Saturday, September 24, 2016

कविता क्या है, इस सवाल के उतने ही उत्तर हैं, जितने मनो मष्तिष्क हैं, इसकी परिभाषा सब के लिए अलग ही हैं। यह केवल आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति ही नहीं, हर संवेद की बयानी है,

यह सुरेन जी की कविताएँ पेश करते हुए इसलिये लिखा जा रहा है कि सुरेन जी अपने अनुभव जनित विचारों की कोमलता को कविता में ढालने में सिद्ध हैं। एक बारीक से एहसास को ठीक ठीक शाब्दिक जामा पहना पाना मुश्किल तो होता है, पर सुरेन  जी इन अभिव्यक्तियों के ज़रिए पाठकों तक पहुंच पाते हैं।

आइये पढ़ते हैं यहाँ उनकी कुछ छोटी कविताएँ जिन्हें हमने टिप्पणी सहित लिया है, वाटस एप समूह साहित्य की बात से। जिसके संस्थापक एडमिन हैं ब्रज श्रीवास्तव

सुरेन्द्र सिंह ,(सुरेन ) निवासी मथुरा
 जन्म 16 फरवरी 1973 
 1994 में बी०एस०सी० और 1996 में दर्शन शास्त्र में एम०ए० 
 1998 के उ०प्र० लोकसेवा आयोग के बैच से सलेक्ट होकर वर्तमान में बरेली के निकट श्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत



नमस्कार दोस्तो. 
आज गुरुवार को हम समूह के सदस्य की कविताएँ प्रस्तुत करते हैं, इस क्रम में आज प्रस्तुत हैं ऐसे कवि की कविताएँ जो अवचेतन के धुंधले चित्रों की साज सज्जा कर कविता की चौखट में जमाने की  कोशिश में अक्सर सफल होता है, जिसकी कल्पना का वितान आकर्षक है, 
वहाँ, स्वप्न, प्रेम, मौसम, संबंध, संशय, अधीरता, और न जाने क्या क्या, कवि की दुनिया का अक्स दिखाते हैं, जिनके बारे में, अब आप लोग ही टिप्पणी कर परस्पर अर्थ अन्वय करेंगे. 





1⃣➖

सपना चलता है,

रात भर

मैंने कहा...

चला आऊंगा तुम्हारे अवचेतन में,

जो यूँ रात में उनींदे बात करोगे,

मुझसे, मैं जानता हूँ,

तुम्हारे चेतन मैं कोई जगह नहीं शायद मेरे लिए

तुम्हारी तस्वीर एक छोटा-सा बिंदु है, मन में कही छिपा,

जहाँ से मैंने कई त्रिज्याए नापी है

अपने होने में एक सार्थकता की तलाश में।




2⃣➖

प्रिय, जैसा कि तुम जानते हो

मौसमजिसे फागुन कहते है

तुमने साल भर जो चोटियाँ

बाँधी है, वे एक साथ खुल-खुल जाती है

यूँ रह -रह कर खुलते केशों से

किसी भी पत्ते का पर्ण हरित

लह लहा के मेरी ओर

ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश करता है

ऐसे में तुम्हे प्यार ना करने की जिद

और तुम्हे जहन से हटाने की सारी कोशिशे

तुमसे कहना नहीं चाहता

और न ही जताना।



3⃣➖

तुम्हे यूँ बार बार लिखना

फिर बार बार मिटाना।

कभी, यूँही रात में

आकाश ताकना तुम

एक इबारत जो —

केवल तुम पढ़ सकते हो

को कभी देख पाओ

तो बस मुस्कुराना भर

क्योंकि कुछ भी - कह देना

दरअसल दरक जाना है

उस हवा का जो

तुम तक पहुंचती है

मेरे चश्मे पर चढ़े

नम धुंधलके को लेकर।


4⃣➖

सब छूट जाता है...धीरे धीरे...

जो जिज्ञासाएं हम बढ़ाते आ रहे थे अभी तक

और जो हमारी जिजीविषा को गति देती थी

एक दिन पता चलता है कि

हम एक खाली बक्सा ढो रहे है

वो कब रीत गया पता ही न चला

लेकिन फिर भी...

जिजीविषा जाने कहाँ से अपना सूत्र पकडती है

चीज़े यूँही बेलौस-सी दूरियां तय करती रहती है।



5⃣➖

सलाहकारी पिता को...

बदलते देखना।

और केवल आँखों से सब कुछ कहते...

ये अनुभव जाने क्यों

हर उस लड़के को छू जाता है

जो अभी कुछ दिन पहले तक,

निर्भरता की सीढ़ी उन पर टिका कर,

आखिरी सोपान पर पहुंचा है।

जहाँ पड़ती तेज रौशनी से...

बचने को उनकी छाया

बस तीन -चार सोपान नीचे दिखती है।




6⃣➖

मैं..., जो संगतराश ना हो सका

तुम्हे गढ़ने की चाहत

फिर भी मरती नहीं...



7⃣➖

किन्ही पलों में तुम्हारा होना और उन्ही जैसे पलों में तुम्हारा न होना

यूँ तो जन्म से मृत्यु का सफर पूरा हो ही जायेगा

पर बीच -बीच के पड़ावो पर तेरा होना और फिर न होना

यही सौगात लिए फिरते है और सम्हाले हुए कागजो पर

फिर फिर लिखते है तेरा होना और न होना

पीले पड़ चुके कागजो की एक एक सलवटों पर

उँगलियों की हरकत ठहर ठहर जाती है

कि टपकी हुई बूंदों से धुन्धलाये हुए हर्फ़

तेरे होने और न होने पर कसमसाते हुए तैरते है



8⃣➖

तुम्हे माफ करने की कोशिश कभी मन से नहीं कर पाता

जी भर के जीना चाहता हूँ तुम्हे, खुद से सुलह ना करके



9⃣➖

कि यादों के इस बियावान में

तुम एक हरी घास की चादर-सी बिछी

मेरे पाँव रखते ही

सिमट जाने के उपक्रम में

सब नमी उलीच जाती हो।


10⃣➖

छले जाने के पड़ाव...

हर पड़ाव पर...

यूँ, ठिठकना...

और उत्सुक मन में...

गाढ़ी होती अधीरता से...

टपकती बूंदों के निशाँ पर

पॉव रख चलना...

और पीछे मुड मुड...निहारना...

क्या अदभुत संयोजन है...

ठहरे पानी में...लहर पैदा करने का।



11⃣➖

एक शहर...

जो मेरे कंधे पर बैठा रहता है

एक तितली की तरह नहीं

ना ही किसी चमकते तमगे की तरह

झिलमिलाता है

स्पोन्डलीटिस के शुरूआती दर्द सा

जो हरकत करने पर

कबूतर बन जाता है।

फुर्र...होने के लिए

और जरा-सा आराम पाकर

टीसने लगता है।



12⃣➖

तुम्हारे बिल्कुल करीब आके

बीच की गुजरती हवा में भी

साँसों को ठेलती गर्मी

सिर्फ हथेलियों को पसीजती है

लेकिन मन पसीज कर भी

नम और मुलायम होकर भी

मुझे सांत्वना नहीं देता।



___________________________________________________________


प्रतिक्रियायें

Ravindra Swapnil: बहुत सुंदर कवितायेँ है, भाव और अर्थ के स्तर पर, भाषा में भी काव्य है, कंधे पर शहर का बेठना, आदि।
सपने का चलना लेकिन निबंधित नहीं हो रही कवितायेँ। अभिवियक्ति को साधना, उसे परिवेश देना और अंत की और ले जाना बड़ी प्रोसेस का हिस्सा है।

 इस स्तर पर ये अ ज्ञात कवि को सुझाव दिया जा सकता है।

 Mani Mohan Ji: उम्दा कविताएं हैं, खासकर पिता को लेकर जो रची गई है।तनिक आमूर्तन से बचा जाए तो सोने पर सुहागा।

 Anita Karnetkar: सापॅनडिलाइसिस के दर्द की तरह, सर्वथा नई उपमा है, ऐसे प्रयोग न केवल अभिव्यक्ति को विशेष बनाते है बल्कि भाषा की अभिव्यक्ति को भी संपन्न करते हैं।

Avinash Tivari: बहुत खूबसूरत क्षणिकाऐ आसपास के परिवेश से आत्मीय रिश्तों को चित्रित करतीं॥


 Dipti Kushwaha: उम्दा कविताएँ!

भाव, मन को छूते हैं और बिम्ब भी आकर्षक।

फिर भी,

कहीं कुछ है, छूटता सा...इन कविताओं में।

मुझे यह (...) अर्थात् बिन्दुओं के अत्यधिक प्रयोग का औचित्य समझ नहीं आता!

कवि से माफ़ी!

‪+91 80850 96010‬: पिता और शहर कविता को छोड़कर बाक़ी सभी कविताएँ लगभग एक ही भाव की हैं। बिना शक ये भावनाप्रधान कविताएँ हैं। इनमे कुछ है जो मन को छू रहा है। पर एक बात जो मुझे खटकी वह ये कि जिस नर्म, नफासत की भाषा का प्रयोग कविताओं में किया है उसी में पढ़ते हुए अचानक (साँसों में ठेलती गर्मी) जैसा प्रयोग कुछ कंकर जैसा लगा। वैसे कवि कुछ सोच के ही लिखे होंगे। अंतिम राय कि कविताएँ सुन्दर और सराहनीय हैं। बधाई कवि को।

+91 96876 94020‬: प्रथम कविता टीप मारने की सामर्थ्य रखती हैं सपना में आना औऱ जाग्रत में आऊगां का भरोसा दिलाना पूरे काल चक्र में जुड़े होने का अप्रतिम आशा देती है जो लीन हो जाने का संकेत हैं।कवि प्रेम कर सकने में सक्षम हुआ है पर फिर भी प्रेम की पराकाष्ठा पाने की चेष्टा उसने नहीं कि है अवचेतन में आने का वादा इस प्रेम की रूई वाली भाषा को यथार्थ का छल देता है यही पर यह कविता प्रेम के समकालीन संकलन से जुडती है औऱ अति नहीं लगती।

कविता बेहतरीन है पर भुला दी जायेगी कयोकी इस लघु में भी कम से कम तीन पंक्तियाँ औऱ वांछित थी जिससे इस कविता का रूझान साफ हो पाता औऱ यह विमर्श संदर्भ में उदाहरण बन पाती।

एक अच्छी कविता पढवाने के लिए धन्यवाद।

बाकी कविता पर बाद मे।

 Dushynt Tiwari: कविताओ के विषय बहुत अलग नहीं हैं मगर मुझे इनमे metaphors और denotations का उपयोग बहुत अच्छा लगा जिसके कारण आम से विषय भी रोचक लग रहे हैं।निर्भरता की सीढ़ी, पीले पड़े कागज़, लिखने वाले की भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ है॥ बढ़िया कविताएँ॥

Sazid Premi Ji: बहुत खूबसूरत कविताएँ। 💐💐💐

+91 96876 94020‬: दसवीं कविता अद्भुत प्रेम रेशो से बुनी है औऱ इतनी मजबूत है कि प्रेम पर हाहाकार मचाते किसी भी कविता को सोटा लगा सकती है।
 पिता पर लिखी कविता सुंदर है एक दोहा याद आ गया।
पिता पुत्र के रिश्ते में जंगल का संवेग।
वृद्ध चक्षु धरती धसे, शावक चक्षु आवेग॥

 ‪+91 98272 49964‬: माँ पर तो बहुत लिखा गया है। पिता जैसे अछूते व्यक्तित्व पर काव्य में अपनी भावना लिखना... वास्तव में जय हो

 Arunesh Shukla: विरह की कविताएँ।पर प्रेम में मिलन-सा रोमांस लिए.अच्छी हैं।सघन हैं।प्रेम कविता य कहानी लिखना लेखक का लिटमस टेस्ट है।बधाई.

Abha Bodhisatva: अपने जीवन के अलग -अलग अनुभवों को सरल भाषा में कवि ने सहजता से व्यक्त किया जहाँ उसे बहुत भारी भरकम बिम्ब विधान ढूँढने और बैचेन होने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई. यही खूबी है कवि की ककविताओं में। सुंदर -सहज।

 Arunesh Shukla: भाषा पर थोड़ा और काम की ज़रूरत इस क्रम में अगर कविता लंबी भी हो जाये थोड़ा तो चलता है।दूसरी बात प्रेम एक highly पॉलिटिकल चीज़ भी।उसको समसामयिक चीजों से जोड़ना भी ज़रूरी होता।दस में एकाध तो हों ऐसी.बाकी पिता पर ageya जी याद आते।बहुत दूर जाना होता पिता से पिता जैसा बनने के लिए.मैं क्या कहु।अच्छी कविता है।बस कविताओं में कई का वाक्य विन्यास खटकता।

 Arti Tivari: छोटी सुंदर कवितायेँ, ।जैसे कवि ने अपने अंदर का सत्व उड़ेल दिया हो इनके ज़रिये, ...वेदनात्मक चेतना काव्य का केन्द्रबिन्दु है, ।जो उद्वेलित करता है। क्रमांक 6 8 9 10 11 मुझे ऐसी ही लगीं।
सबसे अच्छी तीसरी कविता लगी।
अभिव्यक्ति को साधना जैसे ऊपर स्वप्निल जी ने कहा, ।कुछ पंक्तियाँ को और जोड़कर मुझे अच्छी लगीं कवितायेँ, ।👍🏼🍀🌹

अनाम कवि को बधाई साकीबा का आभार 🙏1⃣➖


 Sandhya Kulkarni: पहली कविता में कवि प्रेमिका के अवचेतन में जाना चाहता है चेतन अवचेतन का द्वंद्व उसे बेचैन करता है,और अपने होने की  सार्थकता तलाश रहा है कवि मनोविज्ञान का माहिर ज्ञाता भी है ।
बहुत सुन्दर कविता 🌻 

दूसरी कविता में कवि अपने अबोलेपन में भी प्रेमिका को फागुन के विभिन्न रंगों से जोड़ कर खुली लटों से स्वयं को आबद्ध कर लेना चाहता है और एक इंटेंस भाव प्रकट करता है ।
बहुत उत्कट रचना 🌻

तीसरी कविता में अपनी प्रेमिका की स्मृति से आप्लावित कवि इतना भाव विभोर हो गया है कि उसका नाम लिखता है मिटाता है और इसकी पीछे यहाँ भी उसका मनोवैज्ञानिक द्वंद्व द्रष्टव्य हो रहा है वो वह चाहता भी है कि प्रेमिका जिसे वो इबारत कह रहा है स्वयं को पढ़े और वो इसी बहाने स्वयं को भी पढ़वाना चाहता है।
थोड़ी सी अस्पष्ट लेकिन अपने गंतव्य में सहल कविता 🌻

चौथी कविता में कवि अपने दर्शन को लिख रहा है दार्शनिक अंदाज़ में साक्षी भाव् से स्वयं का दृष्टा बना है ,कवि अपने जीवन की मीमांसा करता हुआ अपनी जिज्ञासाएँ जो दर्शन से जुडी है जो एक जीजिविषा से जोड़ती हैं उसे उस पर बात कर रहा है वो शुरू से जानता है "सब कुछ छूट जाता है "इसकी संतृप्ता और निर्लिपता को पा जाता हैऔर पुन: अपनी जीजिविषा को पकड़ लेता है सकारात्मकता इनका ख़ास भाव है कवि दर्शन का भी ख़ास ज्ञाता है ।
कविता पाठ को संलग्नता से जोड़ती है 
सुन्दर कुछ जल्दबाज़ कविता🌻

पांचवी कविता पितृ पक्ष में एक कृतज्ञ भाव से भर देती है ,माँ के लिए तो सभी भावुक दिखते हैं पिता के लिए कवि का भावुक होना ह्रदय को छू जाता है ।
हृदयस्पर्शी कविता🌻

छटवीं कविता में कवि की इच्छा पूरी हो ये सदा अपने "डॉ हिंगिस" के स्वरुप को बनाये रखें 
खूबसूरत कविता🌻

कवि अपनी सातवीं कविता में अपने भावों को चरम पर अनुभूत कर रहा 
है ,वो जहाँ एक और वृथा जीवन और जीजिविषा से जुड़ा है वहीं दूसरी ओर 
स्मृतियों का अभेद्य कवच लिए भी घूम रहा है और इतना भावुक हो उठा है कि,अपनी कविताओं की सौगात में ढूंढ कर टपकी हुईं अश्रु बूंदों में होने और न होने को निहारता है 
कवि का अतिभावुक होना आशा जगाता है ।
सुन्दर भावुक रचना 🌻

