Monday, October 3, 2016

सुमित्रानंदन पन्त ने कहा था 
वियोगी होगा पहला कवि 
आह से उपजा होगा गान

उमड़कर आँखों से चुपचाप
वही होगी कविता अनजान

साहित्य संवेदना की आधारशिला पर अपना भवन निर्माण करता है। काव्य का प्रथम गुण ही संवेदनशील होना है। यही संवेदना साधारणीकरण को पूर्णता प्रदान कर उच्चतम शिखर तक प्रेषित करती है।

आज काव्य-बगिया में से कुछ पुष्प चुने हैं। ये पुष्प मधु की भीनी खुश्बू से युक्त हैं।
 मधु सक्सेना की कवितायेँ हृदयंगम होने के लिए प्रस्तुत हैं।



वाट्सअप  समूह  "साहित्य की बात "पर ,जिसके संचालक है श्री ब्रज श्री वास्तव और इन कविताओं को प्रस्तुत किया है सह संचालक सुश्री डॉ पदमा शर्मा ने |इनके सोजन्य से यह कविताये और इन पर हुई समीक्षक प्रतिक्रियाये रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है 

♻ कविता  ♻
 *आ ही जाना *


मत आना.....
मेरे हाथों में मेहँदी का रंग बनकर
कितना भी पिसु ...भीगूँ ..
कुछ भी रचाऊं ~
देसी ,अरेबियन .
बतासा ..सिंघाड़ा या मुठिया बनूं
चले ही जाओगे उसके रंग की तरह ...

तुम आना ......
हाथों की रेखाएं बनकर
कभी हृदय ,कभी मस्तिष्क
कभी भाग्य या कभी जीवन रेखा बन कर

बन जाना कभी पर्वत
वहीं से चमकना मंगल बन कर
बुध की हंसी या गुरु का गुरुर बन कर
या शनि की तरह घेर लेना
बन जाना साढेसाती का अढ़ैया
या शुक्र की तरह
प्रेम के बीज रोपना ....

उँगलियों के पौर पर उकरे
शंख और पदम थाम कर
निकल पड़ना  दूर यात्रा पर
सागर से सीपियाँ उठा कर
बो देगें पहाड़ों पर

आ जाना ...
बस आ ही जाना
न जाने के लिए ....
         

         
कविता ♻
*उम्र का हिसाब *

कोई क्यों काटने लगता है
पल -पल , क्षण क्षण
ये ज़िस्म उधार का लगता है
बन गया चिन्दी चिन्दी ये मन
आत्मा क्या होती है ..?
उम्र अपने गुज़रने का हिसाब मांगती है

ये उम्र का गणित कैसे पढूं
कैसे समझूँ ..
कोई गुरु ,कोई किताब हो
सब कुछ रचना होगा
नए सिरे से ...
खुद को समिधा बना
अपनी ही आग में स्वाहा का
लयबद्ध उच्चारण
और नए वेदों का सृजन ...

बैठाने होंगे नए समीकरण
अहसासों के शून्य से शुरू कर
'पाई के मान 'के बीच से गुज़र कर
प्रमेय के अंतिम सिद्धांत तक ....

 कोष्ठक से कोष्ठक तक
डायरी के अंतिम पन्ने तक
शायद ये उम्र हिसाब पा जाए
और उत्तर पृष्ठ पर आकर
ठहर जाए ......नए सवालों के साथ ....


                      
 ♻ कविता ♻
*मौन  की आवाज़ *


कहाँ से आ रही बांसुरी की धुन
कोयल की कूक ,पपीहे की हूक
लहरों का गान ,मोती की मुस्कान
गूंजने लगी डमरू की घोषणा
और शंखनाद का आरोह ...

ये कौन है
जो मेरी गीली मिट्टी सी छाती को
घुंघरू बंधे पैरों से पार कर गया
सहेज लिए गीली मिट्टी में
पावों के निशान ..सूरज की तपिश बन कर
पौर पौर से ये कौन सा संगीत फूटा
की आसमान में टँग गई
नई जोगिया सुनहरी चादर ...

