Sunday, September 9, 2018

उपन्यासनामा: भाग छ:
ज़ीरो रोड 
नासिरा  शर्मा
नासिरा शर्मा 





सुपर हाइवे बनाम ज़ीरो रोड
डॉ. संजीव कुमार जैन


आज हम सिर्फ स्थानीय या राष्ट्रीय परिस्थितियों से ही प्रभावित नहीं होते हैं और न हमारा जीवन अपने आस-पड़ोस तक ही व्याप्त है। जीवन की परिस्थितियाँ वैश्वविक कारणों और परिणामों से जटिलतर होती जा रही हैैं। जीवन सतह पर तैरती नौका की तरह है जो समुद्र की न केवल गहराई में होने वाली हलचलों से प्रभावित होता है, बल्कि दूरस्थ सिरे पर होने वाली हलचलों से भी डगमगाता है। सागर में कहीं भी होने वाली हलचलें सागर पर तैरने वाले सभी जहाजों और नौकाओं को प्रभावित करती हैं। हाँ इतना अवश्य है कि बड़े जहाज छोटी-मोटी हलचलों को आसानी से झेल जाते हैं, परन्तु छोटी नौकायें जल्द डगमगाने लगती हैं और डूबती जाती हैं। उनके डूबने से कोई खास हलचल सतह पर नहीं होती ये अलग बात है।


इलाहाबाद की ज़ीरो रोड से दुबई के शानदार चकाचौंध तक की यात्रा कराता है ज़ीरो रोड। आज जब पूँजी का अविरल प्रवाह सागर के जल की तरह लहरा रहा है और उसमें रोज आने वाले ज्वार-भाटों में ही न जाने कितनी नौकायें हिचकोले खा रही हैं और कितनी रोज डूब रहीं हैं? इसका कोई लेखा जोखा नहीं हैं, तो अब जबकि इसमें ‘सुनामी’ जैसी लहरें अमेरिका से उठने लगी हैं और सारा विश्व इसके दुष्परिणामों को भोगने के लिए विवश है। इस विवशता में आम आदमी की जिंदगी की भयावहता यदि देखनी हो तो नासिरा जी के जीरो रोड उपन्यास में देख सकते हैं।

जीरो रोड भूमंडलीकरण का दुर्दांत चेहरा है। यह एक ऐसा उपन्यास है जो 21वीं सदी की सही तस्वीर पेश करता है। इसको पढ़ते हुए सिर्फ और सिर्फ मार्केज के उपन्यास ‘एकान्त के सौ वर्ष’’ की याद ताजा हो उठती है। इस की सबसे खास बात है इसका सागर की गहराई की तरह शांत और स्थिर कथानक। इसमें हलचलें तो बहुत हैं, प्रवाह भी है, मगर सतह पर सुनामी नहीं है। इसकी वजह है नासिरा जी की आम आदमी की जिन्दगी की गहरी समझ। आम आदमी जो कहीं का भी निवासी हो, उसके जीवन में तूफान तो बहुत आते हैं, परन्तु उसका प्रभाव सिर्फ उसके और उसके परिवार वालों पर ही होता है और यही कारण है कि वह तूफान व्यक्तिगत घटना बन कर रह जाता है, सुनामी नहीं बन पाता। नासिरा जी ने इस सच को अपनी पूरी तल्ख सच्चाई के साथ पेश किया है।
पूँजीवाद की पहचान आम आदमी की अस्मिता और अस्तित्व के संकट में दिखाई देती है। व्यक्ति जितना स्वयं से और अपनों से बेगाना होता जायेगा पूँजीवाद उतना ही सफल और सार्थक होता जायेगा। पूँजीवाद अपने विकृततम रूप में आज विद्यमान है जिसे भूमंडलीकरण का सम्मोहक नाम दिया गया है। पूँजी का भूमंडलीकरण और आम आदमी का अकेलापन, बेगानापन, व्यर्थताबोध, निराशा, हताशा और रोजी के लिए मृगमरीचिका की तरह रेगिस्तान में अंधी दौड़, इस सम्मोहक, चमकदार, सिक्के के दो पहलू हैं, परन्तु इसका सबसे बड़ा पैरोकार मीडिया इसका इस सिर्फ एक पहलू ही पेश करता है और उसे ही पूरा सच कुछ इस तरह से प्रतिपादित करता है ताकि दूसरे पहलू की ओर देखने की कोशिश भी न की जाये। नासिरा जी का यह उपन्यास इसके दूसरे पहलू को जानने, समझने और व्याख्यायित करने की सफल कोशिश है-

 ‘‘हम यहाँ कैसी कैसी उम्मीदें लेकर आते हैं। मगर जब हम जाते हैं तो हमारे सूटकेसों में भले ही जो भी भरा हो हमारा वजूद खाली होता है - बिल्कुल इस बेकराँ रेगिस्तान की तरह। कभी-कभी अजीब बात सोचता हूँ। हमारे अपनों के लिए जैसे हम तेल का कुआँ हैं - जब तक एक-एक बूँद उलच न ली जाए, हम गहरे और गहरे ड्रिल किये जाते हैं और खाली होने के बाद हमें एबेंडेंट करार देकर पत्थरों से पाट दिया जाएगा।’’1 