आठवी कविता में कवि अपनी नामाफी टाँक देना चाहता है,और स्वयं को भी बरी नहीं होने देना चाहता ,इस तरह जीने की उत्कट इच्छा से भर जाता है जिजीविषा यहाँ जीवंत होकर दिखाई देती है ।
जीवंत कविता🌻

नोउवीं कविता में कवि फिर से प्रेमिका की स्मृति में प्रविष्ट हो जाते हैं उसे हरी घाँस सा याद करते है ये इसमे भी इतनी नाज़ुक चाल से प्रविष्ट होते हैं कि, उसके सिमटने और स्वयं के उलीचने को बड़े ही कलात्मक तरीके से व्यक्त करते हैं यहाँ कवि "अशोक वाजपेयी"प्रभाव से स्वयं को बचा नहीं पाते ।
मनभावन कविता 🌻

दसवीं कविता में कवि अपने चलने रुकने और अपने उद्वेग को स्पष्ट करना चाहता है,बूंदों  और लहरों के माध्यम से वह यहां अपने शिल्प में अपनी चिर परिचित सांकेतिक शैली का उपयोग करता है और स्वयं के उद्वेलन से चकित भी ।
अद्भुत कविता 🌻

कवि ग्यारहवीं कविता में अपनी सम्बद्धता जो इनके शहर के प्रति है उसे बता रहा है लेकिन स्वयं को बिना जोड़े इसे भी व्यक्त नहीं कर पाता ,इसे ये स्पांडेलाइटिस के ठहरे दर्द सा पाते हैं, हरकत होते ही एक्टिव हो उठता
 है उसे ये तितली या तमगे से भी परिभाषित नहीं करना चाहते,साथ ही इसे एक कभी आराम न पाने वाले दर्द से घिरा पाते हैं ।

बेहतरीन कविता 🌻


बारवीं और अंतिम कविता में कवि सम्भवत: ग्रीष्म ऋतु में प्रेमिका से अपने मिलन की असंतृप्तता और असंतुष्ट होने की पीड़ा बयान कर रहा है, कुछ और विस्तार मांगती है ।

लाजवाब कविता 🌻

कवि एक अनंत संभावनाओं के स्वामी हैं मनोविज्ञान और दर्शन पर इनकी विशद पकड़ इनकी कविताओं में परिलक्षित है ,कहीं कहीं अपने प्रिय कवियों के प्रभाव से भरे हुए प्रतीत होते हैं ,जिनमे अशोक वाजपेयी और गीत चतुर्वेदी का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इन पर लेकिन बावजूद इसके ये स्वयं को अलग रखने में सफल रहे हैं ।
प्रेम कविताओं के सिद्धहस्त कवि हैं 
इन्हें अन्य विषय भी छूना चाहिए इनकी अन्य कविताओं का इंतज़ार रहेगा ,कवि की कविताओं में प्रेम की बेचैनी और दर्शन और मनोवैज्ञानिक विषय की विशेषज्ञता सुस्पष्ट है जिन में ये निष्णात हैं इन विषयों पर लिखी गयी कविताये अपेक्षित हैं ।
इनके काव्य की उज्जवल भविष्य की शुभकामनाओं के साथ 🌻🌻
 Meena Sharma: सार्थकता की तलाश में त्रिज्याएं नापते कवि कीका प्रेम दूसरी कविता में
में अंतर से छलकता जान पड़ता 
है !कहना और अनकहा रहना .दोनों चित्र साकार हैं ! तुम्हें बार-
बार लिखना , फिर-फिर मिटान

                 .
एक शहर / जो मेरे कंधे पर  बैठा रहता है ...में स्पोंडिलाइटिस
के दर्द के लिये कबूतर का प्रयेग
नयापन लिये हुये है, सुनदर भाव भरी कविताएँ, सुन्दर अभिव्यक्ति हैं !
छोटी कविताएँ.अपनी सीमा में बहुत कछ कह गईं,किन्तु कुछ खोया-खोया सा रहा,क्या ..यह कवि ही
कह सकेंगे. ! 
सुन्दर काव्यात्मक लय है !
बधाई कुछ परिचित से कवि को !
नाम आने पर शायद लगे कि मैने भी  अँदाज में यही नाम रखा था !
शुभकामनाएँ ..
आभार ब्रज जी अनाम कवि से मिलवाने के लिये  !                ा...
मन की इबारत को ,नई दृष्टि देने का प्रयत्न है !
HarGovind Maithil देखने में छोटी - छोटी  किन्तु बहुत सुंदर भाव और संवेदनाओ से परिपूर्ण कवितायें ।
अ नाम कवि को बधाई और एडमिन जी का आभार ।

अपर्णा: इन कविताओं को पढ़कर स्पष्ट है कि इनका स्वर आत्मिय है। इतना कि संभवतः ये स्वंय के लिए लिखी गई हैं। ये स्वंय को कुरेदती, प्रश्न करती, उत्तर देती और सहलाती हैं। 'मैं' हर कविता का केंद्र है। 

लगभग सभी प्रेम कविताएँ हैं। पर यहाँ प्रेम को बड़ी परिपक्वता से बरता गया है। जैसे कि स्वंय को ही एक दूरी से देख रहा हो कोई। प्रेम वर्तमान हो या भूत, कवि एकदम से snap नहीं कर पाता है जुड़ाव। स्मृति और 'काश' का भाव बार बार उभरता है जिसे वो पड़ाव कह रहा है। 

पिता और शहर की कविताएँ ही संभवतः प्रेम से इतर हैं इस काव्य गुच्छ में। और दोनों को एक यूनीक ट्रीटमेंट से नवाज़ा है। यहाँ अति संवेदनशीलता से लबरेज़ अभिव्यक्ति न होकर एक बार फिर वही परिपक्वता दिखती है। दोंनो ही कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। 

मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक भाव के कारण विषय पर लिखते हुए भी एक डिटैच्मेंट एक दूरी दिखती है। 

बिंब प्रकृति से हों या आस पास के बहुत सटीक और नए हैं अपने संदर्भों में। 

भाषा कहीं कहीं बिखरती दिखती है। कहीं कहीं बस। बोलचाल की भाषा है। सहज और सरल। कोई साहित्यिक कलाबाजी नहीं दिखती। 

प्रथम कुछ पाठ में कविताएँ किंचित अमूर्त और दुरूह लगीं। स्वर गंभीर है तो ये प्रभाव और सघन हुआ है। फिर अपनी समझ भर खोल लीं मैंने। नहीं पता कितनी सफल रही। 

और ये भी लगा कि कभी कभी ये नियंत्रित अमूर्तता भी एक काव्य सौंदर्य बन कर उभरती है। 

ये मेरा नितांत निजी मत और पाठकीय प्रतिक्रिया मात्र है। 



 Aanand Krishn: भाव की दृष्टि से समृद्ध कवितायें, शिल्प पर अधिक ध्यान देने की ज़रुरत है । 

"सार्थकता की तलाश में त्रिज्याएं नापते कवि…......"
मीना जी की अद्भुत टिप्पणी, जिसमें समग्र रचनाकर्म की सार्थकता जीवंत हो उठी है ।
Aalknanda Sane: अच्छी कविताएं हैं, पर यकायक वाह नहीं निकला , लेकिन इन्हें खारिज भी नहीं किया जा सकता । कवि/यत्री विज्ञान के छात्र/त्रा रहे हैं, इतना समझ में आता है । बाकी बहुत सारा लिखा जा चुका है और मेहनत तो हमेशा करना ही पड़ती है, यदि इन कविताओं पर दोबारा की जाय तो बेहतरीन कविताएं निकलकर आ सकती हैं । कुछ तो है जो ठीक ठीक बाहर नहीं आ पाया है । शुभकामनाएं ।
Hanumant Ji: ये कवितायें सम्वेदनाएँ और स्मॄति के बुलबुलों की तरह है....क्षुद्र कहे अविशेष क्षणों की भी यहाँ विशेष प्रतिष्ठा है गोया वे लघुता का गौरव गान हों 
लहरों के साथ बुलबुलों का भी अपना सौंदर्य है....एक कविता मे कवि स्वयम बूँद और लहर के बिंब मे बात करता है ...मै इन कविताओं को जब तक चीन्ह पाता हूँ वे समाप्त हो जाती है...
वे मानो अपनी मर्जी से अधूरा रहना चाहती हो...उन्हे पूर्ण होने से ही वैराग्य हो मानो....हालाँकि अपनी अपूर्णता मे भी वे अनुभूति की पूर्णता को जन्म दे जाती है जैसे दूसरी कविता मे फागुन को चोटीयों की तरह खुलते देखना या हर्फ़ के धुंधलके और  टपकती बूँदों को साथ रखकर याद करना...कई स्थलों पर ऐसी चमकदार बिम्ब रश्मि बिखरी है...यहाँ वे उस तरह से ही है  जैसे छोटा बच्चा चमकदार कंचे बहूमूल्य समझकर जेब मे भर लेता है

11 वी कविता बहुत कुछ पूर्ण है और मेरे करीब भी इस कविता मे मै स्वयम को और अपने को पाता हूँ....
मै चाहता हूँ कि आगे वो और उस तरह से लिखे जो मुझे दुख मे मुसीबत मे याद आये 
कविता की संगत के बाद अब दुर्दिन और दुख मे मुझे कविता ही याद आती है.....
 Dr Dipti Johri: भावपूर्ण कविताओं पर कविताओं से भी खूबसूरत भावपूर्ण टिप्पड़ियाँ.. 

खूबसूरती एक प्राथमिक भाव है ,फिर चाहें तार्किकता पीछे छुटे, कवितायेँ मन को नम तो कर ही जाती हैं ,    

फिर भी मेरे तार्किक मन को जो सबसे ज्यादा भायी वो है " मैं जो संगतराश न हो सका ...."   कम शब्दो में गहरी बात कह जाने की सलाहियत जो कमोबेश हर छोटी कविता में परिलक्षित हो रही है , कहना होगा ये उसमे सबसे उम्दा है।
        हर मनुष्य की एक अनचीन्ही और अमर्त्य चाहत अपने साथी को अपने अनुसार ढालने की रहती ही है। कभी कभी जिंदगी तमाम हो जाती है ,और संगतराश होने का भ्रम लिए ही जीवन का सफर तमाम हो जाता है ।

 वैसे भी सभी कवितायेँ अपने कहन में मनोवैज्ञानिक है भ्रमों,संभ्रमो,चेतन ,अवचेतन , चोटियां(गुत्थियाँ) आदि आदि में ।जिनके पाठक अपनी अपनी दृष्टि से पाठ कर सकते है जैसे साल भर की चोटियों का खुलना किसी एक मौसम के इंतज़ार में या कहें एक विशिष्ट समय में गुथियों का खुलना और जीवन की जीवंतता का क्लोरोफिल जब अनायास ही अपनी गिरफ्त में लेता है तो कवि मन अपने साथ साथ पाठक को भी मदनोत्सव में डुबो देता है।
     पिता के साए/सरंक्षण/सुरक्षा/सरपरस्ती आदि से अभी अभी निकला ,एक नौजवान उस दहलीज पर कैसा महसूस करता होगा जहाँ से उसे दो दृश्य एक साथ दीखते है  ..एक जिसमे वो गा रहा होता है 'तू (पिता)मेरा सरमाया है '  और दूसरे दृश्य में वह खुद इस सरमायेदारी के आसन पे बैठने का उपक्रम करता दीखता है ...तो उस दहलीज या थ्रेशहोल्ड को काव्य में जिस तरह उतारा गया है वह उस मनःस्थिति को बखूबी बयां करता है।
Dr Mohan Nagar: सुबह से चार पांच बार पढ़ने की कोशिश की पर एक आपरेशन और मरीजों के बीच व्यस्तता ज्यादा ही रही और ये कविताएँ ठहर कर पढ़े जाने का आग्रह कर रही हैं  । कविताओं में प्रतीक और बिंबो का प्रयोग लगभग हर कविता में है और एक टिप्पणी से सहमत भी कि ये अशोक बाजपेयी जी के लेखन की झलक देती हैं .. पर मेरा सोचना है कि उनसे बेहतर .. क्योंकि अशोक बाजपेयी जी का ज्यादातर लिखा मेरे तो सिर के ऊपर ही गया है आज तक माफ करें .. ये कविताएँ उस केडर की भी हैं तो उनसे बेहतर क्योंकि विषयवस्तु अबूझ नहीं  । शेष .. और इत्मीनान से पाठन के बाद
 Dr Mohan Nagar: शहर ने तो चमत्क्रत ही कर दिया। सुरेन जी यहाँ शब्द संशोधित करें बस .. सही शब्द है। - स्पॅान्डिलाइटिस .. हिन्दी उच्चारण में भी  ।
: वैसे बस यही कविता है जिससे संतुष्ट नहीं .. स्पॅान्डिलाइटिस का दर्द .. आराम करने पर ठीक रहता है / दबा रहता है .. और हरकत पर उभरता है .. यदि इसे प्रतीक लिया है आपने तो इस पर इस लिहाज से सोचें जरुर  👏
Suren: मोहन जी ,यह स्पोन्डलायटिस के शुरूआती लक्षण मेरे स्वयं के है 8 ,10 वर्ष पूर्व के । जब तक चलता फिरता रहता था ,किसी मुवेबिल काम में लगा रहता था तो कुछ पता नही चलता था पर जब आराम की मुद्रा में आता था तो हल्का हल्का टीसता था । तो उसी को यहाँ उपयोगित किया है ।
पाठ कर चुका .. अभी भी पढ़ ही रहा था
 काम करते समय दर्द का पता न चलना .. ध्यान हटना है
 उसे समग्रता में नहीं लिया जा सकता
मैंने तो सर अपना भोगा हुआ ही लिखा इसमें ,ये ठीक बात है कि संज्ञान का स्तर काम के समय डाइवर्ट ही जाता होगा ।
 Dr Mohan Nagar: दरअसल इसमें दोनों बातें .. हरकत पर फुर्र होना और आराम पर टीसना .. एक ही बात कह रहे हैं और कविता का प्रतीक भी बिगड़ रहा है .. यहाँ मुझे यह लग रहा है कि आप लिखना चाहते थे कि शहर एक आदमी को धमकाता सा है कि चुपचाप जियो .. हरकत की तो तकलीफ में जाओगे
प्रतीक भी अद्भुत लिया आपने बिला शक .. इसलिए जता बैठा कि वैज्ञानिकता के लिहाज से सोचें या प्रतीक के लिहाज से .. ये दोनों चीजें थोड़े से संशोधन से लाई जा सकती है
 कुछ ऐसा कि .. चुपचाप बिना हिले पड़ा रहूँ तो  दबा रहता है पर जरा सी हरकत पर ही उभर आता है 👏  मेरा सोचना है ये .. जरुरी नहीं सही ही हो .. न हो तो क्रपया खारिज करें 👏
 Suren: नही मोहन सर , मैं एक साधारण सी बात को काव्य में कहना चाहता था कि हम अपने ,अपने शहर के ,अपने अपने नॉस्टेल्जिया के कई सारे बिंदु जहन में लिए फिरते है । जिनसे हमारी आत्मीयता और एक अजीब सा बाँडेज होता है ,जिसे हमारी प्रवृत्तियों की पुनरावृत्तिया और उसकी बायप्रोडक्ट के रूप में काम करती कंडीशनिंग के गहराने से उपजे भाव जब हम दुनियादारी में सलग्न रहते है तो तलछट में बैठे रहते है और जरा फुर्सत पाते है तो कंधे पर सवार हो टीसने लगते है । 

