Saturday, January 20, 2018

समीक्षक श्रीमती सरिता त्रिवेदी की नज़र में  पुस्तक 
"रिश्ते मन से मन के"-
कुछ कहानियाँ जिन्दगी सी होती है और कुछ ज़िन्दगियाँ कहानी सी

एक पुस्तक हाथों में है और अहसास हो रहा है..हर ज़िन्दगी में  हजारों कहानियाँ छुपी होती हैं और हर कहानी में उतनी ही ज़िन्दगी।
जीवन में  हर पल..हर स्थिति ..हर रिश्ता..हर अनुभव अपने आप मे एक दास्तान समेटे होते हैं ..सामान्य दृष्टि उसे नही देख पाती पर एक संवेदनशील नज़र और कलम के संपर्क में आते ही उन्ही बातों के मायने बदल जाते है...एक सर्जक हास्य में करूणा और करूणा में प्रेम या ममता पढ लेता है
जी हाँ ..सही समझा आपने आज मै हाज़िर  हूँ  "रिश्ते मन से मन के"  के साथ..जिसकी शुरूआती कड़ियों ने ही मन से रिश्ता जोड़ लिया।
शिवानी के संस्मरण बहुत पढ़े हैं, रूचिकर लगते थे पर उनसे जुडाव नही महसूस नही हुआ..किन्तु कुछ उल्टा हुआ " रिश्ते ..."  पढते समय..हर कडी स्व अनुभूत लगी, अरे ऐसा ही तो हुआ था अपने साथ भी..हमारी बात को, सोच को ही लेखक ने शब्द दे दिये।
शब्द भी तो अपने से ही..सरल, सहज, ग्राह्य,मन को छूती सादी बोलचाल की भाषा..हिन्दी में  शामिल अंग्रेजी शब्द.. देशी अंदाज..स्वरचित मुहावरे..सहज प्रवाह मे लिखे गये कुछ अनौपचारिक शब्द भी खलते नही।
कड़ियों को पाठक सिर्फ पढ़ते नहीं जीवन के कुछ पल दुबारा जी लेते हैं।
यदि लेखन से पाठक कनेक्शन महसूस करे तो यह लेखक की बडी सफलता है।
अधिकांश कड़ियों मे एक न एक गूढार्थ वाक्य ..अप्रत्यक्ष संदेश के साथ।
बहुत सहज जीवन दर्शन या नेक नीयत  विचारों को प्रेषित करता हुआ...आपके कुछ शब्द ..कुछ सहायता ..कुछ कार्य या व्यवहार जो आपको महत्वहीन लगते है वो ही किसी के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण बन कर उसकी नज़र मे आपका कद कायम करते है।
सभी कड़ियाँ  बेहतरीन लिखी गयी है ,
76वीं  कड़ी जो अनाम है
रिश्ता खुद का खुद से शायद हर रचनाधर्मी इस दोहरे व्यक्तित्व में उलझा होता है बिल्कुल विरोधाभासी  ..खुद को पहचानने की यह खोज बनी रहे..
रिश्तों की कडियाँ आगे और जुड़े
थोडे और व्यापक परिप्रेक्ष्य मे  मौलिक मूल्यो को परिभाषित करती कडियाँ उत्कृष्ट ..
किन्तु यदि वे निजी सामान्य व्यवहार को दर्शायेगी तो दूरस्थ पाठक वर्ग जुड़ने मे असहज होगा
भावों को शब्द देने पर एवं शब्दों को पुस्तक रूप देने पर जिम्मेदारी स्वतः बढ जाती है।

कुल मिलाकर " रिश्ते मन से मन के"  पढ़ना एक सुखद अनुभव है
आजकल जब साहित्य मे भी मूल्यहीनता.. भावनाहीनता ,संस्कार ह्रास की चर्चा आम है तब यह पुस्तक बात करती है..स्नेह प्रेम की रिश्तो मे विश्वसनीयता की..मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की एक सर्जनात्मक सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर
जैसे
ज्येष्ठ माह की तपती लपट वाली दोपहरी मे... वर्षा की पहली फुहार
अगली पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी।