धरती ठिठकी ,पर रुकी नहीं
धूमती रही ..घूमती रही ...
प्रेम परिभाषित नहीं हुआ
बस , आ गया यूँही ..
एक कठोरता भरी भावुकता
सहलाती रही रात भर
मेरी मौन की आवाज़ को ..
           

   
♻ कविता-♻
* स्मृतियों के पन्ने *


सारी स्मृतियों को रात के हाथों सौंप कर
मुस्कारा देती हूँ सूरज के सामने
धूप और हवा  को गले लगाकर गुनगुनाती हूँ
सूरज खुश हो जाता
समझ ही नहीं पाता
इस गुनगुनाहट में छुपे
विरह गीत  के अक्षर
स्मृतियों के पन्नों से ही तो चुने हैं ।

       

♻ कविता ♻
 * बेढब रात *


ये रात भी अजीब है
मेरे बिस्तर में जाने के पहले ही
बेतरतीब से बिखेर देती है स्मर्तियों के पन्ने
बेढब रात ........
कब सीखेगी सुघड़ता
इतनी तो जगह दे कि
एक नींद ले सकूँ .......  


                   
♻कविता- ♻
*वजह -बेवज़ह *


कोई वजह नहीं होती खुश होने की
जैसे की कोई वजह नहीं होती दुखी होने की
बस, बेवज़ह जिए जाता है आदमी
वजह ढूंढते हुए .....
वजह को बेवज़ह बनाते हुए
और बेवज़ह को वजह बनाते हुए ।


🌀🌀🌀🌀🌀🌀


✴कवयित्री का
 आत्म कथ्य ........✴

मन की गीली धरती पर सम्वेदनाओं के बीज  गिरे,  जो अंकुरण हुआ वो आपके सामने है ।ये  कविता है या नहीं ये भी नहीं बता सकती ...कोई गूंज सुनाई देती है... कुछ शब्द बहते हुए महसूस करती हूँ कभी थाम पाती हूँ तो समेट के रख लेती हूँ कई बह जाते  कितना भी पुकारो नहीं आते ....ब्रह्माण्ड के हर  ग्रह नक्षत्र की तरह चलायमान हवा की तरह बहते शब्द और भाव  कई बार आकर हमे खुद चुन लेते है ..अपने आने जरिया बनाते है । कविता खुद उतनी ही नहीं जितनी दिखती है ज्यादा तो छुपा ही है ....जो भी है .. आपकी आलोचना और प्रशंसा दौनों प्रिय रहेगी ...

🌀✴🌀✴🌀✴🌀


☸परिचय☸


नाम - श्रीमती मधु सक्सेना

जन्म -24 अगस्त
जन्म स्थान  -खांचरोद जिला उज्जैन (mp)
शिक्षा - कला , विधि और पत्रकारिता में स्नातक ।हिंदी साहित्य में विशारद ।
प्रकाशन - ' मन माटी के अंकुर ' (काव्य सन्ग्रह ).....विभीन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन ।
सम्मान ~( 1) नव लेखन ( 2)शब्द माधुरी (3) रंजन कलश शिव सम्मान।
अन्य - आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण , बस्तर और सरगुजा में साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना ।
कई हिंदी सम्मेलनों में भागीदारी ।
मोबाइल- 9425513161
पता - सचिन सक्सेना
H-3,   व्ही .आई .पी.  सिटी
उरकुरा रोड - सड्डू
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
पिन ..492 001
मेल- ..saxenamadhu24gmail.com


