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आज हम भारतीय साहित्य के आधुनिक युग में है ।
सोशल मीडिया ने इसे एक अलग ऊंचाई दी है ।
facebook ,whatsapp के सूक्ष्म पटल पर साहित्य ने अद्भुत विस्तार पाया है। बातचीत का माध्यम बनी संचार सुविधा ने चेट तक ही सीमित न रह कर सामाजिक, राजनीतिक ,सामायिक विषयों पर भी चर्चा के नए आयाम स्थापित किए हैं। इन सबसे हटकर जो काम हुआ है ,वह है मेल मिलाप व साहित्यिक चर्चा हेतु सम्मेलनों का आयोजन। हाल ही में *साहित्य की बात* समूह का औपचारिक सम्मेलन 18 सितंबर ऐतिहासिक बौद्ध नगरी साँची में संपन्न हुआ ।इस सम्मेलन की विशेष बात यह रही कि इस आयोजन में हर सदस्य ने अपनी जिम्मेदारी समझकर मन से भागीदारी निभाई ।कोई विशेष नहीं कोई सामान्य नहीं सब अपने को अभिव्यक्त करने में मुक्त थे ।आभासी दुनिया से शुरू हुए आभासी अपनेपन में हकीकत में गहरे अपनत्व की मिसाल कायम की। पटल पर चर्चा के दौरान हुए मतभेद की खलिश किसी के चेहरे पर छाया मात्र भी नहीं नजर आई। साहित्य सेवा भाव के साथ माननीय संबंधों की प्रगाढ़ता ने यह सिद्ध कर दिया कि आभासी दुनिया में अब संवेदनाएं सकारात्मक रूप से मुखर हो रही है ।नकारात्मक पहलुओं को विस्मृत कर दें तो whatsapp साहित्य विमर्श का ठोस पायदान साबित हो चुका है ।जैसा कि सम्मेलन में दस्तक समूह के एडमिन श्री अनिल करमेले ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह whatsapp का 10% उपयोग है सोचिए यह प्रतिशत बढ़ेगा तब क्या होगा।
साहित्य की बात समूह के साँची समारोह पर सदस्यों के विचार .... क्या सोचते है वो इस समारोह के बारे में
⚫🔴1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
⚫🔴2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।
⚫🔴3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।
⚫🔴4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।
⚫🔴5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ।
कृ0 सहभागी साथी प्रत्येक बिंदु पर बिंदुवार लिखेंगे तो अच्छा लगेगा ।
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*Aalknanda Sane*
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ?
साँची सम्मिलन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशिष्टता उसका अनौपचारिक होना है. बिना किसी बहुत औपचारिकता के आयोजन की शुरुआत हुई. समूह के बाहर का कोई मुख्य अतिथि,विशेष अतिथि या अध्यक्ष वगैरा न होने से एक मुक्त भाव सबके मन में था. सभीने निर्धारित अनुशासन का पालन किया, बावजूद इसके सब स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे थे, उसी भावना से अभिव्यक्त हो रहे थे.
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ?
जिनके मोबाईल नम्बर हम रोज देखते हैं, उनसे प्रत्यक्ष भेट सबसे बड़ी उपलब्धि थी,साथ ही एक पारिवारिक अनुभूति भी हुई जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है.समागम साहित्य के लिए था , पर उसमें पारस्परिक दूरी कम हुई और यह एक अंतरंग साहित्य समागम की तरह संपन्न हुआ.
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ?
एक तो जब मैं आयोजन स्थल पहुँची , तब वहाँ उपस्थित सभी साथी सदस्य मेरे स्वागतार्थ स्वस्फूर्ति से शामियाने के बाहर तक आ गए और ''ताई, ताई'' कहकर लगभग सभीने मेरे पैर छुए. दूसरे मेरे परिचय के दौरान ब्रज जी ने मेरे प्रति एक विश्वास व्यक्त किया कि मैं जब जब समूह से बाहर हुई, तब तब मेरे द्वारा बताए गए कारण सही और समर्थनीय थे.
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ?
प्रगाढ़ता तो इतनी ही काफी है, क्योंकि अधिक प्रगाढ़ता भी कभी कभी बिगाड़ पैदा करती है.बार बार सम्मिलन होगा तो कुछ सदस्यों के बीच प्रगाढ़ता स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी.
यह सम्मिलन उत्कृष्ट ही था , उसे और अधिक उत्कृष्ट बनाना एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है.कुछ सुझाव हैं :--
कुछ प्रमुख कवियों और समूह सदस्यों की कविताओं पर तथा कुछ प्रसिद्द कविताओं पर आधारित एकाधिक कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं, जिन्हें अलग अलग उप समूह क्रियान्वित करें. यदि अगले सम्मिलन में यह तय होता है तो उसको विस्तार से मैं बता सकती हूँ.
जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, उनके लिए एक मेज पर इंतजाम किया जा सकता है, ताकि वे किताबें बाकी साथी खरीद सकें.मुफ्त में किताब बाँटने का चलन समाप्त करने की दिशा में कम से कम हम एक सार्थक कदम उठाएं.
जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुईं हैं या किसी भी कारण से नहीं हो पा रही हैं , उनकी मदद भी बाकायदा एक समिति बनाकर इस आयोजन के जरिए की जा सकती है. किताबों का अपना महत्व है और वह आज भी कायम है.
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ?
कोई अपेक्षा नहीं थी, क्योंकि मूलतः: मैं यह मानती हूँ कि यह आयोजन सामूहिक था, सबका था. विदिशा के साथी आयोजक नहीं, संयोजक थे. ना वे मेजबान थे और ना ही हम बाहर से पहुँचे सदस्य उनके मेहमान थे.
वैसे भी सब कुछ बेहद व्यवस्थित था. स्थान,कार्यक्रम संयोजन, संचालन,माइक,नाश्ता, खाना सब.जरा सी गड़बड़ तब हुई जब वनिता जी को माइक थमा दिया गया.उनके पास सदस्यों की सूची होती तो और बढ़िया रहता.यह किसी को भी नहीं सूझा, मुझे भी नहीं कि अपने मोबाईल पर साकीबा सम्मिलन समूह खोलकर उनके सामने सूची रख दें. खैर , यह बहुत मामूली बात थी और इतनी छोटी मोटी भूलें तो होती रहती हैं.
यशस्वी सम्मिलन के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.
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Braj Shivastv
विदिशा के साकीबा ने
किया साहित्यकार सम्मेलन.
*सोशल मीडिया का एक सकारात्मक पहलू यह भी हो सकता है कि जिन लोगों को कभी, देखा नहीं,जिनसे कभी मिले नहीं, वो जब आमने सामने हो जायें, और ऐसे मिलें जैसे बरसों की पहचान हो . तो आश्चर्य तो होता ही है*
विगत शनिवार और रविवार को कुछ ऐस ही मंजर हुआ, जब आभासी दुनिया के कलाकारों के आने पर विदिशा के मित्र अपने घरों में आत्मीयता से स्वागत करते रहे.
साकीबा सम्मेलन का आयोजन किया, हमारे नगर के चर्चित युवा कवि, और वाटस एप समूह "साहित्य की बात" समूह के संचालक ब्रज श्रीवास्तव ने विदिशा के साथी साहित्यकारों, श्री दिनेश मिश्र, सुदिन श्रीवास्तव, अविनाश तिवारी, वनिता वाजपेयी, राजेंद्र श्रीवास्तव, उपेन्द्र कालुस्कर, जीवन रजक आदि मित्रों के सहयोग से. संयोजक थे प्रोफेसर संजीव जैन.