- सरिता त्रिवेदी





अनिता मण्डा के विचार 'रिश्ते मन से मन के' पुस्तक पर;-
"संवेदनात्मक लेखा-जोखा"

"रिश्ते मन से मन के" संतोष तिवारी जी की पुस्तक मिली। जिसमें उन्होंने रिश्तों के पिचहत्तर गुलों से एक गुलदस्ता सजाया है। वैसे तो ये कड़ियाँ प्रतिदिन लिखे जाने के दौरान ही पढ़ने को मिल गई थीं। लेकिन एक पुस्तक में एक साथ पन्ने पलटते हुए देखना सुखद रहा। कई जगहों से पुनर्पाठ का लालच रोके न रुका।
 अपने में रिश्तों को, रिश्तों में अपनों को पाते हुए लिखी गई ये कड़ियां 'स्व' से साक्षात्कार करने समान हैं।
संस्मरणात्मक शैली में लिखे गये गद्य में कहानी के जैसी क़िस्सागोई है लेकिन ये कहानियां नहीं हैं, कहानी में काल्पनिकता की छूट होती है। जबकि यहां हक़ीक़त की ज़मीन पर इबारत खड़ी की गई है।
   वीरेन्द्र आस्तिक जी ने भूमिका में लिखा है कि "दरअसल ये कथाएँ न्यायिक-नैतिक बोध, मानविक आग्रह, जीवंत धार्मिकता और शैक्षणिक कर्तव्य-बोध की तथा ऐसे ही अनेक मूल्यों की प्रेरक कथाएँ हैं। लेकिन इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, वस्तुतः इन कथाओं की जो सबसे ज़्यादा रोचक चीज़ है, वो है इनकी भाषा का लालित्य, वह भी सहज प्रवाहयुक्त भाषा में। भाषा और अंतर्वस्तु का समन्वित प्रवाह ही इन कथाओं को भरपूर पठनीय बना देता है। पठनीयता भी ऐसी कि मूल बात अपनी जगह हृदय में बना ले। अब ऐसी स्थिति में ललित कथा या ललित कथाएँ कहकर संबोधित करना ही उचित होगा।"

पुस्तक की भाषा को रोज़मर्रा की बोलने की भाषा रखा गया है, जिसमें क्लिष्ट हिंदी न होकर सर्वसाधारण को समझ आने वाली हिंदी है। हिंदी के साथ घुलमिल गये अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों को उसी तरह देवनागरी में लिख दिया गया है, जिससे कि भाषा की रोचकता व पठनीयता बरक़रार रही है। मुहावरे बेखटके आये हैं। व कहीं कहीं नये मुहावरे भी गढ़े गये हैं।
कुछ सूक्तियाँ भी ध्यान खिंचती हैं 'तकनीक ने विश्व की दूरियों को जितना खत्म किया, दिल की दूरियों को बढ़ा दिया।'
संवेदना से लबरेज़ अक्षर- अक्षर अपनी अमिट छाप हृदय पर अंकित करता है। कथावस्तु की सम्प्रेषणीयता सहज ही पाठक को पुस्तक से जोड़ देती है।  मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज  परिवार से व परिवार रिश्तों से बना है यह तो हुई साधारण सी परिभाषा रिश्तों की। लेकिन क्या वाकई रिश्तों को परिभाषित करना इतना आसान है। रिश्तों की पड़ताल करते जीवन बीत जाता है। यह अनसुलझे धागे बाँधे रखते हैं। कोई सिरा थाम समझने की कोशिश करते हैं, तो विवेक जवाब दे जाता है। इंसान का जीवन कुछ रिश्तों की बदौलत और कुछ रिश्तों से ही तो बना है। मनुष्य जीवन एक व्यापक घटनाक्रम है। इसमें कई लोगों का योगदान होता है, उन लोगों से मन एक रिश्ता बना लेता है। क्योंकि हम सभी रिश्तों में जीते हैं, इसलिए ये रिश्ते भी हमें पराये नहीं लगते, इनको पढ़ते हुए कहीं न कहीं हम अपने रिश्तों की ग़िरह भी खोलने लगते हैं, जैसा कि साहिर साहब कह गये हैं-
'कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया।'