______________________________________________________

प्रतिक्रियायें

सुधीर देश पांडे ..
आज मधुजीजी को पटल पर देखकर अच्छा लगा। साहित्य की बात के कवियों के बारे में एक लाइन तो बनती है कि वे दुरूह कवियों में शामिल नही है। अपने मन की बात बेलाग और अपनी बोली बानी में अपने प्रतीकों और शिल्प के साथ करते हैं। यह लोकाभिमुख दृष्टिकोण है। अब मधुजीजी की कविताओं पर।
आ ही जाना प्रेम की पराकाष्ठा है, समर्पण का भाव इतना कि शनि की अढैया तक की स्थिति भी हो तो मान्य है। अच्छा भाव। कविता तो खैर।
उम्र का हिसाब में दर्शन की शक्ल में है वे सवाल जिनसे हम दो चार होते ही रहते है। ये तो गणित की कविता भी है। 😊
मौन की आवाज में प्रेम की कोमलता अपनी पूरी उदात्तता से परिभाषित हुई है।  
स्मृतियों के पन्ने बडी कोमलकांत अनुभूति है। बेढब रात भी स्मृतियों की अव्यवस्थित आवाजाही पर मन के नियंत्रण न होने का चित्रण बखूबी प्रस्तुत करती है। जब वजहें खोजी जा रही हो हर बात की तब बेवजह कोई कैसे जी सकता है। सच है हम बेवजह को वजह बना कर ही तो जी रहे हैं।
कवियत्री की कविताओं का गठन प्रवाहमय है। अच्छी कविताएं। बधाई जीजी, आभार पद्माजी।

 Avinash Tivari: 
आज साकीबा में पद्मा जी ने कई समूहों में हरदिल अज़ीज मधु सक्सेना जी की कविताओं का उपहार दिया है।मधु न केवल बेहतरीन साहित्यकार हैं बल्कि एक अच्छी टीकाकार भी हैं।सभी रचनाओं को पढ़ा।
कविता 1 ..बस आ ही जाना न जाने के लिये मेंहदी हसन की गज़ल रंजिश ही सही की याद दिलाती है इस कविता मेें मधु ने प्रेम को ज्योतिषीय झरोखे से.देखा है।प्रेम कभी भाग्य रेखा तो कभी साढ़ेसाती बन कर आता है साढ़ेसाती भले ही जीवन में दुख देती है परन्तु अपने किसी एक चरण में भरपूर सुख भी देती है। मेंहदी  भी शीतलता रंग और प्रेम की सुगंध का अहसास देती है जो रंग उतरने के बाद भी स्मृति में बना रहता है। ऐसे प्रतीकों का प्रयोग मधु बखूबी करतीं हैं।
उम्र का हिसाब अच्छी कविता है।खाली समय में अपने आपको देखना बातें करना क्या खोया क्या पाया और बाकी क्या रहा है।ज्यामितीय प्रमेयों से जीवन के गणित को हल करने का बहुत अच्छा प्रयास किया है मधुजीने।अगली कविता मौन की आवाज--                         
 मौन की आवाज ..ये कौन है जो मेरी गीली मिट्टी----मन को छूने वाली अभिव्यक्ति है। मौन की आवाज तन्हाई में बजता जैसे एक साज है।बेढब रात पहले भी पढी हैबहुत प्रभावित करती है।। स्मृतियों के पन्नों का बिस्तर पर इस तरह बिखरना कि नींद के लिये कोई जगह न बचे करवटें स्मृति के पन्नों सी बदलती रहती है और रात भीगती गठरी सी भारी होती जाती है।
बहुत अच्छी कविताऐं हैं सभी मधुजी हमेशा की तरह बधाई आभार शुभकामनाऐ ।

