Monday, May 4, 2020

पुस्तक समीक्षा : तमाम गुमी हुई चीजें 
लेखक : ब्रज श्रीवास्तव 
काव्य संग्रह 



ब्रज श्रीवास्तव 



कविता संग्रह के बारे में विदिशा के हरगोविंद मैथिल लिखते है .....
तमाम गुमी हुई चीजें
 ( मेरी नज़र में )

सितंबर 1966 को जिला विदिशा, तहसील कुरवाई के एक छोटे-से गांँव कांँकर में  जन्मे एवं विदिशा को अपनी कर्म-भूमि बनाने वाले तथा अपने स्वर्गीय पिता घनश्याम मुरारी "पुष्प"जी की काव्य परम्परा के कुशल वाहक सरल,सहज और सौम्य व्यक्तित्व के धनी ब्रज श्रीवास्तव का समकालीन कविता के क्षेत्र में एक बहुचर्चित, जाना-माना और स्थापित नाम है जो विदिशा ही नहीं अपितु देश के ख्यात नाम रचनाकारों में शुमार होता है और म.प्र.उच्च शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम में भी उल्लिखित है ।

हम अक्सर वाट्सअप समूह, अनेक पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में ब्रज जी की कविताएंँ और समसामयिक घटनाचक्र पर प्रकाशित लेख आदि पढ़ते रहते हैं ।
और वैसे भी ब्रज जी के तीन कविता संग्रह ( तमाम गुमी हुई चीजें -2003, घर के भीतर घर - 2013 और ऐसे दिन का इंतजार - 2016 ) प्रकाशित हो चुके हैं ।
किंतु फिलहाल अभी हम आपके प्रथम कविता संग्रह तमाम गुमी हुई चीजें - 2003  (जो म.प्र.साहित्य परिषद के सहयोग से रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा से प्रकाशित हुआ ) की चर्चा कर रहे हैं ।

ब्रज जी की कविताएंँ आज के दौर में लिखी जाने वाली कविताओं से सर्वथा भिन्न दिखाई पड़ती हैं ।
संकलन की सभी कविताएंँ कवि मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति और संवेदनशीलता की अनुगूंँज है । जिनमें हमारे आसपास के परिवेश से जुड़ी उन छोटी-छोटी बातों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है, जिन्हें एक सामान्य व्यक्ति द्वारा अक्सर नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है ।

इस क्रम में यदि इस संग्रह की कुछ कविताओं को देखा जाए तो जैसे
 " इस दुनिया में, किसी के कहने से , उसने दी थी छांँव , इस गांँव में , कविता की लालटेन , दिल्ली जाते हुए , सिर्फ़ एक आदमी , दुनिया और दिनचर्या , अकेलापन , सपनों के बल पर और यह जगह आदि के विषयों के अलावा भी ऐसी कई कविताओं के विषय हैं,जिनके विषय में कहा जा सकता है कि कवि की सूक्ष्म व पैनी दृष्टि से वह अछूते नहीं हैं ।
इसके लिए कविता "अकेलापन " का यह अंश देखिए -
दीवार पर लगे चित्र 
जीवंत होने लगते हैं 
दीवार घड़ी के पीछे से झांँकती छिपकली,
शिकार पर जाने को तैयार है ।

इसी प्रकार एक अन्य कविता " दीवार और छत " का अंश --
कितना कुछ रौंदकर बनी है छत और दीवार
हमें खुशी देने के यत्न में
बनी हुई है दोषी
हरियाली को नेस्तनाबूद करने के बाद ।

संग्रह में कुछ कविताएंँ जो परिवारजनों ,मांँ ,पत्नी और बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती हैं, जैसे-- मांँ के हृदय में , अपने आने का ऐलान , श्राद्ध , ठीक इसी वक्त ,मांँ बनने के बाद , यह सच है और सबसे मुश्किल काम आदि ।

इस पुरुष प्रधान समाज में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो अपनी संतान के रूप में पुत्र की लालसा न रखता हो और वह भी तब,जब उसके आंँगन में एक बिटिया की किलकारियांँ पहले से ही गूंँज रहीं हों और कवि मन की यह लालसा भी किसी से छुपी नहीं रह पाती जब
" यह सच है" में कवि द्वारा अपनी स्वीकारोक्ति दी जाती है

यह सच है ओ नवजात बिटिया
तुम्हारा न आना ही चाहा गया था

अपने भले से आगत के लिए हम चाहते थे
अपनी बड़ी बहन के आने के बाद
तुम न आओगी तो भला होगा
तुम्हारी जगह अगर वह आता

लेकिन ऐसा नहीं है कि कवि की अपनी वंश वृद्धि के हेतु पुत्र प्राप्ति की लालसा है अपितु वह तो वर्तमान में बेटियों पर हो रहे अनाचार,व्यभिचार और बर्बर अत्याचारों से व्यथित होकर अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित होते हुए कहता है

हमें अभी से चिंता है तुम्हें लेकर
जब तुम दसवीं कक्षा में पढ़ने जाओगी
या बाजार जाओगी गुलदस्ते का सामान खरीदने के लिए
तुम्हारी मांँ का चित्त भी घर में नहीं रहेगा

साथ ही कवि मन की इन सारी कुशंकाओं को धता बताते हुए एक जागरूक पिता की अहम् भूमिका निभाते हुए सच स्वीकार करने की आश्वति में कहता है

यह सोचते रहने पर भी तुम आईं
उस सच की तरह
जो समाज की सेहत के लिए आवश्यक होता है
स्वाद में मीठा न होते हुए भी

सारी आशंकाओं को दर-किनार करता हुआ
उमड़ रहा है प्यार तुम्हारे लिए
सारी आशंकाओं को बाहर धकेलते हुए
जीना चाहते हैं हम
हर पल बहुत अनुराग से
अपनी प्यारी बिटिया के साथ
( यह सच है कविता का एक अंश )

एक पिता अपने बच्चों की बाल-लीलायें तथा उनकी मंजुल मूर्ति सदैव अपने हृदय में संजोए रखता है और सोते-जागते, उठते-बैठते,हर-क्षण,हर-पल  अपनी कल्पना शक्ति के द्वार खोलकर मन के आंँगन में उनकी ही झांँकी सजाता रहता है। खासकर तब, जब वह उनसे कुछ समय के लिए दूर होते हैं ।
ऐसा ही एक कल्पना चित्र  कवि मन में भी साकार होता है जिसकी अनुभूति के लिए इस संकलन में सम्मिलित हम कविता "सबसे मुश्किल काम"  पर अपनी दृष्टि घुमाते हैं

घूम रही होगी प्रिया मस्ती से
अपने नाना के घर

प्रसन्न हो रहे होंगे सब
उसकी हरकतें देखकर

सबको प्रसन्न करते हुए
उसे बोध ही नहीं होगा कि

वह खेल-खेल में
संसार का सबसे मुश्किल काम कर रही है ।
( प्रिया कवि की बड़ी बिटिया है ।)