व्यक्ति के बजूद को बेकराँ रेगिस्तान की तरह बना कर सिर्फ ‘तेल’ की तरह जिंदगी को ड्रिल करने की प्रक्रिया इस विराट सभ्यता ने अनवरत चला रखी है। हर व्यक्ति ड्रिल किया जा रहा है, दूसरों के लिए, दूसरा अन्य दूसरे के लिए और यह अनंत प्रक्रिया है, इसका लाभ जिसे मिल रहा है वह है ड्रिल मशीन का मालिक। वही उस तेल का मालिक है जो ड्रिल करने की प्रक्रिया में उत्पादित हो रहा है। भूमंडलीय शोषण व्यवस्था का एक पुर्जा मात्र बना कर रख दिया है इंसान को।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने मानवीय जीवन की सहजता और सरलता को जिस तरह स्नेह रिक्त रेत में तब्दील किया है, उसके व्यापक दुष्परिणाम मानवीय समाज भोग रहा है। मानवीय जीवन को संबंधों की पूँजी से बहिष्कृत कर दिया गया है और स्वार्थ और भोग की ‘फार्मूला वन रेस’ में शामिल कर लिया गया है।
आधुनिक सभ्यता के तथाकथित विकास की चरम स्थिति दुबई जैसे नगरों में देखी जा सकती है। यहीं से इस उपन्यास का कथानक उठाया गया है। विकास के पैमाने को ही विखंडित करने का प्रयास किया गया है। इस जड़ता के विकास के अन्तर्विरोध के रूप में संबंधों की चेतना की सजग और सचेत प्रतिष्ठा जीरो रोड में दिखाई देती है।
‘‘जीवन-साथी का प्यार और हमदर्दी बड़े से बड़े दुखों से मुक्ति दिला देती है। एक स्पर्श काफी है सारे दिन की थकन उतारने के लिए। पता नहीं लोग रिश्तों को छोड़ नशे का सहारा क्यों लेते हैं।’’2 

आधुनिक सभ्यता जिसे विकास का चरम कहा जा रहा है, वह एक जीते जागते इन्सान को रेत और तेल में किस तरह तब्दील कर रही है इसके सैकड़ों प्रसंग इस उपन्यास में जिन्दगी की तरह बिखरे पड़े हैं। एक उदाहरण काफी होगा - ‘‘किस्मत जब तक साथ देती है जिन्दगी यूँ ही चलेगी। रानो ने गहरी साँस ली। फिर उदास स्वर में बोली, जब मैं बूढ़ी हूँगी तब तक लड़कियाँ जवान हो चुकी होंगी। मेरे दो बच्चे बिना इलाज के जमीन के अन्दर सोये पड़े हैं। मेरे जानने वालों की गोदें कैसे खाली हुईं, वह सब कैसे सहा। उसने मुझे बेहिस बना दिया है। जब तुम प्यार की बातें करते हो तो मुझे आराम से ज्यादा तनाव महसूस होता है, क्योंकि यह नर्म अहसास तो मेरी जिन्दगी से कब का दूर चला गया है।’’3







उपन्यास का तानाबाना मानवीय संबंधों की पुनर्खोज के धागों से बुना गया है। जीवन क्या है? सिर्फ पैसा कमाना और भौतिक सुविधायें जुटाना! नहीं, यह उपन्यास इस आधुनिकता के मिथक को सख्ती से नकारता है। जीवन संबंधों की गरमाहट का नाम हैं। मानवीय जीवन की ऊर्जा संबंधों की संरचना और स्पर्श में है न कि रेत की तरह रूखी पूँजी में।

क्या दिया है मानवता को आज की इस सभ्यता ने? रानो जैसी लाखों स्त्रियाँ इसी तरह बेहिस होती जा रहीं हैं और प्यार के नर्म अहसास को खोती जा रहीं हैं। आखिर कौन है इनका जिम्मेदार? यह वह सभ्यता है जिसमें आदमी का आदमी से मिलना जश्न की तरह देखा जाता है - सिद्धार्थ का यह कथन
‘‘आदमी से आदमी का मिलना वास्तव में किसी जश्न से कम नहीं होता है।’’4