पद्माजी ब्रज जी आभार बहुत बधाई।।

प्रवेश सोनी 
आ ही जाना ,न जाने के लिए ...प्रेम को बना कर हाथ की रेखायें और ग्रहों की चाल में पुकारना कभी न जाने के लिए ।
बहुत खूब प्रतिक लिए इस कविता में मधु ने ।वो जानती है मेंहन्दी कितनी भी गाढी रचे लेकिन उसके रंग सा पिया एक दिन जरूर  छोड़ देगा साथ जैसे छूट ही जाता है मेंहदी का रंग ।वो तो हथेली और पाँव की रेखाओं की मानिंद चाहती है प्रिय का साथ जो कभी जुदा होये ही नही ।गज़ब अभिव्यक्ति है ।
मधु की कविताओं के कोमल अहसासों को जब भी छूती हूँ एक अजब ही सुगंध भर जाती है ।
लेकिन जब जीवन की गणित को समझने की कोशिश में रखती हूँ पाई का मान तब वैचारिकता के मापदंड   परिचय देते है जीवन  को समझने की परिपक्वता का ।
मौन  की आवाज़ तो गज़ब की अभिव्यक्ति है 
इस कविता के बिम्ब जैसे प्रेम रस से भरे हो ....टपक रहा है मधु ,मधुर मधुरतम 
बेढब रात से एक नींद की गुहार 
वजह और बेवजह की जद्दोजहद को भी खूब उकेरा ।
यही कहूँगी कुछ कवितायेँ हमेशा के लिए मन से बस जाती है मधु की कलम  ऐसी ही कवितायेँ  रचती है ।


शुभकामनाएं मधु और आज की प्रस्तोता डॉ पदमा को दिन भर साथ रहने के लिए धन्यवाद ,मुबारकवाद एक सफल दिन साकीबा को देने के लिए ।


 राजेन्द्र श्रीवास्तव 
  मधु जी की गुनगुनाती कविताएँ हृदय स्पर्शी हैं। अलग अलग रंगो को उकेरती हैं। नेह ,अपनत्व,वेदना-संवेदना सब कुछ अपने अंदाज में व्यक्त करती हुई।बिम्बों का अनूठापन कविता को आयाम देते हुये। कुछ कहा-कुछ अनकहा जैसा ।मधु जीआपकी रचना धर्मिता को प्रणाम व आपको बधाई ।

मधु जी की कविताओं से सा की बा को सुवासित किया ,पद्मा जी बहुत धन्यवाद ।


+91 96876 94020‬: मधु सक्सेना जी की 'आ ही जाना' जैसी कविताएं स्थायी सौन्दर्य व जिजीविषा की बोली बोलती कविताएं है ।वो क्षणिक सौन्दर्य की हामी नही है चाहे वो मेंहदी के रंग जैसा अतिलुभावन ही क्यों न हो । मेंहदी प्रेम का प्रतीक तो है पर वह प्रेम में संतुलन का प्रतीक नही है वह स्मृति मे बसे, स्वपन मे बसे  या फिर एक तरफा प्रेम के भावनाओं का वाहक हो सकती है पर उनकी स्त्री चेतना मे यह प्रेम स्वीकार्य नही है वो प्रेम के साकार रूप की जो स्वपन मे नही साक्षात् साथ रहकर वास्तविक जीवन की
कठिन दिनो मे जरूरत पडने पर पत्थर तोडने का सामर्थ्य दिखाने वाले हाथो मे लकीर बन रहने वाली प्रेम की प्रतीक्षा मे है ।
यह प्रेम के आभासी या प्रेम मे स्त्री के

अकेले रह जाने के प्रति सचेत करती कविताएं है यह रचने के लिए उन्हें बधाई ।

आरती तिवारी 
 मधु जी की कविताओं में शब्द शब्द स्त्रीत्व है एक नाजुक एहसास लिए हुए ये कवितायेँ बरबस बाँध लेती हैं। किसी भी बौद्धिक चमत्कार का गणित बिठाये बिना कवितायेँ बो दी हैं एक नम ज़मीन की सुखद हरियाली के लिए मुझे उनकी एक और कविता याद आ रही है शायद अ से ज्ञ वाली बहुत सहज सरल तरल अभिव्यक्ति एक व्यक्ति और एक स्त्री के तौर भी एक कवियत्री से अलग होकर भी उनका व्यक्तित्व गरिमामय है।
समूह में उनकी सक्रियता,सहभागिता और साथी सदस्यों की रचनाओं पर उनकी आत्मीय और त्वरित टिप्पणियाँ हर बात मुझे उनका प्रशंसक बनाती है।

मैंने इन कविताओं में ह्रदय देखा सहज ह्रदय और इन्हें पढ़ना सफल रहा। हालांकि बहुत देर से पोस्ट पर आ पाई🙏