साथ ही
इचछाएंँ -- एक व
इच्छाएंँ -- दो में कवि का दार्शनिक रूप भी देखने को मिलता है
इच्छाएंँ - एक का ये अंश
समझौतों के इरादों को तोड़ने के लिए
विचलित करती आती हैं
बार-बार
चुनौतियों की शक्ल में

और इच्छाएंँ - दो में कहते हैं
इच्छाएंँ ढूंढ लेती हैं रास्ता
और पहुंँच जाती हैं गंतव्य तक

अपने उद्गम को नहीं भूलती वे
जुड़ी रहती हैं
प्रवाह के तार से

कवि का अपना देश-प्रेम अभिव्यक्त करने का अनोखा अंदाज है
जो एक ओर
भिखारियों, बच्चों, मजदूरों और शोषित नारियों की व्यथा से व्यथित जान पड़ता है तो वहीं दूसरी ओर
देश में बेरोजगारी की समस्या भी कवि मन की चिंता का कारण बनती है जो

"बच्चे और देश-प्रेम " कविता की इन पंक्तियों से
से अंदाजा लगाया जा सकता है

आजादी की तारीफ़ लिखते हुए
सामने आ जाते हैं
भिखारी,बच्चे, मजदूर और शोषित नारी

बेरोजगार चौथाई जनसंख्या की भीड़
पार करके नहीं पहुंँच पाता
विकास के बिंदु तक

वास्तव में ब्रज जी की कविताएंँ उस यथार्थ का उद्घोष हैं जो हमारी रोज-ब-रोज की ज़िन्दगी में शामिल है किंतु, हम उसे समझ नहीं पाते ।

ब्रज जी की कविताओं में वही यथार्थ इस तरह दर-परत-दर खुलकर हमारे सामने आता है कि एक चल-चित्र की भांँति घटित होता प्रतीत होता है ।
इसके अलावा समसामयिक घटनाचक्र तथा सर्वहारा वर्ग भी ब्रज जी की कविताई क्षेत्र की जद में उपस्थित पाया जाता है ।

इस प्रकार इस संकलन में चुनिंदा 70 कविताएंँ सम्मिलित हैं और इनके विषय में मेरा दावा है कि ये सभी रचनाएंँ बार-बार पढ़ने के लिए पाठक को बाध्य कर देंगी ।
ब्रज जी की कविताएंँ सरल भाषा में गहन अर्थ लिए हुए तथा सहज संप्रेषणीय हैं, जो पाठक से रु-ब-रू होकर संवाद करती हैं ।

वैसे भी कविता और पाठक के बीच एक अनोखा रिश्ता होता है जो पाठक की अर्थ सीमाओं के भीतर अपने सूक्ष्म निजी अर्थ बनाते हुए कवि की कल्पनाशीलता के अथाह सागर में अपना किनारा खोजता नज़र आता है ।

प्रसिद्ध साहित्यकार सुजीत के. वर्मा पटना के अनुसार-- ब्रज श्रीवास्तव की कविताएंँ सूक्ष्म संवेदना की कविताएंँ हैं और गहन मन के अदृश्य परतों को स्पर्श करती हैं ।


शुभकामनाओं सहित
हरगोविन्द मैथिल
विदिशा ( म. प्र.)






शिरीन भावसार इंदौर (मप्र) लिखती है कविता संग्रह पर 

    कवि बृज श्रीवास्तव जी समकालीन हिन्दी कविता में एक जाने माने नाम है .इनके 3 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके है साथ ही हिंदी की कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में इनकी कविताएँ एवं समीक्षाएं निरंतर स्थान पाती  रही है

तीन कविता संग्रह में पहला कविता संग्रह तमाम गुम हुई चीज़े (2003 में), घर के भीतर घर (2013 में) तथा ऐसे दिन का इंतज़ार ( 2016) प्रकाशित हो चुका है.

आज मैं बात करूंगी बृज जी के पहले कविता संग्रह
तमाम गुम हुई चीज़े पर जो रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा से 2003 में प्रकाशित हुआ है.इसमें विभिन्न विषयो को सहेजती कुल 70 कविताएँ हैं.साथ ही आलोक श्रीवास्तव जी द्वारा बनाया गया सुंदर आवरण और राजेश जोशी जी द्वारा लिखी भूमिका संग्रह के प्रति उत्सुकता जगाती है.

यह कविता संग्रह जैसा की नाम से ज़ाहिर हो रहा है जीवन से जुड़े उन तमाम सुखद या दुखद क्षण ,यादें, बातें ,जगहें जो पीछे छूट गई है या कहे अतीत के साथ धीरे धीरे गुम हो गई है उन सभी को समेंटने का कवि हृदय का भाविल प्रयास हैं.

संग्रह की पहली ही कविता मेरे पास हमारा कवि से परिचय करवा देती है वे कहते है...
     साँसों में घुले हुए
     कई विचार हैं मेरे पास
     एक एक कर
     कविता में ढलने को बेचैन


सदी के हर लम्हे में कविता से यह पंक्तियां देखिए
      सबने बचाया खुद को
      कविता  ने बचाकर रखा साहस
      सदी के हर लम्हे में
      कविता ने हिफाजत की प्यार की
      कविता ने नही खोने दिया सच
सच को बचाय रखने का साहस वाकई सिर्फ कविता में होता है जो विचारों का हाथ थामे सदियां पार लगा देती है.

इसी कड़ी में अन्य कविताएँ
इस दुनिया में 
किसी के कहने से
अपने आने का ऐलान 
यह सभी कविताएँ जीवन और जीवन में व्यक्ति के स्थान और उपस्थिति को सशक्तता से दर्शाती है.

कवि स्वयं को अपनी जड़ो से जुड़ा हुआ पाते है उन्हें गांव से बहुत स्नेह है इसमे अनेक कविताओं में गांव का वर्णन है.

उसने दी थी छांव कविता की यह पंक्तियां
      मैं इधर चढ़ रहा उम्र की सीढ़ियों पर
      उधर बूढ़ा होता जा रहा है घर हमारा गाँव में....
   
पीछे छूट चुके गाँव व घर से जुड़ी स्मृतियां साथ ही घर को सदा के लिए खो देने का दुःख समेटे यह कविता कितना कुछ अनकहा भी कह जाती है.
         
इच्छाएँ 1       
इच्छाएँ 2
इस गाँव में
गाँव की चिंताओं को याद करते हुए इसी कड़ी में अन्य कविताएँ भी है.

साथ ही कवि वर्तमान परिस्थितियों पर गम्भीरता से विचार करते है वे कहते है...
सिर्फ एक आदमी  कविता में
        एक आदमी खिन्न हो जाता है 
        उसकी आँखों के शब्द बदल जाते है
        मुमकिन है अब बहुत कुछ बदल जाए...

इम्तिहान होने वाला है कविता में
        बहुत भीतर तक मार डालने के लिए 
        निशाने पर हो सकते है आप भी...
     
साथ ही
दुनिया और दिनचर्या
अकेलापन
यह कविताएँ भी आज के सामाजिक परिवेश में हमारी स्थिति को बया करती है.

