Friday, May 3, 2019

पुस्तक समीक्षा "तुरपाई "
लेखक:  ओम नागर 
प्रकाशक: कलमकार मंच , जयपुर  ( राज ०)
समीक्षक: सवाई सिंह शेखावत 

सवाईसिंह शेखावत 

परिचय 
श्री सवाई सिंह शेखावत

जयपुर जिले के ललाणा गांव में  संवत 2003  में जन्मे सवाई सिंह शेखावत  ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक कवि के रूप में की। पिछले लगभग तीस वर्षों से रचनाशील शेखावत ने कुछ कहानियाँ और आलोचनात्मक लेख भी लिखे। उन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी में भी कहानियाँ और ग़ज़लें लिखीं। उनकी पहली राजस्थानी कहानी कूँपळ काफ़ी चर्चित रही और तेलुगू तथा हिन्दी में अनूदित हुई।
उनके पहले दोनों कविता–संग्रह पुरस्कृत हुए।

घर के भीतर घर 1987, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुमनेश जोशी पुरस्कार से तथा पुराना डाकघर और अन्य कविताएँ 1994, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत। उनका तीसरा कविता–संग्रह दीर्घायु हैं मृतक अपनी अनूठी व्यंजनात्मकता के कारण साहित्यिक हलके में खासा चर्चित रहा।
शेखावत ने अनियतकालीन साहित्यिक अख़बार बखत तथा राजस्थान सरकार के विकास विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका राजस्थान विकास का भी कुछ वर्षों तक सम्पादन किया। 

सवाई सिंह शेखावत (फरवरी १३, १९४७) के आठवें कविता संग्रह ‘निज कवि धातु बचाई मैंने (२०१७) को इस वर्ष राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार से सम्मानित





ओम नागर  का तीसरा कविता संग्रह “तुरपाई “ ,जिसमे  प्रेम कविताओं के साथ है गद्य में  कुछ मन की बातें....गद्य और पद्य का यह अनुपम समावेश मीठे झरने का संगीत कानों में गुंजाता है तो  गद्य की गहराई  मानो सागर के अतल में ले जाकर छोड़ देती है ....लो चुनलो जो मन भाये और वहाँ कुछ भी छोड़ने का मन नही होता |

पहली बारिश में धरती सी गंध तुम्हारी साँसों में भी आती है .....जैसे भीगा हो पहली बार प्रेम  की बारिश में मन और सुवासित कर दी हो उसने साँसे | यह सौंधी महक धमक के साथ बस जाती है तन मन में और प्रकृति के साथ एक मेक होकर कवि कहने लगता है कविता |
कविता यूँ तो सायास  नहीं लिखी जा सकती ,लिखने के पहले जी जाती है कविता |बूंद –बूंद प्रेमत्व रिसता है उसके ह्रदय के सोतों में ,द्रग के कोरों से फूटती है सतरंगी आभा जिससे सारा भुवन हो जाता सतरंगी |बुरा ,बुरा नहीं लगता ,अच्छा और अच्छा लगने लगता है ...स्पर्श की माया तो  समूचा रंग ही बदल देती है यही प्रेम की नैसर्गिकता है जिससे सराबोर है संग्रह की तमाम कविताएँ|

तुरपाई ,यानि महीन सिलावट |शब्द शब्द ने बारीक़ बखिये के रूप  में साकार की कविताओं पर समीक्षा लिखी है सवाई सिंह शेखावत जी ने



प्रेम में कवि ओम नागर की नफ़ीस 'तुरपाई'
**********************************************सवाई सिंह शेखावत
प्रकाशन की दुनिया में अपनी सार्थक सहभागिता के ज़रिए तेजी से जगह बनाते कलमकार मंच- जयपुर के बैनर तले कोटा,राजस्थान से युवा कवि ओम नागर का तीसरा कविता-संग्रह आया है-'तुरपाई-प्रेम की कुछ बातें,कुछ कविताएँ' शीर्षक से।शीर्षक पढ़ा तो चौंका कि प्रेम विषयक किसी संकलन का तुरपाई से क्या लेना-देना?लेकिन जब संग्रह उल्टा-पलटा तो अचानक मस्तिष्क में लोक की वह पुरानी उक्ति कौंधी कि-जीवन में कैंची-सा मत बनिए, जो काट-पीट का बायस बनती है।बन सके तो सुई-धागा बनिए जो कपड़ों को फिर से जोड़कर जीवन के लिए ज़रूरी पौशाक सींते हैं।
लेकिन इस उद्यम में भी जोड़ने के लिए सिलाई फिर फिनिशिंग टच देने के लिए तुरपाई का काम किया जाता है।सवाल यह है कि कवि ओम नागर ने यहाँ प्रेम की प्रक्रिया के लिए तुरपाई शब्द का ही चयन क्यों किया?
थोड़ा गहराई में जा कर सोचा तो कवि अभिव्यंजना को लेकर कायल हुआ।सिलाई बेशक़ वस्त्रों को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम करती है,लेकिन तुरपाई उस जुड़ाव का सुघर साक्ष्य है।प्रेम में भी किसी से जुड़े होने का सबूत किंचित दृष्टिगोचर होना अपेक्षित है।
ग़ालिब-'रगों में दौड़ते रहने के हीं नहीं,बल्कि आँख से टपकने वाले लहू के कायल थे'।वस्त्र-विन्यास में भी तुरपाई उसी स्नेह-सूत्र का सलौना साक्ष्य है।
इस संग्रह की दूसरी अनूठी विशेषता प्रेम विषयक कविताओं के साथ प्रेम बाबत कुछ आत्मीय जीवन प्रसंगों का गद्यमय समावेश भी है।डायरी और संस्मरण विधा के मिले-जुले स्वरुप वाले ये प्रसंग संग्रह की पठनीयता और आत्मीयता का विस्तार करते हैं।
पहले ही अंश 'एक बात जो कहनी थी तुम्हें' में हम कवि ओम नागर के गद्य-निकष का नमूना देख सकते हैं।जिसमें प्रकृति का सजीव चित्रण,भावों का अनूठा दीप्त-राग,यूकेलिप्टस जैसे पर्यावरण के नाम पर बदनाम दरख्त में भी प्रिया के नयनों का तीखापन देख सकने ,आषाढ़ी जामुन से रची जीभ का दुर्लभ ज़ायका महसूस करने व बारिश की बूंदों के बाद धरती से उठती सौंधी गंध इस संस्पर्श को जिंदा बनाते हैं।