मुकेश सिन्हा 
दिल्ली: मधु जी के लिए क्या कहीं, टीचर जैसी दोस्त हैं, मेरी बहुत से कविताओं की पहली पाठिका !! जिन्होंने आपको सराहा, उनको उलट कर कहो, बेहतरीन लिखते हो, तो बात बनती नहीं है ! हाँ ये सच है, एक बेहद संवेदनशील शख्सियत हैं, और मुझे फख्र है, इन्होने  मुझे हर समय एक बेहतरीन मित्र के तरह मान दिया, तभी तो इनके माध्यम से ही अपने हलके फुल्के कविताओं के साथ साकीबा  जैसे मंच पर पहुँच पाया ! मधु जी की कविताओं में खुबसूरत भाव हैं, शिल्प है, बेहद सुन्दर गठी हुई है, और चाहिए क्या ! अलग अलग बिम्बों का प्रयोग कर ये भी बता पाने में सक्षम हैं कि इनके तरकस में कितने तरह के तीर हैं !! प्यारे से मनुहार के साथ पहली कविता में कहती हैं - तुम आना .........हाथो की रखायें बन कर !!

अनुमा आचार्य 
आ ही जाना" प्रेम के क्षणिक भाव से परे (धुल जाने वाली मेंहदी आदि) प्रेम के स्थायित्व के भाव और अविरलता (निरंतरता) की बात लगती है. स्टेबिलिटी प्रभावित करती है 

अनीता मंडा
 गहन अनुभतियों की महक़ समाहित किये मधु दी की कविताएँ देर तक मन में चलती रहती हैं, लगता है अरे ये तो हमारे मन की ही बात है, जिस तरह बीज का विस्तार पेड़ है उसी तरह इन कविताओं में भी सीमित शब्दो में कही बात बहुत गहन अर्थ, भाव संवेदना रखती है, अपनी अनुभूती को पूर्णता से अभिव्यक्त करना हो तो ये कविताएं आदर्श हैं, मधु दी से बहुत सीखना है, उनकी रचनाएँ आगे भी मिलती रहेंगी इस आशा के साथ बहुत बहुत शुभकामनाएँ , बधाई🙏

दिनेश मिश्र 

सारी कविताएँ अहसास से ताल्लुक़ रखती हैं , यादों की कितनी दखलंदाज़ी हमारी ज़िन्दगी से लेकर हमारी नींदों तक में है, ये हम सब महसूसते हैं, पर असरदार ढंग से मधु जी की कविताएं इसे व्यक्त करती हैं, बधाई मधु जी।


मीना शर्मा 
: मधुजी की संवेदना से लबालब कविताएँ.किसी प्रिय गीत की तरह हृदय को स्पर्श कर धीमें से रस घोलती प्रेम का ,और मन केभाव भरे आँगन में आ ठहरती काग़ज़
पर.. ...!
आ ही जानाउस रूप में ही सही,शनि की साढ़ेसाती बनकर....क्या बात है ! प्रेम का ऐसा बिरवा मैंने नहीं देखा !  
उम्र के गुज़रने का हिसाब,नये समीकरण के साथ  ,बहुत खूबसूरत !
मौन की आवाज़ !  ये कौन है,जो 
मेरी गीली मिट्टी सी छाती को,
घुँघरू बँधे पाँवों से पार कर गया...गीत की लय लेकर प्रेम का साज़ बजाती मौन की आवाज ,सीधे दिल में उतरने का हुनर जानती है. 
स्मृतियों के पन्ने , मासूमियत के आवरण में विरह का गीत गुनगुना लेनीा आसान नहीं है. 
बेढब रात , वजह-बेवजह  ....बेवजह जिये जाता है आदमी
वजह ढूढते हुए..एक -कविता 
शीर्षक सी ,जो अनेक पंक्तियाँ रचे  और फिर लम्बी कविताओं का रूप ले.
सीधी सरल भाषा ,संवेदना में ढले शब्द,निरंतर प्रवाह,संयोग वियोग 
और प्रेम की भाषा से सभी कविताएँ रागात्मक संवेदना का इंद्रधनुष लेकर मन मोहती हैं ! 
बधाई मधु बेहतरीन कविताओं के लिये !