कहा गया है की प्रेम से कविता उपजती है..कुछ सुंदर ओर चिंतनशील कविताओं से भी रूबरू करवाते है कवि ...देखिए

अपने नाप की दुनियां से
चलना सिख रहा है
मेरा प्यार
तुम्हारे प्यार की 
अंगुली पकड़कर...

प्रेम की वज़ह से
 कभी ऐसा भी होता है
निर्दोष प्रेम की वज़ह से कि
घरों के बीच की दीवार के साथ ही
 खड़ी होने लगती है नफ़रत...

देश की स्थिति पर चिंतन करती कविताएँ विचारों को उद्वेलित करती है
पिछड़ने की जिद में देश
       कुंठा की दीमक लगी जवान हड्डियां
       घूम रही है सड़को पर आवारा
       बेकारी और कुंठा के
       बीजो वाले वर्तमान में
       भविष्य का खेत बोया जा रहा हैं
       दौड़ता ही जा रहा है देश
        पिछड़ने की जिद में

बच्चे और देशप्रेम
लोकतंत्र
जैसी कविताएँ देश  विभिन्न मुद्दों को उठती है कहती है शालीन शब्दो में इनको मैं कैसे बांधू.

माँ की विवशता और बच्ची के प्रति अपने स्नेह तथा  बढ़ती बच्ची के लिए अपनी खुशी और चिंता की भावनाओ से लजरेज़ कविताएँ ...
ठीक इसी वक्त
जिनमे बच्ची के जन्मने पर कविता न लिखकर उसकी बाल सुलभ क्रियाकलापों को आत्मसात करने की महत्ता बताई गई

सब से मुश्किल काम
नन्ही बच्ची का निश्चिंत होकर घूमने खेलने को लेकर रची गई कविता ...सचमुच जो आज के समय में मुश्किल काम है

     यह सच है
     सफ़र पर जाते हुए भूलोगी तो नही 
     की तुम लड़की हो
     होश की बारीक़ डोर पर चलकर 
     बड़ा होना होगा तुम्हे
   
 यह पंक्तियाँ सीधे हृदय में उतर जाती है और जो स्त्री के पूरे जीवन का दृश्य खींच देती है ...चाहे स्त्री उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो उसे होश की बारीक डोर पर ही चलना होता है.

कुछ कविताएँ बिल्कुल हठ कर लगी जिनमे से
छोटे झगड़े की यह पंक्ति देखिए
     छोटे झगड़ो को मार डालने के ही उपक्रम में
     बड़े झगड़े होते है ...
बेहद सत्य ओर सटीक बात कही गई छोटी छोटी बातें जब मन में घर कर लेती हैं तो बड़े कलह की वज़ह बन जाती हैं.

दीवार और छत
कलम के सहारे
मैंने चाहा की
कामकाजी लड़की
चार पांच लोग
और अंत में
इतिहास की आँखों से
इन सभी कविताओं के माध्यम से कवि हमारी उंगली थामे हमे जाने किन किन भावनाओ के गलियारों में घूमा लाते है.

इस पूरे संग्रह को पढ़ने पर हम पाते हैं की कविताओ का भाषाशिल्प बहुत ही सहज और सरल हैं कही भी बिम्बों की या अतिकथन की व्यग्रता नज़र नही आती जो पाठक को बेहद सहज बनाए रखी है  कविताओ के भाव और लय दृष्य निर्मित करते है जिसके साथ पाठक  बंधकर भावनाओं और विचारों के समंदर में गोते लगाता स्वयं को इन कविताओं का ही हिस्सा महसूस करता है. यही इस संग्रह का मजबूत पक्ष है.
प्रथम संग्रह की दृष्टि से यह बहुत ही बढिया संग्रह बन पड़ा है .

बधाई बृज जी शेष दो संग्रह भी पढ़ने की बेहद उत्सुकता है. 🙏









‘इतिहास की आँखों से टपकी कविताओं का अर्थ’ 
कुमार सुरेश लिखते है संग्रह के बारे में 

ब्रज के भीतर का जो बेचैन कवि है वो चीजों को समझना चाहता है । जो उसके भीतर भावनाओं का ज्वार है उसे प्रकट करना चाहता है । लेकिन संसार की सारी भाषाएँ भावनाओं को व्यक्त करने में अपंग होती है । सत्य जो है वो कभी कहा नहीं जाता । उसे कहने का प्रयास ही किया जा सकता है । उसका इशारा ही किया जा सकता है । ब्रज अपनी कविताआंे के माध्यम से वो इशारा करते हैं । वो अपनी बात कहने के लिये बहुत ज्यादा शब्दों और प्रतीकों का सहारा नहीं लेेते। यह एक कवि की विनम्रता है कि वो अपनी सीमाएँ जानता है । वो अपने पाठकों की सीमाएँ भी जानता है। वो शब्दों की सीमाएँ भी जानता है । इसीलिये वो कविता रचता है । जो सीमाएँ नहीं जानते वो अपनी बात कविता में नही कहते। वो बात को लंबा करके उदाहरणों और शब्द सत्ता के माध्यम से पहुँचाना चाहते हैं। लेकिन इस के पास शब्दों की शीलसत्ता है । थोडे़ कहे से ज्यादा समझने का झीना सा आग्रह है । इस जानिब ब्रज के पास कविता एक पवित्र वस्तु की भाँति है । जो बड़बोलेपन,नारों,आक्रामक शब्दों से यथासंभव परहेज करती है। जो दर्शन का सहारा बालसुलभ सहजता से लेती है और और इसीसे उसका कविता होना बना रहता है ।
एक जागरूक अध्येता धरती आकाश और ग्रह नक्षत्रों में मौजूद संतुलन को जानता है लेकिन जैसे ही वो इसकी छाया माता के हृदय में ढूंढ लेता है वैसे ही वो कवि हो जाता है और उसका कथन एक कविता बन जाता है ।

ये ब्रज का पहला कविता संकलन है । यह देखने में आता है कि पहले संकलन में कवि अक्सर अपने अपनी मूल अभिव्यक्ति को लेकर आता तो है लेकिन वो समकालीन छप रही कविताओं के दवाब मंे भी रहता है । ये दवाब उसकी कविता में हस्तक्षेप करता है । इस पहले संग्रह में इस तरह की कविताएँ है जो उस वक्त फौरी तौर पर ध्यान खीचतीं थी लेकिन उनकी कोई स्थायी जगह बनना मुश्किल था जैसे - कविता की महत्ता को बताने वाली कविताएँ ‘सदी के हर लम्हे में’,‘कविता की लालटेन’ आदि। अगले संग्रहों तक आते आते कवि अपना मूल स्वर पा लेता है। उसमें वो कहने का साहस आ जाता है जो कोई और नहीं कह रहा ।

जहाँ ब्रज की मूल कविता का अपना मूल स्वर बोलता है वहाँ एक जादूगरी प्रकट होती है । ब्रज जब मानवीय रिश्तों की कोमलता कविता में गढ़ते हैं तब ये कमाल होता है । कुछेक कविताएँ हैं जो भीतर तक उतर जाती हैं जैसे श्राद्ध,ठीक इसी वक्त,सबसे मुश्किल काम,मृत्यु। एक संवेदनशील मनुष्य दूसरे जरूरी काम टाल सकता है लेकिन एक बच्ची की मौजूदगी को पढ़ना नहीं टाल सकता।