साकीबा (साहित्य की बात) समूह की दूसरी वर्षगाँठ का यह सदस्य सम्मेलन विदिशा बासौदा के कवियों की मेजबानी में *साँची स्थित संबोधि होटल में विगत रविवार को संपन्न हुआ, जिसमें कई राज्यों से नामचीन,गंभीर साहित्यकार सम्मिलित हुए. शरद कोकास(दुर्ग) देवीलाल पाटीदार,(भोपाल) अलकनंदा साने(इंदौर) रवीन्द्र प्रजापति मणिमोहन मेहता, डा. पदमा शर्मा(शिवपुरी ) ,चंद्रशेखर श्रीवास्तव,डा. मोहन नागर, दुष्यंत तिवारी(मुंबई) , प्रवेश सोनी(कोटा) , हरिओम राजौरिया, सीमा राजौरिया (अशोकनगर) , मनोज जैन, (भोपाल) अरूणेश शुक्ल,( भोपाल) , सईद अय्यूब ( नई दिल्ली) , अनिल करमेले(भोपाल) , मीना शर्मा (दुर्ग) , सुधीर देशपांडे,(खंडवा) सहित ५० साहित्यकार सम्मिलित हुए. आरंभ में सुदिन श्रीवास्तव के निर्देशन में कुमारी प्रतिष्ठा, ममता, उदित, वैशाली ने, निराला की, और साहिर लुधियानवी की रचना गाकर सांगीतिक प्रस्तुति दी. समस्त सदस्यों ने आत्मीय माहौल में समूह के संस्थापक एडमिन *ब्रज श्रीवास्तव*का राजस्थानी पगड़ी बाँधकर सम्मान किया. इसके बाद
कवि *जीवन रजक* के कविता संग्रह *अहसास*" का लोकार्पण भी हुआ,और सम्मान भी किया गया. ||
तत्पश्चात आयोजित गोष्ठी में
साहित्य के दृश्य पर, चर्चा में, दिनेश मिश्र, उदय ढोली, सुरेन्द्र कुशवाहा, सहित आगंतुकों ने विचार व्यक्त करते हुए विमर्श में समकालीन चिंताओं के साथ रचनात्मकता की ज़रूरत पर जोर दिया गया. तत्पश्चात सभी सदस्य बौद्ध स्मारक के लिए विश्व प्रसिद्ध सांची के स्तूप के दर्शन और भ्रमण के लिए गये.समूचे कार्यक्रम का संचालन कवि मणिमोहन मेहता और साकीबा के प्रमुख एडमिन ब्रज श्रीवास्तव ने किया, ||स्तूप पर ही आभार प्रदर्शन शरद कोकास ने किया...
रपट: ब्रज श्रीवास्तव. विदिशा
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Sudhir Deshpande
आभासी दुनिया का अपना एक संसार तो है। बातचीत है। चर्चा है। अभिनय है। रूठना मनाना है। ज्ञान है, हंसी है, ठठ्टा है। कई. बार ये भी सोचा जाता रहा कि क्या अब जीवन इसी आभासी दौर का ही होकर रह जाएगा। क्या इसी तरह अपने सुख दुख बांटे जाएंगे। क्या केवल लिख भर देने से किसी का जन्मदिन शुभ होगा। या मृत्यु पर श्रद्धांजलि कह भर देने से संवेदना व्यक्त होगी। क्या इसे ही सच्चे दुख या सुख की अनुभूति का पर्याय माना जाए। क्या यह जीवन की वास्तविकता नही होने जा रहा। हम अपने कमेण्ट्स पर लाइक्स गिने या कमेण्ट्स की संख्या को अपनी ख्याति का आधार माने। क्या साक्षात मिलने पर भी हम इतने ही नकली नही बनते। मनुष्य का आचरण जितना आभासी है शायद उतना आभासी कम से कम आभासी कही जाने वाली वेबसाइट तो नही है। संचालन अंततः मनुष्य के हाथों में ही है। वही इसे आभासी या वास्तविक बना सकता है। यह उसके आचरण पर ही तो निर्भर है। सगों को मिलते सालों बीत गए पर अंततः वाट्स एप मे जोड दिया। किसी ने आभासी सम्बन्ध बनाए और वास्तविक स्नेह की अद्भुत मिसाल कायम कर दी। कई मित्र अपने विभिन्न वैशिष्ट्यों के साथ एक जगह एकत्र हो गये। अपरिचित होने का भाव नही। मिले तो खुलकर। हंसे तो खुलकर। साहित्य का यह प्रताप था कि और दिनों मे अपने रचनाकर्म और उस पर चर्चा मे तत्व रहने वाले रचनाकार एक दिन यों ही मिले बतियाए चहिए खिलखिलाए। समय दिया। फिर नामवंत ही क्यों न हो। एक परंपरा का उदय है यह। हमारी यात्रा पुनः जडों की ओर लौटने की है। वास्तविक जगत से आभासी जगत को पाना और आभासी जगत से पुनः वास्तविकता को पाना एक बडा परिवर्तन है। साहित्यकारों से ही यह अपेक्षा हो सकती थी। अब यह परिपाटी चल पडी है। आशा है यह यात्रा क्षणिक नही अपने उच्चतर स्तर को प्राप्त करेगी। और यह शुरुआत सृजनपक्ष और साहित्य की बात से हुई यह और भी सुखद है।
आपका
सुधीर देशपांडे
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Saiyad Ayyub Delhi:
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
पूरा साँची सम्मेलन ही विशिष्ट था। इन अर्थो में विशिष्ट कि मुझे साकीबा से जुड़े छः महीने भी नहीं हुये और एक पल के लिये भी नहीं लगा कि मैं किसी नये परिवार में हूँ। विदिशा और भोपाल के ख़ूबसूरत दिल वाले फ़रिश्तों और मल्लिकाओं से मिलना एक विशिष्टता रही। बाहर से आये कई सारे सदस्यों से मिलना एक विशिष्टता रही। यह अफ़सोस भी एक विशिष्टता ही रही कि बहुत से लोग जो वहाँ नहीं आ सके उनसे मिलना नहीं हो सका। मिलने के साथ-साथ लोगों को जानना-समझना, उदयगिरी व साँची का भ्रमण एक विशिष्टता रही इस आयोजन की।
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी।
मेरे लिये आपसी दूरी जैसी कोई चीज़ नहीं थी। आपसी निकटता ही थी जो और घनी हुई।
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया?
यह मुश्किल प्रश्न है। कई सारे अवसरों में से एक को चुनना पड़ेगा। मेरे विस्तृत लेख में वे पल आ जायेंगे।
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है?
संचालन शुरु से अंत तक किसी एक व्यक्ति के हाथ में रहे। स्वागत और सम्मान के समय को सीमित किया जाये। कम से कम एक परिचर्चा का सत्र अवश्य हो। मंच पर सबको समान अवसर मिले चाहे बाहर से आया कोई सदस्य हो या स्थानीय। बाहर से आये सदस्य भी स्थानीय लोगों को सुनना-गुनना चाहते हैं।
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई?
अपेक्षा यह थी कि वे मुझे खर्च बराबर-बराबर बाँटने देंगे पर उन्होंने लगभग सारा ख़र्च उठाया। सारे विदिशा और भोपाल वाले इतने 'ख़राब' थे कि मैं दुआ करता हूँ कि सारे लोग ही इतने ख़राब हो जायें ताकि दुनिया में कुछ और शांति आये। वे इतने केयरिंग थे कि उतना केयरिंग नहीं हुआ ।
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Braj Shivastav:
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
मेरी नजर में तो इस की विशेष बात यह है कि विचारधारा में अलग अलग होते हुए, भी किसी ने किसी को नकारा नहीं,छोटे(हम), मंझले, बड़े साहित्यकार शामिल थे,
उनको जोड़ कर मुझे लगा कि मैं किसी का दुश्मन नहीं हूँ. दूसरी बात प्रबंधन के लिए कुछ मित्रों का उत्साह से सहयोग करने की पहल करना याद रहेगा.
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।⬛
मेरी तो सबसे नजदीकी सी ही थी, तो यह कहूंगा कि और और नजदीकी हुई.इतने दूर से लोग आखिर दूरियाँ कम करने के लिए ही तो आये थे.