जो बात मुझे संतोष जी के लेखन की सबसे अधिक प्रभावित करती है वह है पात्रों का मनोविशेषणात्मक चित्रण।
वो चाहे पहली कक्षा में खुद को शिक्षक के द्वारा न समझ पाने का क्षोभ हो (चौथी कड़ी) या स्वयं द्वारा एक अध्यापक के रूप में बादल से माफ़ी मांगना हो (तीसरी कड़ी)
संतोष जी स्वयं एक शिक्षक हैं अतः बाल मनोविज्ञान की समझ बहुत अच्छी है और इसे जीवन में उपयोग में भी लिया है (पांचवीं कड़ी) इसका प्रमाण देती है। संवेदनशीलता कहीं टॉनिक के रूप में बाज़ार में नहीं बिकती, उसे तो संस्कारों से ही व्यक्तित्व का अंग बनाया जा सकता है, यह जागरूकता एक शिक्षक की ट्रेनिंग का हिस्सा है। वह अपने बच्चे के मन में भी इसका बीजारोपण कर रहे हैं।
किताबी ज्ञान तो चार किताबें पढ़ मिल ही जाता है, पर जीवन युद्ध में जीत दिलाने वाले असली शस्त्र तो आत्मविश्वास और मन की शक्ति हैं और ये शस्त्र हमें परिवार के बाद अपने शिक्षकों से ही मिलते हैं। एक शिक्षक का जीवन व व्यवहार समाज के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभाता है इसे आप (आठवीं कड़ी) में पृथा से जुड़ कर गहराई से महसूस करेंगे।
अज्जु को दसवीं पास करवाना( 13 वीं कड़ी),
किसी ठेले वाले बुजुर्ग की निस्वार्थ भाव से पुल पर ठेला चढ़ाने में मदद कर ( 10 वीं कड़ी) संतोष रूपी धन से खज़ाना भर लेना भी हर किसी के बस की बात नहीं।  22 साल से एकरंग में रँगे हुए हमसफ़र (15 वीं कड़ी), प्रतिभा सम्पन्न छात्रा का बाल विवाह न रुकवा पाने की विवशता (16 वीं कड़ी) सब आँखों देखे  किरदार से लगते हैं।
कहीं शरारती लोग, कहीं मुंहफट बेलाग क़िस्म के, कहीं शक़्क़ी, कहीं गम्भीर कई तरह के पात्रों की कहानीयाँ मिलेंगी इन रिश्तों में।
  हमारा जीवन हमारे सम्पर्क में आने वाले लोगों से कितना व किस तरह प्रभावित होता है इसका भी अच्छा विश्लेषण इसमें मिल जाता है।

कड़ियों के सटीक शीर्षक इनको एक पायदान और ऊपर रख देते हैं।  अतीत में डूब यादों के गुहर निकाल उनकी माला बनी यह पुस्तक संवेदना स्तर पर बहुत समृद्ध है। माँ-पिता, पत्नी, बेटे, भाई, पत्नी के पिता आदि नजदीकी रिश्तों पर लिखा हुआ भी लेखक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम खोलता है। स्मृतियों से जिसका कोष भरा हुआ है वो कभी स्नेह शून्य हो ही नहीं सकता। स्मृति की अंगुली थाम निकल पड़िये किसी भी राह, ऐसे रिश्ते आपका हाथ थाम संग हो लेंगे। आपसी रिश्तों की भावपूर्ण कड़ियां मन को भीगो  देती हैं।
इतनी सारी अच्छी बातों के बीच पुस्तक की एक कमी मुझे ज़रूर अखरी। और वो यह है कि बहुत सारी जगह नुक़्तों का ख़्याल बिलकुल नहीं रखा गया है। मुझ जैसे पाठकों का ध्यान इस बात पर ज़रूर जाएगा। पुस्तक की सरल व मुहावरे दार भाषा  इसे आम पाठकों में प्रिय बना देगी। सरल लिखना ज़्यादा कठिन है। यह सरलता ही इस पुस्तक की ताक़त है।