ये संकोची कवि प्रेम में भी अपनी भावनाएँ व्यक्त करने में ज्यादा मुखर नहीं होना चाहता । जाहिर है प्रेम केा भी बयाँ करने में इसे संकोच सा कुछ रहता है।  इसलिये प्रेम कविताएँ जैसे- ‘इसलिये’,‘पदचाप’,‘प्रेयसी की याद,’ आदि प्रेयसी की याद की ही कविताएँ हैं । ये विसाल की कविताएँ नहीं है ये आरजू की कविताएँ हैं। वैसे भी जैसा आगे अभिव्यक्त होता है अकेलापन कवि के लिये चीजों को जिंदा करने का माध्यम बन जाता है ।

अनेक कविताओं में कवि भारतीय मनीषा के नजदीक है और जहाँ कवि के लिये न्यूनता का अभाव है । कवि पूर्णता का प्रशंसक हैं जैसे-‘इस दुनिया में’ इस कविता में कवि दुनिया में दुखी होने के लिये कारणों की न्यूनता की बात कहता है । लेकिन जब कवि की दृष्टि दर्शन से विरत होकर दुनियावी बातों पर जाती है तब उसे बेराजगारों का दुख भी दिखता है और लोकतंत्र की विसंगतियाँ भी।

किसी कवि के पहले संग्रह पर चर्चा तब करना जब कवि परिपक्व होकर काफी ऊँचाई पा चुका हो बहुत जोखिम का काम हैं । पहले संग्रह के नये कवि की तरह आज समीक्षा करना वर्तमान से असंगत हो जाएगा । आज के कवि की बनक देख कर पहले संग्रह की कविताओं पर टीप करना समीक्षक नैतिकता पर प्रश्न  होगा ।
लेकिन इतिहास की आंखों से टपकी इन कविताओें का अर्थ यही है कि कवि एक बेहतर इंसान बनने की
जद्दोजहद में हैं और सतत एक बेहतर दुनिया बनाने की वकालत करता जाएगा ।

ब्रज भाई को शुभकामनाएँ।😊





प्यार की दुनिया में ये पहला क़दम
दिनेश मिश्र ,विदिशा ,लिखते है संग्रह पर 

ब्रज के इस पहले कविता संग्रह को मैं प्यार की दुनिया में पहला क़दम ही मानता हूं. इसमें कहीं कच्चापन नहीं है,ये कदम है इस दुनिया को लेकर अपनी नाइत्तिफ़ाकियों और नाराज़ियों को कविता के ज़रिए ज़ाहिर करने का.जो उन्होंने बख़ूबी किया है.

ब्रज सुबह से शाम तक और रात से लेकर अगली सुबह तक बहुत से काम करते हैं,पर इस पूरे वक़्त कविता उनके दिलोदिमाग़ में कौंधती रहती है,ये कौंध उनकी सेहत को लेकर फिक्रमंद तो करती है पर उनके कविकर्म को लेकर आल्हादित भी.

तमाम गुमी हुई चीज़ों का आवरण पृष्ठ संकलन में संकलित कविताओं की मंशा को ज़ाहिर करता सा लगता है.बच्चे की मासूमियत से भरपूर सवालिया आँखे दो अंगूठियां वक़्त बताती घड़ी और झुमकेनुमा दो बिल्ले जिन्हें इन्तज़ार है किसी के सीने पर सजने का.

कविताओं में जो सतही तौर पर लिखा हुआ है उससे कहीं अधिक अनकहा भी है जो वहां बोल उठता है जहां ब्रज खामोश हो जाते हैं.

मेरे पास कविता ब्रज की उस तमाम दौलत को ज़ाहिर कर रही है जो उनकी सांसों में घुली है विचारों की शक़्ल में एक बिखराव के रूप में जो उनके लेखन के पीछे की बेचैनी को ज़ाहिर करती है. कविता की क्षमताओं और ताक़त को देख पाते हैं हम सदी के हर लम्हे में.किसी के कहने से रचना कविताओं के दीर्घायु होने की दुआ करती सी लगती है, क्योंकि जब कुछ नहीं होता तब एकमात्र यही उम्मीद बंधाती है

इस गांव में का अमरलाल जब ये कहता है कि कुछ नहीं बदला इस दुनिया में तो एक सवाल सा करता लगता है. श्राद्ध संवेदनशील रचना है.दिल्ली जाते हुए उनकी व्यापक दृष्टि की और इंगित करती है.वे सबकी यात्राओं के लिए फिक्रमन्द लगते हैं.

बच्चे और देशप्रेम में बिटिया के लिए गणतंत्र दिवस पर निबंध लिखने में उनकी बैचैनी आड़े आ जाती है.ऐसे ही मोड़ कवि को कवि साबित करते हैं.

ये सच है बिटिया का बड़ा होना पिता की सबसे बड़ी फ़िक़्र है, पिता की कविता और बैचैनी उसके साथ साथ घूमती है..उफ़ ये अहसास कितना तोड़ता है पिता को.

अंत में यही कहूँगा कि फ़िक़्रों का दस्तावेज़ है तमाम गुमी हुई चीज़ें. कुछ कुछ ज़ाहिर कुछ कुछ निहां. पर कविताओं में कुछ नहीं छुप पाता उनकी भरपूर चुगली करती हैं वे.कई बार लेता हूँ उन से तो वे मना लेते हैं, कभी ये काम मैं भी करता हूँ..शायद दुनिया और दिनचर्या यही है.

हमारी शुभकामनाएं...😊









ज्योति गजभिये ,नासिक से लिखती है संग्रह पर  

ब्रज जी, आपकी कविताओं की किताब "तमाम गुमी हुई चीजें" की फाइल प्राप्त हुई | इन कविताओं में एक विशेष बात यह है कि जीवन से विलुप्त होते जा रहे मूल्यों को बड़ी ही सादगी से वापिस शामिल करने की बात की है | कई बार जोर से शोर-शराबे में की बात लोगों को समझ नहीं आती पर धैर्य और विश्वास से की बातें कहीं न कहीं असर करती हैं | प्रकृति ने हमें जो कुछ दिया है वह अमूल्य है और उसकी कद्र होनी चाहिए | "देशप्रेम" और "लोकतंत्र" जैसी कविताएं राजनैतिक व्यवस्था से सौम्य सा विरोध करती हैं | बेटी पर लिखी कविता यह दर्शाती हैं कि असुरक्षित वातावरण के होते हुए भी बेटियाँ जन्म लेती हैं और हम उनके सुखद भविष्य की कल्पना करते हैं | समाज में दूसरी बेटी के जन्म पर जो नकारात्मकता प्रगट की जाती है वह गलत है |
कुछ दृश्य और कुछ अदृश्य वस्तुएँ निरंतर विलुप्त हो रही हैं | कवि की लेखनी इन पर दृष्टिपात कर इन वस्तुओं की आवश्यकता को समझाती हैं |
कवि के रूप में ब्रज श्रीवास्तव जी ने अपने आप का हिंदी साहित्य जगत में एक स्थान बनाया है | उनकी कविताएं सरल,सुबोध और
समाज को दिशा दिखाने वाली हैं |





आनंद सौरभ ,विदिशा से लिखते है संग्रह पर

आप ऐसे साहित्यकार हैं जिसकी रचनाएं पाठक से सीधा संवाद करती हैं
सामाजिक यथार्थ के विभिन्न परतों को आप स्वाभाविक रूप से खोलना जानते हैं.