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।⬛
वैसे तो ज्ञान प्राप्त कर चुके लोगों को भाव विभोर होते कभी देखा नहीं, पर मैं दो बार बेखुदी में हुआ, 17 की शाम जब मेरे निवास पर शरद जी, सईद जी, पदमा जी, मृगांक जी, मीना जी, प्रवेश जी, और अविनाश तिवारी सहित विदिशा के आत्मीय लोग, गा रहे थे, गपशप कर रहे थे, मिल जुलकर खाना,परोसना, हंसी, ठहाके, ये सब कब कहां हो पाता है,
दूसरी बार पगड़ी /टोपी के पहले सईद भाई का मेरे लिए प्यार से भरे शब्द बोलना, विभोर कर गया.
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।
बस यही है कि जो लोग इसे व्यर्थ समझते हैं वो इसके महत्व को कम न समझें, जो लोग इसे कर रहे हैं वो भी कमतर साहित्यकार नहीं हैं, जो जो वहाँ असाहित्यिक वातावरण रहा, वह नियोजित ही था और यही जरूरी भी था.
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी. 🔷
बहुत सारी थीं, अधिकतर तो पूरी हो गईं, इस बार विदिशा में सुदिन जी और उनकी पत्नी सुषमा जी ने गजब का सहयोग किया, बल्कि खुद ही सब किया. संजीव जी ने भी खूब वक्त दिया, अविनाश तिवारी और दिनेश मिश्र जी का साथ मिला तो विदिशा के हिस्से का काम पूरा हुआ. जीवन रजक, सबसे पहली ही बार मिल रहे थे, फिर भी असहज नहीं रहे. सब लोग बहुत अच्छे हैं मेरे समूह में, जो आ नहीं सके, तो कुछ कुछ अनमनापन रहा मेरे ह्रदय में. काश कम से कम सब सक्रिय साथी आ पाते, सुरेन, मधु, संध्या, शाहनाज़, दीप्ति कुशवाह की बहुत कमी लगती रही,
इस सबके बावजूद मैं अति आनंदित, नहीं होश में हूँ,मैं लिख,पढ़ रहा हूँ, मुझे पता है कि हमारी रचनात्मकता पहले जरूरी है, आखिर हम उसी की वजह से तो संग में हैं इसी के लिये तो साहित्य की बात है.
फिर भी कहूंगा कि
आपका साथ साथ फूलों का..🔷🔷🔷🔷
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Mani Mohan Ji:
साकीबा ऐसा तीसरा समूह है जिससे मैं सबसे पहले जुड़ा / जोड़ा गया।इससे पूर्व बिजूका और काव्यार्थ में था ...तो दो साल से ऊपर हुआ इस समूह में रहते हुए ...अपनी तमाम जेन्युइन व्यस्तताओं और ओढ़ी हुई व्यस्तताओं के बावजूद यह समूह भी मेरे दिल के बहुत करीब है । साकीबा का यह दूसरा सम्मेलन था जो साँची में सम्पन्न हुआ ।गत वर्ष यह विदिशा में हुआ था पर बहुत गिने चुने सदस्य ही मौजूद थे , थोड़ी निराशा भी हुई थी पर साँची के आयोजन की सफलता ने उत्साह से भर दिया ।
तमाम साथियों से रूबरू मिलना जिनमे शरद जी , अय्यूब जी , ताई , प्रवेश जी , मीना जी आदि से पहली ही मुलाकात थी । बाकी से तो कई बार मिलना हुआ ।तो यह उपलब्धि रही । जहां तक इस सम्मेलन से अपेक्षा की बात है तो यह अकादमिक अर्थ में कुछ थी ही नहीं , जब जब ब्रज भाई से बात हुई तो यही था कि एक दिन का आयोजन है इसलिए उसे अकादमिक रूप से भारी न बनाया जाए और मेल मुलाकात और मस्ती तक ही रखा जाए । अगले आयोजनों में जरूर पूरे कार्यक्रम को सत्रों के हिसाब से बाँट कर तथा अलग अलग लोगों को जिम्मेदारी देकर काम करेंगे । साकीबा के ही सभी सदस्यों की रचनाएं भी यदि अगले आयोजन तक किताब रूप में ( सहकारिता के आधार पर ) यदि प्रकाशित हो जाती है और उसका विमोचन इस आयोजन में करते हैं तो यह और आनंद की बात होगी। शरद भाई , संजीव जी यदि इसमें रूचि लें तो यह कोई बड़ी बात भी नहीं 😊
पूरा आयोजन ही मुझे अभिभूत कर गया ।सभी मित्रों के स्नेह के आगे विनत हूँ । साथ ही क्षमा भी कि इस आयोजन की व्यवस्था आदि में अपनी मजबूरियों के चलते जरा भी योगदान न दे पाया ।सम्भव हुआ तो अगले आयोजन में repentance करूँगा 😀🙏🏻
बस एक ही निवेदन है कि आत्मीयता अपनी जगह है पर रचनाओं के मामले में सभी रचनाकार मित्र और आलोचक ..संजीव भाई , अरुणेश , रविन्दर , मोहन नागर , अपनी बात उसी तरह रखते रहें जैसा अब तक करते आये हैं ।
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Sudin Shrivastv
साकीबाइयों का एक सम्मेलन यहाँ हो ये तय होते ही सरगर्मियां तेज़ हो गयीं । समूह में इस विचार को रखा गया । धीरे धीरे सदस्यों की स्वीकृतियां आना शुरू हुयी । स्वीकृतियों के साथ साथ जनाबे ऐड़मिन की ओर से चिंतायें करने का सिलसिला बढ़ चला । अपने अपने स्तर पर स्थान तलाशने का काम शुरू हुआ ।आगंतुक सदस्यों की विशेष इच्छा सांची भ्रमण की थी इसलिए भोजन और आवागमन की सुविधाओं को देखते हुये संबोधि में कार्यक्रम तय हुआ । उधर अतिथियों की सूची हर दिन
अपडेट होती । संजीव जी,प्रवेश जी,और ब्रज भाई के खाते पैसेवाले होने लगे । ब्रज भाई की चिंतायें उजागर होने लगीं । रजक जी,चंद्र जी,तिवारी जी की सक्रिय भूमिका में आने लगे । आयोजन संबंधी बैठकों में सलाह मशविरों का दौर आरंभ हुआ ।प्रवेश जी द्वारा दिये गये फोटो को फ्लेक्स का रूप दिया गया । मुक्ता भाभी का मजाक़ कि"अब इन्हें टेंशन होने लगा "। अतिथियों को कहां रूकना है । इसपर बात होने लगी ।
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*संजीव जैन*
क्या सकीबा सम्मेलन सार्थक हुआ ? हंसना मिलना जुलना दुराव छिपाव यह सब तो जीवन में होता ही रहती है. क्या यही इस सम्मेलन की सार्थकता है? संभवत: नहीं . हमें इससे आगे कुछ नए संदर्भों में इस सम्मेलन की सार्थकता के सूत्र खोजने होंगे.
बहुत गहराई में जाकर मंथन करने पर महसूस हुआ कि यह सम्मेलन हमारे चेहरों की पर्तों को धीरे धीरे खुलते जाने की प्रक्रिया का आरंभ हो सकता है.
प्रत्येक सदस्य अपने अंदर कई तरह के इंसानों को जिंदा रखे हुये होता है, कुछ एेसे भी इंसान हमारे अंदर जिंदा होते हैं जिन्हें हम कतई अपने साथ नहीं चाहते.
हमारी चेतना में बहुत से ज्वालामुखी पलते रहते हैं. वे बाहर आना चाहते हैं पर बहुत तरह के दबाव और अन्य कारक उन्हें बाहर नहीं आने देते. इस तरह के सम्मेलनों में यह संभव होता है. मैंने महसूस किया है कि बहुत से साथी बहुत कुछ अंदर का लावा बाहर निकालकर हल्के होने का प्रयास कर रहे थे और कुछ हद तक संभव भी हुआ.
हमारी चेतना एक धरती की तरह होती है जिसमें निरंतर हलचलें होती रहती हैं. ये हलचलें भूकम्पीय हलचलें भी पैदा करती हैं. इस तरह के प्लेटफार्म इन हलचलों को सतह पर लाने में सहयोग करते हैं. कुछ लोग इन्हें महसूस कर पाते हैं कुछ नहीं यह अलग बात है.