आज की इस भूमंडलीय सभ्यता और विकास के संजाल में आदमी का मिलना वाकई जश्न मनाने जैसा ही है, जैसा कि प्राचीन सभ्यता में ईश्वर का मिलना जश्न मनाने के लिए होता था। इंसान विकास के रथ के नीचे कहीं बहुत गहरे दफन हो चुका है। अब आपको टेक्नोक्रेट, इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर, उद्योगपति, पूँजीपति, व्यापारी, ऐजेंट, कॉरपोरेट, और मजदूर, मजबूर, गरीब, भिखारी, कॉलर्गल, रिसेप्शनिस्ट, कम्प्यूटर ऑपरेटर और न जाने कौन कौन मिलेगा। सब एक व्यवस्था के पूर्जे, हांफते-भागते, इंसानी जिस्म में कैद मशीनें, विज्ञापन में लेबल की तरह चिपके जिस्म मिलेंगे, पर आदमी कहीं नहीं मिलेगा।

जीरो रोड सुपर हाईवे संस्कृति के बरक्स एक उबड-खाबड़ रास्ता बिछाता है। सुपर हाइवे, दुबई बुर्ज और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसे किले अन्ततः उसी सामंतीय संस्कृति के आधुनिक संस्करण हैं जिनमें राजा किलों और विशाल मंदिरों का निर्माण करते थे। सिर्फ इसलिए ताकि आम आदमी पर विशालता का आतंक काबिज किया जा सके। किलों में प्रवेश की कल्पना भी आम आदमी नहीं कर सकता था। हाँ उन्हें बनाने तक उसकी गति होती थी, इसके बाद तो वह उसके लिए डरावनी चीज हो जाती थी। यही कार्य आज के विकास के प्रतीक सुपर हाइवे और दुबई बुर्ज तथा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसी इमारतें कर रही हैं।

बुर्जुआ संस्कृति का सम्पूर्ण तानाबाना इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से बुना जा रहा है। नासिरा जी ‘जीरो रोड’ में इसी विकास के पैमाने पर सवाल खड़े करती हैं और उसे सवालों के कटघरे में ले आती हैं। वे यह मानती हैं कि इस विकास की अवधारणा में आम आदमी की जिंदगी ‘रेत’ के कणों का महासागर बनती जा रही है। बुर्जुआ संस्कृति के बुर्जों की ऊँचाई जितनी बढ़ती जा रही है आम आदमी का कद और वजूद उतने ही छोटे कणों में विखरता जा रहा है। बाजारू संस्कृतिक की यह चमक और ऊँचाइयाँ आम आदमी के लिए नहीं हैं। सिद्धार्थ अपने भाई विवेक से कहता है कि ‘‘दुनिया चमकीली है मगर वह चमक हमारे लिए है भी और नहीं भी। उसे हम देख सकते हैं मगर उसके मालिक नहीं बन सकते।’’5 

जीरो रोड में नासिरा जी बुर्जुआ संस्कृति के प्रतीक दुबई के माध्यम से ऐसा आख्यान प्रस्तुत करती हैं जिसमें उस आम आदमी की जीवन गाथा है जिसकी कोई पहचान नहीं है, कोई वजूद नहीं है। वह सिर्फ ड्रिल किया जा रहा है कभी पूँजीपतियों द्वारा तो कभी अपने परिवार के द्वारा। जिस भूमंडलीकृत संस्कृति ने आम आदमी को बजूद और पहचान रहित बनने के लिए विवश किया है उसे नासिरा जी ने ‘‘पब्लिक गार्डेननूमा अन्तरराष्ट्रीय मंडी’’6 कहा है। इस मंडी में इन्सान का इन्सान से मिलना किसी जश्न से कम नहीं होता, क्योंकि वह ‘क्रास रोड’7 चौराहे पर से निरंतर गुजरता है जहाँ किसी का मिलना ईश्वर के मिलने की तरह असंभव होता है। यदि आप इस मंडी में किसी से मिल लिए तो हर एक के पास ‘‘एक दर्दनाक दास्ताँ’’8 है जो अपने अन्दर छिपाए बैठा है।

इस अन्तरराष्ट्रीय मंडी में आदमी के पास कोई आधार नहीं है जिस पर खड़ा होकर वह अपने को स्थिर महसूस कर सके। अस्थिरता और अनिश्चतता इसकी खास पहचान है। तकनीक हो या नौकरी कोई भी पुरानी अच्छी नहीं लगती, दोनों निरंतर बदलती रहती हैं। इसीलिए इसे ‘कंडोम संस्कृति’ कहा जाता है अर्थात् ‘यूज एंड थ्रो।’ कभी आदमी तकनीक को बदलता है तो कभी तकनीक आदमी को बदलने पर विवश कर देती है। जो नहीं बदलता वह इस मंडी में टिक नहीं सकता। उसे उठाकर फेंक दिया जायेगा अनन्त रेगिस्तान में या तेल का कुआँ बना कर निरंतर ड्रिल किया जाता रहेगा। तभी तो सिद्धार्थ कहता है ‘‘बड़ी उलझी है यह दुनिया, कोई रास्ता सीधा जाता ही नहीं है। कुछ दूर चलकर या बन्द गली से टकराता है या फिर रास्ता ही गुम हो जाता है। कल रात महसूस हुआ था कि पैरों के नीचे जमीन है और आज महसूस हो रहा है कि पैर फिर उखड़ गये हैं। चारों तरफ दलदल ही है।’’9 