संतोष तिवारी 




परिचय
#नाम- संतोष तिवारी
#पिता- स्व. श्री लालाराम तिवारी
#माता- श्रीमती विद्यादेवी तिवारी
#पत्नी- श्रीमती प्रीति तिवारी
#जन्म- 14 दिसम्बर 1966
#शिक्षा- बी. एस सी.,बी. म्यूज़. एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य),  बी. एड.

#लेखन
     *मुख्य विधा- कविता /ग़ज़ल
     *अन्य विधा- रेखाचित्र लेखन
     *लगभग 200 सुप्रभात संदेशो की श्रृंखला का लेखन जिसमे जीवन जीने की कला और मानवीय संबंधों पर नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है।
     *लघु नाटिकाओं का लेखन, मंचन एवं निर्देशन
     *समसामयिक विषयों पर  व्यंग्य लेखन

#प्रकाशन

   * जीवन में बने रिश्तों की सच्ची कथाओं पर एक पुस्तक " रिश्ते मन से मन के" का प्रकाशन।
   *विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कवितायेँ ग़ज़लें एवं आलेख प्रकाशित
   * सांध्य दैनिक अग्निबाण में  मन्तर नाम से कॉलम का प्रकाशन जिसमे सत्यार्थ के छद्म नाम से लेखन।
#प्रसारण
    *ई-टीवी उर्दू द्वारा प्रसारित ग़ज़ल के कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ
    *आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से कवितायेँ एवं वार्ताएं प्रसारित
     *कवि सम्मेलनों और अखिल भारतीय स्तर के मुशायरो में शिर्कत
#सम्मान
शब्द प्रवाह साहित्यिक संस्था उज्जैन द्वारा 'शब्द विभूषण' की उपाधि से सम्मानित तथा कृति "रिश्ते मन से मन के" लघु कथा श्रेणी में द्वितीय स्थान पर चयनित।
#सम्प्रति
   *अखिल भारतीय साहित्य परिषद की खण्डवा  जिला इकाई का सचिव।
  * शासकीय माध्यमिक शाला पदमनगर , खण्डवा में प्रधानाचार्य।

#निवास-

"प्रारब्ध"
12 शांतिनगर, सिविल लाइन्स
खण्डवा, म. प्र.
450221
मोबाइल - 9926571060

Thursday, January 4, 2018

डा.अमरजीत कौंके  की कविताएं 




डॉ अमरजीत कौंके 




डा.अमरजीत कौंके 
शिक्षा : एम.ए (पंजाबी ), पी एच डी
सम्प्रति : लेक्चरार


साहित्यिक परिचय


कविता संग्रह ( पंजाबी )
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1.दायरियां दी कब्र चों
2.निर्वाण दी तलाश विच
3.द्वन्द कथा 
4.यकीन 
5.शब्द रहनगे कोल 
6.सिमरतियां दी लालटेन 
7.प्यास

कविता संग्रह (हिंदी)
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1. मुट्ठी भर रौशनी 
2.अँधेरे में आवाज़ 
3.अंतहीन दौड़ 
4.बन रही है नयी दुनिया 

अनुवाद (हिंदी से पंजाबी )
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1.आधुनिक भारती कविता संचयन (हिंदी )
2.औड़ विच सारस (डा. केदार नाथ सिंह )
3.अरण्य ( श्री नरेश मेहता )
4.नवें इलाके विच ( अरुण कमल )
5.दूजा कोई नहीं ( कुंवर नारायण )
6.साम्प्रदायिकता ( बिपिन चन्द्रा )
7.ना छूहीं परछावें ( हिमांशु जोशी )
8.गाथा महामनुख दी ( बलभद्र ठाकुर )
9.देवकी नंदन खत्री ( मधुरेश )
10.गोट्या ( न.ध. तम्हनकर )
11.उस रात दी गल्ल ( मिथिलेश्वर)
12.धुप्प निकलेगी ( जसबीर चावला)
13.उषा यादव दीयां चोनवियां कहानियां ( ऊषा यादव )
14.औरत मेरे अंदर ( पवन करण )