पृथ्वी की सतह की तरह ही हमार व्यक्तित्व होता है. कई परतों से बना रचा हुआ. यह निरंतर निर्मित होता है बाहरी आघातों से और अंदर की हलचलों से. हमें कई बार जमीन के नीचे के जल-जीवन के स्रोत को खोजने के लिए ऊपरी पर्त को कुल्हाडी से खोदकर हटाना पडती है. मुझे लगा कि कुछ साथी इस प्रयास में लगे थे.
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Rajendr Shivastav Ji:
1--साँची सम्मिलन की विशिष्टता व उपलब्धि :--
यह सम्मिलन इस माने में विशिष्ट कि आभासी दुनिया के ऐसे सहभागीयों का आत्मीय समागम जिनमें से अधिकांश पहिले एक दूसरे से कदाचित ही कहीं मिले हों।
स्वस्फूर्त व साझा सहयोग से परस्पर परिचय व साहित्यिक उपलब्धियों पर चर्चा और "समूह की बर्षगाँठ -सबके साथ" मनाने की मंशा लिये हुये।व्हाट्स एप ग्रुप में अभी बहुत कम देखा-सुना गया आयोजन ।
साहित्य जगत की जानी-मानी विभूतियों से साक्षात् होना ,उनके विचार व्यवहार से सीख लेना व सबकी आत्मीयता पा लेना नि:संदेह मेरे लिये बङी उपलब्धि है ,जिसका लाभ मुझे साहित्य सृजन में मिलेगा।
2--इस आयोजन से दूरियाँ कम हुई हैं।
औपचारिकता न के बराबर शेष रह गई।
बैचारिक मत एक होते दिखे। पारस्परिक संवाद परस्पर लगातार होते रहे ।सब ओर केवल और केवल नेह वअपनापन छलक रहा था।मेरी झिझक भी नहीं रोक सकी मुझे सबसे घुलने-मिलने से।
3--मंच पर जब प्रवेश जी द्वारा लाई गई पगड़ी से एडमिन को सम्मानित किया गया ,और देवीलाल जी ने पगङी की गुरुता को इंगित करते हुये पगङी ससम्मान अपने सिर पर धारण की उस समय के उन भावों को स्मरण कर मन आज भी भाव विभोर हो जाता है।
4--एक स्पष्ट रूपरेखा व निश्चित एजेंडा
किसी भी आयोजन की सफलता निश्चित करता है। सहभागीयों के बीच कार्यविभाजन ,यद्यपि यहाँ था और सुगम बनाया जा सकता है।
विदा -वेला में कोई नव संकल्प के साथ आयोजन का समापन ।
5- किसी शायर का एक शेर याद आ रहा है--
उसको क्या हक है कि कतरे से समंदर माँगे,
जिसने सिखलाया नहीं कतरे को दरिया होना ।
मेरी अपेक्षा अनुकूल आयोजन सफल रहा।
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Dinesh Mishra
साकीबा का ये आयोजन एक खुशबु की तरह था, जो अब भी मौज़ूद है, हमारी बातों में और हमारी यादों में। ये एक ऐसा ख़ास कार्यक्रम था जो इब्तदा से लेकर इन्तहा तक कुछ फ़ीसदी वर्कशॉप की मानिंद था, जिसमे सिर्फ़ कविता कहानी और कला पर ही बात नहीं हुई, बल्कि बहुत कुछ ऐसा सीखने मिला, जो किसी ख़ास विषय पर केंद्रित आयोजनों में आमतौर पर नहीं मिलता, जैसे बातचीत का तौर तरीक़ा, व्यवहार और एक बात और की जहां आयोजन में महिलायें और परिवारजन हों , वहां अपने बर्ताब को संतुलित रखने की ऐसी तालीम जो माहौल देखकर बग़ैर दिए ही मिल जाती है।
इस आयोजन ने जिसकी बुनियाद का पहला पत्थर व्हाट्सअप समूह
साकीबा पर सदस्यों की बातचीत से रखा गया हो, व्हाट्सअप यानि वो माध्यम जिसे आभासी और सतही कहकर बदनाम किया जाता रहा है, इस मिथ्या धारणा को दूर करने में सकारात्मक पहल की है।क्योकि सिर्फ़ chating के बाद हुई पहली मुलाक़ात ने ये साबित कर दिया की मिलते ही लगने वाले ठहाके और गर्मजोशी सिर्फ़ सतही नहीं, इसमें हम सबके दिल भी शामिल थे, शायद इसीलिए ये अतिथि साहित्यकार हमारे घर पर आते ही परिवार के सदस्यों में तब्दील हो गए, यही वज़ह है की पत्नी नेहा और बिटिया मीठी कभी शरद भाई की बात करते हैं तो कभी अयूब की याद। ताई का स्नेह भुलाए नहीं भूलता है, तो प्रवेश जी ने मेरी आड़ी तिरछी रेखाओं को चित्र बताकर मुझे आगे कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे ख़ुशी है की fb और whatsap की दुनिया ने मेरे और क़लम के बीच फासले बना दिए थे वो कम होना शुरू हो गए हैं, और फिर कविताएं लिखने लगा हूँ। इस आयोजन की सबसे बड़ी ख़ासियत इसका अनौपचारिक होना भी हैं।
अब बारी है उन भावुक लम्हों की, जिन्हें भुलाना मुश्किल नहीं नामुमकिन भी है, जब सब लोग घर आये तो उनके जाने के बाद बिटिया मीठी ने कहा की पापा आपको इतना खुश इससे पहले कभी नहीं देखा, पदमा जी का साँची में शरद जी से कहना की दिनेश जी की कविताओं का संकलन निकालने के लिए प्रयास करना है। शरद भाई का मीठी से कहना की बेटा मुझे चाचा कहिए, मुझे अंदर तक भिगो गया, क्योंकि मेरे छोटे भाई का नाम भी शरद था, जिसे मैं खो चुका हूँ। ब्रज जी, शरद भाई और मणि जी बार बार मुझसे संकलन निकालने का इसरार कर ही रहे हैं। यहां मैं मोहन नागर जी का ज़िक़्र भी करूँगा, जो मेरी कविताओ को तरज़ीह देते हैं, और लम्बी चर्चा भी करते हैं।
कुल मिलाकर साकीबा आयोजन ने अपनों को अपनों से मिला दिया है, जो बड़ा काम है।
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Meena Sharma:
शब्द दर शब्द ....कैसे कोई उन पलों को लिख सकेगा.
एक-एक व्यक्ति का इंतजार,
देर होने पर कुशल पूछना..लम्बे
समय तक स्टेशन पर इंतजार, मिलने पर दौड़कर गले लगना.
देर तक सिर्फ तस्वीर से साकार रूप
में उतरना...सारे अजनबियों का
सिर्फ सा की बा का परिवार हो जाना.
विदिशा का हर घर हमारा घर हो गया
था.... साहित्य का कार्यक्रम
किसी निजी आयोजन की तरह हो गया था...हर एक को मंच ने सम्मानित किया.हर किसी की सुविधा असुविधा का ख्याल ..
माँ सरस्वती की वँदना से प्रारंभ
होकर ..साकीबा के स्थापना और प्रगति का विवरण...
परिचय ..वक्तव्य..गीत.और आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा, साँची भ्रमण में आपस की सबकी
मुलाकात नेह बँधन बाँध गई.
उम्मीद है इस तरह के आयोजन से लेखक को नये विचार, नया लेखन रचने का नजरिया मिलेगा.
साकीबा परिवार को बधाई.
आयोजन का प्रथम चरण सफल रहा. भविष्य के लिये शुभ कामनाएँ.