विकास की चमक के नीचे के गहन अंधकार को देखना और उसे सार्थक अभिव्यक्ति देना नासिरा जी की उपलब्धि है। इसका कथ्य इलाहाबाद से दुबई तक की ही यात्रा नहीं करता बल्कि सम्पूर्ण विश्व में जीरो रोड पर बसने वालों की दर्दनाक दास्ताँ को वाणी देता है, क्योंकि ‘‘जुल्म का चेहरा हर जगह एक है, बस उसकी तीव्रता और देशकाल में थोड़ा-बहुत अन्तर किया जा सकता है।’’10

संवेदना की इस जमीं पर खड़े होकर ही इसके कथ्य को समझा जा सकता है। नासिरा जी की दृष्टि बहुत साफ है कि यह तथाकथित विकास वह दुनिया में कहीं भी हो रहा हो उसका फायदा किसे हो रहा है? और कौन इस विकास के नरमेघ यज्ञ में बलि का बकरा बना हुआ है।






‘‘दिखावे के लिए इथोपिया में विकास योजना अपना काम कर रही है। नयी इमारतें, नयी सड़कें बन रही हैं, क्राइम कम हो रहा है और कहवे और फूलों की तिजारत बढ़ रही है मगर लाभ कहाँ और किसको मिल रहा है। नंदी ग्राम में मुसलमान बहुल इलाका, किसानों से जमीन छीन पूँजी लगानेवाले को देने में क्या बात केवल धर्म की है? इन देशों में डेमोक्रेसी के नाम पर हुए चुनाव का क्या हुआ? जब लोग नहीं रहेंगे, जिंदगी नहीं रहेगी, बच्चे जिन्दा नहीं बचेंगे तो आपकी डिमाक्रेसी वहाँ क्या करेगी? तब समस्या खुलती है कि यह सब कुछ आप अपने लिए कर रहे हैं और कितना अजीब है हम जुल्म सहने वाले बर्बाद होने वाले किसी एक मुद्दे पर एकत्रित नहीं हो पाते हैं। उधर हमारा शोषण करने वाला कितना बड़ा घेरा बना हमको अपने ही इलाकों में बन्दीगृह में कैद कर उकसाता है कि बल्कि धर्म के नाम पर या मारो या मरो।’’11 

‘‘विकास हमेशा खुशी लेकर नहीं आता है बल्कि पुरानी आबादी के लिए दुख का कारण बनता है जिन्हें अपने इलाके, अपने घर, अपनी जमीन से गहरा जुड़ाव होता है।’’12 इसका उदहरण है दिल्ली में मेट्रो का बनना। इस विकास की रेल के कारण लगभग 20 लाख गरीब परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है अपने रोजगार और रहने की जगहों से। इसका असर उनके स्वास्थ्य और मजदूरी पर गहरे तक हुआ है। इसका अध्ययन कोई मीडिया प्रस्तुत नहीं करता।

‘जीरो रोड’ जिस आदमी के मिलन, संघर्ष, जिजीविषा, कर्मशीलता का प्रतीक है वह इलाहाबाद में स्थित है, परन्तु उसका प्रतीकार्थ दुबई में साकार रूप लेता है। दुबई दुनिया का फ्री व्यापार ज़ोन है, वह अन्तरराष्ट्रीय मंडी है, क्रास रोड है जहाँ लगभग 100 देशों के लोग बसते हैं। इनमें व्यापार के लिए पूँजीपति और उद्योगपति आते हैं। वहीं बड़ी संख्या में मजदूर और कामगार लोग भी आते हैं। वहाँ की मूल आबादी सिर्फ 20 प्रतिशत है। अरबों का भारत से संबंध बहुत पुराना है, यह सच है परन्तु आज की सच्चाई बहुत अलग है। ‘‘अरबों का भारत से रिश्ता पुराना है जो साहित्य में मिलता है मगर दुबई से इंडिया का रिश्ता बड़ा गहरा है और नया है।’’13

इस रिश्ते की गहराई में जो खाई है उसे पहचानना और रेखांकित करने में भी नासिरा जी ने महारत दिखाई है।
‘‘बड़े स्टेज की सबसे मामूली कठपुतली कर भी क्या सकती है? हम हालात् के शिकार तो नहीं हुए मगर हालात् ने हमें बनाया। दुबई में रहना, जीना, काम करना आसान नहीं है। संघर्ष की हजार पर्त हैं। दोबारा भारत आकर मुझे महसूस हुआ कि मेरे मम्मी और डेडी को अपने गाँव में कितना कष्ट था, जो वह अपना वतन छोड़कर बाहर गये थे। आज यहाँ आकर हर पल महसूस करता हूँ कि कम से कम यहाँ वह दौड़ तो नहीं है जो हम रोज जीने के लिए लगाते हैं? भूख है, बीमारी है, बेकारी है, पिछड़ापन है मगर एक संतोष है, सुरक्षा है - जो हमारे पास सबकुछ होने के बाद नहीं है। हर दम एक भय पीछा करता है कि ये सब वैसा ही जमा जमाया रहेगा जैसा आज है कि सब कुछ हमसे एक पल में छिन जायेगा?’’ रमेश कह उठा।’’14