चयन और प्रस्तुतिकरण बहुत सुंदर, डॉ. पद्मा जी आभार !

उदय ढोली 
 "वाक्यं रसात्मकं काव्यं"

 कसौटी पर खरी कविताएँ इनकी संप्रेषणीयता ही इन्हें विशिष्ट बनाती है ।


मुक्ता श्रीवास्तव: 
कविता का मतलब होता है रसयुक्त वाक्य ,कविता का मतलब होता है अपने मन के साथ साथ कुछ औरों के मन की भी बात.कविता का मतलब यह भी होता है कि निर्बाध संप्रेषण.ये सभी चीजें तो हैं मधु जी की कविताओं में.कहाँ थीं अब तक ये कविताएँ..एसी खोज का श्रेय पदमा जी को जाता है,जिन्हें इस बात का भी श्रेय जाता है कि उन्होंने साकीबा को साकीबा नाम दिया.

अर्चना नायडू
 मधु दीदी की कविताओं से आज पटल गुलजार हो रहा है। मुद्दत से इंतजार था,  उनकी परिपक्व सोच और    गहन मनन से उपजी  हर कविता बेमिसाल है।   कवि मन से तरल और  अपने अंतर्मन सकितना  संवेदनशील है यह उनके   शब्दों से बयाँ हो जाता है। ।  मुझे हर कविता  मे गहराई  नजर आई। दीदी,    आप लिखते रहिये,  हम सीखते रहेंगे 😊🤗👏


आभा बोधित्सव 
 कविताएँ मधु जी के सहज सोच  को व्यक्त करती हुई आगे बढ़ती गईं  हैं । 'स्मृतियों के पन्ने' मुझे ज्यादा पसंद आई । साधुवाद मधु जी ।

भावना सिन्हा 
 संवेदना से परिपूर्ण सुखद  कविताएँ । आ ही जाना और स्मृतियों के पन्ने इतनी आत्मीय  हैं जैसे अपने मन की ही बात सुन रही हूं ।  कुछ बिंब  बहुत ही अच्छे  लगे। 

पदमा जी का आभार उन्होंने इन कविताओं को  साझा किया । मधु जी को  बहुत बधाई ।

ब्रजेश कानूनगो 
 मधु जी की कविताएं,स्त्री संवेदनाओं से भरी हैं।कविता में कवि स्वयं से वार्तालाप करता है।इस बातचीत के मर्म तक वे पाठक बहुत सहजता से पहुँच जाते हैं जो अपने भीतर थोड़ा अधिक कोमल मन लिए होते हैं।कवितायेँ स्त्री जीवन की अनुभूतियों और संस्कारों से रंगी हुई पाठक तक पहुंचने में बहुत हद तक सफल होती हैं। 
बहुत बधाई और शुभकामनाएं,इससे आगे के सृजन के लिए।💐💐


अनुमा आचार्य 
 जैसे स्वयं पर बीता हुआ, और उससे प्रेरित विचार.....विन्यास....न कि भुगता हुआ.....

अलकनन्दा साने 
: मधु जी की कविताएं संभवत:पहली बार पढ़ रही हूँ.पहली ही कविता हाथ पकड़कर रोक लेती है.अपने प्रिय केलिए अलग अलग प्रतिमान देकर , बुलाने और रोके रखने का जतन एकदम नया है.'' *उम्र का हिसाब '' कविता की अंतिम पंक्ति बेहद सकारात्मक है.हर उम्र की अपनी चुनौतियाँ होती हैं और कवयित्री उन्हें स्वीकार करती हैं.'पाई के मान 'के बीच से और 'कोष्ठक से कोष्ठक तक' जैसे नए बिम्ब कविता को एक नया आयाम देते हैं.तीसरी कविता ''मौन  की आवाज़'' में गीली मिट्टी सी छाती समझ में नहीं आया.यदि ये पुरुष से सम्बंधित है तो पुरुष की छाती वज्र की , लौह की मानी जाती है और यदि यह स्त्री की है तो वह गीली मिटटी की तरह अपने वक्ष से कोई सृजन नहीं करती, बल्कि जो सृजित है उसका पोषण करती है.घुंघरू बंधे पैर भी अर्थ स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं.''स्मृतियों के पन्ने'' बढ़िया है. सचमुच दिनभर हम जो मुखौटा लगे घूमते हैं, वह रात को अपने असली रूप में आ जाता है और सूरज के साथ साथ दिन के उजाले में कोई भी हमारी असलियत नहीं जान पाता है.शेष दो ने ज्यादा प्रभावित नहीं किया.