हाँ , ये  संभव है कि जो कहना चाह रहा हूँ वो उभर कर  काव्य में न आ पाया हो ।
 Dr Mohan Nagar: आपने जो कहा मैंने उसे पूरी तरह समझा सुरेन जी यकीन मानिए .. मैं बस इतना ही चाहता हूँ कि हम घर के सदस्यों की तरह हैं .. यहाँ कोई भी बात / सुझाव बेहतरी के लिए हमें एक दूसरे को इसलिए देना चाहिए कि हम बेहतर से सर्वश्रेष्ठ की ओर जाऐं .. ये न हो कि बाहर की दुनिया में जब हमारा लिखा जाए और कोई सच्चा आलोचक / समीक्षक हमारी रचना की कमतरियों पर बात करे तो हम निशब्द रह जाऐं .. बस इसलिए 👏
 Madhu Saksena: हाँ सन्ध्या ....आज सबकी प्रतिक्रिया का आनन्द ले रही थी ।बहुत ही बढ़िया सबकी ।तुमने भी बड़े मनोयोग से सब कविताओ को स्पष्ट किया ।
कुछ कविताएँ यूँ धस जाती है दिल दिमाग में की मौन कर देती है ।उनमे विचरण करके उसके सारतत्व की खोज चलती रहती है ।और हर खोज के बाद लगता है अभी भी छूटा छूटा  सा है तो फिर वही प्रक्रिया ।सोच में उनमे डूब जाते है ।पढ़ते ही सनझ गई थी मेरे प्रिय कवि की कविताएँ है ये मुझे डुबा कर ही मानेगी ।फिर समझ नहीं आता क्या लिखूं ?
आप सबकी प्रतिक्रियाएं पढ़ कर सीख रही थी की ऐसा भी लिखा जा सकता है ।
बधाई सुरेन ।
आभार एडमिन जी ।
Dr Mohan Nagar: ये बहुत बहुत अद्भुत कविता है .. इसलिए तो वार्ता में है .. हमें प्रतीकों में लिखने की छूट है .. लिखना चाहिए .. पर अवैज्ञानिकता से बचते हुए  । और बहुत गहराई से पाठ कर लगा कि ये बेहतरीन है पर इसका सर्वश्रेष्ठ होना शेष है अभी
 Rajendr Shivastav Ji: मेरी ओर से भी  बधाई स्वीकारें सुरेन जी।
पहली बार आपकी कविताएँ पढ़ने का अवसर पाया है।
मेरी समझ और सोच की पहुँच से तीन पायदान ऊपर।
किंतु कुछ कविता से कुछ प्रतिक्रियाओं से भाव समझने में सफल सा हुआ।
निसंदेह बिम्ब अनोखे अनछुए और कविता को पूर्णता दे रहे हैं। 
'समझदार को इशारा काफी '
जैसा कुछ कहती, भावपूर्ण कविताएँ ।
ब्रज आज के लिये धन्यवाद ।
Manjusha Man: बहुत सुंदर छोटी छोटी कविताएं। कवी ने इन कविताओं में भावों का पूरा सागर उड़ेल दिया लगता है।
जीवन का हर रंग देखने मिला इन कविताओं में, हर एहसास है इन में।भाषा सरल सहज है। 

कवि को शुभकामनाएं एवं बधाई
Dinesh Mishra Ji: बहुत अच्छी भावपूर्ण कविताएं
सिर्फ़ वही कहा गया
जो ज़रूरी था।
 Naresh Agrawal Sakiba: माफ कीजिएगा मुझे यह सारी कविताएं प्रयोगवाद   से  प्रेरित लगी और अभी  प्रयोग की सफलता की ओर बढ़ती हुई। हलांकि यह दूरी अभी लंबी है। 

 मैं सदैव प्रयोगवाद का पक्षधर रहा हूं और यही प्रयास लोगों के सामने कुछ नया ला सकता है ।

 महाकवि को बधाई नये प्रयोग करने के  लिए, साथ ही शुभकामनाएं भी।

भाई मैं कोई  समीक्षक तो नहीं  हूँ लेकिन जो समझ आया वही लिखा और है वह भी बार बार पढ़ने के बाद।
 Jyotsana Pradeep: आद. सुरेन जी ..आपकी रचनाये पढ़ी, बहुत  अच्छी लगी ,सहज और सरल भाषा में गंभीर भावों को समेंटे है । पिता पर लिखी कविता बहुत बढ़िया लगी साथ ही 10 वी कविता 
छले जाने का के पड़ाव..........

अनोखी!!!

शुभकामनाओं के साथ🙏

 Chandrashekhar Ji: सुने-पढ़े विषयों पर मौलिक शैली की होने से विशिष्ट कवितायेँ हैं सुरेन जी की। उनकी विश्लेषण क्षमता से समूह परिचित है ही, कुछ संकेत कविताओं में हैं जो कवि को इंगित कर रहे थे, कवि का नाम पता चलने के मुझे ऐसा लगा। सुरेन जी बधाई🌷





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Friday, September 23, 2016

प्रेम का बीज जब मन में अंखुआता है, भाव शब्द के छौने कुलांचे भरने लगते हैं।हृदय के तारों का स्पंदन प्रेमगीत अलापने लगता है।प्रकृति जन्य मौसमो से भिन्न होता है प्रेम का मौसम।

प्रेम के मौसम से ही बहार मांगता है बसंत।शिशिर लरजता है प्रेम की शीतल बयार से और बरसता है प्रेम बादलों से जब धरती और आकाश बंध जाते हैं प्रेम के बंधन में।ग्रीष्म की तपन दहकती है जब प्रेम यज्ञ में देहों की समिधा होम होती है।

अभिमंत्रित प्रेम कविता का होता है तब सृजन।

सभ्यता के उद्गम से भी पूर्व स्थापित था प्रेम।ताम्रपत्रों में गढ़ी गई थी इसकी इबारत और चकमक पत्थर की खोज का आधार बना था प्रेम।शताब्दियों के गुजरने के क्रम में कभी नहीं गुजरा प्रेम, वह दो हृदयों की थिरकती साँसों की लय पर, देह के छोड़ जाने पर भी रहा सदा सदा रूह में अहर्निश...

कुछ ऐसी ही प्रेम पगी कविताओं की धड़कन का दस्तावेज है डॉ राकेश पाठक का कविता संग्रह बसंत के पहले दिन से पहले कविताओं में प्रेम तो रचा बसा है ही इनसे स्मृतियो का उपवन भी शब्द दर शब्द महक रहा है।भाषा कोमल भावों को उकेर रही है।

कठिन समय में अपने प्रेमिल स्पर्श से दुलारती कविताएं बरबस कह उठती है अभी संवेदनाएं जीवित है।जबकि समय की क्रूरता खाप बन कर फ़ुफ़कार रही है।आदिम संस्कारों की बलि देकर हवस नंगा नर्तन कर रही है।ऐसे समय में सांसरिक उद्यमों और विकृत समय में कवि का प्रेम कविता को बचा लेना, प्रेम को जीवन दान देना सम है।

आश्चर्यचकित कर देने वाले प्रतीक और वाक्य विन्यास से सजी कविताएं स्मृति में बार-बार दस्तक देती है।ईमेल 1, 2, 3 प्रेम की मासूमियत का कच्चा चिट्ठा है। कितना ही वयस्क क्यों ना हो जाए प्रेम उसकी मासूमियत चिरस्थाई होती है। जैसे सूखे फूलों को अंगुलिया सहलाती है किताबों में, अंगुली के स्पर्श से मन के कोने कोने महक जाते हैं।प्रेम में जहां मिलन की उत्कट अभिलाषा होती है विदा के पल भी साथ साथ चलते हैं।विदा के गीत में दर्द, प्रेम का ही प्रतिरूप होता है।

 हाशिए में सिमट कर रह गई जिंदगी ,
एक ढलती शाम बन कर रह गई जिंदगी
शब्द तो तुम साथ ले  गई हो साथ अपने ही सभी 
इक अधूरा गीत बनकर रह गई जिंदगी


डॉ राकेश पाठक के कविता संग्रह बसंत के पहले  दिन से पहले 
से कुछ कवितायेँ है आज रचना प्रवेश में 
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परिचय

डॉ. राकेश पाठक
प्रधान संपादक ,डेटलाइन इंडिया
# जन्म: 1 अक्टूबर 1964 
गोरमी  जिला भिण्ड मप्र  में।
# शिक्षा:
 एम ए (सैन्य विज्ञान)
 एम ए (इतिहास) 
 पीएच.डी.(सैन्य विज्ञान)
# ग्वालियर में कुछ वर्ष शासकीय प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक ।
# सन् 1989 से सक्रिय पत्रकार
#अनुभव:

संपादक  नईदुनिया ग्वालियर 
संपादक नवभारत ग्वालियर 
संपादक नवप्रभात  ग्वालियर
संपादक  प्रदेश टुडे ग्वालियर ।
सांध्य समाचार, स्वदेश,  आचरण और लोकगाथा  आदि समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह।

# पुरस्कार-सम्मान
 * सत्यनारायण श्रीवास्तव स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार,
* जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी  पत्रकारिता पुरस्कार
* राज भारद्वाज सम्मान 

# विशेष:
 * न्यूयॉर्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन
    में भागीदारी,
* राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल की लाओस एवं कंबोडिया की आधिकारिक यात्रा का कवरेज
* कोसोवो (पूर्व यूगोस्लाविया) में संयुक्त राष्ट्र शांति    मिशन की रिर्पोटिंग । 
# प्रकाशित पुस्तकें:
 * यूरोप का यात्रा वृतांत
   ‘काली चिड़ियों के देश में' मेधा बुक्स दिल्ली 
    से प्रकाशित
* कविता संग्रह
  "बसंत के पहले दिन से पहले " दखल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित।
*शोध पुस्तक
 'हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास- मध्यप्रदेश'       छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रन्थ अकादमी से प्रकाशित
आने वाली पुस्तक:
"परमाणु बम के मुहाने पर"
सम्प्रति : प्रधान संपादक  
           डेटलाइन इंडिया 
संपर्क :     शिव प्रसाद 
एम-157 ए, माधव नगर, ग्वालियर - 474002 म.प्र.
फोन : 0751-2627700, 
मोबाइल : 098260-63700,

    ई-मेल : rakesh pathak0077@gmail.com







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 हम दोनों .

सभ्यता के प्रारम्भ में
चकमक पत्थर से
आग खोज कर लाये थे
हम दोनों

सिंधु घाटी की वीथिकाओं में
हमने ही तो रखे थे पहले कदम
ताड़ पत्रों पर लिखे थे
मनुष्यता के पहले प्रेम पत्र

शैलाश्रयों में सहस्त्राब्दियों पहले
हम दोनों ने ही बनाये थे भित्ति चित्र

महाप्रलय के बाद
सिर्फ हम दोनों ही तो बचे थे
पिरामिडों की दीवारों पर
पीठ लगाकर हम ही तो बैठते थे

बेबीलोन के झूलते बगीचों में
 सबसे पहले भरीं थीं पीगें

अगले महा विस्फोट के बाद भी
हम दोनों ही बचे रहेंगे

प्रेम करने के लिए
अहर्निश।


दुःख
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रात के अँधेरे में
दबे पाँव निकलूंगा घर से

पथरीले किनारों वाली नदी के पास बैठूंगा
उदास बहते पानी के कान में
धीरे से बताऊंगा अपना दुःख
नदी मेरा दुःख सहेजेगी
बहा ले जायेगी दूर बहुत दूर

किसी निर्जन पहाड़ पर जाऊँगा
और बूढ़े बरगद के सीने पर
सिर रखकर सुबक लूँगा थोड़ी देर
बरगद अपनी जड़ों में सोख लेगा मेरा दुःख

शहर से दूर प्राचीन खँडहर में
भटकता रहूंगा सारी दोपहर
वहीँ कहीं किसी कोने में चुपचाप
छोड़ आऊंगा अपनी व्यथा

किसी को नहीं बताऊंगा अपना दुःख
और उसकी वजह
तुम्हें तो कतई नहीं
कभी नहीं।



मैंने प्रेम किया

मैंने प्रेम किया
आखेटक की तरह

तैयार किए अस्त्र-शस्त्र
मेहनत से बांधा मचान
ठीक किए सब कील काँटे
पैने किए तीर और
खींचकर परखी कमान

रेशम के महीन धागे से बुना जाल
और बिछा दिया उसके रास्ते में
भरमाया उसे प्रेम के 'मृग जल' से
अंतत: किया उसकी देह का संधान

मैंने प्रेम किया
प्रेम का अभिनय करते हुए।




2. उसने प्रेम किया

उसने प्रेम किया
आलता घोल कर
पैरों में रचाया
हवन के लिए वेदी सजाई
आटे से चौक पूरा
और नवग्रह बनाए

रोली, चावल और थोड़ा सा कपूर रखा
पालथी मारकर बैठी
सिर पर जरा-सा आगे किया पल्लू
हथेली पर गंगाजल लेकर किया आचमन
‘आवाहनम् न जानामि’ कहते हुए
किया देवताओं का आह्वान

प्रेम हवन में खुद को करती रही स्वाहा
‘पूजाम् चैव न जानामि’ कहते हुए
उसने प्रेम किया
पूजा की तरह।



लौट आना

लौट आना इस बार भी
जैसे लौटती रही हो अब तक

लेकिन लौट आना
बसंत के पहले दिन से पहले

लौट आना
सावन की पहली बारिश  में
मिटटी की सौंधी गंध से पहले

पूस के महीने में
जब आसमान से रुई की तरह
झरने वाली हो ओस
ठीक उससे पहले लौट आना

जेठ में सूरज से
बरसने लगे आग
और सुलगने लगे धरती
कुछ भी हो जाये
उससे पहले तुम लौट ही आना

हमें साथ साथ ही तो चुनने हैं
बसंत में पहली बार खिले फूल
पहली बारिश के बाद
गीली मिट्टी पर बनाने हैं
दो जोड़ी पाँव के निशान

ठिठुरती सर्दी में
बरोसी के पास बैठ
करनी हैं ढेर सारी कनबतियां
और जेठ की तपती दुपहरी में
तुम्हारे सुलगते होठों पर
रखनी हैं गुलाब की पंखुड़ियां

जीवन की वही आस
और चेहरे पर हास लिए
मेरे विश्वास की तरह
तुम ज़रूर लौट आना।



 विदा से पहले

एक दिन
सिर्फ एक बार मिलना

आखिरी बार ही सही
मिलना ज़रूर
विदा से पहले

पानी पोता से पोंछ डालना
मन की स्लेट पर लिखी
हमारी प्रेम कथा

बस छोड़ देना
अपने अपने नाम का पहला अक्षर

दुबारा कभी मिले तो
उसी पहले अक्षर से
शुरू करेंगे फिर एक बार
अपनी प्रेम कथा।



विदा के बाद

हो सके तो रखना
थोड़ी सी जगह मेरे लिए
विदा के बाद भी

ज्वार उतरने के बाद
मन के किनारों की रेत पर
बचा कर रखना थोड़ा सा गीलापन
जैसे अलगनी पर छोड़ कर रखती हो
हमेशा एक रूमाल की जगह

जैसे बची ही रहती है
तुम्हारे बेतरतीब पर्स में
बिंदी के पत्ते के लिए गुंजाईश।






तुम्हारा पता

देश देशान्तरों को
पार करके पहुंचा मैं
मीलों पसरे मैदानों में
पीले सोने जैसी सरसों से
पूछा तुम्हारा पता

ऊंचे पहाड़ों पर
आसमान से बातें करते
देवदार के पास ठहरा
झुक कर उसने कान में
बताया रास्ता

महासागरों के किनारों पर
ठहरा रहा सदियों
तब लहरों ने आगे बढ़ कर
मेरा हाथ थामा

न जाने कितने प्रकाश वर्ष
लम्बा सफर तय करते करते
निविड़ अंधकार के बीच
जुगनुओं ने दिखाई राह
घनघोर सन्नाटे को चीर कर
झूंगुर बढ़ाते रहे मेरा हौसला

अबूझ जंगलों को पार करते समय
परिंदों ने सुनायीं परी कथाएं
सर्द रातों में
पुच्छल तारों ने की रौशनी
कि भटक न जाऊं

दिन की तेज़ रौशनी में
सूरज ने अपने घोड़े दे दिए
कि जल्द से जल्द पा सकूं
तुम्हारा पता

तब मिलीं तुम
घर की देहरी पर खड़ी
पैर के अंगूठे से
धरती को कुरेदती हुयी
मेरे लिए
अनंतकाल से प्रतीक्षारत।


  डॉ राकेश पाठक

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Wednesday, September 21, 2016

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आज हम भारतीय साहित्य के आधुनिक युग में है ।
सोशल मीडिया ने इसे एक अलग ऊंचाई दी है ।
facebook ,whatsapp के सूक्ष्म पटल पर साहित्य ने अद्भुत विस्तार पाया है। बातचीत का माध्यम बनी संचार सुविधा ने चेट तक ही सीमित न रह कर सामाजिक, राजनीतिक ,सामायिक विषयों पर भी चर्चा के नए आयाम स्थापित किए हैं। इन सबसे हटकर जो काम हुआ है ,वह है मेल मिलाप व साहित्यिक चर्चा हेतु सम्मेलनों का आयोजन। हाल ही में *साहित्य की बात* समूह का औपचारिक सम्मेलन 18 सितंबर ऐतिहासिक बौद्ध नगरी साँची में संपन्न हुआ ।इस सम्मेलन की विशेष बात यह रही कि इस आयोजन में हर सदस्य ने अपनी जिम्मेदारी समझकर मन से भागीदारी निभाई ।कोई विशेष नहीं कोई सामान्य नहीं सब अपने को अभिव्यक्त करने में मुक्त थे ।आभासी दुनिया से शुरू हुए आभासी अपनेपन में हकीकत में गहरे अपनत्व की मिसाल कायम की। पटल पर चर्चा के दौरान हुए मतभेद की खलिश किसी के चेहरे पर छाया मात्र भी नहीं नजर आई। साहित्य सेवा भाव के साथ माननीय संबंधों की प्रगाढ़ता ने यह सिद्ध कर दिया कि आभासी दुनिया में अब संवेदनाएं सकारात्मक रूप से मुखर हो रही है ।नकारात्मक पहलुओं को विस्मृत कर दें तो whatsapp साहित्य विमर्श का ठोस पायदान साबित हो  चुका है ।जैसा कि सम्मेलन में दस्तक समूह के एडमिन श्री अनिल करमेले ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह whatsapp का 10% उपयोग है सोचिए यह प्रतिशत बढ़ेगा तब क्या होगा।



साहित्य की बात समूह के साँची समारोह पर सदस्यों के विचार .... क्या सोचते है वो इस समारोह के बारे में






⚫🔴1 -  साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि  आप की दृष्टि में क्या रही ।

⚫🔴2 -  इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।

⚫🔴3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।

⚫🔴4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।

⚫🔴5 - आपकी आयोजकों/आयोजन  से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ।

कृ0 सहभागी साथी  प्रत्येक बिंदु पर बिंदुवार लिखेंगे तो अच्छा लगेगा ।



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*Aalknanda Sane*

1 -  साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि  आप की दृष्टि में क्या रही ?

