Thursday, August 13, 2020

 


किसी मुल्क पर दुसरे मुल्क का कब्ज़ा करके उसे नक़्शे से मिटा देना सामान्य बात नहीं है विशेषकर वहां के वाशिंदों के लिए तो टूट कर बिखर जाने वाली बात होती है |विस्थापित होकर दूसरी जगह अपनी पहचान को बचा कर रखना सहज नहीं होता |भावनाओं के इसी भंवर को कहानी में रचने की शानदार कोशिश की है प्रसिद्ध  समका लीन कथाकार तरुण भट्नागर ने | और वह इसमें पूर्णतया सफल भी हुए है |

उनके द्वारा लिखित कहानी "भूगोल के दरवाजे पर " सुधि पाठक डॉ कंचन जायसवाल ने अपनी बात रखते हुए समीक्षा लिखी है |

रचना प्रवेश पर पढ़िए कहानी और कंचन जायसवाल की समीक्षा -

                                                                     डॉ कंचन जायसवाल 


 तरुण भटनागर की कहानी “भूगोल के दरवाजे पर" 


यह कहानी ‘तिब्बत' के बारे में है ,एक ऐसा मुल्क जो अब दुनिया के नक्शे में नहीं है. कहानी का एक पात्र मास्टर है, जो गांव में एक स्कूल चलाता है .वह अपने बच्चों को तिब्बत के बारे में बतलाता है, जबकि वह जानता है कि यह विषय अब उनके भूगोल के कोर्स में नहीं है. बच्चे भी छोटी उम्र के हैं. कोर्स के बाहर की चीज को जानना उनके लिए जरूरी नहीं है।

‘ तिब्बत शानदार मुल्क था ,लोग उसे देवताओं की भूमि कहते थे' ।

कहानी छत्तीसगढ़ के मैनपाट जगह से शुरू होती है जहां विस्थापित तिब्बती आकर बसे हुए हैं ।इनकी अपनी एक पहचान है ,शक्लो- सूरत है, भाषा है, गीत- संगीत है, धर्म है, और अपना दर्द है जिसकी टीसें वे कभी भुला नहीं पाते और यह दर्द  पीढ़ी दर पीढ़ी वे अपने वारिसों को सौपते चले जाते हैं। 30 साल हुए उन्हें मैनपाट में बसे पर मैनपाट उनका घर नहीं है, उनकी जगह  नहीं है, उनका मुल्क कहीं और है, बल्कि अब कहीं नहीं है।

“ खुद को यकीन दिलाना एक थका देने वाला काम है। “


“यह जो यकीन नाम की शै है ,उनके बदन पर घाव के निशान हैं।” 

कहानी का एक अन्य पात्र ग्याल्त्सो है ,विस्थापित तिब्बती बुजुर्ग जो कि मास्टर का दोस्त है ।मास्टर मैनपाट आता जाता रहता है। बच्चों ने ग्याल्त्सो को देखा है मास्टर से मिलते- जुलते ।वह उन्हें चीनी जैसा लगता है ।बच्चे उसे चीनी- चीनी कहकर चिढ़ाते हैं। बुजुर्ग ग्याल्त्सो गुस्से में उन्हें दौड़ाताहै ।वह मास्टर से शिकायत करता है कि बच्चे उसे चीनी कहते हैं ,पर शिकायत करते- करते वह रो पड़ता है।

 गुस्सा करना बच्चों के लिए सामान्य बात है पर किसी बुजुर्ग का रो देना उनके लिए बहुत बड़ी बात है। बच्चे सहम जाते हैं ।मास्टर बच्चों को डांटता है और कहता है,-“ वह तिब्बती है चीनी नहीं”.

“ हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग लोग हैं.”

 अब मास्टर के लिए यह जरूरी है कि वह बच्चों को बतलाए तिब्बत के बारे में ।वह अपने बचपन में लौट जाता है ।वह बच्चों को बतलाता है कि जब उसने भूगोल पढ़ा था तब उसकी किताब में तिब्बत का जिक्र एक मुल्क के रूप में होता था ।एक ऐसा मुल्क जो भारत का पड़ोसी था और उसकी सरहदें भारत की सरहदों से लगती थीं। वह बतलाता है कि अब भूगोल की किताब में तिब्बत का जिक्र एक देश के रूप में नहीं है क्योंकि अब तिब्बत नक्शे में कहीं नहीं है। उस पर चीन का कब्जा हो चुका है।

“ देखो बात ऐसी है कि जमीन उसी की होती है ,जो उस पर कब्जा कर लेता है.”

“किसी मुल्क को जीतने के कई तरीके हैं .पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो ।“

बच्चे गौर से मास्टर की बातें सुनते हैं ।मास्टर बतलाता है-“ स्कूल का कोर्स ही क्या दुनिया की किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों का नाम नहीं मिलता ,तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों के गीत और कहानियां नहीं मिलेंगी। तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली ,या उससे भी आगे”.


“  मास्टर एक बात कहता था जो बिल्कुल भी समझ ना आती थी. वह कहता था किहारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है ।इसका मतलब होता है स्मृति में से मिटा दिया जाना।“

बच्चे यद्यपि उम्र में छोटे हैं पर मास्टर की बातें और ग्याल्त्सो के आंसू मिलकर उनके मासूम मन में तिब्बत की ,एक खोए हुए देश की मौजूदगी दर्ज कर देते हैं। ग्याल्तसो को खुश करने के लिए सभी बच्चे अपनी भूगोल की किताब में एशिया के मुल्कों के नाम में तिब्बत का नाम भी जोड़ देते हैं ।

“उस जगह हम सब ने लिख दिया- देश तिब्बत ,राजधानी लहासा।“

 बच्चे अपनी किताबें मास्टर को दिखाते हैं मास्टर सबकी किताबें देखता है और चुप रहता है। वह यह तो समझता है कि बच्चों ने तिब्बत का नाम एशिया के मुल्कों के नाम में जोड़ दिया है पर तिब्बत है कहां  । ग्याल्त्सो भी यह जानकर खुश होता हैपर वह बच्चों को हिदायत देता है कि परीक्षा के लिए वे उसे याद  न करें क्योंकि परीक्षा में जो है उसी के बारे में लिखना है ,जो अब बस यादों में है उसके बारे में नहीं, अन्यथा उन्हें नंबर नहीं मिलेगा ।

कहानी आगे बढ़ती है एक चिट्ठी के आने पर जो ग्याल्त्सो के लिए है पर ग्याल्त्सो  जो कि अनपढ़ है उस तक यह चिट्ठी कैसे पहुंचाई जाए ।मैनपाट से एक तिब्बती आकर मास्टर को चिट्ठी के बारे में बताता है, उस पर यह जिम्मेदारी छोड़ देता है कि वह ग्याल्त्सो को बताए मास्टर और ग्याल्त्सो की दोस्ती बहुत पुरानी है। मास्टर बच्चों कोआउटिंग के बहाने मैनपाट लेकर आता है।बच्चे मैनपाट देखने के लिए उत्साहित हैं ।वहां पर जो तिब्बती रहते हैं  उन में से 10 तिब्बतियों को हर साल अपने मुल्क को देखने का मौका मिलता है। तिब्बत देखने के लिए जाने वालों में ग्याल्त्सो का नाम है पर दूसरा तिब्बती जिसकी जिम्मेदारी है कि वह 10 लोगों का नाम चयनित करें वह चाहता है कि ग्याल्त्सो तिब्बत ना जाए, क्योंकि उसे जो चिट्ठी मिली है उसके अनुसार अब तिब्बत में ग्याल्त्सो के परिवार का कुछ भी बचा नहीं है ।5 साल पहले ही उसका सब कुछ खत्म हो चुका है,, उसका बेटा उसका घर,सब कुछ।पर यह सूचना वह ग्याल्त्सो को कैसे दे। जबकि ग्याल्त्सो जाने के लिए बहुत उत्साहित है ।जब मास्टर  ग्याल्त्सोको मना करता है  ,वह कहता है-

“ 25 साल .क्या तुम गिन सकते हो? 25 सालों को कोई नहीं गिन सकता। पर मैंने गिना और रुका रहा। पर फिर भी तुम कहते हो कि वहां जाना बेमतलब है ।अंततः बेमतलब।“

 मास्टर उसे पत्र के बारे में बताता है और कहता है कि अब वहां कुछ भी नहीं है ।ग्याल्त्सो समझ जाता है और दुख के गहरे सागर में डूब जाता है ।उसकी रुलाई पूरे मैनपाट को दुखी कर देती है। अपनों को खोना, अपना सब कुछ खो देना क्या होता है ,एक इंतजार, एक उम्मीद जो ग्याल्त्सो को जिंदा रखती है कि एक दिन वह अपने मुल्क जाएगा ,अपने परिवार से मिलेगा, अपने वतन की मिट्टी को छुएगा ,अपनी हवा, अपना पानी ,अपने आसमान के नीचे खड़ा होगा, सब खत्म हो जाता है।ग्याल्त्सो कि स्मृति में बचा हुआ उसका मूल्य अब पूरी तरह से मिट चुका है।

“तिब्बत एक अनुमान था, अंधेरे में उंगलियों की एक टटोल था तिब्बत“………………

मास्टर उसी रोज अपने बच्चों के साथ अपने गांव वापस लौट आता है। 




कहानी 

भूगोल के दरवाज़े पर                

तरुण भटनागर  


 एक

जब तक हमने वहाँ के बाशिंदों को नहीं देखा था, वह गाँव ठेठ ही लगा. देखने में वह गाँव जिस तरह से गाँव होते हैं उससे अल्हदा दीखता था, उसमें बने मकान, लंबे और चोंगे के आकार का मंदिर और हवा में फरफराती तमाम तरह की चौकोर रंग बिरंगे कपडों की लडों से सजा-धजा वह गाँव एक अलग दुनिया सा दीखता रहता.


बचपन के किसी किस्से में सुनी किसी जगह जैसा. कोई जगह जिसके बारे में बचपन की किसी कहानी में सुना जाना था, कुछ-कुछ वैसा ही. पर फिर भी उसमें एक गाँव पन था, एक ठेठपन जो इस सबके बावजूद उसकी फितरत में था. उसके बाशिंदों को देखते ही उसका यह ठेठपन बिला जाता था. पल भर को लगता कि वह कितनी अल्हदा जगह है, हमारी दुनिया से कितनी मुख़्तलिफ, न कभी देखी, न जानी. यूँ तो यह भ्रम ही था कि अगर लोग अलग से दीखते हों तो वह दुनिया जिसमें वे रहते हैं वह भी अलग सी दुनिया होती है. हम स्कूल जाते बच्चे थे. और इस तरह यह भ्रम हमें बताता रहता था कि वह गाँव कितना तो अलग है. छुटपन के, उन दिनों के आलम में, यह अलग सा दीखने वाला गाँव अजूबेपन की हद तक अल्हदा नजर आता रहता था.

       

यह बात थी उन्नीस सौ अस्सी की. उन लोगों के उस गाँव में  सबसे पहले बसने के तीस साल बाद की. तीस साल पहले उनकी जो पहली आमद हुई थी इस गाँव में उसके बारे में कोई खास मालूमात नहीं हैं. बस इतना ही पता चलता है कि वे आये और बस गये.            

         

छत्तीसगढ़ में जो जगह समुद्र तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी है, वह यही गाँव है. जैसा कि है ही कि वहाँ के बाशिंदे हमारे यहाँ के से नहीं जान पडते. नहीं दीखते. और यह भी कि लंबे बीते वक्त ने यह जतलाया कि चपटे चेहरे, सीधे खडे बाल और छोटी-छोटी आँखों वाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे अलग दिखते हैं. उनके पास जाओ, उनसे बात करो तो लगता है कि सिवाय इसके कि वे अलग दीखते हैं कुछ भी तो अलग नहीं. अलग दीखना भी वैसा ही भ्रम है जैसा कि उस गाँव का मुख़्तलिफ सा लगना. वे एक ऐसी जगह से आये थे, तीस साल पहले, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था. तीस साल पहले वह जगह दुनिया के तमाम अखबारों में सुर्खियाँ बनी थी. तब वे सैंकडों की तादाद में उस जगह को छोडकर चले आये थे. टाइम्स मैगजीन से लेकर न्यूयार्क टाइम्स तक और बी.बी.सी. लंदन से लेकर दुनिया के तमाम समाचारों में वे ही वे थे. उन पर बातें थीं. उनकी ही तस्वीरें दीखती थीं. पर वे इन सब से बेखबर चलते-चले थे. वे सैंकडों की तादाद में आये. फिर यहीं रह गये.