अनुवाद (पंजाबी से हिंदी)
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1.आधुनिक भारतीय कविता संचयन (पंजाबी )
2.गलिये चिक्कड़ दूरि घर ( वणजारा बेदी )
3.शब्दों की धूप ( सुखविंदर कम्बोज )
4.सूरज का तकिया ( रविंदर रवि )
5.बांसुरी क्या गीत गाये ( रविंदर )
6.पत्ते की महायात्रा ( परमिंदर सोढ़ी )
7.टुकड़ा टुकड़ा वर्तमान ( सुरिंदर सोहल )
8.हार कर भी ( दर्शन बुलंदवी )
9.पल पल बदलते रंग ( बीबा बलवंत )

अनुवाद (अंग्रेजी से पंजाबी)
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1. जदों दुनिया नवीं नवीं बनी 
( वेरियर एल्विन )
2. काठ दा पुतला ( कार्लो कलोदी )


बच्चों के लिए 
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1.कुक्कड़ूं घड़ूं (कविताएं )
2.कुड़ियां चिड़ियाँ ( कविताएं )
3.वातावरण संभाल (कविताएं )
4.लक्कड़ दी कुड़ी ( लोक कथाएं )
5.मखमल दे पत्ते ( लोक कथाएं )

सम्पादित पुस्तकें
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1.समानांतर ( नवें दशक की पंजाबी कविता )
2.समां उदास नहीं ( समकाली पंजाबी कविता )
3.स्वर्ण सिंह परवाना दी कावि चेतना ( आलोचना )
4.अखर अखर एहसास ( फेसबुक के कवियों की कविता)
5.शब्द शब्द परवाज़ ( फेसबुक के कवियों की कविता )

** पंजाबी में 2003 से निरंतर त्रैमासिक साहित्यक मैगज़ीन " प्रतिमान " का संपादन
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अमरजीत कौंके की कविता पर प्रकाशित आलोचना की पुस्तकें 
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1.अमरजीत कौंके काव्य-सृजना ते संवाद , संपादक : डॉ. आत्म रंधावा 
2.अमरजीत कौंके दा कावि-संवाद, संपादक : डॉ. लखविंदर जीत कौर 
3.अमरजीत कौंके दी कविता विच बेगानगी दा संकल्प, लेखक : हरविंदर ढिल्लों
4.अमरजीत कौंके-कावि : चिंतन ते समीक्षा, संपादक : डॉ.बलजीत सिंह , डॉ.मुख्तियार सिंह
5.अमरजीत कौंके-कावि :पंध ते प्रबंध , संपादक : डॉ. भूपिंदर कौर, सोनिया
6.अमरजीत कौंके दी कविता : स्वै-चिंतन तों युग-चिंतन तक , 
संपादक : डॉ. संदीप सैनी, रमनदीप कौर 
7." सिलसिला "अमरजीत कौंके-कावि विशेषांक, संपादक: सुधीर कुमार 

** अमरजीत कौंके की कविता पर एम फिल और पी एच डी के लिए सभी यूनिवर्सिटीज में 15 से ज्यादा शोध प्रबंध मुकम्मिल 

** साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार 

** भाषा विभाग पंजाब, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर , कनाडा पुरस्कार , तथा अनेक संस्थानों द्वारा अनेक सम्मानों से सम्मानित....