साँची सम्मिलन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण  विशिष्टता उसका अनौपचारिक होना है. बिना किसी बहुत औपचारिकता के आयोजन की शुरुआत हुई. समूह के बाहर का कोई मुख्य अतिथि,विशेष अतिथि या अध्यक्ष वगैरा न होने से एक मुक्त भाव सबके मन में था.  सभीने निर्धारित अनुशासन का पालन  किया, बावजूद इसके सब स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे थे, उसी भावना से अभिव्यक्त हो रहे थे.

2 -  इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ?

जिनके मोबाईल नम्बर हम रोज देखते हैं, उनसे प्रत्यक्ष भेट सबसे बड़ी उपलब्धि थी,साथ ही एक पारिवारिक अनुभूति भी हुई  जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है.समागम साहित्य के लिए था , पर उसमें पारस्परिक दूरी कम हुई और यह एक अंतरंग साहित्य  समागम की तरह संपन्न हुआ.

3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ?

एक तो जब मैं आयोजन स्थल पहुँची , तब वहाँ उपस्थित सभी साथी सदस्य मेरे स्वागतार्थ स्वस्फूर्ति से शामियाने के बाहर तक आ गए और ''ताई, ताई'' कहकर लगभग सभीने मेरे पैर छुए. दूसरे मेरे परिचय के दौरान ब्रज जी ने मेरे प्रति एक विश्वास व्यक्त किया कि मैं जब जब   समूह से बाहर हुई, तब तब मेरे द्वारा बताए गए कारण सही और समर्थनीय थे.

4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ?

प्रगाढ़ता तो इतनी ही काफी है, क्योंकि अधिक प्रगाढ़ता भी कभी कभी बिगाड़ पैदा करती है.बार बार सम्मिलन होगा तो कुछ सदस्यों के बीच प्रगाढ़ता स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी.

यह सम्मिलन उत्कृष्ट ही था , उसे और अधिक उत्कृष्ट बनाना एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है.कुछ सुझाव हैं  :--

 कुछ प्रमुख कवियों और समूह सदस्यों की कविताओं पर तथा कुछ प्रसिद्द कविताओं पर आधारित एकाधिक कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं, जिन्हें अलग अलग उप समूह क्रियान्वित करें. यदि अगले सम्मिलन में यह तय होता है तो उसको विस्तार से मैं बता सकती हूँ.

जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, उनके लिए एक मेज पर इंतजाम किया जा सकता है, ताकि वे किताबें बाकी साथी खरीद सकें.मुफ्त में किताब बाँटने का चलन समाप्त करने की दिशा में  कम से कम हम एक सार्थक कदम उठाएं.

जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुईं हैं या किसी भी कारण से नहीं हो पा रही हैं , उनकी मदद भी बाकायदा एक समिति बनाकर  इस आयोजन के जरिए की जा सकती है. किताबों का अपना महत्व है और वह आज भी कायम है.

5 - आपकी आयोजकों/आयोजन  से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ?

कोई अपेक्षा नहीं थी, क्योंकि मूलतः: मैं यह मानती हूँ कि यह आयोजन सामूहिक था, सबका था. विदिशा के साथी आयोजक नहीं, संयोजक थे. ना वे मेजबान थे और ना ही हम बाहर से पहुँचे सदस्य  उनके मेहमान थे.

वैसे भी सब कुछ बेहद व्यवस्थित था.  स्थान,कार्यक्रम संयोजन, संचालन,माइक,नाश्ता, खाना सब.जरा सी गड़बड़ तब हुई जब वनिता जी को माइक थमा दिया गया.उनके पास सदस्यों की सूची होती तो और बढ़िया रहता.यह किसी को भी नहीं सूझा, मुझे भी नहीं कि अपने मोबाईल पर  साकीबा सम्मिलन समूह खोलकर उनके सामने सूची रख दें. खैर , यह बहुत मामूली बात थी और इतनी  छोटी  मोटी भूलें तो होती रहती हैं.

यशस्वी सम्मिलन  के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.
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Braj Shivastv

विदिशा के साकीबा ने
किया साहित्यकार सम्मेलन.

*सोशल मीडिया का एक सकारात्मक पहलू यह भी हो सकता है कि जिन लोगों को कभी, देखा नहीं,जिनसे कभी मिले नहीं, वो जब  आमने सामने हो जायें, और ऐसे मिलें जैसे बरसों की पहचान हो . तो आश्चर्य तो होता ही है*
विगत शनिवार और रविवार को कुछ ऐस ही मंजर हुआ, जब  आभासी दुनिया के कलाकारों के आने पर विदिशा के मित्र अपने घरों में आत्मीयता से स्वागत करते रहे.
साकीबा सम्मेलन का आयोजन किया, हमारे नगर के चर्चित युवा कवि, और वाटस एप समूह "साहित्य  की बात" समूह के संचालक ब्रज श्रीवास्तव ने विदिशा के साथी साहित्यकारों, श्री दिनेश मिश्र, सुदिन श्रीवास्तव, अविनाश तिवारी, वनिता वाजपेयी, राजेंद्र श्रीवास्तव, उपेन्द्र कालुस्कर, जीवन रजक आदि मित्रों के सहयोग से. संयोजक थे प्रोफेसर संजीव जैन.

साकीबा (साहित्य की बात) समूह की दूसरी वर्षगाँठ का यह सदस्य सम्मेलन विदिशा बासौदा के कवियों की मेजबानी में *साँची स्थित संबोधि होटल में विगत रविवार को संपन्न हुआ, जिसमें कई  राज्यों से नामचीन,गंभीर साहित्यकार सम्मिलित हुए. शरद कोकास(दुर्ग) देवीलाल पाटीदार,(भोपाल) अलकनंदा साने(इंदौर) रवीन्द्र प्रजापति मणिमोहन मेहता, डा. पदमा शर्मा(शिवपुरी ) ,चंद्रशेखर श्रीवास्तव,डा. मोहन नागर, दुष्यंत तिवारी(मुंबई) , प्रवेश सोनी(कोटा) , हरिओम राजौरिया, सीमा राजौरिया (अशोकनगर) , मनोज जैन, (भोपाल) अरूणेश  शुक्ल,( भोपाल) , सईद अय्यूब ( नई दिल्ली) , अनिल करमेले(भोपाल) , मीना शर्मा (दुर्ग) , सुधीर देशपांडे,(खंडवा) सहित ५० साहित्यकार सम्मिलित हुए. आरंभ में सुदिन श्रीवास्तव के निर्देशन में कुमारी  प्रतिष्ठा, ममता, उदित, वैशाली ने, निराला की, और साहिर लुधियानवी की रचना गाकर सांगीतिक प्रस्तुति दी. समस्त सदस्यों ने आत्मीय माहौल में समूह के संस्थापक एडमिन *ब्रज श्रीवास्तव*का राजस्थानी पगड़ी बाँधकर सम्मान किया. इसके बाद
 कवि *जीवन रजक* के कविता संग्रह *अहसास*" का लोकार्पण भी हुआ,और सम्मान भी किया गया. ||

तत्पश्चात आयोजित गोष्ठी में
साहित्य के दृश्य पर, चर्चा में, दिनेश मिश्र, उदय ढोली, सुरेन्द्र कुशवाहा, सहित आगंतुकों ने विचार व्यक्त करते हुए विमर्श में समकालीन चिंताओं के साथ रचनात्मकता की ज़रूरत पर जोर दिया गया. तत्पश्चात सभी सदस्य बौद्ध स्मारक के लिए विश्व प्रसिद्ध सांची के स्तूप के दर्शन और भ्रमण के लिए गये.समूचे कार्यक्रम का संचालन कवि मणिमोहन मेहता और साकीबा के  प्रमुख एडमिन ब्रज श्रीवास्तव ने किया, ||स्तूप पर ही आभार प्रदर्शन शरद कोकास ने किया...


रपट: ब्रज श्रीवास्तव. विदिशा
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Sudhir Deshpande

आभासी दुनिया का अपना एक संसार तो है। बातचीत है। चर्चा है। अभिनय है। रूठना मनाना है। ज्ञान है, हंसी है, ठठ्टा है। कई. बार ये भी सोचा जाता रहा कि क्या अब जीवन इसी आभासी दौर का ही होकर रह जाएगा। क्या इसी तरह अपने सुख दुख बांटे जाएंगे। क्या केवल लिख भर देने से किसी का जन्मदिन शुभ होगा। या मृत्यु पर श्रद्धांजलि कह भर देने से संवेदना व्यक्त होगी। क्या इसे ही सच्चे दुख या सुख की अनुभूति का पर्याय माना जाए। क्या यह जीवन की वास्तविकता नही होने जा रहा। हम अपने कमेण्ट्स पर लाइक्स गिने या कमेण्ट्स की संख्या को अपनी ख्याति का आधार माने। क्या साक्षात मिलने पर भी हम इतने ही नकली नही बनते। मनुष्य का आचरण जितना आभासी है शायद उतना आभासी कम से कम आभासी कही जाने वाली वेबसाइट तो नही है। संचालन अंततः मनुष्य के हाथों में ही है। वही इसे आभासी या वास्तविक बना सकता है। यह उसके आचरण पर ही तो निर्भर है। सगों को मिलते सालों बीत गए पर अंततः वाट्स एप मे जोड दिया। किसी ने आभासी सम्बन्ध बनाए और वास्तविक स्नेह की अद्भुत मिसाल कायम कर दी। कई मित्र अपने विभिन्न वैशिष्ट्यों के साथ एक जगह एकत्र हो गये। अपरिचित होने का भाव नही। मिले तो खुलकर। हंसे तो खुलकर। साहित्य का यह प्रताप था कि और दिनों मे अपने रचनाकर्म और उस पर चर्चा मे तत्व रहने वाले रचनाकार एक दिन यों ही मिले बतियाए चहिए खिलखिलाए। समय दिया। फिर नामवंत ही क्यों न हो। एक परंपरा का उदय है यह। हमारी यात्रा पुनः जडों की ओर लौटने की है। वास्तविक जगत से आभासी जगत को पाना और आभासी  जगत से पुनः वास्तविकता को पाना एक बडा परिवर्तन है। साहित्यकारों से ही यह अपेक्षा हो सकती थी। अब यह परिपाटी चल पडी है। आशा है यह यात्रा क्षणिक नही अपने उच्चतर स्तर को प्राप्त करेगी। और यह शुरुआत सृजनपक्ष और साहित्य की बात से हुई यह और भी सुखद है।

आपका
सुधीर देशपांडे
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Saiyad Ayyub Delhi:

 1 -  साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।

पूरा साँची सम्मेलन ही विशिष्ट था। इन अर्थो में विशिष्ट कि मुझे साकीबा से जुड़े छः महीने भी नहीं हुये और एक पल के लिये भी नहीं लगा कि मैं किसी नये परिवार में हूँ। विदिशा और भोपाल के ख़ूबसूरत दिल वाले फ़रिश्तों और मल्लिकाओं से मिलना एक विशिष्टता रही। बाहर से आये कई सारे सदस्यों से मिलना एक विशिष्टता रही। यह अफ़सोस भी एक विशिष्टता ही रही कि बहुत से लोग जो वहाँ नहीं आ सके उनसे मिलना नहीं हो सका। मिलने के साथ-साथ लोगों को जानना-समझना, उदयगिरी व साँची का भ्रमण एक विशिष्टता रही इस आयोजन की।

2 -  इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी।

मेरे लिये आपसी दूरी जैसी कोई चीज़ नहीं थी। आपसी निकटता ही थी जो और घनी हुई।

3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया?

यह मुश्किल प्रश्न है। कई सारे अवसरों में से एक को चुनना पड़ेगा। मेरे विस्तृत लेख में वे पल आ जायेंगे।

4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है?

संचालन शुरु से अंत तक किसी एक व्यक्ति के हाथ में रहे। स्वागत और सम्मान के समय को सीमित किया जाये। कम से कम एक परिचर्चा का सत्र अवश्य हो। मंच पर सबको समान अवसर मिले चाहे बाहर से आया कोई सदस्य हो या स्थानीय। बाहर से आये सदस्य भी स्थानीय लोगों को सुनना-गुनना चाहते हैं।

5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई?

अपेक्षा यह थी कि वे मुझे खर्च बराबर-बराबर बाँटने देंगे पर उन्होंने लगभग सारा ख़र्च उठाया। सारे विदिशा और भोपाल वाले इतने 'ख़राब' थे कि मैं दुआ करता हूँ कि सारे लोग ही इतने ख़राब हो जायें ताकि दुनिया में कुछ और शांति आये। वे इतने केयरिंग थे कि उतना केयरिंग नहीं हुआ ।

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Braj Shivastav:

1 -  साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि  आप की दृष्टि में क्या रही ।
मेरी नजर में तो इस की विशेष बात यह है कि विचारधारा में अलग अलग होते हुए, भी किसी ने किसी को नकारा नहीं,छोटे(हम), मंझले, बड़े साहित्यकार शामिल थे,
उनको जोड़ कर मुझे लगा कि मैं किसी का दुश्मन नहीं हूँ. दूसरी बात प्रबंधन के लिए कुछ मित्रों का उत्साह से सहयोग करने की पहल करना याद रहेगा.
2 -  इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।⬛
मेरी तो सबसे नजदीकी सी ही थी, तो यह कहूंगा कि और और नजदीकी हुई.इतने दूर से लोग आखिर दूरियाँ कम करने के लिए ही तो आये थे.
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।⬛
वैसे तो ज्ञान प्राप्त कर चुके लोगों को भाव विभोर होते कभी देखा नहीं, पर मैं दो बार बेखुदी में हुआ, 17 की शाम जब मेरे निवास पर शरद जी, सईद जी, पदमा जी, मृगांक जी, मीना जी, प्रवेश जी, और अविनाश तिवारी सहित विदिशा के आत्मीय लोग, गा रहे थे, गपशप कर रहे थे, मिल जुलकर खाना,परोसना, हंसी, ठहाके, ये सब कब कहां हो पाता है,
दूसरी बार पगड़ी /टोपी के पहले सईद भाई का मेरे लिए प्यार से भरे शब्द बोलना, विभोर कर गया.
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।
बस यही है कि जो लोग इसे व्यर्थ समझते हैं वो इसके महत्व को कम न समझें, जो लोग इसे कर रहे हैं वो भी कमतर साहित्यकार नहीं हैं, जो जो वहाँ असाहित्यिक वातावरण रहा, वह नियोजित ही था और यही जरूरी भी था.
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन  से क्या क्या अपेक्षा थी. 🔷
बहुत सारी थीं, अधिकतर तो पूरी हो गईं, इस बार विदिशा में सुदिन जी और उनकी पत्नी सुषमा जी ने गजब का सहयोग किया, बल्कि खुद ही सब किया. संजीव जी ने भी खूब वक्त दिया, अविनाश तिवारी और दिनेश मिश्र जी का साथ मिला तो विदिशा के हिस्से का काम पूरा हुआ. जीवन रजक, सबसे पहली ही बार मिल रहे थे, फिर भी असहज नहीं रहे. सब लोग बहुत अच्छे हैं मेरे समूह में, जो आ नहीं सके, तो कुछ कुछ अनमनापन रहा मेरे ह्रदय में. काश कम से कम सब सक्रिय साथी आ पाते, सुरेन, मधु, संध्या, शाहनाज़, दीप्ति कुशवाह की बहुत कमी लगती रही,