जीरो रोड वास्तव में काम की तलाश में आये लोगों की जीवन गाथा है। इसकी खासियत इस बात में है कि यह पूँजीवाद का, भूमंडलीकरण का विलोम रचती है। भूमंडलीकरण के कारण अपनी जड़ों से उखड़े लोग - जिनमें सिद्धार्थ, फिरोज मीखची, शाहआलम, बरकत उस्मान, श्री निवासन, गुलफाम, रानो, रशीद, सुदर्शन, फरहाम, जरयाब, रमेश और ईयाद हैं। इन सबके बीच जो इन्सानी रिश्तों का सोता फूटता है वह पूँजीवाद की तमाम पथरीली और कठोर चट्टानों को चटका देता है। इन्सान अपने अंदर के दर्द और पीड़ा को दूसरों के सामने सीधे नहीं खोलता मगर साहित्य और कला इस ज्वालामुखी को अभिव्यक्ति देने के साधन बन जाते हैं और अन्ततः सबके निजी ज्वालामुखी एक व्यापक ज्वालामुखी बन कर फूट पढ़ते हैं। ‘डॉ. जिबागो’ और ‘आऊट ऑफ अफ्रीका’ नामक फिल्म और कुछ उपन्यास और इलाहाबाद में मुन्ना हाफिज की किताबों की दुकान जो बाद में कट्टरपंथियों द्वारा जला दी जाती है, अन्ततः साहित्य और कला की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करती हैं।

 ‘‘सिद्धार्थ जब अपने कमरे में पहुँचा तो बाकी लोगों की तरह झुँझलाया या बेकसी से फड़फड़ा नहीं रहा था। बल्कि उसका दिमाग़ जैसे जाग उठा था। उसके अंधेरे कोने में रोशनी भर गयी थी। फिल्म ने सबके अन्तर्मन की भावनाओं को नोकें चुभोयी थीं। ऊपर से जो भी तल्ख बहस हुई हो, मगर सच यह था कि सभी को उनके सरोकारों और वैचारिक धरातल पर जोड़ने का काम हुआ था। उनके अन्दर की पथरीली दुनिया कई जगह से तड़की थी, जिसकी दरारों से स्वच्छ पानी बहना शरू कर दिया था। यकीनन ये सोते इंसानी मोहब्बत के थे। एक दूसरे के दुख को स्पर्श कर उस सिहरन को महसूस करने के जो आज तक अकेले महसूस कर रहे थे।’’15

इसके पीछे जो तर्क नासिरा जी का है वह भी सांदर्भिक है - ‘‘इनसानों द्वारा इनसानों के शोषण की कहानी जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी इनसान का इनसान के प्रति आकर्षण की भी। इस संसार में कितनी तरह के लोग रहते हैं। गोरे, काले, पीले, सांवले। सुन्दर, कुरूप परन्तु जो चीज सबके पास एक तरह की है वह है भावना। यही भावना है जो दो इनसानों के बीच कभी प्रेम तो कभी नफरत, कभी मित्रता तो कभी शत्रुता का बीज बोती है! सारा झगड़ा क्या हम इनसानों के बीच केवल सत्ता का है? महानता साबित करने का है? इस पूरी दुनिया में आज कितने तरह के मोर्चे खुले हुए हैं। क्या कहीं भी मानव सुरक्षित हैं? भय, द्वेष, घृणा, ईष्या आज के आधुनिक संसार की हस्ताक्षर लय बन चुकी है। जो बार-बार बताती है कि विजय का कोई सुख नहीं है। लेकिन इनसान इस सच को माने तब न? आज इनसान इनसानी खून सबसे तुच्छ, महत्वहीन और सस्ता हो गया है। पानी से भी ज्यादा सस्ता। यह केवल आर्थिक समानता की लड़ाई नहीं है कि किसके पास कितने शक्तिशाली साधन हैं बल्कि वह महान है जो दूसरों का हक छीन सकता है, वही पूजनीय है, वही तानाशाही को लोकतन्त्र का नाम दे अपने को मसीहा समझता है।’’16

क्या यह उद्धरण किसी विश्लेषण की मांग करता है? यह अपने आप में इतना सपाट और सीधा सच है जो सिर्फ स्वीकारने की माँग करता है, समझने और क्रियान्वित करने की माँग करता है। आज के समय की वीभत्स सच्चाइयों से जीरो रोड भरा पड़ा है।