**
३० वर्ष से रेडियो टी वी पर रचनाओं का प्रसारण





साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार प्राप्त करते हुए 





कविताएं 

साँवले हाथ 

साँवले
बहुत साधारण से
हाथ थे वे
जिन्हें
यह भी नहीं था मालूम
कि वे हाथ हैं
सृष्टि रचने वाले
दुनिया को
ख़ूबसूरत बनाने वाले

लेकिन अचानक
प्यार से लबालब दो होठों ने
उन हाथों को क्या छुआ
कि हाथ सिहर उठे

साँवले से
उन हाथों को
पहली बार एहसास हुआ
कि वे हाथ है
सृष्टि की
सब से अज़ीम वस्तु

हाथों को
पहली बार एहसास हुआ
कि वे हाथ हैं
सृष्टि को रचने वाले
दुनिया को
ख़ूबसूरत बनाने वाले ।




शिला 

वह जो मेरी
कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई

बहुत स्मृतियों का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी
कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हँसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया
इस तरह
यादों से परे
शिला हो गई वह

उसके एक ओर मैं था
सूर्य के सातवें घोड़े पर सवार
किसी राजकुमार की तरह
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अँगुली पकड़
अनोखे नभ में
उसे घुमाता

एक और उसका घर था
जिसमें उसकी उम्र दफ़्न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलाँग रहे थे

एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिन्दूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था

समाज के बन्धन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेड़ियाँ बनते जा रहे थे
उसे लगता था
कि उसके सपनों की उम्र
उसके संस्कार ही खा रहे थे

इन सब में
इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई ।





भिन्नता 

तुम्हारे साथ
प्यार करने के बाद
पता चला मुझे
कि कितनी सहज रह सकती हो तुम
और मैं कितना बेचैन

कितनी सहज रह सकती हो तुम
घर में सदैव मुस्कराती
रसोई में कोई गीत गुनगुनाती
अच्छी बीवी का दायत्व निभाती
कि घर दफ़्तर
कहीं भी मालूम नहीं पड़ता
कि किसी के प्यार में हो तुम

पर मैं हूँ
कि तुम्हारे न मिलने पर
झल्ला उठता हूँ
बेचैन हो जाता हूँ
अपने आप पर 
क्रोधित होता हूँ
खूँटे पर बँधे हुए
जिद्दी घोड़े की तरह
अपने पाँव तले की 
ज़मीन उखाड़ता हूँ
और सारी दीवारें तोड़ कर
तुम्हारे तक आने के लिए
भागता हूँ

मेरी बेचैनी
तुम्हारी सहजता से
कितनी भिन्न है ।







मछलियाँ

उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों के
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे उसके नयनों में सपने
जब परिन्दों के
घर लौटने का वक़्त था

उसकी उम्र में
जब आया प्यार
तो उसे फ़िश-ऐकुयेरियम में
तैरती मछलियों पर बहुत तरस आया
फैंक दिया फ़र्श पर उसने
काँच का मर्तबान
मछलियों को 
आज़ाद करने के लिए

तड़प तड़प कर
मर गईं मछलियाँ
फ़र्श पर
पानी के बिना

नहीं जानती थी
वह बावरी
कि मछलियों को
आज़ाद करने के भ्रम में
उसने मछलियों पर
कितना जुल्म किया है ।






फिर भी

उसका 
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे
न कोई ख़त, न सपना
न कोई याद, न दुआ
न कोई अँगूठी, न छल्ला
न कोई रूमाल
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास

न उसके साथ बिताया दिन कोई
न अकेले जाग कर काटी कोई रात
न ख़ामोशी, न आवाज़ कोई
न यादों में सुलगती कोई बात
कुछ भी नहीं था उसका
मेरे पास

न कोई पहाड़ों की स्मृति
न किसी समुन्दरी किनारे की रेत
न कोई गुनगुना दिन, न तीखी दोपहर
न किसी जाड़े की निघ्घी धूप
न उसकी हँसी, न गहरी चुप
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास

उसका
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे

लेकिन फिर भी न जाने क्यों
वह छटपटा रही थी
मुझसे मुक्त होने के लिए ।




मैं तुम्हारे पास नहीं होता 

तुम्हारे पास नहीं होता
भले ही
तुम मुझे असीम प्यार करती
मुझ पर
अपना तन मन न्योछावर करती
लेकिन तुम्हारे संग लिपटा हुआ भी
मैं तुम्हारे पास नहीं होता
वैसे तो मैं भी
तुम से बहुत प्यार करने का
दावा करता हूँ
बार-बार किसी 
प्यासे मरूस्थल की तरह
तुम्हारी गोद में आकर गिरता हूँ
पूरे का पूरा अपनी रेत संग
तुम्हारे नीर में भीगने के लिए
लेकिन भीतर
मन के ठीक भीतर
वह कौन सी जगह है
जो बिल्कुल शुष्क रहती है
जो पानी की बूँद को भी तरसती है
सच मानना
वह जगह बिल्कुल शुष्क रहती है
मैं मन के 
उस शुष्क टुकडे़ पर
एक समुद्र
बिछा देना चाहता हूँ
एक नखलिस्तान
लहरा देना चाहता हूँ
लेकिन 
मन की 
अनगिनत परतों में 
बँटा हुआ 
मैं
आज का मानव
तुम्हारे नीर में 
भीग कर भी
भीतर से
बिल्कुल शुष्क रहता हूँ ।






चलो मिलें फिर कभी

चलो मिलें फिर कभी
बहुत देर से इन्तज़ार कर रही है धरती
बहुत देर से तरस रहा है आकाश
सड़कों के किनारे इन्तज़ार करते वृक्ष
चलो फिर इनके नीचे खड़े होकर
कोई इकरार करें हम

बहुत देर से इन्तज़ार करता
बहता हुआ पानी
अपने भीतर हम दोनों का अक्स
फिर से फ़्रेम करना चाहता
इन्तजार करते पुलों से गुजरते राही
जिनकी परवाह किये बिना
देर तक नदी किनारे
बैठे रहे हम

चलो फिर मिलें कभी
अभी भी वह सड़कें
हमारी पदचासपों का
इन्तज़ार करती
पवन हमारी आवाज़
सुनने को तरस रहा
तुम्हारी वह खनखनाती हँसी 
सुनने को
तरस रहा वातावरण

वे लोग..
जिन्होंने हमें इक्ट्ठा देखकर
कितने बवाल मचाए
कितने तूफ़ान उठाए
जिन्होंने हमें जुदा करने में
अहम रोल निभाए

देखो ! वे फिर
हमारे मिलन का
इन्तजार करते

आओ मिलें फिर कभी ।





अग्नि

वैसे तो हर इन्सान के भीतर
होती है अग्नि

कहीं होती है
यह संस्कारों की राख के नीचे
कहीं आदर्शों की पर्त के नीचे गुम
कहीं डर के बादलों के नीचे छुपी
कहीं फर्ज़ की सतह के नीचे
अक्सर दबी रहती है
अग्नि

कितनी देर से
शब्दों की कुदाल लेकर
मैं खोद रहा था
तुम्हारे मन की धरती
इस कोने-कभी उस कोने
इस दिशा में कभी उस दिशा में

ढूँढता रहा अग्नि
क्योंकि तुम्हारी आँखों में
मैंने पढ़ा था सेंक इसका

खोदता रहा बहुत देर
तुम्हारे मन की पृथ्वी
मुझे लगा था
कि संस्कारों की भारी स्तह के नीचे
यहीं
कहीं न कहीं
छुपी है अग्नि

खोदते-खोदते
आख़िर मैंने ढूँढ ही ली
एक दिन
तुम्हारे मन की पृथ्वी में
गहरी दबी हुई
अग्नि

लेकिन इससे पहले
मैं अग्नि चुराता
अग्नि का फूल बनाता

मैं अग्नि पकड़ने की
कोशिश करता
अग्नि में
भस्म हो चुका था ।





लालटेन 

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई 
निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की 
परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।






वर्षा 

वर्षा जब बाहर होती

तो कैसे निखर जाता
धीरे धीरे आकाश
प्यासी धरती
भीतर तक तृप्त होती 

वृक्षों के पत्ते
धुल कर हो जाते नए नवेले
पवन से निकल कर 
सोंधी महक 
सांसों में घुलने लगती 

काश !
वर्षा ऐसी
कभी इन्सान के
भीतर भी हो पाती.... !!!


 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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