इस सबके बावजूद मैं अति आनंदित, नहीं  होश में हूँ,मैं लिख,पढ़ रहा हूँ, मुझे पता है कि हमारी रचनात्मकता पहले जरूरी है, आखिर हम उसी की वजह से तो संग में हैं इसी के लिये तो साहित्य की बात है.
फिर भी कहूंगा कि
आपका साथ साथ फूलों का..🔷🔷🔷🔷

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Mani Mohan Ji:

साकीबा ऐसा तीसरा समूह है जिससे मैं सबसे पहले जुड़ा / जोड़ा गया।इससे पूर्व बिजूका और काव्यार्थ में था ...तो दो साल से ऊपर हुआ इस समूह में रहते हुए ...अपनी तमाम जेन्युइन व्यस्तताओं और ओढ़ी हुई व्यस्तताओं के बावजूद यह समूह भी मेरे दिल के बहुत करीब है । साकीबा का यह दूसरा सम्मेलन था जो  साँची में सम्पन्न हुआ ।गत वर्ष यह विदिशा में हुआ था पर बहुत गिने चुने सदस्य ही मौजूद थे , थोड़ी निराशा भी हुई थी पर साँची के आयोजन की सफलता ने उत्साह से भर दिया ।

तमाम साथियों से रूबरू मिलना जिनमे शरद जी , अय्यूब जी , ताई , प्रवेश जी , मीना जी आदि से पहली ही मुलाकात थी । बाकी से तो कई बार मिलना हुआ ।तो यह उपलब्धि रही । जहां तक इस सम्मेलन से अपेक्षा की बात है तो यह अकादमिक अर्थ में कुछ थी ही नहीं , जब जब ब्रज भाई से बात हुई तो यही था कि एक दिन का आयोजन है इसलिए उसे अकादमिक रूप से भारी न बनाया जाए और मेल मुलाकात और मस्ती तक ही रखा जाए । अगले आयोजनों में जरूर पूरे कार्यक्रम को सत्रों के हिसाब से बाँट कर तथा अलग अलग लोगों को जिम्मेदारी देकर काम करेंगे । साकीबा के ही सभी सदस्यों की रचनाएं भी यदि अगले आयोजन तक किताब रूप में ( सहकारिता के आधार पर ) यदि प्रकाशित हो जाती है और उसका विमोचन इस आयोजन में करते हैं तो यह और आनंद की बात होगी। शरद भाई , संजीव जी यदि इसमें रूचि लें तो यह कोई बड़ी बात भी नहीं 😊
 पूरा आयोजन ही मुझे अभिभूत कर गया ।सभी मित्रों के स्नेह के आगे विनत हूँ । साथ ही क्षमा भी कि इस आयोजन की व्यवस्था आदि में अपनी मजबूरियों के चलते जरा भी योगदान न दे पाया ।सम्भव हुआ तो अगले आयोजन में repentance  करूँगा 😀🙏🏻
 बस एक ही निवेदन है कि आत्मीयता अपनी जगह है पर रचनाओं के मामले में सभी रचनाकार मित्र और आलोचक ..संजीव भाई , अरुणेश , रविन्दर , मोहन नागर , अपनी बात उसी तरह  रखते रहें जैसा अब तक करते आये हैं ।
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Sudin Shrivastv 

 साकीबाइयों का एक सम्मेलन यहाँ हो ये तय होते ही सरगर्मियां तेज़ हो गयीं । समूह में इस विचार को रखा गया । धीरे धीरे सदस्यों की स्वीकृतियां आना शुरू हुयी । स्वीकृतियों के साथ साथ जनाबे ऐड़मिन की ओर से चिंतायें करने का सिलसिला बढ़ चला । अपने अपने स्तर पर स्थान तलाशने का काम शुरू हुआ ।आगंतुक सदस्यों की विशेष इच्छा सांची भ्रमण की थी इसलिए भोजन और आवागमन की सुविधाओं को देखते हुये संबोधि में कार्यक्रम तय हुआ । उधर अतिथियों की सूची हर दिन
अपडेट होती । संजीव जी,प्रवेश जी,और ब्रज भाई के खाते पैसेवाले होने लगे । ब्रज भाई की चिंतायें उजागर होने लगीं । रजक जी,चंद्र जी,तिवारी जी की सक्रिय भूमिका में आने लगे । आयोजन संबंधी बैठकों में सलाह मशविरों का दौर आरंभ हुआ ।प्रवेश जी द्वारा दिये गये फोटो को फ्लेक्स का रूप दिया गया । मुक्ता भाभी का मजाक़ कि"अब इन्हें टेंशन होने लगा "। अतिथियों को कहां रूकना है । इसपर बात होने लगी ।

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*संजीव जैन* 

क्या सकीबा सम्मेलन सार्थक हुआ ? हंसना मिलना जुलना दुराव छिपाव यह सब तो जीवन में होता ही रहती है. क्या यही इस सम्मेलन की सार्थकता है? संभवत: नहीं . हमें इससे आगे कुछ नए संदर्भों में इस सम्मेलन की सार्थकता के सूत्र खोजने होंगे.
बहुत गहराई में जाकर मंथन करने पर महसूस हुआ कि यह सम्मेलन हमारे चेहरों की पर्तों को धीरे धीरे खुलते जाने की प्रक्रिया का आरंभ हो सकता है.
प्रत्येक सदस्य अपने अंदर कई तरह के इंसानों को जिंदा रखे हुये होता है, कुछ एेसे भी इंसान हमारे अंदर जिंदा होते हैं जिन्हें हम कतई अपने साथ नहीं चाहते.
हमारी चेतना में बहुत से ज्वालामुखी पलते रहते हैं. वे बाहर आना चाहते हैं पर बहुत तरह के दबाव और अन्य कारक उन्हें बाहर नहीं आने देते. इस तरह के सम्मेलनों में यह संभव होता है. मैंने महसूस किया है कि बहुत से साथी बहुत कुछ अंदर का लावा बाहर निकालकर हल्के होने का प्रयास कर रहे थे और कुछ हद तक संभव भी हुआ.
हमारी चेतना एक धरती की तरह होती है जिसमें निरंतर हलचलें होती रहती हैं. ये हलचलें भूकम्पीय हलचलें भी पैदा करती हैं. इस तरह के प्लेटफार्म इन हलचलों को सतह पर लाने में सहयोग करते हैं. कुछ लोग इन्हें महसूस कर पाते हैं कुछ नहीं यह अलग बात है.
पृथ्वी की सतह की तरह ही हमार व्यक्तित्व होता है. कई परतों से बना रचा हुआ. यह निरंतर निर्मित होता है बाहरी आघातों से और अंदर की     हलचलों से. हमें कई बार जमीन के नीचे के जल-जीवन के स्रोत को खोजने के लिए ऊपरी पर्त को कुल्हाडी से खोदकर हटाना पडती है. मुझे लगा कि कुछ साथी इस प्रयास में लगे थे.

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Rajendr Shivastav Ji: 

1--साँची सम्मिलन की विशिष्टता व उपलब्धि :--
यह सम्मिलन इस माने में विशिष्ट कि आभासी दुनिया के ऐसे सहभागीयों का आत्मीय समागम जिनमें से अधिकांश पहिले एक दूसरे से कदाचित  ही कहीं मिले हों।
स्वस्फूर्त व साझा सहयोग से परस्पर परिचय व साहित्यिक उपलब्धियों पर चर्चा और "समूह की बर्षगाँठ -सबके साथ" मनाने की मंशा लिये हुये।व्हाट्स एप ग्रुप में अभी बहुत कम देखा-सुना गया आयोजन ।
साहित्य जगत की जानी-मानी विभूतियों से साक्षात् होना ,उनके विचार व्यवहार से सीख लेना व सबकी आत्मीयता पा लेना   नि:संदेह मेरे लिये बङी उपलब्धि है ,जिसका लाभ मुझे साहित्य सृजन में मिलेगा।
2--इस आयोजन से दूरियाँ कम हुई हैं।
औपचारिकता न के बराबर शेष रह गई।
बैचारिक मत एक होते दिखे। पारस्परिक संवाद परस्पर लगातार होते रहे ।सब ओर केवल और केवल नेह वअपनापन छलक रहा था।मेरी झिझक भी  नहीं रोक सकी मुझे सबसे घुलने-मिलने से।
3--मंच पर जब प्रवेश जी द्वारा लाई गई पगड़ी से एडमिन को सम्मानित किया गया ,और देवीलाल जी ने पगङी की गुरुता को इंगित करते हुये पगङी ससम्मान अपने सिर पर धारण की उस समय के उन भावों को स्मरण कर मन आज भी भाव विभोर हो जाता है।
4--एक स्पष्ट रूपरेखा व निश्चित एजेंडा
किसी भी आयोजन की सफलता निश्चित करता है। सहभागीयों के बीच कार्यविभाजन ,यद्यपि यहाँ था और सुगम बनाया जा सकता है।
विदा -वेला में कोई नव संकल्प के साथ आयोजन का समापन ।
5- किसी शायर का एक शेर याद आ रहा है--
  उसको क्या हक है कि कतरे से समंदर माँगे,
जिसने सिखलाया नहीं कतरे को दरिया होना ।
मेरी अपेक्षा अनुकूल आयोजन सफल रहा।
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Dinesh Mishra

साकीबा का ये आयोजन एक खुशबु की तरह था, जो अब भी मौज़ूद है, हमारी बातों में और हमारी यादों में। ये एक ऐसा ख़ास कार्यक्रम था जो इब्तदा से लेकर इन्तहा तक कुछ फ़ीसदी वर्कशॉप की मानिंद था, जिसमे सिर्फ़ कविता कहानी और कला पर ही बात नहीं हुई, बल्कि बहुत कुछ ऐसा सीखने मिला, जो किसी ख़ास विषय पर केंद्रित आयोजनों में आमतौर पर नहीं मिलता, जैसे बातचीत का तौर तरीक़ा, व्यवहार और एक बात और की जहां आयोजन में महिलायें और परिवारजन हों , वहां अपने बर्ताब को संतुलित रखने की ऐसी तालीम जो माहौल देखकर बग़ैर दिए ही मिल जाती है।
इस आयोजन ने जिसकी बुनियाद का पहला पत्थर व्हाट्सअप समूह
साकीबा पर सदस्यों की बातचीत से रखा गया हो, व्हाट्सअप यानि वो माध्यम जिसे आभासी और सतही कहकर बदनाम किया जाता रहा है, इस मिथ्या धारणा को दूर करने में सकारात्मक पहल की है।क्योकि सिर्फ़ chating के बाद हुई पहली मुलाक़ात ने ये साबित कर दिया की  मिलते ही लगने वाले ठहाके और गर्मजोशी सिर्फ़ सतही नहीं, इसमें हम सबके दिल भी शामिल थे, शायद इसीलिए ये अतिथि साहित्यकार हमारे घर पर आते ही परिवार के सदस्यों में तब्दील हो गए, यही वज़ह है की पत्नी नेहा और बिटिया मीठी कभी शरद भाई की बात करते हैं तो कभी अयूब की याद। ताई का स्नेह भुलाए नहीं भूलता है, तो प्रवेश जी ने मेरी आड़ी तिरछी रेखाओं को चित्र बताकर मुझे आगे कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे ख़ुशी है की fb और whatsap की दुनिया ने मेरे और क़लम के बीच फासले बना दिए थे वो कम होना शुरू हो गए हैं, और फिर कविताएं लिखने लगा हूँ। इस आयोजन की सबसे बड़ी ख़ासियत इसका अनौपचारिक होना भी हैं।
अब बारी है उन भावुक लम्हों की,  जिन्हें भुलाना मुश्किल नहीं नामुमकिन भी है, जब सब लोग घर आये तो उनके जाने के बाद बिटिया मीठी ने कहा की पापा आपको इतना खुश इससे पहले कभी नहीं देखा, पदमा जी का साँची में शरद जी से कहना की दिनेश जी की कविताओं का संकलन निकालने के लिए प्रयास करना है। शरद भाई का मीठी से कहना की बेटा मुझे चाचा कहिए, मुझे अंदर तक भिगो गया, क्योंकि मेरे छोटे भाई का नाम भी शरद था, जिसे मैं खो चुका हूँ। ब्रज जी, शरद भाई और मणि जी बार बार मुझसे संकलन निकालने का इसरार कर ही रहे हैं। यहां मैं मोहन नागर जी का ज़िक़्र भी करूँगा, जो मेरी कविताओ को तरज़ीह देते हैं, और लम्बी चर्चा भी करते हैं।
कुल मिलाकर साकीबा आयोजन ने अपनों को अपनों से मिला दिया है, जो बड़ा काम है।
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 Meena Sharma: 

शब्द दर शब्द ....कैसे कोई उन पलों को लिख सकेगा.
एक-एक व्यक्ति का इंतजार,
देर होने पर कुशल पूछना..लम्बे
समय तक स्टेशन पर इंतजार, मिलने पर दौड़कर गले लगना.
देर तक सिर्फ तस्वीर से साकार रूप

में उतरना...सारे अजनबियों का
सिर्फ सा की बा का परिवार हो जाना.
विदिशा का हर घर हमारा घर हो गया
था.... साहित्य का कार्यक्रम
किसी निजी आयोजन की तरह हो गया था...हर एक को मंच ने सम्मानित किया.हर किसी की सुविधा असुविधा का ख्याल ..
माँ सरस्वती की वँदना से प्रारंभ
होकर ..साकीबा के स्थापना और प्रगति का विवरण...
परिचय ..वक्तव्य..गीत.और आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा, साँची भ्रमण में आपस की सबकी
मुलाकात नेह बँधन बाँध गई.
उम्मीद है इस तरह के आयोजन से लेखक को नये विचार, नया लेखन रचने का नजरिया मिलेगा.
साकीबा परिवार को बधाई.
आयोजन का प्रथम चरण सफल रहा. भविष्य के लिये शुभ कामनाएँ.
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Friday, September 9, 2016

कुछ कविताएँ ऐसी होती हैं जो कल्पना की क्षमता को तो बताती ही हैं, साथ में किसी परंपरा के सौन्दर्य तत्व को भी चतुराई से आगे बढ़ा देती हैं, और किसी नियम पर एसा सवाल खड़ा करती हैं कि नियम बनाने वाले और चलाने वाले बौखला जायें. दरअसल ऐसी कविताएँ ही बदलाव के लिए ज़मीन तैयार करती हैं. आज यहाँ हम ऐसी ही कविताएँ पेश कर रहे हैं जिनको रचा है मंदसौर में रहने वाली चर्चित कवि आरती तिवारी ने. 

इन कविताओं पर जबरदस्त बहस हुई, वाटस एप समूह साहित्य की बात में. जिसके संचालक हैं ब्रज श्रीवास्तव. 

पेश है समूची चर्चा. 