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आज हम भारतीय साहित्य के आधुनिक युग में है ।
सोशल मीडिया ने इसे एक अलग ऊंचाई दी है ।
facebook ,whatsapp के सूक्ष्म पटल पर साहित्य ने अद्भुत विस्तार पाया है। बातचीत का माध्यम बनी संचार सुविधा ने चेट तक ही सीमित न रह कर सामाजिक, राजनीतिक ,सामायिक विषयों पर भी चर्चा के नए आयाम स्थापित किए हैं। इन सबसे हटकर जो काम हुआ है ,वह है मेल मिलाप व साहित्यिक चर्चा हेतु सम्मेलनों का आयोजन। हाल ही में *साहित्य की बात* समूह का औपचारिक सम्मेलन 18 सितंबर ऐतिहासिक बौद्ध नगरी साँची में संपन्न हुआ ।इस सम्मेलन की विशेष बात यह रही कि इस आयोजन में हर सदस्य ने अपनी जिम्मेदारी समझकर मन से भागीदारी निभाई ।कोई विशेष नहीं कोई सामान्य नहीं सब अपने को अभिव्यक्त करने में मुक्त थे ।आभासी दुनिया से शुरू हुए आभासी अपनेपन में हकीकत में गहरे अपनत्व की मिसाल कायम की। पटल पर चर्चा के दौरान हुए मतभेद की खलिश किसी के चेहरे पर छाया मात्र भी नहीं नजर आई। साहित्य सेवा भाव के साथ माननीय संबंधों की प्रगाढ़ता ने यह सिद्ध कर दिया कि आभासी दुनिया में अब संवेदनाएं सकारात्मक रूप से मुखर हो रही है ।नकारात्मक पहलुओं को विस्मृत कर दें तो whatsapp साहित्य विमर्श का ठोस पायदान साबित हो चुका है ।जैसा कि सम्मेलन में दस्तक समूह के एडमिन श्री अनिल करमेले ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह whatsapp का 10% उपयोग है सोचिए यह प्रतिशत बढ़ेगा तब क्या होगा।
साहित्य की बात समूह के साँची समारोह पर सदस्यों के विचार .... क्या सोचते है वो इस समारोह के बारे में
⚫🔴1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
⚫🔴2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।
⚫🔴3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।
⚫🔴4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।
⚫🔴5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ।
कृ0 सहभागी साथी प्रत्येक बिंदु पर बिंदुवार लिखेंगे तो अच्छा लगेगा ।
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*Aalknanda Sane*
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ?
साँची सम्मिलन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशिष्टता उसका अनौपचारिक होना है. बिना किसी बहुत औपचारिकता के आयोजन की शुरुआत हुई. समूह के बाहर का कोई मुख्य अतिथि,विशेष अतिथि या अध्यक्ष वगैरा न होने से एक मुक्त भाव सबके मन में था. सभीने निर्धारित अनुशासन का पालन किया, बावजूद इसके सब स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे थे, उसी भावना से अभिव्यक्त हो रहे थे.
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ?
जिनके मोबाईल नम्बर हम रोज देखते हैं, उनसे प्रत्यक्ष भेट सबसे बड़ी उपलब्धि थी,साथ ही एक पारिवारिक अनुभूति भी हुई जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है.समागम साहित्य के लिए था , पर उसमें पारस्परिक दूरी कम हुई और यह एक अंतरंग साहित्य समागम की तरह संपन्न हुआ.
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ?
एक तो जब मैं आयोजन स्थल पहुँची , तब वहाँ उपस्थित सभी साथी सदस्य मेरे स्वागतार्थ स्वस्फूर्ति से शामियाने के बाहर तक आ गए और ''ताई, ताई'' कहकर लगभग सभीने मेरे पैर छुए. दूसरे मेरे परिचय के दौरान ब्रज जी ने मेरे प्रति एक विश्वास व्यक्त किया कि मैं जब जब समूह से बाहर हुई, तब तब मेरे द्वारा बताए गए कारण सही और समर्थनीय थे.
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ?
प्रगाढ़ता तो इतनी ही काफी है, क्योंकि अधिक प्रगाढ़ता भी कभी कभी बिगाड़ पैदा करती है.बार बार सम्मिलन होगा तो कुछ सदस्यों के बीच प्रगाढ़ता स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी.
यह सम्मिलन उत्कृष्ट ही था , उसे और अधिक उत्कृष्ट बनाना एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है.कुछ सुझाव हैं :--
कुछ प्रमुख कवियों और समूह सदस्यों की कविताओं पर तथा कुछ प्रसिद्द कविताओं पर आधारित एकाधिक कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं, जिन्हें अलग अलग उप समूह क्रियान्वित करें. यदि अगले सम्मिलन में यह तय होता है तो उसको विस्तार से मैं बता सकती हूँ.
जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, उनके लिए एक मेज पर इंतजाम किया जा सकता है, ताकि वे किताबें बाकी साथी खरीद सकें.मुफ्त में किताब बाँटने का चलन समाप्त करने की दिशा में कम से कम हम एक सार्थक कदम उठाएं.
जिन साथियों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुईं हैं या किसी भी कारण से नहीं हो पा रही हैं , उनकी मदद भी बाकायदा एक समिति बनाकर इस आयोजन के जरिए की जा सकती है. किताबों का अपना महत्व है और वह आज भी कायम है.
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई ?
कोई अपेक्षा नहीं थी, क्योंकि मूलतः: मैं यह मानती हूँ कि यह आयोजन सामूहिक था, सबका था. विदिशा के साथी आयोजक नहीं, संयोजक थे. ना वे मेजबान थे और ना ही हम बाहर से पहुँचे सदस्य उनके मेहमान थे.
वैसे भी सब कुछ बेहद व्यवस्थित था. स्थान,कार्यक्रम संयोजन, संचालन,माइक,नाश्ता, खाना सब.जरा सी गड़बड़ तब हुई जब वनिता जी को माइक थमा दिया गया.उनके पास सदस्यों की सूची होती तो और बढ़िया रहता.यह किसी को भी नहीं सूझा, मुझे भी नहीं कि अपने मोबाईल पर साकीबा सम्मिलन समूह खोलकर उनके सामने सूची रख दें. खैर , यह बहुत मामूली बात थी और इतनी छोटी मोटी भूलें तो होती रहती हैं.
यशस्वी सम्मिलन के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.
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Braj Shivastv
विदिशा के साकीबा ने
किया साहित्यकार सम्मेलन.
*सोशल मीडिया का एक सकारात्मक पहलू यह भी हो सकता है कि जिन लोगों को कभी, देखा नहीं,जिनसे कभी मिले नहीं, वो जब आमने सामने हो जायें, और ऐसे मिलें जैसे बरसों की पहचान हो . तो आश्चर्य तो होता ही है*
विगत शनिवार और रविवार को कुछ ऐस ही मंजर हुआ, जब आभासी दुनिया के कलाकारों के आने पर विदिशा के मित्र अपने घरों में आत्मीयता से स्वागत करते रहे.
साकीबा सम्मेलन का आयोजन किया, हमारे नगर के चर्चित युवा कवि, और वाटस एप समूह "साहित्य की बात" समूह के संचालक ब्रज श्रीवास्तव ने विदिशा के साथी साहित्यकारों, श्री दिनेश मिश्र, सुदिन श्रीवास्तव, अविनाश तिवारी, वनिता वाजपेयी, राजेंद्र श्रीवास्तव, उपेन्द्र कालुस्कर, जीवन रजक आदि मित्रों के सहयोग से. संयोजक थे प्रोफेसर संजीव जैन.
