रही हूं कि पापा ने मम्‍मी की हालत का पता चलने पर अच्‍छा खासा एमाउंट भेज दिया है। मम्‍मी अब ठीक हैं। मेरा जॉब भी लग गया है। हमने मकान बदल लिया है। अच्‍छे दिन बस आने ही वाले हैं।
याद आ रहा है कि एक बार चैट करते समय उन्‍होंने अपने घर का पता दिया था। उसे लोकेट कर लूंगी। सोच रही हूं कि सिंगापुर से लाये गिफ्ट्स में से एक अच्‍छा सा गिफ्ट, एक खूबसूरत थैंक्‍स कार्ड और पांच हजार रुपये का चैक उन्‍हें भेज दूंगी।  
अभी नहीं, दस पंद्रह दिन के बाद। ये तो तय है कि अब उस भले आदमी से कभी चैट नहीं हो पायेगी।
मैं मानती हूं कि खेल खेल में मैं एक बहुत ही बेहूदी हरकत कर चुकी हूं। अब भरपाई कर तो रही हूं।
आप क्‍या कहते हैं?


  


सूरज प्रकाश
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