नाम--आरती तिवारी

पति--रवीन्द्र तिवारी
जन्म-- 08 january
जन्म स्थान--पचमढ़ी
शिक्षा--बीएससी एम ए बी-एड
अध्यापन अनुभव--लगभग 15 वर्ष
                          पूर्व शिक्षिका
प्रकाशन---विगत कुछ वर्षों से मध्य-प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों में विभिन्न विधाओं पे रचनाएँ प्रकाशित
नई दुनिया,दैनिक भास्कर,राज एक्सप्रेस,नवभारत व् सरस्वती साहित्य,शब्द-प्रवाह,सृजन की आँच, अक्सर,निकट,नेपाल की पत्रिका संयोजन व् अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन
सम्मान __2014 में नागदा की साहित्यिक ,सामाजिक,सांस्कृतिक संस्था "अभिव्यक्ति विचार मंच"द्वारा प्रदत्त
              राष्ट्रीय विष्णु जोशी(अंशु) सम्मान से सम्मानित
वनारस के कैथी फेस्टिवल में जनवादी कवि गौरख पाण्डेय सम्मान 2015
पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष सक्रिय संस्था__"अनुराग" से जुड़ाव व् मन्दसौर विकास समिति से संलग्न
मुख्य विधा-नई कविता
आकाशवाणी इंदौर से कविताओं का प्रसारण
संबंधित संस्थायें-प्रगतिशील लेखक संघ,म प्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन व् अन्य सांस्कृतिक सामाजिक संस्थायें
संप्रति-स्वतन्त्र लेखन
वर्तमान पता-आरती तिवारी
               dd/05 चम्बल कॉलोनी मन्दसौर 458001 म प्र
              मोबाइल--09407451563
         ईमेल--atti.twr@gmail.com



🔴 1 *कई बार पढ़ी गई किताब*

तुम फिर मुझे पढ़ रही हो
और बिल्कुल वैसे ही
  जैसे पहली बार

जब तुम्हारी नाज़ुक गुलाबी उँगलियाँ
पलटती थीं मेरा एक पन्ना
और नशीली आँखें
गड़ी रहतीं थीं मुझ पर
मैं सिहर-सिहर जाती थी

जब कहानी की एक नायिका
प्रताड़ित होती
और तुम तड़प उठतीं
भींच लेती मुट्ठियाँ
और तुम्हारी आँखों के सैलाब
बेताब हो जाते
ये दुनिया बदल डालने को

तुम वो पृष्ठ बार बार पढ़तीं
जहाँ इनकार कर देती है नायिका
बिस्तर पे बिछी,एक बासी चादर बनने को

चौंक गईं न
ये वही मोरपंख है
हाँ तुम्हारा बुकमार्क
और ये धूसर धब्बे
तुम्हारे सूखे हुए आँसू
जो नायिका के मार दिए जाने के दुःख में इस पृष्ठ पर
एक भावांजलि में
चस्पां हुए आज भी
अपनी नमी दर्ज़ करा रहे हैं
इतिहास में

तुम्हे याद है न
जब तुमने मन ही मन खाई थी ये कसम
तुम नहीं मानोगी हार
ज़ुल्म से,ज़ोर से या छल से

और आज मैं तुम्हारे हाथों में हूँ
हूबहू वही हो
वे ही गुलाबी उँगलियाँ
हाँ बालों में हल्की सफेदी और पतलापन
छरहरी काया,बदल गई गदराये जिस्म में
पर आँखों में वही आग
और चेहरे पे वही मासूमियत
हाँ जब मेरे प्रकाशन का
पहला वर्ष था
तुम्हारी उम्र का उन्नीसवां
हाँ हम दोनों युवा थे
भरपूर अंदर से और बाहर से भी

और आज मैं भी आ गई हूँ
कुछ चर्चित किताबों के बीच
और तुम भी जी रही हो
अपनी दूसरी पारी को सफल होके

मैं कई कई बार पढ़ी गई
कई कई चाहने वालों द्वारा
सुनो,पर वैसे नही
जैसे तुमने पढ़ा था मुझे
और जी ली एक उम्र
मुझे ही पढ़ते हुए



     ( 2 ) *घडी*

वो पिता की घड़ी थी
चांदी सी चमकती चेन में मढ़ी थी
घड़ी की भी एक कहानी थी
सुनी पिता की ही जुबानी थी

वे कहते
कभी दो सेकंड भी
आगे पीछे नही हुई
जबसे खरीदी है
सदा नई है

उनकी घडी का ये फलसफा था

घड़ी वो
जो बीस रूपये में ली हो
टाइम ठीक बताती हो
बिना रसीद की हो
हम विभोर हो सुनते
घड़ी को छूकर गौरान्वित होते
पिता चौबीस घण्टे में
एक बार चाबी भरते
और घड़ी सदा टिकटिक करती रहती
मुस्तैदी से

घड़ी ने निकाल दी
एक पूरी उम्र
बिना नागा,सुबह चार बजे जगा देती
उसकी सुइयों पर
दौड़ता था वक़्त
पिता कभी नही हुए किसी काम में लेट
वे अपनी घड़ी के
घण्टे वाले कांटे को अतीत कहते
जो मिनटों पर थिरकता
वही उनका वर्तमान था
और साइड बार के छोटे से कांटे को
वे बड़ी आशान्वित निगाहों से देखते
और उनके सपनों में
वो बड़ा हो जाता

उन्होंने नही की कोई शिकायत
कभी घण्टे वाले कांटे से
जिसकी चाह थी
क्यों नही मिला वो
वे साइड बार को भी साइड में ही रखते
कहते अपेक्षा मत करो
और भागते हुए मिनट वाले कांटे को
जीते रहे हर पल

उनकी घड़ी बड़ी विश्वसनिय थी


  3 *स्त्री से पुरुष*

ऋतु-स्नान के पश्चात्
लहरा रहे थे उसके चमकीले रेशमी केश
उसका सद्य स्नात सौंदर्य
भोर की प्रथम रश्मि सा
फूट कर प्रविष्ट हो रहा था
सृष्टि के सूक्ष्म कण में

तुम बढ़े आगे
तुम मुग्ध हुए
वो भी खिंची
तुम्हारी मर्दानी गन्ध के भरोसे में
एकाकार हुए दो स्वप्न
तुम रिक्त हुए
भर भर गई वो

तुम्हारा बीज धारण कर
धरती हो गई वो
उसके रज से
देह में पनपा एक और जीवन
उसके गर्भाशय का कोटर
तुम्हारे बीज का अभेद कवच था
नौ महीने अंकुरण से भ्रूण् यात्रा में
उसके रक्त से पोषित
एक और पुरुष
बढ़ते और बनते रहे तुम
खिलते रहे चंद्रकलाओं से

वाद्य-यंत्र सी
बजती रही उसकी कोंख
गर्भनाल से तुम्हे चुगाती रही चुग्गा
तुम्हे पोषने तुम्हारे लिए ही
खाती रही पौष्टिक आहार
चाहे मन कभी कुछ न खाना चाहे तो भी

तुम भी जन्मे थे
जैसे सहस्त्राब्दियों से जन्मता आ रहा था तुम्हारा पितृ-पुरुष
हाँ सुनो तुम भी एक योनिजा हो
रुधिर और श्वेत स्राव में लिपटे
क्षत-विक्षत करते हुए उसके कोमलांग
भूमि पर आये थे

वात्सल्य के झरने में नहला
ममत्व की चिकनाई से
मलकर पुष्ट करती वो
तुम्हारा शैशव
अपने स्तनों से उड़ेलती अमृत धार
तुम्हारे छोटे से मुँह में
और झाँकती तुम्हारी झपझप करती आँखों में
पढ़ लेती तुम्हारी तुष्टि
तुम्हारी किश्तों में पूरी होती नींद
घटा देती उसकी नींद
घण्टों से मिन्टो में

और आज तुम एक पूर्ण पुरुष हो
अपने पिता की तरह

तुमने निषिद्ध कर दिए है
उसके प्रवेश किन्ही विशिष्ट मन्दिरों में
गर्भगृहों में

उसकी देह एक मन्दिर है
जिसकी अंतर्यात्रा तय करके
बाह्य-जगत में आये हो तुम

जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया उसे
उसी संसर्ग उसी रज उसी रक्त से निर्मित तुम
उसी गर्भगृह में पड़े रहे नौ माह
शुचितवादियो सुनो,
जिस मार्ग से आये बाहर
वो अपवित्र ?

उस मन्दिर में जिस दिन हो जायेगा
तुम्हारा प्रवेश वर्जित
रह पायेगी क्या दुनिया
और तुम्हारे बनाये नियम भी?

🔴 ||  हमारे डर  ||

घर से निकलते ही
भीड़ में खो जाने के डर
अच्छे कपड़ों में
नज़र लग जाने के डर
सादे कपड़ों में
आम नज़र आने के डर

अव्वल आने पर
साथियों की ईर्ष्या के डर
औसत रहने पर
पिछड़ जाने के डर
प्रेम की अभिव्यक्ति पर
ठुकराये जाने के डर


ब्रांडेड माल से ठगे जाने के डर
सस्ते में घटिया उत्पाद के डर
दस्तावेजों के नकली पाये जाने के डर


बाढ़ और सूखे से
बाज़ार बैठ जाने का डर
मन्दी में, बेरोज़गार हो जाने के डर

हमारे छरहरे डर
अब भीमकाय हो चले हैं
हमारे डर करने लगे है
दबाव का विस्फ़ोट

हमे ज़रूरत है, एक मसीहा की
बदल डाले जो दुनिया
बना दे जन्नत ऊगा के खुशियों की फसल
मिल जाये कोई जादुई चिराग
और पल भर में,हो जाएँ
सारे रास्ते आसान

मिट जाएँ हमारे  डर

हम नही करते कोशिशें
बदलने की खुद को
और स्वयं को छलकर
डरते रहते हैं


© आरती तिवारी

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प्रतिक्रियाएँ

[09/09 10:15] Sandhya: *डर*कविता की हर पंक्ति एक अलग विस्तार लिए है खुद को नहीं बदल पाने से उपजी यथास्तिथि को बता रही हैं कवयित्री
[09/09 10:19] Sandhya: *कई बार पढी गयी किताब*में बहुत खूबसूरती से संप्रेषित किया है अपनी बात को ।
[09/09 10:21] Sandhya: *घड़ी*कविता में समय को भी लिखते हुए पिता को भी शब्द दे दिए खूब ।
[09/09 10:21] Sudhir Deshpande Ji: आरती तिवारी की कविताएं अपने आसपास पैनी नजर रखती है। वे भीतर भी उतनी ही शिद्दत से झांकती है। पाठक उनकी कविताओं मे बहने लगता है और उन्हें अपना मान लेता है। संवेदना से भरपूर कविताएं और कवि आरती तिवारी अभिनंदन।
[09/09 10:30] Sandhya: *स्त्री से पुरुष* कविता में
पितृ सत्ता को यथावत उकेरने में सफल रही कवयित्री ,लेकिन पितृसत्ता का आदिम भय स्त्री की शक्ति है जिसे बनाये रखकर ही पितृसत्ता कायम रखी जाती रही है इसके प्रति एक व्यामोह ही दृष्टित होता है इसका पुष्ट विरोध का अभाव सा लगा जो स्वयं स्त्री के हाथों में है 💥
[09/09 12:02] Aalknanda Sane: आरती की ये  कविताएं  पढ़ी हुई हैं , लेकिन आज फिर ख़ासा प्रभाव छोड़ रही हैं. चाहे वह ''हमारे डर'' हो या ''कई बार पढ़ी गई किताब'' हो. ''घडी'' मुझे हमारे समय की याद दिलाती है, जब वह न सिर्फ समय देखने के काम आती थी, बल्कि अनुशासन में भी बांधकर रखती थी. ''स्त्री से पुरुष'' स्त्री विमर्श की एक अनोखी कविता है. वह पुरूष के लिए लगभग चेतावनी की तरह है.अनेक चीजों को संयत शब्दों में स्पष्ट करती ऐसी कविता लिखने के लिए हिम्मत की जरूरत होती है. आरती , एक बार फिर बधाई.
[09/09 12:13] ‪+91 98939 44294‬: आरती ने अपनी इन कविताओं में स्त्री और जीवन से जुड़े बहुत संवेदनशील मुद्दों पर अपनी कलम चलाई है।उनकी अनुभूतियों को बहुत खूबसूरती से यहां स्थान मिलता है जिन पर बहुत से कोणों से विमर्श सम्भव होता है।यही इन कविताओं की ताकत भी है। आरती बहुत मेहनती रचनाकार हैं,निश्चित ही इन कविताओं के शिल्प और संपादन पर वे और काम अभी करेंगीं,उन्हें यादगार बनाने में सफल भी होंगीं।बधाई और शुभकामनाएं।💐💐
[09/09 12:30] Dinesh Mishra Ji: आरती जी
सारी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं
और आपकी पैनी नज़र और नज़रिये को उद्घाटित करती हैं, छोटी छोटी चीज़ों को इतनी संवेदनशीलता के साथ महसूस कर उपजी ये कवितायेँ अपने कथ्य को लेकर बहुत निश्चल और निष्पाप लगीं, बधाइयाँ।
[09/09 12:59] Meena Sharma Sakiba: आरती जी की कविताएँ, उनके अन्तर की सिहरन को कविताओं के रूप में प्रस्तुत करती हैँ.कई बार पढी गई किताब, घड़ी,जैसेस्मृति के पृष्ठ पलटकर डूबी हों उनमें,सुन्दर शब्द...भावों के सिरे पकड़कर, और जी ली एक उम्र कविता के साथ...स्त्री से पुरुष कविता का एक-एक शब्द वाक्य का हाथ पकड़ कर एक लम्बी कविता कह रहा है.उत्कृष्ट रचना है यह !  दुरूहता से दूर सहज अभिव्यक्ति जीवन मूल्य ों केप्ति संवेदना से भरी हुई कविताएँ.
[09/09 13:02] Meena Sharma Sakiba: बध्ई आरती जी ,फिर फिर चिन्तन के लिये आवाज देती कविताओं की सुन्दर प्रस्तुति के लिए ब्रज जी का आभार, बधाई आरती जी श्रेष्ठ रचनाओं  से परिचय कराने के लिये !
[09/09 13:04] Chandrashekhar Ji: घड़ी के माध्यम से पिता पर बहुत ही प्रभावी और स्पर्शी आख्यान...
वर्तमान समय में पसरी हुयी विसंगतियों का सामना करने का उपाय "हमारे डर " में है।
स्त्री से पुरुष निश्चिति ही साहसिक प्रयास है लेखन के दृष्टिकोण से।
भरपूर मेहनत के उपरांत पटल पर रखी गयी कविताओं के लिए आरती जी को बधाई।
[09/09 13:14] Saksena Madhu: आरती की कविताएँ ..उनके काव्यकर्म को सार्थक कर रही हैं ।भाषा विम्ब कसावट सब है ।कहीं कोई झोल नहीं ।लगता है खुद ही खुद की समीक्षक है ।

कई बार पढ़ी गई किताब में एक बात और लिखना था कुछ ख़ास पढ़कर कितनी रातों को सो नहीं पाई थी ।मेरे साथ हुआ यही ....स्पार्टकस पढ़ कर हफ्ता भर  ठीक से सो नहीं पाई थी ।आप बीती सी लगी कविता ।

 घड़ी पर बहुत कविताएँ लिखी गई है फिर भी आरती कविता सबसे अलग और ताजगी लिए हुए है । जीवन की सीख देती ये कविता...समय का महत्व बताती हैं ।

स्त्री से पुरुष कविता ने विस्तार जयदा ले लिया पर उबाऊ होने से बची रही ।यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है ।
बात कुंती से शुरू होकर पुरे समाज पर चली गई ...

अच्छी कविताओं के लिए बधाई आरती ।
आभार एडमिन जी ।
[09/09 13:42] Bhavna Sinha Sakiba: पहले भी पढ़ी हूँ  और आज फिर से पढते हुए मुझे "घड़ी "कविता  सबसे अच्छी लगी ।  सचमुच चीजों से हमारी संवेदनाएं  जुड़ी होती है। "डर" कविता  भी  बहुत प्रभावित करती है--
स्वयं को छलकर डरते रहते हैं।
"स्त्री से पुरुष "कविता का  विषय हालाँकि पुराना लेकिन कवयित्री ने इसे जिस तरह निभाया है वह तारीफ के कबिल है। बहुत ही नपे तुले शब्दों में  कही गई संतुलित कविताएँ, ,,,,,,,
बधाई आरती जी।
[09/09 13:48] Rajendr Shivastav Ji: आरती जी की अच्छी कविताएँ ।
"हमारे डर " अपने मनोविज्ञान को उकेरती कविता ।
....हम नहीं करते कोशिशें बदलने की खुद को....।
कईबार पढ़ी गई किताब अंतर्यात्रा जैसी कविता ,गुजर गई जो एक उम्र याद दिलाती हुई।
घङी- वक्त का पर्याय,भूत वर्तमान भविष्य के अच्छे प्रतीक  ।बहुत विश्वास से लिखी गई कविता ,"जो भी  है बस यही एक पल है..."
स्त्री से पुरुष -स्त्रीविमर्श की प्रभावी कविता ,ऐसे ही भावार्थ  लिये एक कविता इसी पटल पर पहिले भी पढ़ने का अवसर मिला है ।नाम भूल रहा हूँ।
सभी  कविताएँ भाषाई दुरूहता से परे हटकर सरलत व सहज अभिव्यक्ति के साथ पाठक को प्रभावित करती लगी।
बहुत बधाई आरती जी ।
[09/09 13:59] Ghanshym Das Ji Sakiba: आरती जी सभी कवितायेँ बहुत ही गहन अर्थ समाये हुये है । हमारे डर  कविता के माध्यम से हमारी उस मानसिकता की और इंगित किया है जिसके कारण सदियों से हम अपनी मुसीबतो / अत्याचारों से संघर्ष करने के स्थान पर हमेशा किसी तारणहार का इंतजार करते उनको सहते रहते हैं , घड़ी कविता अपने पिता की अच्छाईयों को बहुत खूबसूरती से बयां करती है । स्त्री से पुरुष तो बहुत ही अद्भुत ही रचना है जिसमे पुरुष का अहं नारी पर तरह तरह के बंधन आरोपित करता है । कितनी बड़ी बात कहती हैं ये पंक्तियाँ "शुचितावादियो सुनो ........और तुम्हारे बनाये नियम भी ?" अच्छी रचनाओं के लिये बधाई
[09/09 14:02] Dipti Kushwaha: आरती समय और परिस्थतियों से सार्थक संवाद करती हैं और काव्यगत अनुकूलताओं को और प्रिय बनाती हैं ।
स्त्री से पुरुष के बारे में मधु जी ने जो कहा है, उस पर अंगुलि धरती हूँ ।
मुझे लगता है, उम्दा प्रतीकों के माध्यम से आगे बढ़ती प्रभावी कविता 'घड़ी' की अंतिम पंक्ति कुछ और बात...पंच सी पंक्ति माँगती है।
प्यारी सखी है, आरती मेरी ! कोशिश की है तटस्थ पाठक की दृष्टि से उसकी कविताएँ देखूँ ।