साकीबा (साहित्य की बात) समूह की दूसरी वर्षगाँठ का यह सदस्य सम्मेलन विदिशा बासौदा के कवियों की मेजबानी में *साँची स्थित संबोधि होटल में विगत रविवार को संपन्न हुआ, जिसमें कई राज्यों से नामचीन,गंभीर साहित्यकार सम्मिलित हुए. शरद कोकास(दुर्ग) देवीलाल पाटीदार,(भोपाल) अलकनंदा साने(इंदौर) रवीन्द्र प्रजापति मणिमोहन मेहता, डा. पदमा शर्मा(शिवपुरी ) ,चंद्रशेखर श्रीवास्तव,डा. मोहन नागर, दुष्यंत तिवारी(मुंबई) , प्रवेश सोनी(कोटा) , हरिओम राजौरिया, सीमा राजौरिया (अशोकनगर) , मनोज जैन, (भोपाल) अरूणेश शुक्ल,( भोपाल) , सईद अय्यूब ( नई दिल्ली) , अनिल करमेले(भोपाल) , मीना शर्मा (दुर्ग) , सुधीर देशपांडे,(खंडवा) सहित ५० साहित्यकार सम्मिलित हुए. आरंभ में सुदिन श्रीवास्तव के निर्देशन में कुमारी प्रतिष्ठा, ममता, उदित, वैशाली ने, निराला की, और साहिर लुधियानवी की रचना गाकर सांगीतिक प्रस्तुति दी. समस्त सदस्यों ने आत्मीय माहौल में समूह के संस्थापक एडमिन *ब्रज श्रीवास्तव*का राजस्थानी पगड़ी बाँधकर सम्मान किया. इसके बाद
कवि *जीवन रजक* के कविता संग्रह *अहसास*" का लोकार्पण भी हुआ,और सम्मान भी किया गया. ||
तत्पश्चात आयोजित गोष्ठी में
साहित्य के दृश्य पर, चर्चा में, दिनेश मिश्र, उदय ढोली, सुरेन्द्र कुशवाहा, सहित आगंतुकों ने विचार व्यक्त करते हुए विमर्श में समकालीन चिंताओं के साथ रचनात्मकता की ज़रूरत पर जोर दिया गया. तत्पश्चात सभी सदस्य बौद्ध स्मारक के लिए विश्व प्रसिद्ध सांची के स्तूप के दर्शन और भ्रमण के लिए गये.समूचे कार्यक्रम का संचालन कवि मणिमोहन मेहता और साकीबा के प्रमुख एडमिन ब्रज श्रीवास्तव ने किया, ||स्तूप पर ही आभार प्रदर्शन शरद कोकास ने किया...
रपट: ब्रज श्रीवास्तव. विदिशा
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Sudhir Deshpande
आभासी दुनिया का अपना एक संसार तो है। बातचीत है। चर्चा है। अभिनय है। रूठना मनाना है। ज्ञान है, हंसी है, ठठ्टा है। कई. बार ये भी सोचा जाता रहा कि क्या अब जीवन इसी आभासी दौर का ही होकर रह जाएगा। क्या इसी तरह अपने सुख दुख बांटे जाएंगे। क्या केवल लिख भर देने से किसी का जन्मदिन शुभ होगा। या मृत्यु पर श्रद्धांजलि कह भर देने से संवेदना व्यक्त होगी। क्या इसे ही सच्चे दुख या सुख की अनुभूति का पर्याय माना जाए। क्या यह जीवन की वास्तविकता नही होने जा रहा। हम अपने कमेण्ट्स पर लाइक्स गिने या कमेण्ट्स की संख्या को अपनी ख्याति का आधार माने। क्या साक्षात मिलने पर भी हम इतने ही नकली नही बनते। मनुष्य का आचरण जितना आभासी है शायद उतना आभासी कम से कम आभासी कही जाने वाली वेबसाइट तो नही है। संचालन अंततः मनुष्य के हाथों में ही है। वही इसे आभासी या वास्तविक बना सकता है। यह उसके आचरण पर ही तो निर्भर है। सगों को मिलते सालों बीत गए पर अंततः वाट्स एप मे जोड दिया। किसी ने आभासी सम्बन्ध बनाए और वास्तविक स्नेह की अद्भुत मिसाल कायम कर दी। कई मित्र अपने विभिन्न वैशिष्ट्यों के साथ एक जगह एकत्र हो गये। अपरिचित होने का भाव नही। मिले तो खुलकर। हंसे तो खुलकर। साहित्य का यह प्रताप था कि और दिनों मे अपने रचनाकर्म और उस पर चर्चा मे तत्व रहने वाले रचनाकार एक दिन यों ही मिले बतियाए चहिए खिलखिलाए। समय दिया। फिर नामवंत ही क्यों न हो। एक परंपरा का उदय है यह। हमारी यात्रा पुनः जडों की ओर लौटने की है। वास्तविक जगत से आभासी जगत को पाना और आभासी जगत से पुनः वास्तविकता को पाना एक बडा परिवर्तन है। साहित्यकारों से ही यह अपेक्षा हो सकती थी। अब यह परिपाटी चल पडी है। आशा है यह यात्रा क्षणिक नही अपने उच्चतर स्तर को प्राप्त करेगी। और यह शुरुआत सृजनपक्ष और साहित्य की बात से हुई यह और भी सुखद है।
आपका
सुधीर देशपांडे
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Saiyad Ayyub Delhi:
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
पूरा साँची सम्मेलन ही विशिष्ट था। इन अर्थो में विशिष्ट कि मुझे साकीबा से जुड़े छः महीने भी नहीं हुये और एक पल के लिये भी नहीं लगा कि मैं किसी नये परिवार में हूँ। विदिशा और भोपाल के ख़ूबसूरत दिल वाले फ़रिश्तों और मल्लिकाओं से मिलना एक विशिष्टता रही। बाहर से आये कई सारे सदस्यों से मिलना एक विशिष्टता रही। यह अफ़सोस भी एक विशिष्टता ही रही कि बहुत से लोग जो वहाँ नहीं आ सके उनसे मिलना नहीं हो सका। मिलने के साथ-साथ लोगों को जानना-समझना, उदयगिरी व साँची का भ्रमण एक विशिष्टता रही इस आयोजन की।
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी।
मेरे लिये आपसी दूरी जैसी कोई चीज़ नहीं थी। आपसी निकटता ही थी जो और घनी हुई।
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया?
यह मुश्किल प्रश्न है। कई सारे अवसरों में से एक को चुनना पड़ेगा। मेरे विस्तृत लेख में वे पल आ जायेंगे।
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है?
संचालन शुरु से अंत तक किसी एक व्यक्ति के हाथ में रहे। स्वागत और सम्मान के समय को सीमित किया जाये। कम से कम एक परिचर्चा का सत्र अवश्य हो। मंच पर सबको समान अवसर मिले चाहे बाहर से आया कोई सदस्य हो या स्थानीय। बाहर से आये सदस्य भी स्थानीय लोगों को सुनना-गुनना चाहते हैं।
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी और वह किस सीमा तक पूरी हुई?
अपेक्षा यह थी कि वे मुझे खर्च बराबर-बराबर बाँटने देंगे पर उन्होंने लगभग सारा ख़र्च उठाया। सारे विदिशा और भोपाल वाले इतने 'ख़राब' थे कि मैं दुआ करता हूँ कि सारे लोग ही इतने ख़राब हो जायें ताकि दुनिया में कुछ और शांति आये। वे इतने केयरिंग थे कि उतना केयरिंग नहीं हुआ ।
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Braj Shivastav:
1 - साँची सम्मिलन की विशिष्टता एवं उपलब्धि आप की दृष्टि में क्या रही ।
मेरी नजर में तो इस की विशेष बात यह है कि विचारधारा में अलग अलग होते हुए, भी किसी ने किसी को नकारा नहीं,छोटे(हम), मंझले, बड़े साहित्यकार शामिल थे,
उनको जोड़ कर मुझे लगा कि मैं किसी का दुश्मन नहीं हूँ. दूसरी बात प्रबंधन के लिए कुछ मित्रों का उत्साह से सहयोग करने की पहल करना याद रहेगा.
2 - इस आयोजन से आपसी दूरियां किस सीमा तक निकट आ पायी ।⬛
मेरी तो सबसे नजदीकी सी ही थी, तो यह कहूंगा कि और और नजदीकी हुई.इतने दूर से लोग आखिर दूरियाँ कम करने के लिए ही तो आये थे.