                     

उनके बारे में जो नहीं पता था, वह यह था कि बीते तीस सालों में और उस दिन जब हम उनके उस गाँव गये थे तब भी, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, खुद को यकीन दिलाया है कि यह जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, ये तमाम लोग, आसमान के चाँद सितारे सब ... सब उनके ही तो हैं. यह बात समझ न आती थी कि कोई खुद को इस तरह का यकीन क्यों दिलाता रहता है कि सारी कायनात उसकी ही तो है ? चारों ओर देखो तो लगता है सबकुछ अपना ही तो है. हम यहाँ रहते हैं. हमारा मकान है यहाँ. हमारा परिवार. फिर यह बात क्यों ? पर यह सब था ही. इतना ही नहीं बल्कि उन्हें लगता कि खुद को यकीन दिलाना एक थका देने वाला काम है. कब तक और किस तरह से कोई खुद को यकीन दिलाता रहे. आप अगर बार-बार खुद को यकीन दिलायें तो थक जायें. खुद को यकीन दिलाने वाले लोगों के चेहरे पर बेवक्त ही झुर्रियाँ आ जाती हैं. उनके बाल जवानी में ही पकने लगते हैं और उनकी आँखों का नूर बितर जाता है. यह जो यकीन नाम की शै है उसके बदन पर घाव के निशान हैं. यकीन नाम की इस शै के जिस्म से खून रिसता रहता है. पर फिर भी वे खुद को यकीन दिलाते रहते हैं और धीरे-धीरे यकीन पर से उनका यकीन दरकता रहता है. झूठ कोई ऐसी चीज तो नहीं कि कोई खुद से झूठ कहकर खुद को ढ़ांढ़स देता रहे. उनके यकीन के साथ यही गडबड है. उनका यकीन झूठ के ढाँचे पर तना है. इसलिये उनके जेहन में जब-जब उनका यकीन उठकर खडा होना चाहता है, वह इस कोशिश में पलटकर गिरता है. पछाड खाकर भीतर कहीं बेहोश हो गये यकीन की देखभाल करना सबसे कठिन काम होता है. पर कोई क्या करे ? कोई राह नहीं सूझती.





 दो 

मैनपाट. छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का ही एक गाँव है. कहते हैं समुद्र तल से लगभग एक हजार एक सौ मीटर ऊपर. पहाडों पर रहने वालों को यह ऊँचाई कम लग सकती है, पर यकीन करें मैनपाट में आये ये लोग जिस जगह से आये थे वह जगह समुद्र तल से पाँच हजार मीटर की ऊँचाई वाली जगह थी. इतने ऊँचे तो पहाड भी कहाँ होते हैं. पूरे छत्तीसगढ़ में मैनपाट सबसे ऊँचाई पर है. इससे ऊपर कोई और गाँव नहीं है. यह आसमान के सबसे पास है. जिस जगह जो जगह सबसे ऊँचाई पर होती है वही उस जगह आसमान के सबसे पास होती है. यही माना जाता है.                

                           

तारीख गवाह है, कि तीस साल पहले जब उनसे उनकी जमीन, मकान, परिवार, सबकुछ छीन लिया गया था, तब वे हजारों की तादाद में एक अनिश्चित सी उम्मीद के साथ हमारे यहां आये थे. कोई नहीं जानता कि वे अपनी आँखों में जलते मकानों के मंज़र लेकर आये थे. गिराये जाते मकानों के खौफनाक नजारे उनके जेहन से गुजरते रहते थे. उनकी खामोश आँखों में बेगुनाह कस्बों की गलियों में बहते मासूमों के खून का मंजर एक ऐसी चीज थी जिसे वे किसी को बता न सकते थे. उन में से कुछ इतने मजबूर थे कि उन्होंने दरवाजे की ओट से छिपकर देखा था अपने परिवार का कत्ल. इस तरह वे आये थे. वे आये और कुछ जगहों पर बसे. मैनपाट भी ऐसी ही जगहों में से एक है. वे लोग आज भी मैनपाट में है. पर लोग इसे एक घूमने फिरने वाली जगह के रूप में जानते हैं. लफरी घाट और टाइगर नाम के झरनों और उल्टा पानी नाम की एक जगह जहाँ पानी उल्टा बहता है इस जगह की प्रसिद्धी की वजह हुई. यह एक हिल स्टेशन जाना गया. इस तरह इस जगह की तमाम बातों में उन लोगों की कहानियाँ शामिल नहीं हो पाईं


 वे अपने साथ बुद्ध को लेकर आये थे. इस गाँव में उन्होंने बुद्ध का एक मंदिर बनाया. उन्होंने बुनने का और खेती का काम किया. उन्होंने लसाप्सा नाम के कुत्तों को पाला और उन्हें बेचा. जीने की एक राह उन्होंने खोजी. वे अपनी जबान में बोलते-बतियाते. अपने मुल्क का गीत गाते, उनका मुल्क, वह मुल्क जो अब धरती के नक्शे में दीखता नहीं. अगर आप दुनिया के नक्शे को देखें तो जिस तरह तमाम मुल्कों के अलग-अलग रंग दीखते हैं. उनकी अलग-अलग सरहदें दीखती हैं. उस तरह से उस मुल्क को अलग रंग और सरहद में नहीं दिखाया जाता है. किसी मुल्क का दुनिया के नक्शे से गायब हो जाना कोई छोटी बात नहीं है. दरअसल हुआ इस तरह था कि पहले तो वह मुल्क नक्शे से गायब हुआ और फिर वह धीरे-धीरे लोगों की बातों से भी गायब होने लगा. लोग उसके बारे में बातें करना भूल गये. नक्शे से गायब हो जाने के बाद लोगों को भी यह बहाना मिल गया था कि उस मुल्क पर बात करने की अब क्या जरुरत ? इस तरह जब बात नहीं हुई तो वह मुल्क फिर आहिस्ते-आहिस्ते भुला दिया गया. कुछ इस तरह कि तमाम लोगों से अगर आप पूछें कि वह मुल्क हिंदोस्तान का पडोसी मुल्क था और आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान जैसे मुल्क से भी काफी बडा तो एकबारगी उनमें से कइयों को लगे कि आखिर यह किस मुल्क की बात की जा रही है ? वह कौन सा मुल्क था जो हिंदोस्तान का पडोसी था, पर आज दुनिया के नक्शों में नहीं है और जो आकार-प्रकार में आज के पाकिस्तान से बडा था ? इतना ही नहीं हिंदोस्तान से मिलने वाली उसकी सरहद किसी भी दूसरे मुल्क से मिलने वाली हिंदोस्तान की सरहद से कहीं ज्यादा लंबी थी. वह सबसे लंबी सरहद वाला हिंदोस्तान का पडोसी था. 


वे उसी मुल्क के लोग थे. वहीं से आये और मैनपाट में बसे.                                     

                                                      

 तीन               


वह इन्हीं लोगों में से एक था. मैनपाट की घाट से साईकिल चलाता आता था. उसका नाम ग्याल्त्सो था. हम सब उसके नाम को ठीक-ठीक बोल न पाते थे. हम लोग याने हम सब बच्चे और स्कूल का मास्टर. उसका पूरा नाम कुछ और था. वह इतना लंबा और अजीब नाम था कि हम बोल न पाते थे. इस तरह हम उसे सिर्फ ग्याल्त्सो कहते थे. हम ठीक से ग्याल्त्सो भी न कह न पाते थे. पर इससे उसे कोई दिक्कत न थी. स्कूल के मास्टर से उसकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि उसने उससे दोस्ती के खातिर किसी भी तरह से कह दिये जाने वाले अपने नाम को, हमारी जबान से मंजूर कर लिया था.


            

उस दिन हम दस स्कूली बच्चे अपने इसी मास्टर और गाइड मास्टरनी के साथ मैनपाट आये थे. वह शाम थी और हमें वहाँ की प्राथमिक शाला के एक भवन में आगे पाँच दिनों तक रहना था. मास्टर ने हमें बताया था, कि इसे ‘आउटिंग’ कहते हैं. उस रात हमें उस गाँव के सिर्फ दो लोग मिले थे, जिन्हें मास्टर और हमारे आने का पता था. वे मुझे अजीब से लगे थे- पीला रंग, छोटी-छोटी आँखें, धँसे हुए गाल, उभरी गाल की हड्डी, चमकता चेहरा, सफाचट और अधकचरी दाढ़ी-मूँछ, ठिगना कद, छोटे-छोटे खड़े काले बाल....... इतनी ठण्ड में भी उन्होंने बहुत कम कपड़े पहन रखे थे. फिर उनमें से एक कुछ देर बाद एक केतली में चाय लेकर आया. मक्खन वाली तिब्बती चाय. जिसकी अजीब खुशबू से मुझे उबकाई आई थी, पर बाकी सब बडे चाव से उसे पी रहे थे.

              


‘तिब्बत एक शानदार मुल्क था. लोग उसे देवताओं की भूमि कहते थे.’


                  

स्कूल का मास्टर हमें बताता. मैनपाट मास्टर की पसंदीदा जगह थी. तिब्बत पसंदीदा विषय. तिब्बत कोर्स में न था. जब वह भूगोल की किताब में मुल्कों की फेहरिस्त में ही न था तो कोर्स में कैसे होता. जब वह नक्शे में ही न दीखता था तो कोर्स में कैसे होता. पर भी मास्टर उसके बारे में बताता था. हम छोटे थे. इस तरह इस बात को न जानते थे कि ऐसे मुल्कों के बारे में बात करने वाले लोग कैसे होते हैं ? कैसे होते हैं वे लोग जो ऐसे मुल्कों के बारे में बातें करते हैं जो दुनिया के नक्शे में नहीं दीखते ? वे लोग जो भूगोल की किताब में न दीख पडने वाले मुल्कों के बारे में बताते हैं ? जो उन मुल्कों के बारे में बात करते हैं जो कोर्स में नहीं हैं ? ऐसे मुल्क जिनके बारे में बताते हुए आउट ऑफ़ द कोर्स जाना पडता है ? ऐसे लोग ? कैसे होते हैं ? इस तरह तिब्बत और मास्टर के बीच की बात समझ न आती थी. पर वह तिब्बत पर बात करता था.


               

इस सब की शुरुआत एक वाकये से हुई थी. हमें ग्याल्त्सो अजीब लगता था. हम छोटे थे और यह मानते थे, कि हर छोटी आँख वाला और पीली खाल वाला आदमी चीनी होता है. छोटी आँख वाले, ठिगने पीले लोगों के लिए हमारे पास बस एक ही शब्द था- चीनी .... सो हम ग्याल्त्सो को चिढ़ाते थे- चीनी, ऐ चीनी .... और... ग्याल्त्सो आगबबूला होकर हमें मारने को दौड़ता. एक दिन ग्याल्त्सो ने मास्टर से हम सबकी शिकायत कर दी. मास्टर को सबकुछ बताते-बताते वह रुआँसा हो गया. हमें बड़ा अजीब लगा, क्योंकि हमने तब तक पैंसठ-सत्तर साल के किसी बुजुर्ग को हमारे चिढ़ाने पर, इस तरह रुआँसा होते नहीं देखा था. अलबत्ता गुस्सा होते ज़रूर देखा था. ग्याल्त्सो को गुस्सा दिलाने में हमें मजा आता था. इसीलिए हम उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाते थे. ग्याल्त्सो का गुस्से से दुःखी हो गया चेहरा हमें बडा अजीब लगा था. चिढाने से बच्चे रो देते हैं. पर बुजुर्ग भी रो देते हैं यह बात हमें अजीब लगी थी.                     

मास्टर ने हमें सख्त हिदायत दी कि हम उसे चीनी ना कहें. ग्याल्त्सो के जाने के बाद उसने हमसे कहा कि हमने ग्याल्त्सो को तकलीफ पहुँचाई है. हमें इस बात का अफसोस होना ही चाहिए कि हमने एक नेक आदमी के दिल को दुखाया. उसे चीनी, चीनी कहकर चिढाया. ‘वह तिब्बती है, चीनी नहीं’- मास्टर ने सख़्त लहजे में हमसे कहा. पर फिर शायद उसे लगा कि हम इतने अकलमंद नहीं हैं कि चीनी और तिब्बती के बीच के अंतर को जान सकें. तो फिर उसने हमें समझाया भी- ये दोनों चीजें बिल्कुल अलग हैं. चीनी और तिब्बती में बहुत अंतर होता है. हर किसी को यह जानना चाहिए कि तिब्बती और चीनी दो अलग लोग हैं.




 चार 

मास्टर ने यह भी बताया कि जब वह हमारी तरह छोटा था और स्कूल में पढ़ता था, तो स्कूल की भूगोल की किताब आज की भूगोल की किताब से अलग थी. उस वक्त की भूगोल की किताब में लिखा होता था, कि तिब्बत एक मुल्क है. उनके दौर की भूगोल की किताबों में लिखा था, कि हिमालय के उत्तर में एक बहुत सुंदर जगह है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. कि यह एक मुल्क है. बिल्कुल दूसरे मुल्कों की तरह, अलग और अपने आप में रचा बसा. भूगोल की किताबों में यह भी लिखा होता था कि, इस मुल्क की अपनी राजधानी है, जिसका नाम ल्हासा है. पर आज के छात्र यह सब नहीं जानते. क्योंकि वे भूगोल की दूसरी किताबें पढ़ते हैं. उनकी किताबों में तिब्बत का नाम ही नहीं है. मास्टर हमसे पूछता- ‘बताओ बताओ है क्या ? बोलो बोलो’. हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’. 



 मास्टर हमसे पूछता ‘क्या भूगोल की किताबों में हिंदोस्तान के पड़ोसी मुल्कों में तिब्बत का नाम लिखा है?’ हम सब एकसाथ चिल्लाते ‘नहीं’.