बहुत बधाई आरती, बहुत अच्छा कर रही हो !
[09/09 14:03] Pravesh soni: आरती की कवितायेँ  एक लम्बे इन्तजार के बाद पटल पर आई है ,इसके लिए एडमिन जी से थोड़ी शिकायत है ।
स्त्री विषयक कवितायेँ लिखने में आरती की कलम को प्रणाम करती हूँ ।बेजोड़ विषय लेकर कवित्व रचती है ।डर का भीमकाय हो जाना ,और खुद को न बदल कर मसीहा की दरकार रखना ... इन्सान की आश्रित होने की प्रवर्ति को दर्शाता है।

किताब के माध्यम से बहुत ही अच्छी कविता लिखी है ।इस कविता में विचारों को खूब संजोया है ,संवेदना भी पुस्तक के चरित्र के साथ साथ बहती गई ,मन को उद्वेलित भी किया ।इस कविता  में स्त्री विषयक का छौंक   ने पाठक को लज्ज़त दी है ।

घड़ी अपने आपमें अनूठी कविता लगी ।समय के साथ साथ जीवन का संतुलन बनाती हुई अच्छी कविता ।
स्त्री से पुरुष में पितृसत्ता को ललकारती एक आदिम सत्य से रूबरू करवाती शानदार कविता लिखी गई
एक बार नहीं तुम्हे बार बार बधाई आरती ।
तुम्हारे कवि मन  से स्नेह है ।
💐💐💐💐
[09/09 14:17] Komal Somrwaal: आरती जी की रचनाएँ प्रथम बार पढ़ी। इन्हें दूसरी बार पढने से स्वयं को नहीं रोक पायी। उत्कृष्ट लेखन में बेहतरीन भावों से लबरेज कवितायें। हर पंक्ति एक गूढ़ सन्देश लिए हुए है।
'डर'कविता वर्तमान समय में सभी मनुष्यों के मन में पल रही किंचित असुरक्षा को दर्शाती है। इस डर के साथ आज लगभग हर व्यक्ति न चाहते हुए भी जीने को विवश है क्योंकि आस पास का वातावरण ऐसे सैंकड़ों डर उपजा देता है।
'कई बार पढ़ी गयी किताब' हर पाठक को उसकी सबसे पसंदीदा किताब की याद दिला ही देती है। पाठक कविता पढ़ते समय खुद को इससे जोड़ने से नहीं रोक पाता और इसे खुद के द्वारा सबसे अधिक पढ़ी गयी किताब से तुलना कर ही बैठता है।
"घड़ी" कविता में वर्तमान,भूत और भविष्य का सामंजस्य घड़ी के कांटों द्वारा दिखाया रचनाकार ने। तर्कसंगतता का सुंदर उपयोग।
'स्त्री से पुरुष' कविता पौरुष मानसकिता पर कठोर प्रहार करने में सफल।
सभी कवितायें शानदार लगी।👏🏼👏🏼
[09/09 15:59] Shaahnaaz: बहुत सुंदर संवेदनशील और प्रभावशाली कविताएँ जो अपने कथ्य में बहुत महत्वपूर्ण हैं । बढ़िया कविताओं के लिए बधाई आरती जी को 💐
[09/09 17:48] HarGovind Maithil Ji Sakiba: सभी कवितायें बहुत ही संवेदनशील और संप्रेषणीय है ।जो पाठक के मन तक पैठ बनाने में सफल होती है ।सुन्दर रचनाओं के लिए आरती जी को बधाई और एडमिन जी का आभार 🙏
[09/09 18:14] Braj Ji: *डर* कविता अदभुत काव्य विधान लिए है. किताब में भी नया कहन है और यह एक आयामी नहीं है. पिता की घड़ी के लिए कविता कहना कोई आरती से सीख सकता है, आखरी कविता पर तो बोलने को हजार बातें हैं. वाह वाह वाह. |
[09/09 18:32] Arti Tivari: साहित्य की बात पर मेरी कविताओं को स्थान देने का आभार ब्रज जी,.ये एक साहित्यिक समूह ही नही वरन एक ऐसा संयुक्त परिवार है,.जहाँ सब सहज ,सुखी और खुशहाल लोग रहते हैं,.मित्रों ने मेरी कविताओं पर लिखा मैं शुक्रगुज़ार हूँ,.समय निकाल कर कवितायेँ पढ़ना और उन पर लिखना एक अतिरिक्त बौद्धिक श्रम मांगता है,.फिर भी मित्रों के इसी श्रम से समूह में जीवन्तता बनी रहती है। जिन्होंने कवितायेँ पढ़ीं पर लिख नही सके वे अधिक व्यस्त होंगे,.उनका भी आभार,.जिन्होंने नही पढ़ीं,.वे किसी अधिक ज़रूरी काम में व्यस्त होंगे ,कोई बात नही😊 जब कभी मुमकिन हो पढ़ें🙏🙏 साहित्य की बात समूह के सभी एडमिनो का आभार🌹🍀
[09/09 18:37] Aanand Krishn: हमारे छरहरे डर
अब भीमकाय हो चले हैं ।

समकालीन आतंक की सरलतम शब्दों में अभिव्यक्ति ।
[09/09 19:01] Padma Ji: आज पटल पर आरती जी कवितायेँ नवीन उद्भावनाएँ लिए सहज सरल शैली में उपस्थित हैं।

  कई बार पढ़ी गयी किताब

में किताब का मानवीकरण कर सुन्दर अभिव्यक्ति की है।


स्त्री से पुरुष कई प्रश्नों को उपस्थित करती है।
 पर शीर्षक सही नही लगा।
कवयित्री का अपना निर्णय है।

कवितायेँ प्रभावपूर्ण और प्रवाहपूर्ण हैं।

बधाई आरती जी
💐
धन्यवाद एडमिन जी
🌹
[09/09 19:03] Sanjiv. sahity Ki Baat: आरती जी की कवितायें पढी । बढिया हैं। स्त्री से पुरुष लिखने के लिए बधाई। यह कविता अपने अंतर्पाठ के दौरान कई रिक्त जगह छोडती है। इन रिक्तियों को पकडने के लिए स्त्री विमर्श के कई अन्य आयामों पर बहस करने की आवश्यकता है। स्त्री की गरिमा सबसे अधिक यौनिकता के संबंध में प्रश्नांकित की जाती है न कि मातृत्व के संबंध में। पितृ सत्ता ने मातृत्व को यौनिकता से अलग रखा है।
[09/09 19:35] ‪+91 74703 34648‬: Bahut shaandaar kavitayen hain. Stree se  purush kavita to master peace hai.pitrrasatta pr  sawal khade krti yah kavita darasl pitrrasatta ki seema  ko bhi batati.yah kavita yah batati ki nafrat ka jabab nafrat ni..lekin  ek soft chetavni hai pitrrasatta ko.yah artistic visheshta ise  narivaad ke prachlit loud kavitaon se  alag kr  k poori  shrishti khaskr prem wa srijan ke paksh me sochne wali kavita banati hai.kavita yah ishara karti ki prem wa daihik samarpan stree  ki kamjori nahi...WO mamtva samjhti hai ...
[09/09 19:36] ‪+91 74703 34648‬: Yah kavita us social construction ko chinhit krti Jo janm ke baad hi shuru ho jata hai.basicly garbh se  hi
[09/09 19:37] ‪+91 74703 34648‬: Sirf  stree hi nahi banayi jati purush bhi banaya jata hai.social valueloadings  ke dwara
[09/09 19:40] ‪+91 74703 34648‬: Dar kavita par kya kahu.raam manohar lohia ne  kaha tha  ki agar apko lagta hai ki kahi kuch  galat hai to aap jaha  khade hain  pahla kadam  wahi se  uthaiye.kisi kalpit kranti ki kalpana me hath pr  haath dhare  na baithe rahiye.ya ki Gandhi ne  kha tha  ki koi kisi ko swaraj lakar  ni dega sbko Apna swaraj khud praapt krna hoga.ya appa deep bhav Buddha ka
[09/09 19:40] ‪+91 74703 34648‬: In sbka poetic transformation hai Jo bahut sundar hai
[09/09 20:31] Anil Analhatu: 'स्त्री से पुरुष'  अद्भुत रूप से स्पष्टवादी और  पितृसत्ता को खुली चुनौती देती हुई एक बोल्ड कविता है जो गर्हित पितृसत्ता के छद्म और हिपोक्रिसी को तार तार कर देता है। कवयित्री यह बिल्कुल सही प्रश्न उठाती है कि जिस देह रूपी मंदिर की अन्तर्यात्रा करके वाह्य जगत में तुम आये हो, उसी  देह के प्रवेश को किन्हीं विशिष्ट मंदिरों के गर्भ गृहों में तुमने निषिद्ध कर दिया है? क्या यह पुरुषों का  पाखण्ड नहीं है?  नासिक के त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भ गृह में अभी हाल हाल तक स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था , क्या यह ढोंग और पाखण्ड नहीं है कि जिस गर्भ गृह में नौ महीने रहकर पुरुष बाहर आता है, जिस गर्भ गृह में पुरुष अपने देवताओं की स्थापना करता है ( यह भी जानने की जरूरत है कि देवताओं की प्रतिमा मंदिर के गर्भ गृह में ही क्यों होती है ?क्या इसका साम्य स्त्री की देह नहीं है , इसीलिए कवयित्री ने स्त्री देह को मन्दिर कहा है और उसका गर्भ गृह उसकी कोख है जहां वह एक नया सृजन करती है , शायद इसी साम्य पर पुरातन काल से देव प्रतिमाएं मंदिर के गर्भ गृहों में रखी जाती हैं।)उसी गर्भ गृह को स्त्रियों के लिए निषिद्ध कर देता है क्योंकि उठाके देवगण अपवित्र हो जाएंगे।कवयित्री इसका भी जवाब देती है कि 'जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया तुमने स्त्री को ,उसी संसर्ग,उसी रज और उसी रक्त से निर्मित गर्भ गृह में नौ महीने पड़े रहे ' वह कबीर की भांति पितृसत्ता के छद्म को ललकारते हुए कहती है कि जिस मार्ग से तुम बाहर आए, दुनिया मव कदम रखा ,तुम्हें एक नया जीवन मिला ,वह मार्ग अपवित्र हो गया।
कवयित्री चेतावनी देते हुए कहती है कि हे पुरुषों !जिस दिन स्त्री के देह रूपी मंदिर में तुम्हारा प्रवेश वर्जित हो जाएगा ,रह पाएगी क्या यह दुनिया? और तुम्हारे बनाए नियम भी ?
साधु साधु आरती जी , इस जबरदस्त साहस और दो टूक कहने की हिम्मत पर। और सबसे बड़ी बात की कविता के कहन और कथन को पवित्र के शिल्प में निभा ले जाना। यह संतुलन साधना बड़ा कठिन होता है जिसका बड़ा सार्थक निर्वहन आपने किया है। बधाई और शुभकामनाएं।
[09/09 20:40] Dr Mohan Nagar Sakiba: आरती जी की कविताओं पर बात करने का मतलब है कि तारीफ तारीफ और केवल तारीफ .. इन कविताओं में तो कम अज कम । नये शब्द हैं नहीं इसलिए सभी गुणीजनों के वक्तव्यों से पूर्ण सहमति  । स्त्री से पुरुष कविता में सबसे खास बात मुझे ये लगी कि इस तरह की कविताएँ अमूनन आग उगलते शब्दों की दरकार रखती हैं .. बहुत बार अतिरेक में तक चली जाती हैं ..  आग यहाँ भी है .. पर अद्भुत कविताई के शब्दों में .. जहीन भाषा में .. यूं कि जैसे अंगारे हैं .. और राख के साथ .. ऐसे अंगरे मगर देर तक संरक्षित भी रहते हैं  ! बहुत सुकून मिला आज इस पाठक को .. व्यक्तिगत आभार लेखिका को इस दौर में भी ऐसा कुछ लिखने को जो मन हहरा दे 👏
[09/09 20:51] Dr Mohan Nagar Sakiba: मैं सबसे बेहतरीन कविता उसे मानता हूँ जो सब कुछ न लिखे .. कुछ पाठकों के लिए भी छोड़ दे जिसे पाठक खुद सोचें और कविता से जुड़ जाए .. अनिल जी का वक्तव्य अद्भुत .. इस कविता पर आज अनिल जी सहित लगभग सभी पाठक जुड़े .. लिखा जा सकता है अब भी ऐसा कुछ इस तरह की रचनाओं में .. पता नहीं क्यों इस दौर में लोग इस तरह के विषय को गलीचपन में ले जाते हैं  👏
[09/09 21:03] Naresh Agrawal Sakiba: डर अच्छी कविता बनते बनते अंत में बिगड़ गई। जैसे नदी के तेज प्रवाह को बीच में बांध दिया गया हो। आरती जी ने अगर अंतिम 10 12 पंक्तियों में और भी मेहनत की होती  तो यह कविता और अधिक सशक्त हो पाती। कविता  की अंतिम पंक्तियां एक सामान्य तरह का उपदेश देती हुई प्रतीत होती है ।

इनकी दूसरी कविता कई बार पढ़ी गई किताब बिल्कुल नए ढंग की कल्पना है जिसे महसूस करना और कागज पर व्यक्त करना इतना आसान नहीं है, कविता को छोटा करके और अधिक कसाव पैदा किया जा सकता था, जिससे यह और अधिक भाव पूर्ण होती । कविता की अंतिम 6 पंक्तियों में तो अद्भुत सौंदर्य है साथ ही इन से बने अनेक बिंब आपको स्वप्नलोक की सैर करा देते हैं, जैसे आप किताब और आरती जी लेखिका।

घड़ी एक सामान्य कविता है और इस विषय पर अनगिनत बार लिखा जा चुका है, इसलिए यह कोई घिसा-पिटा विषय ही लगता है।

 उनकी अंतिम कविता स्त्री से पुरुष बहुत अच्छी कविता बनते बनते अंत में भटक जाती है। यह अपने बाणों से लक्ष्य भेद तो करती है लेकिन सिर के बजाए पैर में । इस कविता में भी उन उनकी प्रखर कल्पना शक्ति मुखरित होती है और सुंदर सुंदर बिंबों को रच पाने की उनकी कला पर आश्चर्य भी होता है।

 आरती जी निसंदेह  ही एक सशक्त कवित्री हैं जिनका लेखन  दिन पर दिन जरूर  निखरेगा। आज उनकी कविताओं को पढ़कर जो सुख की अनुभूति हुई उसके लिए उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद।

[09/09 21:49] Dr Dipti Johri Sakiba: आरती जी की कवितायेँ खूबसूरत हैं और सुंदरता से काव्य को निरूपित करती है।
   तीनो कविताओं पर काफी कुछ कहा गया ,इनमे से तीसरी कविता को इसके निहितार्थों के सन्दर्भ में व्याख्यायित करना मुझे आवश्यक लगा क्योंकि एक स्त्री कैसे स्वतः पित्रसत्ता की वाहक बन जाती है इसको गौर से अंडरलाइन किये जाने की जरुरत है ।


जैसा कि संजीव जी जिन रिक्तियों की बात कर रहे है वही से ये कविता एक तरह से पित्रसत्ता के मातृत्व को glorify करने की प्रवृति को पोषित करके , स्त्री को एक मातृत्व धारण करने वाली देह में रिड्यूस कर देने की वकालत करती प्रतीत होने लगती है इन अर्थों में यह पित्रसत्ता के support में जाती है जहाँ स्त्री की sexuality को मातृत्व के माध्यम से mitigate करने का पित्रसत्ता पूरा प्रयास करती है ।।                     
         स्त्री का सम्मान पुरुषों को इसलिए करना चाहिए क्योंकि वह उन्हें जन्म देती है न की वह एक स्वतंत्र सत्ता है ऐसे में उन स्त्रियों को क्या पूजनीय नही माना जायेगा जो मातृत्व नही धारण करती या पुत्रियों को जन्म देती है । यहाँ पुरुषो को स्त्री की मातृत्व की वास्तविकता द्वारा उनकी सीमाओं का ज्ञान कराया जा रहा है न की एक इंसान के रूप में सहअस्तित्व के लिए समान अधिकारों की मांग की जा रही है । 