3 - आयोजन में कौन से पल ऐसे रहे जिन्होंने आपको भावविभोर कर दिया ।⬛
वैसे तो ज्ञान प्राप्त कर चुके लोगों को भाव विभोर होते कभी देखा नहीं, पर मैं दो बार बेखुदी में हुआ, 17 की शाम जब मेरे निवास पर शरद जी, सईद जी, पदमा जी, मृगांक जी, मीना जी, प्रवेश जी, और अविनाश तिवारी सहित विदिशा के आत्मीय लोग, गा रहे थे, गपशप कर रहे थे, मिल जुलकर खाना,परोसना, हंसी, ठहाके, ये सब कब कहां हो पाता है,
दूसरी बार पगड़ी /टोपी के पहले सईद भाई का मेरे लिए प्यार से भरे शब्द बोलना, विभोर कर गया.
4 - आयोजन को और प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए आपके क्या सुझाव है ।
बस यही है कि जो लोग इसे व्यर्थ समझते हैं वो इसके महत्व को कम न समझें, जो लोग इसे कर रहे हैं वो भी कमतर साहित्यकार नहीं हैं, जो जो वहाँ असाहित्यिक वातावरण रहा, वह नियोजित ही था और यही जरूरी भी था.
5 - आपकी आयोजकों/आयोजन से क्या क्या अपेक्षा थी. 🔷
बहुत सारी थीं, अधिकतर तो पूरी हो गईं, इस बार विदिशा में सुदिन जी और उनकी पत्नी सुषमा जी ने गजब का सहयोग किया, बल्कि खुद ही सब किया. संजीव जी ने भी खूब वक्त दिया, अविनाश तिवारी और दिनेश मिश्र जी का साथ मिला तो विदिशा के हिस्से का काम पूरा हुआ. जीवन रजक, सबसे पहली ही बार मिल रहे थे, फिर भी असहज नहीं रहे. सब लोग बहुत अच्छे हैं मेरे समूह में, जो आ नहीं सके, तो कुछ कुछ अनमनापन रहा मेरे ह्रदय में. काश कम से कम सब सक्रिय साथी आ पाते, सुरेन, मधु, संध्या, शाहनाज़, दीप्ति कुशवाह की बहुत कमी लगती रही,
इस सबके बावजूद मैं अति आनंदित, नहीं होश में हूँ,मैं लिख,पढ़ रहा हूँ, मुझे पता है कि हमारी रचनात्मकता पहले जरूरी है, आखिर हम उसी की वजह से तो संग में हैं इसी के लिये तो साहित्य की बात है.
फिर भी कहूंगा कि
आपका साथ साथ फूलों का..🔷🔷🔷🔷
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Mani Mohan Ji:
साकीबा ऐसा तीसरा समूह है जिससे मैं सबसे पहले जुड़ा / जोड़ा गया।इससे पूर्व बिजूका और काव्यार्थ में था ...तो दो साल से ऊपर हुआ इस समूह में रहते हुए ...अपनी तमाम जेन्युइन व्यस्तताओं और ओढ़ी हुई व्यस्तताओं के बावजूद यह समूह भी मेरे दिल के बहुत करीब है । साकीबा का यह दूसरा सम्मेलन था जो साँची में सम्पन्न हुआ ।गत वर्ष यह विदिशा में हुआ था पर बहुत गिने चुने सदस्य ही मौजूद थे , थोड़ी निराशा भी हुई थी पर साँची के आयोजन की सफलता ने उत्साह से भर दिया ।
तमाम साथियों से रूबरू मिलना जिनमे शरद जी , अय्यूब जी , ताई , प्रवेश जी , मीना जी आदि से पहली ही मुलाकात थी । बाकी से तो कई बार मिलना हुआ ।तो यह उपलब्धि रही । जहां तक इस सम्मेलन से अपेक्षा की बात है तो यह अकादमिक अर्थ में कुछ थी ही नहीं , जब जब ब्रज भाई से बात हुई तो यही था कि एक दिन का आयोजन है इसलिए उसे अकादमिक रूप से भारी न बनाया जाए और मेल मुलाकात और मस्ती तक ही रखा जाए । अगले आयोजनों में जरूर पूरे कार्यक्रम को सत्रों के हिसाब से बाँट कर तथा अलग अलग लोगों को जिम्मेदारी देकर काम करेंगे । साकीबा के ही सभी सदस्यों की रचनाएं भी यदि अगले आयोजन तक किताब रूप में ( सहकारिता के आधार पर ) यदि प्रकाशित हो जाती है और उसका विमोचन इस आयोजन में करते हैं तो यह और आनंद की बात होगी। शरद भाई , संजीव जी यदि इसमें रूचि लें तो यह कोई बड़ी बात भी नहीं 😊
पूरा आयोजन ही मुझे अभिभूत कर गया ।सभी मित्रों के स्नेह के आगे विनत हूँ । साथ ही क्षमा भी कि इस आयोजन की व्यवस्था आदि में अपनी मजबूरियों के चलते जरा भी योगदान न दे पाया ।सम्भव हुआ तो अगले आयोजन में repentance करूँगा 😀🙏🏻
बस एक ही निवेदन है कि आत्मीयता अपनी जगह है पर रचनाओं के मामले में सभी रचनाकार मित्र और आलोचक ..संजीव भाई , अरुणेश , रविन्दर , मोहन नागर , अपनी बात उसी तरह रखते रहें जैसा अब तक करते आये हैं ।
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Sudin Shrivastv
साकीबाइयों का एक सम्मेलन यहाँ हो ये तय होते ही सरगर्मियां तेज़ हो गयीं । समूह में इस विचार को रखा गया । धीरे धीरे सदस्यों की स्वीकृतियां आना शुरू हुयी । स्वीकृतियों के साथ साथ जनाबे ऐड़मिन की ओर से चिंतायें करने का सिलसिला बढ़ चला । अपने अपने स्तर पर स्थान तलाशने का काम शुरू हुआ ।आगंतुक सदस्यों की विशेष इच्छा सांची भ्रमण की थी इसलिए भोजन और आवागमन की सुविधाओं को देखते हुये संबोधि में कार्यक्रम तय हुआ । उधर अतिथियों की सूची हर दिन
अपडेट होती । संजीव जी,प्रवेश जी,और ब्रज भाई के खाते पैसेवाले होने लगे । ब्रज भाई की चिंतायें उजागर होने लगीं । रजक जी,चंद्र जी,तिवारी जी की सक्रिय भूमिका में आने लगे । आयोजन संबंधी बैठकों में सलाह मशविरों का दौर आरंभ हुआ ।प्रवेश जी द्वारा दिये गये फोटो को फ्लेक्स का रूप दिया गया । मुक्ता भाभी का मजाक़ कि"अब इन्हें टेंशन होने लगा "। अतिथियों को कहां रूकना है । इसपर बात होने लगी ।
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*संजीव जैन*
क्या सकीबा सम्मेलन सार्थक हुआ ? हंसना मिलना जुलना दुराव छिपाव यह सब तो जीवन में होता ही रहती है. क्या यही इस सम्मेलन की सार्थकता है? संभवत: नहीं . हमें इससे आगे कुछ नए संदर्भों में इस सम्मेलन की सार्थकता के सूत्र खोजने होंगे.
बहुत गहराई में जाकर मंथन करने पर महसूस हुआ कि यह सम्मेलन हमारे चेहरों की पर्तों को धीरे धीरे खुलते जाने की प्रक्रिया का आरंभ हो सकता है.
प्रत्येक सदस्य अपने अंदर कई तरह के इंसानों को जिंदा रखे हुये होता है, कुछ एेसे भी इंसान हमारे अंदर जिंदा होते हैं जिन्हें हम कतई अपने साथ नहीं चाहते.
हमारी चेतना में बहुत से ज्वालामुखी पलते रहते हैं. वे बाहर आना चाहते हैं पर बहुत तरह के दबाव और अन्य कारक उन्हें बाहर नहीं आने देते. इस तरह के सम्मेलनों में यह संभव होता है. मैंने महसूस किया है कि बहुत से साथी बहुत कुछ अंदर का लावा बाहर निकालकर हल्के होने का प्रयास कर रहे थे और कुछ हद तक संभव भी हुआ.