मास्टर हमारी भूगोल की किताब उठा लेता. उसके सारे पन्ने एक साथ फुरफुराता पलटता- ‘देखो देखो इसमें तिब्बत कहीं भी नहीं है.’ फिर कुछ सोचता. थोड़ा सँभलता फिर कहता -

 ‘देखो. बात ऐसी है कि जमीन उसकी होती है, जो उस पर कब्जा कर लेता है. जमीन ही क्या, रोड, पुल, नाले, नदियाँ, मकान, जंगल, पहाड़...याने वह सब कुछ जो दीखता है उस सब पर भी किसी का कब्जा हो सकता है. इसी तरह कोई भी मुल्क उसका होता है, जो उसे जीत लेता है. किसी मुल्क को जीतने के कई तरीके होते हैं. पर सबसे आसान है, जबरदस्ती घुस आओ और ताकत के बल पर कब्जा कर लो. फिर वहाँ के लोगों को वहाँ से खदेड़ दो. जैसा कि तिब्बत में हुआ. जैसा कि चीन ने तिब्बत के साथ किया. जो हुआ वह गलत था. ग्याल्त्सो और उसके लोगों के साथ जो कुछ भी हुआ वह गलत था.’

मास्टर बताता कि इस तरह एक मुल्क दूसरे मुल्क को जीत लेता है. जीतने के साथ ही उसे एक और अधिकार मिल जाता है. वह है, किताबें लिखने का अधिकार. कि यह दुनिया का कायदा है, किताबें वही मुल्क लिखेगा जो जीत चुका हो. हर किताब किसी विजेता ने ही लिखी है. जिन लोगों ने तमाम किताबें लिखी हैं वे या तो विजेता लोग हैं, या विजेताओं अपने लोग हैं. जैसे तुम्हारी यह भूगोल की किताब. दुनिया कि तमाम किताबों की तरह तुम्हारे कोर्स की भूगोल की यह किताब भी किसी विजेता ने ही लिखी है. ऐसा नहीं है कि हारे हुए मुल्क किताब नहीं लिखते हैं. दिक्कत यह है कि उनकी किताबें चलती नहीं हैं. कम से कम कोर्स में तो आ ही नहीं सकतीं. कोर्स में जो किताबें हैं वे जीते हुए मुल्कों की किताबे हैं. इसलिए उसमें हारे हुए मुल्कों का जिक्र नहीं. इसलिए इसमें तिब्बत नहीं है.- भूगोल की किताब को फरफराता पलटता मास्टर कहता.

स्कूल जंगल के बीच था. वह एक बेहद दूर का स्कूल था. छत्तीसगढ के एक ऐसे गाँव का स्कूल जहाँ लाइट न थी, उन दिनों. वह गाँव बारिश के मौसम में सारी दुनिया से कट जाता. उस गाँव के रास्ते उफनाते नालों के भीतर समा जाते. उसके जंगल हरे-भरे होकर और फैल जाते. दो कमरों के उस स्कूल में जिसके बच्चे गाँव से खेत खलिहानों के रास्ते मेडों और पगडण्डियों से चलकर स्कूल पहुँचते थे, उस स्कूल का मास्टर स्कूल के कोर्स के बाहर की एक बात को पूरे मन से और हिदायत के साथ उन बच्चों को बताता रहता था-  स्कूल का कोर्स ही क्या, दुनिया कि किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों का नाम नहीं मिलता. तुम्हें किसी भी किताब में हारे हुए मुल्कों के गीत और कहानियाँ नहीं मिलेंगी. तुम पूरा बाजार छान मारो, चाहे अंबिकापुर चले जाओ, चाहे उससे भी आगे रायपुर या दिल्ली, या उससे भी आगे, 


 तुम्हें भूगोल की एक किताब नहीं मिलेगी जिसमें दुनिया के मुल्कों की फेहरिस्त में तिब्बत का भी नाम लिखा हो. तुम बड़ी से बड़ी लाइब्रेरी में एक भी भूगोल की ऐसी किताब नहीं ढ़ूँढ़ सकते जिसमें लिखा हो कि तिब्बत भी एक मुल्क है और दूसरे मुल्कों की ही तरह उसकी अपनी राजधानी है, अपनी मुद्रा है. तुम भूगोल की एक किताब नहीं ला सकते जिसमें लिखा हो कि भारत की सबसे लंबी सरहद जिस मुल्क से मिलती है, उसका नाम तिब्बत है.- मास्टर न जाने क्या-क्या बताता रहा था. कहता रहता था. मास्टर एक बात कहता था जो बिल्कुल भी समझ न आती थी. वह कहता था कि हारने का मतलब सिर्फ हारना नहीं होता है, इसका मतलब होता है स्मृति में से मिटा दिया जाना... .


 इन सब बातों का हम पर जो असर पडा वह कुछ इस तरह था कि हमें इस बात का अहसास हो गया था कि हमने जो कुछ ग्याल्त्सो के साथ किया था, उसे चिढाकर, उसका मजाक बनाकर, वह बेहद गलत था. हम उसे एक ऐसे नाम से चिढाते थे जो वह बरदाश्त न कर पाता था. हमने सचमुच किसी बुजुर्ग को चिढाने पर इस तरह रुआँसा होते न देखा था. जिससे यह लगता ही था कि कोई भारी भूल हमसे हुई थी. इस तरह हम यह मानने लगे कि हमने एक भारी गलती की है. ग्याल्त्सो का दिल दुखाकर हमने कोई ऐसा काम किया है जो बहुत गलत और नाकाबिले बरदाश्त है. कि हमें अपनी गलती का कुछ न कुछ प्रायश्चित तो करना ही चाहिए. जो तकलीफ हमने ग्याल्त्सो को पहुँचाई थी उसका प्रायश्चित. हमने सोचा कि हम कुछ ऐसा करें कि ग्याल्त्सो को अच्छा लगे. कोई ऐसा काम जिससे वह और मास्टर दोनों खुश हो सकें. पर ऐसा क्या कर सकते थे हम ? फिर हमारे एक दोस्त को एक तरकीब सूझी. यह तरकीब हम सबको अच्छी लगी.



 पाँच 

हम सब उस दोस्त की सुझाई तरकीब को मानने को तैय्यार हो गये थे. हम सबने अपनी-अपनी भूगोल की किताब में एक तब्दीली कर ली. किताब में एशिया के मुल्कों के नाम लिखे थे. इन मुल्कों की फेहरिस्त थी. फेहरिस्त जहाँ खत्म होती थी उसके नीचे जरा सी जगह थी. उस जगह हम सबने लिख दिया- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. इस तरह हम सब की भूगोल की किताबों में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त के नीचे लिखा गया- देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. फिर हमने सारे दोस्तों की भूगोल की किताबें चैक कीं. हर किताब में लिख गया था- देश-तिब्बत, राजधानी--ल्हासा.


 हम सबमें से एक लडका जो थोडा बोलने में माहिर था और मास्टर से जरा कम ही डरता था उससे हम सबने कहा कि वह मास्टर को बतलाये कि हम सबने भूगोल की हर किताब में लिख लिया है- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. वह बताये कि ठीक है कि इस सरजमीं की भूगोल की किसी भी किताब में नहीं लिखा है- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. ठीक है, कि तिब्बत ग्लोब में नहीं दीखता. भूगोल में जो एटलस होता है, उसमें वह अलग रंग से नहीं दर्शाया जाता है. दुनिया के नक्शों में उसमें कोई अल्हदा रंग नहीं भरा जाता. सब जानते हैं कि नहीं है तिब्बत दुनिया जहान के नक्शों में, अपनी सरहद के साथ कहीं भी. नहीं है देश-दुनिया में. चर्चा में भी नहीं है. वह जो तुम कहते हो मास्टर कि रोज के रेडियो में भी कोई खबर तिब्बत पर नहीं आती है. कि जो तुम्हारा दोस्त ग्याल्त्सो खोजता है, तिब्बत का वह नाम, रोज सुबह पेपरों में, पर वह जो उसे कभी मिलता नहीं. कि वह जो कहता है, उदास, कि तिब्बत पर कहीं कोई फिल्म नहीं देखी. ठीक है कि तुम्हारे मुताबिक तुम जो वह बताते हो कि यू.एन.ओ. की फेरिस्त में भी नहीं है तिब्बत. कहते हो कि नहीं है, ओलंपिक के झण्डाबरदार खिलाड़ियों की परेड में. नहीं है, डाक टिकटों में. कहीं नहीं, किसी मुल्क में नहीं तिब्बत का कोई राजदूत, कोई एम्बेसेडर. संसार में कहीं नहीं तिब्बत का कोई दफ्तर.... पर देखो यह हमारी किताबों में आ गया है. हम सबने लिखा है. हमारे कोर्स की भूगोल की किताबों में- देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. हर किताब में लिखा है. हर छात्र ने लिखा है. यह कोई छोटी बात तो नहीं है न मास्टर जी. 


 मास्टर ने हमारी किताबों में से एक दो किताबें देखीं. फिर बाकी किताबों को भी देखा. एक के बाद एक. हर किताब में लिखा था- देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. मास्टर कुछ कहना चाहता था. पता नहीं क्या तो. पर वह चुप ही रहा और चुपचाप हमारी भूगोल की किताबों को देखता रहा. बाद में यह लगा कि मास्टर भी यह मानता था कि किताबों में यह लिखा जाना-देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा कोई छोटी बात नहीं है. यह ठीक है कि यह बच्चों ने खुद लिखा. कोई कह सकता है कि बच्चे मासूम होते हैं. पर यह भी तो सच है कि बच्चे सच्चे होते हैं. जो जी में आता है कर देते हैं. दिल में जो आता है कर गुजरते हैं. इसीलिए इस बात का मोल है कि उन्होंने लिख लिया- देश- तिब्बत, राजधानी - ल्हासा. हर बात के मायने हैं. हर अच्छे काम की अहमियत है. कोई काम इस वजह से तो कमतर नहीं हो जाता कि वह बच्चों ने किया. ऐसा वह कहता था.

एकाद बार उदास मन से उसने यह भी कहा था कि पता नहीं दुनिया को कभी यह पता भी चले या नहीं कि इस स्कूल में ऐसे बच्चे पढते थे जिन्होंने, सब बच्चों ने, एक साथ, अपनी-अपनी भूगोल की अपनी किताब में एशिया के मुल्कों की फेहरिस्त में यह लिख लिया था-देश -तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. यह जगह जहाँ यह स्कूल है यह दुनिया से कितनी दूर है और यह कितना छोटा स्कूल है. इस गाँव, इस स्कूल के बारे में लोगों को पता ही नहीं है. इस तरह वे कहाँ यह जान पायेंगे कि स्कूल के सब बच्चों ने खुद-ब-खुद लिखा - देश -तिब्बत, राजधानी- ल्हासा. बिना इस परवाह के कि यह आउट ऑफ़ द कोर्स है. वे बस पश्चाताप करना चाहते हैं. ग्याल्त्सो को यह बताना चाहते हैं कि वे उसके साथ हैं. कि वे भी मानते हैं, जो वह और उसका मास्टर मानता है. पता नहीं कभी दुनिया के लोगों को यह बात पता भी चले या नहीं. मास्टर सोचता था. उसने बच्चों से कहा था-  अगर कोई बडा काम किसी छोटी जगह पर हो जाये तो भी वह बडा काम ही होता है. भले कोई उसके बारे में कोई जाने या न जाने, इससे कोई फर्क नहीं पडता. वह एक बडा काम होता है. बच्चों तुमने जो यह काम किया यह बडी बात है. कोई याद रखे या न याद रखे. किसी को पता चले या न पता चले. कोई तरजीह दे या न दे. पर तुम अपनी पूरी जिंदगी याद रखना कि तुमने लिखा था अपनी भूगोल की किताब में, एशिया के देशों की फेहरिस्त में- देश- तिब्बत, राजधानी -ल्हासा. और यह तुमने किया क्योंकि तुम एक तिब्बती से माफी माँगना चाहते थे. यह बडी बात है. इसे सारी जिंदगी याद रखना. - कहता था मास्टर.


                              

 छह 

 बाद में मास्टर ने ग्याल्त्सो को इस बारे में बताया था. ग्याल्त्सो ने भी भूगोल की उन किताबों को पलटकर देखा था. वह पल भर को किताब में लिखे- देश-तिब्बत, राजधानी - ल्हासा को देखता रहा था. फिर मुस्कुराते हुए उसने बच्चों से कहा था - आज से हम सब दोस्त हुए. और दोस्त की पहली सलाह यह है कि यह जो तुमने लिखा- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा यह तो एक नेक बात है और जो मास्टर कहता है कि इसे याद रखना वह भी ठीक है पर इसे इम्तिहान के लिए याद मत करना. इम्तिहान में अगर तुमने एशिया के मुल्कों के नामों में तिब्बत का नाम लिख दिया तो तुम्हारे नंबर कट जायेंगे. इम्तेहान की तैय्यारी के हिसाब से हिंदोस्तान का कोई ऐसा पडोसी मुल्क नहीं है जिसका नाम तिब्बत हो. इम्तेहान के लिए यह तुम्हें याद रखना होगा. इस बार बोर्ड का इम्तेहान है और इस मामले में मास्टर भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता- मुस्कुराते हुए ग्याल्त्सो ने कहा था. उसकी मुस्कान नकली लगती थी. उसके चेहरे पर दर्द की न जाने कौन सी लकीर थी और वह कहता था कि इम्तिहान के लिए इसे याद मत करना. सिर्फ जीवन के लिए इसे याद रखना. मास्टर भी ग्याल्त्सो की बात पर रजामंद था कि इम्तेहान और जीवन के लिए अलग-अलग बातें याद की जाती हैं. जो बात इम्तेहान के लिए याद की जाती है वह जीवन के लिए नहीं होती और जो बात जीवन के लिए याद की जाती है वह इम्तिहान के लिए नहीं होती. देश-तिब्बत, राजधानी- ल्हासा, एक ऐसी बात हुई जो जीवन के लिए याद की जानी है, इम्तेहान के लिए नहीं.