एक लम्बे समय के बाद पूरे मनोयोग से  मैंने आज इतनी विस्तृत  टिप्पणी लिखी है.मधु जी शुभकामनाएं..


दीप्ती कुशवाह 
 मृदु भावनाओं की तरंगें जो हृदय तक पैठ बनाती हैं... मधु जी की चित्तहरिणी कविताओं में अविस्मरणीय सुधियाँ हैं, मनोरम भोर है, दारुण विरह है, धैर्या धरा है, भीगी माटी है, प्रेम का अनुभूति है, बाँसुरी... पपीहे की कूक...घुंघरुओं की खनक है...शंख...सीपियाँ हैं....
सुख के लिए भला और क्या चाहिए !!
रविन्द्र स्वप्निल 
 ऐसी कवितायेँ कोई नहीं लिख सकता जबतक विदग्धता न हो। बहुत ही छु लेने वाली कवितायेँ। बधाई हो।
 ये कवितायेँ 3 से चार हजार की संख्या में हों तो यानि इतने भाव हो तो ये प्रेम का एक नया युग रच क्र विश्व साहित्य की थाती बन सकती हैं।
जतिन 
 वजह बेवजह हर जिंदगी का हिस्सा है .मालूम ही नहीं चलता कब वजह बेवजह में घुल जाती है जिंदगी ..

रात नहीं सुधरने वाली...एक ही पल में बरसों के चिट्ठे
खोल देती है..नींद में घुसपैठ करती है..

हर आम की कविताएं है...हर साँस से जुड़ी....मैं तो रोज गुजरता हूँ ...रोज रोज की पीड़ा को  सुंदर शब्दों में पिरोने के लिए धन्यवाद पद्मा जी.




ब्रज श्रीवास्तव 
 सबसे पहले तो पदमा जी को धन्यवाद, कि उन्होंने हमारी सह एडमिन मधु जी की कविताओं को पोस्ट किया, दरअसल मधु जी कोमल और भाव भरी कविताएं लिखने में सिद्धहस्त हैं |उनकी संवेदनाएं जैसे दिन रात जागती रहती हैं |उनका बायोडाटा बताता है कि वह अपने रोजमर्रा मे`भी साहित्य के लिए जगह बना लेती है और वह जगह भी सामान्य नहीं होती भले ही उनकी कविताएं नितांत समकालीन शैली को पूरी तरह से नहीं अपनाती, लेकिन उनकी शैली अपने आप में पर्याप्त है, यह शैली भी पाठकों तक अपनी मन की बात कविता के लहजे में पहुंचाने में कामयाब होती है,, हम जब उनकी पहली   कविता यहां पढ़ते हैं तो देखते हैं कि कैसे वह एक ही प्रिय को अलग-अलग तरह की मनुहार से पुकारती हैं, उम्र का हिसाब तो गजब की कविता है हम देखते हैं कि वहां गणित के शब्दों के द्वारा जीवन की अन्य अन्य बातें बहुत प्रभावशील तरीके से व्यक्त की गई हैं उसी तरह से, मौन की आवाजकविता में जब वह कहती हैं, कहां से आ रही है बांसुरी की धुनयहीं से ही हमारी जो पाठकीय समझ है उसे पंख मिलते हैं और हम कवि की कल्पना की क्षमता पर चकित होने लगते हैं हालांकि यह एक छायावाद के जैसी आशावादी कविता है लेकिन यह उन कविताओं को जवाब भी है जो बौद्धिक होते हुए कहीं भी नहीं पहुंच पातीं मैं देखता हूं की इन कविताओं में कोई बहुत बड़ा वैचारिक दोष भी नहीं है उसकी वजह है कि ये सभी कविताएं हमारी अपनी कविताएं हैं, अपने अंतः करण की कविताएं हैं, इन सारी कविताओं के लिए मैं मधु जी को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं और मित्रों से आग्रह करता हूं इन पर जी भर कर चर्चा करें.. |
|सादर||>ब्रज श्रीवास्तव