आपकी भाषा में एक ऐसा सादापन है जिससे कविता स्वत: ही पानी की तरह बहने लगती है


आंखों में
एक भूलता सा सपना लिए
मेरा दौड़ना जारी है
***""""

सामाजिक और राजनीतिक पर्यावरण के प्रति आक्रोष व कटाक्ष
यह दुर्लभ योग आपकी कविता में देखने को मिलता है जो आपके साहित्य रचना को जीवंत बना देता है.

किसी के कहने से कब होती हैं
 चीजें अच्छी या बुरी


एक शरीर है
 मेरे पास
 उम्र के ढेर पर बैठा है..

कविता में आप कई बार बिंबात्मक भाषा के जरिए अनुभव का एक संसार रचते हैं
जो आपको एक महीन कवि बनाता है

प्यासी धरती की आह
निकलने से पहले ही
आसमान छलका देता है
बदली भर पानी

आप की कविताई स्पष्ट है
आप कविता का विषय अपने आसपास से चुनकर उन्हें यथार्थ के पटल पर रचते हैं.

छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से बड़ी बात करने का माद्दा आप रखते हैं





मुस्तफ़ा  खान , भोपाल से संग्रह पर लिखते है

मुझसे ही मांगा गया 
मेरे होने का सुबूत
मुझपर ही हँसे सब लोग
अपने नाप की दुनिया
रच रहे हैं इरादे..

ब्रज श्रीवास्तव का कविता संग्रह तमाम गुमी हुई चीज़ें

 थोड़े में बहुत कह जाने की विशिष्टता का गुण लिए सरल भाषा,कथ्य,शिल्प,एवं भावपूर्ण बिंब में महीन संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले कवि के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर,अपने आसपास से लेकर सुदूर की चीज़ों को निकट महसूस कर पाठकों के समक्ष रखते हैं,ब्रज। बेचैनियां हर कवि,लेखक के अंतर्मन में उमड़ती घुमड़ती हैं सो कवि धीर गंभीर हैं। आरंभ की कविता में
ही परिपक्वता दिखाई देती है -

एक शरीर है मेरे पास
उम्र के ढेर पर बैठा हुआ..
सांसों में घुले हुए
कई विचार हैं मेरे पास

मां के प्रति किस बेटे में सम्मान का भाव न होगा,किस बेटे को इस बात से इनकार होगा मां के विशाल व सहृदय के बारे में -

पूरी की पूरी सृष्टि
किल्लोल कर रही है 
मां के हृदय में..।

प्रत्येक व्यक्ति उम्मीदों की रोशनी से आलोकित हो बुरे समय पर विजय पाता हुआ जीवित है-
बुरे वक़्त के कुएं से आदमी को
हर बार खींच लाई
रोशनी दिखाकर उम्मीद की..
कवि का मानना है किसी के कहने से कब होती हैं चीज़ें अच्छी या बुरी,चीज़ों को अपनी तरह से देखने का सबका अपना दृष्टिकोण होता है।जन्म लेने के साथ बच्चा अपने आने का खुद ऐलान करता है।दुनिया बड़ी है यहां कुछ अपने से गुस्सा होते हैं कुछ प्रसन्न।हर ओर निराशा नहीं साहस रहे,शरीर में बहुत से रोग घर किए हैं तो बहुत से परे भी हैं।दूसरों की अपेक्षा हमें स्वमूल्यांकन करना चाहिए।और प्रकृति का धन्यवाद करना चाहिए।
अपना घर,गांव-गैल किसे याद नहीं आता कवि भी इससे कैसे भूल जाए,दीगर जरूरतें सब पराया कर देती एकदिन।
एक कविता में कहा कि इच्छाएं उगती रहती हैं जैसे खेतों में खरपतवार,सिलसिला चलता है।अपनी चौपाल,पेड़,आंगन,पगडंडी सब याद रहता है जिन्हें देखकर आँखें बड़ी हुई,गांव के अमरलाल जैसे अपनत्व से भरे,अभावों में जीते लोग जो मामूली फीस लेकर बच्चों को
बालभारती की शिक्षा देते हैं।
 एक कविता श्राद्ध में रीति रिवाज की बात और दादी की याद बहुत मार्मिकता से की,श्राद्ध में सब आए/नहीं आई केवल दादी जिनका श्राद्ध है।हमारी आदिम आवश्यकता दो जून के लिए पलायन- सब अपने अपने कामों से दिल्लीजा रहे हैं/ट्रेन के पायदान पर खड़ा एक बेकार/पूछ रहा था लोगों से/फैक्ट्रियों के पते-ठिकाने..। जिसकी उम्र चढ़ी उसका इम्तिहान होने वाला है/आखिर मुकाबले तक/यानी जीने तक ।
 एक जीवंत दृश्य को इस सुंदरता से व्यक्त किया-

दीवार घड़ी के पीछे से/झांकती छिपकली /शिकार पर जाने तैयार है।
देश नहीं पसीजेगा/भले ही मैं घण्टों लगा रहूं /वोट देने और चावल लेने की लाइन में..।यह व्यवस्था पर करारी चोट है । कवि ने हर समय हर वय को शब्द देने का समुचित प्रयास किया जो उसकी सोच के बड़े फ़लक का वाइस है -

जागती चीज़ों ने देखा होगा तब
सोते में मुस्कराना मेरा..
शहरी जीवन की झलक बयां की,कविता इस फ्लैट में-
एक एक दूसरा चेहरा लगाकर
कितने चेहरे रहते हैं
कॉलोनी में बने..
इस फ्लैट में..।
अपनी बिटिया के जन्म पर,उसे याद करते हुए,यह सच है कविता में-
यह सच है ओ नवजात बिटिया
तुम्हारा न आना ही चाहा गया था
तुम न आओगी तो भला होगा..
क्योंकि एक बेटी पहले से है तो बदल जाती हैं उम्मीदें।
एक कविता में फिर कहा-
सबको प्रसन्न करते हुए 
उसे बोध ही नहीं होगा कि
वह खेल खेल में 
संसार का सबसे मुश्किल काम कर रही है।

मुश्किलों और आशाओं से बनती घर की दीवार और छत जो जाने क्या क्या रौंद कर बनी है । जब हमें दे पाती है ख़ुशी ।
कविताओं में कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं दार्शनिकता का भाव बोध भी है -