इस तरह ग्याल्त्सो से हमारी भी दोस्ती हुई थी. हमने उसे चीनी,चीनी कहकर चिढाना छोड दिया. स्कूल में जब भी वह आता हम में से कई उसे घेरकर खडे हो जाते. वह हमें दुनिया जहान के किस्से सुनाता. न जाने कहाँ-कहाँ की बातें. वह हमें अजीब-अजीब चीजों के बारे में बताता और हम उसे गौर से सुनते. वह बताता कि उसका गाँव ग्यान्त्से शहर के पास था. कि उसके पास एक सुंदर थांगका याने तिब्बतियन तस्वीर जैसा कुछ है. कि साल का पहला दिन लोजार होता है. कि उसने अनि त्सान्खुंग नुनेरी और चान्गझू के मंदिर देखे हैं. कि सबसे अच्छा गोम्पा जोखांग है और इसके बाद कुम्बुम और दोरजे द्रक. कि हम सब बच्चों को अच्छे हीरो, याने गेजार के माफिक होना चाहिए. कि.... फिर वह कहता कि मैनपाट में खूबसूरत झरने हैं. वहाँ एक जगह है उल्टा पानी. क्या तुम लोगों ने कभी उल्टा बहता पानी देखा है ? किसी नदी में जहाँ वह नीचे से ऊपर को बहता है. मैनपाट में है वह. उसे उल्टा पानी कहते हैं. - वह बताता, बताता कि वहाँ एक मंदिर है बुद्ध का मंदिर, इस इलाके का और दूर-दूर का ऐसा इकलौता बुद्ध का मंदिर.....फिर कहता- तुम सब एक दिन मैनपाट आओ, मैं तुम सबको मोमो खिलवाऊँगा, स्वादिष्ट मजेदार मोमो- वह कहता.


तुम्हारा नाम ग्याल्त्सो क्यों है ग्याल्त्सो ?’


उसी बच्चे ने पूछा जिसने सबसे पहले मास्टर को भूगोल की किताबों में लिखा हुआ- देश- तिब्बत, राजधानी- ल्हासा दिखाया था. जो मास्टर से बेखौफ अपनी बात कहता था.

‘जैसे हर नाम के मतलब होते हैं वैसे ही ग्याल्त्सो का भी मतलब है. ग्याल्त्सो माने समुद्र.’ ग्याल्त्सो ने बताया.

मास्टर अक्सर मैनपाट जाता ही रहता था. वह साईकिल से मैनपाट जाता था. इस तरह सबकी बातों से यह तय हुआ कि इस बार स्काउट की आउटिंग के लिए मैनपाट चलेंगे. सब चलेंगे. सारे बच्चे, मास्टर और गाइड वाली मास्टरनी. ग्याल्त्सो तो वहाँ मिलेगा ही. इस तरह हम सब साइकिलों से मैनपाट गये थे. सुबह चले और शाम को पहुँच गये.

                              

 सात  

तो यह था ही कि बचपन में तिब्बत एक बात थी. एक पाठ था. पाठ जो कि आउट ऑफ़ द कोर्स था. पर जिस पर मास्टर बात करता था. जिस पर बात कर हर किसी को अच्छा लगता था. तिब्बत एक अनुमान था, अँधेरे में उँगलियों की टटोल था तिब्बत, मास्टर की उन बातों का जो कहीं खो जाती थीं, अचानक छूटकर खत्म हो जाती थीं. उन दिनों तिब्बत एक अनिवार्यता थी, मास्टर को सुनने की अनिवार्यता,जो मास्टर के डर से उस गाँव की उस क्लास में फैल जाती थी. तिब्बत का मतलब था भूगोल की किताबों में लिखा- देश -तिब्बत, राजधानी - ल्हासा - जिसके मार्फत ग्याल्त्सो से दोस्ती हुई, जिसके मार्फत मास्टर को लगता था कि उसके बच्चे दुनिया की सबसे जरुरी पढाई कर रहे हैं.

इस तरह उस दिन मास्टर हमें ग्याल्त्सो की वजह से ही मैनपाट आउटिंग के लिए ले गया था. ग्याल्त्सो से हम सब की दोस्ती के साथ ही कुछ और भी था जिसके लिए वह हम सबको मैनपाट ले आया था. इस काम में उसे गाइड वाली मास्टरनी की मदद की जरुरत भी थी. यह काम न होता तो हम फिर कभी मैनपाट जाते. पर काम इतना जरुरी था कि मास्टर ने जल्दी ही मैनपाट जाने की योजना बना ली थी. हमें बस इतना ही पता था, कि मास्टर को ग्याल्त्सो से कुछ बात करनी थी. और उस बात को करने के लिए वह सबसे पूछ रहा था कि वह, कब और कैसे उससे वह बात करे ? मास्टर की ग्याल्त्सो से दोस्ती बड़ी पुरानी थी, लगभग पंद्रह साल पुरानी और करीब दो दिन पहले से एक दूसरा तिब्बती उससे कहता फिर रहा था कि, वह ग्याल्त्सो से वह बात करे. कि वह उसका सबसे अच्छा दोस्त है. ग्याल्त्सो अकेला है. उसका कोई और है भी नहीं. इसलिए यह बात उसे ही ग्याल्त्सो से करनी चाहिए. बस वही वह बात कर सकता है. कि उसकी बात का असर होगा. कहते हैं बस वही बात मास्टर को ग्याल्त्सो से करनी थी. इसीलिए वह हम सबको अपने साथ मैनपाट ले आया था. ताकि ग्याल्त्सो से उसकी वह बात भी हो जाये और आउटिंग भी हो जाये.

उस रात जब मक्खन की चाय और बिस्कुट खाने के बाद हम सब सोने की तैयारी कर रहे थे, तब वह दूसरा तिब्बती आया था. फिर मास्टर, गाइड वाली मास्टरनी और वह तिब्बती काफी देर तक बात करते रहे. कमरे में पुआल बिछी थी और पुआल पर दरी पड़ी थी, हम सब दरी में अपने-अपने कंबलो में घुसे थे और वे तीनों लालटेन के किनारे बैठे बात कर रहे थे. उन दिनों मैनपाट में लाइट नहीं थी.

‘तुम्हें कब से पता है ?’




                                                                         तरुण भटनागर 

          






Friday, May 22, 2020



कविता क्या है ??
वैचारिक परिचर्चा 
साहित्य की बात समूह से 


वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान 
उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान

सुमित्रानंदन पन्त 




प्रस्तावना
आज अनेक लोग ऐसे हैं जो कविता को सिर्फ जोक या हास्य उक्ति मानते हैं।लेकिन ऐसे अक्षर साधक भी हैं जो अपना समय बिताते हैं काव्य शास्त्र में रमकर।हमने विभिन्न शहरों में रह रहे साहित्यकारों से एक ओनलाइन विमर्श किया और उनसे पूछा कि उनके अनुसार कविता का काम आखिर है क्या।हमें जो विचार मिले,वे अद्भुत रूप से कविता की तासीर पर बातें पेश करते हैं।
आप भी इन्हें गुनिए।जरूर आप तक कविता भी पहुंचेगी और वह कुछ काम भी कर देगीजिससे आप स्वयं को थोड़ा और समृद्ध पाएंगे।

कविता का काम 

कविता एक भाषाई औषधि है।भाषाई वस्तुहै जो भावनाओं में गुंथकर एक मनुष्य के ह्दय से निकल कर अनेक मनुष्यों तक पहुंचती है।पहुंचते ही यह विचार रूप में स्थानापन्न हो जाती है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि कविता से मनुष्य के भावों का रक्षण होता है।कविता एक रस सिक्त वाक्य होता है।यह एक नैसर्गिक भाव है जो तात्कालिक आनंद देता है।
कविता का काम
कविता बस उद्दीपन करती है।लोगों को इतना उकसाने का काम करती है कि वे उठकर खड़े हो जाएं।कविता एक मीठी चुभन भी पैदा करती है।यह दरअसल एक झकझोर है ।मनुष्य के साथ पार्श्व में चलने वाली सहचरी है कविता।यह ऐसी अमूर्त ताकत है जो कई बार महसूस नहीं होती मगर रक्त में,रग में,विचार में शामिल होकर वक्त में शामिल हो जाती है।कविता समय के जैसी है जो हमारे गिर्द रहती है और हम उसका जिक्र केवल अवसरों पर करते हैं।यह साहस की जननी है,सत्य और दर्शन तो है ही मगर हर हाल में भावनाओं की पक्षधर है।इसलिए यह मनुष्य की हितेषी है।इसकी वजह से मनुष्य के स्वभाव की रक्षा होती है।कविता गद्य और पद्य के पैरहन से परे एक संश्लिष्ट विचार होती है जो अति त्वरित आवेग में प्राकृतिक रूप में आकर जिस व्याकुल ह्रदय से निसर्ग करती है उसे अतुलनीय आनंद और मुक्ति देती है।इस सबके बावजूद वह अपनी पूजा नहीं चाहती,अपनी सराहना नहीं चाहती,और शोर नहीं चाहती।वह तो बस चुपचाप अपना असर देखना चाहती है।और यह  चाहती है कि श्रेय न मिले।कविता का काम तो बस उदात्त को विस्तारित करना है।

ब्रज श्रीवास्तव ,विदिशा 



 
ब्रज श्रीवास्तव 





चर्चित कवियत्री मधु सक्सेना ने कहा-


बड़ा कठिन विषय ।कविता के काम को शब्दों में बांधना ?
सवाल तो ये भी कि वो काम भी करती है ? कैसे करती है ?
मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा ।कविता क्या है मुझे तो ये भी नही पता । कविता का क भी पकड़ नही आ रहा फिर क्या कहूँ ।सभी ने अपनी अपनी परिभाषा गढ़ी कविता की ।अज्ञेय ,निराला ,अशोक बाजपेयी , नागार्जुन से आज तक ।आज भी बहुतों ने लिखा पर मुझे सूझ ही नही रहा ।कविता क्या है यही तय नही कर पा रही तो कविता का काम कैसे तय करूँ

जीवन मे आज तक बहुत कविताये पढ़ी .....कुछ लिखी भी.... पता नही मेरी लिखी वो कविता है भी की नही ? किसी के कह देने से मान लूँ क्या ? बहुत से सवालों में उलझी हुई हूँ ।
जब बेचेंन हुई तो लिखा ,जब दुखी हुई तो लिखा ,जब रोई तो लिखा , जब सौंदर्य देखा तो लिखा ....प्रेम किया तो लिखा । क्या यह समझ लूँ की कविता का काम है हँसाना ,रुलाना ,बेचेंन करना या दृष्टि देना ?
नही .....ये भी सही नही लग रहा ।ये सब तो हमारे मानसिक हरकतों का लेखा जोखा है ।कविता तो साथ देने आ जाती है ।
कविता साथ देती है..... ओह यही तो काम है कविता का... साथ देना । शायद यही सच है ।पानी है कविता.. मन के बर्तन के अनुरूप आकार लेती है ।हवा है कविता ....साँस की जरूरत के हिसाब से आ जाती । मिट्टी है कविता गूँथ कर मनपसंद आकार दे दो । आकाश की तरह अनन्त है और धरती की तरह शांत और उर्वरा है कविता ।
अर्थात पानी ,मिट्ठी ,हवा ,आकाश धरती जो काम करे वही कविता का काम है । 

सच ......दे ही दिया आज अपना परिचय कविता ने और उसका काम भी तय हो गया । कविता हर पल साथ देती है ।साथ रहती है । लिखे और अनलिखे के बीच की छूटी जगह में भी उसकी सांस सुनाई देती है ...उस समय भी साथ देती है जब कुछ न लिखा जा रहा हो । कविता का काम विरोधाभास को जोड़ना ।जितना जोड़ना उतना ही तोड़ते जाना । जितना 
क़रीब करना उतना ही दूर ।जितना लिप्त करना उतना ही मुक्त करना ....।
कविता तू अपना काम करती रहना ।साथ देती रहना सदा ।
आमीन ........