हमारी चेतना एक धरती की तरह होती है जिसमें निरंतर हलचलें होती रहती हैं. ये हलचलें भूकम्पीय हलचलें भी पैदा करती हैं. इस तरह के प्लेटफार्म इन हलचलों को सतह पर लाने में सहयोग करते हैं. कुछ लोग इन्हें महसूस कर पाते हैं कुछ नहीं यह अलग बात है.
पृथ्वी की सतह की तरह ही हमार व्यक्तित्व होता है. कई परतों से बना रचा हुआ. यह निरंतर निर्मित होता है बाहरी आघातों से और अंदर की हलचलों से. हमें कई बार जमीन के नीचे के जल-जीवन के स्रोत को खोजने के लिए ऊपरी पर्त को कुल्हाडी से खोदकर हटाना पडती है. मुझे लगा कि कुछ साथी इस प्रयास में लगे थे.
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Rajendr Shivastav Ji:
1--साँची सम्मिलन की विशिष्टता व उपलब्धि :--
यह सम्मिलन इस माने में विशिष्ट कि आभासी दुनिया के ऐसे सहभागीयों का आत्मीय समागम जिनमें से अधिकांश पहिले एक दूसरे से कदाचित ही कहीं मिले हों।
स्वस्फूर्त व साझा सहयोग से परस्पर परिचय व साहित्यिक उपलब्धियों पर चर्चा और "समूह की बर्षगाँठ -सबके साथ" मनाने की मंशा लिये हुये।व्हाट्स एप ग्रुप में अभी बहुत कम देखा-सुना गया आयोजन ।
साहित्य जगत की जानी-मानी विभूतियों से साक्षात् होना ,उनके विचार व्यवहार से सीख लेना व सबकी आत्मीयता पा लेना नि:संदेह मेरे लिये बङी उपलब्धि है ,जिसका लाभ मुझे साहित्य सृजन में मिलेगा।
2--इस आयोजन से दूरियाँ कम हुई हैं।
औपचारिकता न के बराबर शेष रह गई।
बैचारिक मत एक होते दिखे। पारस्परिक संवाद परस्पर लगातार होते रहे ।सब ओर केवल और केवल नेह वअपनापन छलक रहा था।मेरी झिझक भी नहीं रोक सकी मुझे सबसे घुलने-मिलने से।
3--मंच पर जब प्रवेश जी द्वारा लाई गई पगड़ी से एडमिन को सम्मानित किया गया ,और देवीलाल जी ने पगङी की गुरुता को इंगित करते हुये पगङी ससम्मान अपने सिर पर धारण की उस समय के उन भावों को स्मरण कर मन आज भी भाव विभोर हो जाता है।
4--एक स्पष्ट रूपरेखा व निश्चित एजेंडा
किसी भी आयोजन की सफलता निश्चित करता है। सहभागीयों के बीच कार्यविभाजन ,यद्यपि यहाँ था और सुगम बनाया जा सकता है।
विदा -वेला में कोई नव संकल्प के साथ आयोजन का समापन ।
5- किसी शायर का एक शेर याद आ रहा है--
उसको क्या हक है कि कतरे से समंदर माँगे,
जिसने सिखलाया नहीं कतरे को दरिया होना ।
मेरी अपेक्षा अनुकूल आयोजन सफल रहा।
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Dinesh Mishra
साकीबा का ये आयोजन एक खुशबु की तरह था, जो अब भी मौज़ूद है, हमारी बातों में और हमारी यादों में। ये एक ऐसा ख़ास कार्यक्रम था जो इब्तदा से लेकर इन्तहा तक कुछ फ़ीसदी वर्कशॉप की मानिंद था, जिसमे सिर्फ़ कविता कहानी और कला पर ही बात नहीं हुई, बल्कि बहुत कुछ ऐसा सीखने मिला, जो किसी ख़ास विषय पर केंद्रित आयोजनों में आमतौर पर नहीं मिलता, जैसे बातचीत का तौर तरीक़ा, व्यवहार और एक बात और की जहां आयोजन में महिलायें और परिवारजन हों , वहां अपने बर्ताब को संतुलित रखने की ऐसी तालीम जो माहौल देखकर बग़ैर दिए ही मिल जाती है।
इस आयोजन ने जिसकी बुनियाद का पहला पत्थर व्हाट्सअप समूह
साकीबा पर सदस्यों की बातचीत से रखा गया हो, व्हाट्सअप यानि वो माध्यम जिसे आभासी और सतही कहकर बदनाम किया जाता रहा है, इस मिथ्या धारणा को दूर करने में सकारात्मक पहल की है।क्योकि सिर्फ़ chating के बाद हुई पहली मुलाक़ात ने ये साबित कर दिया की मिलते ही लगने वाले ठहाके और गर्मजोशी सिर्फ़ सतही नहीं, इसमें हम सबके दिल भी शामिल थे, शायद इसीलिए ये अतिथि साहित्यकार हमारे घर पर आते ही परिवार के सदस्यों में तब्दील हो गए, यही वज़ह है की पत्नी नेहा और बिटिया मीठी कभी शरद भाई की बात करते हैं तो कभी अयूब की याद। ताई का स्नेह भुलाए नहीं भूलता है, तो प्रवेश जी ने मेरी आड़ी तिरछी रेखाओं को चित्र बताकर मुझे आगे कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे ख़ुशी है की fb और whatsap की दुनिया ने मेरे और क़लम के बीच फासले बना दिए थे वो कम होना शुरू हो गए हैं, और फिर कविताएं लिखने लगा हूँ। इस आयोजन की सबसे बड़ी ख़ासियत इसका अनौपचारिक होना भी हैं।
अब बारी है उन भावुक लम्हों की, जिन्हें भुलाना मुश्किल नहीं नामुमकिन भी है, जब सब लोग घर आये तो उनके जाने के बाद बिटिया मीठी ने कहा की पापा आपको इतना खुश इससे पहले कभी नहीं देखा, पदमा जी का साँची में शरद जी से कहना की दिनेश जी की कविताओं का संकलन निकालने के लिए प्रयास करना है। शरद भाई का मीठी से कहना की बेटा मुझे चाचा कहिए, मुझे अंदर तक भिगो गया, क्योंकि मेरे छोटे भाई का नाम भी शरद था, जिसे मैं खो चुका हूँ। ब्रज जी, शरद भाई और मणि जी बार बार मुझसे संकलन निकालने का इसरार कर ही रहे हैं। यहां मैं मोहन नागर जी का ज़िक़्र भी करूँगा, जो मेरी कविताओ को तरज़ीह देते हैं, और लम्बी चर्चा भी करते हैं।
कुल मिलाकर साकीबा आयोजन ने अपनों को अपनों से मिला दिया है, जो बड़ा काम है।
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Meena Sharma:
शब्द दर शब्द ....कैसे कोई उन पलों को लिख सकेगा.
एक-एक व्यक्ति का इंतजार,
देर होने पर कुशल पूछना..लम्बे
समय तक स्टेशन पर इंतजार, मिलने पर दौड़कर गले लगना.
देर तक सिर्फ तस्वीर से साकार रूप
में उतरना...सारे अजनबियों का
सिर्फ सा की बा का परिवार हो जाना.
विदिशा का हर घर हमारा घर हो गया
था.... साहित्य का कार्यक्रम
किसी निजी आयोजन की तरह हो गया था...हर एक को मंच ने सम्मानित किया.हर किसी की सुविधा असुविधा का ख्याल ..
माँ सरस्वती की वँदना से प्रारंभ
होकर ..साकीबा के स्थापना और प्रगति का विवरण...
परिचय ..वक्तव्य..गीत.और आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा, साँची भ्रमण में आपस की सबकी
मुलाकात नेह बँधन बाँध गई.
उम्मीद है इस तरह के आयोजन से लेखक को नये विचार, नया लेखन रचने का नजरिया मिलेगा.
साकीबा परिवार को बधाई.
आयोजन का प्रथम चरण सफल रहा. भविष्य के लिये शुभ कामनाएँ.
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