सोचने से मष्तिष्क भारी हो जाता है 
और हल्का भी..
संग्रह की शीर्षक कविता में ब्रज कहते हैं-
कुछ दोस्त स्टेशन पर छोड़ने आते हैं
और फिर कभी नहीं मिलते
पीछे कहीं रह जाते बच्चों के तोतले बोल
तमाम गुमी हुई चीज़ें ही
किसी को कर देती होंगी उदास
जिसने उसी तरह खोया है
अपने जीवन के झोले में से 
कुछ सामान..।
हम सभी आशा करते हैं कुछ आपदा विपदा न आए-
मेरी तरह ही कई लोगों ने चाहा
कि धरती झटके नहीं अपना बदन
फटा न करे बादलों का झोला
गुस्सा हुआ न करे सूरज
उल्काएं टकराया न करें आपस में।

और जो आज़ ज्वलंत सांप्रदायिक मुद्दा बना हुआ है जिसने जन जीवन को गहरे प्रभावित कर रखा है उस मुद्दे से कवि कैसे दूर रहता भला,बहुत अच्छी बात कही-
धर्म केवल शिक्षक का डंडा बना रहे जातियों के लिए..
एक कविता उदासी के बीज का एक दृश्य-

उदासियां ओस की बूंदें हैं
दूब की एक एक नोक पर जमी..
और कविता की अवस्थिति-
क्षितिज पर
बराबरी से
बैठी है कविता..
हमारा शत्रु हमारे निकट,और हम पर हावी है -
दुश्मन तो वह है
जो हमारे विचारों में चला आता है बार बार
अप्रिय होने के बावज़ूद..

कामकाजी लड़की की विडंबनाओं को शब्द दिए तो हर जगह हर तरह के लोग होते हैं बस गिनती के उनसे सावधान रहना चाहिए ।
इस तरह विभिन्न दृश्यों को चाहे वे गोचर हों या अगोचर
कवि की पर्याप्त दृष्टि जाती है ।
उनके इस संग्रह से गुजरते हुए सुखद एहसास हुआ ।
कवि के लिए बधाई ।



मधु सक्सेना रायपुर से संग्रह पर लिखती है 

अज्ञेय ने कहा है "कविता अर्थवान मूक क्षणों की वह श्रृंखला है जो शब्दों की कड़ियों से जोड़ दी गयी हो ।"

ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताएं पढ़ते हुए यही महसूस होता रहा कि कविता मौन से उपज कर ही मुखर होती है । कविता को कविता होने के लिए किसी आडम्बर, रस ,अलंकार की जरूरत नही बस उसमे पाठक में मन मे धंसने का हुनर आना चाहिए ।
ब्रज जी समकालीन कविता को विचार और भाव के संतुलन को एक नट की भांति साधने में समर्थ है ।इसमे उनका श्रम नही स्वाभाविक प्रक्रिया दिखाई देती है ।कवि लिखने के लिए नही लिखते बल्कि कविता उन्हें खुद के लिए चुनती है ।कवि खुद श्रेय न लेकर समय को प्रणाम करते है तभी तो कहते है -

'समय ने मुझसे कुछ नही पूछा 
चलता रहा अपनी गति से 

हालांकि घड़ी की चाबी 
मेरे हाथ मे थी 
मुझे ही उसका गति से मिलाने पड़े अपने ही कांटे '

बेचैनी ही है कविता के मूल में होती है । मन के समुद्र की उथलपुथल शब्द गढ़ती है ।
व्यक्ति के अहंकार को तोड़ती हुई कविता है "अपने आने का एलान " प्रकृति सबसे बलवान । जीवन के भीतरी साहस को सहजता से कहती है ।
कवि अपने चुप में मुखर है । कविता सुख के हिस्से में है तो दुख के हिस्से में भी होती है । 'दुख और खुशी की बात ' कविता में कविता अपने फ़क़ीरपन को प्रदर्शित करती है ।इस विषय पर बहुत सी कविताएं लिखी जा चुकी है ।पर सकारत्मक दृष्टि याने ग्लास आधा खाली नही ,आधा भरा हुआ है इस भाव के कारण थोड़ी अलग हो जाती है । विषय के कहन में भी नवीनता नही पर उसके भोलेपन की और आकृष्ट हुआ जा सकता है ।

अव्यवस्था के खिलाफ बोलना की चेतना का प्रतीक है । मन की आग का भभकना जरूरी भी है । कवि सावधान करते है -
'बहुत भीतर तक मार डालने के लिए
निशाने पर हो सकते है आप भी' 

ब्रज जी की छोटी छोटी मिव्ययी कविताएं सीप में समुद्र की तरह है । आवाज़ है साथ की , चेतावनी की और नारे लगाने की ।
उस तिनके की तरह है जिससे चिड़िया अपना घोंसला बना ले और अव्यवस्था की आंख में किरकिरी भी बन जाये ।हर रंग के भावों से भरा ये संग्रह पठनीय और संग्रहनीय है ।
बहुत सी शुभकामनाये कवि को ।
यूँ ही अपने लेखन से समाज को दिशा देते रहें ।



प्रदीप मिश्र ,इंदौर से लिखते है संग्रह पर 

मेरी सारी बातें मुस्तफ़ा भाई ने कह दी है उनको दोहराने से कोई फ़ायदा नहीं होगा । एक दो बातें तो ब्रज भाई की ख़ासियत हैं उनको रेखांकित करना ज़रूरी है । ब्रज की कविताएँ उनके व्यक्तित्व के अनुरूप शांत और सार्थक चिंतन को रेखांकित करतीं हैं। इन कविताओं में एक दृष्टि है जो सूक्ष्म दृष्टि को प्रमाणित करती है। बार बार ये कविताएँ मनुष्यता  के पक्ष में खड़ी हो कर पाठक से आग्रह करतीं हैं है कि यही जगह है जहाँ हर मनुष्य को होना चाहिए।  कविताओं सहज बतकही की शैली है जो पाठक को उसकी भाषा में ले जा कर जोड़तीं हैं। यहाँ पर दर्ज चिन्ताएँ बेहतर और वैज्ञानिक समाज की चिन्ताएँ हैं। बहुत बधाई।





पद्धनाभ पाराशर विदिशा से संग्रह पर लिखते है

समीक्षा - "तमाम गुमी हुई चीजें"


ब्रिज श्रीवास्तव जी की कविताएं अवचेतन से चेतन तक की अमूर्त यात्रा कराती हैं वह भी बहुत सरल , सहज एवं सुगम मार्ग से। कविता संग्रह "तमाम गुमी हुई चीजें" को पढ़ते समय बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियां मन मे प्रकाशपुंज की भांति सदैव खड़े दिखाई देती हैं कि,

"जनता मुझसे पूछ रही है 
क्या बतलाऊँ 
जनकवि हूँ मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊँ"!