   
मधु सक्सेना, रायपुर।


 
मधु सक्सेना 




बाल साहित्यकार और गीतकार राजेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि-

तीन अक्षर का यह शब्द अर्थ और स्वरूप की व्यापकता लिए हुए है। मंत्र, श्लोक, सुभाषित,
नात, रुबाइयाँ, नज्म गजल अतुकांत, तुकांत गीत कपलेट्स  जिसकी जैसी अभिरुचि जहाँ जैसा चलन वैसा काव्य या कविता लिखी जा रही है।
कविता का प्रथम व प्रमुख काम है - समाज से सीधा संवाद। मनुष्य की सोयी संवेदना को जगाकर उसे अपने कर्तव्यों व दायित्वों का बोध कराना। कविता वह अमूर्त है जो समय की नब्ज टटोल कर उसके लक्षण को उजागर कर सके। एवं उसकी पदचाप से पाठक को आगाह कर सके। कविता केवल समस्या को ही इंगित नहीं करती अपितु समाधान की ओर भी इशारा करती है। आक्रोश उपजाती है, तो होश न खोने का आग्रह भी करती है।
वह "कुछ काम करो कुछ काम करो" के लिए प्रेरित करती है। साथ ही चेताती भी है कि "ऐ भाई जरा देख के चलो"। उसकी दृष्टि  "वह तोड़ती पत्थर पर भी है , और,उस ओर भी है जहाँ - "दबे पाँवों से उजाला आ रहा है"
वह ससुराल से पहली बार पिता के घर आयी बिटिया के व्यवहार में आए परिवर्तन पर बात करती हैं, तो एम्बुलेंस के निरंतर बज रहे हार्न में समाहित आशाघोष से भी परिचित कराती है।
कभी गुस्से में कह देती है "और बना लो पाकिस्तान" तो कभी सभी विवादों पर पानी फेरते हुए उद्घोष करती है - "सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा। बसुधैव कुटुम्बकम से भी जोड़ती है, और उस सर्वशक्तिमान से भी ।
और कविता के साथ मन कह उठता है -" ऐ मालिक तेरे बंदे हम..... "
         

राजेन्द्र श्रीवास्तव, विदिशा





 
राजेन्द्र श्रीवास्तव 





नेत्र चिकित्सक और रंगकर्मी के साथ साथ कवि 
विजय पंजवानी कहते हैं-


मुझे तो लगता है कि हर संवेदनशील व्यक्ति जीवन भर कहीं न कहीं कविता की खोज में होता है । 
24 से 28 साल तक की उम्र में मैं घर से लगभग 2500 किलोमीटर दूर, उत्तराखंड में रहा । काम के सिलसिले में मैंने चमोली और अल्मोड़ा ज़िले का गाँव गाँव छाना । वहां हर जगह मुझे कविताएँ मिलीं । कहीं प्रकृति की अद्भुत छटा कहीं वहां के लोगों के दुःख या सुख । इन कविताओं को मैंने सिर्फ देखा ही नहीँ बल्कि ये सब मुझमें इस तरह जज्ब हो गईं कि मैं आज भी फुर्सत के समय में उस काल को याद कर आन्दोलित हो जाता हूँ ।

इस करोना _ काल में मैं अपनी कुछ पसन्दीदा ( जिनकी समालोचकों ने तारीफ़ की है ) देख रहा हूँ । माफ़ करें पर मैं दृढता से कहूँगा कि ये फिल्में मुझे एक अच्छी कविता से भी ज़्यादा आनन्द दे रही हैं । वजह ?? मेरे ख़्याल से इसलिए क्योंकि फिल्में बहुत सारी कलाओं और कलाकारों को मिलाकर उन्हें सही तरीके से  समायोजित कर बनाई जाती हैं ।
आज ही मैंने एक बहुत स्लो और बहुत कम चर्चित फिल्म  " तितली  " देखी ।
ईमानदारी से कहूँ तो कई दृश्य जब से समझ में नहीं आ रहे थे तो उन्हें रिवाइंड करके देखता रहा । इस फिल्म को देखने में धीरज रखना पङा  , पर उससे कई गुना अधिक आनंद मिला । इसी तरह दो _ चार दिन पहले अनुराग कश्यप की गैंग्स आफ वसेपुर फिल्म देखी । सजीव कविता  !! 
जिसमें शब्द  , दृश्य  , और संगीत का रस भी है ।


कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र आए  , हम लोग लगभग दो घंटे अकेले बैठकर बस एक दूसरे को सुनते सुनाते रहे । ये मित्र केवल सातवीं पास हैं  , पर गज़ब के प्रतिभावान  ! सबसे बङी बात _ हम दोनों एक दूसरे से कुछ भी नहीँ छुपाते  ! यह भी एक दो घंटे की आनन्दमयी कविता रही  !

कहीं निर्मल वर्मा जी ने कहा है _ किसी भी पुस्तक को यदि हम बस एक ही बार पढ़ते हैं तो शायद ही ज़्यादा समझ पाते हैं ...मुझे कम से कम अपने लिए यह बात सही लगती है । तो अब मेरी सूची में कुछ महत्वपूर्ण कविताएँ हैं  , जिन्हें फिर से पढ़ना ज़रूरी है ....
यथा _ मैला आंचल , परती परिकथा 
लेकिन दरवाजा ( पंकज विष्ट  )
नौकर की कमीज  ( विनोद कुमार शुक्ल  ) 
रामचरितमानस 
पिता और पुत्र ( तुर्गनेव  ) 
उदय प्रकाश की कहानियाँ 
ज्ञान रंजन जी की कहानियाँ ......

और भी बहुत बहुत कविता संग्रह ।

अन्त में .....
हालांकि यह दृष्टा भी होगा और 
बङबोलापन भी ....मैं अपने मरीज़ों को भी इन दिनों कविताओं की तरह देखने के प्रयास ( हाँ प्रयास  ) में हूँ ।


डा. विजय पंजवानी,धमतरी


 
डॉ विअजय पंजवानी 




एडवोकेट संगीत समीक्षक,और कवि दिनेश मिश्र ने जोर देकर कहा-

कविता अपना काम करती रहती है, बस वो व्यक्त होना चाहिए हमारे अंतरंग से. हमारे जज़्बात हमारी संवेदनाएं और हमारी असहमति को व्यक्त करने का अहम काम करती हैं कविताएं.

कविता उसे रचने वाले कवि के सपनों को पूरा करती है, हम सिर्फ़ लिख कर ही एक ऐसी संतुष्टि पाते हैं, जैसे हमने फील्ड में जाकर कोई काम कर दिया ही.

बस पूरी शिद्दत से इसे समझने वाले होना चाहिये, कविता कभी असहाय नही होती, वो अपना काम करती रहती है, कभी लाइब्रेरी में रखी हुई तो कभी सिरहाने, कभी बुक मार्क से, तो कभी अपने पढ़ने वालों के ज़रिए कहती रहती है अपनी बात.

कभी मजबूर होती है तो कभी मगरूर पर हर जगह उसके रंग बिखरे होती हैं. गरीबी अत्याचार शोषण के विरुद्ध उठाये रखती है अपना परचम.

 कविता मनोरंजन नहीं है, एक विचार है एक संस्कार है एक सलीक़ा है,इस सलीके के बिना कविता कविता नहीं होती.

अपनी लोगों तक पहुँचाने से पहले उसे तराशा जाता है, संवारा जाता है, बस इसके बाद सक्रिय हो जाती है वो अपने आसपास के परिवेश में.

सम्प्रेषणीयता कविता का ख़ास गुण है, तभी वह लोगों तक पहुंच पाती है, कविता अपना काम करती रहती है चुपचाप बिंदास और पूरे अंतरंग के साथ.

दिनेश मिश्र, विदिशा.


दिनेश मिश्र 


युवा कवि और अध्यापक आनंद सौरभ उपाध्याय ने कहा है।

*कविता का काम*
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
 स्वांत: सुखाय तुलसी रघु नाथ गाथा*

एक जगह और देखे तो उन्होंने कहा है-

कीरति भनिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहं हित होई।।

इसे पढ़ने के बाद दो बातें स्पष्ट हो जाती है पहला स्वयं का सुख और दूसरा लोकमंगल की कामना
वही कविता श्रेष्ठ होती है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो
 कविता का काम हमारे हृदय से ही शुरू होता है और दूसरों के हृदय तक पहुंचकर अपने उद्देश्य से बिना भटके सहृदय बना लेना 
अपनी बात के लिए कभी कभी सारे संवेग रोना, हंसना, गाना ,क्रोध करना या फिर कह सकते हैं विभिन्न रसों उत्पन्न कर कविता आसानी से अपना काम करती रहती है
जिसमें रचयिता का पूरा पूरा कार्य सिद्ध होता रहता है

मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है-

केवल मनोरंजन न कभी का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।

यदि देखा जाए तो कविता का मुख्य काम मन को अनुरंजीत करना उसे सुख या आनंद पहुंचाना ही है
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कविता में रसानुभूति का होना प्रमुख उद्देश्य माना है 
वे एक जगह कहते हैं-
कविता का अंतिम लक्ष्य जगत में मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षी करण करके उसके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन ह

कविता का काम तब शुरू होता है
जब रचयिता के मन में खुद की 
प्राप्ति के लिए कुछ इच्छा होती है
जैसे
१-यश प्राप्ति
२-अर्थ प्राप्ति 
३-लोक व्यवहार का ज्ञान
४-अनिष्ट का निवारण (लोकमंगल )
५-आत्मशांति 
६- उपदेश

कविता का काम दूसरे रूप में लें तो हम कह सकते हैं
कविता का काम हर कोई नहीं कर सकता कविता जब उत्पन्न होती है, तो उसके कुछ कारण होते हैं उन्हें हम तीन भागों में बांट सकते हैं

पहला- प्रतिभा
दूसरा -व्युत्पत्ति
तीसरा -अभ्यास
यह तीनों कारण ही कविता को जन्म देने के लिए उत्तरदाई है
तभी कविता मनुष्य के ह्रदय से झंकृत होकर बह निकलती है अपना काम करने के लिए

आनंद सौरभ उपाध्याय,विदिशा


 
आनन्द सौरभ 




भोपाल की कवयत्री अर्चना नायडू ने कहा कि-

कहा जाता है कि लाखों योनियों में भटकने के बाद देव योग से हमें यह मनुष्य शरीर मिला है ।जिसमे  मनुष्य के हृदय में सांसो के स्पंदन के साथ नम भावनाओं और उनकी अनुभूतियों का अनमोल उपहार मिला है ।जो अपने कलात्मक स्वरूप से जब संप्रेषित होती है तब वह हृदय में बस जाती है ।हृदय की यही कोमल भावनाएं अपनी अभिव्यक्ति के लिये कोई न कोई ठोस आधार तलाश कर वही अपना घर बना लेती है।हमारा मनुष्य हृदय हमेशा प्रेम रस,भक्तिरस, वात्सल्य रस,शौर्य रस ,श्रृंगार रस,जैसी अनुभूतियों को हृदय की भूमि में पाता है और उसे पोषित कर पल्लवित भी करता है ।इन्ही रसों की रहस्यानुभूति ही कवित्व का सार है।
दूसरे सरल शब्दों में अगर कहा जाए तो कविता हृदय की कोमल भावनाओं को व्यक्त करने का वह कलात्मक स्वरूप है जो हर हृदय को  छू ले, झंझोड़ दे,द्रवित कर दे ,और लंबे समय तक घर कर जाए ।
शब्दों के श्रृंगार से जज़्बातों को बांधना  और उसे प्रभावशाली बनाना हर कवि के लिये एक चुनौती होती है।
यू तो राम कथा  बुराई पर अच्छाई का सूचक है पर तुलसी दास जी ने चौपाई ,दोहा सोरठा के माध्यम से कविता को सरस और प्रभावशाली बना दिया ।अवधी और ब्रज भाषा के माधुर्य से जन जन की हर मन की कविता बना दिया ।इसीलिये रामचरितमानस आज भी हर कंठ में बसी है।
कविता कोमल हो ,नम हो ,सरस हो ,और मन मे प्रवेश करने का हुनर रखती हो तो वह लम्बे समय तक अपना प्रभाव डालती है ।जैसे" बुंदेले हर बोलों के मुख ,हमने सुनी कहानी थी,वह झांसी वाली रानी थी "आज भी कभी पुरानी नही होती ।हमसब इसमे आज भी रस खोजते हैं ।एक अनवरत आकंठ प्यास होती है कविता।
कभी भावनाओं का ज्वार ,कभी नवरसों का मधुर रस लिए होती है।हमने कई बार इसे अक्षरों से श्रृंगारित किया है।उपमाओं के चमत्कृत प्रभाव को कवित्व रूप में कई बार महसूस किया है।छंद,मुक्त, लय,तुकांत ,अतुकांत रूप में कविता ने हमेशा मन को लुभाया है।
आदि कवि वाल्मीकि के हृदय में क्रोंच वध से उपजी पीड़ा रामायण का रूप ले लेती है कविता ।
सुना है वेदना की लहरों में ,कोमलता के संयम में में ही किलकारी का प्रस्फुटन होता है।शायद इसीलिये यही कहा जाता है कि दर्द की कोख से ही हर उत्तम सृजन का जन्म होता है ,जिसे कवि हृदय लोग  कविता का नाम  दे देते हैं ।