    ये कुछ बिंदु है जो इस कविता के अन्तर्पाठ में पित्रसत्ता के पाले में जाते दिखाये देते है जिससे ये पता चलता है कि पित्रसत्ता की कितनी गहरी conditioning है कि स्त्री कब पित्रसत्ता की वाहक बन जाती है उसे पता ही नहीं चलता । और मातृत्व तो हमेशा से ही स्त्री यौनिकता को नष्ट कर देने का पुरुषों का  हथियार रहा है ।

[09/09 21:52] ‪+91 74703 34648‬: Naarivad ki ek dhaara maatratva ko kamjori ni power manti.radical feminism se baat kafi aage  badh chuki hai.maatratva ki shakti ko rekhankit karna pitrrasatta ke paale me Jana nahi varan apne vaishistya ko rekhankit karna hai
[09/09 22:01] Dr Mohan Nagar Sakiba: मैं आज बहुत से अद्भुत वक्तव्यों की थाह में जाने के प्रयास में हूं जो कविता के नयी द्रष्टि से पाठ का आग्रह कर रहे हैं .. किया .. फिर भी अन्यथा न लें .. सहमत नहीं  । शायद ये की इसपर वे तस्लीमा से लेकर शुभम श्री जैसी भाषा चाहते थे  ( अन्यथा न लें  ) या फिर ये की .. वे रचना से इतना जुड़े की उन्हें लगा कि ये .. वे लिखते तो इससे बेहतर लिखते  ( ये भी एक जुड़ाव ही है हकीकतन जिसका मैंने जिक्र किया था )
[09/09 22:03] Dr Dipti Johri Sakiba: Now feminism has travelled long since Germaine grears " respect the difference" and ecofeminist' s views of femininity supremacy over masculinity to  structuralist and deconstructivists
[09/09 22:04] ‪+91 74703 34648‬: Ab yah apni soch ki aap kisi dhaara ko maante
[09/09 22:04] ‪+91 74703 34648‬: Gaarda lernor ko maanenge.ki firestone ko
[09/09 22:05] ‪+91 74703 34648‬: Radical or liberal.so kavita me liberal aaya hai.haan WO kahin bhi pitrrasatta ke paale me nahi jaati
[09/09 22:06] Sanjiv. sahity Ki Baat: दीप्ती जी ने मेरी रिक्तयों को बखूबी स्पष्ट किया है। कविता की भव्यता उसके पितृसत्ता की धारा मे "पीयूष" स्रोत सी बह जाने में ही प्रतीत हो रही है। पितृसत्ता के बरक्स विरोध या विद्रोह के स्वर यहां नहीं है।
[09/09 22:08] ‪+91 74703 34648‬: Warning bhi pratirodh hai.hamesa loud hi ho pratirodh yah jruri ni.khaskr kavita me
[09/09 22:10] Anil Analhatu: मातृत्व से इतर स्त्री यौनिकता की स्वच्छंदता स्त्रियों को फिर से पुरुषों की सत्ता यानी पितृ सत्ता को ही पोषित करती है।
[09/09 22:12] Rajendra Gupta Ji Babuji: स्त्री से पुरुष। अद्भुत है। एक यथार्थ, जो इस पूरे सामाजिक ढांचे पर एक ज़रूरी प्रश्न खड़ा करता है। बहुत सीधा और सटीक प्रश्न। आरती जी को सलाम।आपके विचारों, आपकी साफगोई, आपकी कविता को सलाम।🌻🙏🏽🌻
[09/09 22:16] Anil Analhatu: पुरुषों द्वारा या पितृसत्ता द्वारा मन्दिरों के गर्भ गृह में स्त्रियों का प्रवेश निषेध ही इसलिए किया गया था कि उनको उनके कमतर होने का एहसास कराया जा सके , उन्हें यह बताया जा सके कि वे पुरुषों से एक पायदान नीचे हैं , कुछ यही खेल दलितों और अंत्यजों के साथ भी इसी कारण किया गया। यहां कवयित्री ने पितृसत्ता की इसी मानसिकता को अपने धारदार तर्कों से खुली चेतावनी दी है।
[09/09 22:17] Dr Mohan Nagar Sakiba: क्योंकि आप एक बहुत बहुत बेहतरीन कविता लिखेंगे शायद .. जो ये कविता नहीं ककह पाई और आपने नोट किया .. या फिर जब प्रयास करेंगे आप .. तब समझें की .. कितना साधना पड़ा होगा इस कविता को लेखिका को 👏
[09/09 22:21] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. इस कविता से मैं कुछ कविताएँ निकलते देख रहा हूँ .. क्योंकि ये महज आगाज है .. काफी कुछ छूटा है जो किसी की कलम से जरुर निकल सकता है .. मैं बस जता रहा हूँ .. मैं खुद भी तैयार कर रहा हूँ शायद खुद को
[09/09 22:22] Sharad Kokas Ji: आरती की यह कविताएं पहले भी पढी हैं । यहअच्छी कविताए हैं । किताब पर लिखी कविता अपने आप में एक अलग तरह की कविता है । यह ऐसे विषय हैं जिन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है फिर भी आरती ने अपनी क्षमता और अपने अनुभव के आधार पर इन्हें एक संपूर्ण कविता का रुप दिया है ।
डर कविता मनुष्य के मनोविज्ञान की कविता है। मनुष्य धीरे-धीरे अपने विकास में सुविधा भोगी होता जा रहा है और यह सुविधाएं उसके विचार कई तरह के फ़ोबिया पैदा कर रही हैं । कुछ डर वास्तविक होते हैं कुछ अवास्तविक लेकिन मनुष्य का अवास्तविक भय को भी इतना बड़ा लेता है कि वह असुरक्षा की स्थिति में आ जाता है ।
डर मूलतः एक असुरक्षा का भाव है और जैसे ही सुरक्षा का चक्र टूटता है मनुष्य भय ग्रस्त  हो जाता है ।आरती ने अंतिम बहुत अच्छी कही  है कि हम भय से मुक्ति पाने के लिए किसी मसीहा किसी अवतार की बाट जोहते  हैं लेकिन वास्तव में हमें अपने आप को बदलने की जरूरत है अपने आप को बदलना दरअसल हमारे अपने अवचेतन को समझना है । चेतन से असुरक्षा के भाव को दूर करना है यह काम बहुत कठिन है लेकिन कविता इसी बात का आव्हान  करती है
[09/09 22:30] Dr Dipti Johri Sakiba: Deconstructionist opines that to understand a women' subordination and patriarchal conditioning              " language plays the most imp role " and in order to situate a women' position in society  all prose and poetry should be re understood and re analyzed  in terms of language .

  यहाँ पर इस कविता की भाषा को समझना आवश्यक है की वह अपनी अन्तर्निहित अर्थों में पित्रसत्ता को पोषित ही करती है और सरसरी तौर पर देखने पर जबकि वह पित्रसत्ता के विरोध में दिखती है ।

यही भाषा का सूक्ष्म है जो पितृसत्तात्मक गौरव गाथा का परचम लहराता है और मातृत्व को एक मूल्य की तरह स्थापित करता है एवं स्त्री की यौनिकता का निषेध करता है  चूँकि स्त्री पुरुष की जन्मदात्री है इसलिए वह पूजनीय और गौरवशाली है यह जो अनिवार्यता का तर्क है जो मत्तरत्व के साथ स्त्रीत्व की सार्थकता को जोड़ता है,इस तर्क का निषेध पुरजोर तरीके से होना चाहिए ।
[09/09 22:34] ‪+91 74703 34648‬: Patriarchal conditioning to thik  par yah Jo antim lines hain  WO kaha pitrrasatta ko poshit krti
[09/09 22:35] ‪+91 74703 34648‬: Kavita ki bhasha kahi aisi nahi hai.haan yah jrur krti ki stree jise prem samjhti baad me wahi uski gulaami ka karan  banta.isko rekhankit krti
[09/09 22:36] Dr Mohan Nagar Sakiba: दीप्ति जी यदि पुरुष ने महज उसकी ताकत ज्यादा है .. वो सबल है .. संरक्षण दे सकता है के नाम पर तमाम धर्मग्रंथ ही अपनी सत्ता को स्थापित करने रच दिए .. तो क्या एक स्त्री को ये अधिकार नहीं की वो अपनी सबसे बड़ी मात्रत्व की ईश्वर प्रदत्त नैमत को सामने रख कर ही इसका प्रतिकार करे ?
[09/09 22:37] Anil Analhatu: अगर  स्त्री यौनिकता का उत्सव ही स्त्री मुक्ति का चरम ध्येय है तो फिर बात ही खत्म। लेकिन तब भी स्त्री मुक्त नहीं होती उत्तर औपनिवेशिक पूंजीवादी बाजार व्यवस्था यही चाहती भी है कि स्त्रियों को मातृत्व बोझ से मुक्त कर पुरुषों के अबाध भोग के लिए स्वतन्त्र कराया जाए। दुर्भाग्य से कुछ फेमिनिस्ट इसे ही अपनी आज़ादी समझती हैं।
[09/09 22:39] Anil Analhatu: मोहन ही आपकी बात से सहमत।
[09/09 22:43] Anil Analhatu: स्त्रियों की जिस यौनिक आज़ादी की वे बात करते हैं ,उसकी चरम परिणति अन्ना कारेनिना और मदाम बावेरियों के रूप में कथा संसार को मिल चूका है।
[09/09 22:43] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी और सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं और वहाँ हमें इसे नकारने का आग्रह मिलता है .. आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:46] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं औरनकारने का आग्रह मिलता है  आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:46] ‪+91 74703 34648‬: Aagrah is baat ka hona chahiye ki stree ki apni deh hai.us par uska niyantran ho.WO jise  chahe use apni deh de.nirnaya uska ho.
[09/09 22:47] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं और वहाँ हमें इसे नकारने का आग्रह मिलता है .. आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:48] Anil Analhatu: बिल्कुल सही मोहन जी। अगर पुरे विश्व की स्त्रियां अपने मातृत्व से इंकार कर दें ,की वे सिर्फ सेक्स करेंगी। माँ नहीं बनेंगी तब तो यह सृष्टि ही समाप्त हो जायेगी , दीप्ति जी क्या कहना चाह रही हैं,मुझे भी स्पष्ट नहीं हो रहा।
[09/09 23:01] Arti Tivari: अनिल जी,..पूरी टिप्पणियाँ तो पढ़ नही सकी अभी घर आई हूँ किन्तु मुझे फख्र है कि जिन मूल्यों और और अस्मिता को लेकर मैंने ये कविता लिखी थी,.आपके अंदर हूबहू वैसी ही प्रविष्ट हुई है,..अपने लेखन की इस यात्रा में आज जिस भावना ने मुझे स्पर्श किया है,.मैं इतनी द्रवित और चकित हूँ कि आपने इसे बिलकुल वैसे ही महसूस किया है,.बौद्धिकता के तमाम आडम्बरों से मुक्त होकर विभिन्न कोणों के विमर्श की किसी भी सीमा के परे जाकर,..🙏🙏
[09/09 23:05] Dr Dipti Johri Sakiba: जूलिया क्रिस्टेयवा कहती है कि विमर्श को ऐसा बनाया जाना चाहिए जो लगातार मुठभेड़ की स्थिति में रहे और भाषा के गतिरोधों को तोड़ सके।देह के विमर्श को केंद्र में लाने का अर्थ है स्त्री की दुनिया को रेखांकित करना। कारन यह है कि देह को हमेशा कमजोर,अपवित्र अनैतिक माना गया है ।पितृसत्तात्मक सारे रूपों और लिंग भेद पर आधारित शक्ति संरचनाओं को नष्ट करने के लिए ही deconstructivist दृष्टि की आवश्यकता है 

 और अंत में .....मातृत्व को glorify करने और उसको  matter ऑफ़ चॉइस कहने में ही भाषा का सूक्ष्म निहित है इसे समझने और पढ़ने में जो सार निहित है उसे स्त्री या पुरुष हो कर समझने की नही , महज एक मनुष्य हो कर भी समझा जा सकता है ।
[09/09 23:09] ‪+91 74703 34648‬: Ji to deh ko kendra me lane ka Matlab yah ki social value loading to toda  jaye.Jo gender oriented hain..jaise  stree ke lips sexuality ka symbol ho gye
[09/09 23:09] ‪+91 74703 34648‬: Purush ke ni.deh ko kendra me laana is satta sanrachna ko todna hai ..moolbhoot cheezon ka nakar nhi
[09/09 23:12] Mukta Shreewastav: आरती जी,कमाल करती हैं आप.डर कविता पढ़कर हमारा डर खत्म सा हो गया.घड़ी ने भी ताज्जुब दिया.आखिरी कविता तो है ही विचारों को उकसाने वाली .चिंता की बात यह कि ये विचार क्या धर्म के ठेकेदारों तक पहुँच पाएगा.
[09/09 23:15] Anil Analhatu: देह के विमर्श को केंद्र में लाना अंततः स्त्री को एक इंसान रहने न देकर मात्र शरीर , शरीर ही नहीं उसके यौनांगों में रिड्यूस कर देना है। जहां स्त्री बाजार के एक उत्पाद में रिड्यूस हो जाती है और उसे इसकी पूरी आज़ादी होती है कि वह अपना मूल्य तय करे ,यद्यपि वह भी बाजार ही तय करता है यानी स्त्री की यह तथाकथित विखंडनवादी आज़ादी भी बाजार के द्वारा ही तय होती है। अस्तु।
[09/09 23:15] Sandhya: मैं दीप्ति की बात से पूर्णत:सहमत हूँ और यह बात जो स्त्री होने की सार्थकता मात्र उसके मातृत्व से जुड़े होने के तर्क से पाबस्ता है का विरोध करती हूँ मातृत्व यदि एक मूल्य है तो पितृत्व क्यों नहीं ?उसका पूज्यनीय होना मात्र उसके मातृत्व से नहीं जुड़ा होता और ।और मातृत्व ही मात्र ईश्वर प्रदत्त नेमत नहीं है मोहन जी पितृत्व भी उसी स्थान पर है ।मातृत्व की गौरव गाथा गा गा कर स्त्री को बांधे रखने का पितृसत्ता का विधान है ।और उसे स्त्री यौनिकता का उत्सव जैसे शब्दों से उसे न नवाज़ें कृपया माँ बनना या न बनना ये उसका स्वतंत्र निर्णय है इसमें सिर्फ स्वतंत्रता का सवाल है ।और जिस और मोहन जी इशारा कर रहे हैं उसका मातृत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है ये सिर्फ एकतरफा दृष्टिकोण है 💥
[09/09 23:23] Dr Mohan Nagar Sakiba: आप मुझे फिलवक्त उसी पित्रसत्ता की वाहक दिख रही हैं इस लिहाज से तो माफ करें .. क्योंकि उन तमाम धर्मग्रंथों की वाणी हकीकतन पित्रसत्ता को ही महिमा मंडित करती है .. बहुत हल्की सी रेखा है जो आप उधर से देख रही हैं स्त्री होकर .. मैं इधर से .. पुरुष के नाते
[09/09 23:23] Arti Tivari: माँ  बनना या न बनना स्त्री को पूर्ण नही करता वरन उससे पूर्ण होता है संध्या जी,.मेरी कविता में ये कहीं नही लिखा कि स्त्री माँ बनकर ही पूर्ण है,.मातृत्व सृष्टि को निर्बाध गति देता है जिसमे स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका है,.जिसका वो निर्वाह करती है किन्तु उसी स्त्री से जन्मा पुरुष उसे उसके रजोधर्म की वजह से अस्पृश्य घोषित करता है क्यों??
[09/09 23:23] ‪+91 74703 34648‬: Maatratva ko nahi mahimamandit kiya.Putra prapti ko mahima  mandit  kiya.stree ki dhanyata ek laal ki maai hone me hi rhi
[09/09 23:24] ‪+91 74703 34648‬: Maatratva aur  Putra prapti ka maatratva se judna do alag alag cheezen hain.
[09/09 23:30] Dr Dipti Johri Sakiba: शुक्रिया संध्या जी ,  ये जो चयन की स्वतंत्रता है  इसी में अस्तित्व की सारता निहित है । और कविता की भाषा में यह चयन की स्वतंत्रता और आत्मगौरव न दिखाई देकर , धर्म के ठेकेदारों से अपने मातृत्व की दुहाई देकर मंदिर प्रवेश का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास है । 

   इस औचित्य- साधन में मनुष्य की गरिमा न दिखकर स्त्री की करुण कातरता दिख रही है।यही भाषाई चिह्न और संकेत समझना अनिवार्य है।

[09/09 23:30] ‪+91 74703 34648‬: Yah sandarbh apki kavita ka nahi samajik hai.samaaj me Putra ka mahima mandan kiya gya hai

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