वस्तुतः कविता कवि की नहीं होती वह समाज के सामूहिक सरोकारों की संपत्ति होती है। इसी क्रम में ब्रिज जी ने सभ्यता से गुम हो चुके उन तमाम तत्वों पर प्रकाश डाला है जो जीवन का आधार हैं।  शाश्वत प्रेम , तत्व दर्शन, प्रकृति चिंतन , लोकतांत्रिक मूल्य, लैंगिक समानता, मानवीय संवेदना , सामाजिक समरसता , संतोष जैसे तमाम तत्व वास्तव में नेपथ्य में जा रहे हैं। अपनी प्रतिनिधि कविताओं के माध्यम से कवि इन्हीं तत्वों की खोज में , अवचेतन के अथाह में गोते लगा रहा है। साथ ही साथ वह भय, भूंख , भृस्टाचार और शोषण के विरुद्ध कुठाराघात भी करता है।

सम्पूर्ण संग्रह जहां अनेकानेक भावों का इंद्रधनुष है , वहीं वह तीन मूल चिन्तनों के इर्द गिर्द कविता का सुंदर ताना बाना बुन रहा है । प्रथम अनंत समय , द्वितीय अनंत विचार , तृतीय अनंत सृजन। समय की अखंड रेखा पर विचार ही नव सृजन का आधार हैं , यह कवि का उन्मुक्त उद्घोष है।

"विचार राशि के बगैर 
बेमानी है हर चीज मेरे पास" 
जैसी रचना के माध्यम से कवि कहना चाह रहा है कि जीवन का अर्थ केवल श्वांस मात्र नहीं है अपितु सकारत्मक विचारों का अनंत बहाव है। विचार ही सृजन की पूर्व पीठिका हैं। नेपोलियन ने सच ही कहा है कि"किसी एक विचार की कोंध जीवन मे महान परिवर्तन की राह खोलती है"।

अनवरत सृजन , अनवरत प्रकाश यही तो कविता है। ब्रिज जी "कविता की लालटेन " और "कविता सबको बचा रही है" के माध्यम से इसी कालजयी विचार को स्थापित करने का सफल प्रयास कर रहे हैं। अंधेरा कितना भी गहन हो  सृजन का बीज कभी दम नहीं तोड़ता , एक अंत एक नई भोर है यही सृस्टि का सनातन नियम है । गीता का यह तत्व दर्शन कवि की निम्नलिखित कविताओं में बड़ी ही सहजता से अनुध्वनित हुआ है :

"जीवन के प्रति संकल्प लेता हुआ
जातक खुद करता है हलचल"

"पौधे को धक्का दे दिया करता है 
नम मिट्टी का डेला" 

अंततः कवि जीवन का एक स्थायी भाव स्थापित करने का प्रयास बड़ी सहजता से कर रहा है कि कुछ पल तो गुजारो अपने साथ । कविता "अकेलापन" बड़ी ही खामोशी से कह जाती है कि व्यक्ति का सर्वश्रेस्ठ उसके अवचेतन के एकांत में ही घटित होता है । और सबसे मुश्किल काम व सबसे जरूरी काम , हर चेहरे पर मुस्कान लाना, जिसे आज तक संसार के महानतम विचार भी नहीं मुकम्मल कर पाए हैं उसे प्रिया कितनी आसानी से कर लेती है आह कितना सुखद है।

कविता अपने सम्पूर्ण सौष्ठव के साथ प्रदीप्त हो रही है परंतु यक्ष प्रश्न यह है कि समकालीन कविता जन साधारण से क्यों नहीं जुड़ पाई। इसका उत्तर इस संग्रह में है कि कविता जितनी सहज होगी उतना ही ग्राह्य होगी। कुछ कविताएं गहन समझ की अपेक्षा करती हैं परंतु वह कवि की विद्वता का उद्धरण भी हैं , इतना अवकाश तो हर रचनाकार को मिलना ही चाहिए।