अर्चना नायडू, भोपाल।




 
अर्चना नायडू



विदिशा की हिन्दी की प्रोफेसर और कवियत्री 
वनिता वाजपेयी ने डूब कर कहा-

एक वृहद विषय है 
जहां एक ओर शुक्ल जी कहते हैं कि हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है , वहीं दूसरी ओर धूमिल कहते हैं कि कविता भीड़ में बौखलाए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है
तब यह प्रश्न और जटिल हो जाता है कि कविता का काम क्या है तब धूमिल को ही कोड करते हैं उनके अनुसार कविता अपने अपने युगों का विश्वसनीय गवाह है , इन उक्तियों से यह प्रतीत होता है कि कविता का काम हृदय और बुद्धि के सुंदर समन्वय से ऐसे भावों को प्रकट करना है जो अपने साथ साथ समय का भी दस्तावेज बने 
भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कहा भी है कि , कलम अपनी साध 
मन की बात कोई एकाध 
जो कि तेरी भर न हो तो लिख 
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख 
और इसके बाद फिर हमसे बड़ा तू दिख
अलग अलग धाराओं के विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से काव्य कर्म को निरूपित किया है , इस तरह कविता का कर्म समाज सापेक्ष होता है , ये विभिन्न क्रांतियों की मुखर आवाज रही है, तथा कविता हम सब की वो आवाज़ है जो हमें जीवित होने का अहसास दिलाती है , जो शब्दों के माध्यम से समय की आवाज बनकर अपना एक पक्ष रखती है ।


प्रोफेसर वनिता वाजपेयी, विदिशा


डॉ वनिता वाजपेयी 




युवा कवि पदमनाभ पाराशर ने कहा कि-


बहुत ही गूढ़ विषय है । वस्तुतः इस पर कुछ भी लिखने से पहले हमें यह समझना होगा कि इस प्रश्न के निहितार्थ क्या हैं। पंक्तियों के बीच की सोच को खोज कर लाना होगा , तब ही कुछ कहा जा सकता है। कविता अपने आप में कुछ नहीं है , मात्र शब्दों का सुंदर संयोजन ही है , यदि वह किसी विचार आंदोलन को स्वर नहीं दे पाती है । और कोई भी वैचारिक आंदोलन शून्य में घटित नहीं होता है , यह घटित होता है कवि की चेतन अवस्था के अवचेतन में। इसीलिए कवि सृष्टा बन जाता है और कविता उसका औजार , जिससे वह देश ,काल और परिस्थितियों के तारतम्य में संहार और सृजन के बीज बोता है। इस दृष्टिकोण से कविता का वास्तविक काम जीवन के सम्पूर्ण आयामों जैसे कि मनुष्य , पशु , पक्षी , पेड़ , पौधे , प्रकृति, सभ्यता और संस्कृति आदि की सुखद स्पंदनों का सामगान है तो साथ ही इनकी पीड़ाओं और विडंबनाओं पर कुपित प्रहार भी है। 

यही कारण है कि देश - काल -परिस्थितियों के साथ जैसे जैसे परिवर्तन हुए वैसे वैसे कवि ने कविता के द्वारा सभ्यता को गढ़ा। जब मानव ने व्यवस्थित रहना आरम्भ किया तो कविता वेदों के रूप में जीवन पध्दति के साथ अवतरित हुई, वाल्मीकि के भावों से रामायण की मर्यादा बन गई , गीता के रूप में अध्यात्म बन गई , चन्दबरदाई की रासौ वीरता की गाथा बन गई, कबीर - नानक - दादू -मीरा के हाथों से प्रेम और भक्ति की अमृतवाणी बन गयी, कभी स्वतंत्रता का संग्राम बनी, कभी मेघ के रूप में पिय का संदेश दिया, कभी वंचितों शोषितों की आवाज बनी, कभी सिंहासन परिवर्तन का मार्ग बनी तो कभी आधुनिक व्यवस्था की पीड़ाओं की प्रतिध्वनि बनी।

इस प्रकार से कविता और कवि का काम बहुत व्यापक , बहुत महीन , बहुत जिम्मेदारी भरा है। आधुनकि कविता के प्रमुख कवि ब्रिज श्रीवास्तव जी की एक कविता की पंक्तिया शायद इसे और सरल भाषा में बता पाएँ जिसमें उन्होंने कविता को लालटेन की अनुपम उपमा दी है।

पद्मनाभ ,विदिशा






पद्मनाभ 






प्रतिभा श्रीवास्तव ने कहा कि-

मेरी नजर में कविता एक औषधि की भाँति है,जो परोक्ष व अपरोक्ष रूप से समाज के ह्रदय पर लगे घावों पर मरहम का काम करती है।जब क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल एक कविता के रूप में ढलकर प्रस्तुत होती है तो उसका कितना व्यापक प्रभाव समाज पर पड़ेगा यह कोई नही जानता.....अब रामायण महाकाव्य को ही देखे,इस महाकाव्य ने घर-घर में मर्यादा  को स्थापित कर आज हर घर,हर मुख पर विद्यमान है।कविता हमारे ह्र्दय में किसी शक्ति की तरह विराजमान रहकर,हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके, हमारे जीवन में एक नया जीव डालने का कार्य भी करती है, जिसकी सहायता से हम सृष्टि के प्रत्येक सौन्दर्य को देख मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है.....
कविता हमें हमारे जीवन मूल्यों से मिलवाने का कार्य भी करती है...


प्रतिभा श्रीवास्तव 
अंश





प्रतिभा श्रीवास्तव 




कविता का काम क्या है?


वैसे तो कविता के बारे में भारतीय व पाश्चात्य  बड़े से बड़े आचार्योंकवियों ,साहित्यकारों, लेखको ने  बहुत कुछ कहा है ।पर कविता के लिये कवि की अपनी दृष्टि होती हर कवि के अनुभव, वास्तविकता, परिस्थितियों व समयानुसार कविता अपने कार्य करती है । 
मेरे विचारानुसार कविता प्रेम की भांति है अधूरी हो तब भी पूरी ही रहती है व्यक्ति के मन के  प्रेम भाव , कल्पना ,मन के पंछी का चित्रण कविता में हो पाना  , ही कविता का काम है  बहुत कुछ ऐसा होता है जो कहा नहीं जा सकता अतः उसे शब्दों  के माध्यम से कविता में संजोकर रखा जा सकता है ,,,जो आगे जाकर साहित्य में मिल जाता है । सूर ,मीरा के पद भी उसी प्रेम को दर्शाते है  जिसमें रस ,अलंकार  से सजी कविता है  
*भवानी प्रसाद *की  कविता है *कम नहीं होते दो जब कोई न हो*
 छोटी बात से बड़ी बात को बताना ही कविता का काम होता है । कविता में बिम्ब, प्रतीक ,प्रस्तुत अप्रस्तुत का होना   कविता की सजीवता को बताता है ।कविता जागरूकता लाती है ,प्रेम में निहित है व्यक्ति के मानसिक, व मन के उदगारों को व्यक्त करती है यह प्रेमानुभूति की तरह है  दूर भी ओर पास भी ,,,।कभी पिय के विरह में शब्द बन कर पृष्ठों पर आ जाती है, कभी मां के वात्सल्य का स्नेह बन जाती है  कविता  का काम है प्रेरणा बन लोगो को सही मार्गदर्शन दे। 

डॉ मौसमी परिहार


 
डॉ मौसमी परिहार 




अर्चना श्रीवास्तव ने अपनी बात ऐसे जोड़ा-

कविता शब्दों और भावों का अभिरंजन स्वरूप है । प्रभाव की दृष्टि से कविता के दो रुप हो सकते हैं ....एक कविता वह है जो स्वभाव से बोझिल है,दुरुह है,उलझी हुई है ; जो अपने दुरुह प्रतीकों,खंडित बिम्बों से लदी-फदी टूटती दरकती चलती रहती है और पाठक के भीतर से सीधे गुजरने के स्थान पर हर कदम पर उसकी बौद्धिकता को छेड़ती है कि उसकी उलझन को सुलझाती चले । इस प्रकार इन कविताऐं कोई अन्विति नहीं दे पातीं और न ही समग्र समन्वित प्रभाव से झंकृत ही कर पाती हैं ।इन्हें पढ़ने के बाद एक थकान सी महसूस होती है और पाठक राहत की सांस लेता है कि ...चलो छुट्टी मिली । दूसरी कविता वह है जो पारदर्शी होती है ,सहज होती है ।इसकी गहनता अबूझ नहीं होती है ।वह पाठक के अनुभव और विचार के क्रम से मन मे उतरती चलती है ।ऐसा नहीं है कि इस कविता का सब कुछ एक ही बार पढ़ने मे खुल जाता है,यदि कविता गहन है तो बार बार पढ़ने पर भी उसमे कुछ न कुछ पाठक को देने के लिये बचा रहता है ।और उस बचे हुए को पाने के लिये पाठक उत्सुक होता है,वह बार बार प्रसन्न होकर उस कविता के पास लौटता हैऔर कुछ नया लेकर जाता है ।समग्रतः वह कविता पाठक के भीतर घुमड़ती रहती है ।यही कविता की सार्थकता है 

अर्चना श्रीवास्तव,दुर्ग



अर्चना श्रीवास्तव 





बबीता गुप्ता ने कहा कि-


कवि के मन में स्फुलिंग की तरह कौंधते विचारों की छन्दबद्ध या छन्दमुक्त भावाभिव्यक्ति पाठकों में भी स्फुरण का कार्य करे तो कविता लिखने का काम सार्थक हो जाता हैं। कवि की कल्पना में आते-जाते भाव सूर्योदय-सूर्यास्त से होते हैं ।उमङती-घुमङती सरिता की तरह अंतर्मन में मानवीय संवेदनाओं से हताशा-भरे क्षणों में अपनी सार्थकता बताकर कोमल घास की तरह जहां कोमलता और पाषाण के खंड की तरह सुदृढ होना भी सिखाती हैं,क्योंकि कविता की सजीवता ही समाज में, मनुष्य में जीवन के प्रति समझ और उदारता प्रस्तुत करना सिखाती हैं। चित शांति के लिए आंतरिक भावों को तुकवंदी,ध्वनि समान,लय-ताल संबद्ध, व्याकरणिक वाक्यांश में समानता या विरोधाभास जिस अर्थ और भाव से कविता लिखी जाती हैं और वो पाठकों तक पहुंचें, तो लिखने का उद्देश्य सार्थक हो जाता हैं। लिखने वाले के साथ पढने वाले का मन उसी रस में सरावोर हो जाता हैं। कवि की आत्मा के सौन्दर्य भाव में डूबकर उनके दिलो-दिमाग में हलचल उत्पन्न कर दे।कवि द्वारा पुरोधित शब्दों की सजीवता जीवन के प्रति एक गहरी आसक्ति व वातावरण में समायोजित होकर प्रेरणात्मक प्रचंडममयी धारा बन समाज में, मनुष्य में समझ और उदारता, प्रस्तुत करना सिखाता हैं ।कविता द्वारा मन के भारीपन को,स्नेहसिक्त अभिव्यक्ति से जुड़े संकोच को पाठकगण में आत्मसात करना ही कविता का काम हैं। अभिव्यक्ति तो बहते पानी की धारा को तरह स्वतंत्र हैं, उसे रेखांकित या सीमाओं में बांधना अवश्य निर्वाध हैं पर पाठकों तक पहुँचाने की साहित्य की एक विधा कविता हैं जैसा कि येवजेनी येक्तुशेंको ने कहा हैं-कविता वह पंछी हैं जो हर सीमा का उल्लंघन करती हैं।उद्वेलित मन के भावों की अभिव्यक्ति अर्थात् संकलन समाज की अति आवश्यकता हैं फिर चाहे वो पढने वालों का मनोरंजन करे,रूचिकर लगे,मन को राहत दे,बोझ को हल्का करे या उबाऊपन परोसे।जैसा कि शंभूनाथ ने कहा-ह्रदय की बात ह्रदय तक पहुँचाने का साधन कविता हैं।