पश्चमी सभ्यता, आधुनिक सभ्यता, गोरी सोच की सभ्यता, अमेरिकी बर्बरीय सभ्यता जिसने दुनिया को असभ्य कह कर स्वयं को सभ्य मानने के लिए विवश किया। दुनिया पर स्वयं के सभ्य होने का विचार थोपने के लिए न जाने कितने नरसंहार किये और कर रही है? बीसवीं शताब्दी जिसे सभ्यता के विकास की शताब्दी या विज्ञान के विकास की शताब्दी कहा जाता है दरअसल समय के इतिहास की सबसे अमानवीय और बर्बरता की शताब्दी भी है। विकास के बुर्ज और टॉवर वास्तविक रूप में करोड़ों मनुष्यों के माँस, मज्जा और रक्त से निर्मित है।

सिद्धार्थ का यह निष्कर्ष ‘‘यह बात तो हर फिल्म में उभरकर आयी थी कि पश्चमी देशों ने किस बुरी तरह छोटे कमजोर राष्ट्रों को दोहन किया था। इसमें वे देश भी शामिल थे जिनके पास सभ्यता एवं सस्कृति का सुनहरा इतिहास है, जिन्होंने वास्तव में आज के आधुनिक संसार की नींव डाली थी। आज की तकनीक ने, खासकर खतरनाक हथियारों ने साहित्य व कला को नकार कर यह साबित करना शुरू कर दिया कि संवेदना का कोई महत्व दिमागी दुनिया में नहीं रह गया है। यह एक देश का विचार है जो हथियारों के कारण महान् शक्ति बन चुका है। जो बाजार का एक नया संसार रच रहा है। उस महाशक्ति को हराने के लिए क्या उन देशों के पास कोई मंत्र या शक्ति नहीं बची है? ये वही तो थे जिन्होंने सभ्यता के विकास में अपना योगदान दिया था। आज वह एकजुट क्यों नहीं हो पा रहे हैं? क्या अब हथियार ही विजयी होंगे? उनकी धार कोई भी देश कुन्द नहीं कर पायेगा? कितना अजीब है सब कुछ! एक तरफ खतरनाक हथियारों का अविष्कार और दूसरी ओर उन्हीं हथियारों का उन आतंकवादी घोषित किए गए देशों में बाजार पनपाना। और उससे ज्यादा खतरनाक हथियारों को उन्हीं देशों पर बरसा कर उनको तबाह कर यह कहना कि जैविक हथियारों का फार्मूला रखते हैं! कैसी पेचीदा सियासत है इन विकसित देशों की।’’17 

‘जीरो रोड’ अपने प्रतीकार्थ में पूँजीवाद का विलोम और उत्तराधुनिकता का आख्यान रचती दिखाई देती है। जीरो रोड पर आकर मिलने वाले तमाम इनसान, इनसान पहले हैं जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता जैसे विभेदीकृत अवधारणाओं से मुक्त इनसान जो पूँजीवाद और उसके विकास के प्रतिमानों से उपजी रिक्तता, व्यर्थताबोध, निराशा, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, अजनबीयत, अमानवीयता, शोषण, हिंसा और बलात्कार के बनते रेगिस्तान पर आ कर मात्र इनसान होने की पहचान बनाये रखने लिए संघर्षरत हैं।

श्रम ही वह बिन्दु है जो इन्हें आपस में जोड़ता है। यहाँ हम मार्क्स के उस कथन को याद कर सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए सारी दुनिया।‘‘ मार्क्स का यह दर्शन यहाँ जिन संदर्भों और स्थितियों में फलीभूत होता है, संभवतः ये वही स्थितियाँ हैं जिनकी कल्पना मार्क्स ने की होगी। इन तमाम चरित्रों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, ये सब अपना सब कुछ या तो गँवा कर आये हैं या दाँव पर लगा कर, इसलिए एक इनसानी रिश्ते में बंध जाते हैं। एक दूसरे के सुख-दुख के सहभागी होते हैं, क्योंकि ‘‘हम आप लोगों की तरह ज्यादा कमाने की हवस में नहीं, पेट भरने की मजबूरी से आये हैं, अगर हमारे नेता एक वर्ग विशेष तक विकास, सुविधा साधनों को सीमित न रखें तो शायद ही कोई हमारे वर्ग में आकर यहाँ भटकना पसन्द करे।’’18 