बधाई आदरणीय ब्रिज जी।





बबीता गुप्ता ,बिलासपुर छ्तीसगढ़ से संग्रह पर लिखती है


एक कोशिश की हैं,गलत को अवश्य बताइयेगा। कुछेक कविताओं की।
सहज भाव से कही गई कविताएं गहरी पैठ बनाती हैं। स्वजीवन का और आसपास के आधारभूत तत्वों के मूल्यांकन कर, अपने सुगठित शब्दों में अनेकानेक विस्मृत चीजों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती कविताएं।
मेरे पास में बिना विचारों के सभी चीजें यानि सब कुछ पास होते हुय भी सब बेमानी लगता हैं फिर चाहे बिखरे हुये विचार ही क्यों न हो।
माँ के ह्रदय में विशालकाय माँ का ह्रदय जिसके आंचल में सब समाया हैं पूरी की पूरी सृष्टि आनंदित हो रही हैं, खुश हैं।
सदी के हर लम्हे में अपने सिद्धांतों, विचारों के सहारे ही कई सदियाँ पार कर ली।इसमें विचारों की महत्ता, आवश्यकता पर जोर दिया हैं।
इस दुनिया में दुखित मन को सहानुभूतिपूर्ण बातें सांत्वना दे जाती हैं उसी तरह जैसे धरती की प्यास बुझाने के लिए छटाक भर बदली का पानी , मुरझाए पौधे की शुष्क मिट्टी को नम मिट्टी की ठीला,परिश्रम से निकले खून-पसीने के उदास होने से पहले उखङती सांसों के लिए हवा का झोंका मेहरवानी कर देता हैं। जब दुख पर इनका मरहम लगा दिया जाता हैं तो दुनिया दुखहीन हो जायेगी।
किसी के कहने से कांटों-सी कठोरता,पंखङियों-सी कोमलता यानि दुख-सुख की यथास्थिति बनी हुई हैं, जगत में विद्यमान हैं।
अपने आने का ऐलान विभिन्न व्यक्तित्व वालों का अंदाज विभिन्नता लिए होता हैं। अपने अस्तित्वता के लिए वो बचपन से ही उम्र के आखिरी पढाव तक संघर्ष करता जाता हैं।
दुख और सुख की बात सुख-दुख जीवन के अहम हिस्से हैं धूप-छांव की तरह,तराजू के पल्लो में उन्हें तोला जाता हैं तो सुख,दुख पर भारी पङ जाता हैं, जिसे अंतर्मन से स्वीकारता हैं अर्थात् आत्मीय सुख के समक्ष दुख तुच्छ हैं।
उसने दी थी छांव जन्मभूमि से व्यक्ति विलग होते हुये भी उससे अलगाव नहीं कर पाता।उसके जीवन का एक लम्हा बीता पर आधुनिकता के चलते उसका रहवासी और कोई बन जाता हैं पर उस नये रहवासी से आशा करता हैं, आश्वस्त भी हैं कि वो उसे बूढा नहीं होने देगा अर्थात् यथास्थिति बनाये रखते हुये मकान को घर बनाये रखेगा,न कि खंडहर बनाकर अस्तित्वहीन कर देगा जैसा कि अंतिम पंक्ति में कटाक्ष किया है कि जैसे बूढा आदमी आखिर में परलोक सिधार जाता हैं वो बस अदृश्य रूप में, अप्रत्यक्ष रूप में जिन्दा रहता हैं। अतः विश्वास हैं वो जर्जर नही होने देगा।
'हम आश्वस्त हैं कि नये रहवासी नहीं होने देंगे उसे और बूढा अब...'
इच्छाएं-एक बार-बार चुनौतियों की शक्ल में उग-उगकर खरपतवार की तरह इच्छाएं साबित करती हैं, मन का खेत जैसा होना।बच्चों के प्रति अपार लगाव जिसे खरपतवार यानि बेमतलब,सारहीन इच्छाएं विचलित नहीं कर पाती बच्चे उसके साथ कितना भी दुर्व्यवहार क्यों ना करें।
इच्छाएं- दो चंचल चित जिसमें तमाम इच्छाएं उपजी और उनको पाने के लिए सरिता के प्रवाह की तरह वेगमान जरूर होती हैं, अङंगे बहुत आते-जाते हैं, स्वार्थी लोग उनका फायदा उठाना चाहते हैं पर वो अपने गंतव्य नही भूलती और जिस लक्ष्य के लिए उत्पन्न हुई हैं जैसा कि अंतिम पंक्ति में कहा हैं-'अपने उद्गम को नहीं भूलती वे जुङी रहती हैं प्रवाह के तार से'
इस गांव में अमरलाल पात्र द्वारा दर्शाया गया कि आधुनिकता की दौड़ में भागता देश और देशवासी पर गांव जस -के-तस स्थिति प्रश्नचिह्न लगाती हैं। गरीबी अपना आलम पसारे हैं, अशिक्षा अपनी जङे जमाये हुये हैं बस कागजी आंकड़ो में शिक्षित।कारण वही,गरीबी अर्थोपार्जन के लिए शिक्षा से वंचित, जिन हाथों में स्लेट-बत्ती की जगह तसला ,फावङा थमा दिया जाता हैं।आप-बीती यथावत।जैसा कि पंक्ति में- 'जिन वजहों से उसने जोङी थी स्लेट-बत्ती, वे ही वजह अब भी बैठी हैं गरीब बच्चों के घर में '
श्राद्ध 'कई रिश्तेदार आए,नहीं आई दादी केवल' कङवी सच्चाई जिनके नाम का श्राद्ध संपादन करत हैं, अतिथि,ब्राह्मण, यहां तक कि कौवे भी आते हैं, सभी अपने आप में व्यस्त, पर उनमें कोई वृद्ध आदमी, कहानी-किस्से सुनाता,इस रूप में दादी का जमाना याद दिलाया तो महसूस हुआ समीपस्थ हैं पर असल में अब तो बस यादों में ही बस गई....कहानियाँ तो बीते जमाने की बात लगती हैं।
कविता की लालटेन मनुष्य के जीवन में दुख बनी छाया परिवार,मोहल्ले ही क्या पूरे देश में विराजमान होकर पर कवि अपनी लेखनी से उन्हें उजाले,उत्साह की राह दिखाता रहेगा जैसा कि पंक्ति में कहा है-'तब भी दिखाता रहेगा कवि,कविता की लालटेन ' भटकाव में सही रास्ता लिखियेगा,उम्मीद की रोशनी जायेगा अपनी कलम से।
दिल्ली जाते हुये दिल्ली हैं दिवाली की,सबकी पहुंच में, लोगों के दिलों पर राज करती हैं फिर चाहे व्यापारी हो,नेता हो,कोई भी यानि कि बेरोजगारों का भी गंतव्य। हर किसी की चाह दिल्ली।
सिर्फ एक आदमी एक हताश निराशावादी आदमी की सोच जो परिवर्तन के नाम पर हजारों आदमी की वाहिका कारण।शायद आधुनिक तकनीक की तरफ इशारा जिसके चलते हजारो लोग ना केवल बेरोजगार हो रहे है बल्कि बेघर भी।
इम्तिहान होने वाला हैं स्वार्थी,लोलुप व्यक्तियों पर कटाक्ष। सत्य के आगे घुटने टेकने होंगे,असत्य को,पाखंड को फिर चाहे रास्ते में कितने भी रोंढा आए ईमानदारी की राह चुनने में।
दुनिया और दिनचर्या अवचेतन के अंतर्मन चलते विचार कभी खालीपन का एहसास होते ही चेतनावस्था में सब स्फूर्तिवान हो जाता हैं पर दुनियादारी से विक्षिप्त। घर-गृहस्थी में बंधे इंसान की मजबूरी वही नित्य दिनचर्या।
अकेलापन अपनों के बीच रहता इंसान एकाकी जीवन जीता।भौतिक साज-सज्जा के बीच निर्जीव चीजों में जीवंतता देख जो उसके जीवित ,अकेलेपन का एहसास नही होने देती।


परिचय 

ब्रज श्रीवास्तव*

जन्म :5 सितंबर 1966 (विदिशा )

शिक्षा :एम. एस. सी. (गणित), एम. ए. हिन्दी, एम ए (अंग्रेजी,) बी. एड.

प्रकाशन 
साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं, पहल, हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश, बया, वागर्थ, तदभव, आउटलुक, शुक्रवार, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य,इंडिया टुडे, दुनियां इन दिनों, शत दल, वसुधा, साक्षात्कार, संवेद, यथावत, अक्सर, रचना समय, कला समय, पूर्वग्रह, दस बरस, जनसत्ता, सहित अनेक अखबारों, रसरंग, लोकरंग, सुबह सवेरे, नवदुनिया, सहारा समय, राष्ट्रीय सहारा आदि में कविताएँ, समीक्षायें और अनुवाद प्रकाशित. 

कविता संग्रह 
पहला संग्रह "तमाम गुमी हुई चीज़ें" म.प्र. साहित्य परिषद् भोपाल के आर्थिक सहयोग से 2003 में रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा से प्रकाशित (ब्लर्व, राजेश जोशी) 
दूसरा कविता संग्रह, "घर के भीतर घर" 2013 में, शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित. (ब्लर्व : मंगलेश डबराल) 
 ऐसे दिन का इंतज़ार बोधि प्रकाशन से 2016 में आया है. 

अगला संग्रह प्रकाशनाधीन

दूरदर्शन और आकाशवाणी से  परिचर्चा और कविता पाठ का अनेक बार प्रसारण.


सहभागिता
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के आयोजन में जबलपुर, खंडवा में और भारत भवन के आयोजन परिधि में देवास में कविता पाठ एवं संचालन। प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में जयपुर और बीना में कविता पाठ। सरोकार प्रकाशन भोपाल के आयोजन में विशेष कविता पाठ।वनमाली सृजन पीठ के आयोजन में बिलासपुर में कविता पाठ। कुछ कवि सम्मेलनों में भी पाठ।

अखिल भारतीय दिव्य पुरस्कार सहित एक दो स्थानीय स्तर के सम्मान।

संपादन:दैनिक विद्रोही धारा के साहित्यिक पृष्ठ का तीन वर्षों तक संपादन. काव्य संकलन, दिशा विदिशा.(वाणी प्रकाशन) से प्रकाशित. नवदुनिया और कला समय में स्तंभ लेखन।

व्यवसाय
स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक ( मा. शा.) के रूप में शासकीय नौकरी. विदिशा में ही.

पता : L-40
गोदावरी ग्रींस,
विदिशा।
brajshrivastava7@gmail.com
Mob.9425034312
7024134312





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