बबीता गुप्ता,बिलासपुर,छत्तीसगढ़



बबिता गुप्ता 







विदिशा के शायर शाहिद अली ने फरमाया की-



कविता जीवन या जीवन कविता है। कविता तो कहीं से भी चुपके से आ जाती है। जीवन की बहुत सारी बातें और मन के विचार शब्दों के खूबसूरत लिबास पहनकर कविता का रूप धारण कर लेते हैं।
कविता मां है, कविता बहन है, कविता बेटी है, कविता पत्नी है, और कविता महबूबा है। कविता धरती है, कविता आकाश है, कविता प्रकृति है, जल है, हवा है और जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। परंतु कविता यहीं पर खत्म नहीं होती, कविता मृत्यु के बाद भी है जो आत्मा से होते हुए परमात्मा तक का सफर तय करती है। कविता में कवि की अपनी सोच के साथ साथ उसकी अपनी पहचान होना भी बहुत जरूरी है। अपनी बात के साथ ही कवि की पहुंच आम लोगों तक भी होना चाहिए तभी एक अच्छी और सच्ची कविता का निर्माण हो सकता है। जिसका असर सुनने वालों पर इतना अधिक पड़ता है कि उसका एक एक शब्द उसकी आत्मा को झकझोर देता है उसके जहन की दीवारों को हिला देता है। कविता के कई रूप हो सकते हैं उर्दू शायरी में भी हर किस्म की बात को कहने के लिए एक बयान का तरीका मौजूद है। अल्लाह की तारीफ करना हो तो हम्द कहते हैं। पैगंबर के बारे में लिखा जाता है तो उसे नात कहते हैं। किसी बुजुर्ग की तारीफ में लिखी बात को मन कबत कहा जाता है। और कोई बड़ी वार्ता लिखनी हो तो उसके लिए मसनबी है। छोटी से छोटी बात कहनी हो तो चार लाइनों में रुबाई लिखी जाती है। किसी बड़े आदमी की तारीफ करनी हो तो कसीदा कहा जाता है। लड़के की शादी पर सेहरा, लड़की की शादी पर डोली, मौत पर मरसिया गरज हर मौके पर उर्दू शायरी में कविता की एक किस्म मौजूद है। लेकिन हां अपने महबूब से या अपनी महबूबा से बात करने या उसकी तारीफ बुराई भलाई या उससे लड़ाई या कुछ और कहने या सुनने के लिए उर्दू कविता की एक किस्म सबसे अलग है जिसको कहते हैं गजल। हां गजल में सियासत या किसी और किस्म की बात नहीं करना चाहिए परंतु आज शायरी के इस नए दौर में हर तरह की बात को गजल में कहा जा रहा है। आज के दौर में नए कवि , शायर, और नए कहानी कारों की एक ऐसी जमात पैदा हो चुकी है जो नई सृजन शैली के निर्माण के साथ-साथ उसकी व्याख्या का सलीका भी रखती है। इस दौर में हमारे सोचने और महसूस करने के अंदाज बहुत तेजी के साथ तब्दील हुए हैं और अपनी बात को कहने के लिए कई तरह की विधाएं सामने आई है। जिसमें लिखने वाला कवि, शायर अपनी बात को बहुत ही खूबसूरत अंदाज में बहुत ही सरल ढंग से कह रहा है। और अपने जज्बात लोगों तक पहुंचा रहा है ।
अपनी बात को फिलहाल में यहीं विराम देता हूं और एक नज़्म लिखता हूं .... नज़्म लिखने से पहले इस नज़्म को एक शेर में कहना चाहूंगा की......
तेज आंधी है दीया तुम ना जलाओ बाहर ।।
बुझ गया दीप तो इल्जाम हवा को दोगे ।।
नज़्म यूं हे.......

मैं जरा सी तेज क्या चलने लगी।
कर दिया बदनाम दुनिया ने मुझे।

मै ना होती तो क्या जल पाती शमा।
वक्त से पहले ही मर जाती शमा।
मुझसे ही हर चीज में है जिंदगी।
क्या शजर क्या जानवर क्या आदमी।
मैंने खेतों में फसल को जान दी।
फूल कलियों को नयी मुस्कान दी।
मैं बनी कासिद तेरी आवाज की।
और बनी शाहिद कभी परवाज की।
मैं नहीं दुश्मन चिरागों की मगर।
दुश्मनी मुझसे चिरागों ने करी।
दर्द का एहसास भी करती हूं मैं।
गहरी गहरी सांस भी भरती हूं मैं।
दिख नहीं सकती मगर मैं हूं यहां।
बस खुदा की जात से डरती हूं मैं।
बादलों की रहबरी मैंने करी ।
खुश्क थी धरती हरी मैंने करी।
फिर भी ये इल्जाम मुझ पर ही लगा।
रोनको की तस्करी मैंने करी ।
आसमां भी देखकर खामोश था।
बस मिलन की याद में मदहोश था।
बढ़ रही थी मैं समंदर की तरफ।
इसलिए मुझ में जरा सा जोश था।

रख दिया तुमने दिया क्यों राह में।
हो गई बदनाम दुनिया में हवा ।



शाहिद अली शाहिद
     विदिशा
  ७८६९८८७०७१


शाहिद अली शाहिद





ओमान में ठहरे कविवर ज्योति खरे ने कहा
विचार विस्तार 
कविता का काम है
**************
                                           
 दुनियां में चाहे जितने संदर्भ बदल जायें,
मानव आधुनिकता का लबादा ओढ़ ले, गांव के बाज़ार शापिंग माल में तब्दील हो जाये़ लेकिन सभ्यता, संस्कृति और समाज में संवेदनशीलता में कमी नहीं आयेगी.
मानव के अस्तित्व का संकट,मानव की नियति पर ही आधारित रहा है ,यह बात चाहे छोटी
सी कथा में कही जाये या किसी महाकाव्य में रची जाये,बात वही रहती है,बस बयां करने का अंदाज़ और विचार अनुभव बदल जाते हैं.
इस बदलते अनुभवों,
विचारों का काम कविता करती है.

समकालीन जीवन मूल्य प्रत्येक घंटे के अंतराल में बदलते रहते हैं, यह मूल्यवान
न होकर मूल्यहारा हो जाते हैं,इस अनगढ़ मुल्यहारा जीवन में संस्कृति,समाज और स्थानीयता के
रंग भरना पड़ते है, तभी यथार्थ,के प्रति, मानव मूल्यों के प्रति,घर परिवार और राष्ट्र के प्रति-
सजग एवं सवेदंशील भाव उत्पन्न करने होते है.यह भाव कविता के माध्यम से ही उभारा,संजोया जा सकता है.

समाज की संवेदनशीलता की वृद्धि के लिए इतिहास के आदिकाल से आज तक कलासाधकों और
कवियों ने सक्रिय और विशेष योगदान दिया है.
नृत्य में भावभंगिमा द्वारा, अभिनय में मुखाकृतियों के द्वारा,
संगीत में स्वरलहरियों के द्वारा,
चित्रों में रंगों के
द्वारा और कविता में आँखों से न दिखने वाले अदृश्य रसों, भावो, अनुभूतियों के स्पर्श द्वारा, यह अदृश्य स्पर्श केवल कविता के माध्यम से ही व्यक्त होता है.
कविता हमेशा से ही 
पाठकों, श्रोताओं के शरीर, मन मस्तिष्क को झंकृत करती
आयी हैं.
कविता की प्रतिबद्धता अपने गावं,समाज, संस्कृति पर ही आधारित होती है,इसे होना भी चाहिए क्योंकि कविता के विस्तृत क्षेत्र में ही ये सारे पड़ाव है. 
कविता का अति विशाल,अति गंभीर, और अति सुखद वातावरण हमें
मानव शारीर के अन्दर की आत्मा की सहजता से परिचय करता है.
यदि कविता न होती 
तो मानव का होना या न होना कोई बात नहीं होती,मानव का इतिहास इतना लम्बा न होता और न होती सूक्ष्म की,अदृश्य की पहचान.
कविता का अंकुरण हर मानव में जन्म के साथ ही होता है, माँ की लोरी सुनते, बचपन,
लोरी के माध्यम से ही सीखता है,अनंत तक देख सकने की ललक,उत्साह से भरा जीवन और
चुनौतियों को स्वीकार करने की सहजता.
रंग,धर्मभेद से विमुक्त विचारधारा कविता के माध्यम से ही सीखी जा सकती है

समाज की वर्जनायें, नियंत्रकों का कठोर अनुशासन और वाद,समुदाय,
विचारधारा का संकीर्ण चिंतन मानव के 
कोमल मन को कांटेदार सीमाओं में बांधने के लिए हर संभव प्रयास करता रहा है,तभी देखिए न बचपन में गायकी का
प्रयास करने वाला युवक भविष्य में गला फाड़कर उठते गिरते शेयर के नाम चिल्लाने वाला ब्रोकर बन जाता है
और अन्तरिक्ष को अपनी खोजी नजरों से देखने वाला युवक ग्राम पंचायत के चुनाव में जीतने के लिए नयी पुरानी तिगडम करता नज़र आता है.
न जाने कितने चमकदार हीरे इस दुनियांदारी में कच्चे कांच के टुकड़ों के रूप मे बिखर जाते है.
समाज की इसी विषमता के विरुद्ध- कविता अपना काम करती है, अपना दायित्व निभाती है.

इतिहास पर नज़र डाले तो कविता को हमेशा कुचलने का प्रयास किया गया है,
पर लड़ती रही अपनों से और परायों से.

वर्तमान समय लालसा 
और विडबंनाओं से भरा है  "कविता कर्म" के लिए "स्पेस" का सिरा खोज निकलना मुश्किल होता जा रहा है,ऐसे में कविता
अपनी सधी -मंजी वैचारिक अभिव्यक्ति को उजागर करने में समर्थ है.
            
नये सरोकार और नये  कलेवर के साथ कविता सफ सुथरे विचारों को व्यक्त करने में जुटी है.
            
आपके आँगन में फूलों की बहार हो तो,इसके लिए अपने आँगन में,
फूलों के पौधे रोपनें ही होंगें और अपने
व्यस्तम जीवन के बीच से इन पौधों में लगी रंग बिरंगी कलियों की सुरक्षा के लिए कुछ समय तो निकलना
ही पड़ेगा, जो फूलों की सुगंध से आनंदित होते है,वे सामान्य जन है,और जो फुलों की सुगंध को अपनें चिंतन,अपने जीवन में स्थान देते है,वे महान है, जो फूलों की सुगंध सुरक्षित रख रहे है, जन-जन तक अबाध 
रूप से यह सुगंध पहुंचा रहे हैं,इस कार्य में जो जीवन होम कर रहे है,वे धन्य है "युगसाधक" है. 
निश्चय ही वे इतनी सुगंध छोड़ जाते हैं, कि युगों तक आने वाली पीढियां उस सुगंध को महसूस करती रहें-
यही कविता है
यही कविता का काम है--

"ज्योति खरे"

ओमान

 
ज्योति खरे 



कवियत्री शिवानी ने कहा कि-

कविता क्या है

जहां तक मुझे लगता है कविता हमारा अंतरनाद है! हमारे भीतर प्रतिपल कुछ ना कुछ घटता ही रहता है जो कि बाहरी दुनिया की घटनाओं के फल स्वरुप घटित होता है! पर उससे अप्रभावी भी रहता है! अर्थात बाहरी दुनिया की हलचल को हमारा अंतर्मन अपने शब्दों में एक नए रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करता रहता है। यही पल कविता की उपज के पल होते हैं। 
मुझे लगता है कि कविता मनुष्य की मनुष्यता बनाए रखने में सहयोग होती है। यदि भीतर की खुशी, रोष, अवसाददुख-सुख किसी भी प्रकार से बाहर ना आ पाए तो मनुष्य का जीवित रहना कठिन होता जाएगा! इसलिए उसे स्वयं को मुक्त करने के लिए, व्यक्त करना आवश्यक प्रतीत होता है! कविता मनुष्य को हल्कापन प्रदान करती है! उसे नई ऊर्जा उत्साह से जीवन धारा में लौटने के लिए प्रेरित करती है। इस संबंध में एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगी कि जो बात कविता के रूप में विशेष रूप से कही जा रही है वही कविता नहीं है!कभी-कभी कुछ शब्द स्वत: ही कवित्व लिए हुए होते हैं। जैसे हमारे बड़े बुजुर्गों का उदाहरण, कहावत, मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग करते हुए हमें समझना भी एक सुंदर कविता है!
सर सर बहती हुई हवा , झर झर बहता झरना भी एक कविता है तो शांत  समंदर भी अपने भीतर एक गहरी कविता समेटे हुए है! हमें बस महसूस करना होता है !बात को समाप्त करते हुए बस यही कहना चाहूंगी कि कविता समाज को समाज, मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने की एक भावपूर्ण कड़ी है जो हम सबके भीतर उपस्थित है !बस उसे खोज कर बाहर लाना होता है!