हिन्दी में अभी जो उपन्यास लिखे जा रहे हैं, उनमें जीरो रोड एक अलग तरह का उपन्यास है। रेहन पर रग्घु जैसे एकाआयामी उपन्यास की चर्चा बहुत हो रही है। मगर मुझे लगता है कि 21 वीं सदी के अभी तक लिखे गए हिन्दी उपन्यासों में जीरो रोड का कोई सानी नहीं है। नासिरा के ‘अक्षयवट’, जिंदा मुहावरे और कुंइयाजान जैसे उपन्यास चर्चित हो चुके हैं। जीरो रोड का कथानक कई सदंर्भों में चलता है। साम्प्रदायकिता और आतंकवाद इसके मूल मेेें है। इलाहाबाद की जिन्दगी, सिद्धार्थ के पिता का चरित्र परिवर्तन, हामिद की हत्या और उसकी बहन से सिद्धार्थ का प्रेम और ‘‘मुझे बख्स दो’’ के माध्यम से की गई आत्मालोचना, उसकी बहन का अस्पताल में घायलों की सेवा करना और भाई हामिद को याद करना इसकी ठेठ भारतीय जीवन की झांकी प्रस्तुत करता है।
इसमें रेगस्तिान का संगीतमय सौन्दर्य है, इलाहाबाद का कुंभ है, रेड डेजर्ट, गोल्डन डेजर्ट और ओमान रेगिस्तान है। रमेश और ईयाद जैसे लोग हैं जो संस्कृति और सभ्यता के विकास और प्रसार में अपना जीवन अर्पित कर देते हैं।
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डॉ संजीव जैन 





डॉ. संजीव कुमार जैन
सह-प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज, म.प्र. संपर्क
522 - आधारशिला, ईस्ट ब्लॉक एक्सटेंशन
बरखेड़ा, भोपाल, म.प्र. 462021
मो. 09826458553




संदर्भ सूची  - 
1. जीरो रोड, पृष्ठ 212 
2. वही पृष्ठ 188
3. वही पृष्ठ115
4. वही पृष्ठ 166 
5. वही पृष्ठ 190
6. वही पृष्ठ 159 
7.वही पृष्ठ 159 
8. वही पृष्ठ 163 
9. वही पृष्ठ 167
10. वही पृष्ठ 226 
11. वही पृष्ठ 228
12. वही पृष्ठ 242. 
13. वही पृष्ठ 64 
14. वही पृष्ठ 85
15. वही पृष्ठ 134 
16. वही पृष्ठ 135
17. वही पृष्ठ 135
18. वही पृष्ठ 232

Tuesday, September 4, 2018

सिद्धेश्वर सिंह की कविताएं


सिद्धेश्वर सिंह


कवि का जाना
( स्मृति : केदारनाथ सिंह )
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कवि के जाने के दुख से 
अगर उबरना है तो 
उसकी कविता में उतर जाओ अकेले और चुपचाप
इसके लिए मत खोजो किसी का संग -साथ
मत पूछो कि हिमालय किधर है?

उसके लिखे शब्दों पर गौर करो
रखो चौकस निगाह
देखो कि उजास के कितने रंग हैं वहाँ
गिनो सको तो गिनो कि कितने -कितने छिद्रों से छन कर
पृथ्वी पर आने को विकल हैं 
सूर्य चंद्र और अन्यान्य अनाम ग्रह नक्षत्र ।

छुओ कविता को
उसका हाथ अपने हाथ में लेकर महसूस करो
कि कितना अंधकार सोख लिया है इस सोख्ते ने
देखो कि यहां वहां  ये जो दिख रहे हैं 
दाग़ धब्बे और बदरंग चकत्ते तमाम
इन्हीं में कहीं दबा है मेरा तुम्हारा और उनका भी दुख
जिनकी कहीं थी ही नहीं कोई आवाज
कि गला खंखारकर पूछ सकें कि गाड़ी अभी कितनी लेट है?

सृष्टि पर लगा है पहरा फिर भी
भाषा का एक पुल है 
मांझी के पुल की तरह ठोस और लोच से भरपूर
इस पर ठहरो
जैसे ठहर जाते हैं पानी में घिरे हुए लोग
अभी बस अभी करो यह एक जरूरी काम
उतरो कविताओं जल में जूते चप्पल और खड़ाऊं उतार कर।

कहीं नहीं जाता है कोई कवि
भले ही वह बताता रहे 
कि 'जाना' हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है !









बनता हुआ मकान
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यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा-अधूरा निर्माण
आधा-अधूरा उजाड़
जैसे आधा-अधूरा प्यार
जैसे आधी-अधूरी नफ़रत ।

यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है -- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा-सा है फ़र्श
लगता है ज़मीन अभी पक रही है
इधर-उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन-टी० वी० की केबिल भी कहीं नहीं दीखती ।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी सम्पूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ़ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज़
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक ख़ामोश सिसकी भी ।

अभी तो सब कुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे-धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आएँगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ाएँगे तिलचट्टे ।

आश्चर्य है जब तक आऊँगा यहाँ
अपने दल-बल छल-प्रपंच के साथ
तब तक कितने-कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान ।








कवि का कुरता
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यह कविता पाठ के मध्यान्तर का
चाय अंतराल था
जिसे कवि नायक कहे जाने वाले
एक दिवंगत कवि के शब्दों में
कहा जा सकता था- 'हरी घास पर क्षण भर'।