पहली कविता 'यहाँ सारी संख्या सम हैं, तुम्हारा रूँठना विषम' में 'तुम जो साथ चलो' का विनम्र अनुरोध है।ऐसे संग-साथ में रात को भी सूरज उगा लेने का आश्वासन है।प्रेम में चार शब्द सुनने का आत्मीय आग्रह,होठों के दो से चार होने की निर्दोष ख्वाहिश और ऐसा करते हुए दुनियाई गणित का हल होते-होते फिर से मीठा उलझाव कवि की प्रेम विषयक धारणाओं के तरल संस्पर्शी भावानुकूलन को दर्शाता है।
ओम नागर की इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे टॉलस्टॉय द्वारा गोर्की को दी गई वह सीख भी याद आई जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जीवन जैसा है वैसा रचो कोई सिद्धान्तबाज़ी उसमें मत घुसेड़ो!रचना से सिद्धान्त निकले वह स्वस्थ स्थिति है,किसी सिद्धांत की वेदी पर रचना को शहीद मत करो!'
ओम नागर प्रेम के नैसर्गिक कवि हैं,इसलिए वे उसके भावावेग को कहीं सेंसर नहीं करते।यहाँ तक कि रेल के खचाखच भरे तीसरे दर्ज़े के डिब्बे में भी 'नैनन ही नैनन में हुई रजामंदी' को भी ढूँढ लेते हैं।
'यहाँ रोज़ छूट ही जाता है कुछ न कुछ' के ग़म हैं तो 'तुम तो आत्मा में हो/आत्मा तो अजर-अमर है प्रिये' का आश्वासन भी।सूख गई जूड़े में टाँगी गेहूँ की बालियाँ जैसे देशज बिम्ब हैं तो परवीन शाकिर का 'खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी/उसके चेहरे पे लिखा था लोगों' का कयास भी।कोरा कागज़ और नेल पॉलिश लगी अंगुलियों की नूरानी महक के साथ ही 'तुमने कुछ न कहा और मैं हो गया तुम्हारा' वाली मनुहार भरी कवायद भी।
जहाँ कवि हवा-बादल,धरती-आकाश,
नदी-समंदर,देह-साँस,आँख-रोशनी,छाँव-पेड़,प्यास-जल,
स्वाद-नमक,नींद-सपना,रेखाएँ-हथेली,कीचड़-कमल,ईश्वर-अर्चन,फल-दुआ, अँगुलियाँ-मुट्ठी,कान-प्रेम गीत,डोर-पतंग,काजल-पलक, नाक-खुशबू,कली-भँवरा, अंधेरा-दीपक,लोहा-पारस..जैसे 36 युगल रूपकों में जाता हुआ प्रेम का अनुबंध रचता है।
कवि ओम नागर की इस सुघर तुरपाई में फिर-फिर वे ही प्रेम के ढाई आखर हैं।फूल के सही खिलने का अंदाज़ न तितली को पता होता है न भँवरे को
जैसी प्रेम की सूक्ष्म व्यंजनाएँ हैं।एक लंबी साँस जो अभी-अभी भीतर गई/उसी का छोटा-सा उच्छवास है प्रेम-जैसे सूक्त-वचन हैं।'तुम्हारा साथ यूँ ही बना रहे सदा/तो पल में गुज़र जाएँ बरसों जैसे सिद्ध फार्मूले हैं।और कवि का उत्स यहीं से/जो नदी को दिखाता है समंदर की राह,काले तिल वाली लड़की
प्रेम बचा रहे दरम्यां/बची रहेगी पृथ्वी/आकाश भी बचा रहेगा धरती के मोह में,धरती के कान में कुछ कहने के बहाने बारिश की प्रेम पाती भिजवाता आकाश और समंदर से बाँथ भर मिलने को पहाड़ से मैदान की ओर दौड़ पड़ती नदी जैसे उदाहरण भी जिनके ज़रिए कवि ने प्रेम की तरल-सांद्र निगूढ़ व्यंजना को निरूपित किया है।
धुंध छँटने के बाद धूप बुनती अधेड़ महिला,जो