शिवानी, जयपुर

 
शिवानी  




व्यंग्य कार कुमार सुरेश कहते हैं-


कविता क्या है?दिल की गहराई से निकली बेचैन पुकार है! ऐसा कुछ है जिसे कहना तो चाहता हूँ लेकिन  साधारण भाषा वो कहा नहीं जाता। तब कविता में कहने की कोशिश करता हूँ। सच्ची कविता एक टास्क की तरह कभी भी कहीं भी किसी भी मनःस्थिति में नहीं लिखी जा सकती । टास्क बना कर जो कविता लिखी जाती है वो एक निबंध हो सकती है । एक वक्तव्य या एक नारा या एक चालाकी हो सकती है । कविता जब कवि के भीतर उमगती है तो उसे बता देती है कि ये मैं हूँ। कहती हैए मुझे पकड़ लो नहीं तो मैं खो जाऊँगी।  शायद हमेशा के लिये । वक्त रहते न सहेजो तो खो भी जाती है कविता।
हाँ शिल्प जो हैं वो कविता को कवि देता है । अनगढ़ कविता को लोक में जाने के पहले सँवारना पड़ता है । शिल्प अनुभव एवं अध्ययन से परवान चढ़ता है । बिरले ही अपना अलग शिल्प निर्माण कर पाते हैं। रही भाषा तो वो संस्कार से आती है। हमारी भाषा हमारे परिवेष,वातावरण तथा स्वभाव का पता देती है। इस तरह से सच्ची कविता मन की बेचैन पुकार को शिल्प से तराश कर भाषा के वस्त्रों से सजा देने पर बनती है। कविता का काम है संवेदनशील कवि की बात को कलात्मक ढंग से लोक तक सम्प्रेषित करना ताकि संसार में मानवीय गरिमा तथा मानव कल्याण में बढ़ोत्तरी हो।


कुमार सुरेश, भोपाल।


 
कुमार सुरेश 




कल्पना और विचारों का तालमेल:
कविता का काम

कविता उन विचारों को दी हुई वाणी है जिन्हें हम सहज रूप से पाठकों या श्रोताओं को आत्मसात करवा सकते हैं | लगभग एक घंटा भाषण देकर जो बात आप लोगों को समझा नहीं सकते वही बात कविता सिर्फ दो या तीन मिनिट में समझा देती है |कविता कभी काम का बोझ समझकर नहीं लिखी जाती अपितु यह स्फूर्त रूप से किसी झरने की धार की तरह ह्रदय से निकले उद् गार हैं|
काव्य के स्वरूप के लिए जहाँ छंद,रस,अलंकार आवश्यक हैं वहीं अनुभूति की तीव्रता और भावों का उदात्तीकरण भी आवश्यक है | आज छंदों के स्थान पर विचारों को महत्ता दी जाने लगी है पर कविता गद्य रूप में होकर भी उसकी आवश्यक लय माँगती है | बचपन में कहीं पढ़ा था "कविता" क से कल्पना वि से विचार और ता से तालमेल
कल्पना और विचारों का सुंदर तालमेल है कविता|
कविता सौंद्रर्यबोध कराती है पर सौंद्रर्य के साथ-साथ जीवन का सच बताना भी कविता का ही कार्य है | यह सत्य कभी-कभी विद्रूप होता है | कवि जब कविता लिखता है तब उसे आनंद की प्राप्ति होती है,यह अभिव्यक्ति का आनंद होता है| प्रेम या प्रकृति चित्रण से या कभी कोई समस्या समाज के समक्ष रखने से इस आनंद की उत्पत्ति होती है | पढ़ने या सुनने वाले को भी आनंद होता है वह सोचता है बस यही तो मैं कहना चाहता था,सामान्य जन जिस अनुभूति को व्यक्त नहीं कर पाते वह कवि करता है इसलिए तो कवि विशेष है|
कविता दिलों को जोड़ने का कार्य करती है| कविता यदि संपूर्ण मानवता की हितैषी नहीं तो फिर वह कविता नहीं है | अंधेरे में चिराग की तरह यह हमें मार्ग दिखाती है| ह्रदय परिवर्तन का कार्य भी इसके द्वारा संभव है| यह वह चाबी है जो दिल के दरवाजों पर लगे बंद तालों को खोलती है|
प्रेमी-प्रेमिका के लिए यह संवाद है और यही तो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखाती है |
कवि का मन किसी बच्चे के मन जैसा पारदर्शी और निष्पाप होना चाहिए| इसी मन से निकले सुकोमल भाव एक सुंदर सृजन का कार्य कर सकते हैं |
कविता जीवन का वह आवश्यक तत्व है जिसके बगैर जीवन रसहीन हो जाता है
,


डॉ ज्योति गजभिये
नासिक



ज्योति गजभिये 




कविता का काम

      कविता को साहित्य के संदर्भ में व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिए।अर्थात समग्र रूप में फिर चाहे कविता की कोई भी विधा हो बल्कि गद्य ही क्यों न हो कविता का पुट कमोवेश किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता है।साहित्य अभिव्यक्ति का आधार स्तंभ है,वाक या लिपिबद्ध या दोनों विधि उसे स्थायित्व प्रदान करती हैं ।वाक को भी प्रायः लिपिबद्ध किया जाता है जिससे वक़्त जरूरत काम आए या महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में स्थायी रहे व सहेजा जा सके। 
      प्रत्येक मनुष्य के अंतर्मन में एक बेचैनी पाई जाती है चाहे वह साक्षर हो या निरक्षर ।बस अभिव्यक्ति की विधि भिन्न होती है । साक्षर लिखकर सहेज रखता है निरक्षर कंठस्थ रखता है या किसी से लिपिबद्ध करा रखता है ।कविता भी ऐसी ही अन्तर्मन की बेचैनी है,बाहर आने छटपटाती हुई । मन बुद्धि स्वयं चुन लेती है विधा । विधा साहित्य के मानदंडों के तहत है तो ठीक अन्यथा सीख व  श्रम द्वारा मानदंड अंतर्गत आ जाती है या लाई जा सकती है।अंतर्मन की छटपटाहट किसी भी बोली बानी भाषा में अभिव्यक्त होकर रहती है।उसका किसी अन्य मनःस्थितियों से साम्य उसे लोकप्रिय बनाता है जो अन्यान्य व्यक्तियों को प्रभावित करता है । कविता प्रायः गेय होती है छंद इसे लय प्रदान करते हैं।संगीत इसे और प्रभावशाली, संप्रेषित व लोकप्रिय बना देता है।अंतर्मन से निकली बात का प्रभाव पुनः स्वयं से लेकर अन्य श्रोता के अंतर्मन तक न केवल पहुंचता है बल्कि गहरे स्थान ग्रहण कर लेता है जिसकी गूंज स्थायी हो जाती है ।जादू की तरह । जादू सर चढ़कर बोलने वाली विधा है। बारबार या हर बार वही प्रभाव उत्पन्न करती दिलोदिमाग पर छा जाती है । अंर्तमन से इस छटपटाहट का बाहर आना या अभिव्यक्त होना बहुत जरूरी है अन्यथा बेचैनी परेशान किए रहती है।
     कविता का काम व्यक्ति के स्वयं व दूसरे के दुःख सुख को अभिव्यक्त कर सार्वजनिक पटल पर लाना है । जिम्मेदारों से सवाल करना है जिसे हम सापेक्ष नहीं कह पाते या सामने नहीं रख पाते । दूसरे जो सार्वजनिक नहीं है या किसी कोने में या हासिए पर है या दबा छिपा है उसे सामने लाना है।या जो कह नहीं पाते या अभिव्यक्त नहीं कर पाते उन्हें शब्द देने का महत्वपूर्ण एवं अत्यावश्यक कार्य कविता करती है ।कविता मौन को शब्द प्रदान करती है । जो बोल नहीं सकते उनकी जुबान है । चाहे वे संसार की निर्जीव बस्तुएं हों या संजीव ।वाक हों या सवाक ।कविता साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से यह कार्य सुविधाजनक विधि विधान से पूरा करती है अथवा पूरा करने में सफल है।
     कविता का कार्य प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी में नहीं बल्कि प्राकृतिक गुण है जिसे सहज प्राप्त हो वह साधक बने,इच्छा या थोपने का स्थान नहीं ,स्वाभाविक या प्राकृतिक या ईश्वरीय देन कहा जा सकता है।अपने अंतर्मन की व्यथा व किसी अन्य के अंतर्मन की व्यथा को शब्द देना आसान कार्य नहीं कठिन साधना है,अन्य के सुखदुख में भागीदारी है ।
     और यह कार्य कविता बख़ूबी करती है सदियों पूर्व से यह कार्य रैदास,सूर,खुसरो,कबीर से लेकर आधुनिक कवियों जिनके सहस्त्रों नाम हैं,ने सफलतापूर्वक किया ।

                                                   

- मुस्तफ़ा खान ,ग्वालियर।






मुस्तफा खान 



कविता का काम

कविता का काम आदमी को आदमी बनाना है। पर जहाँ यह कह रहा होता हूँ तो यह भी कह रहा होता हूँ कि यह वह संस्कार है जो एक हृदय से दूसरे हृदय तक अंतरित होता चलता और उसी भूमि पर पल्लवित होता है जो उर्वरित हो। जहां का हवा पानी उसके अनुकूल होता है। भाषा को संवेदना का स्पर्श हो तो कविता निसृत होती है। यह हृदय के स्पंदन से अपना राग लेती है। मन से उसकी वेदना, अवचेतन से विचार, पर दृष्टि ही है जो उसे अलग भावभूमि और स्पर्श प्रदान करती है। वहीं श्रोता या पाठक के लिए आनंद का हेतु बन जाती है। कविता करना सहज है या कठिन इसका निर्णय करना सरल नहीं है। हां कविता की समझ है या नहीं यह बताना काफी हद तक कहा जा सकता है।
सच तो यह है कि कविता का जन्म ही मनुष्य की तात्कालिक परिस्थितियों से जन्म लेती है। निराशा हो या नाराजगी हो तब कविता की तीव्रता और मुखरता भी उतनी ही अधिक होती है। पर फिर भी वहाँ कवि ही अपना मंतव्य रखता है।  यहां उस व्यक्ति से महत्वपूर्ण वह कवि है जो उसके चेतन में विराजमान है और कविता रच रहा है। वही निराशा को विश्लेषित कर यहा है। वही नाराजगी से छूटने का उपाय बता रहा है। दलित कविता इसी निराशा और नाराजगी का मुखर हो जाना है। करूणा से भीगा कवि रामायण से भी पहले एक श्लोक रच कर पहला कवि बन जाता है। कविता भले ही निराशा से उत्पन्न हुई हो पर वह श्रोता या पाठक को दिशा ही देती है। कविता केवल निराशा मे संबल देती है ऐसा नही पर वह अपने हर प्रारूप मे एक संवेदनशील हृदय को बाध्य करती है कि वह जाने कि उसकी वास्तविकता क्या है। वह अपने समय को देश को और व्यक्तियों को कैसे समझता है।
कविता ने अपने स्वरूप को बदला है शैली को बदला है। अब तक तो मनुष्य भी अपने आचार विचार व्यवहार भाषा आदि सभी स्तरों पर बदला है। वह अब भी प्रेम, मैत्री, सद्भाव, संवेदना और उन तमाम मूल्यों के साथ खडी है जो समाज के लिए आज भी दिग्दर्शक हैं। 

सुधीर देशपांडे, खंडवा

 
सुधीर देशपांडे 




अनिल कुमार शर्मा कहँते  है अगर मैं नहीं लिखता तो एक संवेदनशून्यता का अदृश्य हथियार मेरे भाव की मेरी अभिव्यक्ति की हत्या कर देता और मैं भी उस हत्या दोषी होता- 

कविता एक भाव
जैसे ईश्वर व्याप्त है कण-कण मे , वैसे ही प्रकृति की हर शय में अपने समग्र सौंदर्य के साथ कविता बसी हुई है।
कवि की दृष्टि कहॉं और किस भाग पर पड़ी उसको कवि ने किस भाव के साथ आत्मसात किया और किस भाव से अंतर से शब्द निकल कर लिपि-बद्ध हुऐ या  सिर्फ स्वर ही प्रस्फुटित हो सका ।
जो लिख नहीं सकता कविता वह जीव भी कहता है अपनी वेदना में अपने आनंद में .उमंग में गाता है ,पुचकारता है प्रपोज़ करता है
मोर के नाचने में कविता दिखती है एक लय व मात्रायें नजर आती है ,हर बालक के स्वर में चाहे व जानवर ,पक्षी किसी का हो एक लयबद्ध गान सुनाई देता है 
गार्गी -उम्र दो साल -गाना एक लय 
आ-आ-आ-आ आ-आ-आ-आ 
ऊँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ
कविता के उद्गम को पहचानना आसान नहीं ,वह अकारण भी आ सकती है और कारण के साथ तो लिख ही रहें हैं कवि लेखक ।
कविता बिखरी पड़ी है ब्रह्मांड में 
दृष्टि व भाव के गेज में फ़िट होते ही स्वत: आमद होने लग जाते हैं शब्द और रच जातीं हैं कवितायें 

मैने अपनी पुस्तक ‘पाने खोने के बीच कहीं ‘में कविता के बारे में कुछ ऐसे लिखा 

विवशता
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दिल परेशान है इसलिये लिखता हूँ 
मन पशेमान है इसलिये लिखता हूँ
तू मेरा मेहमान है इसलिये लिखता हूँ
शब्दों में जान है इसलिये लिखता हूँ 
लेखनी जवान है इसलिये लिखता हूँ
मन विचारों की खान है इसलिये लिखता हूँ
ईश्वर मेहरबान है गुरु निगेहबान है 
एक पहचान है इसलिये लिखता हूँ
न लिखने से लेखनी का अपमान है 
इसलिये लिखता हूँ 
एक अहसास है इसलिये लिखता हूँ
समय की मॉंग है सुलग चुकी आग है 
अंतर में क्रदंन है कहीं कुछ बंधन है
ये ‘उसका ‘अभिनन्दन है
विचारों का मंथन है 
इसलिये लिखता हूँ 

अनिल कुमार शर्मा 


अनिल कुमार शर्मा ,आगरा 



अनिल कुमार शर्मा 



इन लेखकों के ये विचार मुमकिन है एक पूर्ण परिभाषा नहीं दे पा रहे हों मगर एक विचार को बहुत देर तक साध कर एक यात्रा को दूर तक पहुंचाने का काम तो करते हैं।
आशा है यह परिचर्चा आपको पसंद आई होगी।

प्रवेश सोनी।














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