मणि मोहन मेहता 
: स्मृति और सम्वेदनाओं की तनी हुई रस्सी पर नृत्य करती ये बहुत आत्मीय कविताएं हैं । कुछ नए प्रतीक भी मन को भाये .. मधु जी बधाई ।पदमा जी ने बहुत उम्दा से इन्हें प्रस्तुत किया ।उन्हें भी बधाई ।

नरेश अग्रवाल 
: मधुजी का गहन अनुभव और किसी भी तरह का जीवन अविचलित होते हुए जीने का साहस उनकी कविता "आ ही जाना में झलकता है"।  इतना अधिक साहस की साढ़ेसाती को भी आकर   ना जाने को कह डालती हैं । वे जीवन की जटिलता से घबराती नहीं है बल्कि उसे कच्चे माल की तरह अपनी रचनाओं में ढाल लेना चाहती हैं।

 वे महसूस करती हैं यह शरीर उधार का है इसे किस तरह से जिया है, इसका हिसाब उन्हें अपने अंतकरण को देना होगा,  इसलिए दुविधा में हैं  और साथ ही चिंता में कि किस तरह से नित प्रतिदिन जीवन को सुधारा जाए ताकि मन में कोई दुख न रहे और डायरी के अंतिम पन्नों में लिख सकें कि "जीवन सर्वश्रेष्ठ रहा"।

 उनकी संवेदना इतनी अत्यधिक है कि वे मिट्टी से भी मन की आवाज सुन लेती हैं और मोती की मुस्कान को अपने कानों से सुनती हैं बजाया आंखों से देखने के। वे एक योगी की तरह संसार की प्रत्येक चीज से संवेदित है, हर चीज में उन्हें दिव्य्  ध्वनियाँ, प्रेम, नृत्य और लय नजर आती है । प्रेम के लिए उनके द्वारा सदैव खुले हैं चाहे वह आए या नहीं,  उसके स्वागत के लिए वे सदैव आतुर हैं। 

सच है कि किसी की भी स्मृतियों के पन्ने अबूझ होते हैं, आदमी उन्हें खुद ही नहीं समझ पाता तो भला सूरज क्या समझेगा इस गाथा को। वह तो बस देखता रहता है कि कोई प्रेमी उसकी धूप को गले लगा कर, हवा के सहारे उड़ उड़ कर द्वार द्वार विरह के गीत गाता हुआ अपनी स्मृतियों के पन्ने बांट रहा होता है अपने दुख हल्का करता  हुआ। 

 बेढब रात से सभी परेशान रहते हैं जो केवल थकान को जगह देना जानती है। लेकिन थकान के साथ चिंता हो तो उसे नकार देती है। लेकिन लेखक के लिए नींद से अधिक महत्वपूर्ण तो उसके विचार हैं, वह उनके बिना सोये कैसे? फिर इस बेवकूफ़ रात को  यह समझाएगा कौन ?यह एक बड़ा प्रश्न उभरकर सामने आता है इस कविता में ।

मधु जी की अंतिम कविता में यह संदेश बेहद महत्वपूर्ण है कि जीना है  "वजह को बेवजह बनाते हुए और बेवजह को वजह  बनाते हुए।" 


अंत में मधु जी को बहुत-बहुत बधाई बहुत सारी अच्छी अच्छी कविताएं लिखने के लिए।



 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

पिछले पन्ने