आज भी स्वेटर बुनने के धैर्य को बचाए हुए है, उजाले से अंधेरे को देखते हुए, सुबह जिस भी स्टेशन पहुँचेगी रेल वहाँ उजाला होगा जैसी उम्मीद, दुनिया के विष को कमतर करने की कोशिश में आज भी जुटे नीलकंठ से कवि-लेखक,धूप की फेरी से छँटता अंधेरा और घट-बढ़ रहा उजास,नए साल की रोटी में पुराने साल के नमक का स्वाद, फिर नमक की अधिक दिनों तक न टिकती स्मृति में बावजूद उसे चखने में लगने वाले बरसों के विरल काव्य अनुभवों को आप इस संग्रह गद्य की गली में टहलते पाएंगे।धर्म की बिना पर बंद होते शहर, ऐसे विडंबनाओं भरे समय मे भी होली के सुरंगे दिनों में सतरंगी इंद्रधनुष खिलाने की जिंदा ख्वाहिश,अपनी ही किसी कविता की तारीफ में आये वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी के फोन की आत्मीय स्मृति तक से कविताएँ गूँथने का हुनर जानते हैं कवि ओमनागर।
कवि आज भी 'प्यार पर जब-जब भी पहरा हुआ है/प्यार उतना ही गहरा हुआ है, जैसे यकीन पर यकीन करता है।उसके यहाँ 'तुमने जैसे ही बात भर से छूना चाही मेरी देह/मेरी भुजाओं में उतर आईँ हजारों-हजार मछलियाँ' का जज्बा बचा है। उधड़े हुए दिल को वह आह भी नज़रों से रफ़ू करने के कौशल में विश्वास करता है।प्यार में बंजारा बने रहने की कवि ज़िद उसे फिर बसने,उजड़ने,फिर-फिर बसने के उसी पुराने सिलसिले की ओर ले जाती है।तेरी याद में कोई ख़त न लिखा जाएगा मुझसे अब,गुड्डे गुड़िया का खेल खेलते पड़ोस वाला लड़का और छोटी संदूक वाली लड़की का हँसना-रोना,बाईसा के बीरे से तारों की चूंदड़ी लाने का प्रचलित लोक अनुरोध और धूप की तुरपाई में निगोड़े इश्क वाले नमक की डिबिया को सनम की गली में फिर ले आने का निहुरा,पाँच पतासियाँ खाकर प्यार में दो दूनी पाँच होने का विरल अनुभव प्रेम में गणित न होने के बावजूद सारे का सारा गणित उसीसे सीखने का सलीका जैसा कितना कुछ है प्रेम के इस अनूठे कवि के यहाँ...
कवि ओमनागर के पिछले कविता-संग्रह 'विज्ञप्ति भर बारिश' की भूमिका में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने लिखा था कि-गाँव की जमीनों पर भूमाफिया के कब्ज़े, बाज़ार से गाँव हाट तक पसरते पाँव,उधर
किसानों की आत्महत्याएँ, सूखते जलाशय जैसे हमारे समय में ये ऐसी आत्मीय कविता है जिसे अपनी देशज बोली-बानी से अटूट सम्बन्धों के बिना नहीं पाया जा सकता। लेकिन एक कवि का अनूठापन किसी दे दिए गए समकालीन अथवा पुराने ट्रेक के विरुद्ध जीवन के विविध अनुभवों की गली में गश्त करना और ज्हाँ पहुँच कर वह अपनी तरह से चीज़ों की फिर से शिनाख्त करना है।प्रेम की बारिश में बूंदों का कोरस गाते हुए कवि ओम नागर इस संग्रह में इश्क के समकालीन सेल्फ़ीनामा तक भी गए हैं।जहाँ 'हम न दरिया में डूबेंगे सनम' का अहद है तो 'कभी तेरी जन्नत का अंधेरा हो' कर प्यार का पूरे का पूरा इंद्रधनुध पाने की तलब भी।
कवि की भाषा का अनूठापन यहाँ यूपीयन हिंदी से इतर हाड़ौती के आत्मीय संस्पर्श से कविताएँ रचने में भी है।प्रेम जैसे आदिम आवेग को कवि ओम नागर ने यहाँ जिस ललित ललाम आत्मीय ढंग से रचा-सिरजा है-यक़ीनन वह रश्क करने जैसा है।

  

ओम नागर 
                                           
                      

ओम नागर
मोबा: 09460677638
ई-मेल: omnagaretv@gmail.com


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