वहाँ कई कवि थे सजीव
जिनमें से एक ने पहना था
खूब चटख ललछौंहे रंग का कुरता
उसे घेर कर खड़े थे कुछ लोगबाग
जिनमें से 'कुछ थे जो कवि थे'
जैसा कि शीर्षक है
इधर के एक नए कवि के नए कविता संग्रह का
और कुछ ऐसे भी
जिनकी नेक नीयत थी कवि होने की
(नियति को क्या होगा मंजूर
यह और अलग बात !)
चटख कुरते वाला कवि आकर्षण का केन्द्र था
बोल भी वही रहा था सबसे ज्यादा
क्योंकि वह बड़ा कवि था
वह आया था बड़ी जगह से
उसके होने भर से
हो जाता था हर कार्यक्रम बड़ा
यह एक बड़ी चर्चित बात थी
साहित्य के समकालीन परिसर में
जबकि परिधि पर कुछ न कुछ लिखा जा रहा था लगातार
चर्चा से दूर और उल्लेख से उदासीन
(ओह , फिर याद आया वह दिवंगत कवि
अरे ! यायावर रहेगा याद !)

बड़े कवि को मिल चुके थे कई बड़े ईनाम
कई बड़े कवियों के
बड़े अंतरंग और बड़े तरल किस्से थे उसके पास
और वह आजकल
लिखना चाह रहा था संस्मरणों की एक बड़ी किताब
जो कि लिखे जाने से पूर्व ही
हो चुकी थी खासी मशहूर और लगभग पुरस्कृत
सब जन लगभग चुप
सब जन चकित
सब जन श्रोता
वक्ता वह केवल एक
और बीच - बीच में हँसी का एकाध लहरदार समवेत।

यह एक अध्याय था
कस्बे के एक साहित्यिक आयोजन के मध्यांतर का
जिसके बैनर पर लिखे थे
'राष्ट्रीय' और 'कविता' जैसे कई चिर परिचित शब्द
जिसकी सचित्र रपट तैयार कर ली गई थी उसकी पूर्णाहुति से पूर्व
किन्तु जिसे याद किया जाना था आगामी कई वर्षों तक
बड़ी जगह से आए
एक बड़े कवि के
चटख ललछौंहे रंग के कुरते के बावजूद







बोलती हुई बात
 ( स्मरण : शमशेर बहादुर सिंह)
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प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
गलती रही बर्फ़
बनकर नदी
नींद थी
नहीं थे स्वप्न
मैं न था
तुम थे साथ
यह कौन - सी यात्रा थी
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
* *
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
दूब की नोक से सिहरता व्योम
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
किस्से - कहानियों जितना अपना होना
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
कवि तुम
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।







बीच बहस में
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मैं हूँ
तुम हो
और वे हैं जो कि
अनुपस्थित चल रहे हैं लगातार

शब्द हैं
वाक्य हैं
आरोह - अवरोह है वाणी का
नहीं हैं ; बस नहीं हैं विचार

कहाँ है उत्स
किधर है परिणति
इस प्रयोजन का क्या ध्येय
संप्रति एक ही लय झंकृत बारंबार

ज्योतित खद्योत
सहमे सिकुड़े कपोत
सबकुछ विरुद से ओतप्रोत
गुंजित चहुंदिशि जय जयकार

यह बहस है
यही विमर्श
यही है अभिनव संवाद
यही भक्ति यही शक्ति यही मुक्ति का द्ववार !

और अंत में
 ( प्रार्थना की तरह )
इस युग को नमन - नमस्ते - नमस्कार !




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परिचय
सिद्धेश्वर सिंह

जन्म :  11  नवम्बर 1963, गाँव : मिर्चा , दिलदार नगर , जिला गा़जीपुर ( उत्तर प्रदेश )

शिक्षा : एम०ए०( हिन्दी ) , नेट (जे.आरएफ़.),पी-एच० डी०

प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें , कहानियाँ, समीक्षा  व शोध आलेख प्रकाशित।भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण की टीम के सदस्य के रूप में उत्तराखंड की थारू भाषा पर कार्य। विश्व कविता से अन्ना अख़्मतोवा, निज़ार क़ब्बानी, ओरहान वेली, वेरा पावलोवा , हालीना पोस्वियातोव्स्का , बिली कालिंस और अन्य महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद।  कविता संग्रह ' कर्मनाशा' 2012  में प्रकाशित। एक कविता संग्रह व अनुवाद  की दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य।  2007 से 'कर्मनाशा' शीर्षक ब्लॉग का संचालन- संपादन।
फिलहाल : उत्तराखंड प्रान्तीय उच्च शिक्षा सेवा में एसोशिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।  

संपर्क : ए- 03, आफीसर्स कालोनी, टनकपुर रोड, 
अमाऊँ, पो० - खटीमा , 
जिला - ऊधमसिंह नगर  ( उत्तराखंड ) पिन - 262308  
मोबाइल - 09412905632 , 
ई मेल: sidhshail @gmail.com



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